Here is a list of top twenty eight leaders of India.

1. जवाहर लाल नेहरू (1889-1964) [Jawaharlal Nehru (1889-1964)]:

जवाहर लाल नेहरू 1946 में अन्तरिम सरकार में पहली बार प्रधानमंत्री बने वे निरन्तर 1964 तक भारत प्रधानमंत्री रहे । उनके में कांग्रेस को चुनावों में अभूतपूर्व सफलता मिली । वे 1952, 1957 तथा 1962 में तीनों बार उत्तर प्रदेश के फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव ।

उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है । उनके नेतृत्व में योजनागत विकास को लागू किया गया; जमींदार उन्मूलन किया गया देश के तीव्र औद्योगिक बढ़ाया गया । वे इन उद्योगों को आधुनिक मन्दिरों की संज्ञा देते ।

लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास करते थे । 1955 में उनके नेतृत्व में कांग्रेस के अवाडी अधिवेशन में समाज के समाजवादी प्रस्ताव को स्वीकार किया गया । उनका लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता में अटूट विश्वास भारतीय संविधान की प्रस्तावना उन्होंने ही तैयार किया था ।

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वे भारत के पहले विदेश मंत्रि भी थे । उन्हें भारत की विदेश नीति का निर्माता भी की कहा जाता है । गुटनिरपेक्षता का विचार विदेशीनीति व विश्व स्तरपर उनकी अनोखी देने है ।

बाद में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन, एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के नवोदित राष्ट्रों का आन्दोलन बन गया । स्वतंत्रता आन्दोलन में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका रही है । 1929 में उनके में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य स्वीकार किया गया ।

2. डॉ. भीमराव अम्बेडकर [Dr. Bhimrao Ambedkar (1891-1956)]:

स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही दलितों के प्रमुख नेता । विधि विशेषज्ञ तथा लोकतंत्र व सामाजिक न्याय के समर्थक । उन्होंने आजादी के पूर्व इण्डिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की । 1932 में गांधी के साथ पूना पैक्ट के अन्तर्गत हरिजनों के लिये आरक्षण का समर्थन किया । द्वितीय विश्व युद्ध के समय गवर्नर-जनरल की काउन्सिल के सदस्य तथा आजादी के बाद संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बने ।

उन्हें भारत के संविधान का निर्माता माना जाता है । आजादी के बाद नेहरू के मंत्रिमंडल में पहले विधि मंत्री बने । नेहरू के साथ हिन्दू कोड बिल के ऊपर मतभेदों के कारण 1951 में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया । 1952 के चुनावों में बम्बई में चुनाव जीतने में असफल रहे ।

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उन्होंने आल इण्डिया अनुसूचित जाति संघ की स्थापना की तथा रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की आधारशिला रखी रिपब्लिकन पार्टी आज भी भारतीय राजनीति में सक्रिय है । देश की एकता के लिये उन्होंने मजबूत केन्द्र सरकार का समर्थन किया । 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया तथा जीवन पर्यन्त उसी में बने रहे ।

3. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद [Maulana Abul Kalam Azad (1888-1958)]:

मौलाना आजाद का पूरा नाम अबुल कलाम मोहियुददीन अहमद था । वे इस्लामी चिन्तन के प्रसिद्ध विद्वान थे । उन्होंने भारत के स्वतंत्रता सग्राम में कांग्रेस के माध्यम से उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया । वे हिन्दु-मुस्लिम एकता के समर्थक थे तथा उन्होंने भारत के विभाजन का विरोध किया वे संविधान सभा के सदस्य भी थे । मौलाना आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे । उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ 1958 में प्रकाशित हुयी ।

4. रफी अहमद किदवई [Rafi Ahmed Kidwai (1894-1954)]:

उत्तर प्रदेश के प्रमुख कांग्रेसी नेता जो दो बार 1967 तथा 1946 में उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री नियुक्त हुये । उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री के रूप में उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि जमींदारी उन्मूलन थी । स्वतंत्र भारत के पहले नेहरू मंत्रिमंडल में उन्हें संचार मंत्री नियुक्त किया गया ।

उन्होंने 1930 में उत्तर प्रदेश के किसानों के आन्दोलन का नेतृत्व किया । तत्पश्चात् वे 1952 से 1954 के मध्य भारत के खाद्य एवं कृषि मंत्री भी रहे । समाजवादी विचारों के कारण उन्हें इस्लामी समाजवादी भी कहा जाता है ।

5. राजकुमारी अमृत कौर [Princess Amrit Kaur (1889-1964)]:

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राजकुमारी अमृत कौर कपूरथला राजघराने से सम्बन्धित थीं । उनकी धार्मिक आस्था ईसाई धर्म में थी । वे गाँधी जी की समर्थक थी तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं । उन्होंने 1926 में आल इण्डिया बुमेन्म कॉन्फ्रेन्स की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।

स्वतंत्र भारत के पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री थी तथा इसी पद पर 1957 तक बनी रहीं । मंत्री के तौर पर उनकी पहल के कारण अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की स्थापना हुयी थी । वे इस संस्थान की पहली अध्यक्ष थीं ।

6. आचार्य नरेन्द्र देव [Acharya Narendra Dev (1889-1956)]:

आचार्य नरेन्द्र देव ने स्वतन्त्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । स्वतन्त्रता आंदोलन में वे कई बार जेल गये । इसके साथ ही वे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन में भी सक्रिय रहे । वे समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में से प्रमुख तथा समाजवादी पार्टी के प्रथम अध्यक्ष थे । वे बौद्ध दर्शन के विद्वान थे । आजादी के बाद समाजवादी पार्टी तथा बाद मे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व किया । भारत के आरंभिक समाजवादी नेताओं में उनका प्रमुख स्थान है ।

7. डॉ. राम मनोहर लोहिया [Dr. Ram Manohar Lohia (1910-1967)]:

डॉ लोहिया भी 1934 में कांग्रेस समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक है । उन्हें अपने वैदेशिक मामलों के ज्ञान के कारण 1934 में कांग्रेस पार्टी के वैदेशिक मामलों के विभाग का सचिव नियुक्त किया गया था ।

1953 में उन्होंने एशियाई सोशलिस्ट काग्रेस का आयोजन किया । 1952 में अशोक मेहता के साथ मिलकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की । वे 196० के दशक में गैर काग्रेसवाद की विचारधारा के प्रबल समर्थक थे । । 955 में अशोक मेहता के साथ काग्रेस को समर्थन देने के प्रश्न पर मतभेद कांग्रेस की लोक विरोधी नीतियों का विरोध करना चाहते थे ।

डा. लोहिया आधुनिक भारत के एक महान ममाजवादी चिन्तक भी थे । उन्होंने अपनी पुस्तक मार्क्स गांधी तथा समाजवाद में गांधी जी के सत्य व अहिंसा के सिद्धान्तों का मार्क्सवादी सिद्धान्त के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया । वे मानव स्वतन्त्रता के समर्थक थे तथा उन्होंने अपने चौखम्भा राज्य की धारणा के द्वारा विकेन्द्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था का समर्थन किया ।

8. जय प्रकाश नारायन [Jai Prakash Narayan]:

उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में विशेषकर 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वे 1934 में कांग्रेस समाजवादी पार्टी तथा 1948 में भारतीय समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य थे । 1952 में उन्होंने किसान मजदूर प्रजा पार्टी तथा समाजवादी पार्टी को मिलकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

1954 में सक्रिय राजनीति में सन्यास लेकर सर्वोदय आन्दोलन में भाग लिया । 1970 के दशक में कांग्रेस की तानाशाही के विरुद्ध पुन: सक्रिय राजनीति में आये । 1974 में उन्होंने भारत की समस्याओं के स्थायी समाधान हेतु सम्पूर्ण क्रान्ति का विचार दिया । वे दल विहीन लोकतंत्र के समर्थक थे ।

समाजवादियों के लिए वैचारिक ऊहापोह की स्थिति तब उत्पन्न हो गयी जब कांग्रेस पार्टी ने 1955 में सम्पन्न अवाडी अधिवेशन में ‘समाज के समाजवादी ढांचे’ की स्थापना का लक्ष्य स्वीकार कर लिया । यह लक्ष्य समाजवादियों के लक्ष्यों के अनुसार ही था । अत: समाजवादियों के सामने वैचारिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गयी ।

फिर भी राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में कतिपय समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी से दूरी बनाकर रखी । जबकि अन्य समाजवादियों जैसे- अशोक मेहता व उनके समर्थकों ने कांग्रेस पार्टी के साथ सीमित सहयोग की नीति अपनाई । समाजवादी पार्टी के प्रमुख नेता थे- आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, राम मनोहर लोहिया तथा एस.एन. जोशी आदि ।

समाजवादी पार्टी में कई बार विभाजन तथा एकीकरण हुआ है इनमें से प्रमुख हैं-1948 में जय प्रकाश नारायन द्वारा गठित भारतीय समाजवादी पार्टी तथा 1951 में जे. बी. कृपलानी द्वारा गठित किसान मजदूर प्रजा पार्टी- के. एम. पी. पी. । 1952 में इन दोनों पार्टियों का विलय कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तथा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी- एस. एस. पी. का गठन हुआ । इसके नेता जॉर्ज फर्नांन्डीज़ थे ।

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का 1972 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में पुन: विलय हो गया

था । विलय के बाद नयी पार्टी का नाम सोशलिस्ट पार्टी रखा गया था । भारत की वर्तमान राजनीति में सक्रिय कतिपय पार्टियों जैसे-उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाईटेड तथा जनता दल सेक्यूलर आदि की जड़ें भी पूर्व की समाजवादी पार्टी में निहित हैं ।

9. एस. ए. डांगे [S. A. Dange (1889-1991)]:

1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे । पहली, दूसरी तथा तीसरी लोक सभा में भारतीय साम्यवादी पार्टी लोक सभा में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी तथा श्रीपाद अमृत डांगे तीनों बार लोक सभा में इस पार्टी के संसदीय दल के नेता रहे ।

1964 में साम्यवादी पार्टी में विभाजन के उपरान्त मूल पार्टी- भारतीय साम्यवादी पार्टी (सी. पी. आई.) के महासचिव पद पर रहे । कांग्रेस के साथ सकारात्मक सहयोग की नीति के समर्थक थे । परिणामस्वरूप 1978 में साम्यवादी पार्टी में विरोध के कारण उन्हें महासचिव पद से हटा दिया गया ।

कांग्रेस समर्थक नीति के कारण उन्हें 1981 में साम्यवादी पार्टी से निष्कासित कर दिया गया । उसके बाद उन्होंने एक छोटे सामरूवादी दल- आल इण्डिया कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की लेकिन वे साम्यवादी पार्टी तथा भारतीय राजनीति में अलग-थलग पड़ गये ।

1959-1960 में उन्होंने महाराष्ट्र राज्य के लिये आन्दोलन चलाया । भारत में प्रथम साप्ताहिक मार्क्सवादी पत्रिका ‘सोशलिस्ट’ के सम्पादन का श्रेय भी डांगे को जाता है । उन्होंने भारत के श्रमिक आन्दोलन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

आजादी के समय साम्यवादी पार्टी में एक एक मौलिक प्रश्न यह उठा कि भारतीय स्वतंत्रता का स्वरूप क्या है । साम्यवादी पार्टी के एक तबके का मानना था कि यह स्वतंत्रता वास्तविक नहीं है, क्योंकि इसमें पूंजीपतियों और जमींदारों के हितों की पूर्ति होती है । इसीलिए उन्होंने जमीदारों के विरुद्ध भारत के विभिन्न हिस्सों विशेषकर तेलंगाना में हिंसक साम्यवादी आन्दोलनों का समर्थन किया ।

पुन प्रथम लोकसभा चुनावों के समय उनके सामने यह वैचारिक ऊहापोह उत्पन्न हुआ कि उन्हें समाजवाद की स्थापना के लिए हिंसात्मक क्रांति का सहारा लेना चाहिए अथवा लोकतांत्रिक समाजवाद को स्वीकार करते हुए चुनाव प्रक्रिया में भाग लेना चाहिए । अन्तत: 1951 में साम्यवादी पार्टी ने हिंसात्मक क्रांति का मार्ग छोड़कर संसदीय लोकतंत्र का रास्ता अपनाया तथा चुनाव प्रक्रिया में भाग लिया ।

पहले चुनाव में भारतीय साम्यवादी पार्टी को लोकसभा में 16 सीटें प्राप्त हुईं तथा वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी । दूसरे और तीसरे चुनाव में भी उसकी यह स्थिति बनी रही । भारत में साम्यवादी पार्टी का जनाधार मुख्यतया: पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, केरल, त्रिपुरा तथा बिहार राज्यों में केन्द्रित है । इसके आरम्भिक नेता थे- ए.के. गोपालन, एस.ए डांगे, ई.एम.एस. नम्बुदरीपाद, पी.सी. जोशी, अजय घोष, पी. सन्दराया आदि ।

10. श्यामा प्रसाद मुखर्जी [Shyama Prasad Mukherjee (1901-1953)]:

श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के नेता थे, लेकिन आजादी के बाद वे नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में उद्योग व आपूर्ति विभाग के कैबिनेट मंत्री भी थे । बाद में उन्होंने भारत-पाकिस्तान संबन्धों पर नेहरू के साथ मतभेद के कारण 1951 में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया ।

वे जम्मू व कश्मीर को केन्द्र सरकार द्वारा दी गयी स्वायत्तता के भी विरोध थे । 21 अक्टूबर, 1951 में उन्होंनें भारतीय जन संघ की स्थापना की, जो आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में प्रमुख भूमिका में है ।

वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे । वे संविधान सभा तथा पहली लोक सभा के सदस्य भी थे । उन्होंने सरकार की कश्मीर नीति के विरोध में आन्दोलन चलाया, जिसमें उन्हें जेल में बन्द कर दिया गया । हिरासत में ही 1953 में ही उनकी मृत्यु हो गयी ।

11. दीन दयाल उपाध्याय [Deen Dayal Upadhyay (1916-1968)]:

एक विद्यार्थी के रूप में 1937 में कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक के पूर्ण कालिक कार्यकर्ता बने । वे 1951 में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे तथा 15 वर्षों तक इस पार्टी के महासचिव रहे ।

1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के उपरान्त जनसंघ के संगठन को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वे एक आर्थिक चिन्तक तथा दार्शनिक भी थे । उन्होंने एकीकृत मानवतावाद का विचार प्रस्तुत किया तथा राजनीतिक व्यवस्था का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किया ।

आरंभिक चुनावों में भारतीय जनसंघ को कोई खास सफलता नहीं मिली । 1952 के लोकसभा चुनावों में उन्हें 3 सीटें, 1957 के चुनावों में 4 सीटें तथा 1962 के चुनावों में उन्हें 14 सीटें प्राप्त हुईं । इस पार्टी का जनाधार मुख्यत: उत्तर भारत के राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि के शहरी क्षेत्रों में ही केन्द्रित था ।

व्यापारी वर्ग को इस पार्टी का परम्परागत आधार माना जाता है । आरंभिक काल में भारतीय जनसंघ के प्रमुख नेता थे- श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, बलराज मधोक आदि ।

1977 में जब कांग्रेस के विरुद्ध विपक्षी दलों द्वारा एकत्र होकर जनता पार्टी का गठन किया गया तो जनसंघ का भी उसमें विलय हो गया । लेकिन शीघ्र ही दो वर्ष बाद जनता पार्टी का विघटन हो गया तथा भारतीय जनसंघ के नेताओं ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया । भारतीय जनता पार्टी के आरंभिक नेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी तथा लालकृष्ण आडवाणी प्रमुख हैं । अटल बिहारी वाजपेयी 1980 में भारतीय जनता पार्टी के प्रथम अध्यक्ष बने ।

12. सी. राजगोपालाचारी [C.Gopalacharya (1878-1972)]:

महात्मा गांधी के घनिष्ठ सहयोगी तथा संविधान सभा के सदस्य थे । सी राजगोपालाचारी 1948-50 में स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने । बाद में उन्होंने भारत की सक्रिय राजनीति में भाग लिया । वे 1950-52 के मध्य नेहरू मंत्रिमंडल में कैबिनेट मत्री रहे तथा बाद 1952-54 के मध्य मद्रास राज्य, वर्तमान में तमिलनाडु राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे ।

1954 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया तथा भारतरत्न पाने वाले वे पहले व्यक्ति थे । वे नेहरू की समाजवादी नीतियों से सहमत नहीं थे क्योंकि ऐसी नीतियाँ व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा देश के तीव्र आर्थिक विकास में सहायक नहीं हैं ।

अत: उन्होंने 1957 में कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया तथा 1959 में स्वतंत्र पार्टी नामक एक अलग पार्टी की स्थापना की । स्वतंत्र पार्टी को उद्योगपतियों तथा जमींदारों का समर्थन प्राप्त था । 1967 के चुनावी में स्वतंत्र पार्टी को 44 स्थान मिले तथा लोक सभा में कांग्रेस के बाद यह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी 1938 में उन्होंने हिन्दी भासा का समर्थन किया था, लेकिन 1965 में उन्होंने अपनी दृष्टिकोण में परिवर्तन करते हुये तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आन्दोलन का समर्थन किया ।

वैदेशिक मामलों में स्वतंत्र पार्टी ने भारत की गुटनिरपेक्ष नीति का विरोध किया तथा अमेरिका के साथ भारत के घनिष्ठ सम्बन्धों का समर्थन किया । यह एक संयोग ही है कि 21वीं शताब्दी में वैश्वीकरण के युग में भारत की आर्थिक व विदेश नीति स्वतंत्र पार्टी की विचारधारा के अनुकूल दिखाई दे रही है ।

आरंभ में स्वतंत्र पार्टी ने विभिन्न क्षेत्रीय दलों को मिलाकर अपने समर्थन व जनाधार को बढ़ाने का प्रयास किया । इस पार्टी को बड़े जमीदारों तथा पूँजीपतियों का समर्थन प्राप्त था, क्योंकि वे अपने आर्थिक हितों का संरक्षण करना चाहते थे । जमींदार जहाँ भूमि सुधार कानून के विरोधी थे, वहीं उद्योगपति लाइसेन्स राज तथा राष्ट्रीयकरण की नीति के विरोधी थे ।

फिर भी भारत की तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार स्वतंत्र पाटी की विचारधारा उच्च वर्गों के हितों के संवर्द्धन तक सीमित थी अतः उसे व्यापक जन-समर्थन प्राप्त नहीं हुआ । साथ ही यह पार्टी अपना संगठन भी मजबूत नहीं कर सकी । 1962 के चुनाव में इस पार्टी को 18 सीटें प्राप्त हुई ।

13. इन्दिरा गांधी (1917-1984) [Indira Gandhi (1917-1984)]:

इन्दिरागांधी जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं । उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में भी भाग लिया था । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्होंने युवाओं को संगठित कर वानर सेना का गठन किया था । आजादी के बाद वे 1958 में कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तथा लालबहादुर शास्त्री की सरकार में 1946 से 1966 तक वे केन्द्र में संचार मंत्रि रहीं ।

शास्त्री जी की मृत्यु के बाद वे जनवरी 1966 में राज्य सभा की सदस्य रहते हुये पहली बार प्रधानमंत्री बनीं । 1971 के चुनावों में भारी जीत के बाद वे पुन: 1971 से 1977 तक देश की प्रधानमंत्री रहीं । इस काल में उन्होंने गरीबी हटाओ कार्यक्रम लागू किया तथा पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध में जीत हासिल कर बांग्लादेश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा ईवी पर्स की समाप्ति उनकी प्रमुख समाजवादी नीतियाँ थीं । 1975 में उन्होंने देश में आपातकाल लाग किया तथा भारी विरोध के चलते 1977 में चुनाव हार गयीं । लेकिन जनता पार्टी के बिखराव के बाद उन्हें पुन: लोकप्रियता हासिल हुई ।

उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया तथा व्यापक जनसम्पर्क किया । अगले चुनावों में जीत के बाद वे तीसरी बार 1980 में प्रधानमंत्री बनीं । पंजाब में खालिस्तान के हिंसक आन्दोलन को समाप्त करने के लिये उन्होंने अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में 6 जून, 1984 को ऑपरेशन ब्लूसटर का आदेश दिया । इससे क्रुद्ध होकर 31 अक्तूबर, 1984 को सिख अंगरक्षकों ने उनके आवास पर ही उनकी हत्या कर दी ।

14. के. कामराज (1903-1975) [K. Kamaraj (1903-1975)]:

कुमारस्वामी कामराज स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी तथा आजादी के बाद कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण नेता थे । वे 1954 से 1963 तक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री तथा 1952-54 में तथा 1969-1975 में लोक सभा सदस्य रहे । 1963 में वे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने ।

कांग्रेस अध्यक्ष होते हुये भी नेहरू की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद के लिये अपनी दावेदारी प्रस्तुत न कर उन्होंने 1964 में लाल बहादुर शास्त्री तथा उनकी मृत्यु के बाद 1966 में इन्दिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । इसीलिये उन्हें भारतीय राजनीति में किंगमेकर के नाम से जाना जाता है ।

1963 में उन्होंने कांग्रेस संगठन को मजबूत करने के लिये करने के लिये सभी मंत्रियों व मुख्यमंत्रियों के त्यागपत्र की एक योजना रखी जिसे कामराज योजना के नाम से जाना जाता है । 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद वे पुरानी कांग्रेस अथवा कांग्रेस ‘ओ’ में शामिल हुये तथा जीवन पर्यन्त उसी में बने रहे ।

15. सी. एन. अन्नादुराई (1909-1969) [C. N. Annadurai (1909-1969)]:

अन्नादुराई का तमिलनाडू के प्रारंभिक नेताओं में प्रमुख स्थान है । वे पत्रकार तथा लेखक होने के साथ-साथ एक अच्छे वक्ता भी थे । उन्होंने उत्तर भारत के राजनीतिक प्रभुत्व के विरुद्ध द्रविड़ स्वायत्ता व संस्कृति के का समर्थन किया । वे दक्षिणी राज्यों में राजभाषा हिन्दी के थोपे जाने के विरोधी थे तथा उन्होंने 1960 के दशक में विरोधी का नेतृत्व किया ।

वे आरंभ से ही मद्रास प्रान्त की राजनीति में सक्रिय रहे । आरंभ में वे मद्रास में सक्रिय जस्टिस पार्टी में शामिल थे । रामास्वामी नायकर द्वारा जस्टिस पार्टी को शामिल कर द्रविड कडगम- डी. एम. नामक दल बनाया गया तथा अन्नादुराई 1934 में इसमें शामिल हो गये । बाद में 1949 में उन्होंने डी. एम. के. अर्थात् द्रविण मुनेत्र कडगम की स्थापना की ।

उनके नेतृत्व में इस पार्टी को तमिलनाडु में धीरे-धीरे व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ । 1967 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में डी. एम. के. को बहुमत प्राप्त हुआ तथा अन्नादुराई तमिलनाडु के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने । दो वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी ।

16. कर्पूरी ठाकुर (1924-1988) [Karpuri Thakur (1924-1988)]:

कर्पूरी ठाकुर एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा समाजवादी नेता थे । उन्होंने भारत आन्दोलन में हिस्सा लिया तथा 26 महीनों तक जेल में आजादी के बाद 1960 व 1970 के दशक में वे बिहार के कई श्रमिक तथा किसान आन्दोलनों में भी सक्रिय रहे हैं । 1960 में उन्होंने डाक विभाग के कर्मचारियों की हड़ताल का नेतृत्व किया तथा 1970 में टेल्को कम्पनियों के श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिये 28 दिन का अनशन किया ।

उनकी लोकप्रियता के कारण उन्हें ‘जन नायक’ के नाम से जानते हैं । वे विचारक तथा नेता राममनोहर लोहिया के घनिष्ठ सहयोगी थे वे बिहार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष भी रहे हैं तथा बिहार के वर्तमान पीढ़ी के नेता जैसे लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नितीश कुमार आदि उनके कनिष्ठ सहयोगी थे ।

दिसम्बर 1970 से 1971 तक वे समाजवादी पार्टी तथा भारतीय क्रांति दल की गठबंधन सरकार में बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने । जयप्रकाश नारायन द्वारा 1974 में चलाया गये बिहार आन्दोलन में भी उन्होंने भाग लिया । पुन: वे जनता पार्टी की सरकार में दिसम्बर 1977 से अप्रैल 1979 तक बिहार केमुख्यमंत्री रहे ।

वे हिन्दी के प्रबल समर्थक थे तथा सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के प्रयोग के विरोधी थे । वे पिछड़े वर्गों के आरक्षण के समर्थक थे । जनता पार्टी की सरकार में जब दूसरी बार वे 1977 में बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने वहीं पिछड़े वर्गों के लिये राज्य सेवाओं में आरक्षण लागू किया ।

17. एस. निजलिंगप्पा (1902-2000) [S. Nijalingappa (1902-2000)]:

निजलिंगप्पा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक थे । वे कर्नाटक राज्य से भारत की संविधान सभा के सदस्य चुने गये थे ।

कर्नाटक राज्य के एकीकरण में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी । वे दो बार-1956 से 1958 तक तथा दूसरी 1962 से 1968 तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे । उन्हें आधुनिक कर्नाटक राज्य का निर्माता माना जाता है ।

वे 1968 से लेकर 1971 तक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे । कांग्रेस का 1969 में विभाजन उन्हीं के कार्यकाल में ही हुआ । कांग्रेस की गुटबन्दी में वे सिन्डीकेट अथवा पुरानी कांग्रेस के साथा थे । कांग्रेस के विभाजन के बाद वे सक्रिय राजनीति से दूर हो गये । जब कर्नाटक के पहली बार मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने तिब्बत से आने वाले शरणार्थियों कर्नाटक में सुविधायें प्रदान कीं । इसीलिये भारत के तिब्बती समुदाय में उन्हें सम्मान का दर्जा प्राप्त है ।

18. मोरारजी देसाई (1896-1995) [Morarji Desai (1896-1995)]:

मोरारजी देसाई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा एक प्रमुख गांधीवादी थे । उन्होंने खादी का समर्थन किय तथा वे प्राकृतिक चिकित्सा तथा शराबबन्दी के पक्षधर थे वे विभाजन के पहले बाम्बे प्रान्त के मुख्यमंत्री भी रहे । इन्दिरा गांधी की कांग्रेस सरकार में वे 1967 से 1969 के बीच उप-प्रधानमंत्री थे ।

1969 में कांग्रेस के विभाजन के उपरान्त वे पुरानी कांग्रेस अथवा कांग्रेस-ओ में बने रहे । आपातकाल के दौरान कांग्रेसओं का जनता पार्टी में विलय कर दिया गया तथा वे 1977 में जनता पार्टी की सरकार में देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने । लेकिन जनता पार्टी में हुई फूट के चलते उन्हें अगस्त 1979 में प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा ।

19. शेख अब्दुल्ला (1905-1982) [Sheikh Abdullah (1905-1982)]:

शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के प्रमुख नेता थे तथा वे जम्मू-कश्मीर की स्वायत्ता व पंथनिरपेक्षता के समर्थक थे । उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय देशी रियासत के विरुद्ध लोकतंत्र का आंदोलन चलाया । वे जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाना चाहते थे, क्योंकि उनके अनुसार पाकिस्तान एक पंथनिरपेक्ष राज्य नहीं है ।

उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना की, जो जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बने तथा राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के कारण 1953 से 1964 तक तथा दोबारा 1965 से 1968 तक जेल में रहे । इन्दिरा गांधी के साथ 1974 में एक समझौता किया, जिसके आधार पर पुन: जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने । मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए 1982 में उनकी मृत्यु हो गयी ।

1984 में एक बार फिर जम्मू-कश्मीर की शेख अब्दुल्ला सरकार को भंग करके वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । इसका नकारात्मक परिणाम यह हुआ कि जिस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत 1974 के बाद हुई थी उसे नुकसान पहुंचा तथा कश्मीर की जनता में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि केन्द्र सरकार अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही है तथा जम्मू-कश्मीर के नेताओं के शासन में वह अवरोध उत्पन्न कर रही है । 1986 में कांग्रेस व नेशनल कांफ्रेंस के बीच एक चुनावी गठबन्धन के लिए समझौता हुआ तथा 1987 में विधानसभा के चुनावों में इस गठबन्धन को भारी सफलता मिली तथा फारुख अब्दुल्ला पुन: मुख्यमंत्री बने ।

लेकिन आम जनता का मानना था कि इन चुनावों में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया गया है तथा चुनाव प्रक्रिया स्वतंत्र व निष्पक्ष नहीं थी । इसका परिणाम यह हुआ कि आम जनता में असंतोष बढ़ गया क्योंकि पहले से ही वह राज्य प्रशासन के खराब प्रदर्शन के कारण उससे असन्तुष्ट थे । इसका सम्मिलित निष्कर्ष यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक संकट गहरा हो गया तथा वहाँ उग्रवादी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ ।

20. मास्टर तारा सिंह (1885-1967) [Master Tara Singh (1885-1967)]:

मास्टर तारा सिंह सिखों के प्रमुख धार्मिक व राजनीतिक नेता थे । उन्होंने कई वर्षो तक मणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी का नेतृत्व किया । यह कमेटी भारत में सिख गुरुद्वारों के प्रबन्धन के लिए बनाई गयी थी ।

वे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थक थे, लेकिन कांग्रेस की इस नीति का विरोध करते थे कि स्वतंत्रता के लिए केवल मुस्लिम समुदाय के नेताओं से ही बातचीत की जाये । आजादी के बाद उन्होंने एक अलग पंजाबी सूबा की स्थापना की माँग जोर-शोर से उठाई । इस माँग का ही परिणाम था कि 1966 में भाषायी आधार पर अलग पंजाब राज्य की स्थापना की गयी ।

21. वी. वी. गिरि (1894-1980) [V. V. Giri (1894-1980)]:

वराह वेंकट गिरि का जन्म मद्रास प्रान्त के गंजम जिले में हुआ था, जो इस समय उड़ीसा राज्य का हिस्सा है । आजादी के पूर्व उन्होंने श्रमिक आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वे अखिल भारतीय रेलवे संघ तथा ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं ।

1937 में उन्होंने मद्रास प्रान्त की कांग्रेस सरकार में श्रम व उद्योग मंत्री के रूप में कार्य किया । 1939 में कांग्रेस की प्रान्तीय सरकारों ने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की नीति का विरोध करते हुये त्यागपत्र दे दिया था । इसके बाद उन्होंने श्रमिक नेता के रूप में भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया तथा उन्हें जेल भी जाना पड़ा ।

आजादी के बाद वे श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त रहे तथा 1952 से 1954 तक भारत की केन्द्रीय सरकार में श्रम मंत्री भी रहे । वे 1956 से 1960 तक उत्तर प्रदेश; 1960 से 1965 तक केरल तथा 1965 से 1967 तक कर्नाटक राज्य के राज्यपाल रहे । 1967 में वे भारत के उप-राष्ट्रपति नियुक्त किये गये ।

वे निर्दलीय प्रत्याशी के राष्ट्रपति का चुनाव जीते तथा 28 अगस्त, 1969 को भारत के चौथे राष्ट्रपति बने तथा 1974 तक वे इस पद पर रहे । उनकी जीत का कारण यह था कि उस समय कांग्रेस में आपसी गुटबन्दी चल रही थी तथा इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेसी गुट ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्‌डी का समर्थन न कर गिरि का समर्थन कर दिया । वे अच्छे तथा वक्ता भी थे । उन्होनें ‘इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स’ तथा ‘लेबर प्रॉब्लम इन इण्डियन इण्डस्ट्री’ नामक दो पुस्तकें भी लिखी हैं । उन्हें 1975 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था ।

22. रामास्वामी नायकार (1879-1973) [Ramaswamy Naikar (1879-1973)]:

रामास्वामी नायकर दक्षिण भारत में द्रविड आन्दोलन के संस्थापक माने जाते हैं । वे गैर-देववादी थे । उन्होंने तमिलनाडु में उच्च जातियों के विरुद्ध आन्दोलन चलाया । वे जाति प्रथा के विरोधी थे तथा निम्न जातियों के समान अधिकारों के समर्थक थे । 1925 में चलाये गये इस आन्दोलन को आत्मसम्मान आन्दोलन के नाम से जाना जाता है ।

उन्होंने द्रविड पहचान को मजबूत किया तथा दक्षिण भारत पर हिन्दी तथा उत्तर भारत के प्रभुत्व का विरोध किया । उनका कहना था कि दक्षिण भारत के लोग द्रविड हैं तथा उत्तर भारत के लोग आर्य हैं । उन्होंने पहले तमिलनाडु में सक्रिय जस्टिस पार्टी में कार्य किया तथा बाद में 1944 में उसी के साथ मिलकर द्रविड कडगम नामक दल की स्थापना की । 1972 में उनकी मृत्यु हो गयी ।

23. संत हरचन्द सिंह लोंगोवाल (Sant Harchand Singh Longowal), 1932-1985:

लोंगोवाल सिखों के प्रमुख धार्मिक व राजनीतिक नेता थे । उन्होंने 1960 के दशक में अकाली दल की राजनीतिक में भाग लिया तथा 1980 में अकाली दल के अध्यक्ष बने । 1985 में उन्होंने पंजाब समस्या के समाधान के लिए भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ एक समझौता पर हस्ताक्षर किये ।

पंजाब के उग्रवादी तत्व इम समझौते में सहमत नहीं थे । अत: अगस्त, 1985 में उनकी हत्या कर दी गयी । उन्हें पंजाब में शांति की स्थापना का एक प्रमुख कर्णधार माना जाता है ।

लेकिन लोंगोवाल के उदारवादी रुख के कारण कई उग्रवादी समूह इस समझौते से संतुष्ट नहीं थे । उग्रवादियों ने इसे केन्द्र सरकार के समक्ष अकाली दल द्वारा समर्पण की संज्ञा दी । इसका परिणाम यह हुआ कि उग्रवादी तत्वों ने 20 अगस्त, 1985 को लोंगोवाल की हत्या कर दी तथा इसी के साथ ही इस समझौंते का क्रियान्वयन खटाई में पड़ गया ।

24. सुन्दरलाल बहुगुणा (1927 से अब तक):

सुन्दरलाल बहुगुणा उत्तराखण्ड के निवासी हैं तथा भारत के पहले पर्यावरणवादियों में से एक हैं । 1970 के दशक में उन्होंने चिपको आन्दोलन का नेतृत्व किया तथा 1980 के दशक से लेकर 2004 तक उत्तराखण्ड राज्य में गंगा नदी पर बन रहे टेहरी बांध के विरुद्ध भी आन्दोलन चलाया । उन्होंने पर्यावरण से जुड़े विभिन्न मुद्‌दों जैसे वनों की कटाई, खानों से पर्यावरण की क्षति, बड़े वोंढ़ा तथा विस्थापितों की समस्या आदि को अपने आंदोलनों के माध्यम से उठाया । वे गांधीजी के अहिंसा व सत्याग्रह में विश्वास रखते हैं ।

उन्होंने 1995 में टेहरी बाँध के विरोध में पहले 45 दिनों का तथा 1996 में राजघाट में 74 दिनों का आमरण अनशन किया । बाँध के विरोध में उन्हें 20 अप्रैल, 2001 को हिरासत में लिया गया । सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद 2001 में बाँध का कार्य पुन: शुरू हुआ तथा बाँध उनके विरोध के बावजूद 2004 में पूरा हो गया । सरकार द्वारा 2004 में उन्हें बाँध स्थान से हटाकर दूसरे स्थान कोटी में ले जाया गया है, जहाँ वे अभी भी पर्यावरण से संबन्धित गतिविधियों में संलग्न हैं ।

उनकी प्रेरणा से दक्षिण भारत में एपिको आन्दोलन शुरू किया गया । उनकी सामाजिक सेवाओं के लिये 1981 में उन्हें पद्‌म श्री सम्मान; 1986 में जमनालाल बजाज अवार्ड; तथा 2009 में पद्‌म विभूषण उपाधि देकर सम्मानित किया गया है ।

बाद में इस आन्दोलन के कार्य क्षेत्र में विस्तार किया गया । इसमें माँग की गयी कि बाहरी लोगों को पेड़ों की कटाई के ठेके न दिये जायें तथा वनों व अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनता का नियन्त्रण रहे ।

यह भी माँग की गयी कि सरकार छोटे उद्योगों को सस्ता कच्चा माल उपलब्ध कराये तथा इस क्षेत्र का विकास इस प्रकार से किया जाये कि पर्यावरण संतुलन खराब न हो । इसमें भूमिहीन वन मजदूरों के हितों के संरक्षण के लिए उन्हें न्यूनतम मजदूरी देने की माँग भी उठाई गयी । इस आन्दोलन के दौरान ठेकेदारों ने इस क्षेत्र में शराब की बिक्री भी बढ़ा दी थी, क्योंकि पुलिस वर्ग शराबखोरी की लत से ग्रस्त था । अत: महिलाओं ने शराबखोरी के विरुद्ध भी आन्दोलन चलाया ।

25. चारू मजूमदार (1918-1972) [Charu Majumdar (1918-1972)]:

चारू मजूमदार भारत में नक्सलवादी आन्दोलन के जनक माने जाते हैं । इसके पहले के पूर्व उन्होंने बंगाल में तिभागा कृषक आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । 1969 में वे मार्क्सवादी पार्टी से अलग हो तथा उन्होंने मार्क्सवादी-लेनिनवजी पार्टी की स्थापना की । उन्होंने माओवादी विचारधारा के अनुसार भारत में हिंसक क्रांति के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन मार्ग अपनाया । 1972 में पुलिस में उनकी मृत्यु हो गयी ।

इसके बावजूद भी ये आन्दोलन शांत नहीं हुआ तथा वर्तमान में ये देश के कई क्षेत्रों में फैल गया है । 1967 से लेकर अब तक नक्सलवादी आन्दोलन का निरन्तर विस्तार होता रहा है । इस आन्दोलन में कई बार विभाजन भी हुआ है ।

वर्तमान में यह आन्दोलन भारत के 9 राज्यों के 75 जिलों में फैल गया है । इस आन्दोलन को उन्हीं स्थानों पर समर्थन प्राप्त हुआ है जहाँ बेरोजगारी गरीबी व शोषण की समस्यायें अधिक भयावह थीं । अत: इसे प्रभावित क्षेत्रों में ग्रामीण जनता, गरीबों, मजदूरों तथा जनजतियों का व्यापक समर्थन प्राप्त है ।

26. अन्ना हजारे (1937 से अब तक) [Anna Hazare (1937-Present)]:

अन्ना हजारे का पूरा नाम किशन बापत बाबूराव हजार है । उनका जन्म 15 जनवरी, 1937 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के भिंगार नामक कस्बे में हुआ था । उनकी माता का नाम लक्ष्मीबाई तथा पिता का नाम बाबूराव हजारे था । वे दो बहनों तथा चार भाइयों में सबसे बड़े भाई थे ।

उनके पिता श्रमिक थे तथा वित्तीय साधनों के अभाव में बम्बई में उनकी शिक्षा सातवीं कक्षा से आगे नहीं बढ़ सकी । ‘अन्ना’ उनका उपनाम है जो उन्हें उनके समर्थकों द्वारा दिया गया । अन्ना का मराठी भाषा में शाब्दिक अर्थ होता है- पिता अथवा वरिष्ठ व्यक्ति । उन्होंने 1960 में भारतीय सेना में ट्रक ड्राइवर की नौकरी की तथा 12 वर्ष की सेवा के बाद 1975 में सेवा निवृत्त हुये ।

हजारे गांधी जी के शान्तिपूर्ण सत्याग्रह से सर्वाधिक प्रभावित थे । इसी तकनीकि के आधार पर उन्होंने 1975 के बाद सामाजिक बदलाव के कई आन्दोलन किये । उनके पैतृक गाँव रेलेगाँव सिद्धि के किसान गरीबी ऋणग्रस्तता सूखा शराबखोरी तथा पर्यावरण विघटन आदि की समस्याओं से ग्रस्त थे । उन्होंने युवकों को संगठित कर ग्रामीण का कार्य किया तथा शराबखोरी के विरुद्ध जागरूकता उत्पन्न की ।

1990 के दशक में हजारे ने महाराष्ट्र में सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन चलाया । सरकार ने उनकी सेवाओं के लिये 1990 में उन्हें पद्‌म भूषण तथा 1992 में पदम विभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया । 2000 के दशक में उन्होंने महाराष्ट्र में सूचना के अधिकार के लिये आन्दोलन चलाया तथा राज्य सरकार ने उनकी माँग स्वीकार की ।

इसी दशक में उन्होंने राजनीतिक आधार पर तबादलों सरकारी दायित्व में लापरवाही तथा खाद्यान्नों से शराब बनाने के सम्बन्ध में भी महाराष्ट्र में आन्दोलन चलाया । 2011-12 में उन्होंने दिल्ली में देशव्यापी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन चलाया । इस आन्दोलन को विदेशों में भी समर्थन प्राप्त हुआ ।

इस आन्दोलन में उनकी मुख्य माँग यह थी कि ऐसे जन लोकपाल की स्थापना की जा सके जो प्रधानमंत्री सहित सभी सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में कड़ी कार्यवाही कर सके । आरंभ में केन्द्र की कांग्रेस सरकार तथा अन्य दलों ने टाल-मटोल किया । लेकिन दिसम्बर 2013 में एक हल्का लोकपाल कानून संसद द्वारा पारित कर दिया गया है ।

उपलब्धियाँ:

अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी उक्त आन्दोलन नये सामाजिक आन्दोलनों का एक सफल उदाहरण है ।

इसकी निम्न उपलब्धियाँ हैं:

(i) इस आन्दोलन ने राजनीति व प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को राजनीति का केन्द्रीय मुद्‌दा बना दिया है तथा दलों एवं उसके नेताओं को इस मुद्‌दे पर सोचने के लिये विवश किया है । इससे सरकार की मनमानी व संवेदनहीनता पर अंकुश लगेगा ।

(ii) आन्दोलन से सामाजिक प्रश्नों पर जनजागरूकता को बढ़ावा मिला है तथा भारत में नागरिक समाज के विकास में इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । नागरिक समाज जनहित में किये गये सभी गैर-सरकारी प्रयासों का नाम है, जो सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग तथा लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक है ।

(iii) इस आन्दोलन ने यह दिखा दिया है कि आधुनिक सामाजिक मीडिया द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों विशेषकर युवाओं को सकारात्मक सामाजिक हितों के लिये कैसे प्रेरित किया जा सकता है ।

(iv) अन्ना टीम के एक सदस्य केजरीवाल द्वारा आम आदमी पार्टी का गठन इसी आन्दोलन का परिणाम है । यह पार्टी भारतीय राजनीति में । नई राजनीतिक संस्कृति के उदय का संकेत है ।

27. बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल (1918-1982) [Bindeswari Prasad Mandal (1918-1982)]:

बी. पी. मण्डल बिहार के सक्रिय समाजवादी राजनेता थे । वे बिहार से 1967-70 तथा पुन: 1977-79 के मध्य लोकसभा के सदस्य रहे । वे लगभग 45 दिन के लिए 1968 मुख्यमंत्री भी रहे । उनकी अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन 1978 में किया गया था । इसे मण्डल आयोग के नाम से भी जानते हैं ।

मण्डल ओयोग द्वारा सरकारी सेवा में पिछडे वर्गों के लिए आरक्षण का सुझाव दिया गया था । इसकी संस्तुतियों को 1980 की कांग्रेस सरकार द्वारा नहीं लागू गया, लेकिन 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय सरकार द्वारा लागू किया गया । इसके बाद उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों के आरक्षण के समर्थन व विरोध में व्यापक आन्दोलन चला ।

28. काशीराम (1934-2006) [Kashiram (1934-2006)]:

भारत के प्रमुख दलित नेता जिन्होंने बहुजन समाज के सशक्तीकरण हेतु संघर्ष किया । 1978 में उनके द्वारा बामसेफ (Backward and Minority Communities Employees Federation- BAMCEF) की स्थापना की गयी । उस समय वे पूना में केन्द्र सरकार के प्रतिरक्ष विभाग में कार्यरत थे । उन्होंने केन्द्र सरकार की सरकारी नौकरी छोड़कर सक्रिय राजनीति में भाग लिया ।

उन्होंने दलितों के एक प्रमुख संगठन डी.एस.-4 अर्थात् दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की तथा अन्तत: 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की । उनके प्रयासी से बहुजन समाज पार्टी को पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में दलितों का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ ।

उत्तर प्रदेश में 2007 में अपने बलबूते पर इस पार्टी को सत्ता प्राप्त करने में सफलता प्राप्त हुयी । उनका मानना था कि समाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना आवश्यक है । 2006 में उनकी मृत्यु के बाद बहुजन समाज पार्टी का नेतृत्व मायावती के हाथों में है ।

बहुजन समाज पार्टी ने कई राज्यों में चुनावी प्रक्रिया में भाग लिया तथा उसे अपने जनाधार को बढ़ाने में सफलता मिली । उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने में सफल रही । 1995 के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता आधार पर इस पार्टी की नेता मायावती गठबन्धन सरकार में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं ।

अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण 2001 में काशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तथा वे बहुजन समाज पार्टी की क्ष बन गयीं । बहुजन समाज पार्टी ने अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव किया तथा अन्य जातियों को भी जोड़ने का प्रयास किया । इनमें कई उच्च जातियों के कार्यकर्ता भी पार्टी में शामिल हुए ।

बहुजन समाज पार्टी चुनाव-चिह्न हाथी है । अपने नये नारे- ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है’ द्वारा अपनी नयी चुनावी रणनीति का परिचय दिया । परिणामस्वरूप 2004 के लोकसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को 16 सीटों पर सफलता मिली ।

मई 2007 में पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को अकेले दम पर बहुमत प्राप्त हुआ तथा मायावती पुन: उत्तर प्रदेश की बनीं । बहुजन समाज पार्टी द्वारा अगली जातियों को साथ लेकर जो नई चुनावी सफलता अर्जित की गयी है, उसे विद्वानों ने सोशल इन्जीनियरिंग की संज्ञा दी है ।

2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में पार्टी के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप लगे तथा इसे बहुमत प्राप्त नहीं हुआ । वर्तमान में यह उत्तर प्रदेश विधानसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है था केन्द्र में कांग्रेस की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही है ।