Read this article in Hindi to learn about the classification of budgets.

(1) निर्माण के आधार पर (On the Basis of Construction):

i. व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित बजट ।

ADVERTISEMENTS:

ii. कार्यपालिका द्वारा निर्मित बजट (भारत में यही प्रचलित है) ।

iii. मण्डल या आयोग द्वारा निर्मित बजट (अमेरिका के कुछ राज्यों में प्रचलित है) ।

(2) स्वरूप के आधार पर (On the Basis of Format):

a. लाइन आइटम बजट (Line-Item Budget):

यह बजट का परम्परागत रूप है । यह 18वीं-19वीं सदी में विकसित हुआ । इस बजट में वस्तुओं या मद का महत्व अधिक होता है । उन मदों या वस्तुओं पर खर्च से क्या उद्देश्य हासिल होगा, इस पर नहीं । इसका मुख्य उद्देश्य अपव्यय, अधिक खर्च और बर्बादी को रोकना है ।

ADVERTISEMENTS:

i. लाइन-आइटम बजटिंग में सार्वजनिक व्यय पर कठोर नियन्त्रण रखने के उद्देश्य को प्रमुखता दी जाती है । इसमें बजट को सार्वजनिक खर्च पर नियन्त्रण रखने की विधि के रूप में देखा जाता है जिसका परिणाम वस्तुनिष्ठ बजट के रूप में सामने आता है ।

ii. इसमें व्यय की प्रत्येक मद को पंक्तिवार (लाइन) लिखा जाता हैं ।

iii. इसमें यह देखा जाता है कि जिस मद पर खर्च की स्वीकृति हुई है, वह उसी पर व्यय हो, यद्यपि लाइन आइटम बजट को इस वस्तुनिष्ठता के बजाय एक दूसरे रूप में भी बनाया जाता है । जिसमें एक मद का पैसा दूसरे मद में भी खर्च करने की अनुमति रहती है ।

iv. इसमें खर्च की जाने वाली राशि पर जोर अधिक रहता है, उससे क्या परिणाम हासिल हुआ, उस पर नहीं ।

ADVERTISEMENTS:

v. इसे अभिवर्धन बजट व्यवस्था भी कहते हैं क्योंकि बजट राशि सदैव पूर्व की अपेक्षा अधिक दी जाती है । वैसे यही बजट अन्य सुधारात्मक बजट जैसे शून्य बजट आदि का आधार होता है ।

b. कार्य निष्पादन बजट (Performance Budgeting):

यह 1930 की मंदी का परिणाम था । सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में हुवर आयोग (1949) ने इसकी सिफारिश की थी और 1950 में राष्ट्रपति ट्रुमेन ने इसे अपनाया था ।

i. निष्पाद नबजट (Performance Budget) शब्दावली सर्वप्रथम हुवर कमीशन (1949) ने ही प्रयुक्त की थी ।

ii. हुवर आयोग ने कार्य, कार्यक्रम और क्रिया को बजट का आधार बनाने की सिफारिश की थी, जो कार्य निष्पादन बजट के 3 प्रमुख तत्व हैं ।

iii. यह बजट व्यय को सीधे उपलब्धियों से जोड़ देता है । यह व्यय के स्थान पर व्यय के उद्देश्य पर आधारित है । इससे बजट का स्वरूप लोकतांत्रिक हो जाता है । सरकारी गतिविधियां स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती हैं । व्यवस्थापिका को स्पष्ट हो जाता है कि सरकार कौन से कार्यक्रम या परियोजनाएं शुरू कर रही है । इससे अगले वर्ष इनकी प्रगति के बारे में वह प्रभावशाली ढंग से पूछ सकती है ।

iv. यह नवीन लोक प्रशासन की देन है और वित्तीय प्रशासन में सुधार का आवश्यक अंग है । इसे शुरूवात में कार्यात्मक बजट या गतिविधि-बजट कहा जाता था ।

परिभाषाएं:

बर्कहेड के अनुसार- ”निष्पादन बजट को इस प्रकार के बजट से संबंधित किया जा सकता है जिसमें उन कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जाता है जो सरकार करती है । यह बजट उपलब्धि के साधनों से ध्यान हटाकर स्वयं उपलब्धि की ओर ध्यान केन्द्रित करता है ।”

प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार- ”कार्य-निष्पादन बजट सरकार की गतिविधियों को कार्यों, कार्यक्रमों, क्रियाओं एवं परियोजना के रूप में प्रकट करने की एक प्रविधि है ।”

निष्पादन बजट के चरण:

निष्पादन बजट के निम्नलिखित चरण हैं:

i. सभी सरकारी क्रियाओं का प्रकार्यात्मक वर्गीकरण ।

ii. लागत-लेखा एवं वित्तीय प्रबंध की प्रणाली का विकास करना जो प्रकार्यात्मक वर्गीकरण से मेल खाती हो ।

iii. निष्पादन एवं इकाई लागत के मापदण्डों तथा मात्रात्मक घण्टों को निर्धारित करना ।

iv. प्रत्येक कार्यक्रम एवं क्रिया से संबंधित रिपोर्टिंग एवं मूल्यांकन की वस्तुपरक प्रणाली को विकसित करना ।

कार्य निष्पादन बजट की विशेषताएं:

i. यह कार्यगत और उद्देश्यगत होता है जबकि परम्परागत बजट मतगत होता है ।

ii. इसमें सरकार की नीति और कार्यक्रम का खुलासा होता है ।

iii. व्यय की मदों के स्थान पर किये जाने वाले कार्यों को महत्व ।

iv. सरकार की उपलब्धियों का मूल्यांकन लागत के संदर्भ में किया जा सकता है ।

v. यह विचार-उन्मुख के बजाय क्रियान्मुख बजट है ।

vi. यह प्रयास उन्मुख के स्थान पर परिणाम उन्मुख है ।

vii. यह पारदर्शी बजट प्रणाली है ।

viii. यह आसानी से समझ में आता है, क्योंकि अत्यधिक खुला होता है ।

कार्य निष्पादन बजट की शर्तें:

इस प्रणाली को प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ शर्तें पूरी होना आवश्यक है:

a. सरकारी उद्देश्यों में स्पष्टता होना चाहिए ।

b. कार्यक्रमों को ऐसी क्रियाओं में बांटना चाहिए, जिनका संख्यात्मक मापन किया जा सके ।

c. जहां तक हो सके उत्पादन की समरूपता रखी जाये ताकि और आसानी से मापी जा सके ।

d. लागत और उत्पादन में संबंध स्थापित होना चाहिए ।

e. इनपुट और आउटपुट में अधिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए ।

लाभ:

i. इसमें सरकार की नीतियां स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती है ।

ii. सरकारी संगठन और उनकी योजनाएं भी स्पष्ट हो जाती है । इससे उनकी औचित्यता, प्रासंगिकता पर सवाल-जवाब हो पाते हैं और अनावश्यक संगठनों, उनकी योजनाओं को समाप्त करने में मदद मिलती है ।

iii. खुला, स्पष्ट और पारदर्शी बजट होने से व्यवस्थापिका आसानी से समझ पाती है और प्रभावी ढंग से सवाल-जवाब कर सकती है ।

iv. इससे लेखा परीक्षण भी प्रभावी ढंग से हो पाता है ।

v. व्यय और उपलब्धि के बीच सीधा संबंध इसे राजनीतिक दुष्प्रभावों से बचाता है । यह राजनीतिक मूल्यों को आर्थिक तर्कसंगती प्रदान करता है ।

भारत में कार्य निष्पादन बजट:

1955 में भारत में अनुमान समिति ने इसकी सिफारिश की ।

1964 में फ्रेंक क्राउस (अमेरिका) को इस हेतु आमंत्रित किया गया, जिसने 3 बातों पर बल दिया:

i. कार्य-निष्पादन बजट लागू करने के लिए एक विस्तृत योजना बनाना आवश्यक है ।

ii. कार्य-निष्पादन बजट की सफलता के लिए सरकार तथा संसद का पूर्ण दीर्घकालीन समर्थन आवश्यक है ।

iii. कार्य-निष्पादन बजट की सफलता के लिए एक आवश्यक शर्त है विकेन्द्रित लेखापालन । अंतत: ARC की सिफारिश पर इस बजट को स्वीकार किया गया, जब 1968 में 4 मंत्रालयों ने इसे अपनाया था । 1977-1978 तक 32 विभागों ने अपनाया । प्रशासनिक सुधार आयोग ने इस की जबरदस्त वकालत की थी ।

नोट:

परम्परागत बजट सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण का एक प्रमुख साधन है, जबकि कार्य निष्पादन बजट सार्वजनिक धन के अपव्यय पर नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है ।

भारत में निष्पादन बजट की सीमाएं:

यद्यपि भारत में निष्पादन बजट प्रणाली को अपनाया गया है लेकिन अपने संपूर्ण अर्थों में नहीं । इसके पीछे राजनैतिक कारणों के साथ ही अन्य कारण भी जिम्मेदार हैं ।

a. भारत में आज भी बजट को राजनीतिक उपलब्धि (लोकप्रियता) का उपकरण अधिक माना जाता हैं इसीलिये आर्थिक उपलब्धि पर ध्यान देने वाले निष्पादन बजट की तरफ से उदासीनता बरती जाती है ।

b. भारत में आर्थिक समृद्धि के साथ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ”सामाजिक समृद्धि” । और इसके लिये अनेक सामाजिक कार्यक्रम, योजनाएं संचालित की जाती है । सामाजिक कार्यों के परिमाण और परिणाम दोनों को मापना कठिन है । जबकि निष्पादन बजट में तो परिणाम ही केंद्र बिंदु है ।

3. शून्य बजट:

इसके जनक है पीटर पायर जबकि इसका विकास ब्रिटिश अर्थशास्त्री हिल्टन यंग ने किया था । यह भी निजी प्रबंध से आयी बजट प्रणाली है, जो अमेरिका में ही प्रयुक्त होती है, जहां औद्योगिक संगठनों, प्रांतीय और स्थानीय सरकारों ने इसे अपनाया है ।

सर्वप्रथम 1969 में टेक्सास इंस्ट्रूमेंट कम्पनी ने इसे अपनाया था । जॉर्जिया की प्रांतीय सरकार में जिमी कार्टर ने इसका प्रयोग 1973 में किया था । भारत में सर्वप्रथम 1983 में विज्ञान एवं प्रौधोगिकी मंत्रालय ने अपनाया था जबकि वित्तीय वर्ष 1986-87 हेतु सभी मंत्रालयों ने इसे अपनाया था ।

अवधारणा:

शून्य आधारित बजट प्रणाली के जनक पीटर पायर ने इसका अर्थ बताया है ”सभी कार्यक्रमों का मूल्यांकन करना” अर्थात् जो पुराने कार्य चले आ रहे हैं, उनका भी मूल्यांकन करके यह देखना कि वे अब भी औचित्चपूर्ण हैं, या नहीं ।

प्रत्येक योजना को आगामी वर्ष में चालू रखने हेतु इसी प्रकार प्रासंगिक सिद्ध करना पड़ता है, जैसे किसी नई योजना को शुरू किया जा रहा हो । इस हेतु निर्णय पैकेज तैयार किये जाते हैं । एक निर्णय पैकेज में उन तथ्यों को रखा जाता हैं, जिनके आधार पर पुरानी या नई योजना को चालू रखने का औचित्य सिद्ध होता हो ।

इसमें दो मुख्य बातें होती हैं, जिन पर ध्यान दिया जाता है:

1. क्या यह प्रचलित गतिविधि या योजना कुशल तथा प्रभावकारी है ?

2. क्या इनमें से सभी को या कुछ को समाप्त कर दिया जाये ताकि अधिक प्राथमिकता वाले नये कार्यों को धन दिया जा सके या वर्तमान सरकारी व्यय कम किया जा सके ?

शून्य बजट के प्रमुख तत्व:

शून्य बजट प्रणाली के प्रमुख तत्व है:

1. पूर्व के सभी कार्यक्रमों, योजनाओं पर आवंटन शून्य कर दिये जाते हैं ।

2. इन सभी कार्यक्रमों, योजनाओं की प्रासंगिकता का परीक्षण कर पता लगाया जाता है कि क्या वे परिणाम दायीं रही ? क्या अब उनका औचित्य बचा है ? यदि इनको बंद कर दिया जाए तो क्या परिणाम होगा ।

3. अप्रासंगिक, औचित्यहिन हो गयी योजनाओं को बंद कर उनका आवंटन अन्य प्रासंगिक योजनाओं को दे दिया जाता है ।

4. नयी योजनाओं की औचित्यता का भी इसी तरह परीक्षण किया जाता है, जैसे- यह क्यों जरूरी है ? इसके बिना अब तक काम कैसे चल रहा था ? अब क्यों नहीं चल सकता है ? लागू करने और लागू नहीं करने के क्या परिणाम होंगे ?

5. आवंटन के लिये उसकी औचित्यता सिद्ध करना पड़ती है ।

शून्य बजट की समस्याएं:

गाइपिटर्स के अनुसार 2 समस्याएं हैं:

1. संगठन किसी को यह बताना नहीं चाहते कि उनको बने रहने के लिए न्यूनतम खर्च कितना आवश्यक है ।

2. यदि ऐसा होने लगे तो प्रतिवर्ष ही इस न्यूनतम खर्च को चुनौती मिलेगी और ऐसे सामाजिक कार्यक्रम बंद करने पड़े, जिन्हें जन समर्थन हासिल नहीं है, लेकिन जो राजनीतिक कारणों से चालू रखे गये हैं ।

अन्य समस्याएं:

a. कार्यक्रमों की प्रभावकारिता का मूल्यांकन करने की समस्या तथा

b. इस बजट को बनाने और उनका विश्लेषण करने हेतु आवश्यक प्रशिक्षण की समस्या ।

अन्य बजट के लाभ:

डॉ. बर्न्स के अनुसार- शून्य बजट लागू करना कठिन है, लेकिन इससे भारी बचत हो सकती है ।

शून्य बजट के जनक पीटर पायर ने 4 लाभ बताये:

i. निम्न प्राथमिकता वाले कार्यक्रमों की समाप्ति ।

ii. कार्यक्रमों की प्रभावकारिता में वृद्धि ।

iii. संसाधनों का उच्च प्राथमिकता वाले कार्यक्रमों की तरफ परिवर्तन ।

iv. व्यय कटौती करके अतिरिक्त कर बढ़ोतरी को रोकना ।

4. कार्यक्रम बजट प्रक्रिया या योजना कार्यक्रम बजटिंग प्रणाली (P.P.B.S.):

यह बजट प्रक्रिया अन्य सुधारात्मक बजट प्रक्रियाओं में भी सुधार है । जहां निष्पादन बजट कुशलता पर बल देता है, और शून्य बजट व्यय कटौती पर बल देता है, वहीं P.P.B.S. प्रभावकारिता पर बल देता है ।

इसका ध्येय वाक्य है कि- एक कुशल सेना का कोई लाभ नहीं जब तक कि वह विजयी सेना न हो । अर्थात् जो सेवाएं दी जानी हो, उनका वास्तविक वितरण अधिक महत्वपूर्ण है । लर्नर और जान बनत के शब्दों में- ”P.P.B.S. बजट इस प्रश्न के उत्तर की तलाश है कि धन खर्च करने का सर्वोत्तम तरीका क्या हैं, जिससे संगठन के लक्ष्य प्राप्त हो सके ।”

P.P.B.S. बजट प्रणाली के चरण:

1. संगठन के लक्ष्यों का निर्धारण ।

2. लक्ष्य प्राप्त करने के विकल्पों का विकास ।

3. सभी विकल्पों की लागत लाभ संदर्भ में तुलना ।

4. श्रेष्ठतम विकल्प (कम लागत अधिक लाभ) का चयन जो सबसे अधिक प्रभावशाली हो । इसी को बजट में सम्मिलित किया जाये ।

लागत लाभ विश्लेषण और व्यवस्था विश्लेषण:

बजट के मसौदे में कार्यक्रम को लागत के मूल पर जाकर टिकाया जाता है, अर्थात् हम प्रत्येक कार्यक्रम को उसके उपभागों में बांटते जाते हैं, तब अंतिम अविभाज्य भाग पर होने वाले धन खर्च को निकाला जाता है और इसी खर्च के संदर्भ में उनके विकल्पों की तुलना की जाती है ।

वस्तुत: एक कार्य के सभी विकल्पों की ”संख्या आधारित तुलना” इस बजट की महत्वपूर्ण विशेषता है । इस प्रकार लागत लाभ विश्लेषण और व्यवस्था विश्लेषण इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण है ।

लाभ:

1. कार्यक्रमों की प्रभावकारिता में वृद्धि ।

2. धन का अधिक लाभकारी उपयोग ।

3. अधिक वैधानिक बजट प्रक्रिया ।

4. व्यवस्थापिका के लिए बजट मूल्यांकन आसान ।

दोष:

यद्यपि P.P.B.S. बजट लागत-आधारित प्रभावी प्रणाली है और कार्यक्रमों को पूरा करना इसका लक्ष्य है, फिर भी यह सफलता प्राप्त नहीं कर सकी । संयुक्त राज्य अमेरिका में 1960 के दशक में राष्ट्रपति जानसन ने इसे अपनाया था लेकिन 1970 के दशक के प्रारंभ में ही छोड़ दिया ।

इसके दोष इसके लाभों से अधिक है, जो निम्नलिखित है:

i. यह बहुत महंगी बजट प्रक्रिया है ।

ii. यह समय और श्रम साध्य है ।

iii. कार्यक्रमों के लाभों और उनकी लागत की तुलना कभी-कभी असंभव हो जाती है ।

iv. यह बजट प्रक्रिया उच्च स्तरों पर निर्णय को केन्द्रित कर देती है, इसलिए अधिनस्थ स्तर के विभाग या अभिकरण इसे पसंद नहीं करते ।

v. इसमें चूंकि उतरोत्तर उपभागों तक विश्लेषण किया जाता है । इससे विभागों के वर्तमान कार्यक्रम बेनकाब हो जाते हैं अर्थात् उनकी आलोचना का मौका मिल जाता है ।

6. अनेक विकल्पों के कारण संबंधित विभागों की कार्य सार्थकता कम हो जाती है ।

बजट के अन्य प्रकार (Other Types of Budget):

1. घाटे का बजट (Budget of Deficit):

यह परम्परागत बजट का ही एक स्वरूप है । भारत में सर्वप्रथम मुहम्मद तुगलक ने 1332 ई. में घाटे का बजट प्रस्तुत किया था । उसे सांकेतिक मुद्रा चलाना पड़ी थी । आधुनिक युग में लगभग सभी घाटे के बजट का प्रयोग करते हैं क्योंकि उनके व्यय आय की तुलना में अधिक है और यह अंतर निरंतर बढ़ रहा है ।

भारत जैसे विकासशील देशों में घाटे का बजट एक अनिवार्यता हो जाती है क्योंकि इससे मुद्रा का अतिरिक्त प्रवाह उपलब्ध होता है जो अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है । लेकिन 1997 से भारत में घाटे के बजट के वित्त पोषण की पद्धति बदल दी गयी है । अब नोट छापकर घाटा पुरा करने के बजाय RBI से ऋण लेकर घाटा पुरा करने पर बल दिया जाता है ।

लेकिन RBI की भी अपनी सीमाएं है, अतएव सरकार को या तो घरेलू ऋण पर या विदेशी ऋण पर या दोनों पर अपनी निर्भरता बढ़ाना पड़ती है । जहाँ घरेलू ऋण की प्राप्ति के लिये ऊँची ब्याज दर पर देना पड़ती है, वही विदेशी ऋण सस्ते तो होते है लेकिन कठोर शर्तों से युक्त होते है ।

2. अतिरिक्त बजट (Additional Budget):

यह अतिरिक्त प्राप्तियों पर आधारित बजट है । अतिरिक्त प्राप्तियां वस्तुत: प्राप्तियों के दोनों स्रोतों राजस्व और पूंजीगत, से प्राप्त अतिरिक्त आय है । भारत में सामान्य राजस्व प्राप्ति का लक्ष्य ही अब तक अप्राप्य है तब अतिरिक्त राजस्व प्राप्ति की बात करना बेमानी है ।

अत: अतिरिक्त बजट के लिये अतिरिक्त पूंजी प्राप्तियों की तरफ देखना होगा, जो ऋण (विदेशी घरेलू) लाभांश और विदेशी अनुदान जैसे- पूंजीगत स्रोतों से मिल सकती है । चूंकि लाभांश और अनुदान की सीमाएं है और इसीलिये ऋण प्राप्ति ही अंतिम विकल्प हो जाता है, अतिरिक्त बजट के लिये अतिरिक्त राशि जुटाने का । लेकिन ऋण आधारित अतिरिक्त बजट कभी-कभी ही इस्तेमाल किया जा सकता है, नियमित रूप से नहीं । इनका इस्तेमाल सरकार की साख को गिरा भी सकता है ।

3. संतुलित बजट (Balance Budgeting):

यह एक आदर्श बजट है जिसे व्यवहार में प्राप्त करना मुश्किल होता है ।

वह बजट संतुलित होता है, जिसमें:

(i) विभिन्न क्षेत्रों को समान अनुपात में आवंटन दिया जाता है ।

(ii) जिसमें व्यय और प्राप्ति का अंतराल सीमित होता है । इसका परिणाम यह होता है कि बजट के अनुमानित घाटे और वास्तविक घाटे में भी अंतर नहीं आता ।

लेकिन संतुलित बजट बनाना और फिर उसे प्राप्त करना दोनों कठिन चुनौती है । इसके लिये अर्थव्यवस्था के भारी उतार-चढ़ाव को नियंत्रित रखना पड़ता है । मुद्रा की आंतरिक विनियम दर और मुद्रा प्रसार में तालमेल होना चाहिए ताकि मुद्रा-मूल्य स्थिर रहे । वित्तीय वर्ष के मध्य में प्राथमिकताएं नहीं बदलनी चाहिये ।

4. एकल बजट और बहुलक बजट (Single and Multi Budgeting):

एकल बजट से आशय है सरकार के समस्त विभागों, कार्यक्रमों के लिये एक ही बजट का प्रयोग करना । इसमें सरकार के समस्त आय और व्यय शामिल कर लिये जाते हैं । अमेरिका और ब्रिटेन के संघीय बजट एकल बजट है । बहुलक बजट वह स्थिति है जिसमें सरकार विभाग-वार अलग-अलग बजट बनाती है । फ्रांस, स्विटजरलैंड, जर्मनी आदि देशों में बहुलक बजट प्रणाली प्रचलित है ।

भारत में बजट की विशेष प्रणाली है जिसमें:

(i) केंद्र में द्वि-बजटीय प्रणाली है । रेलवे का बजट पृथक् से बनाया जाता है । ऐसा एकवर्थ कमेटी की सिफारिश पर 1921 से किया जा रहा है ।

(ii) लेकिन सामान्य रूप से एकल बजट प्रणाली ही है, बहुलक नहीं क्योंकि सभी विभागों के पृथक् बजट नहीं होते । रेलवे को छोड़कर शेष सभी विभागों का एक ही आम बजट होता है ।

(iii) वस्तुत: रेलवे के पृथक् बजट के पीछे तर्क दिया गया था कि यह एक लाभोन्मुख और परिचालन से संबंधित उपक्रम है ।

(iv) इसके अलावा भारत में एकवर्षीय बजट प्रणाली है अर्थात् एक वर्ष के लिये बजट बनाया जाता है । पंचवर्षीय योजना एक तरह से पंचवर्षीय बजट प्रणाली हो जाती है जिसमें आगामी 5 वर्षों के लिये वित्तीय प्रावधान भी होते हैं ।

5. लम-सम बजटिंग (Lum-Sum Budgeting):

ऐसा बजट जिसमें निश्चित धनराशि की मांग की जाती है लेकिन विभाग-वार उनका वितरण नहीं दर्शाया जाता है-पिण्ड राशि बजट (Lum-Sum Budgeting) कहलाता है ।

इस बजट में:

i. सरकार को किसी भी मद का पैसा अन्य मद में खर्च की सहुलियत मिल जाती है । लेकिन पुनर्वियोजन का अनुमोदन विधायिका से लेना पड़ता है ।

ii. वस्तुत: लेखानुदान इसी प्रकार का बजट प्रारूप है ।

6. पूरक बजट (Supplementary Budget):

कभी-कभी अप्रत्याशित कारणों-प्राकृतिक विपत्ति, राजस्व में गिरावट या अन्य आकस्मिकता के कारण पारित बजट पर पुन: विचार करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है या नयी मांगो या गतिविधियों को पूरा करने के लिये या विद्यमान सेवाओं में वृद्धि के लिये अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है उसके लिए पूरक बजट बनाया जाता है ।

7. आउटकम बजट (Outcome Budget):

आउटकम बजट, बजट की एक नवीन प्रविधि है, जिसके तहत एक वित्तीय वर्ष के लिए किसी विभाग को आबंटित किए गए वित्तीय संसाधनों में अनुपश्रवण तथा मूल्यांकन किए जा सकने वाले भौतिक लक्ष्यों का निर्धारण इस उद्देश्य से किया जाता है कि बजट की गुणवत्ता को परखा जाना संभव हो ।

इस प्रकार आउटकम बजट आबंटित साधनों के साथ-साथ उन लक्ष्यों को भी निर्धारित कर देता है, जिन्हें प्राप्त करना अति आवश्यक समझा जाता है । भारतीय संसदीय में बजट की इस नवीन पद्धति की शुरूआत केन्द्र सरकार द्वारा वर्ष 2005-06 के बजट प्रस्तुत करते समय की गई ।

इस वर्ष 44 मंत्रालयों तथा उनसे संबंधित विभागों के लिए इसका प्रयोग किया गया । इसमें परमाणु ऊर्जा, सुरक्षा, विदेशी मामलों व संसदीय मामलों सहित कुल नौ मंत्रालयों को शामिल नहीं किया गया है । इसे सरकार ने अभी प्रयोग के तौर पर केवल आयोजनागत बजट के लिए ही प्रयुक्त किया है, लेकिन भविष्य में इसका विस्तार गैर-आयोजनागत बजट के लिए सरकार की योजना है ।

आउटकम बजट की निम्नांकित विशेषताएं है:

i. यह एक कठिन प्रक्रिया है जिसमें वित्तीय प्रावधानों को परिणामों के संदर्भ में देखा जाना होता है ।

ii. यह प्रक्रिया कई चरणों से होकर गुजरती है, जिसमें एक निश्चित अवधि में संभावित परिणामों को अनुश्रवण योग्य तथा मापने योग्य परिणामों में बदलने हेतु विशेष तरीके से परिभाषित किया जाता है । तथा प्राप्त होने वाले लाभों के इकाई मूल्य का प्रमापीकरण करना होता है ।

iii. इसमें पिछले परिणामों के आधार पर बेंच मार्किंग करने के अतिरिक्त परिणामों की गुणवत्ता और अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों का भी ध्यान रखना होता है ।

iv. इसमें कार्य-संपादन हेतु किसी भी स्तर पर देर करने या रूकावट पैदा करने के स्थान पर निर्धारित धन राशि को सही समय तथा सही मात्रा व गुणवत्ता में पहुंचाने को सुनिश्चित किया जाता है ।

आउटकम बजट की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर इससे निम्नलिखित लाभ सुनिश्चित होते है:

a. इसके माध्यम से प्रमुख कार्यक्रमों में प्रगति की गति के बारे में समय समुचित सूचनाएं प्राप्त हो जाती हैं ।

b. आम बजट में आबंटित धनराशि का क्या और कैसे उपयोग किया, यह इस संबंध में रिपोर्ट कार्ड का कार्य करता है ।

c. इसके द्वारा विभागों के कार्य प्रदर्शन में एक मापक का कार्य करता है जिससे सेवा, निर्णय-प्रक्रिया कार्यक्रमों के मूल्यांकन और परिणामों को बेहतर बनाया जा सकता है ।

d. इसके माध्यम से विकास कार्यक्रमों को और भी अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है और उनके निर्धारित लक्ष्यों की आपूर्ति की सही-सही जानकारी प्राप्त करके तत्संबंधी अभिकरण को दिशा-निर्देश दिए जा सकते हैं । आउटकम बजट के उल्लिखित लाभों को देखते हुए विश्व के बहुत से देशों में इसका प्रचलन बढ़ता जा रहा है और भारत भी इस दिशा में सार्थक कदम उठा चुका है ।

तथापि इसकी अपनी कुछ सीमाएं भी जिनके कारण इसे अपनाना सरल नहीं है । इसकी तकनीकी प्रकृति इतनी अधिक होती है, इसे बनाना सरल नहीं होता और विशेषज्ञों की सहायता से बनवाया जाए तो यह स्वयं ही गैर विकासात्मक व्यय को बढ़ा देता है । साथ ही लक्ष्यों और उपलब्धियों को लागत के आधार पर मूल्यांकन करना कठिन प्रतीत होता ।

तथापि इसके माध्यम से परिणाम व कारण दोनों का ही वित्तीय पक्ष सुनिश्चित कर यह एक फायदेमंद प्रणाली साबित होती है जो विकासात्मक लक्ष्यों की आपूर्ति की दिशा में उठाये गए कदमों में एक मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है ।