भूजल प्रदूषण पर निबंध | Essay on Ground Water Pollution in Hindi!

Essay # 1. भौम जल प्रदूषण का अर्थ (Meaning of Ground Water Pollution):

भौम जल प्रदूषण समस्या वर्तमान युग में महत्वपूर्ण समस्याओं में एक मानी जाती है । भौम जल प्रदूषण के प्रमुख कारक क्या हैं इनकी जानकारी प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं है । कारण स्पष्ट नहीं होने की वजह से उस पर स्वत: नियंत्रण करना संभव नहीं है ।

उद्योगों के अपशिष्टों के जल में बहने से भी प्रदूषण संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं । जिसमें मनुष्य ही अहम् भूमिका निभाता है । अब कुएँ का पानी पीना उतना ही हानिकारक हो सकता है जितना सतही प्रदूषित जल का पीना । भौम जल का संदूषण मुख्यतया विषैली कार्बनिक तथा अकार्बनिक रसायनों का भौम जल के स्रोतों में निस्पंदन है ।

प्राकृतिक भौम जल की गुणवत्ता में कृत्रिम ढंग से लाया गया ह्रास भौम जल प्रदूषण कहलाता है । प्रदूषण से जल उपयोग में बाधा पड़ सकती है और विषाक्तता अथवा रोग फैलने से जन-स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है ।

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सामान्यतया यह देखा जाता है कि अपशिष्ट जल के गलत निपटान प्रक्रिया के कारण यह प्रदूषण बढ़ता है । ऐसा प्रदूषण वर्षों बना रह सकता है । अत: जो लवण भौम जल में मिले होते हैं वे स्थानिक हो सकते हैं और जल के गतिशील होने के कारण भी प्राप्त हो सकते हैं । मीठे जल तथा लवणीय या खारी जल में विलयित ठोसों की मात्रा के कारण ही अंतर आता है ।

उदाहरणार्थ:

जब भौम जल के एक लीटर आयतन में 1,000 मिग्रा. से अधिक ठोस पदार्थ (लवण) विलयित रहते हैं तो उसे लवणीय भौम जल कहते हैं । दैनिक कार्यों तथा सिंचाई में इस जल को प्रयुक्त किया जाता है । इसलिए इसमें पृथक गुणों का होना अनिवार्य है ।

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इसलिए भौम जल की गुणवत्ता पर विशेष बल दिया जाता है । भौम जल में गैसें भी विलयित रहती हैं, अत: उन्हें भी अनदेखा नहीं किया जा सकता । भौम जल का ताप भी महत्वपूर्ण है । शायद ही ऐसा भौम जल हो जिसमें लवण विलीन न रहते हों । लवण की मात्रा 25 मिग्रा./ली. (झरनों के जल में) से लेकर, 3,00,000 मिग्रा./ली. (खारी जल) पाई गई है ।

पेय भौम जल में पाये जाने वाले प्रमुख तत्व (The Main Ingredients Found in the Beverage of Ground Water):

पेय भौम जल के प्रमुख अवयव निम्नवत हैं:

यदि सिंचाई के लिए भौम जल का उपयोग अनिवार्य-सा माना जाता है, तो उसमें उपस्थित लवणों की मात्रा तथा उनकी गुणवत्ता पर ध्यान देना आवश्यक होगा अन्यथा सिंचाई करने से भूमि खराब हो सकती है ।

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बाद में इससे फसलों पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है । भौम जल के भौतिक गुणों में ताप, रंग, गँदलापन, गंध, स्वाद मुख्य हैं । जैविक गुणों में कोलीफार्म जीवाणु महत्वपूर्ण हैं । भौम जल में परिवर्तन का कारण मिट्टी के भीतर गति करना है ।

Essay # 2. भौम जल के प्रमुख प्रदूषक तत्वों का वर्गीकरण (Classification of Major Pollutants of Ground Water):

भौम जल के प्रदूषक को मुख्यत: चार वर्गों में विभक्त किया गया है जो अग्रलिखित हैं:

(1) भौतिक प्रदूषक- रंग, गंध, ताप तथा गँदलापन ।

(2) जैविक प्रदूषक- विविध जीवाणु-कोलीफार्म जीवाणु मल कोलीफार्म, मल स्ट्रेप्टोकोकाइ ।

(3) विकिरण चिकित्सात्मक प्रदूषण- विविध रेडियोएक्टिव तत्वों या विकिरणों की उपस्थिति ।

(4) रसायन जनित प्रदूषक- इसके अंतर्गत कार्बनिक तथा अकार्बनिक दोनों ही प्रकार के यौगिक आते हैं । प्रमुख कार्बनिक रसायन जिनकी पहचान भौम जल में हुई है ।

जो निम्नलिखित हैं:

1. डाइ तथा ट्राइक्लोरो एथेन ।

2. बेंजीन, क्लोरोबेंजीन, डाइक्लोरो तथा ट्राइक्लोरोबेंजीन ।

3. डाइक्लोरोएथिलीन, ट्राइक्लोरोएथिलीन, टेट्राक्लोरोएथिलीन ।

4. विनाइल क्लोराइड, मेथिलीन क्लोराइड ।

Essay # 3. भौम जल प्रदूषण के मुख्य कारण (Main Causes of Ground Water Pollution):

भौम जल को प्रदूषित करने वाले प्रमुख तत्व निम्न हैं:

1. कुंओं में निपटान,

2. गड्ढों या खंदकों में रिसाव को एकत्र होने देना,

3. अपशिष्ट को रिसाव तालों में डालना,

4. भूमि-भराव के लिए अपशिष्ट का प्रयोग,

5. भू-पृष्ठ पर अपशिष्ट को फेंक देना या बहिःस्राव से सिंचाई करना ।

Essay # 4. भौम जल प्रदूषण के स्रोत एवं प्रमुख कारक (Sources and Major Factors of Ground Water Pollution):

प्रदूषण के स्रोतों तथा कारणों के अनुसार इसकी चार श्रेणियां निम्नवत हैं:

1. विविध स्रोत एवं प्रमुख कारक (Miscellaneous Sources and Major Factors):

तेलों के आवश्यक रूप से फैलने के कारण भी भौमजल काफी प्रभावित हो रहा है । औद्योगिक संयंत्रों के पास ठोस अपशिष्ट तथा कृषीय अपशिष्टों का अंबार लग जाता है । जब वर्षा होती है तो इनको भेदकर निकलनेवाले धोवन में भारी धातुएँ, लवण आदि प्रदूषक के रूप में भौम जल तक जा सकते हैं ।

शहरों के सेप्टिक तालों तथा सेसपूलों की भरमार है । घरों का मल-जल नीचे जाकर भौम जल में खनिजों के साथ-साथ बैक्टीरिया तथा वाइरस और पर्याप्त मात्रा में नाइट्रेट पहुँचा देता है । कहीं-कहीं मीठे जल पर खारी जल का आक्रमण हो सकता है, विशेषतया समुद्री तटों पर । कुंओं के जल से भी परस्पर आदान-प्रदान हो सकता है । सतही प्रदूषित जल से भी भौम जल प्रदूषण संभव है ।

2. कृषीय स्रोत एवं उसके प्रमुख कारक (Agricultural Sources and Key Factors):

कृषीय स्रोत एवं उसके प्रमुख कारक निम्न हैं:

(i) पेस्टीसाइड (Pesticide):

भौम जल में इनकी किंचित् मात्रा भी जल को प्रदूषित करती है । भौम जल में पेस्टीसाइड की मात्रा भूमि के गुणों, वर्षा की मात्रा तथा पेस्टीसाइड की किस्म पर निर्भर करेगी । प्राय: आर्गेनोफॉस्फोरस यौगिक तथा शाकनाशी भौम जल में पाए गए हैं । हालांकि भारत में अभी पेस्टीसाइड कम मात्रा में ही प्रयुक्त होते हैं ।

(ii) उर्वरक एवं सुधारक तत्व (Fertilizer and Correctional Elements):

सारे उर्वरकों का कुछ अंश मिट्टी में से होकर जल-स्तर में जा मिलता है । यद्यपि फॉस्फेट तथा पोटैशिक उर्वरकों से यह मात्रा नीचे कम जाती है किन्तु नाइट्रोजनी उर्वरकों नाइट्रेट के नीचे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । अम्लीय मृदाओं या ऊसर भूमियों के सुधार के लिए डाले जाने वाले चूने या गंधक तथा जिप्सम से भी पर्याप्त प्रदूषण हो सकता है ।

(iii) पशुओं के अपशिष्ट (Animal Waste):

विकसित देशों में गोबर के ढेर और प्राय: कसाई-घरों के आस-पास खून देखा जाता है । अत: भूमि में ये अपशिष्ट मिलते रहते हैं । गोबर की खाद का नाइट्रेट भी भौम जल में जा सकता है ।

जल प्रदूषण पशुओं के गोबर पर आधारित खादों की सहायता से उगाई जाने वाली फसलें (जैसे अन्न तथा चारा) जिनमें फॉसफोरस तथा नाइट्रोजन होता है, जिनका लगभग 95% वातावरण में नष्ट हो जाता है । तब प्रदूषक तत्व पौधों तथा जलीय जंतुओं के लिए मृत क्षेत्र बना देते हैं क्योंकि पानी में ऑक्सीजन का आभाव होता है ।

ऑक्सीजन के आभाव को यूट्रोफिकेशन के नाम से जाना जाता है, जिसमें जल में उपस्थित जीवधारी अत्यधिक बढ़ जाते हैं तथा उसके पश्चात ऑक्सीजन का प्रयोग करते हुए सड़ जाते हैं । इसका सबसे प्रमुख उदाहरण मैक्सिको की खाड़ी है, जहां उर्वरकों में मौजूद पोषक तत्वों के अत्यधिक उपयोग से वे मिसिसिपी नदी से होकर खाड़ी में पहुंच गए तथा वहां बहुत बड़े मृत क्षेत्र बन गए ।

अन्य प्रदूषक, हालांकि ये अधिक प्रचलित नहीं है, एंटीबायोटिक दवायें तथा हार्मोन हैं । दक्षिणी एशिया में जिन गिद्धों ने पशुधन के मृत शरीरों को खाते हैं, उनकी संख्या 95% तक कम हो गयी और इसका कारण डिक्लोफेनैक नामक एंटीबायोटिक थी ।

विकल्प ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने पशुधन की आंतों में कंगारू में पाया जाने वाला बैक्टीरिया प्रयोग करके उनमें मीथेन को कम करने का प्रयास किया है । अर्द्धशुष्क परिक्षेत्रों में, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका के ग्रेट प्लेन्स, में ऐसी शोध हुई हैं जिनसे यह पता लगता है कि घास के मैदानों के प्राकृतिक आवास को संरक्षित करने में पशुधन उपयोगी हो सकता है ।

पशुधन प्राकृतिक आवास का निर्माण तथा उनकी विलुप्त होती प्रजातियों को बनाये रखने में सहायक होते हैं । प्राय: सर्वेक्षण में यही पाया जाता है कि सिंचाई में प्रयुक्त जल का काफी अंश फसलें ग्रहण कर लेती हैं ।

शेष वाष्पीकृत हो जाता है । इससे बार-बार सिंचाई से लवणीयता बढ़ती है । उर्वरकों से भी लवण मिलते हैं । अत: वर्षा जल के कारण भौम जल में अधिक लवण मिलते हैं । इससे Ca, Mg, Na तथा HCO3, SO4– –, CI, NO3 में वृद्धि होती है ।

3. औद्योगिक स्रोत एवं उसके प्रमुख कारक (Industrial Sources and Key Factors):

औद्योगिक स्रोत से संबंधित प्रमुख तत्व निम्न हैं:

(i) द्रवीय तत्व (Liquefaction):

अवयवों के रूप में पाये जाने वाले पदार्थों को प्राय: द्रव्य कहा जाता है । किन्तु रसायन शास्त्र की दृष्टि से द्रव्य ऐसे पदार्थ हैं जिन्हें पुन: अन्य पदार्थों में तोड़ना किसी भी रासायनिक प्रक्रिया से संभव न हो । उदजन या हाइड्रोजन ऐसा ही एक द्रव्य है ।

कार्बन, नाइट्रोजन, गन्धक सल्फर अन्य कुछ द्रव्य हैं । उपकरणों व मशीनों को ठंडा करने तथा सफाई में जल का औद्योगिक महत्व है । अत: उद्योग की किस्म तथा उपयोग के अनुसार व्यर्थ जल की गुणवत्ता बदलती रहती है ।

शीतलन से जो जल प्राप्त होता है उसमें लवण तथा उष्मा मुख्य प्रदूषक के रूप में विद्यमान रहते हैं । जहाँ औद्योगिक व्यर्थ जल को तालों, गड्ढों में डाला जाता है जहाँ वे अपशिष्ट जल-स्तर से जा मिलते हैं । खतरनाक तथा विषैले औद्योगिक अपशिष्टों का निपटान गहरे अंत:क्षेपण कुंओं में किया जाता है ।

(ii) खनन (Mining):

कुछ प्राचीन नदियों में जो अवसाद एकत्रित हुए हैं उनमें कभी-कभी बहुमूल्य धातुएँ भी निक्षिप्त हो जाती है । इन अवसादों को तोड़कर धातुओं की प्राप्ति करना इस प्रकार के खनन के अंतर्गत आता है ।

कभी भी ये धातुएँ नदी की तलहटी में मिलती हैं ओर कई बार इनमें सोने जैसी बहुमूल्य धातुएँ पर्याप्त मात्रा में मिल जाती हैं । कुछ अवस्थाओं में ये अवसाद दूसरे नए अवसादों से ढक भी जाते हैं । तब उन्हें हटाकर धातुओं की प्राप्ति की जाती है ।

विशेष परिस्थितियों में ये धातुएँ संपीडित शैलों में भी एकत्रित हुई देखी गई हैं । प्रक्षालन निक्षेपों के खनन में विशेष रूप से इसे प्रयुक्त किया जाता है । ये शिलाएँ मलवा निर्मित होती हैं तथा इनके कणों का आकार भी भिन्न होता है ।

प्रक्षालन निक्षेपों के प्रमुख उपयोगी खनिज सोना, टिन, प्लैटिनम तथा विरल मिट्टियाँ हैं । शिलाओं में इन धातुओं की प्रतिशत मात्रा बहुत कम होती है । इस विधि में ऊँचे दबाव पर पानी बड़े वेग के साथ नॉजल से निकलता है और शिला पर टकराता है ।

पानी के टक्कर के फलस्वरूप शिला टूट जाती है तथा सूक्ष्म कणों में विच्छिन्न हो जाती है । पानी की धारा के साथ ये कण आगे चल देते हैं, जहाँ पानी स्लूस बक्सों जिनमें बाधक प्लेटें लगी रहती हैं, प्रवाहित किया जाता है ।

बाधक प्लेटों के समीप भारी धातुएँ एकत्रित हो जाती है तथा धातुकणों से विहिन पानी विच्छिन्न शिला को लिए आगे बह जाता है । जलोढ़ खनन विधि में जल की काफी आवश्यकता होती है । पानी का दबाव 50 से 600 फुट तक हो सकता है ।

खनन का मूल्य भी कम होता है, क्योंकि इसमें पानी से उत्पन्न शक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी शक्ति की आवश्यकता नहीं होती । इस प्रकार खनित पदार्थों की माप धन गजों में की जाती है ।

बड़े निक्षेपों के खनन में यांत्रिक साधनों का भी उपयोग किया जाता है तथा कभी-कभी इस विधि से 30 फुट मोटाई के निक्षेपों तक का खनन होता है । भारत में जलोढ़ खनन व्यवहार में नहीं है । कुछ क्षेत्रों में रेत छानकर तथा धोकर सोना आदि प्राप्त किया जाता है ।

बिहार में स्वर्णरेखा नदी के तट पर रहनेवाले निवासी इसी प्रकार सोने की प्राप्ति किया करते हैं । जलोढ़ खनन की एक अन्य विधि में एक विशेष प्रकार की यांत्रिक नौकाओं का भी उपयोग होता है ।

इन नौकाओं में घूमने वाली बाल्टियों की व्यवस्था रहती है, जो तलहटी से बालू को खरोंचकर नाव पर ला देती हैं । इस बालू के साथ ही अनेक अपघर्षी खनिज भी आ जाते हैं जिनको उपर्युक्त विधि द्वारा पृथक कर लिया जाता है ।

बर्मा और मलाया के टिन क्षेत्रों के प्रक्षापालन निक्षेपों के खनन में यही विधि प्रयुक्त की गई है । इस खनन में शक्ति की आवश्यकता तथा धन की लागत भी यथेष्ट पड़ती है । ये नौकाएं 20 फुट की गहराई तक की बालू खरोंच सकती हैं । इनमें प्रयुक्त बाल्टियों का समावेशन 1 1/2 से 14 घनफुट तक का होता है ।

(iii) टैंक तथा पाइप लाइन संबंधी लीकेज (Tank and Pipeline Leakages):

औद्योगिक प्रतिष्ठानों में अनेक रसायनों तथा ईंधनों का भंडारण भूमिगत होता है जिनसे लीकेज होता है और भौम जल प्रदूषण उत्पन्न होता है । पेट्रोलियम तथा पेट्रो-उत्पाद ऐसे प्रदूषण के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं ।

तेल प्राय: प्रवेश्य मिट्टी में से होकर नीचे बढ़ता जाता है और जल-स्तर को छू लेता है, फिर यह जल-स्तर की सतह पर तैरता हुआ भौम मल में चला जाता है । द्रव रेडियोएक्टिव तत्व भी इसी तरह से प्रदूषण उत्पन्न करते हैं ।

(iv) तेल क्षेत्रों का खारा जल (Saline Water of Oil Fields):

तेल तथा गैस के उत्पादन के साथ-साथ काफी मात्रा में खारी जल बाहर निकाला जाता है । खारे जल में सोडियम (Na), कैल्शियम (Ca), अमोनियम (NH4), बोरोन (B), क्लोनीन (Cl), सल्फेट (SO4) भारी धातुएँ तथा विलयित ठोस रहते हैं, पहले यह खारा जल सतह पर सूखने दिया जाता था किन्तु अब कुंओं के द्वारा काफी गहराई में डाल दिया जाता है जिससे मीठे पानी के स्रोत प्रभावित न हों ।

किन्तु फिर भी खारी जल के इस निपटान से भौम जल प्रदूषित हो सकता है । अत: खारे पानी के निपटान-प्रक्रिया भी परिवर्तन अनिवार्य है ।

4. म्युनिसिपल स्रोत तथा कारण (Municipal Sources and Causes):

म्युनिसिपल स्रोत से संबंधित प्रमुख तत्व निम्न हैं:

(i) जल को प्रदूषित करने वाले ठोस अपशिष्ट (Solid Waste Polluting Water):

जल भराव की भूमिजल के प्रदूषण का कारण बन जाता है । यदि भूमि-भराव के ऊपर गिरनेवाले वर्षा जल को कम कर दिया जाए तो प्रदूषण में कमी आ सकती है । यदि जल-स्तर उथला है तो भूमि-भराव समस्या उत्पन्न करता है ।

ऐसे जल में पाए जानेवाले मुख्य प्रदूषक हैं- BOD, COD, Fe, Mn, CI, NO3, कठोरता, लेश तत्व । मीथेन (CH4), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), अमोनिया (NH3), हाइड्रोजन सल्फाइड H2S आदि गैसें भी भूमि-भराव से उत्पन्न हो सकती है और जल के साथ मिली रह सकती हैं ।

(ii) द्रव अपशिष्ट (Liquid Waste):

व्यर्थ जल घरेलू उपयोग, उद्योग तथा बहकर आने वाले वर्षा जल से प्राप्त होता है । म्युनिसिपल व्यर्थ जल से भौम जल में बैक्टीरिया, वाइरस, अकार्बनिक तथा कार्बनिक रसायन मिल सकते हैं । औद्योगिक क्षेत्रों में भारी धातुएँ मिल सकती है ।

क्लोरीनीकरण से भी जल का प्रदूषण हो सकता है । कभी-कभी सतही व्यर्थ जल को उथले कुंओं में डाल दिया जाता है । ऐसे कुएँ यदि पंपिग कुंओं के पास हो तो सबसे अधिक खतरा रहता है ।

(iii) सीवरों का लीकेज (Sewer Leakage):

वृक्षों की जड़ों के दबाव, भूकम्प मिट्टी के खिसकने व बोझ बढ़ने से सीवर लीक हो जाता है जिससे रिसाव बाधित होता है । लीकेज के कारण BOD, COD, NO3, कार्बनिक यौगिक तथा जीवाणुओं का भौम जल में प्रवेश हो सकता है । औद्योगिक क्षेत्रों से आनेवाली सीवरों में भारी धातुएँ व्यर्थ जल में प्रविष्ट हो जाती हैं ।

उपर्युक्त स्रोतों तथा साधनों से भौम जल का जो प्रदूषण होता है उसमें घटत-बढ़त दोनों संभव है । किन्तु सामान्यतया मिट्टी में से प्रदूषकों के गुजरने से और भौम जल तक पहुँचने तक अधिकांश रोगजनक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, प्राय: 1 मीटर की गहराई तक जाते-जाते ये नष्ट हो जाते हैं ।

ऊपरी परत पर जमी गाद के कारण प्रदूषित जल सीधे नीचे तक नहीं पहुंच पाता, जिसके कारण भौम जल की सुरक्षा काफी सीमा तक बनी रहती है । भौम जल प्रदूषण वर्षों, दशाब्दियों तथा सदियों तक बना रह सकता है जबकि भू-पृष्ठ पर जल प्रदूषण जल्दी ही समाप्त हो जाता है ।

प्रदूषित भौम जल का सुधार कठिन कार्य है । यह खर्चीला भी है । प्रदूषण दूर करने के उपायों में सतही जल प्रदूषण को रोका जाय और भौम जल को बेधकर बाहर निकाल लिया जाए । साथ ही निरंतर भौम जल की गुणवत्ता का मानीटरन किया जाए ।

भौम जल अत्यंत मंद गति से नीचे की ओर बढ़ता है, अत: प्रदूषण को पहुंचने में 100 या 1,000 वर्ष लग सकते हैं । भौम जल में स्वत: वृद्धि के साधन नहीं हैं जो पृष्ठ जल में है, इसलिए प्रदूषक वर्षों तक बने रहते हैं । यदि एक बार प्रदूषण की पहचान कर ली जाए तो उसे दूर कर पाना असंभव है और यदि निकालकर उसे सुधारना चाहें तो काफी खर्चीला है ।