Read this article in Hindi to learn about water pollution.

निर्मल जल ही जीवन है । यह हमारी दैनिक आवश्यकताओं का अभिन्न अंग है । यही कारण है कि विश्व की समस्त प्राचीन सभ्यताएँ, जल के प्रमुख साधन नदियों के किनारे पनपीं, बढ़ीं एवं विश्वविख्यात हुईं ।

लेकिन यह कितनी बड़ी विडंबना है कि पृथ्वी का दो-तिहाई भाग जल होते हुए भी शुद्ध जल की मात्रा बहुत थोड़ी है ओर जो कुछ है भी, उसका विभाजन कुछ इस प्रकार है कि कहीं उसका आधिक्य है तो कहीं बहुत अभाव । सामान्यतः समुद्र के जल को छोड़ कुल जल का तीन-चौथाई भाग कृषि तथा अन्य उद्योगधंधों, पीने और घरेलू जरूरतों में काम आता है ।

किंतु विश्व की जनसंख्या में लगातार वृद्धि एवं औद्योगिकीकरण, दोनों ही के कारण पानी की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और जिस अनुपात में इन दोनों दिशाओं में वृद्धि हो रही है, उससे कहीं अधिक वृद्धि जल-प्रदूषण में हो रही है ।

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यह विनाशकारी प्रभाव नगरों में विशेष रूप से दिखाई देता है । जीवन को बनाए रखने के लिए पेयजल का स्वच्छ होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है । जल-प्रदूषण का एक मुख्य कारण नगरों का बढ़ता हुआ औद्योगिकीकरण है ।

कल-कारखानों द्वारा प्रयुक्त पानी में अनेक प्रकार के लवण, अम्ल एवं विभिन्न प्रकार की विषैली गैसें घुल जाती हैं । यह दूषित जल नगर के पास की नदी के पानी में मिलकर उसे भी दूषित कर देता है । देश-विदेश में किए गए सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि नदी का जो पानी नगर की सीमा में आने से पूर्व कहीं अच्छे गुण वाला था, आगे चलकर वही दूषित एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकर हो गया ।

इसके अतिरिक्त, अनेक प्रकार के कीटनाशी और नाशक-जीवनाशी फसल को नष्ट करने वाले जीवों को मारने के लिए प्रयुक्त किए जा रहे हैं । ये सिंचाई के पानी के साथ-साथ भूमि की निचली सतहों पर चले जाते हैं और फिर वहाँ से पानी की मुख्य धारा में मिल जाते हैं ।

यह दूषित जल नलकूपों व हैंड पंपों के द्वारा पुन: पीने के काम में लाया जाता है । ये रसायन इतने विषैले होते हैं कि पानी में इनका एक लाखवाँ अंश भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है । पाश्चात्य देशों में जहाँ इन कीटाणुनाशक रसायनों का खेती में अधिक प्रयोग किया जा रहा है, उसके परिणाम अभी विवादास्पद हैं ।

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हो सकता है कि जिन स्थानों पर पानी का धरातल नीचा है, वहाँ इन विषैले रसायनों का विनाशकारी प्रभाव अभी दृष्टिगोचर न हुआ हो, किंतु इनके बनाने वाले कारखानों में निकला हुआ पानी हानिकारक सिद्ध हुआ है । कुछ ऐसे कल-कारखाने जिनसे निकलने वाले उच्छिष्टों तथा व्यर्थ पदार्थों का देश की नदियों-जलाशयों को दूषित करने में बड़ा हाथ है, वे ऐसे कारखाने हैं- जहाँ कागज व लुगदी, वस्त्र, चीनी, चमड़ा, वनस्पति घी, पेट्रोरसायन, शराब आदि बनती है तथा चमड़ा कमाया और कोयला धोया जाता है ।

आजकल कृषि-कार्य में कीटनाशियों, नाशक-जीवनाशियों आदि का उपयोग दिनोदिन बढ़ता जा रहा है । वर्षा आदि के कारण ऐसे खेतों से पानी बहकर नदी, ताल-पोखरों, झील आदि को प्रदूषित कर देता है । यह कितनी अजीब बात है कि कृषि के लिए जो पदार्थ सहायक होते हैं वे जल पर आश्रित मत्स्य उद्योग आदि के लिए बहुत अधिक हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं । प्रदूषण की समस्या सबसे अधिक वहाँ है जहाँ कल-कारखाने स्थित हैं ।

वैसे तो ये दूर-दराज फैले हुए हैं, तो भी कानपुर, कोलकाता, मुंबई में, जहाँ कि इनका जमघट लगा हुआ है, यह समस्या विकराल रूप धारण किए हुए हैं । वैसे उद्योगधंधों के कारण प्रदूषित होने वाले स्थलों की जानकारी एक अच्छा तरीका उन नदी तंत्रों का अध्ययन करना है, जिनके समीप कल-कारखाने लगे हुए हैं ।

आज भारत में जिस तेजी से शहरीकरण हो रहा है और उद्योगधंधे बढ़ रहे हैं उसी अनुपात में पेयजल की माँग बढ़ रही है और प्रदूषण की समस्या उतना ही गंभीर रूप धारण करती जा रही है । सब प्रकार के प्रयत्न करने पर भी देश के बड़े-बड़े नगरों में पीने का पानी अब भी संतोषजनक रूप से स्वास्थ्यकर नहीं है । यह समस्या हमारे देश के लिए कोई नई नहीं है ।

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प्रत्येक विकासशील एवं विकसित देश को इस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है । कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन वर्क ने लिखा है कि सन् 1840 ई. और सन् 1850 ई. में यूरोप में फैले हैजे का मुख्य कारण नदियों का प्रदूषित जल ही था ।

वस्तुतः एक ओर जहाँ जल-प्रदूषण वर्तमान औद्योगिकीकरण का अभिशाप है, वहाँ आर्थिक उन्नति एवं राष्ट्र की समृद्धि के लिए औद्योगिकीकरण आवश्यक भी है । अब प्रश्न यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में जल-प्रदूषण को कैसे रोका जाए और इस समस्या को कैसे हल किया जाए ?

नदियों के किनारे बसे बहुत-से गाँव अपने जल की आवश्यकता नदी के जल से पूरी करते हैं जोकि बहुधा काफी प्रदूषित होता है । चर्म-शोधन, वस्त्र, ऊन व पटसन के कारखानों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थों से कानपुर में गंगा का जल प्रदूषित होता है ।

इसी प्रकार चीनी मिलों, शराब, लुगदी व कागज बनाने के कारखानों, कृत्रिम रबड़ के कारखानों तथा कोयला धावनशालाओं से निकलने वाली बारीक राख और डी. डी. टी. के कारखाने से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ गंगा नदी जल-व्यवस्था के सहायक नदी नालों का प्रदूषित करते हैं ।

हाल ही में बरौनी तेल-शोधक कारखाने के तेलों के कारण स्वयं गंगा बहुत दूर तक दूषित हो गई थी । तो भी कानपुर में गंगा में प्रवाह के कारण गर्मियों में बहुत ज्यादा तनुकरण (1 : 40-45) होने से जहाँ तक मत्स्य-पालन का संबंध है अधिकांश प्रदूषण दूर हो जाता है, केवल किनारों की ओर कुछ बना रहता है ।

सड़ने वाली गाद के विखंडन से जो ऑक्सीजन की कमी हो जाती है उसकी पूर्ति तेज प्रवाह द्वारा प्राप्त ऑक्सीजन से हो जाती है जिससे वहाँ मछलियाँ पनप पाती हैं । यह इस बात से प्रमाणित होता है कि कानपुर में वर्षभर मछली पकड़ी जा सकती हैं ।

मछुआरे अनपढ़ व मत्स्य के अनेक तथ्यों से अनभिज्ञ होने के कारण या ठेकेदारों की लालची वृत्ति के कारण अनियंत्रित रूप से व मनमाने मत्स्य आखेट उपकरणों एवं विधियों के द्वारा मत्स्य संपदा जल से निकालते रहते हैं जिसके दूरगामी दुष्परिणामों के रूप में उस क्षेत्र से अनेक मछलियों की प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही हैं ।

किसी क्षेत्र में यदि मत्स्य संपदा का क्षय हो रहा है तो उस क्षेत्र को पन: संतृप्त करने में काफी समय लग जाता है । स्थानीय मछुआरों के द्वारा सीमित गहरे जल में अधिक मछलियाँ प्राप्त करने के उद्देश्य से विस्फोटक पदार्थों का प्रयोग जल में किया जाता है जिससे जल-क्षेत्र में रहने वाली मछलियाँ घायल होकर या मरकर सतह पर आ जाती हैं ।

केवल मछलियाँ ही नहीं बल्कि इन पदार्थों के विस्फोट से मत्स्य बीज, अंगुलिमीन भी समाप्त हो जाती हैं और पानी मछलियों के जीवित रहने योग्य नहीं रहता है । विस्फोटक पदार्थों के अतिरिक्त मछुआरों के द्वारा विष प्रयोग करके भी मछलियाँ पकड़ी जाती है ।

महुए की खली अथवा अन्य विषयुक्त पेड़ों की छाल, पत्ती आदि का भी प्रयोग करते हैं, जिससे मछलियों के गलफड़े अवरुद्ध हो जाते हैं एवं सभी प्रकार की मछलियाँ पानी की सतह पर कुछ ही समय में मरकर आ जाती हैं जिन्हें वे जाल द्वारा आसानी से निकाल लेते हैं । आखेट की यह प्रक्रिया छोटे तालाबों, पोखरों व सीमित जलक्षेत्र में प्रदूषण को जन्म देती है ।

घरेलू कचरा व वाहित मल तथा कल-कारखानों के व्यर्थ, नदी में तनु होने के बाद, खेतों की सिंचाई के लिए पंप कर दिए जाते हैं, यद्यपि जन स्वास्थ्य-विज्ञान के ज्ञाताओं का कहना है कि अनुपचारित वाहित मल व औद्योगिक उच्छिष्टों से फसलों की सिंचाई करना खतरनाक है, क्योंकि इससे तरह-तरह की महामारियाँ व त्वचा रोग फैल सकते है ।

पश्चिम बंगाल में हुगली नदी पर स्थित कोलकाता नगर भी प्रदूषण का एक मुख्य केंद्र है । नदी के समुद्र में मिलने वाले भाग में जहाँ कि ज्वार-भाटा आता है, नदी के दोनों ओर 159 उद्योग स्थापित हैं । इनमें 12 वस्त्र बनाने व कपास के, 7 चर्म-शोधन के, 5 कागज व लुगदी के, 4 शराब के, 78 पटसन और 53 अन्य कारखाने शामिल हैं ।

लुगदी व कागज बनाने के कारखानों से सबसे अधिक प्रदूषक पदार्थ नदी में मिलते हैं तथा वस्त्र, चर्म, शराब व यीस्ट के कारखानों से प्रदूषक कम मात्रा में निकलते हैं । इन प्रदूषक व्यर्थों का विषैला प्रभाव अत्यधिक तनुकरण के कारण कम ही होता है और प्लांक्टन, मछली के अंडों व लार्वा के अलावा अभी इसके दुष्परिणाम देखने को नहीं मिले हैं ।

सोन नदी पर स्थित डालमिया नगर भी, जहाँ कि कागज, गंधक का तेजाब व अन्य रसायन, सीमेंट व चीनी बनाने वाला रोहतास उद्योग समूह स्थित है, एक प्रदूषित क्षेत्र है, क्योंकि इन कारखानों के व्यर्थ पदार्थ सोन नदी में गिरते हैं ।

ये व्यर्थ नदी में दो स्थानों पर गिराए जाते हैं, लेकिन इनसे कुछ ही ऊपर एक नहर (एनिकट) निकाल लेने के कारण नदी के पानी में कमी हो जाती है । इसलिए इन दो मुकामों से नीचे बाईस मील तक मुख्य कार्य नहीं पाए जाते । दूसरे, यह प्रदूषित क्षेत्र दोनों ओर से मछलियों के आवागमन में बाधक बन गया है ।

इन व्यर्थ पदार्थों में मौजूद जैव पदार्थ बहुत ज्यादा ऑक्सीकृत हो सकते हैं जिससे यहाँ के पानी में ऑक्सीजन की बेहद कमी होती है और पानी घटिया दर्जे का बन जाता है । लगभग ऐसी ही स्थिति सिवान (बिहार) में दाहा नदी की, बलरामपुर (उ. प्र.) में सुवाओ नदी की और मेरठ (उ. प्र.) में काली नदी की पाई जाती है ।

उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर के समीप रिहंद बाँध पर रेणुकूट में स्थित कनोडिया केमिकल इंडस्ट्रीज के कारण वहाँ के पानी में मुक्त क्लोरीन की मात्रा 62 पी. पी. एम. (दस लाख भाग) हो जाती है जिससे अधिकांश मछलियाँ मर जाती हैं ।

उत्तर प्रदेश में लखनऊ से 22 मील नीचे का गोमती नदी का जल, कागज व लुगदी कारखाने के उच्छिष्टों व नगर के वाहित मल के कारण दूषित रहता है । बरेली (उ. प्र.) के समीपवर्ती संश्लेषित रबड़ के कारखानों के जैविक व्यर्थों के कारण दाजोरा नदी बेहद प्रदूषित रहती है ।

दिल्ली में डी. डी. टी. बनाने की फैक्टरियों के व्यर्थ नजफगढ़ नाले से होकर यमुना में गिरते हैं ओर उसके जल को दूषित कर देते हैं । ये तेजाबी व्यर्थ पदार्थ जिनमें विषैली डी. डी. टी. मौजूद होती है, अत्यधिक विषैले होते हैं और इनकी तात्कालिक विषालुता को दूर करने के लिए कम से कम 8,000 गुना तनुकरण की आवश्यकता होती है ।

तनुकरण के उपरांत भी मारक सिद्ध होने के कुछ कम मात्रा में उपस्थित डी. डी. टी. क्लोरल हाइड्रेट और कुछ अन्य संरचक अपना चिरकालिक व क्रमिक प्रभाव छोड़ते हैं, जिससे मछली पूर्णतया विकसित नहीं होती पर रोगक्षम हो जाती है । झारखंड की कोयला-पट्टी से होकर गुजरने वाली दामोदर नदी भी अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्र है ।

इस नदी के दोनों तटों पर और इसके आसपास सिंदरी का उर्वरक बनाने का कारखाना, झारखंड सरकार की सुपरफास्फेट फैक्टरी और बोकारो के ताप बिजली घर से निकलने वाली (भस्म) तथा अनगिनत कोयला धावनशालाओं से निकलने वाले महीन कोयला-कण नदी में आकर गिरते हैं ।

सिंदरी कारखाने से प्रतिदिन जो 40 लाख गैलन व्यर्थ नदी में गिरता है उसमें विभिन्न क्षार व क्रोमेट, अमोनिया, साइनाइड, नैफ्थलीन, विविध फीनाल आदि होते हैं । गर्मियों के महीने में कोयला धावनशालाओं के व्यर्थ नदी में बहाए जाते हैं तो असंख्य मछलियों के मरने की खबरें मिलती हैं और सिंदरी संयंत्र के व्यर्थ जब सिंदरी नाले में छोड़े जाते हैं तो पंचेट बाँध के पानी में मछली के जलांडक (स्पान) बुरी तरह से मरने लगते हैं ।

लुगदी व कागज बनाने का देश का एक बड़ा कारखाना ओरियंट पेपर मिल्स है । इससे निकलने वाले व्यर्थ ब्रजराज नगर के स्थान पर इबृ नदी में गिरते हैं जो कि महानदी की एक सहायक नदी है । इबृ नदी के प्रदूषण की भी वैसी ही हालत है जैसी कि गंगा नदी-जलतंत्र की कालिंदी व सोन नदियों की है । जल में ऑक्सीजन की कमी के कारण नदी में काफी दूर तक मछली पनप नहीं पाती ।

मैसूर प्रदेश में भद्रावती के मुकाम पर कागज, लुगदी तथा इस्पात उद्योग के बिना प्रयोग किए गए उच्छिष्ट व व्यर्थ पदार्थ भद्रा नदी में गिराए जाते हैं जो कि कृष्णा नदी जलतंत्र की एक नदी है । इससे भद्रा का जल अत्यधिक दूषित हो जाता है ।

मुख्य प्रदूषक पदार्थ पाईरोलिग्नियस लिकर व क्लोरीनयुक्त जैव व्यर्थ है । इस प्रदूषण से नदी में नीचे ग्यारह मील तक मछलियाँ तबाह हो गई हैं । दूसरे, इस क्षेत्र को लाँघकर मछली ऊपर अथवा नीचे की ओर नहीं जा पाती ।

केवल आखेट के द्वारा ही नहीं अपितु उद्योगों से भी प्रदूषित जल के कारण मत्स्य संपदा के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया है । मत्स्य संपदा क्षय होने की प्रक्रिया को अवक्षय कहते हैं । औद्योगिक कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों ने जल में घुलकर मत्स्य संपदा की समृद्धि पर प्रश्नचिह्न लगाया है ।

वर्तमान में गंगा नदी में कानपुर के चमड़ा उद्योग से निकलने वाले अवशिष्ट के रूप में क्रोमियम टॉक्सस से जल इतना विषाक्त हो गया है कि मछलियों ने इस क्षेत्र में अंडे देना ही बंद कर दिया है । बरौनी तथा भागलपुर के बीच गंगा नदी में मछलियों के लिए जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है तथा जल का समुअंक (pH) बदल जाता है । महानदी में ऑक्सीजन की कमी के कारण मछलियाँ पूर्ण विकसित नहीं हो पातीं । इसी प्रकार भद्रावती नदी में क्लोरीन अधिक होने के कारण मछलियाँ मर रही हैं ।

सोन नदी में मिल रहे अपशिष्टों के कारण मछलियों ने प्रजनन हेतु प्रवास बंद कर दिया है । यह प्राय: देखा गया है कि जल में कार्बनिक या अकार्बनिक यौगिकों की अधिकता या कमी होने, समुअंक (pH) बदलने, तापमान के बदलाव, जलक्षेत्र की गहराई में परिवर्तन होने पर, प्रौढ़ मछली की वृद्धि-दर एवं प्रजनन शक्ति पर प्रभाव पड़ता है ।

अत: जल-क्षेत्र प्रदूषण से मुक्त हो जिसके फलस्वरूप उत्पादन निरंतर अधिक मात्रा में प्राप्त होता रहे एवं मछलियों की प्राप्त होने वाली प्रजातियाँ निरंतर अस्तित्व में रहें । राजामुंद्री में स्थित आंध्र पेपर मिल्स के उच्छिष्ट डेढ़ मील तक गोदावरी के पानी को प्रदूषित किए रहते हैं और मछली की संख्या को दुष्प्रभावित करते रहते हैं- विशेषतया जनवरी से जून तक, जबकि नदी में पानी कम होता है ।

कावेरी नदी में गिरने वाले एलिस सरप्लस नामक चट्टानी नाले में जल की कमी के कारण अनेक कुंड-से बन जाते हैं और उनमें हजारों काफ व कैट फिश नामक मछलियाँ फँसी रहती हैं । लेकिन मेट्टूर केमिकल इंडस्ट्रियल कॉरपोरेशन के कारखानों से निकलने वाले अत्यधिक क्षारीय व्यर्थों के इन कुंडों में पहुंचने पर ये सब मर जाती हैं । समुद्र तटवर्ती प्रदेश में स्थित ऐसे छोटे नदी-नाले, जो समुद्र के ज्वार-भाटा से प्रभावित होते हैं, एक और ही प्रकार की प्रदूषण समस्या प्रस्तुत करते हैं ।

इनमें गिरने वाले व्यर्थ न तो बहकर निकल पाते हैं और न तनु हो पाते हैं, बल्कि ज्वार-भाटा के प्रवाह में आगे-पीछे तैरते रहते हैं और इस बीच इनमें और व्यर्थ पदार्थ आकर गिरते रहते हैं । ऐसी नदियों के उदाहरण में चेन्नई नगर के बीच से होकर बहने वाली कूअम नदी है जिसमें नगर का मल प्रवाहित किया जाता है और कालिकट (केरल) से गुजरने वाली चलियार नदी जिसमें मावूर स्थित ग्वालियर रेयन नामक कारखाने की लुगदी फैक्टरी के व्यर्थ आकर गिरते हैं ।

मुंबई के आसपास तो अनेकानेक प्रकार की चीजें बनाने के कल-कारखानों का जाल बिछा हुआ है । वहाँ एल्युमिनियम, लोहा व इस्पात, डिब्बाबंदी, अन्न के उत्पाद, वस्त्र, रसायन, कृत्रिम रेशे, बिजली के सामान, विभिन्न फीनॉल व पॉलीस्टिरीन, पॉलीथीन, पेट्रोरसायन, जैवनाशक, ओषधियाँ आदि बनाने के कारखाने भरे पड़े हैं ।

लगभग एक सौ कारखाने ऐसे हैं, जिनके अत्यधिक तेजाबी किंतु बिना प्रयोग किए गए अशुद्ध व्यर्थ नहरों से होते हुए या तो कालू नदी या मुंबई की खाड़ी में जाकर गिरते हैं । अमर डाई एंड कैमिकल कंपनी, इंडियन डाईज, सेंचुरी रेयन, नेशनल रेयन, सेंट्रल केमिकल्स कंपनी आदि कुछ ऐसे कारखाने हैं, जिनसे बहुत प्रदूषित पदार्थ निकलते हैं ।

कालू नदी का पी-एच मान घटकर 1.2 – 2.4 तक हो जाता है जिससे नदी में एक तेजाबी बाधा खड़ी हो जानी है । इसी नदी में कभी हिलसा नामक मछली की भरमार हुआ करती थी, लेकिन इस तेजाबी बाधा को लाँघने में असमर्थ होने के कारण अब इसने ऊपर जाना बंद कर दिया है । मुंबई में प्राथमिक वाहित मल उपचार संयंत्र है लेकिन वह व्यर्थ पदार्थों पर पार नहीं पाता, अत: नगर के जो उच्छिष्ट खाड़ी में प्रवाहित होते हैं वे अत्यंत दुर्गंधपूर्ण होते हैं ।

ट्रांबे स्थित परमाणु ऊर्जा संस्थान के रेडियोधर्मी व्यर्थों के निपटान की ओर अधिकारियों ने ध्यान दिया है और संभावित खतरों को नियंत्रित करने के उपाय किए हैं जैसे कि निपटान से पूर्व अल्प रेडियोधर्मी व्यर्थ का उपचार हाइड्रोक्साइड फ्लास्क स्पंदकों से किया जाता है, समुद्र में फेंकने से पूर्व रेडियोधर्मी गाद को कंक्रीट अथवा धातु के लिए समस्थानिक तनुकरण (आइसीटोपिक डाइल्यूशन) भी किया जाता है ।

ठोस व्यर्थों व संदूषित उपस्करों को हानिरहित बनाने के लिए जमीन में गाड़ दिया जाता है । घरेलू मल-मूत्र के निपटान के लिए हमारे देश में कोई संतोषजनक व्यवस्था नहीं है । कुछ गिने-चुने नगरों में इसके लिए प्राथमिक उपचार संयंत्र लगे हैं ।

कई में मात्र द्वितीयक (सेकंडरी) अथवा आंशिक द्वितीयक (पार्शियल सेकंडरी) संयंत्र है । कानपुर, बंगलौर व अहमदाबाद में तो किसी भी प्रकार का वाहित मल-उपचार संयंत्र नहीं है । अत: वहाँ घरों के व्यर्थ का निपटान प्रदूषण की समस्या को और भी बढ़ाता है ।

जैविक नियंत्रण अथवा औद्योगिक व्यर्थ पदार्थों के निपटान के लिए जीवनाशकों (बायोसाइट्‌स) का उपयोग संसार के अन्य देशों के समान हमारे देश में भी तेजी से बढ़ रहा है । इनमें खरपतवारनाशक, बैक्टीरियानाशक, कवक, कवकनाशी ओर नाशकजीवनाशी शामिल हैं ।

इनके उपयोग से प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों रूप से, जन-स्वास्थ्य तथा नदियों, झीलों, तालाबों के मछली आदि जलचरों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है । विषैले प्रभाव का थोड़ा-थोड़ा करके एकत्र होते रहना एकबारगी अत्यधिक विषाक्तता जितना ही खतरनाक सिद्ध ही सकता है । सन् 1892 ई. में रूसी वनस्पति-शास्त्री इबानोवस्की ने पाया कि रोगग्रस्त तंबाकू के पौधों का रस कीटाणु-अवरोधी छन्ने में से छानने के बाद भी अन्य स्वस्थ पौधों के संपर्क में आने पर उन्हें रोगी बना देता था ।

इन छन्नों से पार हो जाने वाले रोगकारक को डच वैज्ञानिक विएयरिंक ने सन् 1899 ई. में ‘वायरस’ नाम दिया । वायरस लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है- विष । कुछ विद्वानों का विचार है कि ‘वायरस’ की उत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘विषम्’ अर्थात् विष से हुई है ।

विष इसलिए कि जीवित कोशिका में प्रवेश करने के उपरांत वायरस या तो कोशिका को नष्ट कर डालता है या फिर उसमें घोर परिवर्तन ले आता है । वायरस को न तो पादप कहा जा सकता है और न ही जंतु, यद्यपि यह दोनों से संबद्ध है । फिर प्रश्न होता है कि क्या वायरसों में जीवन है ?

इसका उत्तर यह है कि ये जीवन के कगार पर खड़े हैं । कोशिकाओं से बाहर होने पर ये निष्क्रिय पदार्थों के निर्जीव टुकड़े होते हैं जिनमें न तो एंजाइमों का लेशमात्र अंश होता है और न ही पुनर्जनन की शक्ति, किंतु यह जीवित कोशिका में प्रवेश करता है तो जीवित हो उठता है ओर पुनर्जनन भी प्रारंभ कर देता है ।

वायरस इतने छोटे होते हैं कि साधारण सूक्ष्मदर्शी से भी नहीं देखे जा सकते । वे इतने छोटे होते हैं कि 50,000 गुना आवर्धन करने पर भी आलपिन के मोटे सिरे जितने लगते है । बैक्टीरिया और इनमें एक अंतर यह है कि बैक्टीरिया तो अकार्बनिक पोषक पदार्थ पाकर भी बढ़ते हैं जबकि वायरस केवल जीवित कोशिकाओं में ही बढ़ सकते हैं । वैसे विभिन्न प्रकार के वायरसों को बढ़ने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाओं की जरूरत होती है ।

पादपों, जंतुओं, पक्षियों यहाँ तक कि बैक्टीरिया के अपने-अपने वायरस हुआ करते हैं । हजारों प्रकार के वायरस सभी प्रकार के जंतु-जीवों, कीटों, पक्षियों, मछलियों और पालतू जानवरों को संक्रमित किए रहते हैं । पोलियो तथा पीलिया उत्पन्न करने वाले संक्रामक यकृतशोथ (पीलिया) जैसे वायरस मानव के पाचन-तंत्र में रहते ओर बढ़ते-फैलते हैं ओर फिर मल के साथ मानव-शरीर से निकलकर मल-निपटान वाले पाइपों में होते हुए नदी-नालों में पहुँच जाते हैं ।

कुंओं, पोखर-तालाबों, नदी-नालों जैसे प्राकृतिक जलाशयों को भी वायरस संदूषित कर देते हैं । संक्रमित मानवों द्वारा लगभग सौ प्रकार के वायरस उत्सर्जित किए जाते हैं । इनको आंत्र वायरस (एंटेरिक वायरस) कहा जाता है ओर जरूरी नहीं कि जिन मानवों से ये निस्मृत हो, वे रोगी भी हों ।

इन आंत्र वायरसों द्वारा प्रदूषित जल को जब बिना उबाले अथवा उपचार किए पिया जाता है तो ये नए स्वस्थ लोगों के शरीर में प्रविष्ट होकर उन्हें भी संक्रमित कर देते हैं । किसी संक्रमित व्यक्ति के एक ग्राम मल में वायरस के लगभग दस लाख कण होते हैं ।

मल-निपटान पाइपों के पानी में पड़कर ये तनु हो जाते हैं । तब मौसम के अनुसार एक लिटर पानी में इनकी संख्या एक से दस हजार कण तक होती है । जीवित आश्रय से बाहर कर दिए जाने पर पर्यावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों में इनकी मृत्यु निश्चित है ।

इसलिए जब मल-निपटान पाइप किसी नदी-नाले के पास पहुँचता है, उस समय उसके एक लिटर पानी में पाँच से अधिक वायरस-कण नहीं होते और चूँकि किसी जीवित कोशिका को संक्रमित करने के लिए एक वायरस-कण काफी है, अत: यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दो गिलास प्रदूषित और अनुपचारित पानी पीने से किसी व्यक्ति पर कितने वायरस आक्रमण कर सकते हैं ।

वैसे शहरी क्षेत्रों की ऐसी आबादी भी, जो कि शोधित पानी पीती है, जोखिम से मुक्ता नहीं होती । पानी के शोधन की, जिसमें रेत में छानना ओर क्लोरीन से विसंक्रमित करना शामिल है, अपनी सीमाएँ हैं । पानी के शोधन के लिए दसियों साल पहले बना संयंत्र आज जबकि पानी के स्रोत ही अत्यधिक प्रदूषित हो चुके हैं, उतनी क्षमता से काम नहीं कर सकता ।

दिल्ली में सन् 1955-56 में फैले संक्रामक यकृतशोध (पीलिया) ने जो कि मुख्य रूप से पानी से फैला करता है, यह आशंका खड़ी कर दी थी कि अत्यधिक संदूषित स्रोतों से आने वाले पानी को शुद्ध करने की परंपरागत विधियाँ कहाँ तक विश्वसनीय रह गई है ।

इसी संक्रमण ने पानी से संबद्ध वायरसों के सभी अवस्थानों पर अधिक शोध करने की प्रेरणा दी थी । मानव-मल में उत्सर्जित एक सौ प्रकार के वायरस पानी द्वारा फैलते हैं । पानी के माध्यम से फैलने वाले कुछ मुख्य रोग-पोलियो, संक्रामक यकृतशोथ (पीलिया), आंत्रशोथ और दस्त (डायरिया) आदि ।

संयुक्त राज्य अमेरिका में एकत्र किए गए अधिकृत आँकड़ों से पता चलता है कि सन् 1946 ई. से 1960 ई. तक वहाँ आंत्रशोथ और डायरिया रोगों के 142 जानपदिक संक्रमण (एपिडेमिक) फैले जिनके कारण 18,790 लोग पीड़ित हुए ।

पीने के पानी में वायरसों की प्रचुर मात्रा होने पर तो जानपदिक संक्रमण फैलते हैं, लेकिन इसकी कमी होने पर भी छुटपुट लोग रोगग्रस्त होते रहते हैं । यह भी संभव है कि इनके कारण पीड़ित होने वाले बहुत-से लोगों के रोगों की सही पहचान न हो पाई हो ।

सन् 1957 में किए गए अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि दिल्ली के पीलिया-संक्रमण में असली रोगियों से दस गुना संख्या ऐसे पीड़ितों की थी जो लक्षणहीन थे । पीने के पानी में पाए जाने वाले वायरसों की सांद्रता अधिक नहीं होती, क्योंकि जीवित आश्रय के अभाव में इनकी बढ़ोतरी नहीं हो पाती और अल्पमात्रिक वायरसों से संक्रमण की अपेक्षा निरापदता प्राप्त होती है ।

लेकिन जो व्यक्ति इन अल्पमात्रिक वायरसों से संक्रमित होते हैं, अपने मल में इनकी अत्यधिक मात्रा का विसर्जन करते हैं और फिर अत्यधिक संसर्गजन्य संक्रमण और रोग फैलाते हैं, इस चक्कर में इस वास्तविक बात पर परदा पड़ जाता है कि संक्रमण फैलने का मुख्य कारण पीने का पानी था ।

डॉ. कोहन के अनुमान के अनुसार पेरिस के 250 लिटर उपचारित पीने के पानी में वायरस की एक संक्रामक मात्रा उपस्थित होती है । यह सही है कि कोई एक व्यक्ति एक दिन में 250 लिटर पानी नहीं पीता, किंतु 250 व्यक्तियों में से एक प्रतिदिन एक वायरस कण का सेवन करता है ।

और मानव को संक्रमित करने के लिए एक ही वायरस पर्याप्त समझा जाता है । अत: ऐसे क्षेत्रों में भी जहाँ लोग अत्यधिक उपचारित जल का प्रयोग करते हैं, स्थानिक वायरस रोग फैल सकते हैं । इससे आप अपने देश की हालत का अनुमान लगा सकते हैं जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों के अस्सी प्रतिशत लोगों को उपचारित पेयजल भी नहीं मिल पाता ।

कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि जल में विद्यमान वायरस संभवतया कैंसर भी उत्पन्न करते हैं । पाल कोटिन का कहना है कि विविध ग्रंथि उत्पन्न करने वाले वायरस (ऐडिनो वायरस) जो मानव को भी संक्रमित कर सकते हैं, मानवविष्ठा (टट्टी), मूत्र ओर तैरने के तालाबों में पाए गए हैं ।

यद्यपि अभी ऐसे आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिससे यह निश्चयपूर्वक कहा जा सके कि संदूषित जल से मानव में कैंसर होता है, तो भी ल्यूकीमिया-लिंफोमा कंपलैक्स जैसे कुछ कैंसरों का कारण पेयजल हो सकता है । कई बार यह आशंका उठती है कि मल-निपटान पाइपों और प्रदूषित जल में अनेक प्रकार के बैक्टीरिया, कवक, प्रोटोजोआ और नीमेटोडों की जो अत्यधिक सांद्रता पाई जाती है क्या उनकी कोशिकाओं का उपयोग कर जल में पाए जाने वाले वायरस कहीं अपनी वृद्धि ओर प्रसार तो नहीं करते ?

एक वैज्ञानिक ने इस समस्या का अध्ययन किया है ओर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि प्रदूषित जल के वायरसों की बढ़ोतरी आदि में ये सूक्ष्मजीव कोई योग नहीं देते । यह तो हम जानते ही हैं कि वायरस केवल किसी जीवित आश्रय के अंदर रहकर ही अपने को जीवित रख पाते हैं और बार उनसे बाहर हो जाने पर उनकी मृत्यु अवश्यंभावी है ।

वैसे ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न प्रकार के पानी में विभिन्न प्रकार के वायरसों के जीवन की अवधि अलग-अलग होती है । संयुक्त राज्य अमेरिका के नीफ और स्टोक्स नामक वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन के उपरांत सन् 1945 ई. में बतलाया था कि कुएँ के संदूषित जल को यदि दस सप्ताह तक कुएँ में ही रहने दिया जाए और चार सप्ताह तक प्रयोगशाला में तो उसका पान करने वाले मानवों को संक्रामक यकृतशोथ अर्थात् पीलिया हो जाता है ।

इसी प्रकार के अन्य अध्ययनों से सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि बहुत अधिक समय तक भंडारित किया गया पेयजल वायरसों से प्रदूषित हो जाता है, अत: पीने के लिए ठीक नहीं है । शोधन अर्थात् उपचार से पूर्व आम तौर पर सतही पानी को थोड़ी देर के लिए इकट्ठा किया जाता है । किंतु इस थोड़े समय में अनेक वायरसों की सांद्रता में मामूली-सी ही कमी आ पाती है और स्वच्छ व ठंडे पानी में ये कई मास तक जीवित रहते हैं ।

मानव जिस किसी भी संक्रमण अथवा परजीवीजन्य रोगों द्वारा पीड़ित होता है, उसको उत्पन्न करने वाले कारण कभी-न-कभी अवश्य ही वाहित मल में पहुँचते हैं । फिर चाहे इन रोगों को उत्पन्न करने वाले सूक्ष्म जीव आँतों से निकलते हों अथवा श्वसनतंत्र से अथवा मानव-त्वचा से ।

इतने पर भी रोग तभी हो जाएगा जबकि सुग्राही व्यक्ति वाहित मल अथवा उससे प्रदूषित पदार्थों से इस प्रकार संपर्क में आए कि वे उसे संक्रमित कर सकें । सौभाग्य से वाहित मल के व्यापक रूप से फैलने वाले रोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम ही है ।

इसमें मुख्यतया वे रोग शामिल हैं जो कि जल द्वारा वाहित होने वाले जाने-माने रोग हैं जैसे कि टाइफाइड, पैराटाइफाइड, दंडाणुओं (बैसीलस) से उत्पन्न होने वाला अतिसार (पेचिश) और हैजा । वाहित जल के संपर्क में आने वाले सीवर-मजदूरों को यक्ष्मा, साँस की बीमारी, त्वचा रोग, अनिद्रा, सरदर्द, उल्टी, चक्कर, दस्त, पाचन-तंत्र की गड़बड़ियों, आँखों में जलन तथा फोटोफोबिया जैसी कई बीमारियाँ हो जाती हैं ।

सीवर-गड्ढों में काम करने वाले मजदूरों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि सीवर-मजदूर व्यवसाय संबंधी कई खतरों का सामना करते हैं, प्राय: दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं और मारे जाते हैं । गत कुछ वर्षों में दिल्ली की सीवर लाइनों में कई दुर्घटनाएँ हुई हैं- सन् 1987 में दो मजदूर गाद में बेहोश होकर मर गए, सन् 1988 में दो मजदूर सीवर साफ करते हुए दीवार धँसने से मर गए और 25 अप्रैल 1989 को सीवरमैन गटर साफ करते हुए गैस के कारण मर गया ।

दिल्ली में बड़े अंतर्रोधी सीवर (मुख्य सीवर) और छोटी पाइप लाइनें (पाइप सीवर) हैं । हजार, स्थायी, अस्थायी और ठेका सीवर मजदूर हैं, जो मेनहोल या सीवर के अंदर सफाई करने का जोखिम-भरा काम करते हैं ।

सीवर-मजदूरों का मुख्य काम गाद का सहज निकास बनाए रखने के लिए जाँच करना, जमी हुई गंदगी निकालना तथा भूमिगत पाइपों की मरम्मत करना है । सीवर-तंत्र की गाद की सफाई और उसकी देखभाल मजदूर अपने हाथों से करते हैं ।

मजदूरों को कोई सुरक्षात्मक साधन नहीं दिए जाते । यदि सीवर गंदा हो जाए और उसमें पानी का स्तर ऊँचा हो जाए तो मजदूर उसमें गोता लगाते हैं । वे मल में अंदर तक घुसकर नालियाँ खोलते हैं । अत: अनेक सीवर-मजदूर त्वचा रोगों से ग्रस्त हैं ।

कई मजदूरों की आंखों में जलन और फोटोफोबिया की शिकायत है । अमोनिया, क्लोरीन, हाइड्रोजन सल्फाइड आदि के कारण मजदूर सरदर्द, उल्टी, चक्कर, दस्त और पाचन-तंत्र के रोगों से भी ग्रस्त रहते हैं । सीवर में विषैली गैसें होती हैं ।

कार्बन मोनोक्साइड, बेनजीन की कमी से कई सीवर-मजदूरों की मौत हुई है । सीवर में डूबने की दुर्घटनाएँ तो कम हैं फिर भी सीवर में पानी के तेज बहाव में कई बार मजदूर बह जाते हैं । मेनहोल में वस्तुएं गिरने से सिर पर चोट लग जाती है, मेनहोल के भारी ढक्कन से पैरों की उँगलियाँ कुचल जाती हैं, कभी-कभी छोटी चोटें भी पक जाती हैं । कई सीवर-मजदूरों का यह भी कहना है कि सीवरों में काम करने का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है ।

घरेलू कूड़ा-कर्कट के अतिरिक्त सीवरों में खनिज तेल, क्षार, कोलतार, अकार्बनिक सामान, रासायनिक घोल, मल एवं विभिन्न औद्योगिक अवशेषों और इनकी गाद बढ़ती जा रही है । चूँकि अधिकांश काम मजदूर अपने हाथों से करते हैं, इसलिए उनका काफी नुकसान होता है । इस प्रकार एक सीवर-मजदूर के काम में अनेक व्यावसायिक खतरे हैं । कार्य वातावरण की जाँच, नियंत्रण और बचाव के उपाय, सुरक्षा साधनों की पूर्ति करके ये खतरे कम किए जा सकते हैं ।

शुद्ध पीने के पानी को छोड़ दूसरी तरह के जल माध्यम से जो रोग जिन कारणों से फैलते हैं, वे ये हैं:

(1) वाहित मल द्वारा प्रदूषित जल से पकड़ी जाने वाली अथवा उसमें इकट्ठी की जाने वाली शेलफिश से टाइफाइड, पैराटाइफाइड या दंडाणुज अतिसार हो जाया करता है ।

(2) मानव उत्सर्गों (अर्थात् मल-मूत्र) वाहित मल और अवमल के संसर्ग में आकर संदूषित हुए फलों और सब्जियों के माध्यम से टाइफाइड, पैराटाइफाइड, विभिन्न प्रकार के अतिसार तथा परजीवी कीड़े या संक्रामक से यकृतशोथ (पीलिया) हो जाता है ।

(3) मानव मल-मूत्र खाने वाली मक्खियों आदि द्वारा संदूषित होने वाले सभी प्रकार के खाद्यों के सेवन से मनुष्य को टाइफाइड, पैराटाइफाइड अथवा हैजा (विषूचिका) हो जाता है ।

(4) मानव मल-मूत्र द्वारा संदूषित मिट्टी के संसर्ग में आने पर हुकवर्म हो जाते हैं ।

(5) प्रदूषित जल में साफ किए बर्तनों में रख गए दूध के संदूषित हो जाने पर टाइफाइड, पैराटाइफाइड या दंडाणुज अतिसार हो जाता है ।

(6) प्रदूषित जल में नहाने-धोने आदि के कारण वाईल रोग तथा सिस्टोटोम बीमारी हो जाती है । वैसे राजयक्ष्मा (तपेदिक) के अस्पतालों में से निकलने वाले वाहित मल द्वारा सींचे गए चरागाहों में चरने वाली गायें इसी कारण तपेदिक से पीड़ित हो जाती हैं और उनके दूध का सेवन करने से संक्रमण की एक श्रृंखला प्रारंभ हो जाती है ।

उपरोक्त संक्रामक सूक्ष्म जीवों के अलावा बहते हुए मलयुक्त (गंदे) पानी में विभिन्न प्रकार के कीटनाशी, नाशक-जीवनाशी और सल्फाइड मौजूद होते हैं और ऐसे जल से सींची गई सब्जियों को कच्चा ही अथवा पकाकर खाने पर भी, ये मानव-शरीर में प्रवेश पा लेते हैं ।

नगरों का प्रवाहित मल विभिन्न औद्योगिक उच्छिष्टों से संदूषित होता है, जिनमें विविध प्रकार के क्रोमेट व साइनाइडों के अतिरिक्त दूध तथा फलों-सब्जियों को प्रोसेस करने के संसाधन से बचे व्यर्थ भी मौजूद होते हैं । अशोधित वाहित मल अथवा अवमल (स्लज) से सींची गई सब्जियाँ बैक्टीरिया से संदूषित हो जाती हैं और इन्हें कच्चा खाना स्वास्थ्य के लिए संकटग्रस्त हो सकता है ।

इस सकट को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

1. वाहित मल का पूर्ण शोधन किए बिना (जिसमें कि इसका समुचित छानना और विसंक्रमण भी शामिल है) इसे कच्ची खाई जाने वाली सब्जियों व विभिन्न प्रकार की बेरियों को सींचने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए ।

यदि फल-सब्जी आदि पकाकर खाई जाने वाली हों तो भी इन्हें तोड़ने से एक मास पूर्व इनकी फसल अथवा खेतों को वाहित मल से सींचना बद कर देना चाहिए । परंतु स्वास्थ्य अधिकारियों की समुचित देख-रेख में इनकी डिब्बाबंदी की जा सकती है, ऐसी सब्जियों की जो पूर्णतया पक जाने पर चुनी जाती हों तथा फल वाले वृक्षों की सिंचाई वाहित मल के पानी से की जा सकती है ।

लेकिन यह ध्यान रखना होगा पेड़ों से अपने आप टूटकर भूमि पर गिरने वाले पदार्थों का इस्तेमाल मनुष्य न करें । लताओं पर लगने वाले फल व सब्जियों की सिंचाई वाहित जलमल से की जा सकती है लेकिन ऐसे जल का इनसे सीधा संपर्क नहीं होना चाहिए । मवेशियों के लिए उगाए जाने वाले चारे के खेत तो ऐसे जल से सींच जा सकते हैं किंतु गाय व बकरियों को इससे सींच गए घास के खेतों में चरने नहीं दिया जाना चाहिए ।

2. किसी मल विगलन-कुंड (सेप्टिक टैंक) की व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें रहने पर वाहित मल के ठोस भारी पदार्थ नीचे बैठ जाएंगे । सेप्टिक टैंक में वायु-उपचार से वाहित जलमल की दुर्गंध आदि काफी कम हो जाती है ।

3. वाहित मल में क्लोरीन अथवा सक्रिय क्लोरीनयुक्त यौगिक मिलाने के कई लाभ होते हैं ।

जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

(i) कच्चे अथवा अनुपचारित वाहित मल में मौजूद रोग उत्पन्न करने वाले जीव इससे या तो विसंक्रमित हो जाते हैं अथवा नष्ट हो जाते हैं । इससे सिंचाई में काम आने वाला वाहित मल भी कुछ निरापद हो जाता है ।

(ii) सड़े हुए वाहित मल के अथवा अवमल के उपचार के दौरान निकलने वाली दुर्गंध के दूर करने के अलावा इससे हाइड्रोजन सल्फाइड भी नष्ट होती है ।

(iii) विषैले योगिकों को ऑक्सीकरण से विष-रहित बना देती है ।

(iv) उच्छिष्ट (गंदे) जल में विद्यमान रोग फैलाने वाले जीवाणुओं को विसंक्रमित बनाती है (जैसे कि चमड़ा-शोधन कारखानों की संक्रमित खालों में विद्यमान ऐंथ्रेक्स को) ।

अस्थायी अथवा अविलंब क्लोरीन उपचार के लिए आम तौर पर विरंजक चूर्ण कैल्सियम हाइपोक्लोराइड इस्तेमाल किया जाता है । विरंजक चूर्ण में 25 से 37 प्रतिशत तक क्लोरीन होती है और कैल्सियम हाइपोक्लोराइड में लगभग 70 प्रतिशत । इनके अलावा कभी-कभी क्लोरीन गैस या सोडियम हाइपोक्लोराइड भी उपयोग में लाया जाता है ।

वाहित मल को विसंक्रमित करने के लिए क्लोरीन की कितनी मात्रा चाहिए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वाहित मल की सांद्रता या दशा पर (यह कि वह ताजा है अथवा सड़ा हुआ) कितना विसंक्रमण करना है अथवा कितनी देर में करना है ?

वाहित मल का तापमान क्या है तथा इस्तेमाल किए जाने अथवा प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप बनने वाले क्लोरीन यौगिक अथवा यौगिकों की प्रकृति कैसी है ? वैसे बड़े-बड़े ठोस पदार्थों आदि को, जिनमें कि क्लोरीन सरलता से नहीं मिल पाती, पहले से निकाल देने पर विसंक्रमण निश्चित रूप से होता है ।

इसलिए जहाँ वाहित मल का और कोई उपचार न करना हो और विसंक्रमण अवश्य ही करना हो, वहाँ क्लोरीन प्रयोग करने से पूर्व वाहित मल को कुछ देर बैठने देना चाहिए । जब वाहित मल सड़ने लगता है अथवा उसमें हाइड्रोजन सल्फाइड की मात्रा अधिक होती है तब उसे क्लोरीन की भी अधिक मात्रा चाहिए ।

अत: जहाँ वाहित मल एकत्र हो रहा हो यदि वहीं क्लोरीनीकरण करके उसे सेप्टिक बनने से रोका जाएगा तो अंतिम चरण में कम क्लोरीन इस्तेमाल करनी पड़ेगी और इस प्रकार उपचार की लागत में भी कमी की जा सकेगी । दूसरे, क्लोरीन उपचार कितनी देर तक किया जाए, इसकी अपेक्षा क्लोरीन का अधिक सांद्र होना अधिक महत्वपूर्ण है ।

फ़्रांसीसी समुद्र-गर्भ अन्वेषक जैकी कूस्तो ने सन् 1942 में जब सारगासो समुद्र का अन्वेषण किया तो उस समय वह समुद्र-जल में 300 फुट की गहराई तक देख पाए थे । लेकिन उनका कहना है कि अब वहाँ मुश्किल से 100 फुट तक देखा जा सकता है ।

आज से 25 वर्ष पूर्व जब भूमध्य सागर में उन्होंने डुबकी लगाना प्रारंभ किया था, तब वह ‘जीवन’ से भरपूर था । परंतु आज वहाँ तीन इंच लंबी मछली भी बड़ी मुश्किल से दिखाई पड़ती है । इसका कारण यह है कि सागर और महासागर जिस क्षमता से अपने को स्वच्छ कर सकते हैं उससे अधिक मात्रा में प्रदूषक तत्व आकर उन्हें दूषित कर देते हैं । कूस्तो का अनुमान है कि पिछले 20 वर्षों में मछली और पादप उत्पन्न करने की सागरों की क्षमता 30 से 50 प्रतिशत तक कम हो गई है ।

वर्ष 1980 में राष्ट्र संघ द्वारा पर्यावरण पर जेनेवा में आयोजित एक गोष्ठी में समुद्री प्रदूषण के संबंध में चिंता प्रकट करते हुए स्विट्‌जरलैंड के एक सुविख्यात समुद्र-गर्भ-अन्वेषक श्री जैकी पिकर्ड ने कहा कि यदि इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो इस शती के अंत तक धरती के सभी महासागर निर्जीव हो चुके होंगे ।

श्री कृस्तो ने अमेरिकी सिनेटर अन्सर्ट होलिंग की अध्यक्षता में बनी महासागर और वातावरण उपसमिति को बतलाया कि धरती से बहुत दूर और मैडागास्कर के परे स्थित रीफ निर्जीव हो चुकी है और इसी प्रकार बहुत ही थोड़े वर्षों में कृष्ण सागर और लाल सागर के गहरे जल में कोई भी चीज जीवित नहीं रहेगी ।

वैज्ञानिकों का यह कहना सही है कि 70 प्रतिशत पृथ्वी का धरातल पानी से ढका हुआ है, लेकिन यह पानी धरती के ठोस गोले की तुलना में आखिर एक पतला-सा भाग ही तो है । इसे एक बिना पेंदे का गटर नहीं समझना चाहिए जिसमें कि दुनिया-भर की गंदगी आ-आकर समाती जाएगी ।

श्री पिकर्ड का कहना है कि धरती की ऑक्सीजन उत्पन्न करने वाला आदि पादप, फाइटो-प्लांक्टन सतह पर ही होता है । यह कूड़े को अवशोषित कर लिया करता है और इस प्रकार प्रदूषण के लिए छन्ने का काम करता है । अत: समुद्र के समस्त जीवन-चक्र को व्यर्थ बनाने के लिए फाडटो-प्लांक्टन को नष्ट करना काफी है ।

अमेरिका के पर्यावरण-विशेषज्ञ तथा लेखक बैरी कामनर का कहना है कि बाल्टिक समुद्र में एक स्थल पर सन् 1940 में जल के नमूनों के एक लिटर में ऑक्सीजन की मात्रा 2.5 घन सें. मी. होती थी । सन् 1943 में यह मात्रा घटकर 2.0 घन सें. मी. हो गई, लेकिन तब से केवल 38 वर्षों में यह मात्रा 0.1 धन सें. मी. से भी कम रह गई है ।

पिकर्ड, का अनुमान है कि आधुनिक मशीनी मानव-जाति प्रतिवर्ष 50 लाख से एक करोड़ टन तक प्रदूषणकारी पेट्रोलियम उत्पाद समुद्र की अति संवेदनशील सतह पर फैला देती है । इसमें से 18 लाख टन मोटर-गाड़ियों की धूम-निकास नलिकाओं से निकलने वाली विषैली गैसें हैं जो कि पहले तो आकाश में ऊपर चढ़ जाती हैं और अंतत: जमकर समुद्रों की सतह पर गिर पड़ती हैं ।

दस लाख टन पेट्रोलियम उत्पाद तेल ले जाने वाले जहाज समुद्र में उड़ेल देते हैं और बाकी की मात्रा संसार-भर की दूषित नदियाँ लाकर उसमें डाल देती हैं । कूस्तो का सुझाव है कि समुद्री प्रदूषण को रोकने के लिए अनुसंधान कार्य को और बढ़ाना चाहिए ।

कृत्रिम उपग्रहों से जल-गर्भ का अन्वेषण किया जा सकेगा । इससे उसके प्रदूषक तत्वों की ओर सांद्रता का पता लगा सकेगा । वैसे 80 प्रतिशत समुद्री प्रदूषण की जिम्मेदारी संसार के औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों पर है ।

कूस्तो का कहना है कि सबको एकजुट होकर शीघ्र ही इस प्रदूषण को दूर करने का कोई उपाय करना चाहिए । लेकिन यह कहना जितना सरल है, उतना करना नहीं । एक तो इसलिए कि जितने भी समुद्रगामी राष्ट्र हैं वे औद्योगिकीकरण का, जो कि प्रदूषण का मुख्य कारण है, कार्य बंद नहीं कर देंगे ।

वैसे जो गंदगी पहले ही हो चुकी है, उसे दूर करना भी कोई सरल काम नहीं है । उदाहरणार्थ, भूमध्य सागर की स्वच्छता का कोई अच्छा प्रबंध नहीं है । जिब्राल्टर की सँकरी खाड़ी में से होकर इसमें गिरने वाला अटलांटिक महासागर का जल चार ‘फेफड़ों’ में से होकर स्वच्छ होता है ।

ये हैं- एड्रियाटिक व ईजियन समुद्र तथा रोम व नदियाँ । लेकिन जैसा कि ब्रिटेन के लार्ड रिशी-वाल्डर ने चेतावनी दी है- ये फेफड़े स्वयं अब प्रदूषित हो चुके हैं । कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि समुद्र को प्रदूषण-मुक्त करने के लिए खर्चीले यंत्रों की जरूरत पड़ेगी ।

किंतु पिकर्ड ने एक मौलिक समाधान सुझाया है । उनका कहना है कि जैसे-जैसे प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जाएगी, प्रत्येक व्यक्ति को कुछ त्याग करने को बाध्य होना पड़ेगा । कल-कारखानों के उत्पादन में योजनाबद्ध कटौती की बात करना मूर्खतापूर्ण हैं ।

अल्प-विकसित देश अपने जीवन के स्तर को अब भी बढ़ा सकते हैं, लेकिन अति उन्नत देशों का जीवन-स्तर गिरेगा । औद्योगिकीकरण को रोकने और संसार-भर में जन्म की दर को कारगर ढंग से कम करने के लक्ष्य को पूरा करना कठिन लगता है, लेकिन इसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं है ।

क्योंकि यह तो मानव के अस्तित्व की समस्या है । अगाध समुद्र की गहराइयों में नाना प्रकार के असंख्य जीव-जंतु अपना जीवन-यापन करते हैं । ये जंतु छोटे-बड़े तथा विषैले सभी प्रकार के होते हैं । इनमें कुछ तो इतने विषैले होते हैं कि अपने नाखूनों, दाँतों, लार तथा फुंकार आदि से मानव-लीला ही समाप्त कर देते हैं ।

प्रकृति का यह नियम है कि प्रत्येक बड़ा जंतु अपन आहार के लिए छोटे जंतु पर आक्रमण करता है । इस प्रकार यदि सागर का जल प्रदूषित हो जाता है तो ये भीमकाय जंतु भी सदैव के लिए नष्ट हो जाएँगे और इनसे प्राप्त होने वाले लाभ से मानव-जाति वंचित रह जाएगी ।

अष्टपाद उन समुद्री जंतुओं में से है जिनसे गोताखोरों को घृणा है । आठ भुजाओं वाले इस जंतु के सर्प-सदृश आठ ग्रंथिकोश होते हैं । इस जंतु के कारण सतर्क न रहने वाले अनेक गोताखोरों को समुद्रतल पर मृत्यु का शिकार होना पड़ा है । अष्टपाद को सामान्यतया ‘दानव मछली’ कहते हैं ।

समुद्र के अंदर यह जंतु भीषण आक्रमण करता है । साथ ही यह लार उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों से ऐसा विष छोड़ता है, जिससे उसके शिकार शक्तिहीन हो जाते हैं । किंतु ‘दानव मछली’ को शीघ्र ही मनुष्यों से उचित सम्मान प्राप्त होने लगेगा ।

कैलिफोर्निया में ‘वर्ल्ड लाइफ रिसर्च सेंटर’ के डॉ. ब्रूस हाल्सडेड ने पता लगाया है कि अष्टपाद की लार से हृदय रोग पीड़ित व्यक्तियों के जीवन की रक्षा को जा सकती है । डॉ. ब्रूस ने लार से एक ऐसा विषैला अंश अलग किया है जो रक्त को जमने से रोकता है । वैज्ञानिकों का कहना है कि इस विषैले तत्व से निकाले गए सत्व का उपयोग उन रोगियों का उपचार करने में किया जा सकता है जिनके हृदय की धड़कन कभी तेज और कभी मंद हो जाती है ।

अष्टपाद के अतिरिक्त और भी बहुत-से ऐसे जहरीले समुद्री जंतु है जिनके विष से निकाले गए सत्व रोगी मनुष्यों की प्राणरक्षा कर सकते हैं । छानबीन से सिद्ध हो गया है कि समुद्र के अनेक विषैले जंतु मानव-जाति के रक्षक भी सिद्ध हो सकते हैं, बशर्ते कि रोगी के शरीर में उनका विष उचित मात्राओं में पहुँचाया जाए ।

न्यूयॉर्क नगर में समुद्री विज्ञान संबंधी ओसबर्ग प्रयोगशाला के निर्देशक डॉ. रोज नाइग्रेली न पता लगाया कि ‘सी क्यूक्म्बर’ नामक छोटे समुद्री जंतु का विष कैंसर के बढ़ने को कम कर देता है और कभी-कभी उसे रोक भी देता है । जिन व्यक्तियों का कोई अंग कट जाता है उनका ऑपरेशन के वाद इलाज करने में इस जंतु का जहर वरदान सिद्ध हो सकता है, क्योंकि यह जहर नाड़ी की गति का प्रवाह रोकने में सफल है ।

समुद्री औषधियों के क्षेत्र में एक अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति है- नायेमी विश्वविद्यालय के डॉ. चार्ल्स लेन । उन्होंने पता लगाया है कि जेलीफिश नामक समुद्री मछली जिस घातक तंतु-गुच्छे की निकालती है उससे घावों (अल्सर) और हृदय रोगों का इलाज किया जा सकता है । ‘स्टार फिश’ से भी एक दवा प्राप्त होती है ।

यह दवा मांसपेशियों को बल प्रदान करती है । वैज्ञानिकों ने इस सत्व को गर्भ-निरोधक की दृष्टि से भी बहुत गुणकारी पाया है । चूहों के साथ किए गए परीक्षणों से यह सिद्ध हो गया है कि स्किंवड़ मछली से प्राप्त पाओलिन नामक सत्व से पक्षाघात ओर इन्फ्लुएंजा के विषाणुओं से पीड़ित रोगियों की रक्षा की जा सकती है ।

समुद्र में घोंघे प्रचुर संख्या में पाए जाते हैं । इनसे भी विविध रोगों की ओषधियाँ प्राप्त होती है । अनुसंधानकर्ताओं का कथन है कि समुद्री घोंघे से एक नई रोगाणुनाशक दवा प्राप्त की जा सकती है । बड़ी सीपी से एक ऐसी दवा तैयार की जा सकती है जिससे खून को जमने से रोका जा सकता है । परिस्थितियों में पलकर बड़ी होने वाली शंबुक (सीपदार मछलियों) से शरीर के किसी भी भाग को सुन्न करने के लिए सत्व प्राप्त किया जा सकता है, जो सामान्य दवाओं से अनुमानत: एक लाख गुणा अधिक प्रभावकारी होगा ।

कैल्थ नामक समुद्री घास से तैयार किया गया मिश्र पदार्थ शरीर से स्ट्रांसियम-10 का नाश करने में सहायक हो सकता है । अधिक समय तक कायम रहने वाले आण्विक विखंडनीय पदार्थों में यह एक सबसे खतरनाक पदार्थ समझा जाता है ।

चिकित्सा वैज्ञानिकों को पता चला है कि समुद्री साही (सी अरचिन) तथा कुछ समुद्री कीड़ों से प्राप्त किए गए विष से कैंसर के सजीव कोषाणुओं की वृद्धि रुक जाती है । उन्होंने घोंघेनुमा उदरपाद (गैस्ट्रापांड) का अध्ययन किया और देखा कि वह माँसपेशियों को आराम देने वाला एक तत्व उत्पन्न करता है, जिसे किसी दिन शायद माँसपेशियों की ऐंठन दूर करने वाली दवा के रूप में विकसित किया जा सकता है ।

तपेदिक के रोगियों की भी समुद्री जीव-जंतुओं से दवा प्राप्त हो सकती है । लाल दाढ़ी वाले स्पंज (शोषक जलजीव) में शरीर में एक ऐसा संयुक्त पदार्थ होता है जो तपेदिक रोग का मुकाबला करने में उपयोगी समझा जाता है । वैज्ञानिकों का विश्वास है कि ओषधियों के स्रोत के रूप में समुद्र की छानबीन का उनका कार्य आरंभ ही हुआ है ।

समुद्र तल पर उत्पादन करने, खनिजों का पता लगाने, पेट्रोलियम निकालने आदि के संबंध में किए जाने वाले अन्य परीक्षणों के साथ आज की प्रारंभिक सफलताओं से भविष्य में बड़े-बड़े लाभ होने की आशा है और यह भी आशा तभी की जा सकती है यदि समुद्र-जल प्रदूषित न हो ।

आम तौर पर सागर को प्रदूषित करने में पेट्रोल, डीजल जैसे हलके तेलों का बहुत योग नहीं होता, क्योंकि पानी पर बिखरने के बाद वे शीघ्र ही वाष्पित ही जाते हैं । अशोधित खनिज तेल पानी में बिखरने के बाद आसानी से अलग नहीं हो पाता ।

तेल क प्रदूषण की घटनाएँ इसी तेल के कारण अधिक भयानक होती हैं । खनिज तेल में अनेक प्रकार के कार्बनिक यौगिक पाए जाते हैं जिनमें प्रमुख हैं- पैराफिन, चक्रीय पैराफिन व ऐरोमैटिक यौगिक, जो अलग-अलग रूपों में जीव-जंतुओं के लिए हानिकर होते हैं ।

पानी पर बिखरने के बाद खनिज तेल में अनेक परिवर्तन होते हैं । तेल की थोड़ी मात्रा पानी में घुल जाती है । कुछ मात्रा सूक्ष्म जीव विघटित कर देते हैं । वे इसके हाइड्रोकार्बनों का, ऊर्जा के रूप में, इस्तेमाल करते हैं ।

धीरे-धीरे तेल क हलके अंश वाष्प बनकर उड़ते जाते हैं, इससे वह गाढ़ा और भारी होता जाता है । धूप और ऑक्सीजन उसे बहुलीकृत कर देती है, जिससे वह बहुत गाढ़ा और भारी होकर, डामर की छोटी-छोटी काली गोलियों में बदल जाता है ।

ये गोलियाँ ही हमारे तटों पर जमा होती हैं । पेट्रोलियम के वे अंश जिनमें गंधक, धात्विक यौगिक, मोम आदि होते हैं, तली में बैठ जाते हैं । सागरीय प्रदूषण दूर करने के उपायों की चर्चा करते समय भी सबसे पहले पेट्रोलियमजन्य प्रदूषण दूर करने की बात करना श्रेयस्कर होगा ।

वर्षों से वैज्ञानिक सागर पर बिखर तल को साफ करने के प्रयोग कर रहे हैं । उन्होंने उसे समेटने, साफ करने या रासायनिक रूप से ऐसे यौगिकों में परिवर्तित करने की विधियाँ सुझाई हैं, जो समुद्री जीव-जंतुओं और अंतत: मनुष्य के लिए हानिकर न हों ।

इनमें शायद सबसे सरल है किसी चूषिक युक्ति से तेल की परत को चूस लेना । बंदरगाहों और थल के अंदर घुसी खाड़ियों को तेल प्रदूषण से मुक्ति दिलाने के लिए यह विधि काफी इस्तेमाल की जाती है । पर खुले समुद्रों के बड़े क्षेत्र में फैले तेल को दूर करने के लिए इसका उपयोग नहीं किया जा सकता ।

बिखरे हुए तेल पर उपयुक्त अवशोषक पदार्थ फैलाकर भी उसे हटाया जा सकता है । इस काम के लिए पॉलीयूरेथेन फोम काफी उपयुक्त पाया गया है । तेल की सतह पर फोम फैला दिया जाता है । वह तेल को अवशोषित कर लेता है । फिर उस फोम को इकट्ठा करके फेंक दिया जाता है । पॉलीयूरेथेन फोम के स्थान पर कुछ लोगों ने लकड़ी का बुरादा इस्तेमाल करने के भी सुझाव दिए हैं । तेल की परत पर बारीक, अधिक घनत्व वाला चूर्ण फैलाकर उसे तली पर बैठाया जा सकता है ।

स्टीयरेट से उपचारित चॉक-चूर्ण एक ऐसा ही पदार्थ है । पर यह बहुत छोटे क्षेत्र में ही बिखरे तेल को ठिकाने लगा सकता है । टैंकरों से बड़ी मात्रा में तेल छलक जाने पर अथवा टैंकर के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से तेल बड़े सत्र पर बिखर जाता है ।

उस समय ऊपर बताई गई विधियाँ कारगर नहीं होतीं । तब जो विधि इस्तेमाल की जाती है, उसका उद्देश्य होता है तेल को बहुत छोटी-छोटी बूँदों में इस प्रकार छितरा देना कि वे बुंदकियाँ आपस में न मिल पाएं । इसके लिए किसी छितराने वाले पदार्थ-डिस्परसेंट को उपयुक्त घोलकों में घोलकर तेल पर एक पतली परत के रूप में फैला दिया जाता है और फिर सागर को मथा जाता है । इससे तेल बहुत छोटी बुंदकियों में बँट जाता है । डिस्परसेंट के रूप में डिटरजेंट इस्तेमाल किए जाते हैं ।

समुद्र पर बिखर गए तेल को ठिकाने लगाने के लिए वैज्ञानिक जीववैज्ञानिक विधियों का उपयोग भी सुझा रहे हैं । इन विधियों में सूक्ष्म जीवों का उपयोग किया जाता है । ब्रिटेन के वैज्ञानिकों न एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है जो अपने वजन से 30 गुना अधिक तेल सीख लेता है ।

इस पदार्थ की 0.9 × 0.5 मीटर कड़ी और 12 से.मी. मोटी चादर 10 सेकंड के अंदर ही आधा टन तेल सोख लेती है । सागर पर बिखर गए पेट्रोलियम को ठिकाने लगाने में भारतीय वैज्ञानिक डॉ. आनंद एम. चक्रवर्ती का भी विशेष योग है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी की प्रयोगशाला में अपने अनुसंधानों के दौरान, कुछ वर्ष पूर्व डॉ. चक्रवर्ती ने स्यूडोमोनास बैक्टीरिया का एक ऐसा विभेद विकसित किया है जो पेट्रोलियमभक्षी है । औद्योगिक व्यर्थों को समुद्र में फेंकने की एक तर्कसंगत विधि यह है कि उन्हें नलों द्वारा तट से बहुत दूर, गहराइयों में छोड़ दिया जाए ।

यदि इन पाइपों में डिफ्यूजर भी लगा हो तो अधिक बेहतर होगा । गहराइयों में ये पदार्थ ठंडे और भारी पानी के साथ मिलते हैं । उन्हें ऊपर जाने के पानी की विभिन्न सतहों को पार करना पड़ता है और हर सतह के साथ ये रुकते जाते हैं । इस प्रकार सबसे ऊपरी सतह का पानी साफ ही बना रह सकता है ।

1954 में समुद्र का तल से प्रदूषित होने में बचाने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया था । इस सम्मेलन में लिए गाए निर्णयों के अनुसार टैंकरों को तट से कम से कम अस्सी किलोमीटर दूर धोया जाना चाहिए, जिससे उनका जल तट के निकट न आए ।

खाड़ियों में न तो टैंकरों को धोना ही चाहिए, न उन तेलवाहक जहाजों को ठहराना चाहिए जिनमें 20 हजार टन से अधिक तेल भरा हो । सागर में रेडियोधर्मी प्रदूषण को रोकने का एक सरल उपाय है, समुचित उपचार के बाद ही रेडियोधर्मी व्यर्थ को सागर में फेंकना ।

भारत में पचास से साठ प्रतिशत लोग प्रदूषित जल के कारण बीमार होते हैं और तीस से चालीस प्रतिशत रोगी प्रदूषित जल द्वारा उत्पन्न रोगों के कारण मर जाते हैं । प्रदूषित जल से मुख्यतया हैजा, मातीझरा, पोलियो, पीलिया, पेचिश आदि रोग उत्पन्न होते हैं ।

भारत में लगभग प्रतिवर्ष लाखों लोगों को फाइलेरिएसिस की बीमारी होती है । यद्यपि हैजा इस देश की पुरानी समस्या है जो अब भी कुछ सीमा तक विद्यमान है, लेकिन सन् 1946 ई. के बाद स्थिति में काफी सुधार हुआ है । किंतु अब यह बीमारी उन क्षेत्रों में प्रवेश कर गई है जहाँ पहले नहीं थी ।

राजस्थान और हरियाणा में किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि इस बीमारी ने उन गाँवों को अधिक प्रभावित किया है, जिनमें पेयजल प्रदूषित था । प्रदूषित जल के कारण पोलियो और पीलिया रोग शहरी क्षेत्रों में प्राय: सारे साल पाए जाते हैं ।

भारत में दस हजार मनुष्यों में दो से लेकर दस तक की आयु वाले पोलियो रोग से ग्रसित पाए गए हैं । सन् 1942 ई. में दिल्ली के लगभग तीस हजार व्यक्ति जल-प्रदूषण के कारण पोलियो रोग से प्रभावित हुए । दिल्ली और पश्चिम बंगाल के सर्वेक्षण से सिद्ध हुआ है कि इतने व्यापक रुप में पीलिया रोग प्रदूषित जल के कारण ही होता है । निरंतर मृदु-जल पीते रहने से हृदय रोग में कमी और मृत्यु की संभावनाएँ कम होती हैं ।

ये निष्कर्ष लंदन स्कूल ऑफ हाइजिन एंड ट्रौपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिक डॉ. मार्गरेट कापोर्ड और उनके सहयोगियों ने निकाले हैं । उपयुक्त वैज्ञानिकों द्वारा किए गए विस्तृत अध्ययनों के दौरान यह देखा गया है कि उन नगरों में जहाँ पिछले 40 वर्षों के दौरान मृदु जल के स्थान पर कठोर जल दिया गया, हृदय रोग तथा मृत्यु-दर अधिक हो गई ।

इसके विपरीत कठोर जल के बदले मृदु जल उपयोग करने वाले नगरी में हृदय रोगों से पीड़ित होने वाले और मरने वालों की संख्या में काफी कमी पाई गई । हृदय रोग के लिए उत्तरदायी अन्य कारण जैसे धूम्रपान, गरिष्ठ भोजन, शोरगुल आदि कारकों को सम्मिलित नहीं किया गया है ।

यद्यपि आयुर्विज्ञान ने मानव को इस खतरनाक बीमारियों से छुटकारा दिलाने के लिए औषधियों का आविष्कार कर लिया है और मृत्यु-दर में काफी कमी आ गई है, परंतु इन सबका एकमात्र स्थायी उपचार यही है कि देश के प्रत्येक नगर एवं गाँव में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था की जाए ।

विशिष्ट प्रकार के प्रदूषण के लिए समुचित समाधान सुझाने का कार्य तो विस्तृत अध्ययन के उपरांत ही हो सकता है, किंतु फिर भी संभावित हानिकर कारणों का शीघ्र ही निवारण तो किया ही जाना चाहिए । देश के विभिन्न भागों में जल-प्रदूषण की दशा को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले प्रत्येक पदार्थ के निपटान का तरीका खोज निकाला जाए और उसका मानकीकरण किया जाए ।

समुद्री ज्वार-भाटा से प्रभावित होने वाले नदी-नालों में प्रदूषक व्यर्थ पदार्थों को प्रवाहित करने के लिए तो अत्यधिक सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि इसमें यह देखना होगा कि उनमें कब प्रदूषक व्यर्थ प्रवाहित किए जाएँ ?

व्यर्थ-वहन करने वाले नाले-नालियों की गहराई क्या होनी चाहिए तथा मछली-उपलब्धि वाले क्षेत्रों से इन नाले-नालियों को कितनी दूर होना चाहिए ? प्रदूषण को दूर करने के लिए जल के गुणों के मानक निर्धारित करने होंगे तभी जन-स्वास्थ्य और मत्स्य-संपदा की रक्षा हो सकेगी ।

इस प्रकार के उपाय तैयार करने से पहले यह जरूरी है कि प्रयोगों द्वारा प्रदूषक पदार्थों की घातक मात्रा ज्ञात की जाए । जहाँ तक नदियों व तटवर्ती समुद्री क्षेत्रों के रेडियोधर्मी प्रदूषण का संबंध है, ऐसे प्रदूषण के सामान्य प्रभावों की चर्चा भर कर दी गई है, इस संबंध में विस्तृत प्रयोग अभी नहीं किए गए हैं ।

इस बात का भी अभी अध्ययन होना है कि घातक से कम मात्रा में विषैले रसायनों की उपस्थिति से मानव तथा जल के प्राणियों पर क्या इकट्ठा प्रभाव पड़ेगा । नियमित रूप से जल के नमूने लेते रहने और उसके गुणों की जाँच करने की भी जरूरत है जिससे जल की रेडियोधर्मिता तथा उसमें विद्यमान विभिन्न कीटनाशियों आदि की मात्रा ज्ञात की जा सके ।

दूसरे, घरेलू कूड़े-कचरे और मल के निपटान से बनने वाले खाद के विशाल भंडार, जिनमें नाइट्रोजन व फास्फोरस की प्रचुर मात्रा होती है, का समुचित प्रयोग किया जाना चाहिए । जल प्रदूषण नियंत्रण प्रमुखतया दो प्रकार से होता है- नदियों तथा जलाशयों में स्वत: शुद्धीकरण की प्रक्रिया तथा प्रदूषण स्रोतों पर अंकुश लगाकर । नदियों में स्वत: शुद्धीकरण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है ।

पानी में तथा जलस्राव में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जीवाणु (बैक्टीरिया) समुदाय प्रदूषक पदार्थों का उपचयन करते हैं जिससे उनका कार्बनिक अंश धीरे-धीरे अकार्बनिक रूप में बदलता रहता है तथा भारी तत्व तली पर जाकर मिट्टी में बैठ जाते हैं ओर अघुलनशील पदार्थों में परिवर्तित हो जाते हैं ।

अत: नदी का जल कुछ दूरी के बाद स्वच्छ हो जाता है । इस निरंतर प्रक्रिया में सूर्य का प्रकाश, वायु व सूक्ष्म वानस्पतिक जीवन विशेष रूप से सहायक होते हैं । लेकिन जब प्रदूषण की मात्रा अत्यधिक हो तो नदी या जलाशय का एक बड़ा अंश स्वत: शुद्धीकरण से परे हो जाता है ।

इस समस्या का निराकरण केवल प्रदूषक पदार्थों को नदी तक लाने वाले जलस्राव के स्रोत पर ही उपचार द्वारा शुद्ध करके किया जा सकता है । विभिन्न उद्योगों तथा शहरी सीवेज प्रणाली के माध्यम से आने वाले जलस्राव उपचारण की विधियाँ लगभग एक-सी हैं ।

जलमल उपचारण की दो प्रमुख विधियाँ हैं:

1. जैविक उपचार विधि तथा

2. रासायनिक उपचार ।

सीवेज उपचार तो सर्वथा जैविक विधि से ही होता है । यह विधि मुख्यतया स्वतः शुद्धीकरण के सिद्धांत पर काम करती है लेकिन इस विधि में शुद्धीकरण की प्रक्रिया तीव्र होती है । इस विधि में जलमल को तीन इकाइयों में से होकर गुजरना पड़ता है ।

ये इकाइयाँ हैं- प्राथमिक उपचार इकाई या सेप्टिक टैंक । यहाँ जलमल में उपस्थित कोलाइडी व ठोस पदार्थों का वायु एवं विभिन्न सूक्ष्म जीवों की सहायता से स्थिरीकरण होता है, अत: सभी तरह के ठोस पदार्थ टैंक की सतह पर जमा हो जाते हैं तथा बचा हुआ तरल दूसरी इकाई या रेत की मोटी चादर में जाता है ।

इसमें घुले हुए व कोलाइडी अवस्था में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ रेत के कणों में चिपककर अलग हो जाते हैं । तीसरी इकाई में बचे हुए तरल में उपस्थित अकार्बनिक पदार्थों का रासायनिक विधियों से पृथक्ककरण किया जाता है ।

इन तीनों इकाइयों में रोगाणुओं का भी नाश हो जाता है और यदि कुछ रोगाणु बचे भी रह जाएँ तो ब्लीचिंग पाउडर द्वारा उन्हें भी खत्म किया जाता है । पहली व दूसरी इकाई में उपचार के बाद ठोस पदार्थ इकट्ठे होते जाते हैं ।

उन्हें समय-समय पर निकालकर ओर सुखाकर कृषि के लिए उपयोग में लाया जा सकता है । इन ठोस पदार्थों में नाइट्रोजन और फास्फोरस अत्यधिक मात्रा में होता है । अत: जैविक उपचयन विधि जहाँ एक ओर प्रदूषण नियंत्रण में सहायक होती है, इसके सभी उत्पाद भी हमारे लिए अत्यंत उपयोगी होते हैं ।

रासायनिक उपचार अकार्बनिक पदार्थों, जैसे- नाइट्रेट, फास्फेट आदि को अलग करने के लिए किया जाता है । इस विधि में एलम (फिटकरी), चूना आदि रसायनों द्वारा विभिन्न फास्फेट यौगिकों को अविलेय पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है ।

नाइट्रोजन यौगिकों, विशेषतया अमोनिया का पृथक्ककरण, आयन विनिमय रेजिनों द्वारा किया जाता है । आजकल क्लोरीन गैस द्वारा अमोनिया का पृथक्ककरण भी काफी प्रचलित है । विभिन्न रसायनों व आयन विनिमय रेजिनों द्वारा उपचार आसान तो है, लेकिन खर्चीला बहुत है । नाइट्रेट, फास्फेट पृथक्कीकरण के लिए एक ओर जैविक स्रोत आजकल अत्यधिक प्रचलित है ।

जल में उत्पन्न कुछ पौधे जैसे जलकुंभी या हाइड्रिला नाइट्रेट, फास्फेट जैसे पोषक तत्वों की अधिकता में बहुत शीघ्रता से पनपते हैं इस तरह जल में उपस्थित अत्यधिक नाइट्रोजन व फास्फोरस को शोषित कर जहाँ एक ओर प्रदूषण नियंत्रण में सहायक होते हैं, इसकी पत्तियाँ व तने प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत भी हैं ।

जल-प्रदूषण को यदि स्रोत पर ही नियंत्रित कर दिया जाए तो न केवल स्वच्छ जल के अभाव की समस्या सुलझेगी वरन् इसके साथ कृषि के क्षेत्र में उर्वरक आदि की कमी भी पूरी की जा सकती है ।