Read this article in Hindi to learn about women empowerment in India.

पूर्ण-प्रभात से पूर्व ब्राह्ममूहूर्त का उषाकाल आता है जो अरुणोदय का सूचक है जिस प्रकार अरुणोदय से नवयुग का प्रारम्भ माना जाता है ठीक उसी प्रकार मानव समाज का अरुणोदय भी महिला सशक्तिकरण में निहित है क्योंकि यही प्रयत्न बीज के रूप में लगकर नवसृजन की ऊषा का संचार करेगा जिसकी पवित्र एवं सर्वोच्च लालिमा स्वर्णमय वातावरण का निर्माण करेगी ।

यह मानव समाज को नई दिशा प्रदान करेगी जिसकी आवश्यकता मानव समाज को सदैव रही है । निर्माण और बाधा का साथ अनन्तकालीन है बाधाएँ रास्ता रोकती हैं यदि उन्हें हटा दिया जाए तो गति को पंख लग जाते हैं । महिला सशक्तिकरण का विषय भी कुछ ऐसा ही है ।

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हमारी एतिहासिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक कुप्रथाओं के दंश की पीड़ा को अधिसंख्या महिलाओं ने प्रारम्भ से भोगा है जिसे उसे आज भी झेलना पड़ रहा है । इस सशक्तिकरण का उद्देश्य महज राजनीति तक सीमित नहीं है अपितु इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है ।

इसके अन्तर्गत अधिकारों व अवसरों के प्रति जागृति, कानूनी उपाय व उसका क्रियान्वयन, आर्थिक अधिकार सम्पन्नता के लिए आर्थिक सशक्तिकरण, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था, आत्मसम्मान व आत्मविश्वास में वृद्धि के उपाय, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, पोषण एवं अन्य सम्बद्ध सुविधाओं तक महिलाओं की पहुँच आदि सभी विषय आते हैं ।

सशक्तिकरण के क्षेत्र के उपरान्त हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि आखिर सशक्तिकरण का अभिप्राय क्या है- किसी भी विषय पर विचार करने व कुछ लिखने से पूर्व हमें उस विषय की पृष्ठभूमि व अर्थ स्पष्ट होना चाहिए ।

जब हम शक्ति या क्षमता के अधिकार के संदर्भ में महिलाओं को अधिकार एवं कर्तव्य बोध कराते हैं, उन्हें समाज या समुदाय से जुड़े मुद्दों पर निर्णय लेने अथवा नीति लागू करने की क्षमता प्रदान करते है तो यह प्रक्रिया महिला-शक्ति की ओर संकेत करती है ।

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सशक्तिकरण का अभिप्राय शक्ति प्रदान करने में विस्तार पाता हैं । वर्तमान में महिलाओं का स्व विकास उनके सशक्तिकरण को इंगित करता है । समाज में शक्ति-सम्पन्न और शक्तिविहीन व्यक्तियों की पुनर्व्याख्या है, जहाँ शक्ति की नवीन व्यवस्था द्वारा समाज में परिवर्तन देखा जाना है ।

स्त्रियों का सशक्तिकरण उन्हें नए क्षितिज दिखाने का प्रयास है, जिसमें वे नई क्षमताओं को प्राप्त कर स्वयं की नए तरीके से देखेंगी महिलाओं में निहित क्षमताओं को पहचानते हुए महात्मा गांधी ने कहा था- “If courage of the highest type is to be developed, the women of India, are the natural leaders in this regard.” यहाँ भी मुख्य प्रयास उन क्षमताओं को पहचानने व उन्हें उभारने का है । इस बेहतर वातावरण में वे घरेलू शक्ति सम्बन्धों का बेहतर समायोजन करेंगी और घर तथा पर्यावरण में स्वायत्ता की अनुभूति कर सकेंगी ।

महिला सशक्तिकरण का मुख्य पक्ष स्त्रियों के अस्तित्व का अधिकार और समाज द्वारा स्वीकारना है । महिलाओं द्वारा स्वयं के शरीर पर, प्रजनन के क्षेत्र में, आय पर, श्रम शक्ति पर, सम्पत्ति पर, सामुदायिक संसाधनों पर नियन्त्रण कर पाना उनका सबलीकरण है, और यही सशक्तिकरण का उद्देश्य है ।

सशक्तिकरण का एक लक्ष्य है और संपोषित विकास की आवश्यक दशा भी है । स्त्रियों का सामाजिक, राजनैतिक और सार्वजनिक जीवन में प्रतिनिधित्व दक्षता में अभिवृद्धि, कार्यक्षेत्र और अन्यत्र उनके साथ किए जा रहे बुरे व्यवहार की समाप्ति, सामाजिक सुरक्षा की प्राप्ति आदि वे कार्य हैं जिनकी पूर्णता द्वारा सशक्तिकरण का वास्तविक लक्ष्य पाना सम्भव है ।

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1948 में सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र से प्रारम्भ ये प्रयास 2001 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में हमारे सामने आए । महिला सम्मेलन, विचार गोष्ठियों, भाषणों, राष्ट्रीय सेमिनार आदि के द्वारा जारी प्रावधानों से जागृति लाई जा रही है ।

किन्तु यह विचारणीय प्रश्न आज भी यक्ष-प्रश्न की भाँति हमारे सम्मुख है कि 1920 में असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने वाली महिलाएँ, एक जुटता से शराब-बन्दी जैसे कार्य को सफल बनाने वाली महिलाएं, जिन्होंने जेलों में अत्याचार सहे, घरवालों के विरोध पर भी आन्दोलन किए, गोद में बच्चे लिए लाठियों का सामना किया वे आज अशक्त, अंबला, कमजोर कैसे बन गईं ?

1930 में गांधी जी ने कहा था- ”नारी को अबला कहना अधर्म है यह महापाप है जो नारी के विरुद्ध पुरुष द्वारा किया जा सकता है, नारी को किसी भी परिस्थिति में डरना नहीं चाहिए । उसके पास विशाल शक्ति है, वह किसी से कम नहीं ।”

महिला सशक्तिकरण के सन्दर्भ में 1930 में कही गई ये पंक्तियाँ आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं । तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य में स्त्रियों ने अपने सामूहिक प्रयास द्वारा कार्य को सफलता तक पहुँचाया । नारी की नैतिक शक्ति, उसकी इच्छा शक्ति, साहस, बुद्धि व चरित्र की पावनता बड़ी-से-बडी भौतिक शक्ति को परास्त करने की सामर्थ्य रखती है ।

जनसंख्या का गणित और विविध क्षेत्रों में महिलाओं की समग्र भूमिका उन्हें बराबरी का हकदार बनाती है, किन्तु यह विडम्बना ही है कि समाज में उसे आज भी दोयम दर्जा प्राप्त है । स्त्रियाँ दोहरी मानसिकता की जकड़न में छटपटा रही हैं । जिस सामाजिक वातावरण में स्त्री अपना जीवन शिशु, कन्या रूप, पत्नी, माँ के रूप में व्यतीत करती है वह उसे साथ-साथ गमन कर रही प्रतिकूल दशाएँ प्रदान करता है ।

वे उन प्रतिकूलताओं में कैद है जहाँ स्त्री शक्ति स्वरूपा भी है और अबला भी, सहचारी भी है और दासी भी । लिंग केन्द्रीयता समाज की व्यवस्था का अंग है । जहाँ नारी शरीर एक वस्तु बन जाता है । वह वस्तु जिसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है ।

दूसरी ओर यह देवी तुल्य भी है, यह प्रश्न आज भी कायम है कि नारी वस्तु है अथवा व्यक्ति ? स्त्री की अनुपस्थिति में परिवार का निर्माण पूर्णत: असम्भव है फिर भी कन्या भ्रूण हत्याएँ तेजी से ही रही हैं । सामाजिक बिन्दु पर विचार करें तो स्त्री-पुरुष अनुपात निरन्तर ह्रास की ओर है ।

भारतीय शास्त्रीय पौराणिक ग्रन्थों मैं, धार्मिक साहित्य में नारी का दिव्यात्मक सकारात्मक रूप प्रकट किया गया है वहीं यथार्थ के धरातल पर वह आज भी सत्ता व शक्ति से वंचित है । राजनीतिक मंच पर देखें तो भारत में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त है और 73वें संशोधन द्वारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व होने से संसद तक उनका प्रवेश भी सम्भव है ।

लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण द्वारा उनकी सहभागिता का मार्ग सुनिश्चित किया गया है । परम्पराओं व रूढियों से शासित समाज में चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने, सरपंच से जिला प्रमुख तक, और सांसद से मुख्यमन्त्री के पद के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं परन्तु इस दिशा में अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है ।

भारतीय समाज में विद्यमान गेर बराबरी की जडें इतनी गहरी है कि उन्हें एकाएक उखाड पाना सम्भव नहीं है । स्त्री-पुरूष के प्राणिशास्त्रीय विभेद पुरुष प्रधान समाज की राजनीतिक जोड़-तोड़ का परिणाम है । इस सबसे मुक्त होने का नाम ही सशक्तिकरण है । अब मैं महिला सशक्तिकरण को सफल बनाने वाले कुछ आवश्यक व सहायक घटकों का उल्लेख करूँगी जिस पर चलकर हम सशक्तिकरण के उद्देश्य को पूरा कर पाएँगे ।

महिलाओं की सकारात्मक सहभागिता:

पुरुष प्रधान समाज में कार्य क्षेत्र का आन्तरिक और बाह्य विभाजन होना चाहिए । नए परिदृश्य में जबकि उन्हें अवसर मिला है उनकी सकारात्मक भूमिका अपेक्षित है । वे अन्तर्निहित क्षमता को पहचानें उसे अभिव्यक्ति प्रदान करें । सामाजिक अभिजन, राजनीतिक अभिजन के रूप में वह अन्य महिलाओं की सहभागिता सुनिश्चित कर सकती है ।

स्त्री शक्ति को जानना:

सुविख्यात महिलाओं- जीजाबाई, रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होल्कर, कान्नगी, रानी गैडिल्यू के नाम पर दिए जाने वाले स्त्री शक्ति के पुरस्कार इस तथ्य के द्योतक हैं कि इतिहास के पन्नों से लिए यह नाम वर्तमान में भी इसी भूमि पर कार्य कर रहे हैं । स्त्री-शक्ति अब भी विद्यमान है उसे पहचानने व कार्य में परिणत करने की आवश्यकता है ।

1999 की कन्नगी स्त्री शक्ति पुरस्कार प्राप्त केरल की के.बी. राविया इसकी उदाहरण हैं । इनके ‘चलनाम’ संगठन द्वारा साक्षरता अभियान चलाकर महिलाओं को निरक्षरता के अन्धकार से बाहर लाने का प्रयास किया । खेतिहर मजदूरों को संगठित कर उन्नत तरीकों का इस्तेमाल कर सामूहिक खेती के प्रयासों के लिए चिन्न पिल्लई ने स्त्री शक्ति पुरस्कार प्राप्त किया ।

उनके द्वारा प्रारम्भ ‘कालनजियम्स’ उल्लेखनीय है । साक्षरता अभियान व महिला सबलीकरण हेतु कार्य कर रही कमला बाई ने अहिल्या बाई होलकर पुरस्कार प्राप्त किया । स्वैच्छिक संगठन पी.ए.पी.एन. के माध्यम से किंकरी देवी ने मजदूरी और तनख्वाह प्राप्त लोगों की एक लम्बी लड़ाई जीति । गैडिल्यू पुरस्कार प्राप्त लीलाताइ ने बनवासी कल्याण आश्रम खोला जहाँ व्यवसायिक शिक्षा दी जाती थी ।

स्त्री शक्ति पुरस्कारों का उल्लेख इस दृष्टि से आवश्यक है कि महिलाएं अपनी मानसिकता बदलने का प्रयास करें । जैसे प्रचलित मान्यताएँ हैं-अकेले क्या कर सकते हैं ? इतने सारे पुरुषों के मध्य कार्य करना सम्भव नहीं है । परिवार की साज-सँभाल ही प्राथमिक कर्तव्य है जैसे वाक्यांश उन्हें पंगु बनाते हैं । महिलाओं के कार्य क्षेत्र में विविध आयाम हैं बस उन्हें पहचानने की आवश्यकता है ।

समन्वयात्मक दृष्टिकोण:

स्त्री व पुरुष जीवनरूपी गाड़ी के दो पहिये है । सामाजिक धरातल पर पितृसत्तात्मक परिवार में पुरुष मुखिया रहते हैं । परिवार में उनके आपसी समन्वय से ही परिवार कायम रहता है । यही समन्वय समाज में दिखाई दे इसके लिए आवश्यक है पुरुष भी स्वस्थ मानसिकता से महिलाओं की प्रगति का आरम्भ अपने घर से करें ।

सामाजिक मूल्यों का रूपान्तरण:

भारतीय सामाजिक व्यवस्था परम्परा शासित है । परिवार का पितृसत्तात्मक स्वरूप परिवार तक सीमित नहीं है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र तक विस्तृत दिखाई देता है । बाह्य क्षेत्र में स्त्री की सहभागिता एक व्यक्ति के रूप में प्राथमिक हो । सामाजिक यथार्थ के प्रत्येक क्षेत्र में संस्करण नए रूप ग्रहण कर रहा है । इस पृष्ठभूमि में स्त्रियों की शिक्षा आर्थिक आत्मनिर्भरता शासक वर्ग में प्रतिनिधित्व आवश्यक है, जिसमें स्त्री पुरुष दोनों के प्रयत्न प्रभावी होंगे ।

योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन:

सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास तभी सार्थक होंगे जबकि योजनाएँ पूर्ण निष्ठा से क्रियान्वित की जाएँ महिला कल्याण के प्रयास महिलाओं के सहयोग बिना अधूरे रहेंगे । समाज में दबाव समूह विद्यमान है, जिन्हें पहचानने की जरूरत है । इन योजनाओं को बाधाओं, दूराग्रहों, निजी स्वार्थों से मुक्त किया जा सकता है । यदि योजना का क्रियान्वयन एकमात्र लक्ष्य हो ।

स्त्री स्वयं पहल करें:

भारतीय महिलाओं के जीवन पर गरीबी, निरक्षरता, पारिवारिक अधीनस्थता, परम्पराओं के पालन में घुटती सांसें व दोयम दर्जे की स्वीकारता, स्वयं को विलीन करके कभी पूर्व निर्मित हुए विवेकपूर्वक रास्ते को खोजना होगा ।

जीवन की धुरी होते भी हाशिये पर जी रही स्त्री को यह स्वीकार करना होगा कि टूटना आवश्यक है, परम्परागत चट्‌टान-दीवारों का, वर्षों से चली आ रही परम्पराओं का जो आज मूल्यहीन हो चुकी हैं । अनेकानेक वर्जनाओं के टूटने में ही नव सृजन हुआ है ।

स्त्रियाँ मुक्ति चाहती हैं किन्तु इस तनाव की दासता से पूर्ण मुक्ति एकाएक सम्भव नहीं है । सम्मिलित प्रयास द्वारा मुक्ति के मार्ग खोजने होंगे- महिला सशक्तिकरण के लिए कुछ संकल्प करने होंगे- सशक्त होने के लिए एकजुट होना आवश्यक है, स्त्रियाँ अपने की संगठित करने का प्रयास करें । एकता में ही शक्ति निहित होती है ।

राजनीतिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व मिलने की स्थिति में सत्ता के गलियारों तक आपसी जुड़ाव द्वारा एक आवाज में अभिव्यक्ति करें, अपना पक्ष प्रस्तुत करें । महिलाएं यह समझें कि वह महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं । पति, पत्नी, सहयोगी की निर्भरता का त्याग कर स्वयं कार्य करने की पहल करें । नियुक्ति विभाग के अनुरूप दक्षता प्राप्ति का प्रयास कर । आत्मविश्वास से कार्य करें ।

महिला कल्याण योजनाओं की पूर्णता पर ध्यान केन्द्रित करें । पुरुष अपना सहयोग प्रदान करें । यह स्त्रियों को लेकर दोहरी मानसिकता से बचे । सशक्तिकरण की यह अवधि उनके आत्मविलोकन की अवधि भी है । समय की आवश्यकता है कि महिलाएँ स्वयं अपने सपने बुनना सीखें, उन्हें साकार करना जारी रखें ।

इन सहायक घटकों की सहायता से हम सशक्तिकरण के लक्ष्य को पाने में अवश्य सफल होंगे । सशक्तिकरण के प्रयास, अवरोधो, वैधानिक व संवैधानिक प्रयासों, महिलाओं की भूमिका, तत्कालीन स्थिति का वर्णन, इतिहास तथा सुझावों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । जो निश्चित रूप से सशक्तिकरण को आगे बढ़ाने व नवीन दिशा में बढ़ाने को प्रोत्साहित करेगा ।