Read this article in Hindi to learn about the organisation of planning department. The organisations are:- 1. तकनीकी प्रभाग (Technical Division) 2. ग्रह प्रबंध संबंधी शाखाएं (House Keeping Branches) 3. कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन (Program Evaluation Organization) 4. राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (National Informatics Center) and a Few Others.

तकनीकी प्रभाग (Technical Division):

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ये प्रभाग मुख्यत: योजना-निरूपण, योजना-प्रबोधन और योजना मूल्यांकन कार्य से जुड़े हैं । इन प्रभागों को दो वर्गों में रखा जा सकता है- सामान्य प्रभाग, जो अर्थव्यवस्था के समस्त पहलुओं से संबंधित हैं ।

ये 11 प्रभाग हैं:

i. विकास नीति संभाग,

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ii. वित्तीय संसाधन संभाग,

iii. अंतराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था संभाग,

iv. श्रम, रोजगार तथा जनशक्ति संभाग,

v. सुदूरगामी योजना संभाग,

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vi. योजना समन्वय संभाग,

vii. परियोजना मूल्यांकन तथा प्रबंध संभाग,

viii. सामाजिक-आर्थिक अनुसंधान संभाग,

ix. राज्य योजना संभाग (बहुस्तरीय योजना सीमावर्ती क्षेत्र योजना तथा पर्वतीय क्षेत्र योजना सहित),

x. सांख्यिकी तथा सर्वेक्षण संभाग,

11. प्रबोधन संभाग ।

विषय प्रभाग जो विकास या अर्थव्यवस्था के किसी विशिष्ट पहलू से संबंधित होते हैं ।

ये 16 प्रभाग हैं:

1. कृषि संभाग,

2. पिछड़ा वर्ग संभाग,

3. संचार तथा सूचना संभाग,

4. शिक्षा संभाग,

5. पर्यावरण एवं वन संभाग,

6. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संभाग,

7. आवास, शहरी विकास तथा जलापूर्ति संभाग,

8. उद्योग एवं खनिज संभाग,

9 सिंचाई तथा नियंत्रित क्षेत्र विकास संभाग,

10. शक्ति तथा ऊर्जा संभाग (ग्रामीण ऊर्जा, गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत तथा ऊर्जा नीति प्रकोष्ठ सहित),

11. ग्रामीण विकास संभाग,

12. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संभाग,

13. समाज कल्याण तथा पोषण संभाग,

14. परिवहन संभाग,

15. ग्रामीण तथा लघु उद्योग संभाग,

16. पश्चिमी घाट सचिवालय ।

इनका संबंध सामाजिक, आर्थिक जैसे सामान्य विषयों के साथ-साथ ऊर्जा, सिंचाई, कृषि, आवास जैसे विशिष्ट विषयों के साथ भी होता है । ये लगभग 25 संभाग हैं ।

ग्रह प्रबंध संबंधी शाखाएं (House Keeping Branches):

योजना आयोग में ग्रह प्रबन्ध कार्यों को सम्पन्न करने हेतु निम्नलिखित शाखाएं भी होती हैं:

i. सामान्य प्रशासन शाखा,

ii. स्थापना शाखा,

iii. लेखा शाखा,

iv. कार्मिक प्रशिक्षण शाखा और

v. सतर्कता शाखा ।

कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन (Program Evaluation Organization):

योजना आयोग के अंतर्गत एक स्वायत्त इकाई के रूप में इस संगठन की स्थापना 1952 में की गई थी । इसका प्रमुख एक निदेशक होता है जिसकी सहायतार्थ संयुक्त निदेशक, उपनिदेशक, सहायक निदेशक और अधीनस्थ स्टाफ होता है ।

कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन (पीईओ) देश व्यापी नेटवर्क है । यह एक त्रिस्तरीय संरचना है । यह क्षेत्रीय कार्यालयों के माध्यम से कार्य करता है । ये क्षेत्रीय कार्यालय चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई, लखनऊ, चंडीगढ़, जयपुर और कोलकात्ता में है । प्रत्येक क्षेत्रीय मूल्यांकन कार्यालय का प्रमुख-उप निदेशक होता है ।

इसके अलावा गोहाटी, भुवनेश्वर, शिमला, बैंगलौर, भोपाल, पटना, त्रिवेन्द्रम तथा अहमदाबाद में ”परियोजना मूल्यांकन कार्यालय” भी कार्यरत हैं । देश में परियोजना मूल्यांकन इकाईयां भी 11 स्थानों पर कार्यरत थी जिन्हें अब बंद कर दिया गया है ।

कार्य:

संगठन का मुख्य कार्य है- पंचवर्षीय योजना में उल्लेखित विकास कार्यक्रमों और योजनाओं के कार्यान्वयन का आंकलन और मूल्यांकन । इस आधार पर वह योजना और अन्य कार्यपालक अभिकरणों को आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराता है । इसका एक कार्य राज्य मूल्यांकन संगठनों की तकनीकी सलाह भी देना है ।

राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (National Informatics Center):

राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र आयोग का एक अवधारणात्मक तंत्र है । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण मंत्रिमंडल सचिवालय के सांख्यिकीय विभाग के अंतर्गत है तथापि इसकी सूचनाओं का सर्वाधिक महत्व और उपयोगिता योजना आयोग के लिए है । इसकी सूचनाओं को सीधे जिलों में कार्यरत सूचना केंद्रों से उठाने के लिए ”राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र” की परिकल्पना की गयी है ।

महात्मा गांधी एकीकृत ग्रामीण ऊर्जा एवं विकास संस्थान (Mahatma Gandhi Integrated Rural Energy and Development Institute):

बाकोली ग्राम (अलीपुर, दिल्ली) में स्थापित इस संस्थान का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा समस्या के समाधान को खोजना है । यह संस्थान योजना आयोग और दिल्ली सरकार का संयुक्त उपक्रम है ।

कार्य:

नियोजन एक तकनीकी कार्य है, अतएव आयोग को विशेषज्ञ संस्था बनाने के तर्क दिये जाते हैं । प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की उपस्थिति के कारण यह सुपर कैबिनेट बन जाता है । इससे जहां लोकतान्त्रिक सेवाओं का अतिक्रमण होता है, वहीं आयोग की स्वायत्तता धूमिल होती है ।

भारत सरकार के कार्य वितरण तथा कार्यवाही संचालन नियमों में यह वर्णन है कि योजना आयोग निम्नांकित कार्य भी संपादित करेगा:

i. राष्ट्रीय विकास में जनता का सहयोग प्राप्त करना,

ii. पर्वतीय क्षेत्रों के विकास हेतु विशेष कार्यक्रम बनाना,

iii. दूरगामी दृष्टि (पर्सपेक्टिव) पर आधारित योजनाएं निर्मित करना,

iv. व्यावहारिक मानवशक्ति शोध संसाधन से संबंधित कार्य,

v. राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र से संबंधित कार्य ।

आयोग, योजना से संबंधित हिन्दी पुस्तकों पर ”कौटिल्य पुरस्कार” भी प्रदान करता है ।

योजना आयोग के कार्य (Work of Planning Commission):

(1) देश के भौतिक, प्राकृतिक, मानवीय, तकनीकी संसाधनों का अनुमान लगाना तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुसार उन संसाधनों की वृद्धि की संभावनाओं का पता लगाना ।

(2) देश के संसाधनों के संतुलित उपयोग के लिये व्यापक प्रभावी योजना बनाना ।

(3) योजना के क्रियान्वयन के चरणों का निर्धारण करना तथा उनके लिये संसाधनों का नियमन करना ।

(4) देश के आर्थिक विकास में आने वाली बाधाओं की ओर संकेत करना तथा योजना के सफल क्रियान्वयन के लिये उपयुक्त परिस्थिति का निर्धारण करना ।

(5) योजना के प्रत्येक चरण के सफल क्रियान्वयन के लिये आवश्यक तंत्र का स्वरूप तैयार करना ।

(6) समय-समय पर योजना की प्रगति का मूल्यांकन तथा उस संबंध में आवश्यक उपायों की सिफारिश करना ।

(7) आयोग के क्रियाकलापों को सुविधाजनक बनाने तथा वर्तमान एवं भावी विकास कार्यक्रमों को ध्यान में रखते हुये अन्तिम सिफारिशें करना । केन्द्र एवं राज्यों की समस्याओं के समाधान हेतु परामर्श देना ।

समालोचना:

एक संवैधानेतर (गैर संवैधानिक नहीं) निकाय होते हुऐ भी योजना आयोग का महत्व अनेक संवैधानिक एजेन्सीयों, आयोगों से अधिक हैं । वह अपनी स्थापना की अर्धशति पूरी कर चुका है और इस दौरान उसकी भूमिका ”सलाहकारी” स्वरूप से कहीं अधिक हो चुकी है ।

नियोजन समवर्ती सूची का विषय है लेकिन योजना आयोग के माध्यम से केंद्र ने अप्रत्यक्ष रूप से ”नियोजन” के साथ संघीय सूची जैसा व्यवहार किया है । राज्यों के लिए भी योजना को अंतिम रूप योजना आयोग देता है, जबकि आयोग में राज्यों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता ।

इसीलिये अशोक चंदा कहते हैं कि, योजना आयोग ने भारत में लोकतंत्र और संघवाद दोनों को मात दे दी है । उन्ही के शब्दों में- ”आयोग ने अपने को ‘आर्थिक मंत्रीमंडल’ के रूप में स्थापित कर लिया है । उसने अपने स्तर और कार्यों का विस्तार उन क्षेत्रों तक कर लिया है जो विधिवत निर्वाचित सरकार के क्षेत्र में आते हैं ।”

के. संथानम के अनुसार वर्तमान नियोजन प्रक्रिया ने हमारी संघीय प्रणाली को मात देकर सरकार को एकात्मक स्वरूप की तरफ धकेल दिया है । योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष रहे डी. आर. गाडगिल ने भी आयोग की आलोचना उसके मार्ग भटकाव के कारण की है ।

उनके अनुसार आयोग असफल हो गया है और इसका कारण है- इस आयोग द्वारा उन विषयों से संबंधित नीतियां तैयार करना है जो विकासात्मक पक्ष से परे हैं, क्योंकि योजना आयोग वस्तुत: एक परामर्शी निकाय है, न कि नीति-निर्धारक ।

प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की सदस्यता ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा दिया है जिससे योजना आयोग और इसके निर्णयों को अनावश्यक ही असाधारण मान-सम्मान मिलने लगा है । इसके विपरीत कुछ विद्वानों का कहना है कि नियोजन एक नीतिगत मुद्दा है और नीति हमेशा राजनीतिक मूल्यों द्वारा तय होनी चाहिए अतएव इसकी राजनीतिक प्रकृति लोकतन्त्र के अनुरूप और जरूरी है ।

प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) ने योजना आयोग के वर्तमान संगठन और कार्यप्रणाली को असंतोषजनक बताकर उसमें निम्नलिखित सुधार सुझाये थे:

1. आयोग की प्रकृति गैर राजनीतिक और संवैधानेतर हो । उसमें सात सदस्य हों जिनकी नियुक्ति 5 वर्ष के लिए हो । सदस्यों में से एक अध्यक्ष नियुक्त हो ।

2. आयोग से प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों को बाहर रखा जाए यद्यपि प्रधानमंत्री का आयोग से निकट संपर्क बना रहे । वह आयोग की बैठक में भी शामिल हो सकता है, संबोधित कर सकता है, अध्यक्षता कर सकता है । वित्त मंत्री भी आयोग से संपर्क रखे ।

3. आयोग को योजना निर्माण और योजना क्रियान्वयन के मूल्यांकन तक ही अपने को सीमित रखना चाहिए । वह कार्यकारी निर्णयों से स्वयं को पृथक करें ।

4. आयोग को योजना के क्रियान्वयन से संबंधित अपना विवरण प्रतिवर्ष संसद के समक्ष रखना चाहिए । सरकारिया आयोग (1987) की सिफारिश थी की आयोग के उपाध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति को बैठाया जाए ।

निष्कर्षत:

आयोग में विशेषज्ञों का वर्चस्व और उसके परामर्शों को राजनीतिक मूल्यों के अनुमोदन के तहत रखा जाना चाहिए । मंत्रीमण्डल और राष्ट्रीय विकास परिषद इन नीतिगत मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में विशेषज्ञों के सुझावों पर विचार पूर्ववत करती रहे ।

चाहे इसका स्वरूप कैसा भी हो, आयोग ने अब तक 10 पंचवर्षीय योजनाओं और कुछ वार्षिक योजनाओं के माध्यम से भारत को आर्थिक रूप से महाशक्ति की कगार पर ला खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।

यद्यपि सामाजिक असमानताओं की खाई पाटी नहीं जा सकी है, तथापि विजन 2020 द्वारा, जिस भारत का सपना आयोग ने देखा है, उसमें सभी वर्ग नए खुशहाल, समृद्ध और शक्तिशाली भारत के सहभागी होंगे ।

राष्ट्रीय विकास परिषद् (National Development Council):

योजना को संघीय स्वरूप देने के उद्देश्य से मंत्रीमंडल के कार्यकारी प्रस्ताव द्वारा अगस्त, 1952 में राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना हुई । इसकी सिफारिश प्रथम पंचवर्षीय योजना में की गई थी । इस प्रकार योजना आयोग की भांति ही परिषद् न तो विधायी संस्था (विधि निर्मित) है, न ही संवैधानिक ।

लेकिन यह न तो अवैधानिक है, न ही असंवैधानिक । सरकारिया आयोग ने सिफारिश की थी कि परिषद को अनुच्छेद 263 के तहत संवैधानिक दर्जा दिया जाए और इसका नामकरण ”राष्ट्रीय आर्थिक और विकास परिषद” किया जाये । ये सिफारिशें नहीं मानी गयीं ।

उद्देश्य:

राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य हैं:

1. योजना को कार्यरूप देने में राज्यों का सहयोग प्राप्त करना ।

2. योजनाओं के समर्थन में राष्ट्र के प्रयासों और संसाधनों को सुदृढ़ता और गतिशीलता प्रदान करना ।

3. सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समान आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देना ।

4. देश के सभी भागों में त्वरित एवं संतुलित विकास सुनिश्चित करना ।

कार्य:

सर्वप्रथम 1952 के ही प्रस्ताव में परिषद के कार्यों का वर्णन किया गया था । बाद में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश पर 1967 में उनमें संशोधन किया गया ।

तदनुरूप परिषद के कार्य हैं:

1. राष्ट्रीय योजना को बनाने के मार्गदर्शक सिद्धांतों का निरूपण करना ।

2. योजना आयोग द्वारा निर्मित योजना पर विचार करना ।

3. योजना को कार्यान्वित करने के लिए अपेक्षित संसाधनों का आंकलन करना और उनको बढ़ाने के उपाय सुझाना ।

4. राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक और आर्थिक महत्व के विषयों पर विचार करना ।

5. राष्ट्रीय योजना से संबंधित कार्यों की समय-समय पर समीक्षा करना ।

6. राष्ट्रीय योजना में निर्धारित उद्देश्यों और लक्ष्यों की प्राप्ति के उपाय सुझाना ।

राष्ट्रीय विकास परिषद (N.D.C.) योजना का आर्थिक-सामाजिक मूल्यांकन करने वाला निकाय है । यहाँ राज्यों को अपनी विशेष स्थिति के आधार पर योजना को पुन: परिभाषित करने का अवसर मिलता है और राज्यों के द्वारा प्रस्तावित कतिपय सामाजिक मुद्दों का समावेश इस में कर लिया जाता है, जो अंतिम होता है क्योंकि राष्ट्रीय विकास परिषद (N.D.C.) से स्वीकृत योजना संसद से पारित होकर क्रियान्वयन के लिए भेज दी जाती है ।

आयोग, परिषद् और संसद (Commission, Council and Parliament):

पंचवर्षीय योजना तैयार करने की जिम्मेदारी योजना आयोग की है । तैयार योजना केंद्रीय मंत्रिमंडल के समय सर्वप्रथम प्रस्तुत होती है । मंत्रिमंडल की स्वीकृति पश्चात उसे राष्ट्रीय विकास परिषद् में रखा जाता है । परिषद की स्वीकृति (संशोधन सहित) के पश्चात संसद के समक्ष रखा जाता है ।

संसद द्वारा पारित योजना का भारत सरकार के “गजट” में प्रकाशन होता है और यह भारत सरकार की अधिकृत योजना बन जाती है । स्पष्ट है कि योजना को अंतिम रूप से भले ही संसद स्वीकृति दे, उसका अंतिम रूप से निर्धारण ”राष्ट्रीय विकास” ही करती है ।

लेकिन भारत सरकार के कार्य व्यवहार में परिषद का स्तर योजना आयोग के सलाहकारी निकाय का है । परिषद की सिफारिश की बाध्यकारी नहीं होती । परिषद वर्ष में कम से कम 2 बैठकें करती है और केंद्र और राज्य दोनों को सलाह देती है ।

समालोचना:

परिषद की उपयोगिता को निम्नलिखित बिंदुओं के संदर्भ में देखा जाना चाहिए:

1. इसने योजना को संघीय स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।

2. इसने योजना आयोग, केंद्र सरकार तथा राज्यों के मध्य तालमेल स्थापित करने के लिए ”एक पुल” का काम किया है ।

3. इसने सामाजिक-आर्थिक विषयों पर केंद्र-राज्यों को सामूहिक विचार का एक मंच उपलब्ध कराया है । इससे इन मुद्दों पर अखिल भारतीय दृष्टिकोण के विकास में मदद मिली है ।

यद्यपि कुछ आलोचकों ने इसे सुपर कैबिनेट या रबर स्टंप की संज्ञा दी है ।

के. संथानम ने अपनी पुस्तक यूनियन-स्टेट रिलेशन में लिखा है कि राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थिति पूरे भारतीय संघ में लगभग एक ”सुपर कैबिनेट” की हो गई है । वह कैबिनेट जो भारत सरकार और सभी राज्यों के लिए कार्य कर रही हो ।

ए.प.जैन पूर्व खाद्यमंत्री स्व. श्री जैन ने फूड प्राब्लम एंड दी एन.डी.सी. नामक अपने लेख में टिप्पणी की है कि- ”राष्ट्रीय विकास परिषद ने उन कार्यों पर भी अधिकार जमा लिया है जिन पर संवैधानिक दृष्टि से मंत्रिपरिषद (केंद्र और राज्य दोनों) का अधिकार है और कभी-कभी परिषद् लक्ष्यों में की गई वृद्धि को भी संबद्ध मंत्रालय से परामर्श किए बिना ही अनुमोदित कर देती है ।

नीति और नियोजन:

नीति और नियोजन दोनों भावी कार्यवाहियों की दिशा और दशा तय करने संबंधी महत्वपूर्ण प्रशासकीय गतिविधियां है । नीति और नियोजन दोनों में अंतर है । नियोजन स्वयं भी नीति का ही परिणाम होता है । वहीं नियोजन के अंतर्गत अनेक नीतिगत निर्णय लेने होते हैं ।