Read this article in Hindi to learn about:- 1. नियोजन का अर्थ (Meaning of Planning) 2. नियोजन की आवश्यकता (Need for Planning) 3. प्रक्रिया (Process) 4. भारत में नियोजन (Planning in India) 5. आयोग (Commission).

नियोजन का अर्थ (Meaning of Planning):

प्लानिंग (नियोजन) को गुलिक ने प्रशासन का पहला कार्य बताया । उद्देश्य निर्धारण के अनुरूप कार्य योजना बनाना और यह तय करना कि कार्य कौन करेगा, कब करेगा, कैसे और कहां करेगा आदि प्रशासन की सर्वत्र ही सर्वप्रथम क्रिया स्वीकारी जाती है ।

टेरी के शब्दों में- ”नियोजन भविष्य में झांकने की प्रक्रिया है । वस्तुत: नियोजन उद्देश्य प्राप्ति के लिए किये जाने वाले कार्यों और अपनायी जाने वाली प्रक्रियाओं की एक रूपरेखा है ।”  डिमॉक- ”नियोजन भावी कार्य के लिये आधार की रूपरेखा बनाने की प्रक्रिया है ।”

नियोजन की आवश्यकता (Need for Planning):

किसी कार्य को संपन्न करने से पूर्व यह बेहतर होता है कि उसके विभिन्न पहलुओं और पक्षों को पहले से निर्धारित कर लिया जाये । नियोजन भावी कार्य-प्रक्रिया के स्वरूप को निर्धारित करता है ।

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यह उपलब्ध संसाधनों और उनके युक्तिसंगत आवंटन को सुनिश्चित कर कार्य की दशा को लक्ष्य की दिशा देता है । आर. सी. माहेश्वरी के अनुसार- ”यह एक ऐसी विवेकपूर्ण प्रक्रिया है जो सभी मानव-व्यवहारों में पायी जाती है ।”

टेलर ने नियोजन को वैज्ञानिक प्रबंध का आधार माना और कहा कि यदि संगठनों को उद्देश्य प्राप्ति में सफल होना है तो उन्हें योजना का निर्माण करना चाहिए । यह नियोजन की महत्ता ही है कि साम्यवादी देशों में प्रसिद्धि के बाद पूंजीवादी देशों ने भी प्रारंभिक विरोध के बाद अंतत: मॉडल अपनाये । विकासशील देशों के समरूप आर्थिक-सामाजिक विकास, आधारिक संरचना के निर्माण और संसाधनों के युक्तियुक्त दोहन में नियोजन एक प्रबल प्रभावी यंत्र की पहचान बना चुका है ।

नियोजन की प्रक्रिया (Process of Planning):

नियोजन या योजना का निर्माण एकाएक नहीं हो जाता । इसके लिए धैर्यपूर्वक उद्देश्यों का निर्धारण, संसाधनों आंकलन और आवंटन तथा क्रियान्वयन के चरणों का संस्थापन करना होता है ।

सेक्लर-हडसन व्यवस्थित नियोजन में छह चरण मानते हैं:

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1. संभावित सीमा तक सावधानी से की गयी समस्या की परिभाषा तथा उनकी सीमा,

2. समस्याओं से संबंधित सभी उपलब्ध सूचनाओं की खोजबीन,

3. समस्या को निपटाने के लिए संभावित विभिन्न समाधान या रीतियां निश्चित करना,

4. एक या अधिक कामचलाऊ साधनों की व्यावहारिक रूप से जांच करना,

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5. अनुभव, निरंतर अनुसंधान तथा नवीन विकासों के प्रकाश में परिणामों का मूल्यांकन करना,

6. समस्या तथा परिणामों पर पुनर्विचार और यदि न्यायसंगत हो तो उन पर पुनर्निर्णय ।

मिलेट के अनुसार नियोजन में तीन मुख्य चरण होते हैं:

(1) लक्ष्यों का निर्धारण,

(2) उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उपलब्ध साधनों का आकलन तथा

(3) निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बनाये गये कार्यक्रम की तैयारी ।

सामान्य रूप से नियोजन के तीन चरण माने जा सकते हैं, जो भारत में प्रचलित हैं:

1. उद्देश्यों का निर्धारण (प्राथमिकता के साथ),

2. क्रियान्वयन,

3. मूल्यांकन ।

भारत में नियोजन (Planning in India):

भारत में नियोजन का प्रमुख दायित्व योजना आयोग का है । वह योजना का निर्माण करता है जिसे राष्ट्रीय विकास परिषद स्वीकृत करती है । स्वीकृत योजना का क्रियान्वयन सरकार के प्रशासनिक मंत्रालय करते हैं । इस प्रकार भारत में नियोजन एक सामूहिक प्रयास है ।

नियोजन की प्रक्रिया या चरण:

भारत में नियोजन की प्रक्रिया पहले ऊपर से शुरू होती थी लेकिन विकेंद्रीकरण ने इसे ”नीचे से नियोजन” का स्वरूप दिया है । वैसे पहल योजना आयोग ही करता है ।

(1) प्रथम चरण में योजना आयोग केंद्र और राज्य सरकारों के परामर्श से योजना का एक अनुमानित खाका तैयार करता है । इस प्रारूप को राष्ट्रीय विकास परिषद के समक्ष रखा जाता है । परिषद के निर्देशों के अनुरूप यह प्रारूप संशोधित होकर केन्द्र सरकार के मंत्रालयों तथा राज्य सरकारों के पास विचारार्थ भेज दिया जाता है ।

(2) दूसरे चरण के अंतर्गत संघीय मंत्रालय और राज्य सरकारें अपनी-अपनी योजनाएं तैयार करती हैं । “विकेंद्रीत योजना” के तहत राज्य सरकारें अपनी योजनाएं स्थानीय से शुरू करते हैं ।

ग्रामीण और शहरी निकायों की योजनाओं का समेकन जिला स्तर पर होता है और इन जिला स्तरीय योजनाओं को राज्य सरकारें उपलब्ध संसाधनों और नीतिगत संदर्भों को ध्यान में रखकर राज्य योजना के रूप में संशोधित और समेकित कर लेती हैं ।

(3) तीसरे चरण में पुन: योजना आयोग की भूमिका आ जाती है । संघीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों की योजनाओं का परीक्षण कर योजना आयोग उन्हें एक ”राष्ट्रीय योजना” में समेकित कर लेता है । योजना का रूप निश्चित करते समय आयोग संसद के विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों से परामर्श करता है ।

उसके पश्चात ”योजना का प्रारूप” प्रकाशित कर दिया जाता है, जो लोक-चर्चा का विषय बन जाता है । विश्वविद्यालय, प्रेस, राजनीतिक दल, व्यापार मंडल, वाणिज्य संगठन तथा अन्य समूह और व्यक्ति उस प्रारूप के विषय में अपनी-अपनी टिप्पणियां देने को स्वतंत्र होते हैं ।

(4) चतुर्थ चरण वार्ता-समझौते का है । आयोग राज्य सरकारों से उनकी योजनाओं के स्वरूप, राशि आदि को लेकर विस्तृत और लंबी वार्ता करता है । राज्यों की योजना को अंतिम रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय योजना में शामिल कर लिया जाता है । यही कार्य संघ सरकार अपने मंत्रालयों के साथ करती है ।

(5) पंचम चरण स्वीकृति का है उक्त योजना को संघीय मंत्रिमंडल की स्वीकृति हेतु उसके समक्ष रखा जाता है । यहां से स्वीकृत योजना राष्ट्रीय विकास परिषद के समक्ष रखी जाती है और तत्‌पश्चात यहां से संसद की स्वीकृति हेतु भेजी जाती है । संसद के अनुमोदन के बाद ही योजना का स्वरूप वैधानिक या सरकारी होता है और वह क्रियान्वयन के लिए संघीय मंत्रालयों तथा राज्य सरकारों को भेज दी जाती है ।

योजना आयोग (Planning Commission):

भारत में नियोजन शब्द सर्वप्रथम 1933 में गूंजा जब एम.विश्वेश्वरैया ने देश की आय को दुगुना करने के उद्देश्य से एक दस-वर्षीय योजना बनायी थी । पांच वर्ष पश्चात् 1938 में कांग्रेस पार्टी के अनुरोध पर एक राष्ट्रीय योजना समिति बनायी गयी जिसके सभापति जवाहरलाल नेहरू बनाये गये ।

1941 में भारत सरकार ने नियोजन के लिए एक समिति नियुक्त की । इस समिति के स्थान पर 1943 में कार्यकारिणी परिषद् की पुनर्संरचना समिति बनायी गयी जिसका अध्यक्ष वायसराय था । 1944 में पृथक से नियोजन विभाग गठित हुआ । इसी वर्ष मुंबई के कुछ उद्योगपतियों ने “बाम्बे प्लान” प्रस्तुत किया । श्री मन्नारायण ने भी ”गांधी योजना” प्रस्तुत की ।

1946 में के.सी. नियोगी की अध्यक्षता में गठित ”एडवायजरी प्लानिंग बोर्ड” (सलाहकारी योजना मंडल) की सिफारिश पर केंद्र मंत्रीमंडल ने एक प्रस्ताव द्वारा मार्च 1950 में योजना आयोग की स्थापना की । यह संवैधानेतर निकाय है अर्थात संविधान में इसका उल्लेख नहीं है ।

यह विधायी निकाय भी नहीं है क्योंकि संसदीय अधिनियम से इसकी स्थापना नहीं हुई है । फिर भी योजना आयोग देश के संतुलित और सर्वागिण सामाजिक-आर्थिक विकास का सर्वोच्च निकाय है । यह मात्र परामर्शदात्री निकाय है जो योजना की सिफारिश करता है । न तो वह कोई नीतिगत निर्णय लेता है न ही योजना को कार्यान्वित करता है ।

संगठन:

आयोग में सदस्यों की प्रकृति राजनीतिक और गैर राजनीतिक तथा पूर्णकालिक और अंशकालिक होती है ।

1. प्रधानमंत्री आयोग का पदेन अध्यक्ष होता है ।

2. मंत्रिमंडल द्वारा एक पूर्ण कालिक उपाध्यक्ष नियुक्त किया जाता है । उपाध्यक्ष ही आयोग का पूर्णकालिक प्रधान होता है । उपाध्यक्ष ही पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारूप को तैयार करने तथा उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल के समक्ष रखने के लिए उत्तरदायी है ।

इस की नियुक्ति मंत्रिमंडल द्वारा निर्धारित समय के लिए होती है । उसे कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त है । यद्यपि वह कैबिनेट का सदस्य नहीं है, फिर भी कैबिनेट की सभी बैठकों में उसे बुलाया जाता है (किंतु उसे मत का अधिकार प्राप्त नहीं होता।) उपाध्यक्ष राजनीतिक या गैर राजनीतिक विशेषज्ञ हो सकता है ।

3. कुछ केंद्रीय मंत्री आयोग के अंशकालिक सदस्य के रूप में मंत्रीमंडल द्वारा नामित किये जाते हैं । यद्यपि वित्त मंत्री और योजना मंत्री इस आयोग के पदेन सदस्य होते हैं ।

4. आयोग में आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी क्षेत्रों के विषय-विशेषज्ञों को पूर्णकालिक सदस्यों के रूप में नियुक्त किया जाता है । इनकी संख्या तय नहीं है । 4 से लेकर 7 तक ऐसे सदस्य हो सकते हैं । इन्हें राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है ।

5. आयोग का एक सदस्य सचिव होता है जो वरिष्ट आई.ए.एस. होता है ।