Read this article in Hindi to learn about:- 1. लेखा का अर्थ (Meaning of Accounts) 2. लेखा की आवश्यकता या महत्व (Need and Importance of Accounts) 3. उद्देश्य (Objectives) 4. पद्धति का विभागीकरण (1976) [Classification of  System (1976)] 5. परीक्षण का पृथक्करण (Separation).

लेखा का अर्थ (Meaning of Accounts):

लेखा एक वित्तीय शब्दावली है और यह शब्द वित्तीय लेन-देन का हिसाब-किताब रखने के अर्थ में प्रमुख होता है ।

एम.पी.शर्मा के अनुसार- ”वित्तीय लेन-देन की नियमित लिखित सूची को लेखा कहते हैं । लेखा रखने की निरन्तर प्रक्रिया लेखाँकन (Account) कहलाती है ।”

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प्रो. टेनरी- ”लेखाँकन रचनात्मक होता है और लेखा परीक्षण विश्लेषणात्मक । पूर्णतया अथवा आंशिक रूप से वित्तीय प्रकृति के लेन देनों अथवा सौदों का द्रव्य के आधार पर विवरण रखना, वर्गीकरण करना और संक्षेपीकरण करना तथा उनके परिणामों की व्याख्या करना ही लेखाँकन हैं ।”

लेखा एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत तथ्यों का विवरण रखा जाता है जो मौद्रिक अर्थ में लेन-देन से संबंधित होते है । लेखा एक व्यापक अवधारणा है जिसके अन्तर्गत वित्तीय स्वरूप के लेन-देन का एकत्रण, अंकन, वर्गीकरण किया जाता है और उसका सार संक्षेप प्रस्तुत किया जाता है ताकि परिणामों के बारे में अनुमान लगाया जा सके ।

लेखा की आवश्यकता या महत्व (Need and Importance of Accounts):

लेखा के महत्व को अग्रांकित बिन्दुओं के सन्दर्भ में समझा जाता हैं:

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1. आय और व्यय की जानकारी रखने हेतु ।

2. समस्त लेन-देन के स्रोतों की जानकारी हेतु ।

3. आय, व्यय संबंधी प्रमाण हेतु ।

4. आगामी वित्तीय कार्यक्रम और वित्तीय नीति बनाने हेतु ।

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5. लेखा परीक्षण के लिये लेखा जरूरी है ।

लेखा के उद्देश्य (Objectives of Accounts):

एल.डी. व्हाइट ने लेखाँकन के निम्नलिखित उद्देश्य बताये है:

1. वित्तीय अभिलेख रखना ।

2. कोष सम्भालने वाले कार्मिकों की रक्षा करना ।

3. संगठन की सभी शाखाओं की वित्तीय स्थिति प्रकट करना ।

4. व्यय की दरों में आवश्यक संशोधन करने में सहायता करना ।

5. उच्चाधिकारियों को नीति, कार्यक्रम तथा योजना निर्माण हेतु सूचनाएँ प्रदान करना तथा

6. लेखा परीक्षण के कार्य में सहायता प्रदान करना ।

लेखा पद्धति का विभागीकरण (1976) [Classification of Accounting System (1976)]:

i. 1976 के पूर्व तक लेखाँकन भी लेखाँकन परीक्षक के अधीन था ।

ii. 1975 में संसदीय कानून द्वारा लेखाँकन का कार्य लेखा परीक्षक से पृथक् करने संबंधी तीन चरणों वाली योजना बनायी गयी ।

iii. इसका पहला चरण 1976 से प्रारंभ हुआ और इसके साथ ही लेखाँकन लेखा परीक्षण से पृथक् एक विभागीय कार्य बन गया ।

iv. अब लेखाँकन की जिम्मेदारी प्रत्येक विभाग (मंत्रालय) की स्वयं की हो गयी । लेकिन ऐसा मात्र केन्द्र के संबंध में हुआ, राज्यों के लेखाँकन का दायित्व अब भी महालेखापरीक्षक के अधीन है ।

संक्षेप में विभागीय लेखाँकन प्रणाली के वर्तमान लक्षण है:

1. CAG को केन्द्र सरकार के लेखाँकन और लेखा-संधारण के दायित्व से पृथक् और मुक्त कर दिया गया । वह मात्र लेखा परीक्षण का कार्य ही करता है । (1976 से) ।

2. CAG राज्यों के लेखाँकन का भी दायित्व पूर्ववत ही निभा रहा है ।

3. राजस्व संबंधी लेखाँकन कार्य भी CAG से ले लिया गया (1977 से) ।

4. भुगतान और प्राप्ति के जो कार्य कोषालय करते थें, उनमें से अधिकांश कार्य विभागों ने ले लिये हैं ।

5. प्रत्येक मंत्रालय, उसके संलग्न और अधीनस्थ कार्यालयों के समस्त लेन-देन के लिये सचिव को पदेन मुख्य लेखाधिकारी घोषित किया गया है ।

इस रूप में उसके कार्य-दायित्व है:

i. विभागीय लेखापाल पद्धति और भुगतान पद्धति का दायित्व ।

ii. मासिक लेखा का प्रमाणीकरण करना ।

सचिव मुख्य लेखाधिकारी के अपने दायित्वों की पूर्ति एकीकृत वित्तीय सलाहकार के माध्यम से करता है ।

लेखाँकन और लेखा परीक्षण का पृथक्करण (Separation of Accounting and Audit):

लेखाँकन से आशय समस्त वित्तीय लेन-देन, आगत-निर्गत का लिखित हिसाब-किताब रखना है (मौद्रिक आधार पर) तथा लेखा परीक्षण का आशय है- इस लेखाँकन की जांच कर यह सुनिश्चित करना कि यह आय-व्यय निर्धारित योजना और अनुमति अनुसार हुआ या नहीं ।

इन दोनों को एक संयुक्त एजेन्सी को सौंपा जाए या पृथक् एजेन्सीयों को, इसके अपने-अपने गुण-दोष है, यद्यपि भारत में अब यह पृथक्-पृथक् दायित्व है । भारत में 1976 तक ये दोनों कार्य एक ही व्यक्ति ”नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक” के अधीन थे । अर्थात् CAG कार्यालय ही लेखों का एकत्रीकरण करता था, उनका संधारण करता था और वही उनका परीक्षण भी करता था ।

ऐसा वह केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए करता था । स्वतंत्रता के पूर्व ईचकेप कमेटी (1923) ने सर्वप्रथम लेखाँकन और लेखा परीक्षण के पृथक्करण की जरूरत जतायी थी । उसी समय मुड्डिमेन कमेंटी (1924), साइमन आयोग (1929) ने भी यही सिफारिशें की थी ।

स्वतंत्रता के पश्चात् पहले CAG ”नरहरि पटेल” ने इनके पृथक्करण की मांग की । लोक सेवा समिति और अनुमन समिति ने भी इनके पृथक्करण के सम्बन्ध में विभिन्न तर्क दिये ।

पृथक्करण के पक्ष में तर्क:

1. लेखाँकन एक निष्पादकीय कार्य है, अतएव निष्पादन एजेन्सी ”विभाग” के अधीन हो, जबकि अर्ध संसदीय कार्य के रूप में ”लेखा परीक्षण” पृथक् हो ।

2. लेखाँकन के दायित्व से मुक्त ”लेखा परीक्षण” अधिक सक्षम और प्रभावशाली होगा ।

3. संयुक्त व्यवस्था अलोकतान्त्रिक है क्योंकि जो कार्यालय भुगतान की अनुमति देता है, वही उसका परीक्षण भी करता है ।

4. लेखाँकन की जवाबदारी संबंधित विभाग की होने पर, उन्हें अपने लेखों की सही जानकारी समय पर रहेगी और वे अपनी भूले भी सुधार सकेंगे ।

5. लेखाँकन और लेखा परीक्षण पृथक् रहने पर दोनों ही शीघ्र हो सकेंगे ।

6. लेखाँकन कार्यपालिका प्रकृति का है जबकि लेखा परीक्षण ऊर्ध-संसदीय प्रकृति का अत: दोनों के अलग कार्यालय होने चाहिये ।

7. लेखाँकन की जिम्मेदारी विभागों की होने पर वे संसद से स्वीकृत राशि से अधिक खर्च नहीं कर पायेंगे ।

8. इससे बजट निर्माण में गोपनियता सुनिश्चित हो सकेगी और संशोधित अनुमानों को अधिक प्रभावी ढंग से सूत्रबद्ध किया जा सकेगा ।

9. इससे निर्णयन प्रक्रिया और वित्तीय प्रबन्धन दोनों में लेखाँकन का प्रयोग हो सकेगा ।

अन्तत: 1976 में दोनों कार्यों को पृथक् कर दिया गया । लेकिन आलोचकों का कहना है कि इससे प्रशासनिक खर्च बढ़ेगा और दोष निकालना कठिन हो जाएगा । फिर पूर्व व्यवस्था में कोई खामी नजर नहीं आयी थी ।

पृथक्करण (1976) के बाद भारत में दो प्रमुख अधिकारी है:

(I) महालेखा नियन्त्रक और

(II) महालेखा परीक्षक ।

पहला संविधानेतर है जबकि दूसरा संवैधानिक । पहला संसदीय विधि से निर्मित पद है जिसका दायित्व केन्द्र सरकार के लेखों के मामले देखना है ।