Read this article in Hindi to learn about the five major effects of decline of the Soviet union. The effects are: 1.  शीत युद्ध की समाप्ति (End of the Cold War) 2. द्वि-ध्रुवीयता की समाप्ति तथा विश्व व्यवस्था एक-ध्रुवीयता से बहु-ध्रुवीयता की ओर अग्रसर (The End of Bi-Polarity – From Polarity to Multi-Polarity) 3. नये राष्ट्रों की स्थापना (The Establishment of New Nations) and a Few Others.

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व विश्व परिदृश्य पर इसके व्यापक प्रभाव दिखाई दिये, जिनका वर्णन निम्नलिखित है:

1. शीत युद्ध की समाप्ति (End of the Cold War):

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही दो महाशक्तियों सोवियत संघ व अमेरिका के मध्य शीत युद्ध जनित तनाव की स्थिति विद्यमान थी । दोनों महाशक्तियों ने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों को अपने प्रभाव में लेने का प्रयास किया अपने सैनिक गठबन्धन बनाये तथा सुरक्षा के लिए आणविक शस्त्रों का विकास किया ।

सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध समाप्त हो गया क्योंकि दूसरी महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ का पराभव हो गया । इसके साथ ही सोवियत संघ के प्रभाव वाले पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवादी व्यवस्था का अंत हो गया तथा वहाँ नये लोकतंत्र की स्थापना हुई ।

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1992 में साम्यवादी देशों के सैनिक संगठन वारसा पैक्ट का अतः कर दिया गया । इस प्रकार शीत युद्ध की समाप्ति हुई । यहाँ यह बताना आवश्यक है कि 1985 में गार्बाचेव के सोवियत संघ के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही दोनों महाशक्तियों के शीर्ष नेताओं के बीच शिखर सम्मेलन तथा सहयोग का सिलसिला शुरू हो गया था । शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नये समीकरण विश्व परिदृश्य में देखे गये ।

2. द्वि-ध्रुवीयता की समाप्ति तथा विश्व व्यवस्था एक-ध्रुवीयता से बहु-ध्रुवीयता की ओर अग्रसर (The End of Bi-Polarity – From Polarity to Multi-Polarity):

1991 में सोवियत संघ के विघटन का तात्कालिक परिणाम द्वि-ध्रुवीयता का अतः है, क्योंकि विश्व के दूसरे ध्रुव सोवियत संघ का अस्तित्व समाप्त हो चुका था । इसी के साथ विश्व पटल पर अमेरिका ही एकमात्र महाशक्ति रह गया । अमेरिका तथा पश्चिमी देशों द्वारा अपने सैनिक गठबन्धन नाटो को समाप्त करने की बजाय पूर्वी यूरोप के देशों में नाटो का विस्तार किया गया । ऐसी स्थिति को विश्व राजनीति में एक- ध्रुवीयता का संकेत माना गया ।

विघटन के बाद सोवियत संघ का स्थान रूस ने लिया जो यद्यपि आज भी विश्व का सबसे बड़ा देश है, लेकिन आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण 1990 के दशक में प्रभावहीन हो गया । इसका परिणाम यह हुआ कि अमेरिका और पश्चिमी देशों का वर्चस्व तेजी से बढ़ने लगा ।

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कई मामलों में इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमों की भी परवाह- नहीं की । रूस को पश्चिमी देशों के आर्थिक संगठन जी-7 का सदस्य बना लिया गया तथा नाटो के साथ रूस की शिखर वार्ताओं का सिलसिला शुरू किया गया । इस प्रकार रूस को अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था में समायोजित करने की कोशिश की गयी ।

लेकिन एक- ध्रुवीयता की यह स्थिति अंतिम नहीं है । इसके सामने भी कई चुनौतियाँ हैं तथा विशेषज्ञों द्वारा 21वीं शताब्दी में बहु-ध्रुवीयता की संभावना व्यक्त की जा रही है । इसके दो कारण हैं- प्रथम, यह कि वैश्वीकरण और उदारीकण के युग में कई नये देशों ने तेजी से आर्थिक प्रगति की है तथा विश्व व्यवस्था में अपना प्रभाव बढ़ाया है । चीन स्थान इसमें प्रमुख है ।

चीन आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । इसके साथ ही भारत, ब्राजील, रूस तथा दक्षिण अफ्रीका भी तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गये है । इन पाँचों देशों ने 2009 में एक नया संगठन ब्रिक्स के नाम से बनाया है । जो इन देशों के नामों के पहले अक्षरों से मिलकर बना है ।

यह संगठन अमेरिकी प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था के स्थान पर बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था की स्थापना की माँग कर रहा है । दूसरा तत्व यह है कि 21वीं शताब्दी के पहले दशक में ही रूस ने अपने आर्थिक संसाधनों के बल पर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है तथा वह विभिन्न मामलों में अमेरिका की नीतियों का विरोध कर रहा है ।

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वर्तमान में जहाँ अमेरिका ईरान तथा सीरिया जैसे मामलों में सैनिक हस्तक्षेप का समर्थन कर रहा है, वहीं रूस ने 2013 में सैनिक हस्तक्षेप का विरोध किया है । इसी क्रम में रूस ने पूर्वी यूरोप में अमेरिका की मिसाइल प्रतिरक्षा योजना को भी लगाने का विरोध किया है । रूस के पड़ोसी देशों में नाटो का विस्तार भी अमेरिका व रूस के बीच मतभेद का कारण बना हुआ है । इन मतभेदों के चलते रूस और अमेरिका के बीच एक नये शीत युद्ध की संभावना को नकारा नहीं जा सकता ।

3. नये राष्ट्रों की स्थापना (The Establishment of New Nations):

सोवियत संघ का निर्माण 15 गणराज्यों से मिलकर हुआ था । 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद ये सभी गणराज्य स्वतंत्र देश बन गये हैं । इनमें तीन बाल्टिक राज्य लाटविया, लिथुआनिया, तथा एस्टोनिया के अतिरिक्त पाँच सेन्ट्रल एशिया के नये देश उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, तजाकिस्तान भी शामिल हैं ।

इसके अतिरिक्त जार्जिया, यूक्रेन सहित कुल 15 गणराज्य नये राष्ट्रों के रूप में स्थापित हुये हैं । उधर साम्यवाद के पतन के बाद यूगोस्लाविया का भी विघटन हो गया है तथा वहाँ सर्बिया, मान्टेनिग्रो, मालडोबिया जैसे नये राष्ट्र अस्तित्व में आ गये हैं । ये नये राष्ट्र यूरोप में स्थित हैं । इनमें से कई यूरोपीय आर्थिक समुदाय- यूरोपीय संघ के सदस्य भी बन गये हैं तथा पश्चिमी देश इनको नाटो में भी शामिल कर हैं ।

4. उदारवादी पूँजीवादी विचारधारा की श्रेष्ठता (Superiority of Moderate Capitalist Ideology):

सोवियत संघ व पूर्वी यूरोप में साम्यवादी व्यवस्था की समाप्ति के बाद साम्यवादी धनधारा की उपयोगिता पर प्रश्न चिह्न खड़े हो गये हैं । वैश्वीकरण और निजीकरण के वर्तमान युग में विश्व के अधिकांश देशों द्वारा पूंजीवादी उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया जा रहा है तथा तीव्र आर्थिक विकास के लिए इसी व्यवस्था को श्रेष्ठ माना जाता है ।

प्रसिद्ध अमरीकी विद्वान फ्रांसिस फुफुयामा ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की जीत को इतिहास के अंत की संज्ञा दी है । यद्यपि तत्कालिक तौर पर पूँजीवाद और उदारवाद श्रेष्ठता स्पष्ट है, लेकिन सामाजिक न्याय तथा समता की दृष्टि से कई विद्वान अब भी पूँजीवाद से संतुष्ट नहीं है । क्योंकि इसमें धन का उत्पादन तो तेजी से होता है लेकिन उसका समान वितरण नहीं हो पाता ।

अत: अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ती जाती है । पूंजीवादी व्यवस्था में राज नियन्त्रण के स्थान पर बाजारू शक्तियों का वर्चस्व रहता है । कुछ भी हो वर्तमान परिदृश्य में साम्यवादी विचारधारा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है तथा बहुमत उदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था को अपना रहा है ।

5. वैश्विक समस्याओं का समाधान (Solution to Global Problems):

शीतयुद्ध काल में दोनों महाशक्तियों के मतभेद और संघर्ष के कारण विश्व की कई समस्याएं जैसे- दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद, शस्त्रों की दौड़, पश्चिम एशिया की समस्या आदि शीतयुद्ध की राजनीति का शिकार हो गयी थी । शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद इन समस्याओं के समाधान के लिए दोनों महाशक्तियों में सहयोग की नई पहल देखी गयी ।

इसका परिणाम यह हुआ कि 1990 के दशक में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति समाप्त हो गयी । पश्चिमी एशिया के समाधान की कोशिश जारी है साथ ही दोनों महाशक्तियों सहित विश्व के सभी देश आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, विश्व आर्थिक मंदी, गरीबी निवारण तथा खाद्य सुरक्षा जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए सहयोग के लिए तत्पर हैं तथा शीघ्र ही इन समस्याओं के समाधान में सहयोग की नई लहर दिखाई देगी ।

मुख्य बात यह है कि आज विश्व की समस्याओं का विश्लेषण शीतयुद्ध के आईने से नहीं किया जाता बल्कि उनका विश्लेषण विश्व समुदाय के व्यापक हितों तथा राष्ट्रीय हितों के आलोक में ही किया जाता है ।