Read this article in Hindi to learn about the position of women in India.

अभ्युदय और विकास विश्व की अविरल चलने वाली प्रक्रिया हैं । इस प्रक्रिया के क्रम से सृष्टि का कोई भी अंश अछूता नहीं है । निरन्तर अभ्युदित इस विश्व में महिलाओं की भूमिका पर विचार किए बिना विश्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती ।

क्योंकि नारी वस्तुतः केवल मांस-पिंड की संज्ञा नहीं है, आदि काल से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर उसकी यात्रा को सरल बनाते हुए उसके अभिशाप को स्वयं पर झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय-शक्ति भरते हुए नारी ने जिससे व्यक्ति, चेतना और हृदय का विकास किया है उसी का पर्याय है नहीं ।

तक निर्माण की बात करें तो किसी भी राष्ट्र का आधार परिवार ही है । परिवारों का समूह ही समाज है और समाज से ही राष्ट्र बनता है । अब परिवार में महिला की भूमिका उसी प्रकार होती है जैसे तारों के मध्य चन्द्रमा । किसी भी परिवार का केन्द्र होता है बालक क्योंकि उसी के पालन-पोषण व विकास हेतु परिवार का निर्माण किया जाता है ।

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महाभारत में हमें गर्भस्थ शिशु अभिमन्यु के बारे में जानकारी मिलती है कि वह माता के गर्भ में चक्रव्यूह के बारे में जान गया था । यह मात्र इतिहास की नहीं अब नतीन वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि गर्भस्थ शिशु याद रखने व सीखने में सक्षम होता है ।

इससे भारतीय मान्यता को बल मिलता है कि माता अपने व्यवहार से अपने बच्चों को वह सभी गुण दे सकती है जा उसे एक अच्छा व सुसंस्कृत नागरिक बनाने में सहायक हो । किसी भी सभ्य समाज की नींव शिक्षा ही होती है और प्रत्येक युग में बालक को शिक्षित होने के लिए तीन घटक आवश्यक हैं ।

माँ, गुरु तथा बालक । बालक को ठीक बनाए रखने के लिए माँ का उत्तरदायित्व अधिक है । बालक को अच्छे वातावरण प्रदान करने के लिए घर और घर के बाहर माँ ज्यादा भागीदार बन सकती है और शिशु अवस्था से ही स्वास्थ्य, खेलकूद क्रियाएँ, बच्चे की भावनाओं व आत्मनुशासन सम्बन्ध निर्देशन डालकर अच्छी आदतों का निर्माण करने का सफल प्रयास करती है ।

सुनिश्चित ही ऐसे बालक कालान्तर में समाज उपयोगी नागरिक बन सकते हैं । माँ की स्थिति विभिन्न कालों में चाहे जैसी भी रही हो लेकिन वह अपने बच्चे के प्रति दायित्व को सदैव निभाती आई है और निभाती रहेगी ।

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क्योंकि उसकी पूर्णता ही मातृत्व में और मातृत्व की पूर्णता ही बालक को शिक्षित करने में अर्थात् माँ बालक के लिए केवल जन्मदात्री ही नहीं बल्कि बालक की सर्वश्रेष्ठ, सुलभ उपलब्ध प्रथम शिक्षिका भी है । इसका भार निर्वाह करना उसका पुनीत कर्तव्य है । एक अच्छी माँ द्वारा प्रदत्त शिक्षा ही बालक के जीवन पर्यन्त जीवन दर्शन का कार्य करती हैं ।

यद्यपि देश में परंपरागत मूल्यों को नष्ट होते देखा जा रहा है । संयुक्त परिवार के स्थान पर विभक्त परिवार स्थान लेता जा रहा है । लेकिन परिवार का कोई भी रूप क्यों न हो बालक के लिए माँ का वर्द्धहस्त व निर्देशन की आवश्यकता सदैव बनी रहेगी ।

माँ की शिक्षा दीक्षा व निर्देशन के माध्यम से ही बदलते हुए सामाजिक मूल्यों में बच्चा सामाजिक मूल्यों के साथ समायोजित करते हुए राष्ट्रीय अपेक्षाओं को पूरा कर सकते है । माँ के द्वारा ही उसे सहानुभूति और सुरक्षा प्रापत होती है, जो अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती ।

परिवार बालक की प्राथमिक पाठशाला है जहाँ माँ इसकी प्रथम अध्यापिका है वही अपने विकास के साथ-साथ सहज रूप में बहुत-सी बातों को स्वयं सीख जाता है । माँ ही तो उसे समुदाय के प्रति अपेक्षित व्यवहार, सामाजिक भाषा को स्वाभाविक रूप में सिखाने में मदद कर सकती है ।

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अनुकूल वातावरण तैयार करने में माँ बच्चे रूपी निधि के स्वामी ही नहीं अपितु संरक्षिका है । प्रत्येक माता को यदि व्यवस्थित रूप से बाल मनोविज्ञान ज्ञान चाहे न भी हो फिर भी बालक की मनःस्थिति का तान उनके द्वारा उत्पन्न स्वाभाविक समस्याएँ, उनके निदान करने व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर प्रभावशाली निर्देशन प्रदान करती है, कि उनकी समस्याओं का समाधान हो जाता है ।

बच्चों की समस्याओं के प्रति भयभीत न होकर समाधान ढूँढने की आदत डालने का प्रयास माँ द्वारा किया जाता है तभी कालान्तर में व्यवहारिक जीवन में आने वाली समस्या के प्रति भयभीत न होकर समाधान ढूँढने की आदत जीवन पर्यन्त बन सकती है बालक की मूल प्रवृति जिज्ञासु होने की हैं ।

बच्चों में पारिवारिक सहयोग व प्रेम की भावनाएँ भी व्यवहारिक जीवन में ये गुण आदत के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं । माँ बालक की प्रारम्भिक अवस्था में बडे रोचक ढंग से अपनी ही भाषा के माध्यम से विभिन्न धर्मों के संगठन तथा महापुरुषों के जीवन चरित्र की बातें सरल तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हुए संकुचित धर्म का दृष्टिकोण समाप्त कर सकती है ।

ऐसे नैतिक व चरित्रवान समाज सुधारक, संवेदनशील, कर्मयोगी महापुरुषों की गाथाएँ बताकर प्रेरणा पैदा कर सकती हैं इसके साथ ही साथ व बालिकाएँ किशोरावस्था में आ जाते हैं तो उन्हें देश की संस्कृति के ऐसे स्थलों की समझाएँ जो प्रेरणा दे सके ।

कुशल व जागरूक माँ ही बालक के लिए ऐसा पर्यावरण पैदा कर सनातन मूल्यों की रक्षा एवं विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है । परिवार में बालक की एकांगी की बजाय सामाजिकता की बात सुलभ्यता से माँ द्वारा ही समझाई जा सकती है ।

इसके अतिरिक्त एक जागरूक माँ बच्चे की किशोरावस्था का यौन सम्बन्धी आवश्यक ज्ञान प्रदान कर उन्हें असामाजिक कृत्यों से बचा सकते हैं । उनके लिए अनुकूल व स्वच्छ वातावरण प्रदान कर बच्चे के सुसंगठित विकास करने में अपना दायित्व निभाती हैं । बच्चे राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं ।

इन अमूल्य हीरों के प्रति जितनी जागरूक माँ रूपी जोहरी उनके भावी निर्माण के महत्त्व को समझेगा वही राष्ट्र उतनी ही तीव्रता से उन्नति कर सकेगा । अच्छी माताओं द्वारा शिक्षित बच्चे ही किसी देश के भावी स्तंभ हैं जो माँ के प्रयासों द्वारा मजबूत सुन्दर आदर्श बन सकता है ।

बालक को चरित्र व व्यक्तित्व के सही ढंग से विकसित होने पर ही बच्चे का जीवन सफल व उपयोगी बन सकता है । माँ का दायित्व है कि वह बच्चे की रुचि एवं योग्यता के अनुरूप कार्य के लिए आत्मनिर्भर होने दें । बालक ध्रुव का उदाहरण लें तो जब वह पाँच वर्ष के थे उनकी माता का एक बार एक प्रोत्साहन ध्रुव-पद की प्राप्ति का हेतु हुआ था ।

जिसके समान उच्च ओर स्थिर पद आज तक किसी को मिला ही नहीं । इसी भाँति महाऋषि सत्यकाम जाबाल का नाम सर्वविख्यात है । जाबाल ने अपने प्रेम से अपने पुत्र को पिता का कभी भी अभाव नहीं होने दिया । माँ की शिक्षा व प्रेरणा से ही जाबाल ने सत्यकाम नाम प्राप्त किया और सत्यकाम को यह ज्ञान हुआ कि सच्चा गुरु माँ ही है । माँ की प्रकृति में ही ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ।

पुस्तक ज्ञान ही केवल शिक्षा नहीं है । बच्चों में अच्छी आदतों का विकास कार्य कुशलता, अच्छे संस्कार आदि उत्पन्न करना अच्छी शिक्षा की पहली सीढ़ी है । और इस सीढ़ी का निर्माण माँ ही कर सकती है । जब तक माँ स्वयं जागरूक होकर बालक के लिए स्वस्थ और उत्सुकता भरा वातावरण उत्पन्न नहीं कर दे तब तक बच्चे का विकास पूर्ण नहीं हो सकता ।

शिक्षा का अर्थ है बच्चों का मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक सन्तुलन बना रहे । गांधी जी ने भी कहा था बच्चे के लिए घर से बढ्‌कर दूसरा कोई विद्यालय नहीं । माँ ही उसका प्रथम गुरु है, जो शिक्षा दे बच्चों की जीवन संघर्ष करने योग्य बनाती है ।

प्रत्येक परिस्थिति में जीवन की समस्याओं को सुलझाने, बुराइयों को दूर करने की कठिनाइयों को सरल बनाने में प्रेरणा देती है । वही शिक्षा वास्तव में सच्ची शिक्षा है । ऐसी शिक्षा का सूत्रपात योग्य माँ ही कर सकती है ।

विकास काल में माँ अपने बच्चे में सहयोग, विश्व बन्धुत्व एवं संवेदनशीलता के गुणों के साथ ही साथ कल्याणकारी बातों से भी अवगत कराती रहती है । जिससे बच्चे का सामाजिक, आध्यात्मिक, पारिवारिक जीवन उपयोगी और सफल बन सके । जीवन में सत्य और कल्याणकारी बात को समझना ओर करना बच्चे अपने बड़ों से ही सीखते हैं इस दृष्टि से माँ से बढकर और कोई गुरु नहीं हो सकता ।

महापुरुषों के जीवन पर दृष्टिपात करने से भी हमें ज्ञात होता है उनकी माता व गुरुजनों के उच्च आदर्शों की ऐसी अमिट छाप उन पर पड़ी है जिस कारण चरित्र दृढ़ और कसौटी पर कसे हुए होने के सदृश्य खरा बन सका । बच्चा एक आईना है जिस पर उनके माँ के चरित्र व आदर्शों की अमिट छाप परिलक्षित होती है ।

बच्चे की जीवन को उपयोगी बनाने के लिए माँ से बढ्‌कर कोई पथ प्रदर्शक नहीं हो सकता । स्कूली शिक्षा से बुद्धि का विकास चाहे हो जाए पर आचरण की नैतिक शिक्षा बच्चा पर ही सीखता है । सदाचार की उच्च शिक्षा परिवार में ही माँ द्वारा प्राप्त करता है । जो उच्च चरित्र निर्माण की आधारशिला है ।

समझदार जागरूक माँ का दायित्व है कि बच्चे को साम्प्रदायिकता के संकुचित दायरे से ऊपर उठाएँ ताकि व मानव धर्म को प्रधानता देते हुए मनुष्यता के नाते सामाजिक जीवन के विकास में सफल हो सके । सदाचार से शून्य शिक्षा बच्चों को बुराइयों की और धकेलती है । जो बच्चे के चरित्र निर्माण में बाधक है ।

अतः यह बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि बच्चों का भविष्य माँ पर ही निर्भर है । माँ ही देश की निर्माता एवं श्रेष्ठ नागरिकों की पालक है । अब किसी राष्ट्र में बालक भी तभी विकास कर सकता है जब वह एक स्वतन्त्र राष्ट्र का नागरिक हो । बन्दी जीवन प्रगति के मार्ग का विपरीत है । परन्तु हमारा दुर्भाग्य रहा कि हमारा देश भारत एक लम्बे समय तक दासता की जंजीरों में जकड़ा रहा ।

एक लम्बे अरसे तक भारत वर्ष ने गुलाम राष्ट्र का जीवन जिया । पहले मुगल तदुपरान्त फ़्रांसीसी, अंग्रेज सभी भारत पर राज कर हमारे विकास के कीमती समय को बर्बाद करते रहे । राष्ट्र की स्वतन्त्रता उसके नागरिकों की वीरता पर ही निर्भर करती है ।

भारत में भी अनेक वीरों पर वीरांगनाओं ने अतुल्य शौर्य का प्रदर्शन कर अपने देश को आजाद कराया । भारत की महिलाएं भी इस कार्य में पीछे कभी नहीं रहीं । भारत की महिलाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान ही नहीं दिया बल्कि इतिहास भी रचा है । गांधी जी ने कहा था । ”भारत में ब्रिटिश राज्य मिनटों में समाप्त हो सकता है, बशर्ते भारत की महिलाएँ ऐसा चाहें और इसकी आवश्यकता समझें ।”

गांधी जी सभी भारतीय महिलाओं से यह अपेक्षा नहीं करते थे कि वे जोन ऑफ आर्क या झाँसी की रानी बनें मगर वे चाहते थे कि वह सीता की तरह स्वाभिमानी और साहसी हों । वे कहते थे झाँसी की रानी पराजित हो सकती थी मगर सीता नहीं इसलिए उन्होंने भारतीय महलाओं का राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़ते और राष्ट्र के सम्मान की रक्षा करने के लिए आवाहन किया, उनके इस आह्वान का उत्तर सबसे पहले उनकी ही पत्नी कस्तुरबा गांधी की ओर से मिला ।

आत्मत्याग की मूर्ति कस्तुरबा ने अपनी नेतृत्व क्षमता को परिचय तब दिया जब गांधी जी जेल में थे । गांधी जी के अहिंसा व्रत को पूरा करने में वह हमेशा एक स्तम्भ की तरह उनके साथ रही । दक्षिण अफ्रीका और स्वदेश में अहिंसा के सभी आन्दोलनों में कस्तुरबा हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहीं ।

जीवन के बारे में कस्तुरबा के दृष्टिकोण का अर्थ उनका अपना मोलिक दृष्टिकोण था । फरवरी 1944 में पूर्ण नजरबन्दी शिविर जो पुणे में आगा खाँ के महल के पास में था उसमें उनका देहान्त हुआ था । हालांकि कस्तूरबा स्वयं पढ़ी-लिखी न थीं । मगर वे महिला शिक्षा की हिमायती थीं । और शिक्षा के माध्यम से उन्हें सम्पन्न बनाना चाहती थीं ।

राष्ट्रीय आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने वाली अन्य महिलाओं में मैडम कामा, भगिनी नवेदिता, ऐनी बेसेंट, पंडिता रमाबाई, सरोजनी नायडू कमला नेहरू, मणिबेन पटेल, विजयलक्ष्मी पंडित, सुचेता कृलानी, प्रभावती देवी तथा ऐसी अन्य महिलाएँ शामिल थीं जिन्होंने अपने देश को स्वतन्त्र रखने की खातिर अपने परिवार की परवाह नहीं की ।

अहिंसा में पूरा विश्वास न करने वाली कई महिलाएँ भी आन्दोलन में शामिल हुई । और उन्होंने क्रान्तिकारी तरीके से नए भारत के निर्माण में योगदान दिया । ऐसी महिलाओं में शहीद भगतसिंह की सहयोगी दुर्गा भाभी, सत्यवती देवी, खुर्शीद, लाडो रानी जुत्थी, अरुणा आसफ अली, ऊषा मेहता, प्रीतिलता बड्‌डेदार के साथ दुर्गाबाई देशमुख और अम्मू स्वामीनाथन जैसी सुप्रसिद्ध महिलाएँ भी शामिल थीं ।

जिन्होंने सक्रिय सामाजिक सेवा के माध्यम से देश हित में कार्य किया । गांधी जी कहते थे- ”अगर ऊँचे दर्जे का साहस विकसित किया जाए तो भारतीय महिलाएं स्वाभाविक नेता हैं ।” मैडम कामा का जीवन तो सबसे अधिक प्रेरणास्पद है । गांधीजी के भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन का बिगुल बजाने से पहले ही मैडम कामा ने 1907 में 46 वर्ष थी । अपने प्रेरणादायक भाषण में उन्होंने कहा, ”यह ध्वजा भारत की स्वतन्त्रता की है देखो इसने जन्म लिया है ।

मातृभूमि के लिए शहीद नौजवानों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुकी है-देवियों और सज्जनों मैं आप सबका आह्वान करती हूँ कि आप भारतीय स्वाधीनता की ध्वजा का अभिवादन करें । जब 22 साल के देशभक्त नौजवान और विद्यार्थी मदन लाल ढींगरा को 1906 में लन्दन में फाँसी दी गई तो मैडम कामा ने कहा था, “इस समय मदन लाल जैसे और नौजवानों की आवश्यकता है ।”

वीरेन्द्रनाथ चट्‌टोपाध्याय के साथ उन्होंने ‘मदन तलवार’ नाम की एक पत्रिका शुरू की जो बर्लिन से छपती थी । शीघ्र ही वह पत्रिका भारतीय क्रान्तिकारियों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनी । उन्होंने कहा था, हमारे सबसे अच्छे लोगों को देश निकाला दिया जा रहा है या अपराधियों की तरह जेलों में भेजा जा रहा है वहाँ उन्हें कोड़े लगाए जाते हैं ताकि उन्हें मजबूर होकर अस्पताल जाना पडे, हम शान्ति चाहते हैं, हम खून खराबा नहीं चाहते लेकिन हम जनता को उनके अधिकारों के बारे में बताना चाहते हैं ताकि वह ब्रिटिश तानाशाही को उखाड़ फेंके ।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में हिंसा के इस्तेमाल के ब्रिटिश आलोचकों को जवाब देते हुए कामा, ने कहा था, कुछ समय पहले तक मुझे हिंसा के बारे में बातचीत करने तक से घृणा होती थी लेकिन उदारवादियों की हृदयहीनता, पाखंड और दुष्टता को देखकर मेरी घृणा दूर हो गई है, जब हमारे दुश्मन हमें हिंसा के लिए बाध्य कर रहे हैं तो हम इसके इस्तेमाल की निन्दा क्यों करें ।

हम ताकत का इस्तेमाल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हमें ऐसा करने को विवश किया जा रहा है । निरंकुशता निरंकुशता ही है और अत्याचार ही है, चाहे इसका इस्तेमाल कहीं पर भी किया जाए । सफलता से किसी कार्य का औचित्य सिद्ध होता है ।

विदेशी शासन के खिलाफ सफल विद्रोह, देशभक्ति है मित्रो ! आओ हम अपनी तमाम बाधाओं सन्देहों और आशंकाओं को एक तरफ रख दे । मैडमकामा ने भगत सिंह और उनके सहयोगियों के मन पर भी जबरदस्त असर डाला ‘क्रान्ति की जननी’ के नाम से प्रसिद्ध मैडमकामा ने देशवासियों का आह्वान किया कि वे विदेशी शासन के जुए को उतार फेंकने का संकल्प लें ”सीधे वार करना सीखो क्योंकि वह दिन दूर नहीं जब हमें अपनी इस जान से प्यारी मातृभूमि से अंग्रेजों को मार भगाना होगा ।

दुर्गावती और सुशीला देवी शहीद भगत सिंह के युग की दो बहनें थीं, जिन्होंने क्रान्तिकारी आन्दोलन में मुख्य भूमिका निभाई । दुर्गावती क्रान्तिकारियों में दुर्गा भाभी के नाम से प्रसिद्ध थी । भगत सिंह ने सान्डर्स की हत्या करने के बाद 18 दिसम्बर, 1928 को दुर्गा भाभी के साथ ही कलकत्ता की यात्रा की । लाहौर रेलवे स्टेशन से पुलिस की आँख बचाकर निकल पाना असम्भव था । मगर भगत सिंह और दुर्गा भाभी ने इसे सत्य कर दिखाया ।

भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के क्षितिज में वह एक नक्षत्र की तरह अचानक उभरीं तथा उन्होंने भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव राजगुरु, अशफाकउल्ला खाँ जैसे क्रांतिकारियों के मन पर जोरदार असर डाला । दुर्गा भाभी प्रो. भगवती चरण बोहरा की पत्नी थीं ।

ब्रिटिश पुलिस उनके नाम से थर्राती थी । उनका समुचित जीवन आम बलिदान की कविता जान पड़ता है । दुर्गा भाभी नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य थी । वह उस समय सबकी नजरों में आई जब सभा ने 16 नवम्बर, 1926 को लाहोर में करतार सिंह सरभा का 11वां शहीदी दिवस मनाने का फैसला किया ।

करतार सिंह सरभा 19 साल की उम्र में फाँसी के फन्दे पर झूल गए थे । उन्होंने छावनी के सिपाहियों में विद्रोह फैलाकर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई थी । शहीदी दिवस के अवसर पर दुर्गा भाभी और उनकी बहन सुशीला देवी ने सरभा का आदमकद चित्र तैयार किया ।

जब प्रो. वोहरा ने रणचंडी के रूप में देवी दुर्गा का बखान करते हुए अपना भाषण समाप्त किया तो दुर्गा भाभी ने अपना खून निकालकर भगत सिंह के माथे पर इसका तिलक लगाया ओर उनके लक्ष्य में सफलता का आशीर्वाद दिया । हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन और रिपब्लिकन जिन्हें स्वामी श्रद्धानन्द की इस महान पुत्री का तेजस्वी मुखमंडल याद होगा ।

भारत की आजादी उनके जीवन का एकमात्र ध्येय था और उसके पीछे वह कानून की हद तक समर्पित थी । अपने जीवन के कुल 37 वर्षों में से 12 वर्ष उन्होंने जेलों में बिताए और एक बार तो गोद में नवजात शिशु के साथ भी गई । गिरफ्तारी के लिए आए ब्रिटिश पुलिस अफसर से उन्होंने कहा था “मत छूना, में भारत की अग्नि हूँ ।”

वे ग्यारह बार जेल गई तथा देश की आजादी से दो साल पहले उनका देहान्त हुआ । वह स्वदेशी आन्दोलन के प्रति समर्पित थीं । उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाई । शराब की दुकानों का विरोध किया ब्रिटिश सामान और कपड़ों के बहिष्कार के बढ़चढ़कर आगे आईं तथा गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रहीं । अगर भारत में उन जैसी कुछ ओर महिलाएँ होतीं तो हमारे देश का इतिहास कुछ और होता ।

लाडो रानी जुत्शी लाहौर के एक वकील की पत्नी थीं । अपनी दो पुत्रियों जनम कुमारी जुत्शी और स्वदेश कुमारी जुत्शी के साथ उन्होंने पंजाब, खासतौर पर लाहौर में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । उन्होंने महिला सत्याग्रहियों का एक नया आन्दोलन आरम्भ किया । वे लाल सलवार हरी कमीज तथा सफेद टोपी पहनती थी । ओर स्वदेशी तथा मद्य निषेध की प्रबल समर्थक थी ।

देशभक्ति और निर्भरता लाडो रानी में कूट-कूटकर भरी थी । और वे आत्मबलिदान तथा त्याग की प्रतिमूर्ति थी । ”जब कोई सरकार महिलाओं को गिरफ्तार करना शुरू करें तो समझो उनके दिन गिनती के रह गए हैं” ये बात वे अक्सर कहा करती थीं । वे आदर्श गांधीवादी तथा शान्तिपूर्ण व अहिंसक प्रतिरोध का प्रबल समर्थन करती थीं ।

बम्बई की आशा मेहता एक अलग तरह की क्रान्तिकारी थी । उन्होंने अपने फ्रीडम रेडियो के माध्यम से स्वतन्त्रता की मशाल को जलाए रखा । आशा मेहता अत्यन्त प्रभावशाली महिला थी । डॉ. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में वह विलक्षण साहस और अद्वितीय उपलब्धियों वाली महिला थी ।

आशा मेहता गांधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन से लोगों की नजर में आईं । उन्होंने ‘वाइस ऑफ फ्रीडम’ नाम का एक रेडियो स्थापित किया । महाराष्ट्र की एक अन्य युवती खुर्शीद बहन ने पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में कार्य किया तथा पश्तोभाषी स्वाधीनता सेनानियों में एक गाथा बन गई ।

1942 के आन्दोलन की महानायिका अरुणा आसफ अली थीं । प्रारम्भ में वे गांधीवादी थी, मगर बाद में अहिंसा के बारे में उनके दृष्टिकोण में बदलाव आया । वे कई वर्षों तक भूमिगत रहकर कार्य करती रहीं । बम्बई में उन्होंने राष्ट्र ध्वज फहराया । वे दिल्ली की महापौर भी बनी थीं । और सभी पार्टियों की प्रशंसा की पात्र बनीं ।

अरुणा आसफ अली प्रखर वक्ता थी और बड़ी सहज व सुन्दर शैली में लिखती थी । डॉ. राम मनोहर लोहिया तथा जय प्रकाश नारायण के साथ उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की समाजवादी शाखा की स्थापना का । भारत की महिलाओं ने देशवासियों को यह जता दिया कि आजादी की लड़ाई अकेले पुरुषों ने नहीं लड़ी अपितु महिलाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा ।

महिलाओं के योगदान में बौद्धिक स्तर पर जो कमियाँ थीं उन्हें सरोजनी नायडू विजय लक्ष्मी पंडित, और सुचेता कृपलानी जैसी विदूषियों के साथ-साथ एम.एस. सुबुलक्ष्मी ओर विदेशों में स्वतन्त्रता संघर्ष में पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर योगदान करने वाली कैप्टन लक्ष्मी सहगल भी शामिल हैं ।

आजाद हिन्द फौज की रानी झाँसी रेजीमेंट की प्रमुख के नाते कैप्टन लक्ष्मी सहगल नेताजी की सबसे विश्वस्त और वफादान सहयोगी थीं । जब नेताजी ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की और अंडमान निकोबार द्वीपों का नाम बदलकर ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ द्वीप घोषित किया तो उन्होंने लक्ष्मी सहगल को आजाद हिन्द मन्त्रिमंडल में मन्त्री बनाया ।

आजाद हिन्द फौज का असफल हो जाना अलग बात है लेकिन इसमें भारतीय महिलाओं ने जो भूमिका अदा की वह हमारी आजादी की लड़ाई का स्वर्णिम माध्यम है । सरोजनी नायडू हमारे स्वाधीनता आन्दोलन की कोकिला कही जाती हैं ।

नेहरू जी को एक पत्र में उन्होंने लिखा- चुनाव में विजयी होने पर जब आपका अभिनन्दन किया जा रहा था तब उस समय आपका चेहरा देखकर मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं आपको एक साथ राज्याभिषेक और सूली पर चढ़ाए जाते देख रही हूँ । निश्चय ही यह दोनों बातें आत एक-दूसरे का पर्याय बन चुकी हैं । और उन्हें अलग-अलग करना सम्भव नहीं है । खासतौर पर आपके लिए, क्योंकि आप आध्यात्मिक उत्तर देने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने में इतनी संवेदनशीलता दिखाते हैं ।

कमजोरी, पत्तन, झूठ और धोखेबाजी जैसी कुरूपताओं से निपटने में आपको कम संवेदनशील तथा अल्प बोध व अनुभूति वाले स्त्री पुरुषों की तुलना मैं सौ गुना ज्यादा कटुता का सामना करना पड़ेगा-ये सब कमजोरी के ऐसे अनिवार्य लक्षण है जिनमें आक्रामकता और दिखावे के साथ अपनी दरिद्रता को छिपाने का प्रयास किया जाता है ।

गांधी जी को एक अन्य पत्र में उन्होंने लिखा था- “विशेषज्ञों का कहना है मेरा हृदय रोग काफी गम्भीर और खतरनाक चरण में पहुँच चुका है । लेकिन जब तक मैं भारत की शहादत की करुणा गाथा गाकर दुनिया के हृदय को पश्चाताप के लिए विवश नहीं कर दूँगी, तब तक मुझे कुछ नहीं होगा ।”

सरोजनी नायडू स्वाधीनता आन्दोलन की गाथा लिखने वाली कवियत्री थी । वे भारत के स्वाधीनता आन्दोलन की इतिहासकार कवियत्री थी । ब्रिटिश अधिकारी उनसे डरते थे तथा ब्रिटिश पुलिस घबराती थी । स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान एक बार उन्होंने घुडसवार पुलिस को कहा था- मेरे पास मत फटकना मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगी । कहा जाता है कि जब सरोजनी नायडु डांडी में नमक सत्याग्रह का नेतृत्व कर रही थीं तो पुलिस के घोड़ों ने आगे बढना बन्द कर दिया ।

कपूरथला की पूर्व रियासत की राजकुमारी अमृतकौर 16 वर्ष तक गांधी जी की सचिव रहीं । वे स्वतन्त्र भारत की प्रथम स्वास्थ्य मन्त्री भी बनीं वे कई बार जेल गईं तथा कई बार लाठियों की मार सही पंजाब में शाही फौजी शासन के दौर में वह गांधी जी के सम्पर्क में आई और उन्होंने शाही तड़क-भड़क छोड़कर गांधी जी के आश्रम में जाने का निर्णय किया ।

स्वतन्त्रता संग्राम के सिलसिले में नमक सत्याग्रह के दौरान जो एक और नाम सामने आया था वह था दुर्गाबाई देशमुख का ‘लौह महिला’ के नाम से मशहूर दुर्गाबाई देशमुख ने ब्रिटिश कानून का उल्लंघन करते हुए 1930 के दशक में ‘आन्ध्र महिला’ नाम की पत्रिका का सम्पादन किया, इन महिला सामाजिक आन्दोलनकारियों ने अपने सामाजिक कार्यों से स्वाधीनता आन्दोलन का दायरा बढ़ाया । बारदोंली सत्याग्रह के समय मणिबेन पटेल ने महिलाओं को संगठित कर उसमें भागीदार बनाया ।

इस तरह स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल महिलाओं के नामों की तो कोई कमी नहीं है । मगर यही एक और नाम का जिक्र करना उत्तम होगा वह थीं आजाद हिन्द फौज की कर्नल लक्ष्मी की माता अम्मू स्वामीनाथन का जिन्हें प्यार से चेरी अम्मा के नाम से भी जाना जाता है ।

वे ऑल इंडिया वीमन्स कांफ्रेंस में शामिल हुई और 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । अहिंसा और गांधीवादी अर्थशास्त्र में उनकी गहरी आस्था थी । वे संविधान सभा की सदस्य भी रहीं और उन्होंने सामाजिक न्याय तथा स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित नए भारत का हमेशा समर्थन किया ।

संक्षेप में स्वतन्त्रता आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी से आजादी की प्रक्रिया तेज हुइ और इसमें प्रगति का सिलसिला आगे बढ़ा परन्तु जिस भारत की स्वतन्त्रता के लिए महिलाओं ने इतना महत्त्वपूर्ण और अमूल्य योगदान दिया स्वतन्त्रता के उस भवसागर की अपार कठिनाइयों को पार कर अब आई राष्ट्र निर्माण की बारी ।

स्वतन्त्रता संग्राम में महिलाओं के अपार योगदान व साहस को देखकर अब भारतीय पुरुष को घर की नारियों को बन्धन मुक्त करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी । और हो भी क्यों न किसी भी देश के अर्द्धांग को निष्क्रिय रखकर आगे बढ़ पाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है ।

तत्कालीन परिस्थितियों में नारी का युगोचित महत्त्व किसी से छिपा नहीं था । हमने बालक जो राष्ट्र की नींव है तथा स्वतन्त्रता जो राष्ट्र का आधार है दोनों में ही नारी की अनेक रूपों में जैसे-माँ, स्वतन्त्रता सेनानी, वीरांगना की महत्ता को देखा ।

इसके अतिरिक्त जीवन के कई अन्य क्षेत्र जैसो राजनीति, विकास, प्रशासन, मीडिया, पर्यावरण, प्रदूषण, आर्थिक विकास आदि में भी उसकी भूमिका अनन्त है । वह निरन्तर इन क्षेत्रों में योगदान द्वारा राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका निभा रही है । अब हम क्रमशः उसकी भूमिका व महत्त्व का आकलन करेंगे । हम सर्वप्रथम राजनीति की बात करेंगे ।

अगर इतिहास की दृष्टि से देखें तो भारतीय समाज में महिलाएँ सदियों से अछूत रही है । हमारे देश की प्रजातन्त्रीय व्यवस्था में कभी भी महिलाओं को राजनीतिक अधिकार देने की कोई खास पहल नहीं की गई । इसका कारण यह भी है कि अभी भी भारतीय समाज में अस्सी प्रतिशत महिलाएँ अपने पति की हर बुराई पर पर्दा डालकर चुपचाप उसे देवता मानकर पूजती हैं, किन्तु उसके विरुद्ध अपनी जुबान तक नहीं खोलती ।

यह एक देश की सामाजिक संरचना का ही करिश्मा है । जब जब यहाँ प्रजातंत्रीय व्यवस्था लागू की गई, महिलाओं की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कई अधिकार छीन लिए गए । अगर विश्व पटल पर देखे तो पुरातन बेबीलोनिया एवं मिस्त्र की सभ्यता में महिलाओं को काफी स्वतन्त्रता दी हुई थी और वे समाज मैं अहम भूमिका निभती थी ।

कई क्षेत्रों में तो उन्हें पुरुषों से भी अधिक अधिकार प्राप्त थे । इसके ठीक विपरीत यूनान अथवा रोम जैसे प्रजातन्त्र के पक्षधर देशों में महिलाओं का दर्जा बेहद निम्न था और उन्हें किसी भी तरह के राजनीतिक अधिकार नहीं प्राप्त थे ।

उस जमाने में राजनीतिक विचारकों का मत था, चूँकि राज्य एक पुरुषवादी शब्द है, इसलिए राजनीति में भी पुरुष की ही भागीदारी होनी चाहिए महिलाओं का नहीं । हालाँकि प्लेटो एवं सुकरात पुरुष एवं महिला की समानता के हिमायती एवं पक्षधर थे, किन्तु उनकी मान्यता थी कि अत्यन्त कुशाग्र-बुद्धि महिला ही पुरुष की बराबरी की हकदार हो सकती है, आम महिला बिलकुल नहीं ।

पुरुषों में कुशाग्रता का कोई मापदंड नहीं रखा गया । रूसो तक महिलाओं को राजनीति से अलग रखने के पक्षधर थे । 1779 में फ्रांसीसी क्रान्ति के समय महिलाओं ने राजनीति में प्रवेश करने की नियोजित पहल की थी । उन्होंने हर कार्य में पुरुषों के कन्धों से कन्धा मिलाकर फ्रांस के राजा को अपदस्थ किया था ।

पुरुषों ने भी अपने स्वतन्त्रता, समानता एवं बन्धुत्व के नारे में उन्हें राजनीति में पूरा भागीदार बनाने का आश्वासन दिया था । महिलाओं को पूरा विश्वास था कि लोकतन्त्र की प्राप्ति पर उन्हें पुरुषों के समान मत देने के अधिकार अवश्य प्राप्त होंगे, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विश्व में कई देशों में महिलाओं ने राजनीति में अपनी भागीदारी लेने की कोशिश की । उनका विचार था कि एक बार उन्हें पुरुषों के बराबर अपना दर्जा लाने में मदद मिलेगी, किन्तु इंग्लैंड एवं संयुक्त राज्य अमेरिकी जैसे लोकतन्त्र के प्रहरी देशों की संसदों ने, जहाँ सिर्फ पुरुष ही चुनकर पहुंचते थे, इसका तीव्र विरोध किया ।

उन्हें इस बात का भय हो गया कि जैसे ही महिलाओं को मत का अधिकार मिलेगा, वे सब संसदों में आ जाएँगे । उन्होंने भाँति-भाँति की अपनी दलीलें देकर सभी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया । किन्तु महिलाओं की मेहनत रंग लाई । सर्वप्रथम न्यूजीलैंड में महिलाओं को 1893 में मत का अधिकार प्राप्त हुआ और धीरे-धीरे विश्व के तकरीबन सभी प्रजातान्त्रिक देशों में इस अधिकार को प्राप्त कर लिया ।

कहीं-कहीं तो पुरुष प्रधान सांसदों ने यह अधिकार तभी दिया, जब उन्हें यह यकीन हो गया कि मात्र मत का अधिकार देने से महिलाओं में राजनीतिक शक्ति नहीं आ पाएगी । और वे एक सामूहिक विरोधी खेमा नहीं बना पाएगी, जो उनके अस्तित्व को किसी प्रकार का खतरा पैदा कर सके ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय महिलाओं ने ब्रिटिश शासनकाल में महिला मताधिकार के लिए अपनी आवाज बुलन्द की । सरोजनी नायडू के नेतृत्व में 1971 में एक प्रतिनिधि मंडल ने ब्रिटिश सरकार के वायसराय से मुलाकात कर तापन दिया था ।

अंग्रेजों ने भारत सरकार के कानून 1919 के तहत मताधिकार का अधिकार प्रदान किया, जिसके फलस्वरूप मद्रास में सर्वप्रथम डॉ. मुथुल रेड्‌डी विधायिका निर्वाचित हुई इसी समय पश्चिम बंगाल में कमला देवी चट्‌टोपाध्याय पहली बार महिला प्रत्याशी के रूप में निर्वाचन में भागीदार बनीं । प्रादेशिक विधायिका के चुनाव में 1926 तक महिलाओं ने पुरुषों के समान मताधिकार प्राप्त किया ।

तत्पश्चात् भारत सरकार कानून 1935 के द्वारा तकरीबन 60 लाख महिलाओं ने मताधिकार का उपयोग किया । इस कानून के कारण 1937 के निर्वाचन में सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से 8 और आरक्षित महिला निर्वाचन क्षेत्रों से 42 महिलाएँ निर्वाचित हुई ।

विजय लक्ष्मी पंडित उस समय उत्तर प्रदेश सरकार मैं मन्त्री बनाई गई, अनुसुयाबाई काले मध्य प्रान्त में उपाध्यक्ष नियुक्त की गई और हंसा मेहता को मुम्बई सरकार में संसदीय सचिव नियुक्त किया । इसी चुनाव में अमुस्वामी नाथ, सरोजनी नायडु आदि भी विधान सभा में चुनाव में निर्वाचित हुई थीं ।

भारत के स्वतन्त्र होने के बाद 1950 में जब भारतीय संविधान स्वीकृत एवं अंगीकृत हुआ तब उसमें प्रत्येक व्यस्क महिला नागरिक को मतदान करने का अधिकार मिल गया । 1977 तक कुल 19 महिलाएँ ही संसद में पहुँची, जबकि 1984 में सबसे अधिक 46 महिलाएँ संसद में पहुँची ।

यह इन्दिरा गांधी हत्याकांड का वर्ष था, जब राजीव गांधी के प्रति सहानुभूति की तेज लहर चली थी । उसके बाद संसद में महिलाओं की संख्या घटती चली गई । 1999 में फिर इसमें थोड़ा सुधार आया और संसद में पहुँचने वाली महिलाओं का प्रतिनिधित्व देखें तो उनकी वास्तविक स्थिति उभरकर सामने आती हैं ।

प्रथम लोकसभा में कुल सांसद 499 में से 22 महिला सांसद, जिसका प्रतिशत 4.4 था । द्वितीय लोकसभा में 500 में से 27 यानी 5.4 प्रतिशत, तृतीय लोकसभा में 503 में से 34 यानी 6.8 प्रतिशत, चौथी लोकसभा में 528 में से 32 यानी 5.9 प्रतिशत पाँचवीं लोकसभा में भी 528 में से 26 यानी 4.2 प्रतिशत महिलाएँ सांसद के रूप में पहुँची ।

छठी लोकसभा में 544 में 19 अर्थात् 3.4 प्रतिशत सातवीं लोकसभा में 544 में से 32, आठवीं लोकसभा में 544 में से 46 यानी 8.1 प्रतिशत, नौंवी लोकसभा में 525 में से 28 यानी 5.3 प्रतिशत महिलाएँ ही संसद में पहुँच सकी । दसवीं लोकसभा में 511 में से 39 यानी 7.2 प्रतिशत ग्यारहवीं लोकसभा में 527 में 36 महिलाएँ चुनकर आईं, जिनमें 24 नए चेहरे थे । बारहवीं लोकसभा में 44 महिला सांसद थी और तेरहवीं लोकसभा चुनाव में 48 महिला प्रतिनिधि चुनकर संसद पहुँची ।

लोकसभा में 543 निर्वाचित सदस्यों में महिलाओं की संख्या इस समय सिर्फ 48 अर्थात् 9 प्रतिशत से भी कम है । सन् 1952 के पहले आम चुनाव से लेकर अब तक महिला सदस्यों का अनुपात दस फीसदी से नीचे बना हुआ है ।

महिलाएँ जिस तेजी से हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, उसे देखते हुए जनता के लिए कानून बनाने वाली संस्थाओं में महिलाओं का इतना कम प्रतिनिधित्व होना संसदीय व्यवस्था के लिए सुखद नहीं है । चुनाव में धन और बाहुबल के जरिए जिस प्रकार उम्मीदवार कीचड़ उछालते हैं, उसके बावजूद जो महिला जीतकर आती रही है यह काबिले तारीफ है ।

किन्तु पंचायतों की भाँति यदि लोकसभा और विधानसभाओं में महिला सीटें आरक्षित हो जाएँ, तो वहाँ से महिलाएँ ही चुनकर जा सकेंगी । यदि एक तिहाई आरक्षण की सहमति बन गई तो 48 की जगह 181 महिलाएँ लोकसभा की शोभा बढ़ाएंगी और निश्चय ही लोकसभा को कहीं आकर्षक, अनुशासित और उपयोगी बनाने में सहायक होंगी ।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सम्पूर्ण परिदृश्य को बदल सकती है यह तो स्पष्ट हो ही गया । भारत की बात करें तो भारत एक ग्राम प्रधान देश है । ग्रामों में महिलाओं की स्थिति का आकलन किए बिना हम उनके सम्पूर्ण योगदान को नहीं देख सकते । हालाँकि ग्रामीण भारत में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है ।

यह तो सर्वविदित है कुछ दशक पहले तक ग्रामीण विकास में उनका योगदान प्रायः नगण्य था । परन्तु अब जब सम्पूर्ण परिदृश्य ही बदल रहा है तो गाँव भी अछूते नहीं रह सकते । वहाँ भी अब महिलाएँ गाँव के विकास में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं । अब हम देखते हैं कि वह किस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में विकास और खुशहाली का बिगुल बजा रही है ।

पंचायती राज प्रणाली के क्रियान्वित होने से सम्पूर्ण ग्रामीण व्यवस्था में परिवर्तन आया । पंचायती राज में महिला आरक्षण की माँग को देखते हुए इस वे संशोधन में कमजोर और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के साथ ही सभी स्थानीय समीतियों में महिलाओं के लिए एक तिहाई संख्या का आरक्षण भी किया गया है । दिसम्बर 92 में इस बिल को पास किया गया ।

इस संविधान संशोधन के बाद भारत के पारम्परिक पुरुष प्रधान और पितृ सत्तात्मक निर्णय लेने वाले समाज में अब निर्णय की प्रक्रिया में महिलाओं को निर्णय लेने की भूमिका से अलग रखा जाता रहा है । यद्यपि यह सही है कि महिला आरक्षण से सुनिश्चित प्रतिभगिता की गारंटी नहीं मिल सकती तथापि आगे बढ़ने का महिलाओं के लिए अवसर अवश्य है, जिसका उन्हें सदुपयोग करना चाहिए ।

पुरुष प्रतिनिधि व महिला प्रतिनिधि के लिए अब पंचायत राज व्यवस्था में समान अधिकार है, क्योंकि दोनों समान चुनाव प्रक्रिया में सत्ता में आए हैं और जब देश की जनसंख्या का आधा हिस्सा महिलाओं का है जो नीति-निर्धारण और निर्णय प्रक्रिया में उनका समान प्रतिनिधित्व होना वांछित है ।

यह भी सही है कि अभी निरक्षरता, चुनावी राजनीति के रूप में कार्य कर रही है जहाँ अभी भी वास्तविक सत्ता ऐसी महिला प्रतिनिधियों के पिता, भाई पति आदि के हाथ में है । इन सब परिस्थितियों के बावजूद कुल मिलाकर सामान्य तौर पर पंचायतीराज से समाज में एक सकारात्मक बदलाव आया है ।

आत्मविश्वास के निर्माण, जानकारी तक पहुँच, ईमानदारी, सहनशीलता, जिम्मेदारी, गम्भीरता, सक्रियता, आशावादिता उपलब्ध संशोधनों के सदुपयोग और महिलाओं में पाए जाने वाले सहज स्वाभाविक गुण से वे कुशल राजनेता बन सकती हैं । परन्तु यह जरूरी नहीं है कि यदि आप सत्ता में हैं तो राजनेताओं जैसा व्यवहार करें ।

राजनीतिक टकराव की जगह नहीं है । पंचायत व्यवस्था में सुनिए और सुनाइए और इस सुनहरे अवसर का उपयोग एक नए स्वस्थ समाज बनाने में करना चाहिए । इसी से मूक वाणी मिलेगी और सजग निर्णय से दमनकारी सामाजिक ढाँचे को चुनौती दी जा सकेगी ।

आज ठेकेदार, अधिकारी और राजनेता की तिगड़ी को तोडने में महिला प्रतिनिधि कारगर भूमिका अपना सकती है । गिनती में ताकत होती है और यदि महिला सही, स्पष्ट और निर्भीक है तो पुरुष की भीड़ में भी उसकी आवाज सुनी जाएगी ।

ग्राम पंचायतों को अनेक काम सौंपे गए हैं । इनमें प्रमुख है, ग्रामीण आवास व्यवस्था, प्रदूषण रहित पीने के पानी की व्यवस्था, खेती और बागबानी को प्रोत्साहन, बंजर भूमि का विकास, गोबर का समयक् उपयोग, पशुपालन, मुर्गी पालन और डेरी को बढ़ावा देना, पशुधन की नस्ल सुधार, चारागाह का विकास, मछली पालन, सामाजिक और कृषि वानिकी, लघु वन उपज, ईंधन, चारा, खादी ग्राम और कुटी उद्योगों को बढावा देना, घाटों और जलमार्गों का निर्माण, गाँवों में बिजली का वितरण, ग्रामीण साफ सफाई, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण और रख-रखाव, बायोगैस, पवन चक्की, उन्नत चूल्हे और गैर पारम्परिक ऊर्जा श्रोतों को बढावा, महामारियों की रोकथाम, खाद्य वस्तुओं की बिक्री, महिला कल्याण योजनाएँ, वृद्धावस्था और विधवा पेंशन आवश्यक वस्तुओं के वितरण के लिए जन-चेतना को बढ़ावा देना, कमजोर वर्गों और अनुसूचित जातियों के लिए कल्याण कार्यक्रम, प्राथमिक शिक्षा को प्रोत्साहन, सार्वजनिक भूमि से हुई आमदनी और अन्य प्रकार के शुल्क आदि से हुई आय शामिल हैं ।

अनेक प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करने के लिए राज्य पंचायतों को और भी अधिकार सौंप दिए हैं । 73वें संशोधन के बाद इस त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था से प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण को बल मिला है और ग्रामीण जनता का नीति-निर्धारण और निर्णय प्रक्रिया में प्रभावी योगदान शुरू हो गया है ।

शुरू-शुरू में दिक्कतें जरूर हैं । मानवीय साधन और आर्थिक बल की कमी है और सरकारी अधिकारी इस व्यवस्था के प्रति आश्वस्त नहीं है । फिर भी अनेक स्वैच्छिक संस्थाएँ इन पंचायत प्रतिनिधियों को जागरूक करने के लिए शिविरों का आयोजन करते हैं । और इनसे विशेषकर महिला प्रतिनिधियों की कारगर भूमिका को बल मिला है ।

इस त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के नव निर्वाचित प्रतिनिधि विशेषकर नव निर्वाचित महिला सदस्यों से लगातार सम्पर्क और बातचीत से जो अनौपचारिक प्रशिक्षण शुरू हो चुका है वो इस व्यवस्था में आश्चर्यजनक बदलाव ला सकता है ।

अब तो महिला सदस्याएं भी अपनी समस्याओं व सामाजिक प्रश्नों को सामने लाने लगी हैं । इससे स्पष्ट होता जा रहा है कि यह सदस्य ही इस व्यवस्था की सीढ़ियाँ हैं । अब ग्राम हो या शहर किसी भी समाज को जोड़ने व उसके विकास में संचार माध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है ।

अब इन संचार माध्यमों मैं महिलाओं की कोई भूमिका न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता । यूँ तो पारम्परिक से लेकर अत्याधुनिक तक, संचार के अनेक माध्यम आज उपलब्ध हैं लेकिन समाज के आचरण, दृष्टिकोण और विचारों में जितना परिवर्तन टीवी, फिल्म और पत्र-पत्रिकाओं के जरिए आया उतना शायद अन्य माध्यमों से नहीं ।

यही वजह है आए दिन ये माध्यम अपनी गतिविधियों-प्रस्तुतियों को लेकर चर्चा में रहते हैं और ऐसी चर्चाओं-आलोचनाओं का केन्द्र अक्सर महिला व उनसे जुड़े मुद्दे भी रहते हैं । चूँकि ये माध्यम दृश्याधारित होने के कारण आम पाठक-दर्शक पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं ।

लिहाजा समाज या समाज की आधी आबादी महिलाओं का इससे अप्रभावित रहना सम्भव नहीं है । ऐसा नहीं है कि महिलाओं की भागीदारी मीडिया में नगण्य है बल्कि वे जहाँ हैं वहाँ किसी से कम नहीं हैं । लेकिन सवाल पूरे देश की महिलाओं के व्यापक सरोकारों का है ।

वे सरोकार जो संचार-माध्यमों के जरिए सामने लाए जा सकते हैं और देश दुनिया का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं ये मुद्दे उनकी छवि को लेकर हो सकते हैं, उनके निरन्तर उत्पीड़न से जुडे हो सकते हैं, उनके अधिकारों और प्रगति को लेकर भी हो सकते हैं ।

स्वयं महिलाएँ काफी संख्या में इन माध्यमों के संचालन से जुड़ी हुई हैं । वे संपादक, पत्रकार, निर्माता-निर्देशक से लेकर तकनीकी पक्ष भी सँभाल रही हैं लेकिन वह इन माध्यमों की नीति-नियामक अथवा संचालन न के बराबर है ।

जिससे महिला मुद्दों की आवाज अपेक्षाकृत दबी-दबी-सी रह जाती है । महिलाओं को लेकर मीडिया में पूर्वाग्रह कायम ही है । वे आज भी ‘साफ्ट प्रोग्राम’ या अन्य दोयम कार्यों से जोड़ दी जाती हैं अथवा एंकर, प्रस्तुता मात्र बना दी जाती हैं ।

हालाँकि इस स्थिति में हो रहा है । संस्थाओं संगठनों में अग्रिम पंक्ति में जगह पाने में सफल हो रही है । ऐसी स्थिति मैं महिलाओं को शामिल किया जाए । इससे वे पुरुषों के समान ही सक्षम होने की भावना विकसित कर सकती हैं ।

परन्तु मीडिया के विषय में हमें कुछ नकारात्मक पहलु भी मिलते हैं जिसका आकलन महिलाओं की भूमिका को जानने के लिए आवश्यक है । तमाम शोध-विश्लेषणों से यह तथ्य सामने उभरकर आया है कि महिलाओं से जुडे नकारात्मक पहलुओं को उभारने में मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिया रहा है ।

आए दिन महिला को केन्द्र में रखकर होने वाले अपराध, हिंसा व अन्य घटनाएँ इसका उदाहरण है । यही नहीं विज्ञापनों, फीचर-पन्नों आदि में नारी देह को भुनाने व उसके जरिए दर्शक-पाठक बटोरने में वह पीछे नहीं रहा है । यानी नारी को भोग्य अथवा ‘वस्तु’ समझने की प्रवृत्ति पर भी पूरी अंकुश नहीं लग सका है । स्वयं महिलाओं को सम्बोधित करने वाली पत्रिकाएँ भी इसमें पीछे नहीं हैं ।

महिलाओं से जुड़े अपराधों को सनसनीखेज अथवा चटपटा बनाकर परोसने और फिर चुप्पी साध लेने की मीडिया की प्रवृत्ति घातक है । जब किए न सिर्फ उसे महिला हित के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना चाहिए बल्कि मामलों, वारदातों की तह में जाकर लगातार विश्लेषणात्मक खबरें भी देना चाहिए । माध्यमों का इन मामलों में अचानक मौन धारण कर लेना महिलाओं के विरुद्ध अपराध की संस्कृति को अपरोक्ष प्रोत्साहन देता है ।

अनेक नकारात्मक पहलुओं के बावजूद भी मीडिया से सम्बन्धित कुछ सकारात्मक सार्थन कार्यक्रम सामग्री भी दृष्टिगोचर हुई है जो महिलाओं व उनसे जुड़ी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं । इसके तरह कामकाजी महिलाओं की समस्याओं, सफल महिलाओं से संवाद, महिला विषयों पर खुली परिचर्चा अथवा धारावाहिक वृतचित्र रूप में अनेक कार्यक्रम सामने आए हैं ।

इन्हें समाज के एक बड़े वर्ग में पंसद भी किया गया है । महिला सबलीकरण और अधिकारों से जुड़े कार्यक्रमों का रेडियो, टी.वी. पर नियमित प्रसारण होता है । इसके अतिरिक्त अब विज्ञापनों मुख पृष्ठों में भी स्त्री का प्रस्तुतीकरण सम्मानपूर्ण करने का प्रयास किया जा रहा है ।

पत्र-पत्रिकाओं में महज रसोई, बागवानी, बुनाई और सौन्दर्य प्रसाधन आदि पर केन्द्रित सामग्री के अलावा सफल महिलाओं की कथा, साक्षात्कार आम महिलाओं के विचार, नई तकनीक व रोजगार के अवसर शैक्षिक व सूचनात्मक सामग्रियों का भी समावेश किया जाने लगा है । इस दिशा में महिलाओं की पत्रिकाएँ विशेष भूमिका निभा रही है । वह इस क्षेत्र में विशेष भूमिका निभा रही है क्योंकि स्वयं महिलाओं के बारे में सोच भी काफी हद तक मीडिया से तय होती है ।

महिलाएँ ही संवेदनशील मुद्दे जैसे- भ्रूण हत्याएँ, बाल विवाह, दहेज उत्पीड़न, सामूहिक बलात्कार, जबरन वैश्यावृत्ति, लिंग भेद, नारी हिंसा, बाल श्रम, जैसी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर सकती हैं । और वे यह काम सफलतापूर्वक निभा भी रही हैं । आज मीडिया ने भी महिलाओं का समाज का अभिन्न अंग मानकर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है ।

इस सबके अतिरिक्त अब तक पुरुषों का क्षेत्र समझे जाने वाले खेल-कूद में भी महिलाओं का योगदन अविस्मरणीय रहा है । कुछ दशक पहले तक महिलाओं के लिए यह क्षेत्र वर्जित माना जाता था । परन्तु महिलाओं ने अपने अदम्य साहस से यहाँ भी अपना परचम लहराया है ।

भारतीय परिवेश में देखे तो खेलकूद के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं के योगदान को तीन भागों में बाँटा जा सकता है । पी.टी. ऊषा से पहले का युग, पी.टी. ऊषा के बाद का युग । इस बात में कोई सन्देह नहीं कि पी.टी. ऊषा भारत की अब तक की सबसे महान महिला खिलाडी हैं ।

1980 के दशक में एथलेटिक्स के क्षेत्र में उन्होंने जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं उनसे भारत में महिला खेलकूद को जोरदार बढावा मिला और यह नई ऊँचाइयों तक पहुँचा । भारतीय महिलाएँ अब तक इस स्तर तक नहीं पहुँच पाई । इसके बाद तो भारतीय महिलाओं ने एथलेटिक्स के क्षेत्र में पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1980 के दशक से तो भारत ने ऐशियाई खेलों में जितने भी पदक जीते उनमें से अधिकतर महिलाओं ने जीते हैं ।

1970 के दशक के अन्त तक केरल महिला एथलेटिक्स के क्षेत्र में एक सशक्त ताकत के रूप में उभरकर सामने आ चुका था । राज्य में स्पोर्टस होस्टल खोले जाने से खेलो को खूब बढ़ावा मिला और यह प्रक्रिया जारी है । गीता जुत्श ने बैकांक में 1978 के एशियाड में 800 मीटर की दौड स्पर्धा में पहला स्थान प्राप्त कर स्वर्ण पदक जीता और इस तरह के सन्धु के बाद यह गौरव प्राप्त करने वाली अगली भारतीय महिला बनी ।

1982 में राजधानी दिल्ली में आयोजित एशियाई खेलों में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने अपने शानदार प्रदर्शन से सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया । हॉकी में जहाँ भारतीय पुरुष टीम फाईनल मुकाबले में पाकिस्तान से 7-1 से बुरी तरह हार गई वहीं महिलाओं ने स्वर्ण पदक जीतकर देश के गौरव की रक्षा की । एथलेटिक्स में केरल की एम.डी. वलसम्मा ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा, 400 मीटर बाधा दौड में उन्होंने भविष्य के प्रति कई आशाएँ जगाई । इसके एक दो साल बाद पी.टी. ऊषा उनसे भी आगे बढ गई ।

1980 के दशक में दक्षिण भारत से एथलेटिक्स में नाम कमाने वाली महिला खिलाडियों में शाइनी अब्राहम (बाद में जो विल्सन हो गई), अश्विनी नाचाप्पा, रीथ अब्राहम और वन्दना राव प्रमुख है । 1998 में बैंकाक में आयोजित पिछले एशियाई खेलों में महिला धाविका ज्योतिर्मय सिकन्दर ने दौड़ स्पर्धा में दो स्वर्ण पदक जीते ।

लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है पी.टी. ऊषा के उभरकर आने की प्रेरणास्पद गाथा जिसका विस्तार कुछ इस प्रकार है- 1976 में बारह वर्ष की उम्र में ऊषा कमर जिले में खेल प्रभाग की योजना में शामिल हुई । केरल राज्य परिषद् द्वार संचालित इस योजना के अन्तर्गत ऊषा को ओ.एम. नाम्बियार का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ और पूरे खेल जीवन में मिलता रहा ।

1970 के दशक के उत्तरार्ध में राष्ट्रीय खेल क्षितिज में छाए रहने के बाद पी.टी. ऊषा ने 1980 में कराची में आयोजित पाकिस्तान के राष्ट्रीय खेलों में (अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के धावकों को चयन करने के लिए आयोजित किया गया था ।) पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में प्रवेश किया । इस तरह ओलम्पिक पदक प्राप्त करने के मार्ग में अग्रसर हुई ।

1992 में पहली बार एशियाड में शामिल हुई और अपने देश की धरती पर 100 मीटर और 200 मीटर स्पर्धाओं मैं रजत पदक जीते । इसके बाद तो उन्होंने एशियाई खेलों में हमेशा स्वर्ण पदक जीते । उनके प्रशिक्षक नाम्बियार को उन पर पूरा भरोसा था और वे मानते थे कि ऊषा में विश्व स्तर की खिलाड़ी बनने की क्षमता है ।

इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने ऊषा को 1984 में लॉस एंजलिस ओलम्पिक के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया । उन्होंने 400 मीटर की बाधा दौड़ में अपना ध्यान केन्द्रित करने का फैसला किया जो कि ओलम्पिक मैं पहली बार आयोजित की जा रही थी ।

पी.टी. ऊषा ने इस सेमी फाईनल में जीत हासिल कर दुनिया में सुखियों में अपना नाम लिखाया । उन्होंने 55-54 सेकंड का समय लेकर ओलम्पिक स्पर्धा में पहली बार भारत को यह गौरव दिलाया । इतनी ही नहीं वह ओलम्पिक पदक की प्रबल दावेदार भी मानी गई ।

स्वतन्त्रता के बाद 1970 के दशक में महिला खेलकूद के क्षेत्र में एंग्लो इंडियन, पारसी, सिक्ख समुदाय का बोलबाला था । महिला की जागृति को लेकर इस समुदाय के जो विचार थे और जो उदार चेतना थी उससे केटी चार्जमैन और गुल नासिक बाला (टेबिल रोइस), कवंलजीत संधु (एथलेटिक्स) तथा जेनी सेंडीसन (टेनिस) जैसी महिलाओं को आगे आने में मदद मिली ।

कवलजीत संधु पहली भारतीय महिला थीं जिन्होंने सिकी अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा में स्वर्ण पदक प्राप्त किया । 1970 में बैंकॉक में आयोजित एशियाई खेलों में वह 400 मीटर दौड़ मैं पहले स्थान पर रहीं । जेन सेंडीसन का जन्म पश्चिम बंगाल के खड्‌गपुर मैं हुआ । वह विम्बलडन में प्रवेश करने वाली भारतीय मूल की पहली महिला थीं । हालाँकि वह 1929 ओर 1930 में दोनों बार पहले राउंड में ही प्रतियोगिता से बाहर हो गईं ।

टेनिस और टेबिल टेनिस की तरह हॉकी में भी 1960 के दशक तक एंग्लों इंडियन और पारसी लड़कियों का बोलबाला था । आजादी के बाद के प्रारम्भिक वर्षों में तो भारतीय महिलाओं के लिए ज्यादा अवसर नहीं थे । सिर्फ एथलेटिक्स, हॉकी, टेबिल टेनिस, टेनिस और बेडमिंटन में ही महिलाएँ बढ़-चढ़कर भाग ले पाती थीं ।

महिला खिलाड़ियों की पोशाक का मुद्‌दा भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था । 1970 के दशक तक भारतीय महिलाएँ शाटर्स और स्कर्ट पहनकर स्पर्धाओं में भाग नहीं ले पाती थी । 1970 के दशक में इसकी शुरुआत की । इसमें पहले एग्लो इंडियन व पारसी महिलाओं ने शुरुआत की ।

इसके पहले आमतौर पर वे टेनिस तथा अन्य स्पर्धाओं में साड़ी या सलवार कमीज पहनकर ही भाग लेती थीं । A Century of Indian Tennis (2001) में पी.के. दत्तर ने लिखा हैं- पोशाक और बहुत से सामाजिक पूर्वाग्रहों ने भारतीय महिलाओं के सार्वजनिक रूप से खेलने में बहुत बड़ी अड़चनें डालीं ।

इनकी वजह से वे न तो मुक्त रूप से खेलकूद में भाग ले पाती थीं और न ही कोई उकृष्टता प्राप्त कर सकती थीं । नतीजा यह हुआ कि लम्बे समय तक खेलकूद कुछ ऐसे गिने-चुने पश्चिमीकृत भारतीय परिवारों तक सीमित रहे जिनकी महिलाएं स्कर्ट और जैकेट जैसी पश्चिमी परिधान पहनकर टेनिस आदि खेल सकती थी । द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक यही स्थिति रही ।

इस तरह की शर्तें और पाबन्दियों ने सिर्फ टेनिस में बल्कि लगभग हर तरह के खेलकूद में भाग लेने वाली महिलाओं पर लागू होती थीं । और इनसे खेलकूद के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति पर बुरा प्रभाव पडा 1951 में नई दिल्ली में आयोजित पहले एशियाई खेलों में रोशन मिस्त्री (पारसी) ने 100 मीटर की स्पर्धा में रजत पदक जीता ।

लेकिन भारतीय महिलाओं को स्वर्ण-पदक जीतने में करीब 20 वर्ष लगे । बैंकाक एशियाई खेलों में दौड़ स्पर्धा की प्रबल दावेदार ताईवान की ची चेंग के चोट की वजह से खेल से बाहर हो जाने पर कंवलजीत सन्धु का भाग्य चमका । इस तरह इस सिख बालिका ने भारतीय खेलकूद में नया इतिहास रचा ।

इसी तरह खिताब की एक अन्य दावेदार इसरायली खिलाड़ी-एस्थररॉट भी प्रतिस्पर्धा में भाग नहीं ले पाईं क्योंकि उनके देश के प्रतियोगिता में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । इससे भी सन्धु को भारतीय खेलों के इतिहास का नया अध्याय लिखने में मदद मिली ।

केरल के जिस क्षेत्र से उनका सम्बन्ध है वह पय्योली और सारे देश की निगाहें पय्योली एक्सप्रेस पर टिक गई । लेकिन स्पर्धा का फैसला फोटो फिनिश यानी कैमरे से लिए गए चित्र के जरिए किया जिसमें वह चौथे स्थान पर घोषित की गई । इस तरह ओलम्पिक सम्मान का अवसर उनके हाथ से निकल गया ।

इसके अगले साल जकार्ता में एशियाई ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिता में ऊषा ने पाँच स्वर्ण और एक कांस्य पदक जीतकर सारी निराशाएँ दूर कर दीं । 1986 के साल एशियाई खेलों मैं भी उन्होंने चार स्वर्ण और एक रजत पदक जीता । 1990 के दशक में महिलाओं के लिए अस्वाभाविक समझे जाने वाले एक खेल भारोत्तोलन में देश का नाम चमकने लगा ।

परम्परागत रूप से पुरुषों की प्रधानता और ज्यादा ताकत की जरूरत वाले खेलों में भारतीय महिलाओं का भाग लेना ही इस बात का सबूत है उन्होंने इन दशकों में क्या-क्या उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हैं । कुंजुरानी देवी और कर्णम मल्लेश्वरी ने अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में न सिर्फ भाग लिया, बल्कि पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया ।

कुंजारानी के आगमन से देश का ध्यान पूर्वोत्तर क्षेत्र की ओर आकृष्ट हो गया तो खेलकूद सम्बन्धी उपलब्धियों की दृष्टि से अब तक लगभग अज्ञात-सा रहा था । हालाँकि वे विश्व स्तर की स्पर्धा में स्वर्ण पदक तो नहीं जीत पाईं मगर उन्होंने रजत और कांस्य पदक जीते ।

कुंजारानी और मल्लेश्वरी एशियाई खेलों में भी छाई रही । कोई दिन ऐसा नहीं होता था जब दोनों कोई पदक बटोरकर नहीं लाती हो । कुंजुरानी ने 50 से अधिक अन्तर्राष्ट्रीय पदक जीते ओर 48 किलोग्राम भार वर्ग में पाँचवीं सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का श्रेय प्राप्त किया ।

सन् 2000 के सिडनी ओलम्पिक में भारतीय टीम में मल्लेश्वरी का नाम शामिल न किए जाने को लेकर जोरदार विवाद उठ खड़ा हुआ । आरोपों-प्रात्यारोपों की झडी लग गई । मगर इस सबके बीच मल्लेश्वरी ने धैर्य और संयम नहीं खोया । यह अफवाह भी उड़ाई गई कि मल्लेश्वरी ने लापरवाही से अपना वजन बढ़ा लिया है । 54 किलोग्राम वर्ग से शुरू करके वह पहली बार 69 किलोग्राम भार वर्ग में हिस्सा लेने जा रही थी ।

मगर सिडनी ओलम्पिक में आन्ध्र प्रदेश की इस लड़की ने अपने तमम .आलोचकों के मुँह बन्द कर दिए । उन्होंने ओलम्पिक में पदक जीतने वाली महिला होने का गौरव प्राप्त किया । ओलम्पिक में भाग लेने जा रही मल्लेश्वरी से यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत प्रतियोगिता से खाली हाथ नहीं लौटेगा ।

चीन की विंनिंग लिन और बुल्गारिया की इर्ससेबेट मार्क्स ने कुल 242.5 किलोग्राम वजन उठाया । बुल्गारिया की खिलाड़ी को अपने शारीरिक वजन की वजह से रजत पदक से सन्तोष करना पड़ा । मल्लेश्वरी ने 240 किलोग्राम भार उठाकर भारतीय खेलों के इतिहास में नया अध्याय रचा ।

1970 के दशक में भारतीय महिलाएँ क्रिकेट ओर फुटबाल के खेलों में भाग लेने लगी थी, जबकि उस समय ये पुरुषों के खेल माने जाते थे । हालाँकि फुटबाल में भारतीय महिला खिलाड़ियों का प्रदर्शन बड़ा ही मामूली रहा, लेकिन क्रिकेट में शान्ता रंगासवामी और डायन एड्डुल्जी जैसी हस्तियाँ उभरकर सामने आई जिनकी महानता की धूम सदा बनी रहेगी ।

एड्डुल्जी रेलवे की पुरुषों की रणजी ट्राफी टीम के चयनकर्ताओं में भी शामिल हैं जो कि शायद दुनिया में यह गौरव प्राप्त करने वाली प्रथम महिला हैं । 1970 के दशक में तीन खडिलकर महिलाओं ने शतरंज में नाम कमाया । उनकी परीक्षण स्पर्धा पुरुषों की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप के ‘ए’ वर्ग में क्वालिफाई करने वाली पहली दो महिलाओं स्वाति घाटे और एस. विजयलक्ष्मी ने ली ।

सिडनी ओलम्पिक में दो और महिला खिलाड़ियों ने अन्य लोगों के निराशाजनक प्रदर्शन के बीच अच्छा प्रदर्शन किया । निशानेबाज अंजली वेदपाठक ओलम्पिक में एयर रायफल (10 मीटर) के फाइनल तक पहुँचने वाली पहली भारतीय महिला बनी, जबकि के.एम. बीनामोल ने 400 मीटर के सेमीफाईनल में पहुंचने में कामयाबी पाई ।

जूडो खिलाड़ी ब्रजेश्वरी देवी ने भी अच्छा प्रदर्शन किया । अब जबकि भारतीय महिलाएँ बॉक्सिंग और कुश्ती जैसी स्पर्धाओं में भाग लेने लगी हैं तो उनके सामने उपलब्धियों का सीमाविहीन आसमान फैला हुआ है और वे कुछ भी हासिल कर सकती हैं ।

आज नवनिर्माण का युग है ओर इस नवनिर्माण में नारी का सहयोग वांछनीय है अथवा यों कहें कि अपने आने वाले युग का नेतृत्व नारी करेगी तो भी अतिश्योक्ति न होगी । नवनिर्माण एवं युग परिवर्तन कहाँ से और कैसे आरम्भ होगा व उसमें क्या रोग रहेगा इस विषय की चर्चा करने से पूर्व प्रस्तुत विषय स्थिति पर विचार करना आवश्यक है ।

संक्षेप में आज का मानव जीवन भीषण परिस्थितियों से गुजर रहा है । उसका जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन इतना अशांतिमय एवं आभावग्रस्त हो गया है कि मनुष्य को पल भर का चैन नहीं । तृतीय विश्व युद्ध के कगार पर खड़ी मानवता विज्ञान को कोस रही है । और सुरक्षा एवं शान्ति के लिए त्राहि-त्राहि कर रही है ।

भौतिकवाद के नाम में एक देश दूसरे देश को एक जाति दूसरी जाति को एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को हड़पने की ताक में बैठा है । युद्धीय अस्त्र शास्त्रों की होड़ ने तथा विषैले बमों ने विश्व शान्ति को खतरे में डाल रखा है जीवन में जो अनावस्था आ गई है उसका कोई अन्त नहीं जीवन के हर क्षेत्र में हम पिछड़ गए हैं । और अध: पतन की ओर जा रहे हैं । सामाजिक विशृंखलता, नेतिक पतन, राजनैतिक विप्लव धार्मिक अन्धानुकरण व अधार्मिकता, नैतिक पतन आज के जीवन में घुन की भाँति है ।

ऐसी पृष्ठ भूमि में आज विश्व की माँग है शान्ति की प्रेम की सुरक्षा की तथा संगठन की । आज के युग की सबसे बड़ी माँग है नवनिर्माण की प्रस्तुत परिस्थितियों में आमूल परिवर्तन एवं क्रान्ति की । आज हम युग परिवर्तन के प्रहरी बनकर विश्व को शान्ति का दीप दिखाएँगे ।

फिर से हमें अपने भारतीय ऋषि मुनियों की परम्परा को जीवित करना होगा फिर से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक नैतिक व नैष्ठिक पुनरोत्थान की भावना को जन-जन में भर देना होगा । फिर से धार्मिक व भारतीय होने के नाते प्रत्येक नर-नारी को देश के नवनिर्माण में प्रणपण से जुट जाना होगा ।

इस युग परिवर्तनकारी आन्दोलन में और जागरण की स्वर्णिम बेला में भारतीय नारी का प्रथम उत्तरदायित्व है वह इस दिशा में कदम उठाए । आज की नारी सजग है, वह स्वतन्त्रता, सजगता व मर्यादा की प्रहरी है । नारी के प्रति जो अत्याचार किया उसके प्रति पुरुष समाज को प्रायश्चित करना होगा ।

अब कन्याओं को मूक पशु की भाँति बेचा न जा सकेगा । उस वैदिक काल में अपाला, घोषा, मैत्रयी, गार्गी जैसी महान रमणियाँ हुईं, अनेक वेद मन्त्रों की रचना करने वाली ऋषिकाएँ हुईं । आज उन्हीं की जन्मभूमि पर नारी पर किया जाने वाला अत्याचार क्यों ।

आज के युग में भारतीय नारी की शिक्षा का औसत सोचते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । और आश्चर्य होता है क्या यही उन ब्रह्मवादियों की भूमि है ? जो अत्याचार आज तक नारी पर अबला समझकर किए गए उससे अन्तरिक्ष फट पड़ा हो परन्तु पुरुष का हृदय न पसीजा ।

किन्तु इस सबका यह तात्पर्य नहीं है कि स्थिति यथावत् है आज भारतीय नारी हर क्षेत्र में कार्य कर रही है वह युग का निर्माण करने के लिए सम्पन्न है । युग करवट ले रहा है । परिस्थितियों का घटनाक्रम तीव्र गति से घूम रहा है । मानवता के अर्द्धभाग को छोडकर कोई देश व समाज उन्नति नहीं कर सकता ।

अपने कर्तव्यों व अधिकारों के पोषण के लिए भारतीय नारी कटिबद्ध होकर कार्यक्षेत्र में उत्तर रही है । नारी की शिक्षा का प्रतिशत बढ़ाने के साथ-साथ उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्व को ढालना होगा, दासता की शृंखलाओं से मुक्त करना होगा और पुरुष समाज को समझना होगा कि नारी उपयोग व वासना की वस्तु नहीं, एक जीती जागती आत्मा है उसमें भी प्राण हैं, मान है और स्वाभिमान की भावना ।

जब से नारी की प्रताड़ना व अवहेलना आरम्भ हुई भारत का भाग्य बोल उठा । नारी आज हर कदम पर नई प्रेरणा देगी उसकी अगम शक्ति को प्रतिस्थापित करना होगा । वह ममतामयी माँ है, स्नेहमयी बहन है, पतिपरायण पत्नी है किन्तु दूसरी ओर वह चंडी, काली, दुर्गा भी है । नारी ही वीर पुत्रों को जन्म देती है ।

ध्रुव, प्रहलाद, अभिमन्यु, शिवाजी, राणा प्रताप, को जन्म देने वाली महिलाएँ भारत में ही हुई, किन्तु हम भूल गए उन सतियों के तेज को, उन वीर प्रसवनी जननियों के उन कुल ललनओं को और नारी का तेज आभूषणों की चमक व रेशमी परिधानों में धूमिल पड़ गया ।

इस चतुर्मुखी निर्माण की बेला में नारी को प्रेरणा लेनी होगी । उसमें फिर से आत्मबल लाना होगा । जो आज की शिथिल नारियाँ हैं उन्हें आर्थिक स्वतन्त्रता एवं पाश्चात्य सभ्यता को अपनाकर भारतीय गौरव को कलुषित नहीं करना चाहिए । देश में कन्याओं की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाना चाहिए ।

यह एक स्वयं सिद्ध सत्य है कि नारियाँ शिक्षित होगी तो पुरुष समाज तो स्वत: सुधार लिया जाएगा । माताओं और पत्नियों के संस्कार से पुरुष समाज अपने आप सुसंस्कृत होगा । देश की मान मर्यादा की रक्षा करने वाली नारी जब नव-विहान का स्वर गुंजायमान कर देगी तो कोई सन्देह नहीं हमारे देश में आज फिर हरिश्चन्द्र, महाराणा प्रताप, राम, भीम और अर्जुन पैदा होंगे । परन्तु नारियों को स्वयं भी प्रयास करना होगा उसे घिनौने वातावरण को छोड़कर, परवशता की ग्रंथियों को काटकर आगे बड़े और समाज सुधार का नैतिक उत्थान का धार्मिक पुनर्जागरण का सन्देश मानवता को दे ।

पुरुषों से कन्धा मिलाकर घर और बाहर दोनों क्षेत्रों में नारी को कार्य करना होगा । आज भारत की माँग है- अध्यात्म एवं वेदिक धर्म का पुनुरुत्थान और भारतीय धर्म एवं संस्कृति का पुर्नरात्थान । जब घर-घर में पुन: वेदों की वाणी गूँज उठेगी तब भारत फिर से अपने प्राचीन जगदगुरु के गौरव को प्राप्त करेगा ।

हर क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक राजनैतिक शैक्षणिक एवं नैष्ठिक पुनर्संगठन करते हुए आज की शिक्षित नारी जिस पथ का निर्माण करेगी वह पथ बडा सुगम एवं आध्यात्मिक होगी । फिर से भारत में ऋषियों की परम्परा जागृत होगी फिर से नारी की मातृशक्ति रूप में पूजा होगी, और हम सम्पूर्ण विश्व को एक मौलिक प्रकाश एवं नैतिक सन्देश देंगे । नारी ही घर-घर में ऐसा वातावरण उपस्थित कर सकती है जो भारतीय संस्कृति पर आधारित है वह आज सबला बनकर चेतना, प्रेरणा मुक्ति एवं आध्यात्मिकता की साकार मूर्ति के रूप में अवतरित हो रही है ।

नारी का सहयोग परिवार में, समाज में आरम्भ होगा एक ऐसा वातावरण बना देगा जहाँ फिर से दधीची, कर्ण और राम पैदा होंगे । नारी की सबल प्रेरणा पुरुष को नव शक्ति से भर देगी, किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि उसे आत्म बल, चरित्र बल, तप, बल में महान बनाना होगा ।

नारी विश्व की चेतना है, माया है, ममता है, मोह और मुक्ति है किन्तु समय-समय पर उसका अवतरण भिन्न-भिन्न रूपों में होता है । आज हमें इन क्षत्रणियों की आवश्यकता है जो समय पडने पर रामरांगण में उतर पड़े, साथ ही यह न भूलना चाहिए कि उसे पारिवारिक इकाई से विस्तृत क्षेत्र की ओर बढ़ना है ।

गहनों से लदी रहने वाली भोग-विलासिनियों की आवश्यकता नहीं आज तो सभी कर्मठ महिलाओं की आवश्यकता है जो पुरुष समाज एवं जाति तथा सम्पूर्ण देश को भारत की संस्कृति का पावन सन्देश देकर देश में, घर-घर में फिर से प्रेम, त्याग, बलिदान, पवित्रता एवं माधुर्य का सन्देश दे ।

अफलातून नामक यूनानी दार्शनिक ने कहा था, नारी स्वर्ग और नरक दोनों का द्वार है, बस आज फिर से नारी जाति कटिबद्ध हो जाए और अपने बल से पृथ्वी पर ही स्वर्ग का अवतरण करें । एक समय एक्वीनास नामक योरोपीय दार्शनिक ने कह था कि विधाता ने अपना सारा कोमलत्व नारी हृदय को दे दिया, काश पुरुष उस माता के हृदय को समझ पाता ।

बार-बार नारी को यह बोध कराना होगा कि वह अमित शक्ति का भंडार है, प्यार एवं प्रेरणा का स्रोत है- आवश्यकता है । वह सद्प्रयत्न में अपनी शक्ति लगाए और उसकी प्यार भरी स्वर्गी आत्मा का मूल्यांकन किया जाए ।

उद्‌बोधन का स्तर सुनने वाली कर्तव्य बोध कराने वाली नारी से आज माँग की जाती है कि वह युग परिवर्तन के इस संक्रान्ति काल में अपना उत्तरदायित्व निभाए तथा संगठित होकर पुन: भारत की सतियों का गौरव प्राप्त करें ।

पंचायत एवं महिलाएं:

विगत वर्षों से पंचायत स्तर पर महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा महिला आरक्षण की व्यवस्था की गई है जो कुल संख्या का लगभग एक तिहाई है ।

महिला आरक्षण की स्थिति अलग-अलग निम्न प्रकार से है:

i. अनुसूचित जाति के लिए लगभग 21 प्रतिशत पद आरक्षित होंगे जिसमें कम से कम एक तिहाई महिलाएं होंगी ।

ii. अनुसूचित जनजाति के लिए 2 प्रतिशत पद आरक्षित होंगे जिसमें एक तिहाई पद महिलाओं के लिए होंगे ।

iii. पिछड़े वर्ग हेतु 27 प्रतिशत पद आरक्षित होंगे जिसमें एक तिहाई महिलाएं होंगी ।

iv. सामान्य वर्ग की सीटों में से भी एक तिहाई पद महिलाओं हेतु आरक्षित होंगे ।

v. अनारक्षित पदों पर भी महिलाएं चुनाव लड़ सकती है ।

पंचायती राज प्रणाली में महिलाओं की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा तीन स्तरों पर प्रयास किये जा सकते हैं:

1. चयनित महिला प्रतिनिधियों की विकास के क्षेत्र में अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जागरूकता एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन ।

2. ग्राम्य विकास के लिए योग्य एवं कर्मठ महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उनको चुनाव में खड़े होने हेतु प्रोत्साहित करना ।

3. समुदाय को सही एवं योग्य उम्मीदवारों के चयन हेतु जागरूक करना ।

पंचायत में महिलाओं की भागीदारी:

पंचायत स्तर पर महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए निम्न रूप से प्रयास करने की आवश्यकता है:

a. पंचायत बैठकों में अधिक से अधिक भागीदारी:

पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत महिलाओं की भागीदारी से प्रमुख तात्पर्य है कि वे समय-समय पर आयोजित होने वाली बैठकों में अधिक से अधिक संख्या में भाग लें । ताकि निर्णय प्रक्रिया में उनकी निर्णायक भूमिका साबित हो सके ।

b. बैठकों में अपने विचार प्रस्तुत करना:

बैठकों में महिलाओं की भागीदारी करने के अलावा जरूरत इस बात की भी है कि महिलाएं चर्चा के बिन्दुओं पर अपने विचार, अपनी राय, बिना किसी बाधा के बेझिझक कहे ।

c. समस्याओं एवं मुद्दों को पंचायत के सामने रखना:

महिलाओं के लिए एक प्रमुख आवश्यकता इस बात की भी है कि वे अपनी समस्याएं, आवश्यकताएं एवं मुद्दें पंचायत के सामने रख कर हल करने का प्रयास करें ।

d. निर्णय लेने की क्षमता का प्रयोग:

महिलाएं किसी भी बात का समर्थन मात्र भावना में आकर न करें बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक बिन्दु पर निर्णय विषय के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं पर विचार करने के पश्चात ही करें ।

e. गलत चीजों का विरोध:

महिलाएं पंचायती राज प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रत्येक गलत बात का विरोध निर्भय होकर करें । जैसे- गलत प्रक्रिया, गलत निर्णय, गलत व्यवहार, अभिलेखों का गलत तरीके से रखरखाव आदि । इस कार्य में महिलाएं अन्य महिलाओं से मिलकर एक दबाव समूह का निर्माण भी कर सकती है ।