Read this article in Hindi to learn about the panchayati raj system in Madhya Pradesh.

म.प्र. ने वे संशोधन के अनुपालन में म.प्र. पंचायती राज अधिनियम, 1993 दिसम्बर 1993 में पारित किया । 15 अप्रैल 1994 को चुनावों की अधिसूचना जारी की गयी । चुनाव संपन्न होने के साथ 20 अगस्त 1994 से म.प्र. में संवैधानिक पंचायती राज लागू हो गया ।

म.प्र. ने संवैधानिक पंचायती राज लागू करने वाले भारत के पहले राज्य होने का गौरव हासिल किया । इस अधिनियम ने म.प्र. पंचायती राज अधिनियम, 1990 का स्थान ले लिया है ।

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1. पंचायती संस्थाओं की संवैधानिकता (Constitutionalism of Panchayat Institutions):

अब पूरे भारत में पंचायत राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिल गया है । अर्थात् इनके चुनाव, आरक्षण, वित्त की व्यवस्था आदि के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों का पालन करना संबंधित राज्यों के लिए बाध्यकारी होगा । इस अनुरूप इस राज्य में भी इनके साथ व्यवहार हो रहा है ।

2. त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली (Three-Tier Panchayati Raj System):

20 लाख या उससे अधिक की आबादी वाले राज्यों के लिए त्रिस्तरीय पंचायती प्रणाली का प्रावधान है, जो इस राज्य पर लागू है ।

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मध्यप्रदेश राज्य की पंचायती व्यवस्था इस प्रकार है:

ग्राम सभा (Village Council):

ग्राम पंचायत क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले सभी वयस्कों से निर्मित यह ऐसी इकाई है जिसमें ग्राम पंचायत की सम्प्रभु शक्ति निहित है । इसे संविधान ने दर्जा (243-क) दिया है और राज्य विधानमण्डल ने इसे शक्तियां दी हैं । ग्राम सभा का प्रमुख कार्य है ग्राम पंचायत को चुनना और अपनी बैठक में उसके कार्यों की समीक्षा करना । राज्य में इसकी त्रैमासिक बैठक की व्यवस्था की गयी है ।

ग्राम सभा की बैठक राज्य में चार अवसरों पर होती है- 26 जनवरी, 30 जून, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर । सरपंच और उपसरपंच ही ग्राम सभा के प्रधान और उपप्रधान होते हैं । ग्रामसभा की बैठक में गणपूर्ति (कोरम) सदस्य संख्या का 10 प्रतिशत रखी गयी है । बैठक की अध्यक्षता सरपंच (उसकी अनुपस्थिति में उपसरपंच) करता है ।

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उल्लेखनीय है कि सजायाफ्ता या पागल या दिवालिया व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य नहीं हो सकते हैं । ग्राम सभा की सदस्यता आजीवन होती है और सदस्यों का नाम पंचायत रजिस्टर और ग्राम निर्वाचक सूची में दर्ज रहता है ।

(क) ग्राम पंचायत (Village Panchayat):

यह पंचायत का प्राथमिक और आधारभूत स्तर है । अमुमन 1000 की आबादी पर एक ग्राम पंचायत के गठन का प्रावधान है । इसमें न्यूनतम 10 से अधिकतम 20 वार्ड पंचों के लिए निर्मित हो सकते हैं । इन वार्डों की जनसंख्या लगभग समान रहती है । म.प्र. में 2007 की स्थिति में 23044 पंचायतें हैं ।

चुनाव (Election):

प्रत्येक वार्ड से एक पंच और संपूर्ण ग्राम पंचायत का एक सरपंच प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुने जाते हैं । उपसरपंच का चुनाव पंचगण अपने मध्य से करते हैं ।

सरपंच और उपसरपंच (Sarpanch and Sub-District):

ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव ग्राम के सभी मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है । सरपंच पंचायत का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है । ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाने, बैठक में की जाने वाली कार्यवाही का नियंत्रण रखने व ग्राम पंचायत के प्रस्तावों को क्रियान्वित करने का कार्य उसी के द्वारा किया जाता है । सरपंच की अनुपस्थिति में उपसरपंच यह सब कार्य करता है ।

प्रशासनिक अधिकारी (Administration Officer):

ग्राम पंचायत का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी ”सचिव” होता है ।

(ख) जनपद पंचायत (District Panchayat):

प्रत्येक ब्लाक या खण्ड स्तर पर एक जनपद पंचायत होती है जो पंचायत प्रणाली का मध्य स्तर है । मध्यप्रदेश में 313 ब्लाक है, जबकि छ.ग. में 146 ब्लाक हैं । जनपद 10 से 25 ‘निर्वाचन’ क्षेत्रों में विभक्त होता है । प्रत्येक सदस्य अमुमन 5000 की आबादी का प्रतिनिधित्व करता है ।

पदाधिकारी और चुनाव (Office-Bearers and Elections):

इसके सभी सदस्य वयस्क मताधिकारी के आधार पर चुने जाते हैं और वे अपने मध्य से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष चुनते हैं । जनपद क्षेत्र में आने वाले सांसद, विधायक, सहकारी समितियों के अध्यक्ष सहयोजित किये जाते हैं । जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं होता है । बाद में संशोधन द्वारा सहयोजन प्रणाली समाप्त कर दी गयी ।

मुख्य कार्यपालन अधिकारी (Chief Executive Officer):

जनपद पंचायत के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के रूप में मुख्य कार्यपालन अधिकारी की भूमिका विकास कार्यों के क्रियान्वयन में अत्यधिक महत्वशाली है । सामुदायिक विकास कार्यों के खण्ड स्तर पर क्रार्यान्वयन के लिए विकास खण्ड अधिकारी नामक विकास अधिकारी की नियुक्ति की गयी थी ।

अब संवैधानिक दर्जा प्राप्त पंचायत प्रणाली के इस स्तर पर विकास कार्यों तथा अन्य प्रशासनिक कार्यों की बढ़ती चुनौती के मद्देनजर राज्य शासन ने ‘मुख्य कार्यपालन अधिकारी’ नामक नया पद सृजित किया है । मुख्य कार्यपालन अधिकारी की भर्ती अतिरिक्त सहायक विकास आयुक्त के रूप में लोक सेवा आयोग द्वारा या विकास खण्ड अधिकारियों से पदोन्नति द्वारा की जाती है ।

जनपद पंचायत में इसकी भूमिका या कार्यों के दो पहलू हैं प्रशासनिक अधिकारी के रूप में जनपद और उसके अधीनस्थ विभागों, जैसे- कृषि, पशु चिकित्सा आदि के कार्मिकों पर नियन्त्रण, पर्यवेक्षण रखना । विकास अधिकारी के रूप में जनपद पंचायत की परिषद की बैठक की व्यवस्था करता है । पारित प्रस्तावों की सूची बनाकर संबंधित शाखाओं अन्य विभागों को भेजता ।

जनपद के कार्यक्षेत्र से संबंधित प्रस्तावों का क्रियान्वयन करता है । कतिपय योजनाओं को जिला पंचायत की स्वीकृति के लिए प्रेषित करता है । अपने क्षेत्र की पंचायतों का दौरा कर उनके कार्यों का अवलोकन करता है ।

(ग) जिला पंचायत (District Panchayat):

यह पंचायत प्रणाली की सर्वोच्च संस्था है । यह अधीनस्थ पंचायतों पर नियन्त्रण रखती है और उनका निर्देशन करती है । जिला पंचायत में 10 से 35 तक सदस्य हो सकते है । लगभग 50 हजार की आबादी पर एक सदस्य होता है । निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त अन्य सहयोजित सदस्य भी होते हैं, जैसे क्षेत्र के सांसद, विधायक, जनपद अध्यक्ष, जिला सहकारी बैंक का अध्यक्ष, जिला कलेक्टर आदि । ये सभी पदेन सदस्य होते हैं ।

पदाधिकारी और चुनाव (Office-Bearers and Elections):

इसका प्रमुख जिला पंचायत अध्यक्ष होता है, जो सदस्यों के द्वारा चुना जाता है । उपाध्यक्ष भी इसी प्रकार चुना जाता है । इसका प्रमुख शासकीय अधिकारी मुख्य कार्यपालन अधिकारी होता है, जो आई. ए.एस. या वरिष्ट डिप्टी कलेक्टर होता है । राज्य में मुख्य कार्यपालन अधिकारी के पद पर आई.एफ.एस. और आई.पी.एस. भी नियुक्त किये गये हैं ।

3. पंचायतों के कार्य (Work of Panchayats):

संशोधन द्वारा संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़ी गयी है, जिसमें पंचायतों के 29 कार्यों का वर्णन है । ये ग्रामीण विकास से संबंधित कार्य हैं, जैसे- वन प्रबन्धन, मत्स्य पालन, भूमि प्रबन्धन, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, इत्यादि ।

4. कार्यकाल (Tenure):

73वें संशोधन ने पंचायतों के जीवन को निरन्तरता प्रदान की है । इनका कार्यकाल पूर्ववत ही 5 वर्ष रखा गया है, लेकिन अब इन्हें समय से पूर्व भंग करने पर 6 माह के भीतर नये चुनाव कराना कानूनी बाध्यता होगी । पंचायत राज संस्थाओं के प्रमुखों को अविश्वास प्रस्तावों द्वारा हटाया जा सकता है ।

किंतु कोई भी अविश्वास का प्रस्ताव पारित न हो सके तो एक वर्ष तक पुन: ऐसा प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता । कर्तव्यों की उपेक्षा एवं दुराचार करने पर राज्य सरकार भी उन्हें हटा सकती है । हटाए गए व्यक्ति पुन: 5 वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए पात्र नहीं होंगे ।

5. आरक्षण (Reservation):

उक्त संशोधन ने पंचायतों को अधिक प्रतिनिधिक बनाने के उद्देश्य से अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं का अनिवार्य आरक्षण तथा OBC के लिए राज्य सरकार द्वारा एच्छिक आरक्षण का प्रावधान किया है ।

जो इस प्रकार है:

i. प्रत्येक स्तर की पंचायत में सदस्यों के पदों पर SC/ST को आरक्षण उस क्षेत्र की जनसंख्या में उनके प्रतिशत के अनुपात में है ।

ii. सभी पंचायतों के प्रमुखों (अध्यक्ष) के पदों पर SC/ST को आरक्षण राज्य में SC/ST की जनसंख्या के अनुपात में है ।

iii. 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का ध्यान रखते हुए, SC/ST के आरक्षण के बाद OBC को 25 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है ।

iv. उपरोक्त सभी आरक्षित वर्गों और अनारक्षित रह गए पदों में एक तिहायी पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं । यह सदस्य और प्रमुख दोनों स्तर पर हैं । यह आरक्षण कुल पदों और प्रत्येक वर्ग दोनों में एक तिहायी है ।

v. समस्त आरक्षण चक्रीय पद्धति (Rotation Method) से होते हैं ।

6. निर्धारित अयोग्यता (Presumed Inefficiency):

राज्य शासन पंचायत प्रतिनिधि बनने संबंधी कोई अनर्हता बना सकती है, तब ऐसे व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकेंगे । जैसे राज्य में दो से अधिक बच्चों (2000 के बाद जन्म लेने पर) वाले व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते थे । इस प्रावधान को 2007 में समाप्त कर दिया गया ।

7. करारोपण की शक्ति (Power of Taxation):

राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित प्रक्रिया अनुसार पंचायतें कर लगा और वसूल सकेंगी ।

8. वित्त आयोग (Finance Commission):

राज्य की कर आय और संचित निधि से स्थानीय निकायों को राशि हस्तांतरण के सिद्धान्तों का निरूपण करने हेतु राज्यपाल द्वारा 5 वर्ष के अन्तराल में एक वित्त आयोग गठित किया जाता है । राज्य में 17 जून 1994 को पहले वित्त आयोग का गठन किया गया था ।

9. निर्वाचन व्यवस्था (Election System):

पंचायतों के चुनाव हेतु प्रादेशिक निर्वाचन आयोग की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है । राज्य में 19 जनवरी 1994 को पहले निर्वाचन आयोग का गठन किया गया था ।

10. पंचायत का अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार अधिनियम (Extension of the Panchayat to Scheduled Areas Act):

चूंकि 73वां संशोधन अनुसूचित क्षेत्रों, जनजाति क्षेत्रों पर लागू नहीं होता, अत: मध्यप्रदेश, छ.ग., आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान राज्यों के लिये उक्त अधिनियम पारित किया गया । इसके द्वारा पंचायत व्यवस्था में कतिपय व्यवहारिक परिवर्तन किये गये ।

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