भारत में क्षेत्रवाद पर निबंध! Here is an essay on ‘Problem of Regionalism in India’ in Hindi language.

व्यक्ति जहाँ जन्म लेता है, जहाँ अपना जीवन व्यतीत करता है, उस स्थान के प्रति उसका लगाव होना स्वाभाविक होता है वह अपने क्षेत्र-विशेष को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त एवं उन्नत बनाने के लिए प्रयासरत रहता है, लेकिन जब यह भावना और लगाव अपने ही क्षेत्र-विशेष तक सिमटकर अत्यन्त संकीर्ण रूप धारण कर लेती है, तब ‘क्षेत्रवाद’ की समस्या जन्म लेती है ।

केवल अपने ही क्षेत्र-विशेष के लिए विशेष सुविधाओं की इच्छा के कारण यह अवधारणा नकारात्मक बन जाती है । इससे क्षेत्र बनाम राष्ट्र की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं । क्षेत्रवाद, राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बडी बाधा है, क्योंकि क्षेत्रवाद से ग्रस्त निवासी अपने क्षेत्र को अन्यों से विशिष्ट मानते हुए उचित-अनुचित तरीके से विकास की माँग करते हैं एवं अपने क्षेत्र में आने वाले दूर से राज्यों के नागरिकों के प्रति द्वेषपूर्ण भावना रखते हैं ।

भारत में क्षेत्रवाद की दुर्भावना पनपने के कई कारण हैं यहाँ भौगोलिक विभिन्नता, आर्थिक असन्तुलन, भाषागत विभिन्नता व राज्यों के आकार में असमानता के कारण क्षेत्रवाद की समस्या अधिक तीव्र हुई है । इससे पृथकतावादी को प्रोत्साहन मिला है व भूमि-पुत्र की अवधारणा का विकास हुआ है ।

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भारत के कुछ राज्यों जैसे- महाराष्ट्र गुजरात, कर्नाटक आदि में तीव्र गति से विकास हुआ है, जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्यों में विकास दर बहुत ही धीमी है । दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है, जबकि उत्तर-पूर्वी राज्यों को उनके हाल पर छोड दिया गया है ।

विकास में असन्तुलन और प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण राज्यों मैं मतभेद होते रहते हैं । जिनसे क्षेत्रवाद को बढावा मिला है । इन सबके अतिरिक्त, भारत में जातिवाद के कारण भी क्षेत्रवाद को बढावा मिला है । हरियाणा और पंजाब इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं ।

भारत में क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन देने में राजनीति भी एक प्रमुख कारक है । शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसी कुछ राजनीतिक पार्टियों के सदस्य वोट की राजनीति और स्वार्थी प्रवृति के चलते धर्म, जाति, वर्ग, क्षेत्र, सम्प्रदाय आदि का सहारा लेकर नफ़रत की राजनीति करते हैं और विघटनकारी रास्तों के द्वारा उन्माद फैलाकर वोट बैंक बनाने की कोशिश करते हैं ।

यदि राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए, तो भारत में क्षेत्रवाद की समस्या को बल राजनीतिज्ञों द्वारा ही मिला है । वर्ष 1968 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग व नक्सलबादी क्षेत्रों में होने वाले उपद्रवों से चिन्तित होकर केन्द्र सरकार द्वारा उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में हथियार रखने पर प्रतिबन्ध लगा देने को राज्य सरकार द्वारा केन्द्र का हस्तक्षेप व जनता पार्टी के शासनकाल में गौहत्या प्रतिबन्ध के विषय पर केन्द्र और तमिलनाडु, केरल व पश्चिम बंगाल की सरकारों के बीच विवाद उत्पन्न होना उग्र क्षेत्रवाद के उदाहरण है ।

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भारत की संघात्मक व्यवस्था में प्रशासनिक एकरूपता पर बल दिया गया है, जिसका उद्देश्य ‘विविधता में एकता’ की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय विरासत को बनाए रखना है, किन्तु दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता के बाद से ही देश के कई भागों से भाषा, जाति, सम्प्रदाय आदि के आधार पर नए राज्यों की माँग उठती रही है और नए राज्य न सिर्फ बनते रहे हैं, बल्कि समय-समय पर और नए राज्यों की माँग भी जोर पकड़ती रही हे ।

वर्ष 1953 में आन्ध्र प्रदेश का गठन भाषा के आधार पर किया गया था । उसके बाद वर्ष 2000 तक भारत में राज्यों की कुल संख्या 28 हो गई । 2 जून, 2014 को आन्ध्र प्रदेश के पुन विघटन होने पर एक और नया राज्य तेंलगाना अस्तित्व में आ चुका है, जिससे कुल राज्यों की संख्या बढ़कर 29 हो गई है ।

अधिक अधिकार एवं सुविधाओं के नाम पर अब तक कई राज्यों का विभाजन या पुनर्गठन हो चुका है । जैसे- उत्तर प्रदेश से उत्तराखण्ड, बिहार से झारखण्ड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ इत्यादि ।  हाल ही में तेलंगाना को अलग राज्य के रूप में स्वीकृति मिलने से पश्चिम बंगाल से गोरखालैण्ड, बिहार से मिथिलाचल, असोम से बोडोलैण्ड, उत्तर प्रदेश से पूर्वांचल इत्यादि क्षेत्रों को भी राज्यों के रूप में अलग करने की माँगें पुन: जोर पकड़ती जा रही हैं ।

गौरतलब है कि बार-बार नए राज्यों के गठन से देश की एकरूपता एवं अखण्डता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और क्षेत्रवाद प्रबल होता जाता है । आवश्यकता पड़ने पर प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्यों में जिलों की संख्या बढ़ाना विकास की दृष्टि से ज्यादा फायदेमन्द सिद्ध होगा । इससे विकास को गति मिलेगी ।

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ज्यादातर स्थितियों में देखा जाता है कि नेतागण अपना उल्लू सीधा करने के लिए या राजनीतिक लाम के लिए ही जनता को अलग राज्य की माँग हेतु उकसाते हैं । प्रायः नए राज्यों के गठन की माँग के वक्त विकास का हवाला दिया जाता है, किन्तु राज्यों के पुनर्गठन से यदि बिकास को गति मिलती, तो इसका उदाहरण हमें अब तक कई बार मिल चुका होता ।

अब तक एक भी ऐसा नया राज्य सामने नहीं आया हे, जिसकी विकास दर में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई हो । अतः यदि हमें देश का विकास करना है और इसकी अखण्डता को असुण्ण बनाए रखना है, तो हमें नए राज्यों का नहीं, बल्कि विकास की नीतियों का पुनर्गठन करना होगा ।

इस तरह यह स्पष्ट है कि भाषा, क्षेत्र या विकास का हवाला देकर नए राज्यों की माँग करना और क्षेत्रवाद की समस्या को जन्म देना सर्वथा अनुचित है । क्षेत्रवाद हमारे देश की संघीय संरचना पर तीखा प्रहार करके हमारी राष्ट्रीय एकता को क्षीण करता है । क्षेत्रीयता एवं प्रान्तीयता की भावना जब-जब राष्ट्रीय हितों से संघर्ष करती है, तब-तब देश की एकता एवं अखण्डता के लिए खतरा उत्पन्न होता है ।

पिछले एक दशक के दौरान इन्हीं सब कारणों से एशिया के अनेक देशों में विखण्डन हो चुका है । केन्द्र में गठबन्धन सरकारों के अस्तित्व के दौरान ही, क्षेत्रीयता की माँग जोर पकडती है । क्षेत्रीय दल केन्द्र से क्षेत्रीय मुद्दों पर समझौता करके गठबन्धन सरकार का समर्थन करते हैं । अनेक बार ऐसा हुआ है कि केन्द्र सरकार, जिसमें किसी एक दल का प्रभाव होता है, राज्य के विरोधी दलों की सरकारी के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाती है ।

अतः केन्द्र एवं राज्य दोनों को सहयोगी रुख अपनाकर क्षेत्रवाद की समस्या का समाधान करने की आवश्यकता है । इसके अतिरिक्त, इस समस्या के निराकरण के लिए राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करना भी आवश्यक है साथ ही प्रत्येक क्षेत्र के आधारभूत ढाँचे का विकास कर, राजनेताओं के राजनीतिक स्वार्थ पर प्रतिबन्ध लगाना तथा जनसामान्य को शिक्षित एवं जागरूक बनाकर उनमें विश्व-बन्धुत्व की भावना जगाना भी जरूरी है ।

स्वतन्त्रता के साथ ही हमने एक विभाजन का दर्द झेला है, अब हम पुन किसी विभाजन को बर्दाश्त नहीं कर सकते, इसलिए हमें एकजुट होकर इस देश को सशक्त एवं सनातन रूप से जीवन्त और जागृत रखना होगा । इन उद्देश्यों को पूरा करना तब ही सम्भव होगा जब हम क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों को देशद्रोही मानकर उनका दमन करेंगे ।

यदि हम भारतवासी किसी कारणवश छिन्न-भिन्न हो गए, तो हमारी पारस्परिक फूट को देखकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हडपने का प्रयास करेंगे । इस प्रकार अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए भी राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है और राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए क्षेत्रवाद की संकीर्ण मानसिकता के विस्तार पर किसी भी तरह अंकुश लगाना समय की माँग है ।

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