Read this article in Hindi to learn about:- 1. क्षेत्रीयतावाद का अर्थ (Meaning of Regionalism) 2. क्षेत्रीय आकांक्षाएँ तथा संघर्ष (Regional Aspirations and Struggles) 3. भारत में क्षेत्रीय दलों का उदय व विकास (Rise and Development of Regional Parties in India) and Other Details.

क्षेत्रीयतावाद का अर्थ (Meaning of Regionalism):

क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति को क्षेत्रीयतावाद कहते है । क्षेत्रीय भिन्नतायें भारत के सामाजिक व राजनीतिक ढाँचे की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । क्षेत्रीय भिन्नताओं का आधार भाषागत, धार्मिक, जातिगत, सांस्कृतिक, भौगोलिक अथवा इनमें से कोई भी हो सकता है । क्षेत्रीयतावाद इन्हीं भिन्नताओं के आधार पर निर्मित क्षेत्रीय पहचान व आकांक्षाओं की राजनीतिक व सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है ।

क्षेत्रीयतावाद को समझने के लिये ‘क्षेत्र’ का तात्पर्य समझना आवश्यक है, क्योंकि क्षेत्रीय पहचान की अभिव्यक्ति किसी भौगोलिक क्षेत्र के सन्दर्भ में ही होती है । लेकिन क्षेत्रीयतावाद के विकास के लिये केवल भौगोलिक क्षेत्र का होना ही पर्याप्त नहीं है । सामाजिक वैज्ञानिकों ने इसकी परिभाषा में गैर-भौगोलिक तत्वों को अधिक महत्व दिया है ।

एस. आर. माहेश्वरी के अनुसार- ‘क्षेत्र एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथ्य है तथा यह बहुत से उद्देश्यों के लिये सामाजिक समूहों का केन्द्र है’ । अंत: क्षेत्रीयतावाद की धारणा में क्षेत्र केवल एक भौगोलिक अभिव्यक्ति नहीं है वरन् वह एक सांस्कृतिक व सामाजिक साझेदारी व हित समूह का क्षेत्र है ।

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एक तरफ जहाँ क्षेत्रीयतावाद को समझने के लिये क्षेत्र का सन्दर्भ आवश्यक है वहीं दूसरी ओर इसे समझने के लिये राष्ट्र का सन्दर्भ आवश्यक है । क्षेत्रीय पहचान राष्ट्रीय पहचान से भिन्न तत्व है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि दोनों सदैव एक-दूसरे के विरोधी हों ।

क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति राष्ट्रीय हितों की तुलना में क्षेत्रीय हितों को अधिक महत्व देती है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह राष्ट्रीय हितों की विरोधी है । क्षेत्रीयता अपने उग्र रूप में राष्ट्रीय हितों की विरोधी होती है । क्षेत्रवाद व राष्ट्रवाद एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं एक-दूसरे के समानान्तर चल सकते हैं तथा अपने उग्र रूपों में एक-दूसरे के विरोधी हो सकते हैं ।

अत: निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि क्षेत्रीयतावाद राष्ट्रीय पहचान से भिन्न किसी क्षेत्रीय पहचान पर आधारित एक ऐसा दृष्टिकोण व उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति है जो कतिपय क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता के आधार पर प्राप्त करने का प्रयास करता है ।

उक्त परिभाषा के आधार पर हम क्षेत्रीयतावाद के कतिपय मौलिक तत्वों को चिह्नित कर सकते हैं:

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1. यह एक दृष्टिकोण व उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति दोनों है ।

2. यह दृष्टिकोण क्षेत्रीय पहचान पर आधारित होता है । इस पहचान का आधार उस क्षेत्र की भाषा संस्कृति आदि कुछ भी हो सकता है ।

3. यह क्षेत्रीय पहचान राष्ट्रीय पहचान से भिन्न होती है ।

4. क्षेत्रीयतावाद में राष्ट्रीय हितों की तुलना में क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता दी जाती है ।

क्षेत्रीय आकांक्षाएँ तथा संघर्ष (Regional Aspirations and Struggles):

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भारत विभिन्नताओं में एकता का देश है । भारत में क्षेत्रीय विविधताएँ बहुत अधिक हैं । इन विविधताओं की सबसे खास बात यह है कि इनका ऐतिहासिक व सांस्कृतिक आधार बहुत मजबूत है । इसी कारण क्षेत्रीय विविधताओं ने भारत के एकीकरण सम्पूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया तथा सामाजिक-आर्थिक विकास अर्थात् भारतीय जन-जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया है ।

शासन व्यवस्था का स्वरूप चाहे कुछ भी हो इन विविधताओं की छाप उसमें दिखाई देगी । भारत में जो संघात्मक व्यवस्था अपनायी गयी है तथा केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है, उसी कारण भी भारत की क्षेत्रीय भिन्नताएँ ही हैं । संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों के माध्यम से क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान किया गया है ।

वहीं देश की एकता व अखण्डता को सुरक्षित करने के लिये ही शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की गयी है । अम्बेडकर ने इसी आधार पर भारत में एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना का समर्थन किया था ।

भारत में लोकतंत्र है तथा इसी कारण क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के अधिक अवसर हैं । तानाशाही व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के कम अवसर होते हैं, क्योंकि उन्हें दबा दिया जाता है । भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में हुई है । कई अवसरों पर यह अभिव्यक्ति तनावों तथा विघटनकारी प्रवृत्तियों के रूप में भी देखने में आई है ।

भारत में क्षेत्रीय दलों का उदय व विकास (Rise and Development of Regional Parties in India):

भारत में क्षेत्रीयतावाद भारत की क्षेत्रीय पहचान की राजनीतिक अभिव्यक्ति का परिणाम है । भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक प्रक्रिया में क्षेत्रीय पहचान की संगठित अभिव्यक्ति के लिये क्षेत्रीय दलों का गठन आवश्यक है । लेकिन भारत में क्षेत्रीयतावाद की बढ़ती प्रवृत्ति तथा क्षेत्रीय दलों के विकास व बढ़ते महत्व के लिये कतिपय तत्व भी महत्त्वपूर्ण है ।

संक्षेप में भारत में क्षेत्रीय दलों तथा क्षेत्रीयतावाद के विकास के निम्न कारण हैं:

1. भारत की क्षेत्रीय विविधताएँ व क्षेत्रीय पहचान (Regional Identity):

भारत में क्षेत्रीय पहचान अत्यंत मजबूत है, क्योंकि वह एक ठोस सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरातल पर आधारित है । इस पहचान का आधार भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज अथवा विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियाँ कुछ भी हो सकता है । इस पहचान की संगठित अभिव्यक्ति क्षेत्रीय दलों के माध्यम से ही हो सकती है । अत: भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । इस प्रकार क्षेत्रीय राजनीतिक दल क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन जाते हैं ।

2. संघात्मक व्यवस्था तथा लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया (Federal System and Democratic Political Process):

भारत एक बड़ा देश है जिसका शासन एक ही केन्द्र से नहीं किया जा सकता है । यदि ऐतिहासिक परिवेश में देखा जाए तो भी भारत में प्राचीनकाल से ही क्षेत्रीय स्वायत्ता का अस्तित्व रहा है । भारत के नये संविधान में संघात्मक व्यवस्था के अंतर्गत राज्य स्तर पर राजनीतिक गतिविधियों को नया आयाम प्राप्त हुआ ।

राज्यों की अपनी अलग राजनीतिक व्यवस्थाएं हैं, जिसका क्रियान्वयन लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से ही होता है । अत: संघात्मक व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आलोक में राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दलों का विकास व क्षेत्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ।

3. राष्ट्रीय दलों के जनाधार का ह्रास (Deficiency of National Parties):

भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व कायम हुआ जो कि एक पार्टी से अधिक भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रतीक थी । स्वतंत्रता आन्दोलन की विरासत के कारण कांग्रेस एक सामाजिक व राजनीतिक गठबन्धन के रूप में थी जिसमें देश के विभिन्न वर्गों क्षेत्रों व विशिष्ट हितों का समायोजन किया गया था । कई कारणों से 1980 के दशक के अतः तक आते-आते कांग्रेस की यह समायोजन क्षमता कमजोर होने लगी तथा वह विभिन्न क्षेत्रीय हितों को प्रभावी प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं कर सकी । कांग्रेस पार्टी का क्षेत्रीय जनाधार क्रमश: कमजोर हुआ तथा इसी अनुपात में क्षेत्रीय आकांक्षाओं व समस्याओं के समाधान हेतु क्षेत्रीय दलों का जनाधार व्यापक हुआ ।

4. क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या (Problem of Regional Imbalance):

भारत में विकास की जो प्रक्रिया अपनायी गयी उसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों का संतुलित विकास नहीं हो पाया । विभिन्न प्रदेशों के अंदर स्थित उप-क्षेत्रों का विकास भी संतुलित नहीं था । इससे यहाँ गरीबी बेरोजगारी तथा अशिक्षा जैसी समस्याएं दूर नहीं हो सकीं । क्षेत्रीय दलों की उत्पत्ति व विकास के लिए ऐसी परिस्थितियाँ अत्यन्त अनुकूल होती हैं ।

भारत में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय व विकास अपने क्षेत्र के लिए विकास के आधार पर नये राज्यों की माँग को लेकर हुआ है । छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, झारखण्ड की माँग वहाँ के क्षेत्रीय दलों द्वारा ही की गयी थी । वर्तमान में तेलंगाना राष्ट्र समिति द्वारा आन्ध्र प्रदेश में अलग तेलंगाना राज्य के लिये आन्दोलन चलाया गया है तथा केन्द्र सरकार ने वहाँ अलग तेलंगाना राज्य की स्थापना हेतु सहमति व्यक्त की है ।

5. क्षेत्रीय नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं (Political Ambitions of Regional Leaders):

क्षेत्रीय नेताओं में पनप रही राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा भी राजनीतिक दलों के उदय व विकास में सहायक रही है । ऐसा महत्त्वाकांक्षी नेतृत्व क्षेत्रीय पहचान के आधार पर किसी राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जनसमर्थन जुटाने में सफल रहता है । क्षेत्रीय नेताओं द्वारा राजनीतिक सफलता प्राप्त करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों का गठन किया जाता है तथा स्वायत्तता अथवा अलग राज्य के आन्दोलनों को हवा दी जाती है ।

धरती-पुत्र (Son of Soil) की धारणा (The Notion of Son of Soil):

धरती पुत्र की धारणा क्षेत्रीयता का अभिव्यक्ति का एक नया रूप है । इसका तात्पर्य यह है कि किसी क्षेत्र विशेष या राज्य में दूसरे क्षेत्रों के निवासियों को रोजगार प्राप्त करने या निवास करने का अधिकार नहीं है । भारत के कई राज्यों में दूसरे राज्यों के निवासियों के प्रति विरोध व्यक्त किया जाता रहा है ।

धरती-पुत्र की धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों पर उसी क्षेत्र के निवासियों का अधिकार है । महाराष्ट्र में शिव सेना ने बम्बई शहर में बिहार और उत्तर प्रदेश के निवासियों के विरुद्ध कई बार आन्दोलन चलाया है ।

शिव सेना का मानना है कि बाहरी राज्यों के लोग बम्बई में रोजगार के अवसर प्राप्त का लेते हैं, जबकि महाराष्ट्र के लोग बेरोजगारी की समस्या का सामना करते हैं और संसाधनों के प्रयोग से वंचित रह जाते हैं । 1980 के दशक में असम में भी बंगालियों के विरुद्ध इसी तरह का आन्दोलन चलाया गया था ।

क्षेत्रीय आकांक्षाओं के प्रति भारतीय दृष्टिकोण (Indian Approach to Regional Aspirations):

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत क्षेत्रीय विविधताओं का देश है । आजादी के पहले और विशेषकर उसके बाद भारत सरकार का यह दृष्टिकोण रहा है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं का राष्ट्रीय हितों के साथ समायोजन किया जाये ।

भारत की नीति यह है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति स्वाभाविक है तथा इसे तब तक राष्ट्र विरोधी नहीं माना जा सकता जब तक कि यह अलगाववाद का रूप न ले ले । अत: भारतीय नीति में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति व समायोजन का प्रयास किया जाता है ।

इस नीति के अंतर्गत भारत में क्षेत्रीय आकांक्षाओं के समायोजन के लिए कई उपाय अपनाये गये हैं:

(i) भारत की क्षेत्रीय विविधता को देखते हुए भारत में संघात्मक व्यवस्था को अपनाया गया है, जिसके अंतर्गत संविधान के द्वारा ही राज्य सरकारों की स्थापना की जाती है तथा संविधान द्वारा दिये गये स्थानीय महत्व के मामलों पर उन्हें शासन करने का अधिकार प्राप्त है ।

(ii) क्षेत्रीय आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए 1956 में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया है । वर्तमान में अधिकांश राज्य भाषायी पहचान के आधार पर गठित हैं । इसके लिए 1950 के दशक में विभिन्न दक्षिणी राज्यों में आन्दोलन चलाया गया था ।

(iii) 1956 के बाद भी भाषायी पहचान के आधार पर राज्यों के गठन की माँग को सरकार द्वारा समय-समय पर स्वीकार किया गया है । उदाहरण के लिए, 1960 में इसी आधार पर महाराष्ट्र और गुजरात दो राज्यों का गठन हुआ तथा 1966 में हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश का गठन किया गया ।

(iv) भाषा के अलावा सांस्कृतिक व आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर भी राज्यों के गठन की माँग की गयी है । ऐसी क्षेत्रीय आकांक्षाओं के समायोजन के लिए भी अलग राज्यों के गठन का मार्ग अपनाया गया है । उदाहरण के लिए, 2000 में क्रमश: उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश तथा बिहार का विभाजन करके उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ तथा झारखंड राज्यों का गठन किया गया है । यह प्रक्रिया अब भी जारी है । आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना राज्य की मांग को भी केंद्र सरकार ने 2013 में स्वीकार कर लिया है ।

दक्षिण भारत में द्रविड़ आंदोलन:

दक्षिण भारत का द्रविड़ आंदोलन भारत का पहला क्षेत्रीय आन्दोलन है । इस आन्दोलन की शुरुआत 1920 के दशक में प्रमुख तमिल समाज सुधारक ई. वी. रामास्वामी नायकर ने की थी । उन्हें पेरियार नाम से भी जाना जाता है । पेरियार का शाब्दिक अर्थ है- सम्मानित व्यक्ति । इस आन्दोलन द्वारा तमिलनाडु में ब्राह्मणों तथा उच्च वर्गों के वर्चस्व के विरुद्ध सामाजिक सुधार का आन्दोलन चलाया गया ।

इस आन्दोलन में उत्तरी भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सास्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध आवाज उठाई गयी तथा धीरे-धीरे यह आन्दोलन सम्पूर्ण दक्षिण भारत में फैल गया, लेकिन तमिलनाडु के अतिरिक्त अन्य दक्षिण भारतीय राज्यो जैसे- कर्नाटक, आन्ध प्रदेश, केरल आदि में इसका प्रभाव कम था इस आन्दोलन में एक वर्ग द्वारा एक स्वतंत्र द्रविड राष्ट्र की स्थापना की माँग की गयी, लेकिन समर्थन के अभाव में शीघ्र ही इस माँग को छोड़ दिया गया ।

इस आन्दोलन में हिंसा का प्रयोग नहीं किया गया तथा शांतिपूर्ण राजनीतिक साधनों के माध्यम से इसके उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास किया गया । द्रविड आन्दोलन की सफलता के कारण दक्षिण भारत में क्षेत्रीय दलों का उदय व विकास हुआ तथा उन्हे राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने में सफलता मिली ।

आन्दोलन को संगठित रूप देने के लिए नायकर द्वारा 1944 में जस्टिस पार्टी के साथ मिलकर द्रविड कडगम नामक पार्टी की स्थापना की गयी । इस पार्टी द्वारा उत्तर भारतीय प्रभुत्व को समाप्त करने का आन्दोलन चलाया गया पार्टी ने दक्षिण भारत में हिन्दी थोपने का भी विरोध किया । चूंकि उनके आन्दोलन का रुख अलगाववादी था, अत: उसे अधिक सफलता नहीं मिली ।

इस आंदोलन से जुड़े एक अन्य नेता सी. एन. अन्नादूराई ने 1949 में एक अलग पार्टी की स्थापना की, जिसका नाम द्रविड़ मुनेत्र कदगम रखा गया । इस नई पार्टी ने यद्यपि 1962 में द्रविड़नाडु नामक एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग उठाई, लेकिन शीघ्र ही उसे वापस ले लिया गया । 1967 में इस पार्टी को तमिलनाडू में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त हुई । 1969 में अन्नादुराई की मृत्यु के बाद पार्टी का नेतृत्व एम. करुणानिधि को प्राप्त हो गया ।

1972 में द्रविड मुनेत्र कडगम में विभाजन हो गया । इसके पुराने गुट का नेतृत्व एम करुणानिधि कर रहे हैं । विभाजन के बाद अन्ना द्रविड मुनेत्र कडगम नाम के एक नये क्षेत्रीय दल का गठन हुआ, जिसके नेता एम. जी रामचन्द्रन थे । 1987 में एम. जी. रामचन्द्रन की मृत्यु के बाद इस पार्टी का नेतृत्व जयललिता के हाथों में आ गया है । वर्तमान में यही दोनों क्षेत्रीय दल तमिलनाडु की राजनीति में सक्रिय हैं ।

भारत में क्षेत्रीय आकांक्षाओं के बीच राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को मजबूत बनाने के उपाय (Measures to Strengthen National Integration and Integrity between Regional Aspirations in India):

भारत एक क्षेत्रीय विविधताओं वाला विशाल देश है । भारत में क्षेत्रीयता व अलगाववाद के उक्त विश्लेषण के आधार पर भारत में एकता और अखण्डत बनाये रखने की निरन्तर आवश्यकता है ।

इसके लिए निम्न उपायों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है:

(i) सर्वप्रथम भारतीय जून, निर्माताओं तथा जनमानस में यह दृष्टिकोण मजबूत होना चाहिए कि क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति भारत की विभन्नताओं की दृष्टि से एक स्वाभाविक परिणाम है, अत: इसे राष्ट्र विरोधी प्रक्रिया के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए । लेकिन अलगाववादी ताकतों का मजबूती के साथ सामना किया जाना चाहिए ।

(ii) क्षेत्रीय आकांक्षाओं के समायोजन के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत किया जाना आवश्यक है । ताकि इन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति में हिंसा के तत्व को कम किया जा सके तथा शांतिपूर्ण समायोजन का मार्ग अपनाया जा सके ।

(iii) क्षेत्रीय आकांक्षाओं की उग्र अभिव्यक्ति का एक मुख्य कारण विभिन्न क्षेत्रों का असंतुलित विकास है । अत: यह आवश्यक है कि भारत में आर्थिक विकास में संतुलन स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिए । संतुलित आर्थिक विकास से क्षेत्रीय आकांक्षाओं की उग्र अभिव्यक्ति को रोका जा सकता है ।

(iv) भारत में विभिन्नताओं को संरक्षित करके ही एकता और अखण्डता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । अत: विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को दबाने की बजाए उसे संरक्षित करने की आवश्यकता है । भारत में पाँचवीं और छठवीं अनुसूची में तथा अनुच्छेद 371 में विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित करने के उपायों की व्यवस्था की गयी है ।

इसी तरह आठवीं अनुसूची में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता प्रदान की गयी है । आवश्यकता इस बात की है कि इन उपायों को दृढ़ता के साथ लागू किया जाये ताकि क्षेत्रीय जनता में सांस्कृतिक आधार पर अलगाववाद की भावना न पनप सके ।