Read this article in Hindi to learn about:- 1. सार्वजनिक ऋण  के परिभाषाएं (Definitions of Public Debt) 2. सार्वजनिक ऋण  के प्रकार और स्वरूप (Type and Format of Public Debt) 3. सेवा और जाल (Service and Trap) 4. भार और उसके प्रभाव (Burden and Its Effects).

सार्वजनिक ऋण  के परिभाषाएं: (Definitions of Public Debt):

सार्वजनिक ऋण का सीधा अर्थ है, सरकार पर ऋण । ऐसा ऋण जो सरकार लेती है । ये ऋण आन्तरिक (देश के भीतर से) और बाहरी (विदेशों से) दोनों हो सकता है । सार्वजनिक ऋण वह ऋण है जो सरकार द्वारा जनता, बैंक, अन्य वित्तीय या व्यावसायिक संस्थानों से लिया जाता है ।

राजाओं के जमाने से ही शासक वर्ग ऋण लेते रहे हैं । राजा अपने सेठ, साहूकारों या निगम- श्रेणियों से उधार लेते थे । लेकिन आधुनिक युग के पहले तक सरकार का ऋण लेना अच्छा नहीं माना जाता था । आधुनिक युग में तो सरकारें ऋण लेने के लिए बहुत हाथ-पैर मारती है । वस्तुत: सार्वजनिक ऋण संसाधन जुटाने का महत्वपूर्ण साधन है ।

सरकार अपने व्यय की पूर्ति के लिये कराधान के अतिरिक्त हीनार्थ प्रबन्धन (घाटे का वित्त) का सहारा एक सीमा तक ही ले सकते है । अत: उसे इस “ऋण-विकल्प” का सहारा लेना ही पड़ता है जो आज की कल्याणकारी सरकारों की अनिवार्यता है । अमेरिका जैसा धनी देश सर्वाधिक ऋणी देश भी है ।

फिण्डले शिराज के शब्दों में- ”सार्वजनिक ऋण वह ऋण होता है जिसके भुगतान के लिए कोई सरकार अपने देश के नागरिकों अथवा दूसरे देश के नागरिकों के प्रति उत्तरदायी रहती है ।”

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फिलिप ई. टेलर के अनुसार- ”ऐसा ऋण जो राजकोष द्वारा जारी वचन-पत्रों में इस आशय के साथ वर्णित होता है कि वचन-पत्रों के धारक को मूलधन तथा अधिकांश मामलों में ब्याज सहित वापिस कर दिया जावेगा, सार्वजनिक ऋण कहलाता है ।”

जे.के.मेहता के अनुसार- ”सार्वजनिक ऋण वह ऋण है जिसे सरकार उन व्यक्तियों (संस्थाओं) को लौटाने के लिये बाध्य है जिनसे उसने ऋण लिया है ।”

सार्वजनिक ऋण  के प्रकार और स्वरूप (Type and Format of Public Debt):

सार्वजनिक ऋण का प्रकृति, स्रोत, भुगतान आदि आधार पर वर्गीकरण किया जाता है, जो इस प्रकार है:

1. आंतरिक और बाह्य ऋण (Internal Debt and External Debt):

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सरकार द्वारा देश के भीतर आम नागरिकों, संस्थाओं से लिया जाने वाला ऋण आंतरिक ऋण कहलाता है । स्वतंत्रता के पूर्व इसे रूपया ऋण कहते थें । आंतरिक ऋण के स्रोत है- जनता, वित्तीय संस्था, बैंक, व्यावसायिक प्रतिष्ठान और रिजर्व बैंक ।

सरकार द्वारा देश के बाहर स्थित स्रोतों से लिया गया ऋण बाहरी ऋण कहलाता हैं जिसे ब्रिटिश शासन के समय ”स्टर्लिंग ऋण” कहा जाता था । बाहरी स्रोत है-विदेशी सरकारें, विदेशी वित्तीय संस्थायें, विदेशी व्यक्ति, विदेशी प्रतिष्ठान आदि । अनिवासी भारतीयों से रिसर्जेण्ट बांड के तहत लिया गया ऋण बाहरी ऋण ही था । आंतरिक ऋण बाहरी ऋण की तुलना में बेहतर होता है ।

2. स्वैच्छिक एवं अनिवार्य ऋण (Voluntary Debt and Compulsory Debt):

यह आंतरिक ऋण के ही प्रकार है । जब सरकार जनता से जनता की इच्छा आधारित ऋण प्राप्त करती है तो इसे स्वैच्छिक ऋण कहा जाता है । जैसे इंदिरा विकास पत्र, अल्प बचत योजनाएं आदि जिसे जनता चाहे तो खरीदें या नहीं खरीदें ।

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इसके विपरीत सरकार जनता पर कानूनी बाध्यता डालकर ऋण ले तो उसे अनिवार्य ऋण कहते हैं । ऐसा युद्ध, आपदा जैसी असाधारण स्थिति में ही सरकार करती हैं । 1964 में केंद्र ने नागरिकों से अनिवार्य ऋण लिया था ।

3. उत्पादक एवं अनुत्पादक ऋण (Productive Debt and Unproductive Debt):

उत्पादक और अनुत्पादक कार्यों में निवेश के लिये जाने वाले ऋण क्रमश: उत्पादक ऋण और अनुत्पादक ऋण कहलातें हैं । हिक्स इन्हें क्रमश: सक्रिय ऋण और निष्क्रिय भार कहते हैं । उत्पादक ऋण सरकार उन परियोजनाओं के लिए लेती है जिनसे उसको आमदनी होती है ।

उदाहरण के लिए विद्युत उत्पादन परियोजनाएं, सिंचाई परियोजनाएँ, सार्वजनिक उद्यमों तथा रेलवे के ऋण । इन परिसंपतियों से अर्जित आय का उपयोग ऋण के मूल और ब्याज दोनों की अदायगी के लिए किया जाता है ।

अनुत्पादक ऋण बजट घाटा पूरा करने आपात स्थिति से निपटने, युद्ध आदि के लिये धन जुटाने आदि अनुत्पादक गतिविधियों के लिये लिया जाता है । ऋण चुकाने या व्याज चुकाने के लिये लिया गया ऋण भी अनुत्पादक होता है ।

4. निधि ऋण एवं अनिधि ऋण (Funded Debt and Non Funded Debt):

यह ऋण भुगतान की अवधि आधारित होते हैं । निधि ऋण दीर्घावधि में एक वर्ष के बाद चुकाये जाते हैं जबकि अनिधि ऋण अल्पकालिक (1 वर्ष से कम अवधि में) अवधि में चुकाना होते हैं ।

अत: पहले को चुकाने के लिये एक ”फंड” (निधि) की स्थापना कर दी जाती है । जिसमें सरकार राशि डालती रहती हैं दूसरे के लिए ऐसे ”फंड” की जरूरत नहीं होती । अत: पहले को चुकाने के लिये और ऋण नहीं लेना पड़ता लेकिन दूसरे के लिये अन्य ऋण लेने पड़ सकते हैं ।

अत: अनिधि ऋण चलित ऋण (Floating Debt) भी कहलाते हैं । अनिधि ऋण के अंतर्गत विनियोग पत्र, केंद्रीय बैंक के अर्थोपाय आदि शामिल होते हैं । निधि ऋण परिसंपत्ति के निर्माण हेतु जबकि अनिधि ऋण बजट घाटे को पाटने के लिये उगाहे जाते हैं ।

5. शोध्य एवं अशोध्य ऋण (Redeemable Debt and Irredeemable Debt):

वह ऋण जिसे सरकार निश्चित तिथि पर वापिस करने के वचन के साथ लेती हैं, शोध्य ऋण कहलाता है । इसे सीमांतकारी (Terminable) ऋण भी कहा जाता है । सरकार इस ऋण हेतु कभी-कभी शोधन निधि (Sinking Fund) भी स्थापित कर देती हैं । अशोध्य ऋण में वापस करने की कोई निश्चित तिथि नहीं होती अपितु निश्चित समय पर ब्याज-भुगतान की ही शर्त होती है । इसे सतत (Perpetual) ऋण भी कहते हैं ।

ऋण सेवा और ऋण जाल (Debt Service and Debt Trap):

ऋण पर ब्याज और ऋणों की किश्त उदायगी के लिए की जाने वाली कार्यवाही ऋण सेवा कहलाती है । ऋण जाल से आशय है ऋण चुकाने के लिये ऋण लेना ।

ऋण वापसी या ऋण विमोचन (Redemption):

सरकार द्वारा अपने ऋणों को चुकाना ही ”विमोचन” कहलाता है ।

इसके निम्नलिखित तरीके हैं:

i. वापसी या भुगतान (Refunding):

इसमें सरकार अपने ऋणों की परिपक्वता पर (अर्थात् भुगतान तिथि आने पर) नये बांड या प्रतिभूतियां जात करती है । अर्थात् इन ऋणों को नये ऋणों में बदल देती है । इससे ऋण का भार तो समाप्त नहीं होता, उल्टे बार-बार ऐसा करने पर ऋण की मात्रा बढ़ती जाती है । यह ”ऋणजाल” की स्थिति उत्पन्न कर देता है ।

ii. समापनीय वार्षिकियाँ (Terminable Annuities):

इसमें ऋण भुगतान समान किश्तों के रूप में होता है । प्रतिवर्ष सरकार समापनीय वार्षिकियाँ जारी करता है जिसके द्वारा ऋण की एक किश्त वापिस की जाती है । इससे ऋण भार प्रतिवर्ष कम हो जाता है और अंतत: समाप्त हो जाता है ।

iii. ऋण-परिवर्तन (Loan Conversion):

ब्याज दर कम होने पर सरकार महंगी ब्याज दरों के ऋणों को कम दर के ऋणों में बदल लेती है । इससे ऋण भार कम हो जाता है । यह अनिवार्य या स्वैच्छिक हो सकता है । डाल्टन इस परिवर्तन को ”आंशिक अस्वीकरण” (Partial Repudiation) कहता है ।

iv. शोधान निधि (Sinking Fund):

सरकार + ऋण वापसी के लिये पृथक् से एक शोधन निधि बना देती है । इस कोष में वह प्रतिवर्ष राशि जमा करती रहती है और इस कोष से ऋणों का भुगतान होता रहता है । यह व्यवस्थित लेकिन धीमी प्रक्रिया है, फिर सरकार वित्तीय संकटावस्था में इसमें राशि डालने के बजाय निकाल भी सकती हैं ।

v. नया करारोपण (New Taxation):

सरकार अपने ऋणों के भुगतान के लिये नये कर लगा सकती है ।

vi. पूंजीगत लेवी (Capital Levy):

सरकार जब ऋणों के भारी बोझ से दब जाती है तब वह जनता/संस्था की संपत्ति पर एकमुश्त भारी कर एक ही समय के लिये लगाकर ऋणों के बोझ को उतार फेंकती है ।

vii. मुद्रा विस्तार (Currency Expansion):

इसमें ऋण भुगतान हेतु सरकार अतिरिक्त मुद्रा छापती है जैसा कि जर्मनी ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद किया था ।

viii. लाभ का बजट (Budget of Profit):

लाभ के बजट में सरकार के पास लाभ शेष बचता है जिसका उपयोग ऋण भुगतान में किया जाता है ।

ix. इनकार द्वारा:

सरकार अपने आंतरिक और बाहरी या दोनों को देने से इंकार कर सकती है । जैसा कि सोवियत संघ ने 1917 में किया था । हिटलर और मुसोलिनी ने भी द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व ऐसा किया था । इससे सरकार की साख समाप्त हो जाती है ।

x. सकारात्मक भुगतान संतुलन (Refunding):

सरकार निर्यात बढ़ाकर तथा आयात घटाकर भुगतान संतुलन पक्ष में कर लेती है इससे प्राप्त अधिशेष का उपयोग ऋण भुगतान में कर सकती है ।

सार्वजनिक ऋण भार और उसके प्रभाव (Burden of Public Debt and Its Effects):

सार्वजनिक ऋण आंतरिक हो या बाहरी, एक बोझ माना जाता है जिसके विभिन्न प्रभाव होते हैं ।

i. प्रत्यक्ष ऋण भार (Direct Debt Burden):

विदेशी ऋण का ऋण-भार देश और नागरिकों पर प्रत्यक्ष आता है । ऋणी देश ऋणदाता देश को ब्याज और मूलधन लौटाता है । इससे नागरिकों की क्रय शक्ति विदेशियों को स्थानांतरित होती है । यह प्रत्यक्ष ऋण-भार ऋण की मात्रा अनुसार कम-अधिक होता है ।

ii. अप्रत्यक्ष ऋण-भार (Indirect Debt Burden):

नागरिकों पर अप्रत्यक्ष ऋण-भार आंतरिक और बाह्य दोनों ऋणों से आता है । लगता यह है कि आंतरिक ऋण से समाज में मात्र संपत्ति इधर से उधर स्थानांतरित होती हैं अर्थात् सरकार के ब्याज भुगतान करने से एक हिस्से की क्रय शक्ति दूसरे हिस्से में चली जाती है । लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से आंतरिक ऋण का भार समाज पर आता ही है ।

वस्तुत: सरकार द्वारा जो विकास कार्यों पर व्यय होता है उससे वस्तुओं और सेवाओं दोनों की मांग बढ़ने से कीमतों में वृद्धि होती है । इसी प्रकार विदेशी ऋण और उस पर ब्याज भुगतान से समाज की सुख-सुविधाओं में कटौती होती है और उनकी कमी से उनकी कीमतों में वृद्धि हो जाती है ।

iii. प्रत्यक्ष वास्तविक भार (Direct Real Burden):

आंतरिक ऋण से आर्थिक विषमता बढ़ती हैं । ऋणदाता नागरिकों को ब्याज और मूलधन लौटाने से उनकी क्रय शक्ति बढ़ती है जबकि जिन निर्धन कर दाताओं से कर वसूला जाता है उनकी क्रयशक्ति कम हो जाती है । कार्यशील लोगों का धन निष्क्रिय धनिकों की तरफ जाता है । विदेशी ऋण भुगतान हेतु सरकार नागरिकों पर अनेक कर लगाती हैं इससे उन पर ऋण-भार बढ़ जाता है ।

iv. अप्रत्यक्ष वास्तविक भार (Indirect Real Burden):

आर्थिक असमानताएं और करों का बोझ लोगों की काम करने की क्षमता और बचत क्षमता में कमी कर देते है । इससे अंतत: उत्पादन क्षमता कम होती है । विदेशी ऋणों के भुगतान हेतु जो अतिरिक्त कर लगाये जाते है उनसे भी अप्रत्यक्ष वास्तविक भार बढ़ता है।