Read this article in Hindi to learn about the judiciary of India.

भारतीय संविधान ने वैसे तो संघीय शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है केन्द्रीय और राज्य के कानूनों के अस्तित्व को भी मान्यता प्रदान की है परन्तु केन्द्र और राज्य के कानूनों के संबंध में न्याय के लिए एक ही समन्वित व्यवस्था है । देश की सम्पूर्ण न्यायिक व्यवस्था के शिखर पर उच्चतम न्यायालय है और प्रत्येक राज्य या जनसमूह के लिए एक उच्च न्यायालय तथा उसके नीचे क्रमश: अनेक अधीनस्थ न्यायालय हैं ।

ADVERTISEMENTS:

भारतीय संविधान में न्यायपालिका और कार्यपालिका के पृथक्करण-सिद्धांत को अपनाया गया है कुछ राज्यों में छोटे और स्थानीय (दिवानी और फौजदारी) मामलों का न्याय करने के लिए पंचायत न्याय की व्यवस्था भी की गई है जो विभिन्न नामों से कार्य करती है ।

विभिन्न राज्यों की विधियों (कानूनी) में न्यायालयों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अधिकार क्षेत्र प्रदान किए गए हैं । प्रत्येक राज्य को न्यायिक जिलों में विभक्त किया गया है जिसका प्रमुख जिला एवं सत्ता न्यायाधीश होता है ।

वह मूल क्षेत्राधिकार से युक्त प्रधान दीवानी न्यायाधीश होता है और वह मुत्युदण्ड देने सहित सभी अपराधों की सुनवाई कर सकता है । उसके नीचे दीवानी क्षेत्राधिकार के न्यायालय होते हैं ।

दीवानी न्यायालयों की भांति ही फौजदारी न्यायालय में भी मुख्य मजिस्ट्रेट के साथ क्रमश: प्रथम श्रेणी एवं द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट न्याय की व्यवस्था करते हैं । हमारी एकात्मक न्यायपालिका पिरामिडनुमा है और उसके शीर्ष पर एक उच्चतम न्यायालय है ।

ADVERTISEMENTS:

उच्चतम न्यायालय के बाद उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के बाद जिला-न्यायालयों की व्यवस्था है । संविधान के अनुच्छेद 124-147 (उच्चतम न्यायालय), अनुच्छेद 214-231 (उच्च न्यायालय) तथा अनुच्छेद 233-237 (अधीनस्थ न्यायालय) से संबंधित है ।

उच्चतम-न्यायालय (Supreme Court):

गठन:

हमारी एकात्मक पिरामिडनुमा न्यायपालिका के सर्वोच्च शिखर पर उच्चतम न्यायालय है । इसमें 1 मुख्य न्यायाधीश सहित 26 न्यायाधीश होते हैं जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है । संविधान के अनुच्छेद 124 में उच्चतम न्यायालय के गठन से संबंधित उपबंध है ।

मूल संविधान में उच्चतम न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायाधीश-सहित 8 थी । न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि 54वें संविधान संशोधन अधिनियम 1986 द्वारा की गई । सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है ।

ADVERTISEMENTS:

राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी जो अधिकार दिए गए हैं, वे औपचारिक ही हैं । व्यवहारिक रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रधानमंत्री (मंत्रिमण्डल सहित) तथा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के विचार ही प्रमुखता रखते हैं । तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति की पुर्वानुमति से सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश करता है ।

तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेता है । विधि आयोग ने अपनी 80वीं रिपोर्ट में यह सिफारिश की है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वरिष्ठता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए ।

न्यायाधीशों की योग्यताएं (Judges’ Qualifications):

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए कुछ शर्तें रखी गई हैं ।

संविधान के अनुच्छेद 124 के उपबंधों के तहत उनमें निम्नांकित योग्यताओं का होना आवश्यक है:

i. भारत का नागरिक हो ।

ii. किसी उच्च न्यायालय में 5 वर्षों तक न्यायाधीश रहा हो या

iii. एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में 10 वर्षों तक वकालत का अनुभव हो या

iv. राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रतिष्ठित विधिवेत्ता हो ।

अभी तक किसी भी ऐसे व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नहीं बनाया गया है जो राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रतिष्ठित विधिवेत्ता हो ।

कार्यविधि एवं पदमुक्ति (Procedure and Retirement):

उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों की कार्यावधि 65 वर्ष की आयु पर्यन्त निर्धारित की गई है । एक बार नियुक्त हो जाने के बाद किसी न्यायाधीश को उसके पद से तभी मुक्त किया जा सकता है जब या तो वह अपना त्याग-पत्र प्रदान कर दे अथवा उस पर महाभियोग पारित हो जाए ।

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को सिद्ध कदाचार या असमर्थता-इन दो आधारों पर पदमुक्त किया जा सकता है । इन दो आधारों पर न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाया जाता है और इस महाभियोग की प्रक्रिया बहुत ही विस्तृत है । महाभियोग का संसद के दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में विशिष्ट बहुमत से पारित होना आवश्यक होता है ।

शपथ ग्रहण (Oath Taking):

उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश पद-भार ग्रहण करने के पूर्व राष्ट्रपति या राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति के समक्ष अपने पद की शपथ लेता है । संविधान के अनुच्छेद 124(7) के तहत सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को किसी भी न्यायालय में अभिवचन (वकालत) करने की अनुमति नहीं है ।

गण पूर्ति:

उच्चतम न्यायालय की सामान्य कार्यवाही में गणपूर्ति के लिए न्यूनतम 5 न्यायाधीशों की उपस्थिति अनिवार्य है । गणपूर्ति न होने की स्थिति में राष्ट्रपति या फिर राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से मुख्य न्यायाधीश तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है ।

वेतन भत्ते (Salary Allowances):

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 33,000 रुपये प्रतिमाह तथा भत्ता 1250 रुपये प्रतिमाह और अन्य न्यायाधीशों का वेतन 30,000 रुपये प्रतिमाह तथा भत्ता 750 रुपये प्रतिमाह कर दिया गया है । उनका वेतन एवं भत्ता भारत की संचित निधि पर भारित है । वित्तीय आपातकाल में राष्ट्रपति के आदेश द्वारा न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्तों में कमी की जा सकती है ।

उन्मुक्तियाँ:

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान किए गए हैं ।

a. उच्चतम न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश अपने पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि प्रमाणित कदाचार अथवा असमर्थता के आधार पर पदमुक्त किए जाने के लिए राष्ट्रपति का आदेश नहीं हुआ हो ।

b. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को अपने सभी निर्णय एवं कार्यों के लिए आलोचना से विमुक्त किया गया है । परन्तु इसके साथ ही यह भी व्यवस्था है कि न्यायालय कि किसी निर्णय अथवा न्यायाधीश के किसी विचार की शिक्षागत दृष्टि से आलोचना की जा सकती है ।

c. न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्ते भारत की संचित निधि पर भारित है इसलिए उन पर मतदान भी नहीं कराया जा सकता है ।

d. एक बार न्यायाधीशों की नियुक्ति हो जाने के बाद उनके सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान वेतन एवं भत्तों में किसी भी प्रकार का अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है ।

उच्चतम-न्यायालय की कार्यविधि (Procedure of the Highest Court):

भारतीय संविधान ने न्यायपालिका की सुचारु व्यवस्था के लिए उच्चतम न्यायालय को स्वयं व्यवस्था और नियंत्रण का अधिकार प्रदान किया है । उच्चतम न्यायापाल के पदाधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन भत्ते एवं उनकी सेवा-शर्तें उच्चतम न्यायालय द्वारा ही निर्धारित किए जाते हैं । इन पदाधिकारियों और कर्मचारियों पर व्यय भारत की संचित निधि पर भारित है ।

संविधान के उपबंधों के तहत उच्चतम न्यायालय के लिए निम्न कार्यविधि की व्यवस्था की गई है:

1. उच्चतम न्यायालय निम्नांकित विषयों के संबंध में कार्य कर सकता है:

(अ) संविधान की व्याख्या से संबंधित विवाद ।

(ब) कोई ऐसा विवाद जिसके साथ संविधानिक प्रश्न जुड़ा हो ।

(स) ऐसे विवादित विषय जिन पर कानून के अभिप्राय को स्पष्ट करने की आवश्यकता हो ।

(द) ऐसे विषय जिन पर विचार का कार्य भारत के राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय को सौंपा हो ।

2. अपीलीय विवाद के संबंध में भी उच्चतम न्यायालय कार्य कर सकता है ।

3. उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही के लिए गणपूर्ति की व्यवस्था की गई है जिसके अंतर्गत कम से कम 5 न्यायाधीशों की पीठ का होना आवश्यक है ।

4. उच्चतम न्यायालय द्वारा किसी मामले की सुनवाई पर निर्णय प्रत्यक्षत: और बहुमत के आधार पर दिए जाएंगे ।

उच्चतम-न्यायालय का प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (Procedure of the Highest Court):

उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार का विस्तार निम्नलिखित विवादों पर है:

i. संघ और एक या अधिक राज्यों के बीच ।

ii. संघ सरकार और राज्य तथा अन्य राज्यों के बीच ।

iii. दो राज्यों अथवा अधिक राज्यों के बीच विवाद ।

इसके अलावा संविधान का अनुच्छेद 32 उच्चतम न्यायालय को मौलिक अधिकारों को लागू करने के संबंध में व्यापक प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्रदान करता है । इसके लिए उच्चतम न्यायालय को समादेश जारी करने का अधिकार है । इस समादेश के अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण और अधिकार-पृच्छा सम्मिलित है ।

अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction):

उच्चतम न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार से संबंधित उपबंध संविधान के अनुच्छेद 132 से 134 तक में है । किसी उच्च न्यायालय के निर्णय, आदेश या अंतिम आदेश में संविधान की व्याख्या से संबंद्ध कानून के तात्विक प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय को अपीलीय क्षेत्राधिकार (दीवानी और फौजदारी दोनों मामलों में) प्राप्त है ।

इसके अतिरिक्त दीवानी मामलों में तब भी अपील की जा सकती है जब संबंधित उच्च न्यायालय इसका प्रमाण-पत्र प्रदान कर दे कि:

(अ) संबंधित मामले में कानूनी प्रश्न अंतर्निहित है ।

(ब) उच्च न्यायालय यदि ऐसा समझता है कि संबंधित मामले का समाधान उच्चतम न्यायालय में ही संभव है और फौजदारी मामलों में तब भी सुनवाई की अपील की जा सकती है, जब:

1. उच्च न्यायालय ने अपील किए जाने पर किसी व्यक्ति को दोषमुक्ति का आदेश रद्द कर मृत्युदण्ड की सजा या आजीवन कारावास या कम से कम 10 वर्ष की कैद की सजा सुनाई हो ।

2. उच्च न्यायालय ने अधीनस्थ किसी न्यायालय से कोई मामला अपने विचारार्थ मंगवा लिया है और उसे मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या कम से कम 10 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई हो ।

3. उच्च न्यायालय ने यदि यह प्रमाणित कर दिया हो कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील करने लायक है ।

परामर्शीय क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction):

उच्चतम न्यायालय को उन मामलों में परामर्शी क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं जो संविधान के अनुच्छेद 143 के उपबंधों के तहत राष्ट्रपति द्वारा विशेष रूप से विचारार्थ सौंपे गये हैं । संविधान के अनुच्छेद 371(1) के तहत आयकर अधिनियम 1961 की धारा, एकाधिकार तथा अवरोधक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम, 1969 की धारा, (1) केन्द्रीय उत्पाद शुल्क तथा नमक अधिनियम, 1944, स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम 1968(3) के मामले उच्चतम न्यायालय में भेजे जा सकते हैं ।

संविधान में यह भी स्पष्ट तौर से उल्लेखित है कि अनुच्छेद 143(2) के अतिरिक्त अन्य किसी भी मामले में उच्चतम न्यायालय परामर्श देने के लिए बाध्य नहीं है । राष्ट्रपति ने अयोध्या विवाद में 1993 में जब उच्चतम न्यायालय से परामर्श मांगा था, तब उच्चतम न्यायालय ने परामर्श देने से स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया था ।

1951 में दिल्ली लांज एक्ट विवाद में पहली बार राष्ट्रपति द्वारा परामर्श मांगा गया था । अब तक 9 बार परामर्श माँगे गये हैं । राष्ट्रपति भी प्राप्त परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है ।

पुनरावलोकन का अधिकार (Right to Review):

संविधान के अनुच्छेद 137 में यह उपबंध है कि वह अपने निर्णयों या आदेशों का पुनरावलोकन कर सकता है ।

अपने इस अधिकार का उपभोग वह निम्नांकित आधारों पर कर सकता है:

(अ) साक्ष्य के नवीन तथा महत्वपूर्ण मामलों का प्रत्यक्षीकरण ।

(ब) निर्णय में दृष्टिगत त्रुटि ।

(स) उपरलिखित दो आधारों के अलावा और अन्य कारण ।

न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार (Right to Judicial Review):

अनुच्छेद 131 एवं अनुच्छेद 132 उच्चतम न्यायालय को संघीय तथा राज्य सरकारों द्वारा निर्मित विधियों के न्यायिक पुनर्विचार का अधिकार प्रदान करते हैं । इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 13 एवं अनुच्छेद 32 तहत न्यायालय को मौलिक अधिकारों की न्यायिक सुरक्षा का अधिकार प्राप्त हैं ।

अनुच्छेद 246 में संघ और राज्यों के बीच कानून निर्माण शक्तियों के विभाजन और संरक्षण का भार उच्चतम न्यायालय पर है ।

भारतीय संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को पुनरावलोकन का जो अधिकार दिया गया है वह प्रमुखत: दो रूपों में है:

(अ) मौलिक-अधिकार ।

(ब) संघीय शासन प्रणाली ।

न्यायालय के नियम बनाने का अधिकार (Right to make Rules of Jurisdiction):

उच्चतम न्यायालय को राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से न्यायालय के नियम बनाने के अधिकार प्राप्त है ।

उच्च-न्यायालय (High Court):

उच्च न्यायालय राज्य के न्याय प्रशासन में शीर्षस्थ है । संविधान के अनुच्छेद 214 में यह उपबंध है कि प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय होगा । संसद यदि चाहे तो दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय बना सकती है । केन्द्र शासित प्रदेशों में दिल्ली का अपना उच्च न्यायालय है । वर्तमान में 21 उच्च न्यायालय हैं ।

गठन:

प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश सहित अनेक न्यायाधीश होते हैं जो समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं । उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाती है । अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है परन्तु इनकी नियुक्ति के संबंध में संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लिया जाता है ।

योग्यताएं:

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए कुछ शर्तें रखी गई हैं । उनकी नियुक्ति के लिए भी कोई निश्चित न्यूनतम आयु-सीमा निर्धारित नहीं की गई है ।

उच्च न्यायालय का न्यायाधीश वही व्यक्ति हो सकता है जो:

1. भारत का नागरिक हो ।

2. उसने भारत में कम से कम 10 वर्ष तक न्यायिक पद धारण किया हो या

3. राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रतिष्ठित विधिवेत्ता हो या

4. उसने किसी एक या अधिक उच्च न्यायालय में कम से कम 10 वर्षों तक निरंतर वकालत की हो ।

कार्यविधि एवं पदमुक्ति (Procedure and Retirement):

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को सिद्ध कदाचार या असमर्थता इन दो आधारों पर पदमुक्त किया जा सकता है । इन दो आधारों पर न्यायाधीशों के विरूद्ध महाभियोग चलाया जाता है । महाभियोग का संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा में विशिष्ट बहुमत से पारित होना आवश्यक है ।

शपथ-ग्रहण (Oath Taking):

उच्च न्यायालय का न्यायाधीश पद-भार ग्रहण करने के पूर्व राज्यपाल या उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ ग्रहण करता है ।

वेतन-भत्ते (Pay Allowances):

उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 30,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों का 26,000 रुपये प्रतिमाह कर दिया गया है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन एवं भत्ते भारत की संचित निधि से प्रदान किया जाता है ।

संविधान में यह भी प्रावधान है कि एक बार न्यायाधीशों की नियुक्ति हो जाने के बाद उसके सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान उनके वेतन एवं भत्ते में किसी भी प्रकार का अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है । यदि राष्ट्रपति ने सम्पूर्ण देश में वित्तीय आपात लागू कर दिया है तो इस दौरान राष्ट्रपति के आदेश द्वारा न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्तों में कमी की जा सकती है ।

उनमुक्तियाँ:

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान किए गए हैं ।

a. उच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश अपने पद से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि प्रमाणित कदाचार अथवा असमर्थता के आधार पर पदमुक्त किए जाने के लिए राष्ट्रपति का आदेश न हुआ हो ।

b. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अपने सभी निर्णय एवं कार्यों के लिए आलोचना से विमुक्त किया गया है । परन्तु इसके साथ ही यह भी व्यवस्था है कि न्यायालय के किसी निर्णय अथवा न्यायाधीश के किसी विचार की शिक्षागत दृष्टि से आलोचना की जा सकती है ।

c. न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्ते भारत की संचित निधि पर भारित है इसलिए उन पर मतदान भी नहीं कराया जा सकता ।

d. एक बार न्यायाधीशों की नियुक्ति हो जाने के बाद उनके सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान वेतन एवं भत्तों में किसी भी प्रकार का अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है ।

उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction of High Court):

प्रत्येक उच्च न्यायालय को मूल अधिकारों की रक्षा या अन्य किसी प्रयोजन के लिए अपने अधिकार क्षेत्र में किसी व्यक्ति, प्राधिकारी और सरकार को निर्देश, आदेश या समादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है । ये आदेश अथवा समादेश बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा के रूप में जारी किए जा सकते हैं ।

प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (Initial Jurisdiction):

प्रारंभिक क्षेत्राधिकार से संबंधित मामले में यथा वसीयत, विवाह विच्छेद, विवाह-विधि, नौकरशाही, कम्पनी कानून तथा न्यायालय के अपमान के मामले में सीधे उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है । राजस्व और उनसे संबंधित जितने भी विषय हैं वे सभी अब उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आ गए हैं ।

अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction):

भारत में स्थित सभी उच्च न्यायालयों को दीवानी तथा फौजदारी मामलों में अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं । दीवानी मामलों में आने वाला कोई भी मुकदमा (कम से कम 5,000 रुपये मूल्य का) उच्च न्यायालय में दाखिल किया जा सकता है ।

उच्च न्यायालय को निम्न मामलों पर अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं:

1. उच्च न्यायालय द्वारा ही प्रारम्भिक फौजदारी अधिकार के आधार पर लिए गए निर्णय ।

2. कोई ऐसा मामला जिसमें जिला न्यायाधीश ने किसी व्यक्ति को 4 वर्ष से अधिक की कैद की सजा सुनाई हो ।

3. सत्र न्यायालय द्वारा दी गई मुत्युदण्ड की सज़ा ।

4. प्रेसीडेन्सि मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया निर्णय ।

5. राजस्व संबंधी सभी विषयों से संबद्ध मामले ।

6. आई. पी. सी. की धारा 184 के अधीन जिला मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए निर्णय ।

7. सत्र न्यायाधीश द्वारा किसी अभियुक्त को 7 वर्ष या उससे अधिक के लिए सुनाई गई कैद की सज़ा ।

अन्य-शक्तियां (Other Powers):

उपरलिखित अधिकारों के अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें उच्च-न्यायालय का क्षेत्राधिकार है ।

वे हैं:

1. उच्च न्यायालय अपने सभी पुराने निर्णय का पुनरावलोकन कर सकता है और उसमें परिवर्तन भी कर सकता है ।

2. उच्च न्यायालय को अपने सभी अधीनस्थ न्यायालयों के निरीक्षण की शक्ति प्राप्त हैं । अधीनस्थ न्यायालय और अधिकरण अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन न करें, यह सुनिश्चित करने का अधिकार भी उच्च न्यायालय को ही है ।

3. संविधान के अनुच्छेद 226 के प्रावधानों के तहत उच्च न्यायालय ठीक उसी प्रकार मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रलेख जारी करने का अधिकार रखता है जिस प्रकार अनुच्छेद 32 के प्रावधानों के तहत उच्चतम न्यायालय ।

4. संविधान के अनुच्छेद 228 के तहत उच्च न्यायालय से किसी भी ऐसे मुद्दे को जो अधीनस्थ न्यायालयों में लम्बित हैं और उसमें संवैधानिक प्रश्न निहित है, अपने पास बुला सकता है ।

5. उच्च न्यायालय से संबद्ध पदाधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति तथा सेवा शर्तें नियम-विनियम आदि वहां के मुख्य न्यायाधीश द्वारा बनाए जाते हैं ।

6. प्रत्येक उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होता है और इसलिए उच्च न्यायालयों के आदेशों-निर्देशों (निर्णयों) का अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पालन अनिवार्य है । उच्च न्यायालय को मानहानि के लिए दण्ड देने का अधिकार है ।

अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts):

a. अधीनस्थ न्यायालयों का संचालन सिद्धांत- दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 और फौजदारी प्रक्रिया संहिता 1973 तथा अन्य स्थानीय कानूनों के आधार पर किया जाता है ।

b. देश के हर भाग में थोड़े बहुत अंतरों के साथ अधीनस्थ न्यायालयों का आकार प्रकार और उसकी कार्यावधि लगभग एक समान है ।

c. अधीनस्थ न्यायालय या फौजदारी मामलों की सुनवाई अपने अधिकार-क्षेत्र में रहते हुये करते हैं ।

d. जिला-स्तर के अधीनस्थ न्यायालय को जिला एवं सत्र न्यायालय के नाम से जाना जाता है ।

e. अनुच्छेद 233 में जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान है ।

f. अधीनस्थ न्यायालयों की दूसरी श्रेणी के न्यायालय ”मुंसिफ न्यायालय” या दीवानी न्यायालय या ”प्रथम श्रेणी जुडीशियल मजिस्ट्रेट न्यायालय” के नाम से जाने जाते हैं । साधारणतया इन न्यायालयों की स्थापना प्रखंड (तहसील) स्तर पर की जाती है । जिसके अधिकार-क्षेत्र में अनेक तालूक या तहसील हो सकती है ।

पारिवारिक-न्यायालय (Family Court):

पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 के अंतर्गत विवाह संबंधी और अन्य पारिवारिक मुद्दों की सुनवाई के लिए पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की गई है । इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य सरकार उन क्षेत्रों में जहां की जनसंख्या 10 लाख से अधिक हो अथवा जहां राज्य आवश्यक समझे पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना कर सकती है ।