Read this article in Hindi to learn about the shortcomings of public sector enterprises along with the suggestions for improvement.

Shortcomings of Public Sector Enterprises:

यह कटु सत्य है कि सार्वजनिक क्षेत्र राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में बहुत योगदान करता है परन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है । पिछले कुछ वर्षों से बहुत सी सार्वजनिक इकाइयां, कुछ समस्याओं एवं कमियों के कारण बहुत बड़ी हानियों का सामना कर रही हैं ।

भारत के सार्वजनिक क्षेत्रों के असन्तोषजनक निष्पादन के लिए जिम्मेदार विविध प्रकार के तत्त्वों की पहचान की गई है । परियोजना के निर्माण में बहुत बड़ी लागत तथा लम्बा समय सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता में बाधा बनते हैं । इसके मुख्य कारण भूमि प्राप्त करने सम्बन्धी समस्याएँ साजों सामान एकत्रित करना, नागरिक कार्य करना आदि है ।

यह देखा गया है कि परियोजना की अनुचित स्थान पर स्थिति (जैसे नागालैण्ड पेपर प्रोजैक्ट), अपर्याप्त तकनीक (जैसे IDPL का सर्जिकल ईन्स्ट्रुमैन्टर प्लांट), तर्क हीन उत्पाद-मिश्रण (जैसे सेलम स्टील प्लांट) तथा थोंपे गये विपणन प्रबन्ध (जैसे कुदरेमुख औयरन और प्रोजैक्ट) ने कई प्रोजैक्टों के निष्पादन को गम्भीरता से प्रभावित किया है । उर्वरक क्षेत्र में, तकनीक का चयन विदेशी वित्त की उपलब्धता से बन्धा हुआ है तथा इससे यह कार्य बुरी प्रकार से प्रभावित हुआ है ।

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इसके अतिरिक्त विद्युत क्षेत्र में, उत्पादन क्षमताओं में अत्याधिक निवेश के अनुरूप तर्कहीन मूल्य निर्धारण तथा शुल्क दर जो बड़े स्तर पर प्रति-रियायतों ने इस क्षेत्र में आन्तरिक साधनों की उत्पत्ति को समाप्त कर दिया है । इसकी सीधी प्रतिक्रिया पुन निवेश करना तथा विद्युत की माँग को बढाना है ।

इन सब कारणों से बहुत से प्रान्तीय बिजली बोर्डों (SEBs) द्वारा हानि उठायी गई है । वर्ष 1991-92 में अनुमानित हानि 4535 करोड़ थी अथवा सभी प्रान्तों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के कुल अनुमानित योजना व्यय का 41 प्रतिशत था ।

विश्व बैंक ने अपने हाल ही के अध्ययन में कहा, ‘व्यापार में अधिकारी वर्ग’ (1995) ने राज्य स्वामित्व वाले उद्यमो की कार्यशैली का अध्ययन किया । उनकी रिपोर्ट में कहा गया कि हाल ही के वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार करने में भारत कम सफल रहा है ।

विश्व बैंक द्वारा इस देश की असफलता का मुख्य कारण ‘राजनीतिक हस्तक्षेप’ को माना गया है । प्रसंगवश, यह रिपोर्ट 12 देशों के नमूना सर्वेक्षणों पर आधारित है भारत के अलावा यह देश है- चिली (Chile), इजिपट, घाना, मैक्सिको, फिलिपीन, कोरिया गणराज्य, सैनेगल, टर्की, चीन, चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया तथा पोलैण्ड ।

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इसी प्रकार, सार्वजनिक क्षेत्र सम्बन्धी अनुमान समिति ने समय-समय पर इस क्षेत्र की कार्य-शैली के सम्बन्ध में कई त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित किया है ।

विभिन्न तत्त्वों में से निम्नलिखित वर्णनीय हैं:

1. स्पष्ट लक्ष्यों का अभाव (Lack of Clear Cut Objectives):

सार्वजनिक उद्यमों में सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इनमें स्पष्ट लक्ष्यों का अभाव रहता है । एक बार इस पर दोष लगाया जाता है कि यह एक विशेष लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं दे रहा । दूसरे समय किसी अन्य लक्ष्य पर बल दिया जाता है । ऐसी संवेदनशील स्थिति में उद्यम द्वारा उसी समय उच्च स्तरीय कौशल प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र सदा इस दुविधा में है कि कौन-सी दिशा में कार्य किया जाये ।

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2. कौशल हीन प्रबन्ध (Inefficient Management):

आधुनिक काल में प्रबन्धकीय प्रभावीपन और कौशलतापूर्णता सार्वजनिक उद्यमों का नेतृत्व कर सकते हैं परन्तु दुर्भाग्य से भारत में अनुभवशाली व्यक्ति उपलब्ध नहीं है । इसके अतिरिक्त सर्वोच्च अधिकारियों को कोई दायित्व और कर्तव्य नहीं दिये जाते ।

वास्तव में उच्च अधिकारियों द्वारा वह उपनिवेश माने जाते हैं । पुन: वह इन औद्योगिक उद्यमों को भली प्रकार चलाने के योग्य नहीं होते । डॉ. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) ने औद्योगिक परिवर्तनों के प्रबन्ध सम्बन्धी अपने भाषण में कहा कि ”वह अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से करने के लिए पर्याप्त अनुभव तथा कौशल नहीं रखते ।”

3. निर्माण कार्यों के पूरा होने में देरी के कारण लागत में वृद्धि (Increase in Cost of Construction due to Delay in Completion):

प्रायः यह देखा जाता है कि बहुत सी परियोजनाएं निर्धारित समय के अन्दर पूरी नहीं की जा सकीं, केवल इतना ही नहीं बल्कि इनकी लागत भी बढ़ाई गई । उदाहरण के रूप में ट्रॉम्बे फर्टीलाइजर प्रोजैक्ट ने पूरा होने में 6-7 वर्ष लगाये जबकि इसके लिए निर्धारित समय 3 वर्ष का था । इसके परिणामस्वरूप निर्माण की लागत बढ गई ।

आरम्भ में इसकी लागत 27 करोड़ रुपए (1959) निर्धारित की गई थी, जो अन्त में वर्ष 1965 में 40 करोड़ रुपए हो गई । इस प्रकार की देरी अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक व्यय है । इस प्रकार अनेक निर्माण कार्यों में देरी एक चिन्ता का विषय बन गया है ।

4. त्रुटिपूर्ण स्थिति (Defective Location):

किसी भी उद्योग का स्थान उत्पादन लागत को प्रभावित करता है । कुछ स्थितियों में राजनीतिक तत्त्व निर्णयों को प्रभावित करते हैं । दूसरे शब्दों में वह बाद के परिणामों पर विचार किये बिना अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं । ऐसे निर्णयों से पूंजीगत साधनों की व्यर्थता होती है ।

उदाहरण के रूप में मिग (MiG) वायुयान परियोजना को दो भागों नासिक एवं कोरापुर में बांटा गया, जिनमें 900 किलोमीटरों का अन्तर था । यह केवल दो राजनीतिक वर्गों को सन्तुष्ट करने के लिए किया गया था ।

5. अधिकारी वर्ग द्वारा देरी (Bureaucratic Delay):

सार्वजनिक उद्यम वित्त मन्त्रालय से कोष की स्वीकृति दिलाने में होने वाली देरी की समस्या का सामना कर रहे हैं । इस देरी से लागत में वृद्धि तथा दक्षता कम होती है ।

6. गहन पूंजीगत उद्योग (Capital Intensive Industries):

देश में मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण उद्योगों की स्थापना के लिए सार्वजनिक क्षेत्रों को उत्पादन की बडे स्तर की तकनीकों को अपनाने का निर्देश दिया गया जोकि गहन पूजी निवेश की माँग करती है । जिसके परिणामस्वरूप रोजगार पैदा करने की प्राथमिकता और लघु स्तरीय उद्योगों का प्रोत्साहन पीछे रह गया ।

सार्वजनिक क्षेत्र की अध्ययन टीम ने बहुत से उद्यम देखे जिनमें अत्याधिक पूंजी का निवेश था । इसने ठीक ही कहा है, ”आवश्यकता से अधिक पूंजी निवेश के कारण, अपर्याप्त योजनाबन्दी, देरी और उपलब्ध व्यय में खोजे जा सकते हैं।”

7. कीमत नीति (Price Policy):

निजी क्षेत्र के उद्योग अधिकतम लाभ के लक्ष्य से चलाये जाते हैं तथा कीमतें ऐसे स्तर पर निर्धारित की जाती हैं जहां वह पूरी लागत तथा पर्याप्त लाभ उपलब्ध करवा सके परन्तु सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में मूल्य निर्धारण लाभ को अधिकतम बनाने के नियम से मार्गदर्शित नहीं होता । वहां सरकार के कुछ नियम अथवा उपनियमों का अनुसरण किया जाता है ।

दूसरे शब्दों में कीमतें निर्धारित करते समय उन्हें सामाजिक प्रतिक्रियाएं ध्यान में रखनी पड़ती हैं । कई बार जब लागतें और मूल्य बढ़ रहे होते हैं तो उन्हें कीमतें कम ही रखनी पड़ती है, जिससे व्यापारिक लाभप्रदता बहुत प्रभावित होती है । पुन: कुछ मामलों में सरकार मुख्यतः उपभोगता के हितों की रक्षा करती है तथा लाभ कमाने के विचार को महत्व नहीं दिया जाता ।

यह मूल्य नीति तर्क संगत नहीं है । श्री के. एस. कृष्णास्वामी (K.S. Krishnaswamy) ने कहा, ”सार्वजनिक क्षेत्र के उत्पादों की मूल्य प्रणाली में त्रुटियां केन्द्र एवं प्रान्तीय सरकारों के बजट के बोझ को बढ़ाती । सरकारी सहायता के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत सी इकाइयों के लिए अपने आप को बनाये रखना या अपना विस्तार करना कठिन हो गया है ।”

8. क्षमता का कम प्रयोग (Under Utilization of Capacity):

क्षमता का कम प्रयोग भी कम लाभप्रदता का एक कारण है । वर्ष 1985-86 के दौरान लगभग 24 प्रतिशत सार्वजनिक उद्यमों में 50 से 75 प्रतिशत क्षमता का उपयोग हो रहा था तथा लगभग 25 प्रतिशत इकाइयों में 50 प्रतिशत कम क्षमता का उपयोग हो रहा था ।

पांच अप्रैल, 1983 को सार्वजनिक क्षेत्र के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए ”लगभग आधे निर्माणकर्ता उद्यम अपनी स्थापित क्षमता से 75 प्रतिशत कम कार्य कर रहे हैं तथा कई तो बहुत ही कम स्तर पर ।”

9. त्रुटिपूर्ण नियन्त्रण (Faulty Control):

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निर्बल निष्पादन का एक और कारण इनका त्रुटिपूर्ण नियन्त्रण है । इस समय वित्त मन्त्रालय एवं उद्यमों के प्रभारी मन्त्री तथा संसद इनका नियन्त्रण करती है । इन उद्यमों पर संसद का नियन्त्रण बहुत कठोर है । इस प्रकार इनकी कार्यशैली में अधिक स्वायत्ता की आवश्यकता है । स्वायत्ता की वहां विशेष आवश्यकता होती है जहां विभिन्न समस्याओं पर उसी समय निर्णय लेने होते हैं ।

10. श्रम समस्या (Labour Problem):

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के दुर्बल निष्पादन का एक कारण श्रमिकों की अनुशासनहीनता भी है । श्रमिकों में अनुशासनहीनता तथा प्रबन्धन एवं श्रमिकों के बीच दुर्बल सम्बन्धों ने बड़े सरकारी उद्यमों को कठिनाई में डाला है । दैनिक कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप ने प्रबन्ध को निरुत्साहित कर दिया है ।

बहुत सी उच्च नियुक्तियां व्यवसायिक योग्यता अथवा औचित्य के आधार पर नहीं की जातीं बल्कि केवल राजनीतिक विचारों के आधार पर की जाती है । इस कारण अप्रशिक्षित कर्मचारियों की भर्ती बहुत बढ़ गई है और ऐसे कर्मचारियों को निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की तुलना में अधिक वेतन मिल रहा है ।

11. त्रुटिपूर्ण आयोजन (Faulty Planning):

बहुत-सी रिपोर्टों में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्यशैली के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि त्रुटिपूर्ण योजनाबन्दी के कारण यह उद्यम उत्पादन आरम्भ करने में बहुत देर लगा देते हैं । इसके अतिरिक्त योजना के समय को बहुत कम ध्यान दिया जाता है । कई प्रकरणों में प्रोजैक्ट रिपोर्ट से पहले ही निविदाएं आमन्त्रित कर ली गई थीं ।

सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यशैली को सुधारने के लिए सुझाव (Suggestions to Improve Working of Public Sector):

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की समस्त कार्यशैली को सुधारने के लिए बहुमुखी नीति अपनाई जाये । अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जो स्वायत्ता एवं उत्तरदायी ठहराने के बीच सन्तुलित तालमेल बैठाने के लिए गम्भीर प्रयास करेगी ।

इस समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें कीं:

1. सार्वजनिक उद्यम पूर्णतया स्वायत न हो । संसद का नियन्त्रण, परीक्षण एवं मार्ग दर्शन आवश्यक । इस कार्य के लिए नियन्त्रक कम्पनी एवं सर्वोच्च कम्पनी की स्थापना की जाये ।

2. भारतीय सरकार को नियन्त्रक कम्पनी एवं सर्वोच्च कम्पनी मण्डल से पंचवर्षीय एम.ओ.यू (MoU) आपसी समझ के स्मृति पत्र में प्रवेश करना चाहिए ।

3. परियोजना की स्वीकृति को कार्यक्रमों के क्रमिक पुन जीवित करने तथा इसके निवेश से जोड़ना चाहिए ।

4. वेतन नीति को उत्पादकता के साथ जोड़ा जाये, उद्यमों को निश्चित उच्च सीमा के साथ समझौता करने में सहायता दी जाये ।

5. उत्पादक आकृति तथा शोध एवं विकास कर्मचारियों को तकनीक के आयात की प्रक्रिया के साथ आरम्भ से संलिप्त करना प ।

अन्य सुझाव (Other Suggestion):

सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यक्षमता सुधारने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं:

1. क्षेत्र निगम (Sector Corporation):

प्रशासनिक सुधार समिति ने सुझाव दिया कि सभी सार्वजनिक उद्यमों को एक क्षेत्र निगम के अधीन लाया जाये । सभी इन्जीनियरिंग से सम्बन्धित उद्योग एक निगम के अधीन हों उसी प्रकार सभी उर्वरक उद्योग एक निगम के अधीन लाये जाने चाहिएं ।

2. निर्देशक मण्डल में सुधार (Reforms in the Board of Directors):

यह सुझाव दिया गया कि सार्वजनिक उद्यमों के विभिन्न प्रबन्धकीय मण्डलों में सुधार लाये जाये । इन मण्डलों में कार्यकर्ताओं और वित्तीय निर्देशकों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए ।

3. कुशल प्रबन्ध (Efficient Management):

सार्वजनिक उद्यमों के प्रबन्धन के लिए कुशल प्रबन्धक नियुक्त किये जाने चाहिएं । ये नियुक्तियां गुणों पर आधारित हों । देश में प्रबन्ध प्रशिक्षण की सुविधाएं विस्तृत रूप में उपलब्ध हों ।

4. उचित लेखा-परीक्षण (Proper Auditing):

सार्वजनिक उद्यमों का लेखा-परीक्षण ठीक ढंग से किया जाये । प्रशासनिक सुधार समिति के अनुसार तीन अथवा चार लेखा परीक्षण मण्डल कम्पट्रोलर और आडीटर जनरल (CAG) के सीधे नियन्त्रण में स्थापित किये जायें ।

5. मूल्य नीति (Price Policy):

सार्वजनिक उद्यमों की मूल्य नीति सम्बन्धी कोई स्पष्ट बोध नहीं है । यद्यपि कुछ देर पहले सरकार ने महसूस किया है कि सार्वजनिक उद्यमों की मूल्य नीति वर्तमान मूल्य ढांचे पर आधारित हो ।

6. कौशलता में वृद्धि (Increase in Efficiency):

सार्वजनिक उद्यमों को अपनी कौशलता का स्तर बढ़ाना चाहिए । इस सन्दर्भ में यह सुझाव दिया जा सकता है कि इन उद्यमों के लिए एक न्यायसंगत शोध विभाग हो । उत्पादन का स्तर बढ़ाने के लिए उचित प्रोत्साहन हों । नियुक्तियां योग्यता, निपुणता एवं प्रशासनिक गुणों के आधार पर हो ।

7. व्यापारिक दृष्टिकोण (Commercial Outlook):

सार्वजनिक उद्यमों को आवश्यक रूप में व्यापारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए । राष्ट्रीय हितों और लाभप्रदता के बीच सहयोग होना चाहिए । किसी भी स्थिति में सार्वजनिक उद्यमों को लाभ कमाना चाहिए ।

8. फिजूल खर्ची पर रोक (Check on Extravagance):

सार्वजनिक उद्यमों में बढ़ती हुई फिजूल खर्ची को रोका जाये । विदेशी यात्राओं, मनोरंजन मीटिंगो और गोष्टिठयों पर होने वाले खर्चे पर पूरा नियन्त्रण हो ।

9. उत्पादक क्षमता का पूर्ण उपयोग (Full Utilization of Productive Capacity):

सार्वजनिक उद्यमों को अपनी सम्पूर्ण उत्पादक कामता का प्रयोग करना चाहिए । वर्तमान उत्पादक क्षमता का पूर्ण उपयोग होने पर ही नये उद्योग स्थापित किये जायें ।

10. सार्वजनिक उद्यमों की स्वायत्ता (Autonomy of Public Enterprises):

सार्वजनिक उद्यमों को उनकी दिनचर्या में पूर्ण स्वायत्ता दी जाये । सरकार का न्यूनतम सम्भव हस्तक्षेप हो । इन उद्यमों के नियन्त्रण के लिए राजनीतिज्ञों की नियुक्ति न की जाये । तथापि यदि योग्य राजनीतिज्ञ उपलब्ध हों तो उन्हें अवैतनिक परामर्शदाता नियुक्त किया जाये ।

वी. के. आर. वी. राव (V.K.R.V. Rao) के अनुसार – ”सार्वजनिक उद्यमों के संगठनात्मक ढांचे में बहुत गंभीर परिवर्तन होना चाहिए ताकि लगभग 1200-1300 करोड़ रूपयों के अतिरिक्त वार्षिक उत्पादन का पुन: निवेश करके विकास प्राप्त किया जा सके ।”

यद्यपि सार्वजनिक उद्यमों के विभाग ने इनकी वृद्धि के विभिन्न सुझाव दिये हैं ।

वे हैं:

1. प्रत्येक उद्यम को उद्देश्य एवं लक्ष्य निश्चित करने चाहिए ।

2. प्रबन्ध का न्याय-संगत नियन्त्रण होना चाहिए ।

3. हर उद्यम को अपना साप्ताहिक लाभ-हानि खाता तैयार करना चाहिए ।

4. श्रमिकों कर्मचारियों का चयन बहुत ध्यानपूर्वक किया जाये तथा उनके प्रशिक्षण के प्रवन्ध किये जायें ।

5. प्रबन्धन पूर्णतया उद्यम की भलाई के लिए वचनबद्ध हो ।

6. प्रत्येक उद्यम की उत्पादन क्षमता का अधिकतम सम्भव प्रयोग किया जाये ।