Read this article in Hindi to learn about the problems faced by public enterprises in India.

उपरोक्त महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद यह एक स्वीकार्य तथ्य है कि लोक उपक्रम वित्तीय निष्पादन और प्रबंधकीय दक्षता के संदर्भ में पूरी तरह खरे नहीं उतर सके है । 246 लोक उद्यमों में से 140 ही लाभ में है । शेष उद्यम घाटे में है और उनमें से 50 तो रुग्ण घोषित ही चुके है ।

उपक्रमों के समक्ष निम्नलिखित समस्यायें हैं:

1. प्रबंध की समस्या:

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सार्वजनिक उपक्रमों की प्रमुख समस्या उनके प्रबंधकीय स्वरूप के निर्धारण की है । जैसे- इन्हें विभागीय पद्धति से चलाया जाये या निगम पद्धति से । वर्तमान उदारीकरण का युग इनको ‘कम्पनी’ स्वरूप देने पर जोर दे रहा है ।

2. दोषपूर्ण प्रबंध:

दोषपूर्ण और अकुशल प्रबंध के कारण उपक्रमों की आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है । पेशेवर प्रबन्धन की अवधारणा का अभाव उपक्रमों की दिशाहीनता के लिये जिम्मेदार हैं । वस्तुत: उचित प्रबन्ध के बिना उपक्रमों के सफल संचालन की उम्मीद नहीं की जा सकती है ।

3. श्रम बाहुल्यता:

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बेरोजगारी दूर करने के एक सहायक उद्देश्य से प्रेरित उपक्रमों में इतनी अधिक भर्तियां की गयी कि आज के तकनीक प्रधान युग में वे अतिरिक्त मानव श्रम के बोझ से दब गये ।

4. अतिपूंजी करण और निम्न उत्पादकता:

भारी पूंजी निवेश से बड़े-बड़े उपक्रमों को स्थापित किया गया लेकिन पूंजी के अनुपात में उत्पादकता प्राप्त नहीं हो रहीं है । सेल, ओ. एन. जी. सी. भेल जैसे कतिपय लाभदायक अपवादों को छोड़ दे तो अधिकांश उपक्रमों में यह मुद्दा गम्भीर रूप धारण कर चुका है । कुछ उपक्रम ऐसे हैं जो पूंजी निवेश के अनुपात में बहुत कम लाभ दे रहे हैं ।

5. दूषित नियोजन:

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अनेक उपक्रम मात्र दूषित नियोजन के कारण अपने उद्देश्यों में विफल रहे हैं । समय पर निर्णय का अभाव, स्थल या प्रोजेक्ट चयन में त्रुटि, दोषपूर्ण तकनीक चयन, गलत लागत-अनुमान आदि समस्याओं से उपक्रम ग्रस्त है ।

6. कठोर वित्तीय नियन्त्रण और हस्तक्षेप:

विभागीय पद्धति वाले उपक्रमों में तो राजनीतिक हस्तक्षेप होता ही है, निगम भी इससे अछूते नहीं है । कठोर वित्तीय नियन्त्रण के रहते उपक्रम स्वतन्त्र निर्णय लेने में हिचकाते हैं । उन पर सदैव लेखा परीक्षा की तलवार लटकती रहती है । हस्तक्षेप के चलते उन्हें अपने वित्तीय विनियोजन भी अनुत्पादक क्षेत्रों में मजबुरन करने पड़ते हैं जैसे कि पहले बीमा निगम और बाद में यु. टी. आई. के मामले में हुआ है ।

7. दोषपूर्ण लेखा परीक्षा:

उपक्रमों का लेखा परीक्षण व्यवसायिक दृष्टिकोण से किया जाता है लेकिन व्यवहारिक रूप से यह सरकारी परीक्षण पद्धति से प्रभावित होता है ।

8. नौकरशाही प्रवृत्ति:

सरकारी कार्मिकों और सरकारी नियमों की उपस्थिति ने उपक्रमों की उद्यमशीलता को कुप्रभावित किया है । उनमें भी सरकारी लालफिताशाही, अकार्यकुशलता आदि दृष्टि गोचर होती है ।

9. हड़ताल या तालाबन्दी:

यूनियन आदि के नेतृत्व में श्रमिक हड़तालें उपक्रमों की उत्पादकता को जब-तब नुकसान पहुंचाती रहती है ।

10. निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा:

पेशेवर प्रबन्ध के अभाव से ग्रस्त उपक्रमों को निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा करना पड़ रही है जो आर्थिक उदारीकरण के वर्तमान खुले-दौर में और गम्भीर हो गयी है ।

11. आधुनिक टेकनालॉजी का अभाव:

आज भी अनेक उपक्रम 1960 की टेकनालॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं जो उत्पादन और परिचालन-दोनों लागतों को बड़ा रही है ।

12. स्थान का चयन:

एक प्रमुख समस्या सार्वजनिक उद्योगों के स्थान से संबंधित है । इन उद्यमों की स्थापना के लिए स्थान का चयन आर्थिक और तकनीकी कारकों के आधार पर नहीं करके, राजनीतिक दबाव और प्रभाव के आधार पर किया जाता है ।

इससे उत्पादन की लागत दर बहुत अधिक बढ़ जाती है । उदाहरणार्थ, सरकार ने रेल के डिब्बे बनाने का नया कारखाना कपूरथला (पंजाब) में लगाया जो कि तात्कालिक प्रधानमंत्री के घनिष्ठ मित्र का निर्वाचन क्षेत्र था ।

13. समन्वय का अभाव:

अध्ययनवेत्ताओं ने सार्वजनिक उद्यमों और संबंधित सरकारी विभागों में समन्वय के अभाव को भी एक कारण माना है जिससे सार्वजनिक उद्यमों में लालफिताशाही और अक्षमता का प्रवेश होता है ।

14. सार्वजनिक खंड के विभिन्न निकायों में उच्च पदों पर सरकारी अधिकारियों की ही नियुक्ति की जाती है जो कि केवल आर्मचेयर (कुर्सी पकड़) अधिकारी होते हैं । वे न तो कुशल होते हैं और न ही उद्यमी ।

15. विभिन्न सार्वजनिक निकायों के संबंध में निर्मित जांच समितियों ने अपने प्रतिवेदनों में सरकारी उद्यमों के प्रति सरकार की उदासीनता को दर्शाया है ।

मोरिस ने सरकार द्वारा इन उद्यम के वित्तीय समर्थन को भी अपर्याप्त बताया । उसके अनुसार सार्वजनिक उद्यम की परियोजनाओं में लागत और समय के अधिक व्यय का कारण है परियोजनाओं के लिए उपलब्ध अपर्याप्त धन ।

रामस्वामी अययर सार्वजनिक उद्यमों के संबंध में विदेशी मुद्रा विनिमय संबंधी सीमा को भी उनके असंतोषप्रद निष्पादकता के लिए उत्तरदायी मानते हैं जिसके कारण यह निकाय समय पर प्रविधि और उपकरण नहीं खरीद पाते या व्यापारिक समझौते नहीं कर पाते ।