जेएस मिल और उनकी राजनीतिक विचार | JS Mill and his Political Thought in Hindi!

जॉन स्टुअर्ट मिल को व्यक्तिवाद (Individualism) और स्वतंत्रता (Liberty) का महान् उन्नायक माना जाता है । उदारवादी चिंतन की परंपरा में उसका सबसे बडा योगदान यह था कि उसने अपने समय के अनुरूप स्वतंत्रता की संकल्पना को बदल दिया ।

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में उपयोगितावादी सुधारों के फलस्वरूप इंग्लैंड में प्रशासनिक गतिविधियों का क्षेत्र बहुत बढ़ गया था । बेंथम और दूसरे उपयोगितावादी यह मानते थे कि ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ (Greatest Happiness of the Greatest Number) की सिद्धि के लिए राज्य को व्यक्तियों की गतिविधि में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए ।

इससे एक ओर बाजार-अर्थव्यवस्था का विस्तार हो रहा था, और दूसरी ओर राज्य का कार्यक्षेत्र सिमटता चला जा रहा था । ऐसी हालत में जे.एस. मिल ने उपयोगितावादियों की इस मान्यता में संशोधन करके लोक-कल्याण को बढ़ावा देने के लिए राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार का समर्थन किया ।

स्वतंत्रता की संकल्पना (Concept of Liberty):

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जे. एस. मिल ने स्वतंत्रता के बारे में अपनी संकल्पना अपने प्रसिद्ध निबंध ‘On Liberty-1859’ के अंतर्गत प्रस्तुत की । जी.एम. सेबाइन के अनुसार, इस निबंध के अंतर्गत मिल ने ऐसे लोकमत (Public Opinion) के निर्माण पर बल दिया है जो सचमुच सहनशील हो, जो मत-मतांतर को महत्व देता हो, और जो मानवीय ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए नए विचारों का स्वागत करता हो ।

इसे बढावा देने के लिए ही उसने व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन किया । मिल के अनुसार, मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individual Freedom) सर्वथा आवश्यक है ।

मिल के विचार से, व्यक्ति के कार्य दो प्रकार के होते हैं:

(1) ‘आत्मपरक’ कार्य (Self-Regarding Actions), जिनका सरकार स्वयं कार्य करने वाले से होता है- दूसरों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और

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(2) ‘अन्यपरक कार्य’ (Other-Regarding Actions), जिनका समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है ।

मिल ने तर्क दिया कि व्यक्ति के आत्मपरक कार्यों में राज्य की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए; और उसके अन्यपरक कार्यों में केवल उन्हीं कार्यों पर रोक लगाई जानी चाहिए जो दूसरों को हानि पहुँचाते हों, और यह बात प्रमाणित की जा सकती हो ।

परंतु कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ भी पैदा हो सकती है जब व्यक्ति के आत्मपरक कार्यों में हस्तक्षेप जरूरी हो जाए । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति ऐसा पुल पार कर रहा हो जो हमारी जानकारी के अनुसार असुरक्षित हो, परंतु उस व्यक्ति को यह बात मालूम न हो तो हम उसे आगे बढ़ने से रोक दें-यही उचित होगा ।

स्वतंत्रता का अर्थ है, वह कार्य करना जिसे कोई व्यक्ति करना चाहता है, और उसे करना वह अपने लिए उचित समझता है । प्रस्तुत उदाहरण के अंतर्गत वह व्यक्ति नदी पार करना चाहता है, परंतु नदी में गिरना तो नहीं चाहता । वह यह नहीं जानता कि पुल पर चढ़ना खतरे से खाली नहीं है ।

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अब, सुरक्षित रहने की इच्छा नदी पार करने की इच्छा से अधिक महत्वपूर्ण है । ऐसी हालत में उसे आगे बढ़ने से रोककर हम उसकी इच्छापूर्ति में बाधा नहीं डालते, बल्कि उसकी अधिक महत्वपूर्ण इच्छा की पूर्ति के हित में कम महत्वपूर्ण इच्छा पर रोक लगाते हैं ।

स्वतंत्रता की परिभाषा में इस संशोधन का अर्थ यह है कि व्यक्ति के अपने हित को सुरक्षित रखने के लिए राज्य उसके आत्मपरक कार्यों में भी हस्तक्षेप कर सकता है । मिल के इस तर्क में टी.एच. ग्रीन (1836-82) के विचारों का पूर्वाभास मिलता है ।

स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए मिल ने विशेष रूप से तीन तरह की स्वतंत्रता पर बल दिया है:

1. अंतरात्मा की स्वतंत्रता:

इसमें विचार और अनुभूति की स्वतंत्रता का विशेष स्थान है । मनुष्य को सभी विषयों पर-चाहे वे व्यावहारिक जीवन से जुड़े हों या चिंतन-मनन के क्षेत्र से, चाहे वे वैज्ञानिक हों, नैतिक या धर्मशास्त्रीय हों-कोई भी विचार या भावना रखने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए ।

विचार की अभिव्यक्ति और प्रकाशन की स्वतंत्रता भिन्न सिद्धांत पर आधारित है क्योंकि यह व्यक्ति के व्यवहार का ऐसा हिस्सा है जो दूसरों को प्रभावित कर सकता है । परंतु यह विचार की स्वतंत्रता की तरह महत्वपूर्ण है । यदि विचार को अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलेगा तो विचार की स्वतंत्रता निरर्थक हो जाएगी ।

लोकतंत्र और सामाजिक प्रगति से जुड़ी हुई समस्या पर विचार करते हुए मिल ने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के महत्व पर विशेष बल दिया है । मिल यह दिखाना चाहता था कि लोकतंत्र की स्थापना से व्यक्ति की स्वतंत्रता की समस्या हल नहीं हो जाती बल्कि उसके लिए नए-नए खतरे पैदा हो जाते हैं ।

वह फ्रांसीसी लेखक अलेक्सी द ताकवील के इस विचार से सहमत था कि जनसाधारण बंधे-बंधाए तरीकों और बने-बनाये रास्तों पर चलना पसंद करते हैं- उन्हें नए विचारों और प्रयोगों में कोई दिलचस्पी नहीं होती । मिल को डर था कि जनसाधारण के हाथों में शक्ति आ जाने पर वे लीक से हटकर चलने वालों को आगे नहीं बढ़ने देंगे, और संपूर्ण समाज को औसत दर्जे के तौर-तरीके और विचार अपनाने के लिए विवश कर देंगे ।

इससे सामाजिक अनुरूपता, अर्थात् सभी व्यक्तियों को एक ही सांचे में ढालने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा; नए तौर-तरीकों और विचारों को हतोत्साहित किया जाएगा ।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को उचित ठहराने के लिए मिल ने उपयोगितावादी और नैतिकतावादी दोनों तरह के तर्क का सहारा लिया है । उपयोगितावादी तर्क के अनुसार, विवेकसम्मत ज्ञान सामाजिक कल्याण का आधार है । दूसरी ओर, नैतिकतावादी तर्क के अनुसार, वैयक्तिक आत्म-निर्णय मनुष्य का मूल अधिकार है जो उसमें नैतिक दायित्व की भावना विकसित करने के लिए अनिवार्य है ।

यदि व्यक्ति को परस्पर विरोधी विचारों में से अपनी अंतरात्मा के अनुसार चयन करने की स्वतंत्रता न हो तो एक नैतिक और विवेकशील प्राणी के नाते वह अपनी उपयुक्तता गरिमा से वंचित हो जाएगा । अतः समाज में परस्पर विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक सिद्ध होती है ।

मिल ने तर्क दिया कि अल्पमत को यहाँ तक कि अकेले व्यक्ति को भी-अपनी राय प्रकट करने का उतना ही अधिकार होना चाहिए जितना बहुमत को होता है । किसी भी मत का दमन करना सर्वथा अनुचित है, चाहे वह सच हो या झूठ हो । कोई बात इसलिए सच नहीं हो जाती कि उसे बहुत ज्यादा लोग मानते हैं, और इसलिए झूठ नहीं हो जाती कि उसे बहुत कम लोग मानते हैं ।

अतः सबसे पहले हर तरह के मत को प्रकट होने का अवसर मिलना चाहिए । यदि वह सच होगा तो उसका दमन करने से समाज सत्य के लाभ से वंचित हो जाएगा । यदि वह झूठ होगा तो उसका दमन करने से समाज सत्य के विस्तृत ज्ञान से वंचित हो जाएगा क्योंकि झूठ से टकराने के बाद सत्य अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली रूप में सामने आता है ।

यदि वह कुछ सच और कुछ झूठ होगा तो उसकी अभिव्यक्ति हो जाने पर हमें संपूर्ण सत्य को जानने और समझने में सहायता मिलेगी । इस तरह परस्पर-विरोधी मतों के मुक्त प्रचार-प्रसार से समाज को लाभ ही लाभ है ।

2. अपनी अभिरुचियाँ विकसित करने और अपनी तरह का काम करने को स्वतंत्रता:

यह इसलिए जरूरी है ताकि मनुष्य अपने चरित्र के अनुरूप अपने जीवन की योजना बना सके । यदि दूसरों को उसका कोई काम मूर्खतापूर्ण, अस्वाभाविक या अनुचित लगता हो तो भी जब तक वह दूसरों को कोई हानि नहीं पहुँचाता, या वह स्वयं उसके लिए विनाशकारी न हो उसे वैसा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ।

मनुष्य को स्वयं जैसा अच्छा लगे वैसे जीकर कष्ट उठाने में जितना लाभ होगा, जैसा दूसरी को अच्छा लगे वैरने जीकर सुख पाने में उतना लाभ नहीं होगा ।

3. किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठन बनाने की स्वतंत्रता:

शर्त यह है कि इससे किसी को भी क्षति न पहुँचाई जाए । संगठन बनाने वाले व्यक्ति वयस्क होने चाहिए ताकि वे सोच-समझ कर निर्णय करने में समर्थ हों । किसी को विवश करके या धोखा देकर किसी संगठन में सम्मिलित नहीं करना चाहिए ।

मिल ने लिखा है कि जिस समाज में कुल मिलाकर इन स्वतंत्रताओं का सम्मान नहीं किया जाता, वह स्वतंत्र समाज नहीं हो सकता चाहे वहाँ कोई भी शासन-प्रणाली क्यों न अपनाई जाए । जिस समाज में ये स्वतंत्रताएं पूर्ण रूप से और बिना शर्त प्रदान नहीं की जातीं वह पूर्णतः स्वतंत्र समाज नहीं हो सकता ।

जो मनुष्य बंधे-बंधाए तरीके से चलता है या केवल रीति-रिवाज का पालन करता है, वह अपने जीवन में चयन की क्षमता का प्रयोग नहीं करता । जो अपने जीवन की योजना का चयन दूसरों पर छोड़ देता है, उसे किसी विशेष क्षमता की जरूरत नहीं होती, वह तो बंदर की तरह दूसरों की नकल उतारता है । मनुष्य-जैसा जीवन जीने के लिए भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न ढंग से जीने देना चाहिए । अतः मिल की दृष्टि में विविधता का प्रसार स्वतंत्रता का स्वाभाविक लक्षण है ।

मिल का विश्वास था कि आधुनिक औद्योगिक समाज में जब अनुदारवादी शक्तियाँ प्रबल हो जाएंगी, तब स्वतंत्रता के बारे में उसकी शिक्षाओं पर अवश्य ध्यान दिया जाएगा । मिल ने लिखा है कि औद्योगिक सभ्यता की प्रगति सब मनुष्यों के लिए एक-जैसी परिस्थितियाँ पैदा कर देती है जिससे उनके लिए भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के रूप में जीना मुश्किल हो जाता है ।

जो लोग सारे काम एक-जैसे करते हैं, वे एक ही तरह सोचने भी लगते हैं जिससे उनमें स्वयं सोचने की शक्ति कुंठित हो जाती है । मिल के इन विचारों में उस संकल्पना का पूर्वसंकेत मिलता है जिसे बीसवीं शताब्दी में जनपुंज समाज (Mass Society) की संज्ञा दी गई है । यह स्थिति जनसंपर्क के साधनों (Mass Media) की विलक्षण प्रगति का परिणाम है ।

देखा जाए तो औद्योगिक समाज का दबाव सब जगह एकरूपता को बढ़ावा देता है और सबसे एकरूपता की मांग करता है । जो व्यक्ति इस एकरूपता को चुनौती देता है और रीति-रिवाज के आगे घुटने टेकने से इनकार कर देता है, वह स्वतंत्रता के सिद्धांत की बहुत बड़ी सेवा करता है । इस तरह के मौलिक विचार प्रस्तुत करके मिल ने औद्योगिक समाज के प्रति अत्यंत मानवीय और लोकतंत्रीय दृष्टिकोण का परिचय दिया है ।

उपयोगितावाद का संशोधन (Amendment of Utilitarianism):

मिल ने बेंथम के उपयोगितावाद की इस मान्यता को तो स्वीकार किया कि राज्य का ध्येय ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ की सिद्धि करना है, परंतु उसने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Utilitarianism-1863’ के अंतर्गत उपयोगिता के मूल सिद्धांत में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए:

1. बेंथम के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों में कोई गुणात्मक अंतर (Qualitative Difference) नहीं होता; उनमें केवल परिमाणात्मक अंतर (Quantitative Difference) होता है परंतु मिल ने तर्क दिया कि भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों में गुणात्मक अंतर अवश्य होता है, और किसी सुख की गुणवत्ता उसके परिमाण से कम महत्वपूर्ण नहीं होती ।

मनुष्य केवल भौतिक सुखों के पीछे नहीं दौड़ता बल्कि उसकी नैतिक, बौद्धिक और कलात्मक अभिरुचियों का विकास भी जरूरी है । जो सुख मनुष्य की उच्चतर क्षमताओं से प्राप्त किया जाता है, वह अन्य सुखों की तुलना में उत्तम है ।

उच्च कोटि का सुख कम संतुष्टिदायक होने पर भी ग्राह्य है; निम्न कोटि का सुख अधिक संतुष्टिदायक होने पर भी त्याज्य है । मिल के शब्दों में, ”एक संतुष्ट मूर्ख की तुलना में असंतुष्ट सुकरात होना कहीं अच्छा है ।”

उपयोगिता के सिद्धांत में मिल का यह संशोधन मानवीय विकास के आदर्श से प्रेरित था, जो मनुष्य के बारे में बेंथम की संकीर्ण संकल्पना से भिन्न था । बेंथम ने मनुष्य को मिलने वाले सुख की कल्पना करते समय आत्मसम्मान की भावना और व्यक्तिगत गरिमा की भावना जैसे महत्वपूर्ण तत्वों की अनदेखी कर दी थी ।

मिल ने इन भावनाओं का महत्व स्थापित करते हुए यह टिप्पणी की – ”अपनी-अपनी उच्च क्षमताओं के विस्तृत प्रयोग के लिए एक-दूसरे को लगातार उत्तेजित करना सामाजिक सुख-समृद्धि का आवश्यक अंग है ।”

स्वतंत्रता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए मिल ने यह स्वीकार किया कि वह समस्त नैतिक प्रश्नों की जांच के लिए ‘उपयोगिता’ को ही अंतिम मानदंड मानता है, परंतु उपयोगिता की यह संकल्पना बहुत व्यापक होनी चाहिए जो मनुष्य को प्रगतिशील प्राणी मानते हुए उसके स्थायी हितों की नींव पर टिकी हो । जाहिर है, मिल ने उपयोगितावाद की यह नई व्याख्या देकर उसके मूल रूप को ही बदल दिया ।

2. पुराने उपयोगितावादी स्वतंत्रता को महत्वपूर्ण तो मानते थे, परंतु उनके विचार से यह उपयोगितावाद का सार-तत्व नहीं था । मिल ने अपनी विचार- प्रणाली के अंतर्गत स्वतंत्रता को उपयोगिता का सार-तत्व बना दिया । उसने तर्क दिया कि सच्चा सुख केवल भौतिक संतुष्टि में निहित नहीं है, बल्कि वह चरित्र के विकास से प्राप्त होता है ।

उच्च चरित्र वाला व्यक्ति ही उच्च कोटि के सुख को अनुभव कर सकता है । चरित्र के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वथा आवश्यक है । स्वतंत्रता मनुष्य को नए-नए सुखों का पता लगाने और पाने में समर्थ बनाती है । यह अपने-आपमें इतना बड़ा सुख है जिसके आगे अन्य सब सुख तुच्छ हैं ।

मिल के शब्दों में – ”जिसने एक बार स्वतंत्रता का स्वाद चख लिया हो, वह उसे किसी कीमत पर भी छोड़ने को तैयार नहीं होगा ।” यह बात ध्यान देने की है कि स्वतंत्रता की यह संकल्पना उपयोगिता के मूल सिद्धांत के साथ नहीं निभ सकती ।

यदि प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करके अपने-अपने ढंग से सुख को ढूंढने और पाने का अवसर दिया जाए तो ऐसी कोई सामान्य नीति निर्धारित करना कठिन हो जाएगा जिसमें ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ निहित हो ।

दूसरे, यदि कोई ऐसी नीति बना दी जाए जो ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ की सिद्धि का दावा करती हो, तो उसे लागू करने पर कुछ लोगों की स्वतंत्रता को क्षति अवश्य पहुँचेगी, और मिल को ऐसी स्थिति स्वीकार नहीं होगी ।

प्रतिनिधि शासन का औचित्य (Justification of Representative Rule):

स्वतंत्रता के प्रति इस गहरे लगाव के कारण ही मिल ने ‘बहुमत के शासन’ के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया, और उस की जगह ‘प्रतिनिधि शासन’ का समर्थन किया । मिल का विचार था कि लोकतंत्र को सामाजिक प्रगति का साधन बनाने के लिए निर्वाचकमंडल का शिक्षित होना जरूरी है ।

अतः जब तक संपूर्ण निर्वाचकमंडल शिक्षित नहीं हो जाता, तब तक सार्वजनिक शक्ति अपेक्षाकृत अनुभवी और सुशिक्षित विशिष्टवर्ग को सौंपी जा सकती है । इस उदारमना अल्पमत (Liberal-Minded Minority) की छत्रछाया में जनसाधारण धीरे-धीरे सार्थक नागरिकता के गुण अर्जित कर लेंगे ।

फिर, यह विशिष्टवर्ग सार्वजनिक शिक्षा का समुचित प्रबंध भी करेगा । जनसाधारण में शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उनके राजनीतिक उत्तरदायित्व भी बढ़ते जाएंगे । अंततः एक ऐसे स्वतंत्र समाज का उदय होगा जिसमें समस्त स्त्री-पुरुष शासन के अधिकारों और कर्तव्यों में बराबर के हिस्सेदार होंगे ।

मिल ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Considerations of Representative Government -1861’ के अंतर्गत प्रतिनिधि शासन के सिद्धांत का समर्थन करते हुए मताधिकार के क्रमिक विस्तार की योजना प्रस्तुत की है । यह बात महत्वपूर्ण है कि मिल स्त्री-मताधिकार के आरंभिक समर्थकों में सम्मिलित था । इससे लोकतंत्र के प्रति उसकी आस्था का संकेत मिलता है ।

मिल का विश्वास था कि आधुनिक लोकतंत्र के लिए केवल प्रतिनिधि शासन की प्रणाली ही उपयुक्त होगी । प्राचीन यूनानी नगर-राज्यों में प्रचलित प्रत्यक्ष लोकतंत्र को आधुनिक राज्यों में लागू करना संभव नहीं है; आधुनिक निर्वाचकमंडल अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से ही कार्य करते हैं । ये प्रतिनिधि योग्यता और अनुभव की दृष्टि से साधारणतः औसत दर्जे से बढ़कर होते हैं; तर्कसंगत बातें समझने और समझाने में इनकी क्षमता जनसाधारण से ऊँची होती है ।

विधानमंडल में अल्पमत के समुचित प्रतिनिधित्व के लिए मिल ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) और बहुल मतदान (Plural Voting) की प्रणाली का समर्थन किया है ।

कल्याणकारी राज्य का समर्थन (Welfare State Support):

जॉन स्टुअर्ट मिल पहले ऐसे प्रमुख उदारवादी थे जिसने शुरू-शुरू में अहस्तक्षेप की नीति और व्यक्तिवाद का समर्थन किया, परंतु सामाजिक-आर्थिक यथार्थ पर विस्तृत विचार करने के बाद उसने इसका संशोधन कर दिया । मिल ने राजनीतिक क्षेत्र में सांविधानिक और प्रतिनिधि शासन का समर्थन किया परंतु आर्थिक क्षेत्र में उसने कल्याणकारी राज्य के विचार को बढावा दिया ।

व्यक्ति की आत्मपरक और अन्यपरक गतिविधियों में अंतर करते हुए मिल ने तर्क दिया कि व्यक्ति की जो गतिविधियाँ दूसरों की स्वतंत्रता के रास्ते में रुकावट डालती है, उनके मामले में राज्य की ओर से विनियमन जरूरी हो जाता है । इस तरह उदारवादी चिंतन के क्षेत्र में बाजार-अर्थव्यवस्था के विनियमन के सिद्धांत को मान्यता मिल गई ।

अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Principles of Political Economy -1848’ प्रथम संस्करण के अंतर्गत मिल ने समाजवाद की आलोचना की थी परंतु इसके अंतिम संस्करण (1866) में उन्होंने अपना दृष्टिकोण बदल दिया और संपत्ति के अधिकार को सीमित करने की वकालत की ।

उसने भूसंपत्ति के अधिकार पर विशेष रूप से प्रहार किया क्योंकि भूमि को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया और पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत भूस्वामी के किसी विशेष प्रयत्न के बिना उसकी आय दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जाती है । मिल ने तर्क दिया कि इस अतिरिक्त आय पर कर (Tax) लगाकर उसका उपयोग श्रमिकों के कल्याण के लिए करना चाहिए क्योंकि उन्हीं के कठिन परिश्रम के कारण भूस्वामियों की आय में भारी वृद्धि होती है ।

उदारवाद की परंपरा में मिल पहला ऐसा विचारक था जिसने पूंजीवाद के बढ़ते हुए प्रभाव के संदर्भ में व्यक्ति और राज्य के परस्पर संबंध पर विचार किया और व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राज्य के हस्तक्षेप को उचित ठहराया । उसने यह स्वीकार किया कि जब आर्थिक क्षेत्र में विस्तृत विषमता पाई जाती है तब राज्य की ओर से ‘अहस्तक्षेप’ की नीति सामाजिक सुख को बढ़ावा नहीं दे सकती ।

जब भूमि, उद्योग-धंधों और ज्ञान-विज्ञान के साधनों पर इने-गिने लोगों का एकाधिकार हो, तब राज्य को तटस्थ नहीं रहना चाहिए बल्कि विशाल निर्धन वर्ग के कल्याण की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए ।

इसके लिए मिल के मुख्य सुझाव हैं- अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था, उत्तराधिकार का परिसीमन, एकाधिकार पर राज्य का नियंत्रण, भूसंपति की सीमाएं निर्धारित करना, और ऐसे श्रम कानून बनाना जिनके अनुसार काम के घंटे निश्चित कर दिए जाएँ और कारखानों में कच्ची उम्र के बच्चों से मजदूरी न कराई जा सके, इत्यादि ।

इस तरह मिल ने जहाँ राजनीतिक क्षेत्र में विचार और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तथा सांविधानिक शासन प्रणाली की पैरवी की, वहीं आर्थिक क्षेत्र में उसने उदारवादी मूल्यों के साथ समाजवादी मूल्यों का मणि-कांचन संयोग स्थापित करके उदारवाद को एक नई दिशा दी ।

स्त्रियों की पराधीनता पर प्रहार (Strike on Women’s Suzerainty):

समकालीन सामाजिक चिंतन के अंतर्गत नारीवादी सिद्धांत (Feminist Theory) के समर्थक जो तर्क दे रहे हैं, उनकी सबसे पहली, सशक्त अभिव्यक्ति मिल के चिंतन में मिलती है । मिल ने अपनी चर्चित कृति ‘Subjection of Women -1869’ के अंतर्गत यह मुद्दा उठाया कि आधी मानवता-अर्थात् स्त्री जाति को चिरकाल से दूसरी आधी मानवता-अर्थात् पुरुष जाति की पराधीनता में क्यों रखा गया है?

मिल ने यह प्रश्न उठाया कि यह पराधीनता चाहे कानून के माध्यम से स्थापित की गई हो या रीति-रिवाज के माध्यम से-इसे उपयोगितावाद के आधार पर कही तक उचित ठहराया जा सकता है?

इस प्रश्न के उत्तर में मिल ने पूरी दृढ़ता के साथ यह मान्यता रखी है कि स्त्रियों की पराधीनता को किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता । यह सच है कि जीववैज्ञानिक दृष्टि से स्त्री और पुरुष की बनावट में अंतर पाया जाता है, और बहुत छोटे शिशुओं की देखरेख करना भी स्त्रियों का स्वाभाविक कृत्य है, परंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हें मताधिकार से वंचित रखना चाहिए; उन्हें ऊँचे व्यवसायों से बाहर रखना चाहिए; या उन्हें उन्नति के उन सब अवसरों से दूर रखना चाहिए जो ऐतिहासिक दृष्टि से पुरुषों को सुलभ रहे हैं ।

मिल ने स्त्री-पुरुष की समानता के पक्ष में जो तर्क दिए हैं, वे अपने-आप में बेजोड़ हैं । मिल ने तर्क दिया कि पुरुष के प्रति स्त्री की अधीनता न केवल अपने-आप में अनुचित है, बल्कि यह मानव जाति की उन्नति के मार्ग की मुख्य बाधा भी है । अतः सामाजिक प्रगति को बढावा देने के लिए स्त्रियों की पराधीनता को समाप्त करके स्त्री-पुरुष की पूर्ण समानता स्थापित कर देनी चाहिए । ऐसा न हो कि एक पक्ष को शक्ति एवं विशेषाधिकार प्राप्त हों, और दूसरे पक्ष को अशक्त एवं अयोग्य बना दिया जाए ।

मिल ने लिखा है कि स्त्रियों की पराधीनता ऐसी विश्वजनीन प्रथा का रूप धारण कर चुकी है कि जब कहीं स्त्री के वर्चस्व का कोई संकेत मिलता है तो वह अस्वाभाविक प्रतीत होता है । दुनिया के दूर-दराज के हिस्सों में जब लोगों को यह बताया जाता है कि इंग्लैंड में महारानी का शासन है तो उन्हें अत्यंत आश्चर्य होता है, और वे इस बात पर सहज विश्वास नहीं कर पाते ।

इधर इंग्लैंड के लोगों को महारानी के शासन में तो कोई विचित्र बात दिखाई नहीं देती, परंतु वे यह नहीं सोच पाते कि स्त्रियाँ सैनिक और संसद-सदस्य भी हो सकती हैं! दूसरी ओर, यूनान और अन्य प्राचीन देशों के लोगों को यह विचार उतना अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता था क्योंकि स्पार्टा में स्त्रियों को कुशल सैनिक बनने की शिक्षा दी जाती थी! वैसे कानून की दृष्टि से वे भी पुरुषों के अधीन थीं ।

स्पार्टा की स्त्रियों के उदाहरण से प्रेरित होकर ही प्लेटो को स्त्री-पुरुष की समान क्षमताओं में विश्वास हो गया था और उसने अपने चिंतन के अंतर्गत स्त्री-पुरुष की सामाजिक और राजनीतिक समानता का समर्थन किया था । इन सब तर्कों के आधार पर मिल ने तत्कालीन परिस्थितियों में स्त्रियों को मताधिकार प्रदान करने के प्रस्ताव की शानदार पैरवी की ।

निष्कर्ष:

मिल ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्व देते हुए यह मत रखा कि राज्य को साधारणतः व्यक्ति की गतिविधियों में न तो हस्तक्षेप करना चाहिए, न उन पर कोई प्रतिबंध लगाना चाहिए परंतु यदि यह सिद्ध किया जा सके कि ऐसा हस्तक्षेप समाज के हित में जरूरी है तो उसे उचित ठहरा सकते हैं ।

ऐसी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए मिल ने व्यक्ति की ‘आत्मपरक’ और ‘अन्यपरक’ गतिविधियों में अंतर किया, और यह स्वीकार किया कि यदि व्यक्ति की अन्यपरक गतिविधियों से समाज को हानि हो सकती हो तो उन पर प्रतिबंध लगाना उचित होगा ।

वैसे ‘आत्मपरक’ और ‘अन्यपरक’ गतिविधियों के बीच सीमा-रेखा खींचना बहुत कठिन है, और इस आधार पर अर्नेस्ट बार्कर ने मिल की आलोचना की है परंतु यह सीमा-रेखा कहाँ खींची जाए- इस बात का उतना महत्व नहीं ।

महत्व इस बात का है कि मिल ने ऐसे क्षेत्र की ओर संकेत किया जहाँ राज्य को तटस्थ नहीं रहना चाहिए बल्कि समाज के हित को ध्यान में रखते हुए सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए । इसी विचार ने उदारवादी चिंतन-परंपरा के अंतर्गत नकारात्मक राज्य को सकारात्मक राज्य में बदल दिया, और कल्याणकारी राज्य के विकास का रास्ता खोल दिया ।

मिल ने व्यक्ति की स्वतंत्रता का इतना भव्य विश्लेषण प्रस्तुत किया है कि-कम-से-कम उदारवादी चिंतन के अंतर्गत-उसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है । उसका यह तर्क अत्यंत महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करके कोई राज्य अपना गौरव बढाने की आशा नहीं कर सकता । उसने स्वतंत्रता के सिद्धांत को उपयोगितावाद के साथ जोड़कर इसे बिल्कुल नए रंग में ढाल दिया ।

मिल को लोकतंत्र की प्रचलित अवधारणा में विशेष आस्था नहीं थी । उसने यह संकेत किया कि ऐसा लोकतंत्र राजनीतिक दृष्टि से समानता को समस्या को सुलझाकर स्वतंत्रता की समस्या को उलझा देता है । उसने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को सबरने आगे रखकर लोकतंत्र की इस त्रुटि को दूर करने का प्रयत्न किया । उसने लोकतंत्र के प्रचलित ढांचे को सुधारने के लिए ठोस सुझाव दिए । सबसे बढ़कर, उसने शासन की संस्थाओं में अल्पमत के समुचित प्रतिनिधित्व पर बल दिया ।

मिल ने अपने युग में न केवल मताधिकार के विस्तार की बात उठाई बल्कि स्त्रियों की पराधीनता पर प्रबल प्रहार किया । इस तरह उसने न केवल स्त्री जाति की गरिमा को मान्यता दी बल्कि समाज को भी उनकी प्रतिभा से लाभान्वित होने का रास्ता दिखाया । इस तरह आधुनिक राजनीति-सिद्धांत की परपरा में मिल का योगदान अविस्मरणीय रहेगा ।