Read this article in Hindi to learn about the political system of America.

संयुक्त राज्य अमेरिका के केंद्रीय विधानमंडल का नाम कांग्रेस है । उसके दो सदन हैं: प्रतिनिधि सभा और सीनेट । प्रतिनिधि सदन समूचे अमेरिकी राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है जबकि सीनेट में प्रत्येक राज्य को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया गया है ।

प्रतिनिधि सदन को निम्न सदन भी कहा जाता है जोकि जनसंख्या के आधार पर चुना जाता है, इसीलिए इसमें बड़े राज्यों को अधिक प्रतिनिधित्व और छोटे राज्यों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है । जबकि सीनेट में सभी छोटे-बड़े राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया है ।

प्रतिनिधि सभा (America’s House of Representative):

अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं । कांग्रेस का लोकप्रिय सदन प्रतिनिधि सभा है, इसका कारण यह है कि जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधि सभा का गठन होता है जबकि सीनेट का गठन संघीय आधार पर किया जाता है ।

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अत: सीनेट यदि राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है तो प्रतिनिधि सभा जनता का प्रतिबिम्ब है । पैटरसन के शब्दों में- ”प्रतिनिधि सभा समूचे राष्ट्र का एक संक्षिप्त संस्करण है । वह अमेरिका के समूचे जीवन को अभिव्यक्त करती है । सामाजिक, मानसिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्रों में पाई जाने वाली समस्त विविधताओं, अच्छाइयों और बुराइयों को वह अच्छी तरह दर्शाती है ।”

प्रतिनिधि सभा की रचना:

प्रतिनिधि सभा के सदस्य भारतीय लोकसभा की भांति वयस्क मताधिकार के आधार पर एक-सदरचीय चुनाव-क्षेत्र प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं । 18 वर्ष के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को मताधिकार प्राप्त है ।

संविधान का 15वां और 19वां संशोधन राज्यों को यह आदेश देता है कि जाति, रंग, पहले की दासता अथवा लिंग के आधार पर कोई भी व्यक्ति मताधिकार से वंचित न किया जाए । फलस्वरूप, अमेरिका में अब वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) का सिद्धांत देखने को मिलता है ।

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26वें संशोधन (1971) द्वारा मताधिकार की न्यूनतम आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई । साधारणतया: हर वोटर के लिए यह जरूरी है कि वह उस राज्य का नागरिक हो जिसमें कि वह मतदान कर रहा है । इसके अतिरिक्त पागल, मूर्ख, और देशद्रोह के अपराध में सजा पाए हुए व्यक्तियों को मताधिकार से वंचित किया गया है ।

जहाँ तक प्रतिनिधि सभा के कार्यकाल का सवाल है, यह कार्यकाल दो वर्ष का है । यह कार्यकाल किसी भी परिस्थिति में न घटाया जा सकता है और न बढ़ाया । दो वर्ष की अवधि से पूर्व सदन का विघटन संभव ही नहीं है । इसी प्रकार चाहे युद्धकाल की स्थिति हो या फिर आपातकाल की, सदन के चुनाव स्थगित नहीं किये जा सकते । हर दो वर्ष के पश्चात सदन के सदस्यों का चुनाव होना जरूरी है ।

प्रतिनिधि सभा के सदस्य चुने जाने के लिए उम्मीदवारों में निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिए:

1. वह कम से कम सात वर्षों से संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक हो

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2. उसकी आयु कम से कम 25 वर्ष हो ।

3. वह संयुक्त राज्य अमेरिका में कोई नागरिक या सैनिक पदाधिकारी न हो ।

4. वह उस राज्य का निवासी हो जहां से वह चुनाव लड़ रहा है । कुछ राज्यों में यह भी रूढ़ि प्रचलित है कि उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र का निवासी हो जहां से वह चुनाव लड़े । इसको स्थानीय नियम कहते हैं ।

सदस्यों के विशेषाधिकार तथा उनुक्तियाँ:

प्रतिनिधि सदन के सदस्यों को सदन में भाषण देने की स्वतंत्रता है और सरकार की कड़ी से कड़ी आलोचना करने पर भी उनको गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है । उन्हें अधिवेशन के दिनों में किसी दीवानी अभियोग के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और न ही किसी न्यायालय में गवाही देने के लिए बाध्य किया जा सकता है परंतु उन्हें शांति भंग करने, देशद्रोह करने, भ्रष्टाचार अथवा अन्य किसी गंभीर अपराध करने पर किसी भी समय गिरफ्तार किया जा सकता है । इसके साथ-साथ सदस्यों को नि:शुल्क डाक-तार तथा टेलीफोन की सेवाएँ भी उपलब्ध हैं ।

प्रतिनिधि सभा का अध्यक्ष:

स्पीकर का पद बहुत ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि राष्ट्रपति के बाद उसका दूसरा सम्मानित स्थान है । यदि राष्ट्रपति का पद किसी कारण से रिक्त हो जाता है तो उपराष्ट्रपति के पश्चात उसका नंबर आता है ।

अमेरिका के संविधान के प्रथम अनुच्छेद में लिखा है कि प्रतिनिधि सदन अपना स्पीकर चुनेगा । यद्यपि स्पीकर का चुनाव औपचारिक रूप से सारा सदन करता है परंतु वास्तव में वह बहुमत दल का मनोनीत नेता होता है । अत: स्पीकर का चुनाव दलीय आधार पर होता है जिसमें बहुमत दल के उम्मीदवार की ही जीत होती है । शक्तियों की दृष्टियों से भी स्पीकर पद का बड़ा महत्व है ।

स्पीकर द्वारा प्रयोग की गई जाने वाली शक्तियों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है:

1. सदन की अध्यक्षता स्पीकर द्वारा की जाती है तथा उसकी अनुपस्थिति में किसी अन्य व्यक्ति को अस्थाई रूप से अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है ।

2. सदन में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना उसकी जिम्मेदारी है ।

3. वह सदस्यों को अनुमति प्रदान करता है कि किसे बोलना है और किसे नहीं बोलना है अथवा किसे पहले बोलना है और किसे बाद में ।

4. सदन के नियमों की व्याख्या और उन्हें लागू करना स्पीकर का ही उत्तरदायित्व होता है । वह परंपराओं के अनुसार ही सदन की कार्यवाही का संचालन करता है तथा आवश्यकता के अनुसार वह किसी नई रूढि का भी निर्माण कर सकता है । यदि किसी नियम के बारे में कोई वाद-विवाद उत्पन्न हो जाता है, तो उसका निर्णय वह करता है ।

5. वह सदन में सदस्यों के द्वारा उठाये गए व्यवस्था संबंधी प्रश्नों का निर्णय करता है ।

6. विधेयकों पर बहस के पश्चात वह सदन में मतदान करवाता है और परिणाम भी घोषित करता है ।

7. सदन में वह निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता है ।

8. वह प्रवर समितियों, सम्मेलन समिति और विशेष समितियों की नियुक्ति करता है तथा विविध समितियों के पास विधेयकों को भेजता है ।

प्रतिनिधि सभा के कार्य एवं शक्तियाँ:

प्रतिनिधि सभा को प्राप्त शक्तियों और उसके द्वारा संपन्न किए जाने वाले कार्यों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है:

1. विधायी शक्तियाँ:

इस संबंध में कांग्रेस के दोनों सदनों को प्राय: समान शक्तियाँ प्राप्त होती हैं । कोई भी विधेयक जब तक दोनों सदनों में पारित नहीं हो जाता तब तक वह कानून का रूप धारण नहीं करता । वित्तीय विधेयक प्रतिनिधि सभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं, सीनेट में नहीं किंतु सीनेट को इन विधेयकों में संशोधन करने का पर्याप्त अधिकार है । इस प्रकार प्रतिनिधि सभा में उन सभी विधेयकों को रखा जा सकता है जिनका संबंध केंद्रीय विषयों से हो ।

2. संविधान-संशोधन संबंधी शक्तियाँ:

विधायी शक्तियों की भांति संविधान संशोधन के विषय में भी दोनों सदनों को लगभग समान शक्तियाँ प्राप्त हैं । संशोधन का प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा या सीनेट, दोनों में से किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जाता है । ऐसा कोई प्रस्ताव तभी पारित हो सकेगा जब दोनों सदन दो-तिहाई बहुमत से उसे स्वीकार कर लें ।

3. कार्यपालिका शक्तियाँ:

जहां तक प्रतिनिधि सभा की कार्यपालिका शक्तियों का प्रश्न है तो इस क्षेत्र में उसे दो शक्तियाँ प्राप्त हैं:

(i) प्रतिनिधि सभा द्वारा युद्ध की घोषणा की जाती है लेकिन प्रतिनिधि सभा इस शक्ति का प्रयोग सीनेट के साथ मिलकर करती है ।

(ii) दूसरे वह अपनी स्थायी तथा विशेष समितियों के द्वारा संघीय सरकार के प्रशासन तथा संघीय न्यायपालिका के कार्यों की जांच कर सकती है ।

4. न्यायिक शक्तियाँ:

न्यायिक शक्तियों के अंतर्गत प्रतिनिधि सभा द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं अन्य संघीय अधिकारियों के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया जाता है, जिसे सीनेट द्वारा निश्चित प्रक्रिया के आधार पर स्वीकार कर लिये जाने पर संबंधित अधिकारी को उसके पद से हटा दिया जाता है ।

5. निर्वाचन संबंधी शक्तियाँ:

यदि राष्ट्रपति के चुनाव में किसी भी उम्मीदवार को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो प्रतिनिधि सभा प्रथम तीन उम्मीदवारों में से किसी एक को राष्ट्रपति निर्वाचित कर सकती है ।

6. इसके अतिरिक्त प्रतिनिधि सभा को कुछ अन्य शक्तियों भी प्राप्त होती है जैसे कि वह अपने सदस्यों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकती है । इसके साथ-साथ वह अपनी कार्यप्रणाली संबंधी नीतियों का निर्माण करती है और सदस्यों के लिए योग्यताओं का निर्धारण करती है ।

सीनेट (Senate of America):

सीनेट अमेरिकी कांग्रेस का द्वितीय सदन है, पर शक्तियों की दृष्टियों से वह पहला सदन प्रतीत होता है । सीनेट अमेरिकी राजनीति का प्रमुख केंद्र है और उसका राष्ट्रपति पर पर्याप्त नियंत्रण है ।

सीनेट की रचना:

इस समय संयुक्त राज्य अमेरिका में 50 राज्य हैं । प्रत्येक राज्य से चाहे वह बड़ा हो अथवा छोटा, सीनेट में दो सदस्य चुनकर आते हैं, फलस्वरूप सीनेट की कुल सदस्य संख्या 100 है । सीनेट नागरिकों का नहीं बल्कि राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है ।

सीनेट के लिए चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों में निम्न योग्यताओं का होना अनिवार्य है:

1. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है ।

2. वह संयुक्त राज्य अमेरिका का 9 वर्ष से नागरिक होना चाहिए ।

3. वह उस राज्य का निवासी होना चाहिए जहाँ से वह चुनाव लड़ रहा हो ।

4. वह किसी सरकारी लाभ के पद पर आसीन नहीं होना चाहिए ।

सदस्यों का चुनाव:

पहले सीनेट के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से वहाँ के राज्य-विधानमंडल के सदस्यों द्वारा होता था लेकिन यह पद्धति दोषपूर्ण साबित हुई, फलस्वरूप 17वें संशोधन (1913) द्वारा सीनेटरों के चुनाव की पद्धति अप्रत्यक्ष के स्थान पर प्रत्यक्ष कर दी गई । अब वही मतदाता सीनेटरों का चुनाव करते हैं जो प्रतिनिधि सदन के सदस्यों का करते हैं ।

कार्यकाल व अवधि:

सीनेटरों की अवधि 6 वर्ष है परंतु इसका 1/3 भाग प्रति दो वर्ष के पश्चात सेवानिवृत हो जाता है और उनके स्थान पर नये सदस्य चुने जाते हैं । अत: सीनेट एक स्थायी सदन है और इसका विघटन नहीं होता ।

रिटायर होने वाले सदस्य दोबारा चुने जाते हैं, इसलिए बहुत से सदस्य लंबे समय तक इसके सदस्य बने रहते हैं । सीनेट के सदस्यों के वेतन एवं भत्ते तथा विशेषाधिकार एवं उन्मुक्तियाँ प्रतिनिधि सभा के ही समान हैं ।

सीनेट का सभापति:

अमेरिका का उपराष्ट्रपति ही सीनेट का पदेन सभापति होता है । वह सीनेट का सदस्य नहीं होता और न ही बहुमत दल से अपना कोई संबंध रखता है । वह सदन की अध्यक्षता करता है लेकिन सदन की बहस में भाग नहीं लेता । केवल उसी समय अपने मत का प्रयोग करता है जबकि किसी विषय पर सदन में मत बराबर हो जाए । यह उसका निर्णायक मत कहलाता है जिसका प्रयोग वह अपने विवेकानुसार ही करता है ।

सीनेट की शक्तियाँ एवं कार्य:

व्यवस्थापिका का द्वितीय सदन होने के बावजूद भी विश्व के अन्य द्वितीय सदनों की अपेक्षा सीनेट की स्थिति काफी भिन्न है, यह विश्व का सबसे शक्तिशाली द्वितीय सदन है ।

लार्ड ब्राइस के शब्दों में- ”सीनेट शासन में गुरुत्वाकर्षण का केंद्र है । एक ओर तो यह प्रतिनिधि सभा की लोकतंत्रात्मक असावधानी और धृष्टता पर और दूसरी ओर राष्ट्रपति की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर रोक लगाने वाली सदन है ।”

सीनेट के कार्यों एवं शक्तियों का वर्णन निम्न रूप से किया जा सकता है:

1. विधायी शक्तियों:

अमेरिकी संविधान के अनुच्छेद-1 के अनुसार विधायी शक्तियाँ काग्रेस में निहित हैं जो सीनेट तथा प्रतिनिधि सभा नामक दो सदनों से मिलकर बनती हैं । अत: कोई भी साधारण विधेयक तभी पास समझा जाता है जब दोनों सदनों द्वारा उसे स्वीकृति प्राप्त हो । यदि किसी विषय पर कांग्रेस के दोनों सदनों में गतिरोध उत्पन्न हो जाए, तो उसको हल करने के लिए कान्फ्रेंस कमेटी स्थापित की जाती है ।

2. कार्यपालिका शक्तियाँ:

अमेरिकी शासन व्यवस्था में शक्ति पृथक्करण तथा अवरोध एवं संतुलन के सिद्धांत को अपनाया गया है, जिसके कारण अमेरिकी सीनेट के कार्यपालिका संबंधी अधिकार अत्यंत विस्तृत हैं । वह राष्ट्रपति पर नियंत्रण बनाये रखने का कार्य करती हैं और इसके लिए उसके पास दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं ।

पहली शक्ति है कि वह राष्ट्रपति द्वारा जितने भी बड़े-बड़े अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है, उनकी पुष्टि करता है । दूसरे, वह राष्ट्रपति द्वारा की जाने वाली संधियों की पुष्टि करता है । कोई भी संधि तब तक लागू नहीं हो सकती जब तक सीनेट दो-तिहाई बहुमत से उसे स्वीकार न कर ले ।

3. न्यायिक शक्तियाँ:

सीनेट कुछ न्यायिक शक्तियों का भी उपयोग करती है । सीनेट को संविधान में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और सभी असैनिक अधिकारियों को महाभियोग द्वारा हटाने का अधिकार प्राप्त है । महाभियोग की कार्रवाई प्रतिनिधि सभा द्वारा शुरू की जाती है और सीनेट न्यायालय के रूप में बैठता है । यदि सीनेट राष्ट्रपति के विरुद्ध लगाये गये आरोपों की जाँच कर रही हो तो उसकी बैठकों की अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधिपति करता है ।

दोषी साबित हो जाने पर राष्ट्रपति अपने पद से हटा दिया जाता है और वह भविष्य में कोई भी सरकारी पद ग्रहण नहीं कर सकता परंतु सीनेट कारावास या जुर्माने आदि का दंड नहीं दे सकता ।

4. युद्ध तथा शांति की धोषणा:

सीनेट को प्रतिनिधि सदन के साथ मिलकर युद्ध तथा शांति की घोषणा करने का अधिकार है

5. अन्य शक्तियाँ:

उपर्युक्त शक्तियों के अलावा भी सीनेट के द्वारा कुछ अन्य शक्तियों का प्रयोग किया जाता है ।

जैसे:

(i) उपराष्ट्रपति पद के लिए यदि किसी भी उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हो तो उन दो उम्मीदवारों में से जिन्हें सर्वाधिक मत मिले हों, किसी एक को सीनेट उपराष्ट्रपति निर्वाचित कर सकता है ।

(ii) प्रतिनिधि सभा द्वारा पारित वित विधेयक में सीनेट को संशोधन करने का पूर्ण अधिकार है |

राष्ट्रपति (President of America):

अमेरिकी शासन प्रणाली में राष्ट्रपति को स्वेच्छाचारी होने से रोकने और नागरिकों की स्वतंत्रताओं को सुरक्षित रखने के लिए शक्ति-पार्थक्य (Separation of Powers) और अवरोध एवं संतुलन (Checks and Balances) की विस्तृत व्यवस्था की गई है ।

शक्ति-पार्थक्य के सिद्धांत का अर्थ यह है कि शासन की शक्तियाँ, दायित्व और नियंत्रण शासन के किसी एक अंग के हाथों में केंद्रित न रहें बल्कि वे शासन की भिन्न-भिन्न शाखाओं में बँटें हों और ये शाखाएं एक-दूसरे से स्वाधीन हों । इनमें रो किसी अंग को दूसरे से ऊँचा या नीचा न माना जाए, और कोई अंग अपनी शक्तियों का प्रयोग करते समय किसी अन्य अंग के प्रति उत्तरदायी न हो ।

अवरोध एवं संतुलन का सिद्धांत इसका पूरक सिद्धांत है । इसका मतलब यह है कि वैरने तो शासन के तीनों अंग-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका-परस्पर स्वाधीन होंगे, परंतु उन्हें अपने-अपने कार्य सपन्न करने के लिए एक-दूसरे के समर्थन की आवश्यकता होगी । इस तरह से एक-दूसरे की शक्तियों को नियंत्रित और संतुलित करने में समर्थ होंगे ।

अमेरिकी राष्ट्रपति को मुख्य कार्यकारी की संघ दी जाती है । उसका चुनाव चार वर्ष की नियत अवधि के लिए होता है । इस अवधि के दौरान देश के राजनीतिक वातावरण में उतार-चढ़ाव के कारण राष्ट्रपति को अपने पद से नहीं हटाया जा सकता क्योंकि वह अपनी नियुक्ति के लिए या अपने पद पर बने रहने के लिए विधानमंडल के समर्थन पर आश्रित नहीं होता ।

अत: यह संभव नहीं है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस राष्ट्रपति के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव पारित करके उसे अपने पद से हटा दे । फिर, यह भी संभव नहीं है कि राष्ट्रपति कांग्रेस का कार्यकाल पूरा होने- से पहले उसे भंग करके नए चुनाव करा दे ।

राष्ट्रपति को केवल महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले इस पद से हटाया जा सकता है । महाभियोग तब चलाया जाता है जब राष्ट्रपति पर देशद्रोह, भारी भ्रष्टाचार, जघन्य अपराध या दुष्कर्म का आरोप हो । इस कार्रवाई की शुरूआत प्रतिनिधि सभा में की जाती है ।

यदि प्रतिनिधि सभा बहुमत से राष्ट्रपति को दोषी ठहराती है तो सीनेट में उस पर मुकदमा चलाया जाता है । ऐसी हालत में सीनेट एक न्यायालय का रूप धारण कर लेती है, और सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधिपति (Chief Justice of the Supreme Court) उसकी अध्यक्षता करता है हालांकि सामान्य परिस्थितियों में संयुक्त राज्य अमेरिका का उपराष्ट्रपति सीनेट का अध्यक्ष होता है ।

यदि सीनेट दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति के दोष की पुष्टि कर दे तो उसे पद से हटना पड़ेगा । अमरीकी संविधान के करीब 200 वर्ष के इतिहास में केवल एक बार, अर्थात् 1867 में अमरीका के सत्रहवें राष्ट्रपति एंड्रल जॉनसन के विरुद्ध महाभियोग चलाया गया, परंतु सीनेट ने केवल एक वोट के बहुमत से उन्हें दोषमुक्त ठहराया ।

इसके बाद, 1974 में जब प्रतिनिधि सभा ने वाटरगेट कांड के मुद्दे पर राष्ट्रपति निचर्ड निक्सन के विरुद्ध महाभियोग चलाने की तैयारी की तब राष्ट्रपति ने अपने पद से त्यागपत्र देकर यह कार्रवाई शुरू ही नहीं होने दी । फिर, 1999 में जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पर महाभियोग की कार्रवाई शुरू की गई, तब प्रतिनिधि सभा ने तो उन्हें दोषी ठहराया, परंतु सीनेट ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया ।

कोई व्यक्ति अपने जीवन-काल में दो बार से ज्यादा राष्ट्रपति पद के लिए नहीं चुना जा सकता । शुरू में यह व्यवस्था एक प्रथा के रूप में की गई थी, परंतु 1940 में जब अमरीका के 32वें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने इस प्रथा की अवहेलना कर दी तो 1951 के बारहवें संविधान-संशोधन के द्वारा कानूनी तौर पर यह व्यवस्था कर दी गई ।

राष्ट्रपति के चुनाव की पद्धति भी संसदीय प्रणाली से इसकी भिन्नता को स्पष्ट करती है । उसका चुनाव निर्वाचक- गण के माध्यम से होता है । शुरू-शुरू में अमरीकी नागरिक अपने ओर से निर्वाचक-गण के सदस्यों का चुनाव करते हैं; फिर उनके ये विशेष प्रतिनिधि राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं । राष्ट्रपति का चुनाव हो जाने के बाद निर्वाचक गण भंग कर दिया जाता है ।

निर्वाचक गण की व्यवस्था दो शताब्दी पहले की गई थी जब अमरीकी राष्ट्र नया-नया बना था । तब अमरीका में न तो राजनीतिक दलों का विकास हुआ था, न जन-संपर्क के साधन इतने विकसित थे; अत: जनसाधारण के लिए राष्ट्रीय स्तर के नेता का चुनाव करना कठिन था परंतु आज अमरीका एक राष्ट्र के रूप में सुसंगठित हो चुका है; वहाँ डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियाँ राष्ट्र-व्यापी स्तर पर संगठित और सक्रिय हैं; और जन-संपर्क के साधन तो विश्व में सबसे उन्नत हैं ।

अत: आज के युग में निर्वाचक-गण की व्यवस्था केवल औपचारिकता और सुविधा का साधन रह गई है । ‘आज जब कोई भी अमरीकी नागरिक निर्वाचक-गण के सदस्य का चुनाव करने जाता है तो उसे मालूम होता है कि राष्ट्रपति पद के लिए उसका वोट किस उम्मीदवार के पक्ष में जाएगा ?’ इस तरह व्यवहार के स्तर पर राष्ट्रपति अमरीकी नागरिकों का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होता है ।

राज्य के अध्यक्ष के नाते अमरीकी राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रथम नागरिक है, और राष्ट्र की एकता का प्रतीक है । शासन के अध्यक्ष के नाते वह समस्त कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करता है ।

राष्ट्रपति का मंत्रिमंडल उसकी पसंद के अधिकारियों के समूह हैं जिन्हें वह योग्यता, अनुभव, कार्यकुशलता और व्यक्तिगत निष्ठा के आधार पर चुनता है । उन्हें वह जब चाहे रख सकता है, जब चाहे हटा सकता है । राष्ट्रपति के मंत्री उसके सहायक होते हैं, सहयोगी नहीं होते ।

वे उसकी शक्ति या उत्तरदायित्व के हिस्सेदार भी नहीं होते । प्रशासन के संबंध में सारे महत्वपूर्ण और अंतिम निर्णय राष्ट्रपति अपने विवेक से करता है, किसी की सलाह से नहीं, यही तक कि वह संबद्ध विभाग के मंत्री या मंत्रियों से सलाह लेने को भी बाध्य नहीं है ।

मंत्रिमंडल के सदस्यों के अलावा अन्य उच्चाधिकारियों की नियुक्तियाँ भी राष्ट्रपति के अधिकार-क्षेत्र में आती हैं । इनमें सर्वोच्च न्यायालय तथा अन्य संघीय न्यायालयों के न्यायाधीश, राजदूत तथा वाणिज्यदूत, विभिन्न प्रशासनिक आयोगों के अध्यक्ष तथा महान्यायवादी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इन सब नियुक्तियों के लिए सीनेट का अनुसमर्थन आवश्यक होता है ।

उच्चाधिकारियों की नियुक्तियों के अलावा विदेश नीति के संचालन तथा युद्ध और शांति के मामलों में राष्ट्रपति अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । वह नए राज्यों और नई सरकारों को मान्यता प्रदान करता है; विदेशों में अपने विशेष प्रतिनिधि भेजकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करता है और विदेशों के साथ संधियों करता है । संधियों के लिए सीनेट का अनुसमर्थन जरूरी होता है, परंतु कार्यकारी समझौते के लिए इसकी जरूरत नहीं होती ।

अमरीका की थल सेना, नौसेना और वायु सेना के सर्वोच्च सेनापति के नाते राष्ट्रपति सैनिक उच्चाधिकारियों की नियुक्ति करता है । संयुक्त राज्य अमरीका में विधि-निर्माण का कार्य तो कांग्रेस का है, परंतु राष्ट्रपति कांग्रेस के नाम अपने वार्षिक संदेश के अंतर्गत विधि-निर्माण के अनेक प्रस्ताव भेजता है, और वित्तीय विवरण के अंतर्गत बजट-प्रस्ताव प्रस्तुत करता है । फिर, कोई भी विधेयक पारित होने के बाद उसके लिए राष्ट्रपति की समनुमति आवश्यक होती है ।

विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपने निषेधाधिकार का प्रयोग करके किसी विधेयक को रोक सकता है । संयुक्त राज्य अमरीका के सांविधानिक व्यवहार के अंतर्गत वह स्थिति जब राष्ट्रपति इस अधिकार का प्रयोग कर किसी विधेयक को कानून बनने से रोक सकता है । जब कांग्रेस के दोनों सदन किसी विधेयक को पारित करके राष्ट्रपति की समनुमति के लिए भेज दें तो साधारणत: राष्ट्रपति को दस कार्य-दिवसों के भीतर उस पर हस्ताक्षर करके कांग्रेस के पास वापस भेज देना चाहिए ।

यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति को स्वीकार्य न हो तो राष्ट्रपति दो तरह से उसे कानून बनने से रोक सकता है:

(1) निलंबन-निषेधाधिकार:

इसके अंतर्गत राष्ट्रपति उस विधेयक पर अपनी आपत्तियाँ व्यक्त करके दस कार्य-दिवसों के भीतर इसे कांग्रेस के उस सदन को लौटा देता है जहाँ उसे पहले-पहल प्रस्तुत किया गया था । यदि कांग्रेस उसे फिर भी पारित कराना चाहे तो इसके लिए उसे दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से दुबारा पारित कराना पड़ेगा जो कि एक कठिन कार्य है;

(2) अवरोधन निषेधाधिकार:

यदि दस कार्य-दिवस पूरे होने से पहले कांग्रेस का अधिवेशन अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो जाए तो राष्ट्रपति उसे अपनी जेब में रख सकता है, और वह अपने-आप रह माना जाएगा । अंतत: राष्ट्रपति अपराधियों के दंड को क्षमा कर सकता है, दंड को कम कर सकता है, निलंबित कर सकता है, या सर्वक्षमा की घोषणा कर सकता है ।

इस तरह संयुक्त राज्य अमरीका का राष्ट्रपति अत्यंत सम्मानित और शक्तिशाली व्यक्ति है । अमरीका जैसे महान् और शक्तिशाली राष्ट्र के मुख्य कार्यकारी के नाते राष्ट्रपति की बात को न केवल अपने देश में, बल्कि संपूर्ण विश्व में बड़ी उत्कंठा के साथ सुना जाता है और उस पर विस्तृत चर्चा की जाती है । फिर भी उसे निरंकुश शक्तियाँ प्राप्त नहीं हैं, और वह नागरिकों की स्वतंत्रता का दमन या लोकमत की अवहेलना नहीं कर सकता ।

समिति प्रणाली (Committee System of America):

अमरीकी कांग्रेस के अंतर्गत विधि-निर्माण का वास्तविक कार्य अनेक समितियों और उपसमितियों की सहायता से संपन्न किया जाता है । कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में हजारों विधोयक प्रस्तुत किए जाते हैं । समिति प्रणाली का ध्येय ऐसे प्रत्येक कार्य को उपयुक्त विशेषज्ञों के प्रति सौंपना है ।

फिर, समिति के सदस्य एक समय किसी एक विषय पर-जैसे कि कराधान या ऊर्जा जैसे विषय पर-अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं ताकि उसके लिए उपयुक्त विधेयक का प्रारूप तैयार किया जा सके ।

कांग्रेस की समिति को आमतौर पर ‘लघु विधान- मंडल’ की संघ दी जाती है । किसी भी विधेयक को अंतिम रूप देने का अधिकार ऐसी समितियों के हाथ में रहता है । सिद्धांतत: किसी समिति के प्रस्ताव को प्रतिनिधि सभा या सीनेट में अस्वीकार किया जा सकता है, परंतु व्यवहारत: ऐसा बहुत कम हो पाता है ।

जब समिति का अध्यक्ष या अन्य कोई सदस्य समिति के विचार या निर्णय के बारे में सदन के पटल पर बोलता है, तब साधारणत: विधायक उसकी विशेषज्ञता का आदर करते हैं, और उसकी बात बड़े ध्यान से सुनते हैं ।

यदि कोई स्थायी समिति किसी विधेयक पर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करने में बहुत देर कर दे, अर्थात तीस दिन से ज्यादा लगा दे तो प्रतिनिधि सभा के बहुमत के हस्ताक्षर से इस विधेयक को उस समिति के विचारक्षेत्र से वापस लेने की कार्रवाई की जा सकती है, परंतु ऐसे अवसर बहुत ही कम आते हैं । पिछली दो शताब्दियों के दौरान कांग्रेस में कई तरह की समितियाँ बनाई गई हैं ।

मुख्य-मुख्य प्रकार की समितियों का विवरण इस तरह दे सकते है:

स्थायी समिति:

कांग्रेस का प्रत्येक सदन अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपने-अपने नियमों के अंतर्गत, स्थायी महत्व के विषयों पर स्थायी समितियाँ बना सकता है । ऐसी समितियाँ सदन के पूरे कार्यकाल तक चलती हैं । इनके उदाहरण हैं: विनियोजन समिति, बजट समिति, विदेशी मामलों की समिति, अर्थोपाय समिति, इत्यादि ।

प्रवर समिति:

यह समिति साधारणत: किसी विशिष्ट विधायी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाई जाती है, जैसे कि किसी सार्वजनिक समस्या के अध्ययन और विश्लेषण के लिए । इसे निश्चित समय तक अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करना होता है । इसके बाद यह भंग कर दी जाती है ।

संयुक्त समिति:

इसका गठन तब होता है जब इसके लिए दोनों सदन एक-जैसा निर्णय करते हैं । इसमें दोनों सदनों के सदस्य रखे जाते हैं । ऐसी समिति स्थायी या अस्थायी दोनों तरह की हो सकती है । उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था, कराधान, कांग्रेस पुस्तकालय, छपाई की व्यवस्था, इत्यादि के लिए ऐसी समिति बनाई जा सकती है ।

सम्मेलन समिति:

यह ऐसी संयुक्त समिति है जो किसी विषय पर दोनों सदनों के निर्णय में एकरूपता लाने के लिए बनाई जाती है । उदाहरण के लिए, कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजने से पहले दोनों सदनों के द्वारा एक ही रूप में पारित होना चाहिए ।

यदि दोनों सदन एक ही विधेयक पारित करना चाहते हों, परंतु उनकी अभिव्यक्ति में कोई अंतर हो तो इस अंतर को दूर करने के लिए या उनके मतभेद को सुलाझाने के लिए इस समिति का सहारा लिया जाता है । यही कारण है कि कभी-कभी सम्मेलन समिति को अमरीकी कांग्रेस का तीसरा सदन कहा जाता है ।

सदन नियमावली समिति:

प्रतिनिधि सभा की यह समिति यह निर्णय करती है कि किसी विधेयक को सदन में किस रूप में रखा जाए? यह प्रतिनिधि सभा में किसी विधेयक पर होने वाले वाद-विवाद की समय-सीमा भी निर्धारित कर सकती है ।

निष्कर्ष:

कांग्रेस की विभिन्न समितियों विधि-निर्माण के कार्य में सहायता देने के लिए बनाई जाती हैं परंतु उन्हें अपने विचार-क्षेत्र में आने वाले विषयों के विश्लेषण के लिए प्रशासनिक विभागों से विस्तृत जानकारी की जरूरत पड़ती है ।

अत: यह समितियाँ समय-समय पर प्रशासनिक विभागों से तरह-तरह की जानकारी या विवरण मंगाती रहती हैं । इस मामले में ऐसा अनुशासन विकसित हो गया है कि प्रशासनिक विभाग कांग्रेस-समितियों की पूछताछ को बहुत महत्व देते हैं, और अपेक्षित जानकारी या विवरण देने को हमेशा तैयार रहते हैं । इससे कांग्रेस-समितियों को प्रशासनिक विभागों के कामकाज के निरीक्षण का अवसर मिल जाता है ।

यह बात ध्यान देने की है कि अमरीका की अध्यक्षीय प्रणाली के अंतर्गत यह संभावना बहुत कम रहती है कि वहाँ कोई संगठित विपक्ष काम कर पाए, जैसा कि संसदीय प्रणाली में प्रचलित है । प्रशासनिक विभागों पर कांग्रेस समितियों का निरीक्षण इस कमी को कुछ हद तक पूरा कर देता है ।

सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका (Role of Supreme Court in America):

अमरीकी संविधान के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय संघ सरकार की न्यायिक शाखा का सर्वोच्च अंग है । इसमें मूलत: पांच न्यायाधीश रखे गए थे, परंतु समय के साथ इनकी संख्या भी बदलती रही है । 1869 के बाद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या नौ रही है जिनमें एक मुख्य-न्यायाधीश होता है ।

इन न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को है, परंतु इसके लिए सीनेट का अनुसमर्थन जरूरी है । ये न्यायाधीश ‘सद्व्यवहार के दौरान’ अपने पद पर बने रहते हैं, अर्थात् यदि इन पर देशद्रोह, भारी भ्रष्टाचार, जघन्य अपराध या दुष्कर्म का आरोप हो, तभी इन्हें महाभियोगे की प्रक्रिया के द्वारा अपने पद से हटाया जा सकता है ।

अत: सामान्य परिस्थितियों में ये न्यायाधीश आजीवन अपने पद पर बने रहते हैं परंतु यदि कोई न्यायाधीश कम-से-कम दस वर्ष की सेवा पूरी कर चुका हो तो वह 70 वर्ष की आयु पूरी होने पर स्वेच्छा से सेवानिवृत्त हो सकता है । ऐसी स्थिति में उसे आजीवन पूरा वेतन मिलता रहेगा ।

सर्वोच्च न्यायालय को उन सब मामलों में आरंभिक अधिकार-क्षेत्र प्रदान किया गया है जो राजदूतों, वाणिज्यदूतों या अन्य राजनयिकों को प्रभावित करते हों, या जिनमें एक पक्ष कोई राज्य हो ।

अत: ऐसे मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय में शुरू किए जा सकते हैं । अन्य सब मामलों में इस्ने अपीली अधिकार-क्षेत्र प्रदान किया गया है, अर्थात वह निचले न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों पर विचार करता है । देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय का अधिकांश समय अपीलों को निपटाने में ही बीतता है ।

संविधान के अनुसार अपना कार्य संपन्न करते हुए अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय ने धीरे-धीरे संविधान के संरक्षक’ की भूमिका संभाल ली है । सर्वोच्च न्यायालय की इस भूमिका के विश्लेषण से पहले अमरीकी संविधान के दार्शनिक आधार की चर्चा कर लेना उपयुक्त होगा ।

अमरीकी संविधान का निर्माण अमरीकी स्वाधीनता की घोषणा (1776) के बाद 1787 में हुआ था । इस घोषणा के अंतर्गत तत्कालीन अमरीका के तेरह उपनिवेश ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त करने के बाद एक राष्ट्र के रूप में जुड़े हुए थे ।

अमरीकी संविधान पर अमरीकी स्वाधीनता की घोषणा की छाप स्पष्ट दिखाई देती है । इसके अंतर्गत इस स्वयंसिद्ध सत्य की पुष्टि की गई थी कि सभी मनुष्य जन्म से समान हैं और उन्हें उनके सष्टा ने कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किए हैं जिनसे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता ।

‘जीवन, स्वतंत्रता और सुख की साधना’ के अधिकार को एक ऐसा ही अधिकार माना गया था । यह घोषणा भी की गई थी कि सरकारें इन्हीं अधिकारों की सिद्धि के लिए बनाई जाती हैं, और उन्हें अपनी न्यायोचित शक्तियाँ शासितों की सहमति से प्राप्त होती हैं । अमरीकी संविधान में इन विचारों को मूर्त रूप देने का प्रयत्न किया गया था ।

शासितों की सहमति के सिद्धांत को सार्थक करने के लिए प्रतिनिधि शासन की व्यवस्था की गई थी और सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए ‘शक्ति-पार्थक्य’ (Separation of Powers) और ‘संघ-व्यवस्था’ के सिद्धांत को स्वीकार किया गया था । नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने के लिए 1791 में संविधान के अंतर्गत अधिकार-पत्र का समावेश किया गया ।

समय के अंतराल से कानून की प्रामाणिकता के प्रश्न पर अमरीकी कांग्रेस की तुलना में न्यायपालिका की उच्चता स्वीकार कर ली गई, और राज्यों की तुलना में संघ की कानूनी उच्चता को मान्यता दे दी गई । इन दोनों स्थितियों से सर्वाच्च न्यायालय को फायदा हुआ, और कानून के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति वस्तुत: सर्वाच्च हो गई ।

सर्वाच्च न्यायालय ने विशेषत: न्यायिक पुनरीक्षण (Judicial Review) और अधिनिर्णयन (Adjudication) की शक्तियाँ प्राप्त करके संविधान की दृष्टि से सब विवादों पर अंतिम निर्णय देने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया । दूसरे शब्दों में, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अथवा संघ और राज्यों के कानूनों के बीच कोई विवाद, मतभेद या असंगति पैदा हो जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान को दृष्टि से अंतिम निर्णय देता है, और संघ या राज्यों के किसी कानून के सही अर्थ को संविधान की दृष्टि से यही न्यायालय निर्धारित करता है । इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने अपने-आपको संविधान का संरक्षक मान लिया है ।

न्यायिक पुनरीक्षण:

संविधान के संरक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की पहली महत्वपूर्ण शक्ति न्यायिक पुनरीक्षण या न्यायिक समीक्षा की है । इसका अर्थ है, यह निर्णय करने की शक्ति कि कोई विधायी अधिनियम या कार्रवाई संविधानसम्मत है या नहीं, और यदि वह संविधान के विरुद्ध हो तो उसे अमान्य घोषित कर दिया जाए ।

इसके अलावा न्यायिक पुनरीक्षण का तात्पर्य यह भी है कि ऊँचा न्यायालय निचले न्यायालयों के निर्णयों पर पुनर्विचार करके उनके विरुद्ध व्यवस्था दे सकता है । किसी भी हालत में, सर्वोच्च न्यायालय संविधान की मूल चेतना के अनुसार अंतिम निर्णय देता है, और उसका निर्णय सर्वोपरि होता है । यह बात बड़ी दिलचस्प है कि स्वयं अमरीकी संविधान के दस्तावेज में न्यायिक पुनरीक्षण का कोई जिक्र नहीं है ।

जब अमरीकी संविधान बना था, उस समय यदि ऐसा कोई प्रस्ताव रखा जाता तो उसे स्वीकार करना तो दूर, उसका जमकर विरोध किया जाता । संविधान-निर्माण के उद्देश्य से फिलेडेल्फिया में जो प्रतिनिधि एकत्र हुए थे, यदि वे यह प्रस्ताव रखते कि सर्वोच्च न्यायालय में जो इने-गिने न्यायाधीश जीवन भर के लिए नियुक्त कर दिए जाएंगे उन्हें इतनी व्यापक शक्तियाँ प्राप्त होगी तो यह प्रस्ताव कभी स्वीकार न किया जाता परंतु धीरे-धीरे राष्ट्रीय एकता की भावना और आवश्यकता के कारण राज्यों की तुलना में राष्ट्र के वर्चस्व को स्वीकार कर लिया गया, और न्याय-व्यवस्था में बढ़ती हुई आस्था के कारण सांविधानिक प्रश्नों पर सर्वाच्च न्यायालय के निर्णय को पूर्ण मान्यता दी जाने लगी ।

अमरीकी संविधान में न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति का कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, परंतु संविधान के अनुच्छेद छह के अंतर्गत जो कुछ लिखा गया है, उसमें यह शक्ति निहित मानी जाती है । इस अनुच्छेद के अनुसार- “संयुक्त राज्य अमरीका का यह संविधान, इसके अनुरूप बनाए गए कानून, और संयुक्त राज्य अमरीका के प्राधिकार से की गई संधियाँ देश का सर्वोच्च कानून होंगी, और प्रत्येक राज्य के न्यायाधीश उनसे बँधे होंगे, चाहे किसी राज्य के अपने संविधान या कानूनों में इसके विरुद्ध कोई भी व्यवस्था क्यों न की गई हो ।”

ध्यान देने की बात है कि संयुक्त राज्य अमरीका के संविधान के अलावा वही राज्यों के अपने-अपने संविधान भी हैं । प्रस्तुत अनुच्छेद में उन्हीं की ओर संकेत किया गया है । इस अनुच्छेद में यह तो नहीं लिखा है कि सर्वोच्च न्यायालय कांग्रेस या राज्य विधानमंडलों के कानूनों को रह कर सकता है, परंतु यह अवश्य कहा गया है कि इस संविधान का अनुसरण करते हुए जो कानून बनाए जाएंगे, वही इस देश के मूल कानून होंगे ।

सबसे पहले मार्बरी बनाम मैडीसन (1803) के मुकदमे का निर्णय सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 1789 के न्यायिक अधिनियम को- जिसे अमरीकी कांग्रेस ने पारित कर रखा था- संविधान के विरुद्ध घोषित कर दिया ।

इस निर्णय के अंतर्गत मुख्य न्यायाधीश मार्शल ने यह व्यवस्था दी कि अमरीकी के लिखित संविधान के अंतर्गत सरकार की शक्तियों को परिभाषित और परिसीमित किया गया है; संविधान ही देश का मूल कानून है जो कांग्रेस द्वारा पारित साधारण कानूनों से बढ़कर है ।

यदि कांग्रेस का कोई कानून संविधान की किसी व्यवस्था के विरुद्ध होगा तो वह ‘अकृत एवं शून्य’ (Null and Void) होगा, अत: वह न्यायालयों के लिए बाध्यकर नहीं होगा । यदि कोई कानून संविधान की किसी व्यवस्था के विरुद्ध हो तो उसे अवैध और शून्य घोषित करना न्यायालयों का कर्तव्य है ।

इस तरह इस निर्णय के अंतर्गत किसी कानून की सांविधानिकता की जांच करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय ने संभाल लिया । कुछ लोग इस व्यवस्था के विरुद्ध अवश्य रहे हैं, परंतु व्यवहार के धरातल पर न्यायिक पुनरीक्षण की प्रणाली इतने लंबे समय से चली आ रही है कि आमतौर पर उसे अमरीकी जनता ने अपना लिया है ।

अधिनिर्णयन:

संविधान के संरक्षक के रूप में अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय की दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका अधिनिर्णयन के क्षेत्र में रही है । अपने इस अधिकार-क्षेत्र का प्रयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय प्रस्तुत कानूनी विवादों के संदर्भ में यह निर्णय देता है कि संविधान की मूल चेतना के अनुरूप प्रस्तुत कानून का वास्तविक अर्थ क्या है, और कानून का व्यावहारिक प्रयोग किस रूप में होना चाहिए दूसरे शब्दों में, यहाँ यह न्यायालय किसी कानून की सांविधानिक प्रामाणिकता की जांच नहीं करता, बल्कि कानून को ज्यों-के-त्यों स्वीकार करते हुए संविधान की मूल चेतना के अनुसार उसके सही-सही अर्थ और प्रयोग-क्षेत्र को निर्दिष्ट करता है ।

अधिनिर्णयन की शक्ति प्राप्त करके अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक नीति के निर्माण और रूप-निर्धारण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका संभाल ली है । विधानमंडल ने जो कानून बनाया है, यही न्यायालय उसे रह नहीं करता बल्कि संविधान के अनुसार उसकी प्रामाणिक व्याख्या देकर एक तरह से वह विधानमंडल की पूरक भूमिका निभाता है ।

अमरीकी न्याय-व्यवस्था का यह एक सचमुच महत्वपूर्ण पक्ष है । इसके अंतर्गत अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय न केवल नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करता है बल्कि आर्थिक प्रगति और सामाजिक चेतना के विकास के साथ-साथ उसने उत्तरोत्तर नया या प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाकर आर्थिक या सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

संविधान के पाँचवें (1791) तथा चौदहवें (1868) संशोधन के अंतर्गत क्रमश: राष्ट्रीय सरकार और राज्य सरकारों पर यह प्रतिबंध लगाया गया था कि ‘कानून की उचित प्रक्रिया के बगैर’ किसी व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता ।

इस अवसर पर सर्वोच्च ‘न्यायालय ने कानून की उचित प्रक्रिया’ के अर्थ का विस्तार करते हुए राह व्यवस्था दी कि यदि कोई कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता और संपत्ति पर अयुक्तियुक्त प्रतिबंध लगाता है तो वह संविधान के विरुद्ध होगा ।

लॉचनर बनाम न्यूयार्क के मुकदमे में सर्वाच्च न्यायालय ने 1905 में न्यूयार्क राज्य के उस कानून को संविधान के विरुद्ध घोषित कर दिया जिसके अंतर्गत बेकरियों में काम करने वाले कामगारों को घोर परिश्रम की अमानवीय परिस्थितियों से बचाने के लिए उनके काम के घंटे सीमित कर दिए गए थे ।

न्यूयार्क राज्य के इस कानून के विरुद्ध अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय ने यह तर्क दिया कि यह कानून अनुबंध की रचतंत्रता के विरुद्ध था जिसे अमरीकी संविधान के चौदहवें संशोधन के अंतर्गत संरक्षण प्रदान किया गया था परंतु फिर 1917 में बंटिंग बनाम आरिगान के मुकदमे में अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पुराने निर्णय को रह कर दिया ।

उसने अब ऑरिगॉन राज्य के श्रम-कानून को (जो न्यूयार्क के श्रम कानून से मिलता-जुलता था) मान्य ठहराते हुए यह तर्क दिया कि यह कानून राज्य की पुलिस शक्ति के विधिसम्मत प्रयोग का उदाहरण था । परंतु आगे चलकर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रगतिशील विचारों को बढ़ावा दिया ।

उदाहरण के लिए, अमरीकी संविधान के अंतर्गत ‘समान कानूनी संरक्षण’ की व्याख्या देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 1896 में ‘प्लैसी बनाम फर्गुसन’ के मामले में यह निर्णय दिया था कि यदि श्वेत और अश्वेत जातियों को मूलत: एक-जैसी सुविधाएं प्राप्त हों परंतु उन्हें पृथक्-पृथक् रखा जाए तो इससे समान कानूनी संरक्षण का उल्लंघन नहीं होता ।

इसका अर्थ यह था कि यदि श्वेत और नीग्रो अमरीकियों के लिए एक- जैसे स्कूलों, बसों, होटलों, खेल के मैदानों, इत्यादि की व्यवस्था तो हो, परंतु उन्हें मिलजुल कर इन सुविधाओं का इस्तेमाल करने की अनुमति न हो तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हें कानूनों का समान संरक्षण प्राप्त नहीं है परंतु उसी न्यायालय ने 1954 में ‘ब्राउट बनाम टोपेका’ के मामले में अपने पुराने निर्णय को रह कर दिया और यह व्यवस्था दी कि यदि श्वेत और अश्वेत जातियों को समान सुविधाएं तो उपलब्ध हों परंतु उन्हें मिलजुल कर उनका उपयोग करने से रोक दिया जाए तो कानून की दृष्टि से उनकी समानता निरर्थक हो जाती है ।

वस्तुस्थिति पर पुनर्विचार करते हुए अब सर्वाच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि पब्लिक स्कूलों में केवल जाति के आधार पर नीग्रो बच्चों को श्वेत बच्चों से पृथक् रखा जाता है तो इससे अश्वेत जातियों में हीन भावना पैदा होती है, भले ही उन्हें मोटे तौर पर एक-जैसी शिक्षा सुविधाएँ प्राप्त हों । अत: न्यायालय ने घोषणा की कि शिक्षा के क्षेत्र में जातियों का पृथक्करण उनकी कानूनी समानता का सरासर उल्लंघन है ।