Read this article in Hindi to learn about ground water pollution.

आर्यों का भारत ऋषि प्रधान देश रहा है । उस समय प्रदूषण का नाम-निशान भी न था । यदि थोड़ा-बहुत था तो प्रकृति स्वयं दूर कर लेती थी । मनुष्य अधिकतर कंदराओं में रहते, कंद-मूल खाते तथा तपस्या में लीन रहते थे ।

यही कारण था कि अधिकतर मनुष्य एवं प्राणियों का परिवेश स्वच्छ जल था; चाहे वह जल झील, झरने अथवा नदी आदि कोई भी प्राकृतिक स्रोत क्यों न था । प्राकृतिक जल-स्रोत किंचित दूषित हो सकता था, किंतु प्राणी द्वारा प्रदूषित बिलकुल नहीं था ।

शनै:-शनै: मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्राकृतिक जल-स्रोतों एवं अन्य जीव-जंतुओं का उपयोग करने लगा । फलस्वरूप सरयू, गंगा आदि सभी नदियों का जल दूषित होता गया । फिर भी इन नदियों में ऐसे लवण आदि घुले होते हैं, जिनका प्रभाव स्वास्थ्य पर कम ही पड़ता है ।

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यही कारण है कि विश्व की सर्वाधिक पवित्र नदी गंगा कहलाई, जिसका अमृत समान जल अनेक वर्षों तक भंडारण के उपरांत आज भी खराब नहीं होता तथा अनेक रोगों को दूर करने वाला है । इसीलिए भारतीय संस्कृति में पूजनीय है ।

पुनि बंदउँ सारद सुर सरिता ।

जुगल पुनीत मनोहर वरिता ।।

मज्जन पान पाप हर एका ।

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कहत सुनत एक हर अबिबेका ।।

निर्मल जल ही जीवन है । यह हमारी दैनिक आवश्यकताओं का अभिन्न अंग है । यही कारण है कि विश्व की समस्त प्राचीन सभ्यताएं जल के प्रमुख साधन-नदियों के किनारे पनपी, बढ़ी एवं विश्वविख्यात हुई । ऋषियों की इस भूमि भारत में सभी आश्रम एवं नगर नदियों या झीलों के किनारे बनाए गए और इसका कारण स्पष्ट है कि उस समय नदियों एवं झीलों आदि का जल पवित्र, अप्रदूषित तथा निर्मल था । नदियों का अमृत जैसा जल पीकर ही हम जीवन धारण करते हैं, उनमें स्नान करके हम पवित्र होते हैं ।

इसीलिए कहा गया है:

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

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नर्मदे सिख कावेरिजलेSस्मिनसन्निधिं कुरु ।।

पौराणिक काल से ही गंगा का जल सब पीड़ाओं को हरने वाला इतना निर्मल है कि इसे ‘अमृत’ की उपाधि दी गई है । इसकी मिट्टी और जल को अत्यंत पवित्र माना गया है ।

ये पुण्यवाहिनी गंगा सकृदक्तयावागाहिता तेबां ।

कुलानां लक्षन्तु मयात तारयते शिवा ।।

अनेकजन्मसंभूत पापं पुंसां पुणश्यति ।

स्नानमात्रेण गंगाया सघ: पुण्यस्य भाजनम् ।।

-(ब्रह्मानंद पुराण)

भावार्थ:

श्रद्धा से गंगा में स्नान करने पर मनुष्य के जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं और वह पवित्र हो जाता है । गंगा सहस्रों प्रकार के खतरों से उसकी और उसके वंशजों की रक्षा करती है ।

मृत्तिके ब्रह्मपूतासि काश्यपेनाभिवंदिता ।

त्वाया इतने पापेन गच्छामि परमांगतिम ।।

-(आह्विक सूत्रावली)

भावार्थ:

इस मिट्टी की पूरा ब्रह्मा आदि देवताओं ने की है, उन्होंने इसे पापहारिणी कहा है, इसे धारण करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है और परम गति प्राप्त होती है । प्रत्येक भारतीय, विशेषकर हिंदूओं में गंगा दर्शन, गंगातटवास, गंगाजल सेवन तथा अंत समय में गंगातट पर अपनी मुक्ति की कामना बनी रहती है । हिंदूओं के लिए गंगा पतितपावनी, पापहारिणी और मोक्षदायिनी है । तथापि गंगा मुसलमानों की भी पूज्य रही है ।

बंगाल के संत कवि दरफान खान ने अपनी अनुपम संस्कृत रचना में गंगा की स्तुति की है । रहीम के जीवन की एक साध थी कि ‘गंगा सिर पर रह’ । बहुत-से मुगल बादशाह अपनी यात्राओं में भी गंगाजल साथ रखते थे ।

अबुल फजल ने लिखा है कि मुगल सम्राट अकबर पीने के लिए केवल गंगाजल का ही प्रयोग करते थे । इस संदर्भ में तत्कालीन एक उद्धरण अप्रासंगिक न होगा । एक बार अकबर ने अपने दरबार में पूछा- ”सबसे उत्तम जल किस नदी का है ?” सभी दरबारियों ने कहा- “गंगा का ।”

अंत में बीरबल से पूछा गया तो उसने उत्तर दिया- ”यमुना का ।” इस पर अकबर आश्चर्य में पड़ गए और उन्होंने पूछा- ”बीरबल, तुम यमुना जल को सर्वोत्तम कह रहे हो, गंगाजल को क्यों नहीं ?” इस पर बीरबल ने उत्तर दिया- “गंगाजल कोई जल थोड़े ही है वह तो अमृत है ।”

अन्य नदियों के जल की तुलना में गंगा के जल में कुछ विशिष्टताएँ पाई गई हैं, किंतु इन विशिष्टताओं के कारणों का पूरा पता अभी वैज्ञानिक नहीं लगा पाए हैं । हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी गंगाजल के गुणों का उल्लेख है, परंतु उनके कारणों का नहीं ।

‘राजनिर्घंट’ में श्लोक है:

अख्या जलत्य गुणा: शीतन्वम् स्वादुत्वम,

स्वच्छत्वम् अत्यन्तस्च्यत्मृ, पथ्यत्वम्,

पावतत्वम् पापहारित्वम् तृष्णामोध्वसत्म्,

दीपनत्वम् प्रज्ञा धरित्वच, इति राजनिर्घण्ट |

भावार्थ:

गंगाजल के गुण हैं- शीतलता, मिठास, पारदर्शिता, उच्च शक्ति वर्धकता, परिपूर्णता, पेयता, अनिष्ट को दूर करने की क्षमता, पाचन शक्ति तथा प्रभा (विवेक) को बनाए रखने की क्षमता । पुराणों में उल्लेख है कि गंगाजल में अनेक जड़ी-बूटियाँ तथा खनिज तत्व है जो शरीर को निरोग ही नहीं रखते वरन् आत्मा को भी पवित्र करते हैं । हमारे ऋषि-मुनियों ने भी गंगा की गरिमा बनाए रखने के लिए कुछ नियम बनाए थे ।

यदि उन नियमों का पालन किया गया होता तो गंगा तथा अन्य नदियों की वह स्थिति न होती जो हमें उनके निर्मलीकरण के लिए बाध्य कर रही है और गंगा जैसी पवित्र नदी के लिए हम प्रदूषण जैसा शब्द प्रयोग में लाने लगे हैं ।

‘ब्रह्मानन्द पुराण’ (325-400 ई.) में वर्णित है:

गंगा पुण्यजलां प्राप्य त्रयोदशविवर्जयेत ।

शौचमान्वयनं सेकं निर्माल्यं मलघर्षणम ।

गात्र संवाहनं क्रीड़ा प्रतिग्रहमथो रहिम् ।

अन्यतीर्थे रविचैव: अन्य तीर्थ प्रशंसनम् ।

वस्त्र त्यागमथाघातं पंतारंच विशेषतः ।।

भावार्थ:

गंगा में निम्नलिखित कार्य वर्जित हैं- मल त्याग करना, प्रक्षालन, मूत्र त्याग करना, प्रयुक्त फूल-पत्ति-चढ़ावों का फेंकना, गंदगी धोना, साबुन लगाना, आमोद-प्रमोद करना, दान लेना, अभद्रता करना, गलत तरीके से अनुचित और विशेषकर आर-पार तैरना । गंगा की गरिमा बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि हम उपर्युक्त नियमों का पालन करें, विशेषकर नगरों की गंदगी, मल-मूत्र, कूड़ा-कचरा गंगा में प्रवाहित न करें ।

महाकवि तुलसीदास जी के कथनानुसार तभी गंगा कल्याणकारिणी हो सकती है:

गंग सकल मुद मंगल मूला ।

सब सुख करनि हरनि सब सुला ।।

इसके अतिरिक्त गंगा का जल न केवल निर्मल एवं सुख देने वाला है, बल्कि थकावट को दूर करने वाला तथा पीने में रुचिकर भी है ।

मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ ।

सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ ।।

जल दो प्रकार का होता है- मृदु जल तथा कठोर जल । यदि मृदु जल में सोडियम बाईकार्बोनेट, सोडियम सल्फेट आदि लवण घुल जाते हैं तो वह कठोर जल बन जाता है । जो जल साबुन के साथ घुलकर झाग उत्पन्न न कर, वह कठोर जल होता है ।

तथा निर्मल (मृदु) जल सभी दोषों को नष्ट कर संसार में संतुष्टि पैदा करता है । यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला तथा निर्मल ज्ञान एवं वैराग्य को बढ़ाने वाला है । इसमें स्नान करने से और पीने से हृदय का संताप खत्म हो जाता है ।

काम कोह मद मोह नसावन ।

बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ।।

सादर मज्जन पान किए तें ।

मिटहिं पाप परिताप हिए तें ।।

गंगा का परमपावन जल अमृत-तुल्य होता है । भारत के धर्म-ग्रंथ इसकी स्तुति से भरे पड़े हैं । स्कंदपुराण के काशीखंड में गंगा की स्तुति करते हुए उन्हें स्थावर एवं जंगम विष का नाश करने वाली, जीवनरूप, त्रितापसंहारिणी और प्राणेशी कहकर अभिनंदित किया गया है ।

संसारविषनाशिन्ये जीवनाये नमोSस्तु ते ।

तापत्रितयसंहन्त्रयै प्राणिश्यै ते नमो नम: ।।

-(स्कंदपुराण) 27 (160)

विश्व में केवल अमृतमय गंगाजल ही एकमात्र ऐसा जल है, जो वर्षों तक रखे रहने पर भी विकृत नहीं होता । अन्य सभी सरिताओं का जल कुछ ही समय में खराब और दुर्गंधयुक्त हो जाता है । यही कारण है कि पावन गंगाजल को समस्त रोगों की श्रेष्ठ दवा बताया गया है ।

सर्वस्व सर्वव्याधीनां भिषक् श्रेष्ठयै नमोSस्तु ते । हमारे धर्म-ग्रंथ जिस अमृत-तुल्य गंगाजल के प्रताप को हजारों-लाखों वर्षों से गाते रहे हैं, उसे बीसवीं सदी के विज्ञान ने भी पुष्ट कर दिया है । गंगाजल में स्नान करने से गलित कुष्ठ जैसे विषम रोग भी शांत हो जाते हैं ।

हजारों वर्षों से तपेदिक, कुष्ठ (कोढ़) तथा अन्य जीवाणुजन्य रोगों के रोगी गंगाजल का सेवन कर रोगमुक्त होते आ रहे हैं । यही कारण है कि गंगातट पर विकसित सभी शहरों में असंख्य कोढ़ी निवास करते हैं । गंगाजल वर्षों तक रखा रहने पर भी सड़ता नहीं तथा इसके सेवन एवं स्नान करने से रोगी ठीक हो जाते हैं ।

गंगाजल रोगों को कैसे दूर करता है तथा वर्षों तक भंडारण करने पर भी स्वत: खराब क्यों नहीं होता, इस पर वैज्ञानिकों ने निम्न आश्चर्यजनक तथ्य उद्घोषित किए हैं:

पाश्चात्य विज्ञान शास्त्री ‘रस्का’ द्वारा इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी के निर्माण के बाद अत्याधुनिक शोध के अनुसार गंगाजल में करोड़ों बैक्टीरिया-फेज (बैक्टीरिया = रोग के बैक्टीरिया, फेज = खाने वाले) पाए जाते हैं । बैक्टीरिया-फेज रोगों के जीवाणुओं (कीटाणुओं) को खाते हैं ।

यह एक ऐसा जीवन-रक्षक है, जो देखने में बहुत छोटा (10-4 सेंटीमीटर) होता है तथा प्रोटीन के आवरण से ढका रहता है । भूखा होने पर भी हजारों-लाखों वर्ष जीवित रह सकता है । जब भी जल में कोई जीवाणु बीमारी देने अथवा जल को सड़ाने वाला आ जाता है तो ये बैक्टीरिया-फेज इकट्ठे होकर उस पर टूट पड़ते हैं एवं उसको समाप्त कर देते हैं ।

कोई भी रोगी यदि गंगाजल का सेवन करता है तो ये विशेष जीवन-रक्षक तत्व उसके शरीर में पहुंचकर रोगी के जीवाणुओं को नष्ट करते हैं तथा रोग शनै:-शनै: समाप्त होने लगता है । गंगाजल को उबालने से यह पदार्थ निष्क्रिय हो जाते हैं, अत: इसे उबालना नहीं चाहिए और यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में गंगाजल को न उबालने की मान्यता है ।

प्रदूषणमुक्त का सर्वोत्तम उदाहरण चित्रकूट पर्वत के समीप कलकल बहती मंदाकिनी नदी है जहाँ आज भी तन और मन को आनंदित करने वाला वातावरण तथा परस्पर वैर करने वाले हिंसक पशु निवास करते हैं लेखक स्वयं इसका अनुभव कर प्रसन्नचित्त एवं रोमांचित हो गए ।

नदियाँ ही नहीं बल्कि विशेष रूप से ऐसे तैयार किए कुएँ भी थे जिनका अत्यंत पवित्र जल विविध रोगों को दूर करता था । ‘रामचरितमानस’ के प्रसंग में संत तुलसीदासजी ने भी ऐसे कुएँ (भरत कूप) का उदाहरण दिया है जिसका जल अन्य स्रोतों से प्राप्त जल के साथ मिलकर और भी अधिक गुणकारी हो जाता है ।

केवल त्रेता युग की ही बात नहीं, आज कलियुग में भी अनेक स्थल है जहाँ ऐसे कुएँ अब भी गुणकारी सिद्ध हुए हैं । मेरी जन्मभूमि, मुबारकपुर (गाजियाबाद) में एक ऐसे कुएँ का जल पुरानी से पुरानी बढ़ी हुई तिल्ली को ठीक करता है और यकृत की बीमारी में गुणकारी है ।

गढ़मुक्तेश्वर में विद्यमान राजा नक द्वारा निर्मित नक्का कुआं भी कुष्ठ रोग का निवारण करता है । यद्यपि उस समय प्रदूषण अवश्य था, किंतु समानुपात में बहुत ही कम मालूम पड़ता था । कहीं-कहीं पर गंगाजल में भी कुछ इधर-उधर के गंदे नालों का समागम होने से जल प्रदूषणता आ गई थी ।

इसी प्रकार यमुना का जल भी यद्यपि स्नान करने योग्य था फिर भी उसमें प्रदूषण बढ़ने के कारण जल काला हो चुका था । तुलसीदास जी ने ‘उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम श्याम’ कहकर अपने आपको मर्यादा में ही रखा ।

अब प्रश्न उठता है कि क्या इस युग में भी कोई ऐसी जलधारा है जो प्रदूषण-रहित है । अत: देखा गया है कि गंगा नदी के उद्गम स्थल के अतिरिक्त गुप्त गोदावरी नदी का उद्गम स्थल भी पूर्णतया प्रदूषण रहित है ।

लेखक ने स्वयं जाकर देखा कि यह स्थान चित्रकूट से लगभग 15 किलोमीटर दूर दक्षिण में है । किंवदंती है कि अयोध्या के राजा राम ने सपत्नी अपने लघुभ्राता के साथ वन गमन के समय अनेक वर्षों तक यहाँ प्रवास किया था । प्रवास एक प्राकृतिक गुफा में किया जिसका आकार लगभग 80 × 80 × 15 घनफुट है ।

गुफा में प्रवेश एक तंग द्वार से किया जाता है जहाँ भूमिगत जलाशय भी है जिसका जल शीतल, मृदु एवं रुचिकर है । भूजल पृथ्वी के जलमंडल का एक महत्वपूर्ण भाग है । जलमंडल में उपलब्ध कुल मीठे जल का 29.9 प्रतिशत भाग भूजल के रूप में तथा 68.7 प्रतिशत भाग बर्फ के रूप में अटार्कटिक, आर्कटिक तथा पर्वतों की ऊँची चोटियों में विद्यमान है ।

शेष भाग नदी, नाले, झीलों आदि स्रोतों में धरातली जल के रूप में पाया जाता है । घरेलू कार्यों तथा उद्योगों व कृषि क्षेत्रों में जल आपूर्ति को दिनोदिन बढ़ती माँग को पूरा करने में भूजल-स्रोतों का महत्वपूर्ण योगदान है ।

इसके चलते भूजल-स्रोतों के अत्यधिक दोहन से ही भूजल-स्रोतों में जल की मात्रा में निरंतर कमी होती जा रही है । जल-प्राप्ति हेतु लाखों ट्‌यूबवेल प्रतिवर्ष लगाए जा रहे हैं, बहुमंजिली इमारतों में सबमर्सिबिल पंप लगाए जा रहे हैं जिनके कारण भूजल-स्तर गिरता जा रहा है ।

ऐसी बहुत-सी मानव क्रियाएं हैं, उदाहरणार्थ, पेड़ों का काटना, शहरीकरण का विस्तार, औद्योगिक विकास, वाहनों का निरंकुश उपयोग, अधिक उपज के लिए रासायनिक खादों का अत्यधिक प्रयोग व ऊंचे-ऊंचे बाँध बनाना आदि, जिनका पर्यावरण पर पूर्ण अथवा आंशिक प्रभाव पड़ता है ।

इस प्रकार की मानवीय क्रियाओं से न केवल भूजल जैसे प्राकृतिक संसाधन की मात्रा कम हो रही है, अपितु इस संसाधन की गुणवत्ता भी प्रदूषण-स्तर तक पहुँच गई है । इस प्रकार की मानवीय शोषण क्रियाओं के परिणामस्वरूप इन सभी क्षेत्रों में भूजल-प्रदूषण के कारण विभिन्न पोषक तत्वों जैसे- फ्लोराइड, नाइट्रेट, सल्फेट, क्लोराइड व भारी धातुओं की भूजल में मात्रा, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) द्वारा निर्धारित न्यूनतम सीमा से ही अधिक हो गई है ।

इन हानिकारक तत्वों वाले जल के उपयोग से विभिन्न बीमारियाँ होने की प्रबल संभावनाएँ रहती हैं । sजल चाहे किसी भी स्रोत से प्राप्त किया गया हो- नदी, तालाब, बावड़ी, कुंओं अथवा ट्‌यूबवेल से, उसमें कुछ न कुछ लवण अवश्य घुले रहते हैं, जिनमें सोडियम, पोटेशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम के क्लोराइड, कार्बोनेट, बाईकार्बोनेट तथा सल्फेट मुख्य हैं । इनके अतिरिक्त लोहा, मैंगनीज, सिलिका, फ्लोराइड, नाइट्रेट, फास्फेट आदि तत्व कम मात्रा में पाए जाते हैं । इनकी पारस्परिक मात्रा का अनुपात स्थानीय भू-रचना एवं स्थितियों पर निर्भर करता है ।

जब इन लवणों की मात्रा एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाती है तो वे शारीरिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने लगते हैं जिससे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है । यदि ऐसे पानी से सींची गई चारे की फसल जानवरों को खिलाई जाए तो उसको भी अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं । उदाहरण के लिए, फ्लोराइड की अधिकता (10 लाख में दो या तीन भाग) के कारण राजस्थान, हरियाणा और आंध्र प्रदेश में अनेक नर-नारी फ्लोरोसिस की बीमारी से ग्रस्त पाए गए हैं ।

सन् 1971 ई. के जनसंख्या के आँकड़ों के अनुसार भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है जो कुंओं, तालाबों, बावड़ियों तथा नदियों के जल पर निर्भर करती है और अनेक सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि इन स्रोतों से प्राप्त जल प्रकार के हानिकारक जीवाणुओं से प्रदूषित है । खुल कुंओं का जल अत्यधिक प्रदूषित होता है । इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में प्रति एक लाख व्यक्तियों में से 360 व्यक्ति आंत के रोगों (टाइफाइड, पेचिश आदि) के कारण मरते हैं ।

यह ज्ञात है कि खेतिहर मजदूरों के नियंत्रित दल में से 13 प्रतिशत आंत्रशोथ-संक्रमण, 23.6 प्रतिशत अरक्तता और 29 प्रतिशत कीट-संक्रमण से प्रभावित रहते हैं । यद्यपि अब मलेरिया तो भारत में नहीं रह गया है । परंतु खेद की बात है कि गाँवों की लगभग 2.5 करोड़ जनता फाइलेरिया जैसे रोग से पीड़ित रहती है ।

गिनी कृमि. सारे भारत के अधिकांश ग्रामीण कुंओं में पाए गए हैं और बिलहार्जियासिस दो राज्यों में पाया गया है । कोलकाता तथा निकटवर्ती कुछ क्षेत्रों में आयरन जीवाणु (क्रोनोथिक्स आदि) के साथ जल के रुक जाने और जल का रंग तथा स्वाद बदलने की समस्या भी रहती है ।

सैकड़ों गाँव ऐसे हैं, जहाँ पर पीने का पानी फ्लोराइड, नाइट्रेट, लोहा, मैंगनीज और घुलनशील ठोस तथा भारी धातुओं आदि के लिए निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं होता । इस समस्या की भयंकरता का अनुमान देश के विभिन्न गाँवों के असंख्य कुंओं से प्राप्त संदूषित पीने के पानी में रसायनों की सांद्रता से किया जा सकता है ।

ऐसे गाँवों में जानपदिक स्तर पर रोग फैलने और लगातार ऐसा प्रदूषित जल पीने से शरीर-क्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव संबंधी आंकड़ें उपलब्ध नहीं हैं । दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्र के एक सर्वेक्षण में 600 से अधिक कुंओं का निरीक्षण किया गया जिनमें से केवल 10.8 प्रतिशत को स्वच्छ कहा जा सकता है ।

शेष की दशा बहुत असंतोषप्रद थी । भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय और राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों द्वारा डिजाइन तथा स्वच्छ हैंडपंपों के सुधरे कुंओं के निर्माण के लिए सलाह दी जा रही है, परंतु समस्या बड़ी है और कुछ वर्षों में हल नहीं हो सकती ।

कुंओं का विसंक्रमित (कीटाशुरहित) करने के लिए सरल व सस्ती युक्तियों विरंचक चूर्ण से युक्त मिट्टी के पात्र के रूप में देश में ही विकसित करने के प्रयास किए गए हैं, यद्यपि ये युक्तियाँ तकनीकी रूप से सफल रही है, परंतु इनके पानी में क्लोरीन का स्वाद आने के कारण ग्रामीण जनता ने इन्हें स्वीकार करने में उत्साह नहीं दिखाया है ।

समय के साथ व स्वास्थ्य-शिक्षा के कारण शायद लोग इनको स्वीकार करने लगें । प्रायः देखा गया है कि वर्षा ऋतु में पानी मिट्टी के संपर्क में आने पर गँदला हो जाता है । हमारे देहातों में जब पानी अधिक गँदला हो जाता है तो उसे साफ करने के लिए लोग निर्मली के बीज या फिटकरी का उपयोग करते हैं ।

इस प्रकार उसमें निलंबित सभी पदार्थ, बैक्टीरिया और वायरसों को भी पात्र के तल में बैठने दिया जाता है और ऊपर का साफ पानी पीने के काम में लाया जाता है । आजकल अनेक प्रकार के स्कंदक पदार्थों का उपयोग होता है । इस प्रक्रिया से वायरस नीचे बैठ जाते हैं किंतु नष्ट नहीं होते ।

अत: स्कंदन से वायरसों की सांद्रता कम की जा सकती है तथा उसमें विद्यमान जैव (ऑर्गेनिक) तत्वों को भी कम किया जा सकता है और इस प्रकार क्लोरीन उपचार द्वारा उनको संपूर्णतया नष्ट किए जाने के योग्य बना दिया जाता है । रेत में गुजारकर केवल छानने मात्र से पानी को पूर्ण रूप से वायरसमुक्त नहीं बनाया जा सकता । स्कंदन के तुरंत बाद रेत में से छानने पर पानी काफी हद तक वायरसमुक्त किया जा सकता है ।

देहातों में स्वास्थ्य निरीक्षक कुंओं में विरंचक पाउडर (ब्लीचिंग पाउडर) डलवा दिया करते हैं । पानी में घुलने पर इसमें से क्लोरीन गैस निकला करती है जो कि बैक्टीरिया और वायरसों को मार देती है । वास्तव में जल-शोधन के उपचारों में अंतिम यही क्लोरीन उपचार है ।

अध्ययनों में यह पता चला है कि विभिन्न प्रकार के आंत्र वायरसों में क्लोरीन के प्रतिरोध की क्षमता अलग-अलग होती है । इसके अलावा जल के क्लोरीनीकरण की प्रभावोत्पादकता जल के तापमान, उसमें विद्यमान जैविक पदार्थों के पी-एच मान पर भी निर्भर होती है ।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए यह देखा गया है कि स्कंदन और छानने के उपरांत एक मि. ग्रा./लि. निकली शेष क्लोरीन यदि तीस मिनट तक जल के संपर्क में रहे तो वायरसों का संपूर्ण नाश हो जाता है ।  चूँकि क्लोरीन पानी में विद्यमान कुछ निश्चित पदार्थों से मिलकर प्रतिक्रिया करती है जिससे पानी के स्वाद ओर गंध में अंतर पड़ता है, इसलिए लोग उसे कुछ कम पीना पसंद करते हैं ।

अत: पानी विसंक्रमित करने के लिए विशेष रूप से देहाती क्षेत्रों में क्लोरीन के स्थान पर आयोडीन का उपयोग किया जा सकता है । इसके लिए पानी की रासायनिक दशा का ज्ञान होने और जटिल उपकरणों की जरूरत भी नहीं होती । जल-शोधन के विभिन्न अवस्थानों में उपरोक्त विधियों के ज्ञान के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि इनमें से कोई एक विधि अपने आप में जल को पूर्णतया शुद्ध बनाने में समर्थ नहीं है ।

पेयजल को वायरसमुक्त बनाने के लिए प्रमुख हथियार दक्षतापूर्वक काम करने वाला जल-शोधन संयंत्र ही है और जब तक यह सर्वजन सुलभ नहीं हो पाता, पानी को उबालकर पीना ही श्रेयस्कर है । देहातों में पीने का पानी कुंओं, नदियों, तालाबों से लिया जाता है ।

उसको साफ करने की सुविधा वहाँ नहीं होती । इसमें कई प्रकार के लवणों के अतिरिक्त ऐसा जल अधिक होता है जिसमें फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है । फ्लोराइड की अधिक मात्रा में जल को पीते रहने से 8 से 10 साल की अवधि तक ‘फ्लोरोसिस’ बीमारी हो सकती है, जिसमें हड्डियाँ गलने लगती हैं और मनुष्य अपंग हो जाता है ।

मनुष्य तथा पशु दोनों ही इस रोग के शिकार हो सकते हैं । दाँतों की इनामिल टूटने (डैंटल फ्लोरोसिस) का कारण भी पानी में फ्लोराइड की अधिकता है । भारत में आंध्र, गुजरात, राजस्थान आदि राज्यों के अनेक क्षेत्रों में जो लोग अन-उपचारित पानी पीते हैं, फ्लोरोसिस से पीड़ित होते हैं ।

पीने के पानी में फ्लोराइड के कारण भरी जवानी में व्यक्ति कुबड़े हो जाते हैं और 50-60 वर्ष के होते-होते इस दुनिया से ही कूच कर जाते हैं । टोंक की देवाली तहसील (राजस्थान) में नसीरदा के निकट ‘रघुनाथ का पुरा’ गाँव बसा है । सन् 1945 ई. में आए गंभीर अकाल के बाद इस गाँव की जमीन में फ्लोराइड के तत्वों की मात्रा बढ़ गई और तभी से लोगों के हाथ-पाँव में दर्द होने की शिकायत आने लगी । दस-बारह वर्ष के बाद ये लोग कुबड़े होने लगे ।

सामान्य रूप से भूजल में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 पी. पी एम. अर्थात दस लाख लिटर में 1.5 लिटर होती है किंतु रघुनाथ का पुरा के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा 300 पी. पी. एम. है । आरंभ में लोगों को इस बीमारी का आभास नहीं हुआ । लगभग पाँच वर्ष बाद जब इस बीमारी ने अपना विकराल रूप धारण किया तो स्थानीय धाकर जाति के लोगों को यही लगा कि यह कोई दैवी प्रकोप है ।

इसके निवारण के लिए गाँव में यज्ञ, अनुष्ठान और ब्रह्मभोज का आयोजन किया गया किंतु यह संकट टला नहीं । दस वर्षों बाद जब लोगों की भूख भी मरनी शुरू हो गई, दाँत पीले पड़कर गिरने लगे और 50-60 वर्ष का आयु जीने की सीमा-रेखा बन गई तब उनको इस बात का कुछ-कुछ एहसास हुआ कि पानी में ही कोई गड़बड़ी है ।

प्रदूषित जल पीने से विगत वर्षों में स्त्रियों में बाँझपन का सिलसिला भी आरंभ हो गया है । इसका परिणाम यह हुआ कि रघुनाथ का पुरा गाँव के युवकों के पास विवाह के प्रस्ताव आने बंद हो गए । यही नहीं, शादी के बाद महिलाएं अपने पतियों को छोड़कर भी चली जाती हैं ।

यह तो केवल रघुनाथ का पुरा गाँव की काहानी है । वस्तुत: राजस्थान में ऐसे एक दर्जन से भी अधिक जिले हैं, जहाँ भूजल में किसी न किसी प्रकार का प्रदूषण है । पाकिस्तान से सटे जिलों (जैसलमेर और बाड़मेर) के अधिकतर गाँवों में लवण तत्वों की मात्रा इतनी अधिक है कि वहाँ पानी को बिना छाछ (मट्ठा) मिलाए पीना संभव नहीं है ।

इसका दुष्परिणाम यह है कि गंभीर बीमारी से पूरा क्षेत्र पीड़ित है । इसी प्रकार बाँसवाड़ा, डूँगरपुर और उदयपुर की पूरी आदिवासी पट्टी नारू नामक जानलेवा बीमारी से त्रस्त है । यही स्थिति चूरू की है, जहाँ का पानी पीकर बच्चे बारहों महीने उल्टी (वमन) और दस्त से पीड़ित रहते हैं । यहाँ बच्चों की मृत्यु-दर सर्वाधिक है । अलवर और सवाईमाधोपुर में खून की कमी बच्चों में आम बात है ।

टोंक जिले के ही दूसरे क्षेत्रों की शिवदासपुरा, पुरा निवी और वनस्थली गाँव में भूजल में फ्लोराइड की मात्रा 40 से 120 पी. पी. एम. है । पीने के पानी से फ्लोराइड बिलगाने की विधियाँ आप ‘विकासशील भारत और प्रदूषण’ शीर्षक अध्याय के अंतर्गत पढ़ेंगे ।

यद्यपि पाया गया है कि सर्वाधिक शुद्ध जल वर्षा की विधि विशेष से एकत्र किया होता है, किंतु शुद्ध जल-प्राप्ति का एकमात्र साधन प्राकृतिक स्रोत झरना ही है ।

झरना झरहिं सुधासम बारी ।

त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ।।

उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के कुंओं, हैंडपंपों और ट्यूबवेलों का पानी पीने योग्य नहीं है । इनमें पार जाने वाले तत्व और पदार्थ स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, जिनसे कई तरह के रोग पैदा हो सकते हैं । प्रदेश के कई जिलों के भूजल की जाँच-पड़ताल में वैज्ञानिकों को नाइट्रेट, मैंगनीज पोटेशियम और क्रोमियम की मात्रा सीमा से अधिक मिली है । भूजल की जाँच-पड़ताल का कार्य लखनऊ के केंद्रीय भूजल परिषद के भूजल प्रदूषण निदेशालय के वैज्ञानिकों ने किया है ।

बादशाहपुर (जौनपुर), मिरजापुर (सहारनपुर), बागरमऊ (उन्नाव), विरधा (हमीरपुर), बाँसी (झाँसी) और हस्तिनापुर (मेरठ) के कुंओं के जल में नाइट्रेट की मात्रा 300 से लेकर 694 मिलीग्राम प्रति लिटर तक मिली है । जल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक होने से ‘ग्लोबिनेमिया’ नामक बीमारी हो जाती है । इस बीमारी से शरीर का पूरा खून नीला हो जाता है । पीने योग्य जल में इसकी मात्रा 20 से 50 मिलीग्राम प्रति लिटर निर्धारित की गई है ।

लखनऊ के विभिन्न स्थानों पर भूजल के परीक्षण में भी नाइट्रेट की मात्रा 100 मिलीग्राम से लेकर 650 मिलीग्राम प्रति लिटर तक पाई गई है । लखनऊ के 52 कुंओं में से 21 में ही नाइट्रेट की मात्रा सीमा के भीतर थी । हाल में किए गए परीक्षण में 46 कुंओं में से 24 कुंओं के जल में नाइट्रेट की मात्रा और अधिक पाई गई है । नाइट्रेट ने भूजल को 135 मीटर की गहराई तक प्रभावित किया है ।

भूजल-प्रदूषण निदेशालय के निदेशक ने बताया कि वाराणसी में जल निगम के शोधन संयंत्र (ट्रीटमेंट प्लांट) से जो जल निकलता है, उसमें नाइट्रेट की मात्रा बहुत अधिक होती है । किसान इस जल का उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं, किंतु इससे भूजल प्रदूषित हो रहा है ।

सारनाथ के पास कमौली गाँव के भूजल परीक्षण में नाइट्रेट की मात्रा 342 मिलीग्राम प्रति लिटर मिली है । जौनपुर जिले के नवादा क्षेत्र के भूजल में भी नाइट्रेट की मात्रा काफी अधिक मिली है । उन्होंने बताया कि पेयजल में नाडट्रेट की अधिकता से पेट के कैंसर की बीमारी भी हो सकती है ।

कानपुर ओर उन्नाव के कुछ क्षेत्रों में क्रोमियम की मात्रा भी काफी अधिक मिली है । क्रोमियम मानव-शरीर के लिए घातक तत्व है । इससे कैंसर का खतरा है । कानपुर चमड़े के कारखाने वाले क्षेत्र के कुंओं में क्रोमियम की मात्रा 3100 से लेकर 27000 माइक्रोग्राम प्रति लिटर तक पाई गई है ।

पेयजल में क्रोमियम की अधिकतम सीमा 0.05 माइक्रोग्राम प्रति लिटर निर्धारित की गई है । वैज्ञानिकों को जाँच-पड़ताल में कानपुर के भूजल में सीसे की मात्रा भी काफी अधिक मिली है । इसके अलावा कुछ अन्य प्रदूषणकारी तत्व भी मिले हैं ।

वाराणसी के सुंदरपुर तथा डी.एल.डब्लू. क्षेत्र के कुंओं के जल में क्रोमियम की मात्रा क्रमशः 130 माइक्रोग्राम और 88000 माइक्रोग्राम प्रति लिटर तक मिली है । बाँसी (बस्ती), मिलक (रामपुर), नानपारा (बहराइच) और बिस्वा (सीतापुर) के कुंओं में मैंगनीज की मात्रा सीमा से बहुत अधिक 1000 माइक्रोग्राम प्रति लिटर तक मिली है ।

रायबरेली जिले के सलोंन जायस, जौनपुर जिले के शाहगंज और केराकत, इलाहाबाद जिले के शिवराजपुर तथा वाराणसी जिले के भदोही क्षेत्र के कुंओं के जल में मैंगनीज की मात्रा 160 से लेकर 200 माइक्रोग्राम प्रति लिटर मिली है । पेयजल में मैंगनीज की निर्धारित सीमा 0.1 से लेकर 0.5 माइक्रोग्राम प्रति लिटर तक है । जल में मैंगनीज की मात्रा अधिक होने से मनुष्य को विभिन्न प्रकार के स्नायु विकार हो सकते हैं ।

सहारनपुर जिले के औद्योगिक क्षेत्र के भूजल के विश्लेषण में भी मैंगनीज, कॉपर और सीसे की मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक पाई गई है । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भीतर लगे नलकूपों के जल में भी कैडयिम, कॉपर, सीसा और लौह की मात्रा सीमा से अधिक पाई गई है ।

उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के कुंओं के जल में पोटेशियम की मात्रा 100 मिलीग्राम प्रति लिटर से अधिक पाई गई है । मथुरा जिले के छाता और आगरा के कोटला क्षेत्र के भूजल में पोटेशियम की मात्रा 1000 मिलीग्राम प्रति लिटर से भी अधिक मिली है ।

अनुमान है कि इन क्षेत्रों में रासायनिक खाद के अधिक इस्तेमाल के कारण और सिंचाई के जल के जरिए भूजल में पोटेशियम की मात्रा इतनी अधिक बढ़ी है । उन्नाव जिले के हुसैनगंज के कुंओं के जल में मैंगनीज की मात्रा सीमा से अधिक पाई गई है ।

इस जल के पीने के कारण हुसैनगंज गाँव के कुछ लोग लकवे के शिकार हो गए हैं । इन गाँवों के बगल से ही मगरवारा के सुपर फास्फेट प्लांट का गंदा पानी बहता है । भूमिगत पानी में फ्लोराइड विषाक्तता से जन्मे लाइलाज ‘फ्लोरोसिस’ रोग ने उन्नाव के करीब 680 प्रभावित गाँवों के छोटी-बड़ी उम्र के हजारों निवासियों के शरीर को विकृत कर दिया है ।

इस अपंगता से पूरे के पूरे परिवार पीड़ित हैं । बुजुर्ग तो दूर, फ्लोरोसिस के असहनीय दर्द, झुकी कमर, टेढ़े-मेंढ़े हाथ-पैरों से ग्रस्त नौजवान भी खेती व अन्य काम करने योग्य नहीं रह गए हैं ओर दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो चुका है ।

पानी के इस प्रकोप से सिरसहा खेड़ा, मार्क्सनगर, बाबा की कुटी, देविन खेड़ा, अहमाखड़ा, गोसाईं खेड़ा, पाठकपुर, गुरबक्श खड़ा में विषाक्त पानी पीने से फ्लोरोसिस रोग बेकाबू हो चुका है । उन्नाव जिले के गाँवों में यही कहानी जगह-जगह की है, जहाँ पानी में क्लोराइड की मात्रा 1.5 पी.पी.एम. के सुरक्षित स्तर के मुकाबले 10 गुना तक अधिक पाई गई है ।

स्वास्थ्य विभाग के मोटे अनुमान के मुताबिक करीब 450 गाँवों के 6 हजार लोगों पर फ्लोरोसिस का प्रकोप है । सिरसहा खड़ा के नौ वर्षीय राजू के पैर चपटे हो चुके हैं । 14 वर्षीय जगदीश के हाथ व पैर मुड़ गए हैं और 16 वर्षीय सीता के हाथ-पैर लचीले हो चुके हैं ।

45 वर्षीय रामकली की कमर इस कदर झुक गई है कि वह सामने देख ही नहीं सकती है, नतीजा यह है कि वह अकसर चलते-चलते दीवार आदि से टकरा जाती है और चोटिल हो जाती है । करीब 10 वर्ष पूर्व इस बीमारी की चपेट में आए 23 वर्षीय बुद्धीलाल की शादी टूट चुकी है, क्योंकि उसकी कमर झुक गई है और हाथ-पैर टेढ़े हो गए हैं ।

राजधानी में बैठे शासन के जिम्मेदार लोग विकलांगों को सुनहरा सपना दिखाने की कोई कमी नहीं छोड़ेंगे, वही यहाँ से मात्र 40 कि.मी. दूर उन्नाव में सैकड़ों गाँव ‘विकलांगता’ की ऐसी खुली दास्तान हैं, जहाँ मानवीय संवेदनाओं से सरोकार न रखने वाले सरकारी अमले की घोर उपेक्षा के चलते कई दशकों से ‘फ्लोराइड’ युक्त प्रदूषित पानी के धीमे जहर ने यहाँ के निवासियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी को ‘अपंग’ बनाकर उन्हें समाज से अलग-थलग कर दिया है ।

आर्थिक रूप से कमजोर एवं ग्रामीण जनता फ्लोरोसिस से विशेष तौर पर प्रभावित है । पूरे देश के प्रभावित 32,211 गाँवों में से 16,560 गाँव राजस्थान राज्य के ही हैं । राजस्थान के सर्वाधिक प्रभावित नागौर जिले के समीप स्थित होने के कारण अजमेर जिले का किशनगढ़ कस्बा एवं आसपास का क्षेत्र भी इससे प्रभावित है ।

भूमिगत जल का दोहन किशनगढ़ क्षेत्र से संगमरमर (मार्बल) इकाइयों के कारण अत्यधिक है । निरंतर सूखा प्रभावित रहने के कारण इस क्षेत्र में पानी का सीमित उपलब्धता तो है ही, उसमें भी फ्लोराइड की मात्रा आवश्यकता से अधिक होने के कारण फ्लोरोसिस यहाँ की विकट समस्या हैं ।

सर्वेक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि वर्षा ऋतु के बाद पानी में फ्लोराइड की मात्रा पहले की अपेक्षा कुछ कम पाई गई । वर्षा के बाद भूमि में पानी का स्तर बढ़ने से बारिश का पानी भूमि में ज्यादा गहराई तक नहीं जाता है, जिससे फ्लोराइड एवं अन्य लवणों की मात्रा भूजल में नही बढ़ती है । सामान्यतया जल के रासायनिक तत्वों की मात्रा पर ऋतु परिवर्तन का असर नहीं होता है ।

जनसंख्या व उद्योगों में निरंतर वृद्धि के कारण उसके द्वारा जनित कूड़ा-कचरा के अव्यवस्थित ढंग से निपटारे के कारण उसमें उपस्थित हानिकारक पदार्थ भूजल स्रोतों में जल रिसाव के माध्यम से पहुँचकर भूजल को प्रदूषित कर रहे हैं, दूसरी तरफ कृषि उत्पादों में वृद्धि के लिए बड़ी मात्रा में कीटनाशक दवाओं तथा रासायनिक खादों का प्रयोग हो रहा है ।

इनके भी हानिकारक तत्व वर्षा तथा सिंचित जल में घुलकर भूजल-स्रोतों में पहुँचकर भूजल को प्रदूषित कर रहे हैं । जब मनुष्य तथा पशुओं द्वारा नदियों एवं तालाबों का जल प्रदूषित होगा तो भूजल-प्रदूषण की समस्या की संभावनाएँ तो होंगी ही ।

इस समस्या के निदान के लिए हमें भूजल-स्तर को बढ़ाना होगा । प्राचीन काल में भी जल-संरक्षण हेतु कुंओं और बावड़ियों (तालाबों) आदि का निर्माण किया जाता रहा है । वर्षा के जल को उनमें एकत्रित करके उसे प्रयोग योग्य बनाया जा सकता है ।

इस विधि का प्रयोग अनेक जगहों पर हो भी रहा है, जैसे कई गाँवों में वर्षा के जल को बाँस की नाली के द्वारा एक तालाब में एकत्रित कर दिया जाता है । हरियाणा के अनेक गाँवों में तालाब आदि में वर्षाजल संचित किया जा रहा है ।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखरजी के भोंडसी आश्रम में ऐसी ही व्यवस्था आदर्श एवं अनुकरणीय है । हरियाणा आवासीय योजना के अंतर्गत प्रत्येक घर में जल को एकत्रित करके ‘सबमर्सिबिल टैंक’ बनाना अनिवार्य कर दिया गया है ।

वर्षा के जल को भूजल बनाने के लिए गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने भी बहुमंजिली इमारतों में लगभग 120 फुट गहरे नलों द्वारा वर्षाजल नीचे पहुँचाने की व्यवस्था को अनिवार्य किया है जो भूजल के स्तर को ऊपर उठाने में उपयोगी तो सिद्ध होगी ही, साथ में लवणों से युक्त भूजल भी मृदु में परिवर्तित होगा । वर्षाजल संचयन के अभी तक के प्रयासों से उत्साहवर्धक परिणाम सामने आए हैं और यह दावा किया गया है कि मौजूदा कानूनों का सख्ती से पालन हो तो पेयजल संकट से छुटकारा मिल सकता है ।

सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के निराशाजनक आंकड़ों में तो यह बताया जा रहा है कि दिल्ली में अधिकतर स्थानों पर भूजल-स्तर 2 से 11 मीटर तक नीचे गिरा है जो राजधानी में पहले से उपजे पेयजल संकट के लिए एक चुनौती है । दिल्ली व आसपास की कॉलोनियों में भूजल-स्तर लगातार गिर रहा है । भवन निर्माता और प्रवर्तन एजेंसियों मौजूदा कानूनों की अनदेखी करते हुए बरसाती पानी के संचयन पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रही हैं ।

मानसून की आहट से उत्साहित सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट ने बरसाती पानी के संचयन को लेकर कुछेक परियोजनाओं की चर्चा करते, हुए दावा किया है कि उनकी ओर से मानसून से पहले और बाद में जो तथ्य (डाटा) एकत्र किए गए हैं, उनसे चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं ।

दिल्ली में 11 स्थानों पर किए गए प्रयासों में सभी जगह 5 से 10 मीटर तक भूजल-स्तर में वृद्धि हुई है । वसंत विहार स्थित श्रीराम स्कूल में जहाँ भूजल-स्तर 5 मीटर बढ़ा है तो जानकी देवी कॉलेज, राजेंद्र नगर में यह जल-स्तर 10 मीटर बढ़ा है ।

विश्व में यमुना जैसी अनेक दूषित नदियाँ रामायण काल में थीं जिनका काला पानी गंगा जैसी लवणयुक्त नदियों के साथ मिलकर समुद्र में मिलता रहा और सागर को खारा बनाकर प्रदूषित कर दिया । अत: जो सागर कभी मर्यादा में थे, वे अब मर्यादा से दूर हैं ।

तालाबों, झीलों, नदियों यहाँ तक कि समुद्र के जल को तो प्रदूषणमुक्त किया जा सकता है परंतु जब भूमिगत जल एक बार प्रदूषित हो जाता है तो इसको साफ करने में कई दशक लग जाते हैं । भूमिगत जल को प्रदूषित होने से बचाया जाना बहुत आवश्यक है । अवशिष्ट जल, कचरा तथा मल-जल को यहाँ-वहाँ न फेंककर उसे उपचारित करके ठिकाने लगाना चाहिए ।

ऐसा न होने पर आने वाले समय में भूमिगत जल पूर्णतया विषाक्त हो जाएगा और अमृत समान मीठा और स्वच्छ जल प्रदान करने वाली हमारी पृथ्वी केवल विषाक्त जल ही, उगलेगी, जीना दूभर हो जाएगा क्योंकि जल के बिना जीवन की कल्पना असंभव है ।