Read this article in Hindi to learn about role of civil society in a developing country with challenges.

विकास के दूरगामी लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में विकासशील समाजों के सामने निम्न आय और जीवन स्तर, भुखमरी, बेकारी, गरीबी के साथ अकार्यकुशल प्रशासनिक संरचना जैसी चुनौतियां है । इन चुनौतियों से राज्य अपनी नीतियां और राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ अपने प्रशासन के माध्यम से ही निपट सकता है । अतएव लोक सेवा की भूमिका विकासशील समाजों में मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए अति विशिष्ट और महत्वपूर्ण है ।

विकासशील समाजों के प्रमुख लक्षण (Major Signs of Developing Societies):

इरविंग होरोविज तथा ईराशार कैन्सकी ने विकासशील समाज उन देशों को कहां है, जो विकास के एक उच्च स्तर की ओर चल रहे है । अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका के अनेक राष्ट्र विकासशील है ।

कैन्सकी ने विकासशील समाजों के 5 प्रमुख लक्षण बताए हैं:

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1. राजनीतिक दलों में विकास के प्रति वचनबद्धता पाई जाती है । औद्योगिक विकास, कृषि उत्पादन में वृद्धि जीवन स्तर ऊंचा उठाना, स्त्रियों, निम्नवर्गों के स्तर को ऊंचा उठाना, राष्ट्रीय एकीकरण आदि सामान्य लक्ष्य होते हैं ।

2. नेतृत्व के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का सहारा लिया जाता है । सरकारी अंगों का समान विकास नहीं होता और नौकरशाही तन्त्र पर निर्भरता अधिक होती है । असफल लक्ष्यों की संख्या अधिक होती है और नागरिक अशांति अधिक रहती है ।

3. विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, जातिगत सांस्कृतिक विभिन्नताओं के मध्य अस्थिरता, अशांति बनी रहती है ।

4. अभिजाती नगरीय संस्कृति और देहाती संस्कृति के मध्य गहरी खाई होती है ।

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5. असंतुलित विकास, नौकरशाही की भूमिका, करिश्माई नेतृत्व, भ्रष्टाचार, औपचारिकतावाद आदि इनकी विशेषताएं होती हैं ।

वस्तुत: विकासशील समाज में राजनीतिक सामाजिक नेतृत्व कुछ ही हाथों में केन्द्रीत रहता है । आर्थिक केन्द्रीयकरण अत्यधिक पाया जाता है तथा राजनीतिक, आर्थिक अस्थिरता विकास को अवरूद्ध करती है ।

रिग्स के अनुसार ये वे समाज है जिन्होंने विशिष्टीकरण का स्तर आधुनिक तकनीक के लेनदेन में आवश्यक भूमिकाओं का विशेषीकरण तो प्राप्त कर लिया हैं, लेकिन इन्हें जोड़ने में असफल रहे हैं ।

लोक सेवा के समक्ष चुनौतियां (Challenges before Civil Services):

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विकासशील समाजों में लोक सेवा के समक्ष निम्नलिखित चुनौतियां दृष्टिगत होती है:

(i) असंतुलित विकास:

विकासशील समाज गत वर्षों तक औपनिवेशिक दासता में जकड़े रहे । औपनिवेशिक ताकतों ने उनके संसाधनों का दोहन अंधाधुंध किया तथा इस दोहन के ही रेल, सड़क आदि का विकास किया । इससे इन देशों के विकास में असंतुलन उभर आया और अनेक क्षेत्र पिछड़ गए । लोकप्रशासन को अब संतुलित और समग्र विकास के लिए कार्य करना है ।

(ii) सामाजिक पिछड़ापन:

विकासशील राष्ट्रों में सामाजिक सेवाओं का स्तर न्यून हैं । शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पोषण सभी क्षेत्रों में ये पिछड़े हुए है । निरक्षरता के अभिशाप ने इनको राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सभी मोर्चों पर विफल कर रखा है ।

लोक प्रशासकों को न सिर्फ इन मोर्चा पर विजय प्राप्त करने के लिए योजनाओं का मुस्तैदी से क्रियान्वयन करना है, अपितु प्रचलित अंधविश्वासों, रूढ़ियों, दकियानूसी प्रथाओं से भी समाज का दूर ले जाना है ।

(iii) आर्थिक पिछड़ापन:

औपनिवेशिक शोषण ने इन राष्ट्रों को आर्थिक रूप से दरिद्र बनाकर छोड़ा था । इन देशों के पास पर्याप्त पूंजी का अभाव है । तथा तकनीकी पिछड़ेपन ने आर्थिक विकास की गति को अवरूद्ध कर रखा है । प्रति व्यक्ति आय का निम्नस्तर औद्योगिक पिछड़ापन बचत और निवेश की न्यून दर आर्थिक दुर्बलताएं इनके लिए अभिशाप बनी हुई है ।

(iv) तकनीकी पिछड़ापन:

विकासशील देशों ने आधुनिक तकनीक के स्थान पर अभी भी परम्परागत तकनीक का प्रयोग, कृषि उद्योग, प्रशासन आदि क्षेत्रों में बना हुआ है । यद्यपि कम्प्यूटराइजेशन हो रहा है, ट्रेक्टर, हार्वेस्टर का प्रयोग भी हो रहा है तथापि उनके विस्तार की गति धीमी है ।

(v) औद्योगिक पिछड़ापन:

विकासशील सामाजों की एक बड़ी चुनौती उनका औद्योगिक पिछड़ापन है । औद्योगिकीकरण की दर अपेक्षाकृत कम है क्योंकि एक तो औद्योगिक संस्कृति का अभाव है, दूसरा पर्याप्त पूंजी का भी अभाव है । इन्हें आयातित तकनालॉजी पर निर्भर रहना पड़ता है, जो काफी महंगी है ।

(vi) जनसंख्या आधिक्य:

अधिकांश राष्ट्र जनसंख्या विस्फोट की स्थिति में है । चीन, भारत जैसे देशों में विकास की सबसे बड़ी बाधा उनकी जनसंख्या सघनता है । जितना विकास वे करते है, बड़ी हुई जनसंख्या उसे चट कर जाती है ।

(vii) विघटनकारी प्रवृत्तियां:

विकासशील राष्ट्रों में जातीय, धार्मिक, भाषायी, अल्पसंख्यकों की समस्या है, जिनके कारण विघटनकारी, अलगाववादी गतिविधियां राष्ट्रीय एकीकरण के समक्ष चुनौती बनकर खड़ी है ।

(viii) भ्रष्टाचार, भाई-भतिजावाद:

ये समाज भ्रष्टाचार, भाई-भतिजावाद से इस हद तक पीड़ित है कि जनता का प्रशासन, राजनीति में विश्वास डगमगा गया है । प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने जनता के विकास को लील लिया है ।

(ix) नौकरशाही तन्त्र:

प्रशासन स्वयं भी समस्या ग्रस्त है । उसमें विलम्ब से कार्य करने की प्रवृत्ति है और अकार्यकुशलता का बाहुल्य है । वह जनता का सेवक समझने के स्थान पर अपने को स्वामी मानता है और तदनुरूप व्यवहार करता है ।

(x) नीति निर्माण में जनता की कम भागीदारी:

अशिक्षा, जागरूकता की कमी आदि के चलते मतदान का प्रतिशत कम है; अर्थात् नीति निर्माण में जनसहभागिता का अपेक्षित स्तर प्राप्त नहीं हो पाया है । इसी प्रकार प्रशासन भी जनता को सत्ता सौंपने के मार्ग में बाधा बना हुआ है ।