प्लेटो और उनकी राजनीतिक विचार | Plato and his Political Thought | Hindi!

1. न्याय का सिद्धांत (Principle of Justice):

ग्रीक राजनीतिक चिंतन के इतिहास में प्लेटो एक उच्चकोटि के आदर्शवादी राजनीतिक विचारक तथा नैतिकता के एक महान पुजारी थे । प्लेटो की न्याय धारणा में एथेन्स की तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक बुराइयों जिनमें लोकतंत्र के नाम पर धनिकतंत्र का प्रभाव एवं शक्ति राजनीति की उथल-पुथल की गम्भीर समस्याओं का आदर्शवादी समाधान है ।

चूँकि सुकरात की मृत्यु से प्लेटो का हृदय लोकतंत्र से भर गया था । अतः अपनी न्याय धारणा के आधर पर प्लेटो एक ऐसे शासनतंत्र की कल्पना करने लगा, जिसका संचालन श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा होता हो । न्याय क्या है ? यह प्लेटो की मुख्य समस्या रही है और इसी समस्या के समाधान के लिए 40 वर्ष की अवस्था में प्लेटो ने ‘The Republic’ की रचना की, जिसका उप-शीर्षक ‘Concerning Justice’ या ”न्याय के संबंध में है ।”

प्लेटो ने आदर्श राज्य का निर्माण ही एक निश्चित उद्देश्य से किया, और वह उद्देश्य एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना है, जिसमें सभी वैयक्तिक, सामाजिक व राजनीतिक संस्थाएं न्याय से अनुप्राणित हो ।

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इबन्व्हीन के अनुसार – “प्लोटो के न्याय संबंधी विवेचन में उसके राजनीतिक दर्शन के सभी तत्व सम्मिलित हैं ।”

‘रिपब्लिक’ में उसकी न्याय की खोज के दो रूप हो जाते हैं । पहला रूप उसका व्यक्तिगत न्याय का है और दूसरा रूप सामाजिक न्याय का । इस प्रसंग में प्लेटो ने आलोचक व दार्शनिक दोनों के ही रूप में कार्य किया है, क्योंकि अपने से पूर्ववर्ती विचारकों के न्याय संबंधी विचारों की आलोचना करते हुए उसने न्याय के अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया है ।

प्लेटो के अनुसार – न्याय, सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन की केन्द्रीय समस्या है । इसलिए प्लेटो उन झूठे विचारों को जिन्हें सर्वसाधारण की भूल से सोफिस्टों की शिक्षा ने कपटपूर्वक फैला रखा था, हटाकर सच्ची न्याय की स्थापना करता है । इसके लिए प्लेटो रिपब्लिक में वार्ता शैली के साथ-साथ निगमनात्मक पद्धति (Deductive Method) का प्रयोग करके सभी परम्परागत सिद्धांतों की तर्क के आधार पर आलोचना करता है ।

प्लेटो न्याय को केवल नियमों के पालन तक सीमित नहीं मानता था क्योंकि यह मानव आत्मा की अंतः प्रकृति पर आधारित है । यह दुर्बल के ऊपर सबल की विजय नहीं है क्योंकि यह तो दुर्बल की सबल से रक्षा करता है । प्लेटो के अनुसार एक न्यायोचित राज्य सभी की अच्छाई की ओर ध्यान रखकर प्राप्त किया जा सकता है ।

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एक न्यायोचित समाज में शासक, सैन्य वर्ग तथा उत्पादक वर्ग सभी वह करते है जो उन्हें करना चाहिए । इस प्रकार के समाज में शासक बुद्धिमान होते है, सैनिक बहादुर होते है और उत्पादक आत्मनियंत्रण या संयम का पालन करते हैं ।

‘न्याय’ प्लेटो की ‘Republic’ का प्रमुख वणर्य विषय है । ‘Republic’ का उपशीर्षक ही ‘Concerning Justice’ (न्याय के संबंध) है । प्लेटो के लिए न्याय एक नैतिक अवधारणा है । बेकर कहता है कि प्लेटो के लिए ”न्याय, एकदम से ही मानव सद्‌गुण का एक भाग है और वह बंधन है जो मनुष्य को राज्य से जोड़ता है । यह मनुष्य को अच्छा और सामाजिक इन्सान बनाता है ।”

सेबाइन भी ठीक इसी तरह का विचार व्यक्त करता है । उसका कहना है कि ”न्याय प्लेटो के लिए एक बंधन है जो समाज को एक साथ बाँध कर रखता है ।”

‘न्याय’ ग्रीक भाषा में प्रयुक्त शब्द ‘Dikaiosyne’ से मिलता है जिसका अर्थ ‘न्याय’ शब्द से कहीं अधिक व्यापक है । ‘Dikaiosyne’ का अर्थ है- न्यायोचित नीति-परायणता । इसीलिए प्लेटो की न्याय की धारणा को वैधानिक या अदालती (न्यायिक) नहीं माना जाता है और न ही इसे अधिकार और दायित्वों के क्षेत्र में लिया जाता है । यह कानून की सीमा के अंदर नहीं आती । यह वस्तुतः सामाजिक नीतिशास्त्र से संबंधित है ।

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प्लेटो की न्याय की धारणा की प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है:

1. न्याय नीतिपरायणता का ही दूसरा नाम है,

2. यह अधिकारों के उपभोग से कर्तव्यों का दायित्व वहन अधिक है,

3. यह व्यक्ति का उसकी अपनी योग्यताओं, क्षमताओं और सामर्थ्यानुसार समाज का योगदान है,

4. यह सामाजिक नैतिकता है, समाज के प्रति व्यक्ति का दायित्व है,

5. यह सामाजिक ताने-बाने की शक्ति है क्योंकि इसमें समाज की सभी प्रणालियाँ सम्मिलित होती हैं ।

पहले सुकरात के माध्यम से इन विचारों को व्यक्त करने से पूर्व प्लेटो ने उस समय विद्यमान न्याय के प्रचलित सिद्धांतों का खण्डन किया । उसने सिफेलस और उसके पुत्र पॉलिमार्कस के पारंपरिक नैतिकता के सिद्धांत पर दोषारोपण किया । इस सिद्धांत के अनुसार न्याय प्रत्येक व्यक्ति को उसका देय देना था या वह करना जो ठीक लगे (सिफेलस) या मित्रों के लिए अच्छा करना और शत्रुओं को हानि पहुँचाना (पालिमार्कस) ।

प्लेटो ने न्याय के पारंपरिक सिद्धांत की मान्यता को समझ लिया था जो मनुष्य को वह करने के लिए मजबूर करती थी जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती थी या न्याय एकता बनाने की क्रिया के रूप में लेकिन प्लेटो ने न्याय के कुछ के लिए अच्छे और कुछ के लिए बुरे होने का समर्थन नहीं किया । उसने कहा न्याय वह है जो सबके लिए अच्छा हो, देने वाले के लिए भी और लेने वाले के लिए भी, मित्र के साथ-2 शत्रु के लिए भी ।

प्लेटो ने थ्रेसीमेकस की न्याय की उस परिवर्तनवादी धारणा को भी अस्वीकृत कर दिया जिसके अनुसार न्याय सदैव शक्तिशाली के पक्ष में होता है । वह थ्रेसीमेकस से यहाँ तक सहमत था कि चूँकि शासक शासन की कला को जानता है, इसलिए उसे सारी शक्ति प्राप्त होती है किंतु वह इससे सहमत नहीं था कि शासक अपने हित के लिए शासन करता है ।

प्लेटो ने सुकरात के माध्यम से तर्क प्रस्तुत किया कि जूता बनाने वाला स्वयं अपने बनाए हुए सभी जूतों को नहीं पहनता, कृषक पैदा की हुई अपनी सारी फसल को नहीं खाता, उसी प्रकार शासक भी वही सारे नियम नहीं बनाता जिससे सिर्फ उसी को लाभ हो । प्लेटो थ्रेसीमेकस की इस बात से सहमत था कि न्याय एक कला है, और जो इस कला को जानता है वहीं कलाकार है और कोई नहीं ।

फिर भी, न्याय का एक और सिद्धांत है जिसका दो भाइयों-ग्लॉकॉन और एडीर्मैटस (जो प्लेटो के अपने भाड़ थे) द्वारा समर्थन किया गया । उनका सिद्धांत न्याय का एक परंपरागत सिद्धांत है और इसका समर्थन सुकरात ने भी किया था । ग्लॉकॉन का कहना था कि न्याय कमजोर के हित में है (यह थ्रेसीमेकस के मत के विपरीत था जिसके अनुसार न्याय शक्तिशाली के हित में है) और यह कृत्रिम है क्योंकि यह प्रथाओं और परम्पराओं से उत्पन्न हुआ है ।

ग्लॉकॉन कहता है कि – ”व्यक्ति अन्याय स्वतंत्रतापूर्वक और बिना बाधा के नहीं सहते लेकिन कमजोर, यह देखकर कि जितना अन्याय वह दूसरों के साथ कर सकता है उससे ज्यादा उसे सहना पड़ता है, दूसरों के साथ मिलकर न अन्याय करने ओर न अन्याय सहने का एक समझौता करता है और उस समझौते के अनुसरण में, वह नियम बनाता है जो बनने के बाद उनकी क्रियाओं के लिए मानक होते हैं और न्याय के लिए नियम संहिता ।”

प्लेटो ने पलकन के सिद्धांत की कमियों को समझा और इसीलिए उसने न्याय का, ग्लॉकॉन की इसके ‘कृत्रिम’ और परंपराओं एवं प्रथाओं से ‘उत्पन्न’ होने की धारणा के विरुद्ध, प्राकृतिक और सर्वव्यापी के रूप में वर्णन किया ।

प्लेटो ने सिफैलस, पॉलिमार्कस, थेसीमेकस, ग्लॉकॉन, एडीमैंटस तथा सुकरात जैसे पात्रों के बीच चर्चा के उपरांत जो न्याय का अपना सिद्धांत विकसित किया, वह निम्नलिखित है:

1. न्याय और कुछ नहीं बस यह सिद्धांत है कि व्यक्ति को केवल वही कार्य करने चाहिए जिसके लिए वह प्रकृति द्वारा उपयुक्त बनाया गया है । प्रकृति ने मनुष्य को तीन शासकों के अधीन रखा है- इच्छा (Desire) या तृष्णा (Appetite), भावना या मनोवेग (Emotion) और ज्ञान या बुद्धि (Knowledge or Intellect) ।

इच्छा का स्थान मनुष्य की कमर में है, भावना का स्थान हृदय में और ज्ञान का स्थान मस्तिष्क में है । वैसे ये सभी गुण सभी मनुष्यों में पाए जाते हैं, परंतु किसी मनुष्य में किसी गुण की प्रधानता रहती है, किसी में किसी और की ।

इस आधार पर प्लेटो ने समाज को 3 वर्गों में विभाजित किया है जिनमें इच्छा या तृष्णा की प्रधानता होती है, वे उद्योग-व्यापार को तत्पर होते हैं; जिनमें भावना की प्रधानता है, वे सैनिक या योद्धा का व्यवसाय अपनाते हैं और जो ज्ञान से संपन्न होते हैं वे दार्शनिक के रूप में ख्याति अर्जित करते हैं । यदि हम मनुष्य की प्रकृति के लिए उपयुक्त सदगुण निश्चित कर लें तो राज्य के लिए उपयुक्त सदगुण निर्धारित करना सुगम हो जाएगा ।

प्लेटो ने 4 मूल सद्‌गुणों (Cardinal Virtues) का विवरण दिया है । इच्छा या तृष्णा के लिए उपयुक्त सद्‌गुण संयम (Temperance) है । अतः उद्योग-व्यापार में संलग्न वर्ग को सदजीवन की प्राप्ति के लिए अपने अंदर संयम विकसित करना चाहिए ।

भावना या मनोवेग के लिए उपयुक्त सद्‌गुण साहस (Courage) है । अतः सैनिक वर्ग को सदजीवन बिताने के लिए अपने अंदर साहस विकसित करना चाहिए । ज्ञान के लिए उपयुक्त सद्‌गुण विवेक (Wisdom) है । दार्शनिक या बुद्धिजीवी वर्ग को इस गुण का विकास करना चाहिए ।

चौथा या अंतिम सद्‌गुण न्याय (Justice) है जो कि सर्वोच्च सद्‌गुण है । यह समस्त सद्‌गुणों के उपयुक्त संयोग का सूचक है, अर्थात् व्यक्ति के संदर्भ में न्याय से तात्पर्य यह है कि तृष्णा को साहस का सबल मिल जाए और विवेक से मार्गदर्शन प्राप्त हो ।

2. न्याय का अर्थ विशेषज्ञता और उत्कृष्टता है ।

3. न्याय व्यक्तियों को समाज में रहने में सहायता करता है । यह एक बंधन है जो समाज को एक साथ रखता है । यह व्यक्तियों का एवं राज्य के विभिन्न वर्गों का एक व्यवस्थित संगठन है ।

4. न्याय सार्वजनिक एवं निजी सदगुण दोनों है । इसका लक्ष्य व्यक्ति का तथा सारे समाज का लाभ करना होता है ।

प्लेटो का न्याय का सिद्धांत श्रम विभाजन, विशेषज्ञता और कार्यकुशलता की ओर ले जाता है । उसकी न्याय की धारणा में एक सामाजिक अच्छाई, एक निजी और सार्वजनिक नैतिकता और नैतिक निर्देश निहित हैं । फिर भी प्लेटो का न्याय-सिद्धांत इस अर्थ में एकदलीय है क्योंकि यह व्यक्ति को सत्ता के अधीन रखता है ।

2. शिक्षा की योजना (Education Plan):

प्लेटो की ‘Republic’ केवल सरकार के सम्बन्ध में लिखी गई पुस्तक नहीं है, जैसा कि रूसो कहता है यह शिक्षाशास्त्र का प्रबंध ग्रंथ है । उसके सारे दर्शन का सार, जैसा कि ‘रिपब्लिक’ में बताया गया है, प्राचीन यूनानी समाज में (सुधार राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक के साथ-साथ नैतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक) लाना था ।

रिपब्लिक का उद्देश्य न्याय का पता लगाना और तत्पश्चात् एक आदर्श राज्य में उसकी स्थापना करना था । उसकी शिक्षा नीति इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए थी । प्लेटो के लिए सामाजिक शिक्षा सामाजिक न्याय का एक साधन थी । इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि प्लेटो के लिए शिक्षा सभी परेशान करने वाले प्रश्नों का समाधान थी । शिक्षा, जैसा कि क्लाउस्टीट हमें बताता है, नैतिक सुधारों के लिए एक साधन थी ।

प्लेटो की शिक्षा का सिद्धांत बुराई को उसके उद्‌गम पर ही छूने का प्रयास है । यह एक मानसिक रोग का एक मानसिक औषधि से इलाज करने का प्रयास है । बार्कर ठीक ही कहता है कि प्लेटो की शिक्षा योजना आत्मा को उस वातावरण में ले आती है जो उसकी प्रगति के प्रत्येक स्तर पर उसके लिए सबसे उपयुक्तता है ।

प्लेटो की शिक्षा का सिद्धांत उसके राजनीतिक सिद्धांत के लिए भी महत्वपूर्ण है । अपने गुरु सुकरात का अनुसरण करते हुए प्लेटो का इस सिद्धांत में विश्वास था कि सदगुण ही ज्ञान है । (Virtue is Knowledge) और लोगों को सद्‌गुणी बनाने के लिए उसने शिक्षा को एक बहुत शक्तिशाली साधन बनाया ।

प्लेटो का यह भी विश्वास था कि शिक्षा मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है और इसलिए व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए, उसकी प्राकृतिक क्षमताओं को बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक है । बार्कर प्लेटो की तरफ से बोलते हुए कहता है कि शिक्षा सामाजिक नीति-परायणता का एक रास्ता है न कि सामाजिक सफलता का, यह सच्चाई तक पहुँचने का एक रास्ता है ।

प्लेटो कहता है कि शिक्षा समाज में सभी वर्गों के लिए आवश्यक थी, लेकिन यह विशेष रूप से उनके लिए जरूरी थी जो लोगों को शासित करते हैं ।

प्लेटो, अपनी शिक्षा के प्रस्तावित कार्यक्रम में कुछ बातों को मानकर चला है:

1. आत्मा स्वतः प्रेरित और क्रियाशील होने के कारण शिक्षा के माध्यम से अपने आपको प्रकट करती है, उसमें अविकसित अच्छाइयों को दिखाती है ।

2. शिक्षा अध्ययनरत् नवयुवक के चरित्र को तराशती है, यह अंधे को आँख तो नहीं देती लेकिन अस्त्रों वाले व्यक्ति को कल्पनाशक्ति अवश्य देती है । यह आत्मा को प्रकाश के क्षेत्र में लाती है तथा मनुष्य को सक्रिय और पुन: सक्रिय बनाती है ।

3. शिक्षा के प्रत्येक स्तर का एक पूर्व-निर्धारित कार्य होता है । प्रारम्भिक शिक्षा मनुष्य की अपनी शक्तियों को दिशा देने में सहायता करती है । मध्यम स्तर की शिक्षा व्यक्ति को अपनी आसपास की स्थितियों को समझने में सहायता करती है और उच्च शिक्षा व्यक्ति की शिक्षा की तैयारी, उसे निश्चित करने और उसकी दिशा निर्धारित करने में सहायता करती है ।

4. शिक्षा व्यक्ति को उसके जीविकोपार्जन में तथा अच्छा व्यक्ति बनने में सहायता प्रदान करती है ।

प्लेटो शिक्षा को एक वाणिज्यिक उद्यम नहीं बनाना चाहता था । सेबाइन के अनुसार, प्लेटो चाहता था कि शिक्षा अपनी आवश्यकताओं के लिए स्वतः साधन उपलब्ध कराए यह देखे कि नागरिकों को वास्तव में वह प्रशिक्षण मिले जिसकी उन्हें आवश्यकता है और यह निश्चित करें कि दी जाने वाली शिक्षा राज्य के कल्याण एवं सामजस्य के लिए संगत हो ।

प्लेटो की शिक्षा की योजना पर एथेंस और स्पार्टा दोनों राज्यों का प्रभाव था । सेबाइन ने लिखा है कि ‘इसकी स्पार्टा जैसी वास्तविक विशिष्टता थी, शिक्षा का केवल नागरिक संबंधी प्रशिक्षण को समर्पित होना किंतु इसकी विषय-वस्तु बिल्कुल एथेंस जैसी थी और इसका उद्देश्य प्रमुख रूप से नैतिक और बौद्धिक गुणों का विकास करना था ।

प्रारंभिक शिक्षा का पाठ्‌यक्रम दो भागों में विभाजित किया गया था- शरीर के प्रशिक्षण के लिए व्यायाम संबंधी और मस्तिष्क के प्रशिक्षण के लिए संगीत । प्रारंभिक शिक्षा समाज के सभी तीनों वर्गों को दी जानी थी किंतु 20 वर्ष की अवस्था के बाद जिन लोगों का उच्च शिक्षा के लिए चयन होता था वे वह लोग थे जिन्हें संरक्षक वर्ग में 20 से 35 वर्ष की आयु के बीच उच्च पदों पर कार्य करना था । संरक्षक वर्ग के अंतर्गत सहायक तथा शासक दोनों आते थे ।

इन दोनों वर्गों को व्यायाम तथा संगीत संबंधी शिक्षा अधिक दी जाती थी । व्यायाम सम्बन्धी अधिक शिक्षा सहायक वर्ग को दी जाती थी तथा संगीत सम्बन्धी अधिक शिक्षा शासक वर्ग को । इन दोनों वर्गों को उच्च शिक्षा व्यावसायिक उद्देश्य से दी जाती थी और उनकी पाठ्‌य-सामग्री के लिए प्लेटो ने केवल वैज्ञानिक अध्ययन-गणित, खगोल विज्ञान और तर्कशास्त्र को ही चुना था ।

दोनों वर्गों द्वारा अपना-अपना काम शुरू करने से पहले, प्लेटो ने उनके लिए लगभग 50 वर्ष की आयु तक के लिए और शिक्षा दिए जाने का सुझाव दिया जो अधिकतम प्रायोगिक शिखा थी ।

निष्कर्षत: प्लेटो की शिक्षा की योजना में निम्नलिखित विशेषताएँ थी:

1. उसकी शिक्षा की योजना संरक्षक वर्ग के लिए थी । उसने उत्पादक वर्ग पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया था ।

2. उसकी पूरी शिक्षा योजना राज्य द्वारा नियंत्रित थी तथा इसका उद्देश्य मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और नैतिक विकास था ।

3. यह तीन चरणों को मिलाकर बनी थी- प्राथमिक 6 से 20 वर्ष की आयु में, उच्च 20 से 35 वर्ष की आयु में तथा प्रायोगिक शिक्षा 35 से 50 वर्ष की आयु तक ।

4. इसका उद्देश्य शासकों को प्रशासनिक राज-कौशल सिखाना, सैनिकों को सैन्य-कौशल सिखाना तथा उत्पादकों को भौतिक वस्तुओं के उत्पादन-कौशल सिखाना था और अन्ततः इसके द्वारा व्यक्तिगत और सामाजिक आवश्यकताओं में संतुलन लाने का प्रयास किया गया ।

प्लेटो की शिक्षा योजना गैर-लोकतांत्रिक तरीके से बनाई गई थी क्योंकि इसमें उत्पादक वर्ग को अनदेखा किया गया था । यह अपने स्वरूप में सीमित थी तथा अपने विस्तार में प्रतिबंधात्मक थी क्योंकि इसमें गणित पर साहित्य की अपेक्षा अधिक बल दिया गया था ।

यह एक गैर-व्यक्तिवादी योजना थी क्योंकि इसमें व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया तथा उसकी स्वायत्तता को बाधित किया गया था । यह बहुत ही गूढ़ तथा अमूर्त और इतनी अधिक सैद्धांतिक थी कि इसके कारण यह प्रशासनिक बारीकियों से भी दूर हो गई ।

3. संपत्ति और पत्नियों का साम्यवाद (Communism of Property and Wives):

प्लेटो ने संरक्षक वर्ग को, अर्थात् शासक और सहायक वर्ग को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के उद्देश्य से उनके लिए एक विशेष जीवन-पद्धति की व्यवस्था की है, जिसे सम्पत्ति और पत्नियों का साम्यवाद (Communism of Property and Wives) कहा जाता है ।

प्लेटो का कहना था कि न्याय तभी लाया जा सकता है यदि संरक्षक संपत्ति न रखें क्योंकि संपत्ति एक प्रकार की भूख का प्रतिनिधित्व करती है और संपत्ति को न रखना परिवारों के साम्यवाद की माँग करता है । जैसा कि बार्कर प्लेटो के लिए लिखता है, ”संरक्षकों के बीच पारिवारिक जीवन को समाप्त करना, इस प्रकार, उनके निजी संपत्ति के त्याग करने का आवश्यक उपसिद्धांत है ।”

डनिंग के मतानुसार – ”चूंकि निजी सम्पत्ति और पारिवारिक सम्बन्ध प्रत्येक समुदाय में असहमति के प्रमुख स्रोत के रूप में दिखाई देते हैं, अतः दोनों में से किसी को भी आदर्श राज्य में मान्यता नहीं मिल सकती ।”

सेबाइन के मतानुसार – ”प्लेटो इतने दृढ़ रूप से सरकार पर संपत्ति के होने वाले अहितकर प्रभावों के प्रति आश्वस्त था कि उसे इस बुराई को दूर करने के लिए संपत्ति को ही समाप्त करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया ।”

यही बात प्लेटो के परिवारों की समाप्त करने के उद्देश्य में भी देखी जा सकती है क्योंकि संपत्ति के बाद पारिवारिक बंधन ही वह समर्थ कारण हो सकता था जो शासकों की राज्य के प्रति निष्ठा को डगमगा सकता था ।

सेबाइन ने प्लेटो की ओर से निष्कर्ष निकाला है कि – ”अपने बच्चों के लिए दुश्चिंता अपने आप को प्राप्त करने का ही एक तरीका है, जो संपत्ति की इच्छा से भी अधिक विश्वासघाती है ।” प्लेटो के साम्यवाद के सिद्धांत को बहुत संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह दो स्वरूप लेता है ।

रोबाइन का कहना है कि – ”पहला है शासकों और सहायकों के लिए निजी संपत्ति का निषेध करना और दूसरा एक स्थाई एवं एक पत्नीक यौन सम्बन्ध के व्यवहार को समाप्त करके उसके स्थान पर सर्वोत्तम संभव संतान प्राप्ति के लिए शासक के आदेश पर नियंत्रित प्रजनन करना ।”

यह दो प्रकार के साम्यवाद शासकों और सहायकों पर लागू किए गए है जिन्हें प्लेटो संरक्षक (Guardian) कहता है । वह कहता है कि प्लेटो का संपत्ति और परिवारों के साम्यवाद के समर्थन के लिए तर्क यह था कि राज्य की एकता इन दोनों की समाप्ति की माँग करती है ।

”राज्य की एकता सुरक्षित रखने में है, परिवार और संपत्ति उसके मार्ग में बाधक है । इसलिए संपत्ति और विवाह को समाप्त करना होगा ।”

प्रोफेसर जसजी तथा मैक्सी ने प्लेटो और मार्क्स के साम्यकद में समानताएं उजागर करने का प्रयास किया है किंतु दोनों के साम्यवाद में तुलना करना गलत है । प्लेटो के साम्यवाद का एक राजनीतिक उद्देश्य है- एक राजनीतिक बीमारी का एक आर्थिक समाधान ।

जबकि मार्क्स के साम्यवाद का एक आर्थिक उद्देश्य है- एक आर्थिक बीमारी का एक राजनीतिक समाधान । प्लेटो का साम्यवाद केवल दो वर्गों तक ही सीमित है जबकि मार्क्स का साम्यवाद पूरे समाज पर लागू होता है । प्लेटो के साम्यवाद का आधार भौतिक प्रलोभन है और इसकी प्रकृति वैयक्तिक है जबकि मार्क्स का आधार सामाजिक बुराइयों की वृद्धि है, जिसका परिणाम निजी संपत्ति का संग्रहण होता है ।

प्लेटो के अपने पत्नियों और संपत्ति के साम्यवाद की योजना प्रस्तुत करने के कारण थे-राजनीतिक सत्ता का प्रयोग करने वालों के कोई आर्थिक प्रयोजन नहीं होने चाहिए और आर्थिक गतिविधियों में लगे लोगों की राजनीतिक शक्ति में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए । प्लेटो ने इसे स्पार्टा के सफल प्रयोग से सीखा था ।

प्लेटो के पत्नियों के साम्यवाद के सम्बन्ध में बार्कर उसके तर्कों को प्रस्तुत करते हुए कहता है ”प्लेटो की योजना के कई पहलू और कई उद्देश्य थे । यह एक सुजनन की योजना थी । यह महिलाओं के उद्धार की एक योजना थी, यह परिवार के राष्ट्रीयकरण की एक योजना थी । इसका उद्देश्य अच्छे मनुष्य प्राप्त करना, महिलाओं के लिए अधिक स्वतंत्रता और पुरुषों के लिए उनकी उच्चतम क्षमताओं का विकास था जिससे उनमें और विशेष रूप से राज्य के शासकों में राष्ट्र के लिए अधिक समर्पित और जाग्रत निष्ठा रहे ।”

प्लेटो की साम्यवादी योजना की उसके अनुंयायियों से लेकर कर्ज पीपर तक कई लोगों द्वारा निंदा की गई है ।

इनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:

(i) यह संदेहास्पद है कि परिवारों के साम्यवाद से अर्थात् संरक्षकों के लिए संयुक्त परिवार होने से अधिक एकता आएगी ।

(ii) अरस्तू का कहना है कि पत्नियों का साम्यवाद यदि अव्यवस्था नहीं भी लाएगा तो भी अस्त-व्यस्तता को उत्पन्न करेगा ही क्योंकि एक महिला सभी संरक्षकों की पत्नी होगी और एक ही पुरुष सभी महिलाओं का पति होगा । अरस्तू के ही शब्दों में एक पिता के हजारों बेटे होंगे और एक बेटे के हजारों पिता ।

(iii) साझे बच्चों की देखभाल पर भी पूरा ध्यान नहीं दिया जा सकेगा क्योंकि प्रत्येक का बालक किसी का भी बच्चा नहीं होगा ।

(iv) यह भी संदेहपूर्ण है कि राज्य द्वारा नियंत्रित जोड़े बनाना कभी भी कारगर सिद्ध हो सकेगा । यह स्त्री-पुरुष को पशु के दर्जे तक ले जा सकता है क्योंकि इसमें अस्थाई दाम्पत्य संबंध होंगे ।

(v) साम्यवाद की पूरी योजना ही बहुत कठोर, नियमनिष्ठ और बाध्य करने वाली है ।

(vi) प्लेटो का साम्यवाद का सिद्धांत बहुत ही आदर्शवादी, कपोल-कल्पना आधारित तथा अयथार्थवादी है । इसलिए यह जीवन की वास्तविकताओं से बहुत दूर हैं ।

4. प्लेटो का आदर्श राज्य (Plato’s Ideal State):

प्लेटो के काल में यूनान में जो राजनीतिक अराजकता व्याप्त थी, उसी की प्रतिक्रिया-स्वरूप उसने एक ‘आदर्श राज्य’ (Ideal State) की कल्पना कर उसे अपनी पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में प्रस्तुत किया । प्लेटो का ‘आदर्श राज्य’ आने वाले सभी समय और स्थानों के लिए एक आदर्श का प्रस्तुतीकरण है । उसने ‘आदर्श राज्य’ की कल्पना करते समय उसकी व्यावहारिकता की उपेक्षा की है ।

यद्यपि प्लेटो के विचारों में व्यावहारिकता की कमी है, लेकिन हमें उस पृष्ठभूमि को नहीं भूलना चाहिए, जिसने उसके मस्तिष्क में ‘आदर्श राज्य’ की कल्पना जाग्रत की । अपने देश में व्याप्त तत्कालीन दोषों को देखकर ही उनको दूर करने के लिए उसने ‘आदर्श राज्य’ की रूपरेखा तैयार की और वह राजनीति से दर्शन की ओर उन्मुख हुआ । उसने राज्य के लिए यह आवश्यक समझा कि शासन का अधिकार केवल ज्ञानी दार्शनिकों को ही होना चाहिए जिन्हें ‘अच्छे’ या ‘शुभ’ का विस्तृत ज्ञान है ।

राज्य और व्यक्ति का सम्बन्ध (State and Person Relations):

प्लेटो का मानना है कि राज्य अतः मनुष्य की आत्मा का बाह्य स्वरूप है अर्थात् आत्मा (चेतना) अपने पूर्ण रूप से जब बाहर प्रकट होती है तो वह राज्य का स्वरूप धारण कर लेती है । राज्य व्यक्ति की विशेषताओं का विराट रूप है । व्यक्ति की संस्थाएँ उसके विचार का संस्थागत स्वरूप हैं ।

उदाहरण के लिए राज्य के कानून व्यक्ति के विचारों से उत्पन्न होते हैं, न्याय उनके विचार से ही उद्‌भूत है । ये विचार ही विधि-संहिताओं और न्यायालयों के रूप में मूर्तिमान होते हैं ।

प्लेटो ने यह बतलाया है कि मनुष्य की आत्मा में 3 तत्व होते हैं- विवेक (Reason), उत्साह (Spirit) और क्षुधा (Appetite) । क्षुधा तत्व के कारण व्यक्ति में राग, द्वेष, वासना, आदि उत्पन्न होते हैं । विवेक अथवा बुद्धि तत्व के कारण मनुष्य ज्ञान प्राप्त करना चाहता है और उसके द्वारा अपने वातावरण को समझाता है ।

इन दोनों तत्वों के बीच में साहस अथवा उत्साह का तत्व है । महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्द्धा की भावनाएँ इसी से उत्पन्न होती हैं । प्लेटो ने इसे बुद्धि या विवेक का सहगामी कहा है ।

प्लेटो का कहना है कि मानवीय आत्मा में पाए जाने वाले ये तीनों गुण अथवा तत्व राज्य में भी पाए जाते हैं । इन्हीं के आधार पर राज्य का निर्माण होता है । जिस प्रकार व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले सारे कार्य आत्मा से प्रेरणा लेते हैं उसी प्रकार राज्य के सभी कार्यों का उद्‌भव उन्हें निर्मित करने वाले मनुष्यों की आत्माओं से होता है ।

प्लेटो के शब्दों में – ”राज्यों का जन्म वृक्षों या चट्टानों से नहीं अपितु उसमें बसने वाले व्यक्तियों के चरित्रों से होता है ।” वीर व्यक्तियों का राज्य भी वीर होगा और नपुंसकों का नपुंसक । जिस राज्य के नागरिक ही नैतिक दृष्टि से गिरे हुए हैं, वह राज्य नैतिक दृष्टि से पूर्ण नहीं हो सकता । व्यक्ति तथा राज्य की वीरता या नपुंसकता एक ही चेतनता में निवास करती है जिसमें भेद नहीं किया जा सकता ।

दार्शनिक राजाओं का शासन (The Rule of Philosophical Kings):

दार्शनिक राजा के शासन का सिद्धांत प्लेटो का एक प्रमुख और मौलिक सिद्धांत है । उसकी धारणा थी आदर्श राज्य में शासक-वर्ग परम बुद्धिमान व्यक्तियों का होना चाहिए । उसकी यह धारणा उसके न्याय, शिक्षा, आदि सिद्धान्तों का स्वाभाविक परिणाम है ।

शासन की इस धारणा का प्रतिपादन हमें प्लेटो के इस अवतरण में मिलता है- ”जब तक दार्शनिक राजा नहीं होते अथवा इस संसार के राजाओं में दार्शनिकता नहीं आ जाती और राजनीतिक महानता तथा बुद्धिमता एक ही व्यक्ति में नहीं मिलती और वे साधारण मनुष्य, जो इनमें से केवल एक गुण को (दूसरों की पूर्ण रूप से अवहेलना करते हुए) प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं, अलग हट जाने के लिए विवश नहीं कर दिए जाते, तब तक नगर-राज्य बुराइयों से मुक्त नहीं हो सकते ।”

प्लेटो के मतानुसार – ”सैनिक वर्ग के लोगों में सामान्यतः उत्साह तथा विवेक दोनों पाए जाते हैं, किन्तु इनमें से कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिनमें उत्साह की अपेक्षा विवेक अधिक पाया जाता है । ऐसे लोगों को प्लेटो ने आदर्श राज्य का दार्शनिक शासक माना है ।”

बार्कर के शब्दों में – ”संरक्षक वर्ग दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, सैनिक संरक्षक (सहायक वर्ग) और दार्शनिक संरक्षक (शासक वर्ग) ।” प्लेटो ने विवेक के दो गुण माने हैं, प्रथम, विवेक से व्यक्ति को ज्ञान होता है । द्वितीय विवेक ही व्यक्ति को प्रेम करना सिखाता है ।

अतः प्लेटो के अनुसार शासक को विवेकशील होना चाहिए और उसमें पर्याप्त स्नेहशीलता की भावना भी होनी चाहिए । प्लेटो का दार्शनिक न केवल विवेकी और स्नेहशील है बल्कि साम्यवाद की व्यवस्था के कारण कंचन और कामिनी के व्यक्तिगत मोह से मुक्त वीतराग, निःस्वार्थ और कर्तव्यपरायण व्यक्ति है जिसके शासन में संसार के कष्टों का अंत हो सकता है ।

राज्य का निर्माण करने वाले तीनों वर्गों में दार्शनिक शासन का स्थान सर्वोच्च है क्योंकि वही राज्य के लोगों को एकता के सूत्र में बाँधे रख सकता है और उन्हें परस्पर स्नेह करना सिखा सकता है । उसमें सुंदर आत्मा के सभी गुण है । वह मृत्यु से नहीं डरता । उसे न्याय, सौन्दर्य, संयम तथा परम संत के विचार तथा मानवीय जीवन के अंतिम प्रयोजन का ज्ञान शिक्षा पद्धति द्वारा होता है ।

प्लेटो के विचार से मनुष्य की चिंताओं और कष्टों का कारण यह है कि उसके मार्ग-दर्शक और नेता अज्ञानी होते हैं । ”राज्य रूपी नौका को खेने के लिए ज्ञानी, कुशल और निःस्वार्थ नाविक की आवश्यकता है जो शासन चलाने योग्य हो, आकर्षणों से अविचलित रहे, यह जानता हो कि वास्तविक सुख क्या है और श्रेष्ठ जीवन का क्या तात्पर्य है । ऐसा शासक एक दार्शनिक व्यक्ति ही हो सकता है ।”

‘रिपब्लिक’ में वर्णित आदर्श राज्य में सरकार नियमों द्वारा न होकर दार्शनिक शासकों द्वारा निर्मित होगी । राज्य में सर्वाधिक महत्व दार्शनिक शासक को मिला है । उस पर कानून आदि का बंधन नहीं है । वह राज्य की आत्मा के ‘विवेक’ गुण से संचालित होता है । उसे ‘शुभ’ का ज्ञान है, अतः वह कानून के नियंत्रण से मुक्त है और केवल अपनी अंतः प्रेरणा के प्रति उत्तरदायी है ।

ऐसे दार्शनिक शासक को प्लेटो आदर्श राज्य की बागडोर सौंपना चाहता है । वह दार्शनिक शासक के कार्य में किंचित मात्र भी रूकावट नहीं डालना चाहता । उसके मतानुसार इस राज्य के लिए कानून आवश्यक नहीं, अपितु हानिकारक भी है । दार्शनिक शासक के हाथ-पैर कानून की बेडियों में जकड़ देने से आदर्श राज्य के नागरिकों का अहित होगा ।

प्लेटो तर्क प्रस्तुत करता है कि जिस प्रकार अच्छे चिकित्सक को चिकित्सा- शास्त्र की पुस्तकों से अपना उपचार-पत्र (Prescription) बनाने को बाध्य करना उचित नहीं होगा । कानून प्राकृतिक न होकर रूढ़िगत है । रूढिजन्य कानून को एक सर्वज्ञाता एवं शासन विशेषज्ञ पर थोपना उचित नहीं है । इस प्रकार प्लेटो का दार्शनिक राजा निरंकुश हो गया है ।

बार्कर ने दार्शनिक राजा की चार मर्यादाएँ बताई हैं:

1. राजा राज्य का आकार इतना न बढ़ने दे कि व्यवस्था रखना कठिन हो जाए और न आकार इतना छोटा होने दे कि नागरिकों को आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कठिनाई अनुभव हो ।

2. उसे अपने राज्य में बहुत अधिक सम्पन्नता या निर्धनता नहीं बढ़ने देनी चाहिए क्योंकि इससे समाज में कलह, संघर्ष एवं अपराध बढ़ता है । धन आलस्य और भोगवृति पैदा करके राज्य की एकता समाज करता है ।

3. ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपना व्यवसाय सुचारू रूप से जारी रखे ।

4. वह शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन न करे क्योंकि ”जब संगीत की तानें बदलती हैं तो उनके साथ राज्य के नियम भी बदल जाते हैं ।”

आदर्श राज्य और दार्शनिक राजा की आलोचना:

प्लेटो के आदर्श राज्य और दार्शनिक राजा की अवधारणा की कटु आलोचना की गई है जो मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं:

(i) आदर्श राज्य की धारणा काल्पनिक और अव्यावहारिक है । प्लेटो ने बाद में स्वयं अनुभव किया था कि आदर्श राज्य पृथ्वी पर संभव नहीं है ।

(ii) मानवीय आत्मा के तीन तत्वों के आधार पर राज्य के नागरिकों का वर्ग-विभाजन करना वास्तविकता की अवहेलना करना है । व्यक्ति और राज्य में इस तरह की अभेदता स्थापित करके उसने नैतिकता और राजनीति का विचित्र सम्मिश्रण कर दिया है ।

(iii) आदर्श राज्य का वर्ग विभाजन न तो स्वाभाविक है और न वैज्ञानिक ही । यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य में केवल तीन प्रवृतियाँ हों । वह एक साथ ही वासना-प्रधान, साहस-प्रधान और बुद्धि-प्रधान भी हो सकता है, वह एक अच्छा विजेता भी हो सकता है और साथ ही उतना अच्छा शासक भी । यह भी जरूरी नहीं कि एक ही प्रवृति का आधिक्य मनुष्य में जीवन भर बना रहे । इस तरह प्लेटो का वर्ग-विभाजन अस्वाभाविक, अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है ।

(iv) आदर्श राज्य में उत्पादक वर्ग की उपेक्षा की गई है । उसे दासों के समान बना दिया गया है । इसे न्यायपूर्ण योजना नहीं कहा जा सकता ।

(v) न्याय सिद्धांत दोषपूर्ण और एकांगी है । उसमें कर्तव्यों को गिनाया गया है और अधिकारों की उपेक्षा की गई है । एक ओर कहा गया है कि न्याय के अनुसार सभी वर्ग अपना-अपना कार्य करेंगे और कोई किसी अन्य के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा । दूसरी ओर यह माना है कि शासक वर्ग शांति और व्यवस्था के लिए उत्पादक-वर्ग के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है ।

(vi) साम्यवादी व्यवस्था मानव समाज के मूल तत्वों और मानव-स्वभाव के विपरीत है । वह समाज के लिए अहितकर है । यदि सम्पत्ति और परिवार मनुष्य को पथभ्रष्ट करते हैं तो क्या वे उत्पादक-वर्ग को विचलित नहीं करेंगे । इसी प्रकार अभिभावक-वर्ग के लिए पत्नियों के साम्यवाद की व्यवस्था करके वह स्त्रियों की कोमल भावनाओं और परिवार के पवित्र संबंधों का निरादर करता है ।

(vii) शिक्षा को राजकीय नियंत्रण में रखने से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता है ।

(viii) प्लेटो अपने राज्य में कानून की आवश्यकता नहीं मानता । व्यवहार के उचित नियमों का निर्धारण किए बिना किसी भी राज्य में न तो व्यवस्था रह सकती है और न शांति ही । इस दोष का अनुभव प्लेटो ने स्वयं किया, इसलिए उपादर्श राज्य में कानून को ही शासन का आधार बनाया ।

(ix) प्लेटो ने दार्शनिक शासक को अमर्यादित अधिकार देकर निरंकुश शासन का समर्थन किया है । उसने नागरिकों से विचार एवं भाषण की स्वतंत्रता छीन कर उनकी स्वतंत्रता की उपेक्षा की है ।

(x) अत्यधिक चिंतन और दर्शन के अध्ययन से शासक प्रायः झक्की और सनकी हो जाते हैं । वे व्यवहार शून्य होकर शासन के अयोग्य हो जाते हैं । अतः यह भय निराधार नहीं है कि प्लेटो का दार्शनिक शासक सनकी बन जाएगा ।

(xi) दार्शनिक राजा स्वयं को सर्वगुण-सम्पन्न मानकर जनता से परामर्श नहीं लेता । इसमें जनता की मनोवृत्ति और आकांक्षाओं को समझने की प्रवृत्ति नहीं होती । अपने विचारों और सुधारों के उत्साह में क्रांतिकारी परिवर्तनों को प्रस्तावित करके यह समाज में विक्षोभ और अशांति उत्पन्न कर देगा ।

जोवेट के शब्दों में, ”दार्शनिक राजा दूरदर्शी होता है या अतीत की ओर देखता है, वर्तमान से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता ।” प्लेटो स्वयं प्रयत्न करके भी सिराक्यूज के डायोनिसियस को दार्शनिक राजा नहीं बना सका । अतः व्यवहार में दार्शनिक राजा के सिद्धांत को साकार करना कठिन है ।

आदर्श राज्य के मूलभूत सिद्धांत:

(i) न्याय ।

(ii) राज्य व्यक्ति का वृहत् रूप है ।

(iii) विशेष कार्य का सिद्धांत ।

(iv) शिक्षा ।

(v) नागरिकों के तीन वर्ग ।

(vi) दार्शनिक राजा का शासन ।

(vii) साम्यवाद ।

(viii) नर-नारियों का समान अधिकार ।

(ix) राज्य का लक्ष्य विशुद्र आध्यात्मिक और नैतिक ।

दार्शनिक राजा की अवधारणा में मौलिक सत्य:

फोस्टर का कथन है कि – ”प्लेटो के सम्पूर्ण राजनीतिक विचार में दार्शनिक राजा की अवधारणा मौलिक है ।” उसके सिद्धांत में निःसन्देह एक आधारभूत सत्य है जिसे हर देश हर काल में ग्रहण कर सकता है । प्लेटो के इस कथन से कोई इंकार नहीं कर सकता कि शासन एक कठिन कला है और उसके लिए विशेष शिक्षा-दीक्षा की आवश्यकता होती है ।

अतः इस सत्य का प्रतिपादन करना प्लेटो की महान दूरदर्शिता थी कि सत्ता सदैव बुद्धिमान व्यक्तियों के हाथों में होनी चाहिए । अगर प्लेटो की इस अवधारणा के अनुरूप वर्तमान शासक भी आचरण करें तो प्रायः सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है ।

दार्शनिक राजाओं का शासन वर्ग-संघर्ष समाप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है । वर्ग-संघर्ष का उदय तभी होता है जब शासक-वर्ग स्वहित में कार्य करने लगता है । यह वही नहीं पाया जा सकता जहाँ शासकगण स्वयं को तन, मन और धन से समाज की सेवा में अर्पित कर दें । दार्शनिक शासक निजी सुखों से ऊपर उठकर स्वयं को सामान्य हित की साधना में लीन करने वाले हैं और उन्हें उसमें परम आनन्द की प्राप्ति होती है ।

सार्वजनिक हित की आड़ में स्वार्थी की पूर्ति करना संभव नहीं है । इस प्रकार प्लेटो शासकों को त्याग और समर्पण का संदेश देते हैं । निश्चय ही यह संदेश राज्य और समाज के लिए महान कल्याणकारक है ।

प्लेटो समाज के प्रत्येक वर्ग से बलिदान चाहता है । उत्पादक वर्ग को राजनीतिक शक्ति का त्याग करना पड़ता है जबकि संरक्षक वर्ग को आर्थिक शक्ति से वंचित कर दिया जाता है । यदि जनता का प्रत्येक वर्ग त्याग की भावना से प्रेरित हो तो विश्व के संकट शीघ्र ही मिट सकते हैं ।

आदर्श राज्य की कल्पना में अनेक तत्वों का महान और स्थाई मूल्य है । सपने और आदर्श न हों तो ‘मनुष्य घोर स्वार्थ और पशुता में डूबा रहेगा ।’ ये उसे ऊँचा उठाने और अपनी ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं ।

बार्कर के मतानुसार- ”यह कहना आसान है कि ‘रिपब्लिक’ काल्पनिक है, बादलों में नगर है, एक सूर्यास्स के दृश्य के समान है जो सायं एक घंटे के लिए रहता है, तत्पश्चात अंधकार में विलीन हो जाता है, परन्तु यह ‘कहीं नहीं का नगर’ नहीं है । यह यथार्थ परिस्थितियों पर आधारित और वास्तविक जीवन को मोड़ने या कम-से-कम प्रभावित करने के लिए है ।”

आदर्श राज्य का पतन और शासन-प्रणालियों का वर्गीकरण:

चूँकि संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है, अतः रिपब्लिक में वर्णित आदर्श राज्य भी स्थायी नहीं रह सकता । इसीलिए प्लेटो भी आदर्श राज्य को इस वसुंधरा पर व्यावहारिक और स्थायी नहीं मानता तथा आदर्श राज्य के पतन और अन्य शासन प्रणालियों के बारे में विचार करता है ।

प्लेटो का मानना है कि शासक के पतन से राज्य का पतन बहुत शीघ्र होता है । लगातार विरोध के बढ़ने से भी आदर्श राज्य धीरे-धीरे पतन की ओर चला जाता है ।

प्लेटो इस पतन के निश्चित क्रम को पाँच शासकों में बाँटता है:

(i) राजतंत्र (Monarchy):

प्लेटो ने यह माना है कि जब सरकारों का पतन होने लगता है तब वे विकृत अवस्थाओं से गुजरते हुए अन्त में अपने निकृष्टतम रूप में आ जाता है । प्लेटो के अनुसार राजतंत्र में जनता को सर्वाधिक सुख प्राप्त होता है क्योंकि इसमें न्याय-भावना से अनुप्राणित विवेक सम्पन्न दार्शनिक राजा शासन करता है ।

(ii) सैनिकतंत्र या कीर्तितंत्र (Timocracy):

प्लेटो कहता है कि कुछ समय पश्चात साम्यवाद के परित्याग और व्यक्तिगत संपत्ति के उदय से इस शासन प्रणाली का पतन होने लगता है । विवेक की प्रधानता के स्थान पर उत्साह का भाव बढ़ जाता है । शासक शिक्षा पर ध्यान नहीं देते फलतः शासक का भार योग्यतम व्यक्ति नहीं सम्भालते और समाज में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है ।

प्लेटो के अनुसार यह शासन प्रणाली कीर्तितंत्र है क्योंकि इसमें योद्धा अपनी कीर्ति और महत्वाकाँक्षा बढाने की दृष्टि से राज्य का संचालन करते हैं । यह राजतंत्र का पहला विकार है ।

(iii) अल्पतंत्र (Oligarchy):

सैनिकतंत्र धीरे-धीरे अल्पतंत्र में परिणत हो जाता है । सैनिकतंत्र का प्रधान तत्व ‘उत्साह’ होता है किंतु अल्पतंत्र का ‘काम’ है । इसमें सम्पूर्ण सम्पति कुछ व्यक्तियों और कुलों के हाथों में आ जाती है ।

आर्थिक बल पर वे शासन की बागडोर हथिया लेते हैं तथा व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से राज्य का संचालन करते हैं । इस शासन में धनिकों एवं निर्धनों के बीच खाई गहरी होती जाती है और संघर्ष बढ़ता जाता है ।

(iv) लोकतंत्र (Democracy):

अल्पतंत्र में दरिद्र जनता में तीव्र असंतोष और विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है । फलतः वे सत्ता को अपने कब्जे में कर लोकतंत्र की स्थापना करते हैं । लोकतंत्र में सभी को स्वतंत्रता और समानता प्राप्त हो जाती है । अतः अनुशासन और आज्ञापालन का भाव लुप्त हो जाता है और जनता स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर जनतंत्र ला देती है ।

(v) निरंकुश-तंत्र (Tyranny):

जनतंत्र का अंत करने के लिए जनता के बीच से एक नेता उठ खड़ा होता है और लोगों को बड़े मोहक आश्वासन देता है कि वह उनके कष्टों का अंत कर देगा । जनता उसकी बातों में आकर राज्यसत्ता उसे सौंप देती है परंतु वह जनता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरता । वह स्वेच्छाचारी शासन स्थापित कर लेता है । यही निरंकुश-तंत्र है ।

यह तानाशाही उन्हीं लोगों का खून पीती है जो अपने परिश्रम से उसे भोजन देते हैं । ‘काम’ तत्व का सर्वाधिक पाश्विक रूप निरंकुश-तंत्र या तानाशाही में देखने को मिलता है । यह सबसे निकृष्ट शासन-प्रणाली है ।

5. लॉज (The Laws):

‘लॉज’ (The Laws) को प्लेटो ने सत्तर वर्ष की आयु में लिखा था । अतः उनकी आयु का प्रभाव उनकी कृति पर स्पष्ट दिखायी देती है । उनकी इस रचना से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसका वह भ्रम दूर हो गया है, जो उसके मस्तिष्क में उस समय था, जब उसने आदर्श राज्य पर ‘रिपब्लिक’ की रचना की थी ।

‘रिपब्लिक’ में प्लेटो यदि एक आदर्शवादी, स्वप्नद्रष्टा अथवा कल्पनालोक के व्यक्ति थे, तो ‘लॉज’ में वह एक विचारशील, यथार्थवादी बन गए । ‘लॉज’ के लिखने के लिए जब तक उन्होंने अपनी लेखनी उठायी तब तक उन्हें इस बात का पक्का विश्वास हो गया था कि दार्शनिक शासक का शासन पृथ्वी पर स्थापित नहीं किया जा सकता और व्यवहारिक दृष्टि से ‘रिपब्लिक’ का कोई विशेष महत्व नहीं है ।

‘लॉज’ के लिखते समय प्लेटो को ऐसा विश्वास हो गया प्रतीत होता है कि मनुष्य पर शासन केवल विधि के द्वारा किया जा सकता है ।

लॉज की प्रमुख विशेषताएँ:

प्लेटो ने राजनीति के संबंध में अपनी कृति ‘लॉज’ में जो विविध विचार व्यक्त किये हैं, उनकी प्रमुख विशेषताओं का विवेचन निम्न उपशीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है:

(i) ‘रिपब्लिक’ का उद्देश्य दार्शनिक विवेक के शासन की स्थापना का था । ‘रिपब्लिक’ में विवेक को दार्शनिक शासकों के माध्यम से कार्य करना था तथा दार्शनिक शासक पर विधि का कोई नियंत्रण नहीं होना था, पर ‘लॉज’ में विवेक अथवा दार्शनिक विवेक को विधि के माध्यम से कार्य करना है ।

दार्शनिक शासक का स्थान वस्तुतः अब विधि ने ले लिया है क्योंकि ‘रिपब्लिक’ का दार्शनिक शासक एक असम्भावना है । यद्यपि दार्शनिक शासक के शासन को प्लेटो अब भी सर्वात्तम मानते हैं, फिर भी विधि के शासन पर प्लेटो इसलिए उतर आये हैं कि दार्शनिक शासक उनकी आशा के अनुसार सिद्ध नहीं हुआ है ।

‘लॉज’ का उद्देश्य दार्शनिक को राज्य का विधायक बनाकर विधियों में विवेक के तत्व का प्रवेश करना तथा उसके द्वारा पृथ्वी पर दार्शनिक विवेक के उस शासन को स्थापित करना है, जिसे प्लेटो दार्शनिक शासक के माध्यम से स्थापित नहीं कर सके है ।

(ii) ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने दार्शनिक शासक को विधि से ऊपर माना है तथा उसके द्वारा बनाये अधिनियम, नियम, उपनियम आदि उसके लिए मान्य न होकर औरों के लिए मान्य बताये हैं । पर ‘लॉज’ में प्लेटो ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या संरक्षक विधि से बाध्य होंगे अथवा वे विधि के अधीन होंगे । इस प्रसंग में प्लेटो ने विधि की सर्वोच्चता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है तथा कहा है कि संरक्षक विधि के अधीन होंगे ।

(iii) ‘रिपब्लिक’ का केंद्रीय बिन्दु न्याय है लेकिन ‘लीज’ में राज्य के विविध तत्वों के आत्मसंयम को न्याय से अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है । ‘रिपब्लिक’ में आत्मसंयम को एक महत्वपूर्ण गुण माना गया था, क्योंकि उसके द्वारा कार्यों का विशिष्टिकरण सम्भव हो जाता है; पर न्याय को आत्मसंयम से अधिक महत्व प्रदान किया गया था ।

जहाँ तक संतुलन का प्रश्न है, उसे प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ व ‘लॉज’ दोनों में ही आवश्यक माना है, पर ‘लॉज’ में संतुलन स्थापित करने का ढंग बदल गया है । ‘रिपब्लिक’ में संतुलन लाने का ढंग कार्यों का विशिष्टकरण है ।

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