Read this article in Hindi to learn about how metals pollutes the oceans.

बात वर्ष 1953 की है । उस वर्ष द्वीपों के देश जापान के एक द्वीप क्यूशू के पश्चिमी तट के, मुख्य रूप से मछुआरों की आबादीवाले एक कसबे, मिनीमाता, में एकाएक कुत्ते और बिल्लियाँ मरने लगी । जब चिकित्सकों ने उनकी मृत्यु के वास्तविक कारण जानने के लिए मृत जानवरों के परीक्षण किए तो पाया कि उनके तंत्रिका-तंत्र बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुके थे ।

यही उनकी मृत्यु का कारण था । बाद में उस कसबे के मछुआरों के साथ भी ऐसा होने लगा । उनकी मांसपेशियाँ बुरी तरह सिकुड़ती और तंत्रिका-तंत्र क्षतिग्रस्त हो जाता । यद्यपि अधिकांश मछुआरों को मृत्यु के मुँह में जाने से बचा लिया गया पर उनके क्षतिग्रस्त तंत्रिका-तंत्र को पुन: पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं किया जा सका ।

मिनीमाता कसबे में अगले सोलह वर्षों तक ऐसा होता रहा । पूरी कोशिशों के बाद भी इस विचित्र बीमारी के फलस्वरूप 45 व्यक्ति काल के ग्रास बन ही गए और कितने ही गर्भस्थ शिशु प्रभावित हो गएं । मरनेवाले जानवरों की तो कोई संख्या ही नहीं रही ।

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मिनीमाता की पूरी आबादी इस विचित्र जानलेवा बीमारी से बुरी तरह से त्रस्त हो उठी । चिकित्सक और स्वास्थ्य अधिकारी बहुत परेशान हो गए । आखिर कुछ लोगों का ध्यान मछुआरों के भोजन पर गया । विस्तृत परीक्षणों से पता चला कि रोगग्रस्त होनेवाले सब व्यक्तियों ने निकट के सागर से शैलफिश और फिनफिश पकड़कर खाई थी ।

(शैलफिश के अंतर्गत वे सब समुद्री प्राणी आते हैं जो कवचधारी होते हैं, यथा सीप, मसल, क्रिस्टेशियन आदि) । जब शैलफिशों को पकड़कर उनके परीक्षण किए गए तो उनके शरीर में पारद यौगिकों की मात्रा बहुत अधिक पाई गई । पर ये पारद यौगिक आए कहाँ से ?

अंत में मिनीमाता कसबे में ही स्थित फैल्ट बनानेवाले एक कारखाने को असली दोषी पाया गया । इस कारखाने में पारद यौगिकों का उपयोग किया जाता था और इस्तेमाल के बाद उन्हें व्यर्थ पदार्थों के साथ बहा दिया जाता था ।

ये व्यर्थ पदार्थ निकट के सागर में जा मिलते थे । वहाँ शैलफिश इनको अपने शरीर में संचित कर लेती थी । अंत में कारखाने के व्यर्थ पदार्थों को सागर में मिलने से रोका गया । तब कहीं जाकर इस विचित्र; पर घातक, रोग की रोकथाम हो सकी ।

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ऐसा ही कुछ जापान के दूसरे शहर नीगाता में हुआ, यद्यपि वहाँ विचित्र रोग से मरनेवालों की संख्या पाँच तक ही सीमित रही । बाद में यह विचित्र रोग उस कसबे के नाम पर जहाँ यह पहली बार फैला था, ‘मिनीमाता रोग’ कहलाया ।

यह सागर के किसी भारी धातु (पारा) द्वारा प्रदूषित हो जाने के दुष्परिणामों का प्रथम ज्ञात उदाहरण था । इसी प्रकार का एक अन्य उदाहरण भी जापान का है । इसमें कैडमियम यौगिकों से प्रदूषित समुद्री जीवों को खाने से लोग बीमार हुए और काल के ग्रास बने । यह रोग ‘इताइ-इताइ’ कहलाया ।

इनके साथ एक अन्य घटना का भी उल्लेख किया जाता है । पर इस घटना में जन-हानि नहीं हुई थी । हाँ, मछली और ओएस्टर जैसे समुद्री जीव बहुत बड़ी संख्या में अवश्य मरे थे । यह घटना वर्ष 1965 में हॉलैंड के तट पर घटी थी । इसमें तट के निकट ही 1,00,000 से अधिक मछलियाँ मृत अवस्था में पाई गई थीं और लाखों अन्य मछलियाँ जीवित होते हुए भी ठीक प्रकार से न तो तैर पा रही थी और न ही अपने अंगों का संचालन कर पा रही थीं ।

बाद में इस दुर्घटना के लिए नीले थोथे (ताँबे के एक यौगिक-कॉपरसल्फेट) को दोषी पाया गया । मछलियों के मरणोपरांत परीक्षणों में उनके शरीर में ताँबे की भारी मात्रा पाई गई । उस दौरान हॉलैंड के तटों को छूनेवाले उत्तर सागर के पानी में ताँबे की मात्रा 500 म्यू ग्राम प्रति लीटर हो गई थी जबकि सामान्यत: यह केवल 3 म्यू ग्राम प्रति लीटर ही होती है । (एक म्यू ग्राम = ग्राम का दस लाखवाँ भाग) ।

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यह ताँबा उस पीड़कनाशी को, जिसमें नीले थोथे की मात्रा काफी अधिक थी, बड़ी तादाद में उत्तर सागर में फेंक दिए जाने के परिणामस्वरूप आया था । इस पीड़कनाशी को सागर में फेंकते समय भ्रमवश यह मान लिया गया था कि सागर में फेंक दी जानेवाली वस्तु बहुत तेजी से पूरे सागर में फैल जाती है ।

सागर की विशालता को ध्यान में रखकर यह सोच लिया गया था कि बहुत शीघ्र ही समुद्री पानी में नीले थोथे की सांद्रता इतनी कम हो जाएगी कि जीव-जंतुओं को कोई हानि नहीं पहुँचेगी । उनके भ्रम को इस तथ्य से और बल मिला था कि अंध महासागर का पानी हर वर्ष उत्तर सागर के 23,000 घन किलोमीटर पानी को विस्थापित कर देता है ।

वैसे मृत और प्रभावित मछलियों ने विषैले नीले थोथेयुक्त पीड़कनाशी का भक्षण स्वयं नहीं किया था वरन् उसे ‘खाद्य श्रृंखला के माध्यम’ से ग्रहण किया था, उन जंतुओं के भक्षण से ग्रहण किया था जिन्होंने अपने शरीर में उसे भारी मात्रा में सांद्रित कर लिया था ।

इस बारे में एक विचित्र बात यह थी कि कुछ ऐसी सीपियों (ओएस्टर) के जिनका मनुष्य भक्षण करता है, शरीर का रंग, नीले थोथे की भारी मात्रा को अपने शरीर में सांद्रित कर लेने के फलस्वरूप, हरा हो गया था । ऐसी ‘हरी ओएस्टरों’ को आसानी से पहचाना जा सकता था ।

इसलिए उन्हें नहीं खाया गया और इस प्रकार जन-हानि होने से बच गई । इसके विपरीत पारे और कैडमियम यौगिकों से प्रदूषित समुद्री जीवों के शरीर का न तो रंग बदलता है और न ही स्वाद बिगड़ता है । इसीलिए उन्हें मात्र देखकर पहचाना नहीं जा सका और भयंकर दुर्घटनाएँ हो ही गईं ।

बाद में जापान के निकट के सागर में भी इसी प्रकार ताँबे से प्रदूषित हरी ओएस्टरों (ओस्ट्रिआ गिगास, ओस्ट्रिआ सरकनस्पेटा और ओस्ट्रिया स्पीनोसा) के परीक्षण करने पर उनके शरीर में मृदु ऊतकों में ताँबे की मात्रा गीले भार पर 320 से 687 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम पाई गई जबकि सामान्यत: इन ओएस्टरों में यह मात्रा 40 से 99 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम होती है ।

धातुएँ सागर तक पहुंचती कैसे हैं ?

धातुएँ चट्टानों आदि में विभिन्न यौगिकों के रूप में मौजूद होती हैं । कुछ धातुएँ यथा ताँबा, चाँदी, सोना शुद्ध रूप में भी पाई जाती हैं । अपरदन, अपक्षयण और भूकंप, ज्वालामुखी आदि की क्रियाओं के फलस्वरूप ये पृथ्वी की ऊपरी सतह पर आ जाती है ।

वायु ताप और मुख्य रूप से पानी की क्रियाओं से चट्टानें टूट-टूटकर बिखरने लगती हैं और धीरे-धीरे बारीक धूल में बदलने लगती हैं । इस धूल में से वर्षा और नदी-नालों का पानी धातु यौगिकों के कुछ भाग को अपने में घोल लेता है, पर अधिकांश भाग को, बिना घोले ही छितराई अवस्था में, अपने साथ बहाकर सागर में ले जाता है ।

इस प्रकार धातु यौगिकों की बहुत बड़ी मात्राएँ सागर में मिलती हैं । जो काम थल पर वर्षा और नदियाँ करती हैं वही काम सागर का पानी स्वयं भी करता है । वह स्वयं भी अपने तटों की चट्टानों को घोलकर अथवा तोड़कर, धातु यौगिकों को अपने अंदर ले जाता है ।

साथ ही सागर में स्थित ज्वालामुखी भी समय-समय पर उसी प्रकार विस्फोटित होते रहते हैं, जैसे थल पर स्थित ज्वालामुखी । सागर का क्षेत्रफल थल की तुलना में बहुत अधिक है । इसलिए वहाँ ज्वालामुखियों की संख्या भी तदनुसार ज्यादा है ।

उनके विस्फोटों के दौरान भी, लावा, राख और चट्टानों के रूप में धातु यौगिक निकलते रहते हैं । उपर्युक्त क्रियाएं पिछले कई अरब वर्षों से, जब से सागर नदी-नाले और ज्वालामुखी बने हैं, हो रही हैं और इनके फलस्वरूप ही धातु यौगिकों की अधिकांश मात्राएं सागर में पहुँची हैं और आज भी पहुँच रही हैं ।

इनके अतिरिक्त, पिछले कुछ दशकों में मनुष्य के क्रिया-कलापों के फलस्वरूप भी सागर में विभिन्न धातुओं के यौगिकों की काफी मात्राएँ मिलने लगी हैं । विभिन्न उद्योगों से निकलनेवाले व्यर्थ पदार्थों और बहिःस्रावों में अनेक धातुओं के यौगिक भी मौजूद होते हैं ।

इनको आमतौर से बिना किसी उपचार के सागर में बहा दिया जाता है । यही हाल खाद्य उत्पादन को बढ़ाने तथा रोगों की रोकथाम के लिए इस्तेमाल किए जानेवाले उर्वरकों, पीड़कनाशियों, शाकनाशियों, कवकनाशियों का होता है ।

उनकी काफी मात्राएं अंतत: सागर में पहुँच जाती हैं । इनमें भी धातु यौगिक मौजूद होते हैं । सागर तट पर बसे शहर और कसबे अपने घरेलू कूड़े-करकट और सीवेज को सागर में बहा देते हैं । इनके माध्यम से भी कुछ धातु यौगिक सागर में पहुँच जाते हैं ।

इसी प्रकार टैंकर के रिसने, उनके दुर्घटनाग्रस्त होने तथा अपतटीय कुंओं से निकालते समय गिर जानेवाले पेट्रोलियम से भी धातु यौगिकों की कुछ मात्राएँ सागर में पहुँचती रहती हैं । सागर में धातुओं के पहुंचने का एक बड़ा साधन नाभिकीय बमों के परीक्षण भी हैं ।

इन परीक्षणों में बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी धूलि उत्पन्न होती है । इस धूलि का अधिकांश भाग सागर पर ही गिरता है । इसमें मुख्यत: रेडियोधर्मी धातुओं के सूक्ष्म कण होते हैं । अनेक बार धातुओं के सूक्ष्म कण पवनों के माध्यम से भी सागर तक पहुंच जाते हैं ।

धातु प्रदूषण:

मनुष्य का धातुओं से परिचय बहुत पुराना है । कदाचित् लकड़ी, मिट्टी और पत्थर के बाद, मनुष्य ने धातुओं, विशेष रूप से उन धातुओं, को जो प्रकृति में मुक्त रूप में मिलती हैं इस्तेमाल करना सीखा था । उस समय से लेकर आज तक धातुएँ मनुष्य के लिए अधिकाधिक उपयोगी होती जा रही है और भविष्य में उनकी उपयोगिता और बढ़ेगी ।

परंतु अत्यंत प्राचीन काल से लेकर वर्तमान शताब्दी के लगभग मध्य तक धातु-जन्य प्रदूषण, विशेष रूप से धातुओं द्वारा सागर में प्रदूषण की, कोई समस्या नहीं थी । समुद्री पर्यावरण में धातुओं के महत्व की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान पहली बार 1950 के दशक में आकर्षित हुआ ।

उस समय परमाणु बमों के परीक्षण पूरे जोरों पर थे और उनसे उत्पन्न होने वाली रेडियोधर्मी धूलि सागरों में प्रचुर मात्रा में गिर रही थी । समुद्री जीवों पर इस धूलि के प्रभाव ज्ञात करने के लिए वैज्ञानिकों ने जो परीक्षण किए उनमें पाया कि कुछ जीव अपने शरीर में, इर्द-गिर्द के पानी की तुलना में, कई गुनी मात्रा में धातुएँ सांद्रित कर लेते हैं ।

उदाहरण के तौर पर बृहत सीपी (क्लैम) ट्राईडास्ना, अपने गुर्दों में कोबाल्ट-60 काफी मात्रा में सांद्रित कर लेती है । कोबाल्ट-60 रेडियोधर्मी है । बाद में पाया गया कि समुद्री जीव सामान्य (गैर-रेडियोधर्मी) धातुओं को भी अपने शरीर में उसी भाँति संचित कर सकते हैं जैसे रेडियोधर्मी धातुओं को ।

समुद्री जीवों के शरीरों में ताँबे और जस्त की भारी मात्राओं का पाया जाना इस बात के प्रमाण माने गए । आजकल शैलफिशों में भारी धातुओं की मात्राओं को सागर में धातुजन्य प्रदूषण का द्योतक माना जाता है और उसकी मदद से प्रदूषण की मात्रा का अनुमान लगाया जाता है ।

यद्यपि ‘भारी धातु’ की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है परंतु आजकल रसायनशास्त्री तथा अन्य वैज्ञानिक उन धातुओं को ‘भारी’ मानते हैं, जिनकी परमाणु संख्या 22 से लेकर 92 तक है । ये धातुएँ रासायनिक तत्वों की आवर्त सारिणी (पीरिओडिक टेबल) के तीसरे से लेकर सातवें पीरियड में स्थान पाती हैं ।

यहाँ यह बात स्पष्ट कर देना युक्तिसंगत होगा कि अधिकांश धातुएँ अपने शुद्ध रूप में हानिकारक नहीं होती । केवल वे धातुएँ ही शुद्ध रूप में हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं जिनका वाष्प दाब अधिक होता है (उदाहरणार्थ पारा) अथवा जो बारीक धूल के रूप में मौजूद होती है (उदाहरणार्थ वैनेडियम) ।

वास्तव में धातुओं के घुलनशील यौगिक ही जलीय पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न करते हैं । कार्बनिक यौगिक (मैटेलोआर्गेनिक कंपाउंड) ही सर्वाधिक घातक पदार्थ पाए गए हैं । ऐसे पदार्थों के उदाहरण हैं मिथिल मर्क्यूरी, ट्रैटाइथिल लेड आदि ।

धातुओं द्वारा सागर को प्रदूषित करने की आशंका उसी समय अधिक होती है जब वे समुद्री जीवों द्वारा कार्बनिक यौगिकों में परिवर्तित कर दी जाती हैं । अगर वे शुद्ध रूप में अथवा अपने अकार्बनिक यौगिकों के रूप में मौजूद रहती हैं तब, कुछ अपवादों को छोड़कर समुद्री जीवों के लिए विशेष हानिकारक नहीं होतीं ।

इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश जीवों को, जिनमें समुद्री जीव भी शामिल हैं, अपनी शारीरिक क्रियाओं के लिए कुछ धातुओं (उनके यौगिकों) की जरूरत होती हैं । इसलिए जीव अपने शरीर में इन धातुओं को बड़ी मात्राओं में संचित कर सकते हैं । जीवों के भोजन ग्रहण करने के तरीके और कुछ उपापचयी क्रियाएँ इस संचय क्षमता में बढ़ोतरी करती हैं ।

इस प्रकार जीव अपने इर्द-गिर्द के वातावरण की तुलना में कई सौ हजार गुनी मात्रा में धातुओं को संचित कर सकते हैं । इस संबंध में अकशेरुकी जंतु (ऐसे जंतु जिनके शरीर में रीढ़ नहीं होती) कशेरुकी (रीढ़धारी) जंतुओं से बहुत अधिक क्षमतावान होते हैं ।

अनेक अकशेरुकी निस्यंदी अशन किस्म के जीव होते हैं । इसलिए वे प्लांक्टनों का आसानी से भक्षण कर लेते हैं । इनके मुँह में प्लांक्टनों के साथ प्रदूषक तथा धातु यौगिकों के अवशेष भी रुक जाते हैं । इन धातु अवशेषों में कार्बनिक पदार्थों के साथ जटिल यौगिक बनाने की क्षमता होती है ।

इसलिए ये शरीर के विभिन्न ऊतकों में ही रहे आते हैं, शरीर से बाहर नहीं निकलते । इस प्रकार काफी लंबे समय तक धातुएँ जंतुओं के शरीरों में ही रहती हैं और उनकी विभिन्न क्रियाओं को प्रभावित करती हैं । पर धातुओं में कुछ ऐसे गुण भी होते हैं जिनके फलस्वरूप उन्हें आसानी से प्रदूषकों से अलग किया जा सकता है । उस पानी में, जिसमें ह्यूमिक एसिड की मात्रा अधिक होती है, धातुएँ जटिल यौगिक बनाती हैं । ये यौगिक आसानी से पानी से अलग हो जाते हैं ।

वैसे सीवेज में भी ऐसे अनेक पदार्थ मौजूद होते हैं जो भारी धातुओं की विषाक्तता को कम कर देते हैं । इसलिए कभी-कभी एक विचित्र स्थिति देखने को मिलती है । शुद्ध पानी में भारी धातुएँ उपस्थित होती हैं तब वे उसे अत्यंत विषैला बना देती हैं, पर गंदा पानी उन्हीं धातुओं के कारण उतना विषैला नहीं हो पाता जितना शुद्ध पानी ।

धातुओं की जलीय जंतुओं के प्रति विषाक्तता, कुछ हद तक, उनकी विभिन्न ऑक्सीकरण अवस्थाओं पर निर्भर करती है । यह आवर्त सारणी में उनकी स्थिति पर आश्रित है । धातुओं की तथाकथित विद्युत ऋणात्मकता भी इस विषय में योग देती है । अब यह एकदम स्पष्ट हो गया है कि विषाक्तता के संदर्भ में भारी धातुओं का वह रूप, जिसके संपर्क में जलीय जीव आते हैं, अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है ।

कोई भारी धातु कितनी विषाक्त है यह इस बात पर निर्भर करता है कि धातु ऑक्सीकृत अवस्था में है अथवा अपचित अवस्था में, अपने प्राकृतिक रूप में है अथवा किसी कार्बनिक पदार्थ के साथ जटिल यौगिक बनाए हुए है, अकार्बनिक रूप में है अथवा कार्बनिक रूप में, वह अकेली ही कार्य कर रही है या अन्य धातुओं के संयोजन के रूप में ।

अनेक बार ऐसा भी होता है, यदि पानी में पहले से ही किसी अन्य धातु या धातुओं के लवण मौजूद होते हैं तब किसी धातु विशेष की विषाक्तता प्रभावित हो जाती है । उदाहरण के रूप में, जब पानी में कैल्सियम और मैग्नीशियम के लवण बड़ी मात्रा में उपस्थित होते हैं तब जस्त अथवा सीसे की विषाक्तता पर प्रभाव पड़ता है ।

एक अन्य कारक जिस पर धातुओं की जलीय जीवों के प्रति विषाक्तता के संदर्भ में अवश्य ध्यान देना चाहिए, वह है ‘संकर्म’ (साइनेरजिस्म) । संकर्म एक ऐसा विचित्र गुण है जो यह दर्शाता है कि दो या दो से अधिक वस्तुओं का सामूहिक प्रभाव उन वस्तुओं के अलग-अलग प्रभाव के योग से अधिक होता है ।

जस्त, कैडमियम और ताँबे पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि इनकी सामूहिक विषाक्तता, तीनों धातुओं की अलग-अलग विषाक्तता के योग से अधिक होती है । वैज्ञानिकों का मत है कि संकर्म का गुण कुछ तत्वों की विशिष्ट परमाण्विक संरचनाओं से संबंधित है ।

कुछ परिस्थितियों में ऐसा भी होता है कि सागर के पानी में उपस्थित किसी धातु की मात्रा वयस्क जीव को प्रभावित न करें और साथ ही उस जीव के अंडों या लार्वों पर भी तत्काल कोई प्रभाव न डाले, पर प्रभावित अंडों या लार्वों से जो बच्चे निकलें वे कमजोर हों अथवा अल्पजीवी हों ।

इस बारे में पारद यौगिकों का उदाहरण दिया जाता है । उस पानी में, जिसमें पारद यौगिक 10 भाग प्रति एक अरब भाग जैसी सूक्ष्म मात्रा में मौजूद होते हैं, रहनेवाली साकी सामन मछली के अंडों में से जो बच्चे निकलते हैं वे या तो युवावस्था तक पहुँच नहीं पाते अथवा अपने वंश को आगे बढ़ाने में अक्षम होते हैं ।

अब देखें कि कौन-सी धातु किससे अधिक अथवा किससे कम विषाक्त है अर्थात् धातुओं की तुलनात्मक विषाक्तता । इस बारे में भी वैज्ञानिकों ने विस्तृत प्रयोग किए हैं और उनमें एक विचित्र बात पाई है । मनुष्य के लिए जो धातुएँ अत्यंत विषाक्त होती हैं वे अनेक बार समुद्री जंतुओं के लिए अपेक्षाकृत बहुत कम विषाक्त होती हैं ।