मध्यप्रदेश में गरीबी को कम कैसे करें ? How to Reduce Poverty in MP (Madhya Pradesh) in Hindi

मध्यप्रदेश में गरीबी निवारण में हस्तशिल्प उद्योगों की भूमिका (Role of Handicrafts Industries in Poverty Alleviation):

हस्तशिल्प उद्योग वे उद्योग हैं, जिनमें वस्तुओं का निर्माण पूर्णरूप से हाथ से या साधारण औजारों से किया जाता है । साधारणत: यह शब्द सामान बनाने के परम्परागत साधनों पर लागू होता है, वस्तुओं की व्यक्तिगत शिल्पकारी ही उस वस्तु की प्रबलतम या उत्तम कसौटी होती है । ये वस्तुएं अकसर सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व की होती हैं ।

हस्तशिल्प की पहचान के लिए जिन बातों का होना जरूरी है, कि ये हाथों से बनी होती है और कारीगरों की घंटों की मेहनत में उनका कौशल झलकती है । इसमें संस्कृति और विरासत के लिए चिन्ह मौजूद रहते हैं । ये घरेलू उपयोग या सजावट के सामान जैसी रहती है । इन्हें बनाने के लिए लकड़ी, मिट्टी, काँच, कपड़ा, धातु आदि प्राकृतिक साधनों का उपयोग होता है ।

हस्तशिल्पीय रचनाएँ व्यक्ति या फिर कारीगरों के छोटे समूह का परिणाम होती है । ये परम्परागत होती हैं और जीवन निर्वाह के जरूरी हिस्से के रूप में निर्मित की जाती है । हस्तशिल्प उद्योग की प्रमुख विशेषता यह है कि, सामान्यतया किसी भी प्रकार के कच्चे माल या मशीनी उपकरणों के आयात की आवश्यकता नहीं होती है ।

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इस उद्योग में कार्यरत शिल्पी को औपचारिक रूप से किसी प्रशिक्षण संस्थान में अपने व्यवसाय से संबंधित कार्यों का प्रशिक्षण अथवा शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक नहीं । हस्तकला से जुड़े व्यवसाय तो पारिवारिक आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं, जिसमें बच्चे अपने वरिष्ठ परिवारजनों के साथ कार्य करते हुए परिपक्व एवं कुशल कारीगर बन जाते हैं । कम पूंजी निवेश, मूल्य संवर्धन का ऊंचा अनुपात, नगण्य आयात, कच्चे माल का विस्तृत आधार तथा उच्च निर्यात संभावनाएं हस्तशिल्प क्षेत्र की शक्ति है ।

भारत में हस्तशिल्प उद्योग:

भारत का हस्तशिल्प उद्योग शताब्दियों से गावों, कस्बों के साथ-साथ शहरों तक की अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग रहा है । यह एक श्रमप्रधान उद्योग है, जिसमें नाममात्र के पूजी निवेश से बड़ी मात्रा में रोजगार सृजित होता है । इस प्रकार हस्तशिल्प क्षेत्र रोजगार प्रदान करने की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है ।

इस क्षेत्र द्वारा वर्तमान में 80 लाख कारीगरों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान किया जा रहा है । हस्तशिल्प उत्पादों के निर्यात के द्वारा देश को बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है, जिसमें वर्षानुवर्ष बढ़ोत्तरी भी हो रही है ।

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हस्तशिल्प का निर्यात जो वर्ष 1997-98 में 6458 करोड़ रूपये था वह वर्ष 2010-11 में बढ़कर 9592.73 करोड़ रूपये हो गया । अगले वर्षों में इसमें और भी अधिक वृद्धि की संभावनायें बनी हुई हैं । देश के विभिन्न भागों में बसे दस्तकारों द्वारा स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कच्चे माल, लकड़ी, पत्थर, धातु, वनस्पतियों आदि से ही घरों में काम आने वाली अनेक वस्तुओं जैसे बर्तन, पलग, चौखट-दरवाजे, फर्नीचर, मूर्तियाँ, खिलौने, सजावट की वस्तुओं का निर्माण किया जाता रहा है । सूत, रेशम, ऊन से बने वस्त्रों को आकर्षक रूप प्रदान करने में दस्तकारों की ही भूमिका अति महत्वपूर्ण रही है ।

आज बनारसी साडिया, चदेरी साडिया, काजीवरम सिल्क, कश्मीरी शॉल. सागानेरी प्रिंट्‌स. फर्रुखाबादी रजाइया, जोधपुरी जूतिया, जयपुरी रजाइया, फिरोजाबादी चूड़िया, जलेसरी घुघरू, मुरादाबादी बर्तन, जोधपुरी फर्नीचर, अलीगढ के ताले, हैदराबादी फर्नीचर आदि ऐसे अनेक ब्रांड नाम है, जो शताब्दियों में भारतीय जनमानस में अपनी पहचान बनाए हुए हैं । बल्कि इनकी पहचान एवं लोकप्रियता इन उत्पादों के सृजन एवं विनिर्माण से जुड़े हस्तशिल्प के दस्तकारों की कठिन मेहनत, सृजनात्मक कौशल एवं पेशे से जुड़ी हुई निष्ठा के ही सम्मिलित परिणाम हैं ।

मध्य प्रदेश में हस्तशिल्प उद्योग:

यह प्रदेश सदियों से अपनी परम्परा और सभ्यता को अपने में समेटे है । इसका अपना गौरवमय सांस्कृतिक इतिहास रहा है । कृषि इस प्रदेश का मुख्य व्यवसाय रहा है, लोकन राज्य में बड़े उद्योगों की स्थापना की दिशा में सरकार बाहरी निवेश को बढ़ावा दे रही है । इसके साथ-साथ प्रदेश में हस्तशिल्प उद्योगों की भी समृद्ध परपरा रही है इसे हस्तशिल्प का आध्यात्मिक राज्य भी कह सकते है ।

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मध्यप्रदेश के मडला जिले का टेराकोटा शिल्प, होशगाबाद का काष्ठशिल्प, भोपाल का जूट शिल्प, जरी जरदोजी और मनकों का काम, रीवा का लाख के आभूषण और सुपारी के सामान, ग्वालियर, इदौर और उज्जैन के कागज की लुगदी का काम, जिला सीहोर का खराद शिल्प, बाघ जिला धार की कपड़ा छपाईचदेरी एवं महेश्वर की साडी विश्व में अपनी अलग पहचान बना चुकी है । राज्य में सूती खादी, ऊनी खादी, रेशम खादी का भी उत्पादन किया जाता है । मध्यप्रदेश के विभिन्न अबलों में हस्तशिल्प उद्योगों की परंपरागत संस्कृति रही है ।

मध्य प्रदेश में हस्तशिल्प से संबंधित प्रमुख संस्थाओं की स्थापना एवं योजनाऐं:

(I) कुटीर एवं ग्रामोद्योग विभाग:

महात्मा गाँधी आजीवन कुटीर एवं ग्रोमोद्योगों के विकास पर बल देते रहे और उनके वचनों मैं ”भारत का मोक्ष उसके कुटीर एवं लघु उद्योगों में निहित है ।” कुटीर एवं ग्रामोद्योग विभाग की विभिन्न योजनाएँ इस क्षेत्र में काम करने वाले उद्यमियों को बेहतर आर्थिक विकास के अवसर देती है । ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती में इन शिल्पियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । ये शिल्पी इन योजनाओं से लाभ प्राप्त कर अपने पारंपरिक व्यवसाय को आधुनिक रूप दे सकते है ।

कुटीर एवं ग्रामोद्योग विभाग की योजनाएँ:

(1) एकीकृत कलस्टर विकास कार्यक्रम नियम-2004 (संशोधित 2011),

(2) उद्यमियों/ स्व-सहायता समूहों/ अशासकीय संस्थाओं को सहयोग के लिए नियम,

(3) स्पेशल प्रोजेक्ट योजना हेतु नियम 2004 (संशोधित 2011),

(4) ग्रामोद्योग “प्रमोशन एवं अभिलेखीकरण” की योजना हेतु नियम, 2004 ।

(II) हाथकरघा संचालनालय द्वारा संचालित योजनाएँ:

मध्यप्रदेश हाथकरघा संचालनालय की स्थापना सन 1976 में हुई । इसकी स्थापना से प्रदेश में हाथकरघा उद्योग को विशेष रूप से सहकारी क्षेत्र में विकास की गति मिली । हस्तशिल्प उद्योगों में हथकरघा क्षेत्र सबसे प्राचीन, विशिष्ट एवं विविधतापूर्ण है । हाथकरधे का इतिहास बनाता है इसका अविष्कार नागालेण्ड की एक पर्वतीय महिला ने नदी में निरन्तर गिर कर बहने वाले एक झरने की लहरो से प्रेरित होकर किया था ।

इस उद्योग से जुड़े श्रमिकों, कारीगरों एवं शिल्पियों के कल्याण के लिए मध्य प्रदेश हाथकरघा निगम द्वारा निम्नलिखित योजनाएँ क्रियान्वित है:

(1) हाथकरघा उद्योग विकास योजना,

(2) कुटीर उद्योग विकास योजना (औद्योगिक क्षेत्र के लिए),

(3) बुनकर स्वास्थ बीमा योजना (जिला स्तर से संचालित),

(4) महात्मा गाँधी सुनकर बीमा योजना (मुख्यालय स्तर से संचालित),

(6) कबीर बुनकर प्रोत्साहन योजना,

(III) मध्य प्रदेश खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड द्वारा संचालित योजनाएं:

“खादी तथा कुटीर उद्योग हमारे गाँव की आर्थिक बेहतरी के लिए इतना जरूरी है जितने कि शरीर के लिए प्राण” । – महात्मा गाँधी । योजना आयोग के अनुसार- ”ग्रामीण उद्योगों को विकसित करने का प्राथमिक उद्देश्य कार्य के अवसरों में वृद्धि करना, आय एवं रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाना तथा एक से अधिक संतुलित एवं समन्वित अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है ।”

स्थापना:

मध्य प्रदेश खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड राज्य शासन का एक विधि विहित संस्थान हे । बोर्ड की स्थापना, मध्यप्रदेश शासन के अधिनियम क्रमांक (2) वर्ष 1960 के अंतर्गत की गई थी । कालान्तर में इस अधिनियम के स्थान पर 1978 में संशोधित अधिनियम पारित हुआ, जिसके तहत बोर्ड की गतिविधियां संचालित है ।

(1) परिवार मूलक इकाई स्थापना योजना,

(2) कारीगर प्रशिक्षण योजना,

(3) खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग मुम्बई द्वारा प्रायोजित योजना,

(4) उत्पादन अनुदान योजना,

(5) कत्तिन अनुदान योजना ।

(IV) मध्यप्रदेश माटीकला बोर्ड:

मध्यप्रदेश माटीकला बोर्ड माटी शिल्प से जुड़े । शाखयों, उनकी कला और जीवन शैली के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है ये शिल्पी मिट्‌टी से अलग ही संसार का सृजन करते है ।

इस बोर्ड की विभिन्न योजनाएँ निम्नानुसार है:

(1) श्री यादे माटीकला योजना,

(2) माटीकला उद्यमियों को प्रशिक्षण योजना,

(3) माटीकला प्रचार-प्रसार योजना नियम ।

(V) संत रविदास म.प्र. हस्तशिल्प एवं हाथकरघा विकास निगम मर्यादित, भोपाल:

इस निगम के स्थापना वर्ष 1981 में की गई थी ओर इसने अपना कार्य 1 जुलाई, 1982 से प्रारंभ किया मध्यप्रदेश हस्तशिल्प विकास निगम की स्थापना प्रदेश में हस्तशिल्पों के व्यवस्थित विकास को बढ़ावा देने एवं हस्तशिल्पियों की समस्याओं के निराकरण के लिए की गई यह निगम मध्यप्रदेश शासन का उपक्रम है ।

हाल ही में इस निगम का नाम संशोधित कर सत रविदास हस्तशिल्प एवं हाथकरघा विकास निगम कर दिया गया है । यह निगम हस्तशिल्प की प्रगति के अविस्मणीय योगदान दे रहा है । इस विभाग का लक्ष्य हस्तशिल्प से जुड़े कारीगरों के लाभान्वित करके उनके आजीविका उपार्जन का माध्यम बनना और उनमें आत्मनिर्भरता को विकसित करना है ।  

मध्यप्रदेश में हस्तशिल्प उद्योग के संगठित क्षेत्र में रोजगार:

मध्यप्रदेश में हस्तशिल्प उद्योग ग्रामीण एवं शहरी रोजगार में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है । इसमें अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं की अधिकता है । यह एक असंगठित क्षेत्र है । हस्तशिल्प के विकास में इसका असंगठित क्षेत्र एक चुनौती है ।

संगठित क्षेत्र द्वारा वर्ष 2010 से 2013 तक प्रान्त रोजगार तालिका क्रमांक 1 में देखा जा सकता है । उपर्युक्त तालिका में दिया गया रोजगार संगठित क्षेत्र का है । वास्तविक रोजगार और आय तो इसमें कई गुना अधिक है । जो कि संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों से प्राप्त होता है ।

एम्पोरियम के माध्यम से किया गया विक्रय:

मध्यप्रदेश में हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम के द्वारा विपणन का कार्य किया जाता है ।

हस्तशिल्प उद्योगों की समस्याएँ:

(i) आवास की समस्या:

अधिकांश शिल्पी और कारीगर अपने घरों में ही शिल्पकार्य करते है । इन शिल्पियों में अधिकांश के घर कच्चे रहते है और उन्हें इन्हीं में उत्पादन करना पड़ता है । इसके अलावा वर्षा में पानी के कारण उत्पाद के खराब होने की संभावना बनी रहती है जिससे शिल्पियों को कार्य करने में परेशानी होती है ।

(ii) शिक्षा की कमी:

इन उद्योग से जुड़े अधिकतर शिल्पि अशिक्षित या कम शिक्षित है इसका मुख्य कारण यह है कि, ज्यादातर शिल्पी बचपन से ही अपने पारम्परिक कार्य से लग जाते है साथ ही साथ उन्हें सस्ती शिक्षा उपलब्ध नहीं है ।

(iii) शौचालय एवं विश्रामगृहों का अभाव:

कुछ ग्रामीण शिल्पियों के घर में शौचालयों एवं विश्रामगृहों का अभाव होता है जिसके परिणामस्वरूप उन्हें शौच क्रिया के लिए बाहर दूर तक जाना पड़ता है जिससे उनके कार्य में बाधा पड़ती है और नुकसान होता है । अनेक कार्यस्थलों में विश्राम गृहों का अभाव है जिससे शिल्पियों के स्वास्थ्य एवं उनकी कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

(iv) पूर्ण समय कार्य न मिलना:

अनेक शिल्पियों को वर्ष में पूरे समय कार्य नहीं मिल पाता । कुछ शिल्प कार्य मौसमी होते हे ऐसे शिल्पियों को खाली समय में बेरोजगार रहना पड़ता है ।

(v) प्रशिक्षण का अभाव:

अधिकांश शिल्पी प्रायः अशिक्षित ही होते हे और असंगठित होने के कारण उन्हें कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं होता । प्रशिक्षण की कमी के कारण शिल्पी अपनी कार्यकुशलता नहीं बढ़ा पाते साथ ही साथ ये प्रतियोगिता का सामना भी नहीं कर पाते ।

(vi) स्वास्थ्य एवं सुरक्षा संबंधी समस्याऐं:

देश के अधिकतर हाथकरघा और हस्तशिल्प कारीगर व्यवसायजन्य स्वास्थ्य के खतरों से परिचित नहीं हैं । इसका एक कारण तो यह हो सकता हे कि वे असंगठित होते है और रचय ही अपने रोजगार के मालिक होते है और दूसरा कारण यह है कि वे चोट और नुकसान को पारम्परिक व्यवसाय का एक जरूरी हिस्सा मानकर चलते है ।

(vii) कच्चे माल की समस्या:

हस्तशिल्प उद्योगों की यह विशेषता है कि ये स्थानीय सामग्री व प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सामग्री के प्रयोग से दैनिक जरूरतों और सजावट की आप्रतिम वस्तुओं का सृजन करता है । इन्हें बनाने के लिए लकड़ी, मिट्‌टी, कांच, कपड़ा, रेशे, धातु बाँस, बेंत, पत्थर, घास, जूट, सन, सुतली, लाख, रेशम, आदि का कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है । हस्तशिल्प उद्योगों के लिए कच्चे माल की समस्या एक प्रमुख समस्या है । आज बिना कच्चे माल के किसी भी वस्तु का उत्पादन संभव नहीं ।

(viii) लागत संबंधी समस्या:

इस उद्योग के असंगठित होने के कारण अधिकांश शिल्पी घर पर ही या छोटे पैमाने पर आठ-दस व्यक्तियों द्वारा उद्योग स्थापित किए जाते हे जिससे उत्पादन व्यय बहुत अधिक पड़ता है । साथ ही कुछ शिल्पी अकुशल भी होते है । इस क्षेत्र में शिल्पियों की नियुक्ति पारंपरिक आधार पर होती है उनके प्रशिक्षण एवं कार्यकुशलता आदि के विषय में कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं अपनायी जाती । परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में अपव्यय की प्रवृत्ति अधिक देखने को मिलती है ।

(ix) निम्न उत्पादकता की समस्या:

हस्तशिल्प उद्योगों में उत्पादन ऊँची लागतों पर होता है अतः उद्योग की लाभदायिकता अन्य उद्योगों की तुलना में बहुत कम हैं । इस कारण विनियोगकर्ता अपना विनियोग इन उद्योगों से निकालकर अन्य उच्च लाभदायिकता वाले उद्योगों में कर रहे है ।

(x) ऊँची ब्याज दर:

हस्तशिल्प उद्योगों के समक्ष वित्त की समस्या हमेशा से रही है । वित्त की पूर्ति हेतु शिल्पियों एवं अन्य उद्यमी वर्ग ऊंची ब्याज दरों पर भी ऋण प्राप्त करते है । ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं के अभाव के कारण अधिकांश शिल्पी साहूकारों से ऋण लेते है परिणामस्वरूप उन्हें ऊंची ब्याज दर पर ऋण का भुगतान करना पड़ता है जिससे ब्याज की अधिकता के कारण लाभ अनुपात बहुत कम हो जाता है ।

(xi) विपणन संबंधी समस्या:

हस्तशिल्प उद्योगों के अनेक क्षेत्रकों में विपणन संबंधी समस्या के अंतर्गत बाजार की समस्या विद्यमान है । उनके उत्पादों के विक्रय हेतु उचित बाजार व्यवस्थाओं का अभाव है । इस समस्या का प्रमुख कारण हस्तशिल्पियों का असंगठित होना है । संगठित शिल्पियों को तथा निगम आदि संस्थाओं से जुड़े शिल्पियों को इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता ।

(xii) मध्यस्थों संबंधी समस्या:

हस्तशिल्प उद्योगों में विपणन व्यवस्था मध्यस्थ बाहुल्य है । उपभोक्ता और निर्माता के मध्य अनेक मध्यस्थ होते है । जिस कारण से उत्पादन के मूल्यों में अनावश्यक वृद्धि हो जाती है तथा उपभोक्ता के लिए वस्तु की उत्पादन लागत, गुणवत्ता तथा उपयोगिता की सही जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है । विचौलियों की अधिकता से पूर्ति भी मांग के अनुरूप प्रभावित होती है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक समस्याएं उत्पन्न होती है ।

(xiii) विज्ञापन एवं विक्रय प्रर्वतन की समस्या:

हस्तशिल्प उद्योगों के प्रचार-प्रसार हेतु विज्ञापन एवं प्रदर्शनी, मेलों की अपेक्षाकृत कम व्यवस्था है सरकार के द्वारा विकास निगमों के माध्यम से हस्तशिल्प उत्पादों को विज्ञापन एवं प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर प्रदर्शनी एवं मेलों का आयोजन किया जाता है परन्तु इसका लाभ सभी क्षेत्रक नहीं उठा पाते है । फलस्वरूप शिल्पी को नये उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में काफी कठिनाई होती है ।

समस्याओं के निराकरण हेतु सुझाव:

(a) शिल्पियों की आवास समस्या सुलझाना अत्यंत आवश्यक है । इसके लिए शासन द्वारा शिल्पी बाहुल्य क्षेत्र में आवास कालोनियों का निर्माण किया जाना चाहिए । जिनमें हवा, प्रकाश, निकासी, बिजली, पानी, शौचालय की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए । क्योंकि ये शिल्पी की कार्यकुशलता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है ।

(b) शिल्पियों एवं उनकी संतानों को उचित एवं सस्ती शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए ।

(c) शासन द्वारा संचालित कल्याणकारी योजनाओं का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार होना चाहिए ताकि अधिक से अधिक शिल्पी उनका लाभ उठा सकें ।

(d) शिल्पियों के कौशल उन्नयन हेतु उन्हें आधुनिक तकनीकों से पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना अत्यन्त आवश्यक है इस हेतु शासकीय हस्तशिल्प प्रशिक्षण केन्द्र का विकास किया जाना चाहिए ।

(e) शिल्पियों की कार्य के प्रति हो रही अरूचि को कम करने के लिए उन्हें उचित मजदूरी भुगतान की जाये ।

(f) प्रदेश के हर जिले में मास्टर शिल्पियों द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

(g) हस्तशिल्प के विभिन्न क्षेत्रों के लिए कच्चा माल सही कीमत पर, सही समय पर, एवं उच्च गुणवत्ता का उपलब्ध कराया जाना चाहिए । यह कार्य शासन द्वारा विशेष विभाग स्थापित करके किया जा सकता है ।

(h) हस्तशिल्प उद्योगों में उत्पादन तकनीकी परम्परावादी है । जिनके परिणामस्वरूप उत्पाद के मूल्य अधिक निर्धारित किये जाते है । अतः पुरानी एवं अप्रचलित तकनीक के स्थान पर अत्याधुनिक तकनीकी का प्रयोग किया जाना चाहिए ।

(i) हस्तशिल्प उद्योग में विनियोग पूजी का अभाव रहा है । इस समस्या को दूर करने के लिए उचित लाभांश दर, विनियोगों की सुरक्षा, विनियोगों में विश्वास, लाभांश की स्थिरता आदि के माध्यम से विनियोग को आकर्षित किया जाना चाहिए ।

(j) ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त बैंकिंग सुविधाओं के अभाव के कारण ग्रामीण शिल्पि ज्यादातर साहूकारों से ही ऋण प्राप्त करते है । अतः सरकार को गैर कानूनी तरीके से ब्याज वसूलने वालों के लिए कठोर कानून बनाकर उनके लिए नियंत्रण के दायरे में लावे, साथ ही ब्याज दरों में एकरूपता लाने तथा ब्याज दरों को कम किया जाना चाहिए ।

(k) बाजार की समस्या का समाधान हमें मिलकर करना होगा । आकर्षक व सुन्दर सामग्री स्वयं क्रेता को आकर्षित कर सकती है और बाजार का निर्माण स्वतः हो सकता है । हस्तशिल्प उद्योग के लिए स्थानीय स्तर पर सामुदायिक सहयोग से एक इम्पोरियम का निर्माण उचित रहेगा । जहाँ ये कलात्मक, नवीन व उपयोगी शिल्प रख सकते है । समय-समय पर स्थान-स्थान पर इनकी सामग्रियों की प्रदर्शनी का आयोजन भी उपयोगी सिद्ध हो सकेगा ।

(l) अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में उत्पादक एवं उपभोक्ता के मध्य मध्यस्थता अधिक पाई जाती है । मध्यस्थता अधिक होने से वस्तु के मूल्य में अनावश्यक वृद्धि हो जाती है तथा लाभार्जन क्षमता भी प्रभावित होती है । अत: मध्यस्थता कम करने के प्रयास किए जाने चाहिए तथा वस्तुओं के मूल्य, पूर्ति की सूचना सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध होनी चाहिए ।

(m) हस्तशिल्प उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए मीडिया संस्थानों, जैसे- विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय द्वारा अधिक प्रभावी दग से प्रचार गतिविधियां सुनिश्चित की जाए । इसमें निजी मीडिया संस्थानों व मीडिया शिक्षण संस्थानों का सहयोग भी लिया जा सकता है ।

साथ ही साथ हस्तशिल्प विकास निगम के माध्यम से समय-समय पर पत्रिकाओं, ब्रोशर तथा वेबसाइड के द्वारा भी हस्तशिल्प का प्रचार किया जा सकता है । हस्तशिल्प द्वारा उत्पादित माल की जानकारी स्थानीय बाजारों से लेकर अतर्राष्ट्रीय बाजारों तक पहुँचाने के लिए उचित एवं प्रभावी माध्यम मौजूद होना चाहिए ।

मध्यप्रदेश में जिला गरीबी उन्मूलन परियोजना (Poverty Reduction Projects in Madhya Pradesh):

गांव की उन्नति एवं विकास का एक सपना महात्मा गांधी का था । गांधी जी देश की तरक्की की बुनियाद गाव को मानते थे । उनकी कल्पना स्वावलम्बी गाव के समूह विकसित करने की थीं । ऐसे ग्राम समूह जो मनुष्य की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में पूरी तरह से सक्षम हों ।

मध्यप्रदेश के चुने हुए इलाकों में संचालित जिला गरीबी उन्मूलन परियोजना गांधी के सपनों को साकार करने का दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है । यह योजना ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सीखने-सिखाने और कुछ नया कर दिखाने की सफल पाठशाला साबित हुई है । विश्वबैंक ने भारत में संचालित अपने इस सबसे सफलतम परियोजना में मध्यप्रदेश को शामिल किया है ।

प्रदेश के पिछड़े हुए 14 जिलों में यह योजना संचालित की जा रही है । विगत अन्य ग्रामीण विकास की परियोजनाओं के संचालन का यह परिणाम सामने आया हैं कि जमीनी स्तर पर योजनाओं के क्रियान्वयन में जनता की सीधी और सक्रिय भागीदारी के नतीजे उत्साहवर्धक रहे हैं । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए इस योजना में ग्रामीण जनता को प्रत्यक्ष रूप से जोड़ने का निश्चय किया गया हैं ।

यह योजना इस परिकल्पना पर आधारित हैं कि लोग समूह के रूप मेख जुड़कर सामूहिक रूप से आगे बढ़ सकेंगे, समस्याओं का मुकाबला कर यथा संभव उनका समाधान भी ढूंढ सकेंगे । इससे ग्रामीण जनता में यह विश्वास जाग्रत होगा कि वे अपने विकास का मार्ग स्वयं निर्धारित कर उस पर आगे बढ़ सकते हैं ।

अर्थव्यवस्था में विकास का सर्वमान्य मापदण्ड समाज के हर वर्ग एवं क्षेत्र का विकास है । स्वतंत्रता से आज तक भारत में शहरी एवं ग्रामीण विकास का अतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित है । विकास का यही अतर ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है ।

गांधी जी देश की तरक्की की बुनियाद, गाव को मानते थे । उनके सपने, कल्पना स्वावलम्बी गाव के समूह विकसित करने का था । ऐसे ग्राम समूह जो मनुष्य की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में पूरी तरह से सक्षम हों । मध्यप्रदेश के चुने हुए इलाकों में संचालित जिला गरीबी उन्तुलन परियोजना गांधी के सपनों को साकार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है ।

परियोजना के माध्यम से सामूहिक विकास की ठोस बुनियाद रखी गई हैं । इसके माध्यम से रोजगार के अवसर खोजने के निरंतर प्रयास किए जा रह हैं । इसके माध्यम से गरीबी से मुक्ति के लिए सामूहिक सफल प्रयास के अगले कदम में स्व रोजगार से ”आजीविका सृजन’ अवसरों में वृद्धि होगी । यह परियोजना अपने आरंभिक काल से ही अपने क्रियान्वयन की विशिष्ट शैली, लचीलेपन और पारदर्शिता, ईमानदारी तथा समर्पित भाव से पूर्ण किये गये कार्यों के कारण अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की हैं ।

परियोजना का क्षेत्र:

पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के माध्यम से यह योजना विश्वबैंक के सहयोग से मध्यप्रदेश में 27 फरवरी, 2001 से क्रियान्वित की जा रही हैं । आरंभ में इसकी अवधि 5 वर्ष ही निर्धारित की गई थी, किन्तु बाद में इसके कार्यकाल में वृद्धि की गयी । इस परियोजना का प्रथम चरण 30 जून, 2008 को पूर्ण हो गया हैं । द्वितीय चरण के क्रियान्वयन की दिशा में आवश्यक पहल की जा रही है ।

परियोजना के लिए 500 करोड़ की राशि ऋण सहायता के रूप में तथा 100 करोड़ की राशि मध्यप्रदेश शासन तथा जन समुदाय के योगदान से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया हैं । जिला गरीबी उन्मूलन परियोजना में मध्यप्रदेश के कुल 14 जिले, 53 विकासखण्ड एवं 2900 गाँवों को सम्मिलित किया गया हैं । इन गांवों को 121 क्लस्टरों में विभाजित किया गया हैं ।

भौगोलिक आधार पर विवेचन किया जाये तो उत्तरी मध्यप्रदेश के अत्यंत गरीबी वाले क्षेत्रों में राह परियोजना संचालित की जा रही हैं । रीवा जिले के सर्वाधिक 07 विकासखण्डों एवं 390 गाँवों को लाभांवित करने का प्रयास किया गया हैं । मध्यप्रदेश के इन क्षेत्रों का चयन करने का कारण इस क्षेत्र में गरीबी का प्रतिशत सर्वाधिक होना हैं ।

परियोजना का संगठन एवं प्रशासनिक स्वरूप:

परियोजना के सफल क्रियान्वयन एवं समन्वय हेतु राज्य स्तर पर एक पंजीकृत समिति का गठन किया गया है । इस समिति का पदेन अध्यक्ष मुख्य मंत्री एवं उपाध्यक्ष ग्रामीण विकास विभाग के मंत्री को बनाया गया हैं । इस समिति में मुख्य सचिव व शासकीय विभागों के प्रमुख सचिव एवं सचिव, सदस्य के रूप में रहेंगे तथा गैर-शासकीय संगठन से प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी सदस्य के रूप में नामांकन करने का प्रावधान हैं ।

जिला स्तर पर, जिला पंचायत की एक उप समिति परियोजना को मार्गदर्शन प्रदत्त करती हैं । समूहों के गठन उनकी मारा के क्रियान्वयन हेतु प्रस्ताव तैयार करने एवं अन्य तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने एवं प्रशिक्षण इत्यादि हेतु एक सहयोग दल 121 स्कूल स्तर पर कार्यरत हैं । परियोजना में ग्राम स्तर पर गठित समिति द्वारा गांव के सबसे गरीब लोगों को आर्थिक सहायता प्रदान की जाती हैं ।

गरीबी का आधार आर्थिक श्रेणीकरण को बनाया गया है । इस सहभागी व्यवस्था में गांव के लोग आपस में विचार-विमर्श द्वारा नियम बनाकर यह निर्णय लेते हैं कि गाव के कौन व्यक्ति अति गरीब, कौन गरीब और मध्यम तथा अमीर वर्ग के हैं इस सूची का अनुमोदन ग्राम सभा के द्वारा किया जाता है । गांव के गरीबों द्वारा अपने सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए समहित समूहों का गठन किया जाता है ।

समहित समूहों कि लिए मंजूर की गई सहायता राशि समूह के बैंक खाते में सीधे जमा होती हैं । इस प्रकार धनराशि का प्रवाह सीधी परियोजना होता हैं । समूहों को अपनी आवश्यकता के अनुसार राशि आहरित करने व्यय करने का अधिकार आपसी सहमति के आधार पर प्रदान किया जाता हैं ।

इस प्रकार गाव की गरीब जनता को आर्थिक रूप से मजबूती एवं स्वतंत्रता प्राप्त होती हैं । इस परियोजना में हर स्तर पर पारदर्शिता और कामकाज में खुलापन हैं । जिला गरीबी उन्मूलन परियोजना में सामाजिक अंकेक्षण की प्रभावी एवं पुख्ता व्यवस्था का अभिनव प्रयोग किया गया हैं ।

समहित समूहों द्वारा सृजित परिसम्पत्तियों का भौतिक सत्यापन ग्राम सभाओं द्वारा किया जाता हैं । एक अभियान के तहत योजना बनाकर समहित समूहों की पाईसम्पाहायों को राजस्व रिकार्ड में दर्ज कराया गया हैं ।

समहित समूहों के उपयोजना प्रस्तावों को ग्राम सभा द्वारा मंजूरी और सामुदायिक सूचना बार्ड के जरिये ग्राम समुदाय की सहभागिता से कार्यों का मूल्यांकन कराये जाने की पहल भी इस परियोजना में की गई हैं । विश्व बैंक द्वारा कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार समहित समूहों कि कुल आय का 65 प्रतिशत इजाफा और आर्थिक विश्लेषण में समूहों के पास 89 प्रतिशत परिसम्पतियाँ भौतिक रूप से उपलब्ध हैं ।

परियोजना का लक्ष्य:

जिला गरीबी उन्तुलन परियोजना का उद्देश्य गांव के गरीब परिवार को इस प्रकार के प्रयासों के लिए मदद पहुंचाना है जिससे वे सशक्त बनकर आर्थिक रूप से पिछड़े पन को दूर करने का मार्ग चुन सके । इस परियोजना में आर्थिक रूप से पिछड़े अनुसूचित जनजाति / जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, मजदूरी के लिए पलायन करने वाले परिवार, जिन परिवारों के स्थाई घर नहीं हैं या कामचलाऊ घर हैं, सभी महिलाओं एवं ऐसे परिवार जिनकी मुखिया महिला हैं, भूमिहीन एवं सीमांत कृषकों के सभी परिवारों को लाभ देने का प्रावधान किया गया है ।

इस परियोजना के लक्ष्य निम्नानुसार हैं:

(i) ग्रामीण क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक बेहतरी के लिए सामूहिक प्रयास ।

(ii) ग्रामीण जनता को समूहों के रूप में एकत्रित एवं एकजुट करने का प्रयास ।

(iii) ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार हेतु पलायन को रोकना ।

(iv) स्थानीय संसाधनों का समूचित दोहन एवं आवश्यक व्यवस्था ।

(v) खाद्यान्न सुरक्षा एवं नवाचारी प्रयासों को बढ़ावा देना ।

यद्यपि इस परियोजना के योजनाकारों द्वारा परियोजना का लक्ष्य निर्धारित किया गया हैं । जिससे इसको उचितरूप से क्रियान्वित किया जा सके । तथापि यह परियोजना लक्ष्य आधारित न होकर परिणाम आधारित हैं ।

परियोजना की गतिविधियाँ:

जिला गरीबी उन्तुलन परियोजना को परिणाम अदा परियोजना माना गया हैं । इसीलिए परियोजना की गतिविधियों निर्धारित करते समय इस तथ्य का विशेष ध्यान रखा गया हैं ताकि यह परियोजना अपने लक्ष्य से न भटके ।

इस परियोजना की गतिविधियों को तीन भागों में विभाजित किया गया है:

(1) भू-आधारित गतिविधियाँ:

इस गतिविधि में ऐसे कार्यों को शामिल किया गया है जिससे भूमि एवं उससे संबंधित कार्यों का विकास हो सके इस गतिविधि में कुँआ, ट्‌यूवबेल, उद्ववहन सिंचाई, भू-समतलीकरण, बंधान, पाईप, कृषियंत्र एवं उपकरण क्रय करने हेतु सहायता प्रदान करने की व्यवस्था की गई है ।

(2) आय-अर्जक गतिविधियाँ:

इस परियोजना में ऐसे कार्यों को सम्मिलित किया गया हैं जिससे समहित समूहों के सदस्यों को आय प्राप्त हो सके । इस गतिविधि में पशुपालन, डेयरी, पशुपालन सेवाये, टेस्ट, सिलाई, दुकान, मशीनरी वर्कशाप, ढाबा, इको टूरिज्म, बैंडपार्टी, जूता निर्माण, बास बर्तन, जीप क्रय, तक, ट्रेक्टर, आटा एवं चावल चक्की तेल पिराई एवं विभिन्न प्रकार की दुकान खोलने के कार्यों को शामिल किया गया हैं ।

(3) ग्राम अधोसंरचना:

इस परियोजना में समहित समूहों द्वारा किये जाने वाले ऐसे कार्यों को भी शामिल किया गया हैं जिनसे गावों की अधो संरचना का विकास हो सके जैसे- स्टाप डेम, पेयजल व्यवस्था, तालाब, आंतरिक एवं बाहरी रोड, बायोगेस, शौचालय, विद्युतीकरण, सामुदायिक भवन निर्माण आदि । इस प्रकार इस परियोजना में ऐसी समस्त गतिविधियों को शामिल किया गया है जिनसे गांव में गठित समहित समूहों से गाव का सम्पूर्ण विकास हो सके ।

परियोजना की उपलब्धियाँ:

परियोजना के माध्यम से मध्यप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में सामूहिक रूप से विकास करने की अवधारणा का विस्तार हुआ हैं । परियोजना के कामकाज में गुणवत्ता. पारदर्शित लोगों की सक्रिय भागीदारी के परिणाम स्वरूप परियोजना उपलब्धियों के महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुँची हैं ।

सितम्बर 2008 तक कुल 560092 समहित समूहों का गठन किया गया हैं । इन समूहों के माध्यम से 325724 हितग्राहियों को लाभ प्राप्त हुआ हैं । परियोजना से 386.70 करोड़ रूपये की राशि का समुदाय निवेश किया गया हैं । नवाचारी प्रयासों से 2650 ग्राम उत्थान समितियों का उक्त अवधि तक गठन किया गया ।

समिति द्वारा अपना कोष योजना के अंतर्गत 33.29 करोड़ रूपये की राशि जमा की गई इस राशि का उपयोग जरूरत मद लोगों को 1 प्रतिशत नाम मात्र की ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता हैं । जिला गरीबी उन्तुलन परियोजना के माध्यम से जुड़े हितग्राहियों ने कृषि की नवीन तकनीक को अपनाकर नये एवं उन्नत बीज का उपयोग करना आरंभ किया ।

फलस्वरूप उनके कृषि उत्पाद में आशा जनक वृद्धि हुई हैं । परियोजना की मदद से 9557 कुँओं का निर्माण तथा 3000 ट्यूबबेल का निर्माण किया गया । समहित समूह द्वारा निर्मित महिला मुर्गी पालन को-ऑपरेटिव का टर्न ओवर 3.55 करोड रूपये प्राप्त हुआ हैं ।

परियोजना द्वारा 17 प्रोड्‌यूसर कपनियों तथा लघु एवं सीमांत किसानों की 14 काँप प्रोड्‌यूसर कंपनियों प्रवर्तित की गयी । 17 प्रोड्‌यूसर कपनियों के 48 हजार शेयर होल्डर हैं । इन कंपनियों में लघु एवं सीमांत कृषक अध्यक्ष एवं बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के रूप में कार्य कर रहें है ।

मध्यप्रदेश की गरीबी उन्मूलन में पंचायतीराज की भूमिका (Role of Panchayati Raj in Reducing Poverty in Madhya Pradesh):

मध्यप्रदेश देश का हृदय प्रदेश है जिसका गठन 1 नवम्बर, 1956 को तत्कालीन महाकौशल, छत्तीसगढ़, मध्यभारत, विंध्यप्रदेश तथा राजस्थान की सब-डिवीजन सिरोज को मिलाकर किया गया । विभिन्न घटकों में पंचायत राज व्यवस्था से संबंधित प्रथक्-प्रथक कानून व्यवस्थाएं प्रचलित थी ।

प्रदेश में पंचायत राज व्यवस्था में एकरूपता लाने की दृष्टि से वर्ष 1962 में मध्यप्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 1962 बनाया गया । भारत के संविधान के वे संशोधन अधिनियम, 1992 के अनुरूप प्रदेश में पंचायत राज अधिनियम 1993 दिनांक 25 जनवरी, 1994 से लागू किया गया है ।

भारत के संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम, 1992 के अनुरूप प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था के अन्तर्गत राज के पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम, 1993 के प्रावधानों के अन्तर्गत पंचायती राज स्थापित करना है ।

इसे सफल बनाना, पंचायती राज संस्थाओं को प्रत्योजित अधिकार एवं कृत्यों जो संविधान की 11वीं अनुसूची में दिये गये है, के विषयों से संबंधित योजनाओं के क्रियान्वयन, अनुश्रवण एवं प्रबंध कराकर प्रदेश में ग्राम स्वराज व्यवस्था को स्थापित कराना ही प्रदेश सरकार के पंचायत विभाग का दायित्व है ।

मध्यप्रदेश में पंचायती राज संस्थाओं के दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुयी गतिविधियों एवं दायित्वों को ध्यान में रखते हुये स्वतंत्र पंचायती राज संचालनालय के गठन का अनुमोदन राज्य मंत्री परिषद द्वारा किया गया है ।

संवैधानिक प्रावधान:

भारतीय संविधान के भाग 9 में अनुच्छेद 243 में पंचायतों के बारे में प्रावधान किये गये है । तथा 15 उप-अनुच्छेद भी दिये गये है जिसमें पंचायतों के समस्त गठन, संरचना, आरक्षण, अवधि, निरर्हताये, शक्तियाँ, प्राधिकार, उत्तरदायित्व, वित्तीय स्थिति के कुशल संचालन हेतु वित्त आयोग का गठन, पंचायतों के लेखाओं की संपरीक्षा, निर्वाचन, संघ राज्य क्षेत्रों को लागू होना, विद्यमान विधियों और पंचायतों का बना रहना तथा निर्वाचन संबंधि मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्णन आदि का प्रावधान अलग-अलग अनुच्छेदों में दिया गया है ।

पंचायती राज व्यवस्था में नागरिकों को अधिक स्वशासन एवं स्थानीय प्रशासन में भागेदारी के लिये संविधान का अनुच्छेद 243 यह प्रावधान करता है कि पंचायत राज संस्थाओं का अधिक स्वायत शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिये राज्य का विधान मंडल विधि द्वारा उन्हें शक्तियाँ एवं उत्तरदायित्व प्रदान करेगा ।

अनुच्छेद 243 छ: पंचायतों की शक्तियाँ, प्राधिकार और उत्तरदायित्व-संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुये, किसी राज्य का विधान मण्डल, विधि द्वारा, पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान कर सकेगा, जो उन्हें स्वायत्व शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हों और ऐसी विधि में पंचायतों को उपयुक्त स्तर पर, ऐसी शर्तों के अधीन रहते हुये,

जो उसमें विनिर्दिष्ट की जाये, निम्नलिखित के संबंध में शक्तियाँ और उत्तरदायित्व न्यागत करने के लिये उपबंध किये जा सकेंगे, अर्थात-

(क) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनाऐं तैयार करना,

(ख) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की ऐसी स्कीमों को जो उन्हें सौंपी जाएं, जिनके अन्तर्गत, वे सेवामें भी आती है जो ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के संबंध में है, कार्यान्वित करना ।

ग्यारहवीं अनुसूची में सम्मिलित विषय निम्नलिखित हैं:

(i) कृषि जिसके अन्तर्गत कृषि विस्तार भी है ।

(ii) भूमि विकास, भूमि सुधार का कार्यान्वयन, चकबंदी और भूमि संरक्षण ।

(iii) लघु सिंचाई, जल प्रबंध और जल विभाजक क्षेत्र का विकास ।

(iv) पशुपालन, डेरी उद्योग और कुक्कुट-पालन ।

(v) मत्स्य उद्योग ।

(vi) सामाजिक वानिकी और फार्म वानिकी ।

(vii) लघु वन उपज ।

(viii) लघु उद्योग, जिनके अन्तर्गत खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग भी है ।

(ix) खादी, ग्रामोद्योग और कुटीर उद्योग ।

(x) ग्रामीण आवासन ।

(xi) पेय जल ।

(xii) ईंधन और चारा ।

(xiii) सड़के, पुलिया, पुल फेरी, जलमार्ग और अन्य संचार साधन ।

(xiv) ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विधुत का वितरण है ।

(xv) अपारंपरिक ऊर्जा स्त्रोत ।

(xvi) गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम ।

(xvii) शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी हैं ।

(xviii) तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा ।

(xix) प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा ।

(xx) पुस्तकालय ।

(xxi) सांस्कृतिक क्रियाकलाप ।

(xxii) बाजार और मेले ।

(xxiii) स्वास्थ और स्वच्छता, जिनके अन्तर्गत अस्पताल प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और औषधालय भी है ।

(xxiv) परिवार कल्याण ।

(xxv) महिला और बाल विकास ।

(xxvi) समाज कल्याण, जिसके अन्तर्गत विकलागों और मानसिक रूप से भरे व्यक्तियों का कल्याण भी हैं ।

(xxvii) दुर्बल वर्गों का और विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण ।

(xxviii) सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।

(xix) सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण ।

पंचायत के इन सब कार्यों को अमली जामा पहनाने या धरातल पर ठीक से क्रियान्वित करने के लिये राज्य सरकारों ने जिला नियोजन को अपनाया है ।

इसी क्रम में मध्यप्रदेश ने निम्न शीर्षकों के माध्यम से अपनाया है:

(a) जिला-स्तरीय नियोजन का क्षेत्र;

(b) नियोजन इकाई और विविध अवयवो के कार्य;

(c) जिला-स्तरीय नियोजन व्यवहारिक रूप में ।

सातवीं पंचवर्षीय योजना में नियोजन प्रक्रिया के राष्ट्रीय स्तर से जिला-स्तर तक पहुँचाने का संकल्प अभिव्यक्त किया गया है । इसके पीछे प्रमुखतय: दो उद्देश्य हैं । एक गरीबी उन्मूलन से संबंधित समस्त कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना, दूसरा विकास से संबंधित क्षेत्रीय असन्तुलन को व्यवस्थित रूप से दूर करना ।

मध्यप्रदेश शासन ने इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिये जिला-स्तर पर नियोजन प्रक्रिया लागू करने हेतु कुछ ठोस प्रयास किये । आठवीं पंचवर्षीय योजना का विन्यास जिला-स्तर पर नियोजन पर आधारित किया । और इसी कम को आज बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी जारी है । 2013-14 के आम बजट में कुल खर्च का 6 प्रतिशत ग्रामीण विकास पर खर्च करने का प्रावधान किया गया है ।

जिला योजना समिति:

मध्यप्रदेश में जिला स्तर पर योजनाओं का कार्य करने का दायित्व अब जिला योजना समिति को दिया गया है ।

संगठन:

जिला सरकार की अधिकार सम्पन्न ‘जिला योजना समिति’ का अध्यक्ष जिले का प्रभारी मंत्री होता है । और सचिव का दायित्व जिले का जिलाधीश निभाता है । जिला योजना अधिकारी बोर्ड का सदस्य एवं उपसचिव होता है । अधिकांश सदस्य निर्वाचित होते है ।

जिले के सांसद, जिले के समस्त विधायक, अध्यक्ष जिला पंचायत, जिले के समस्त जनपद पंचायतों के अध्यक्ष, अध्यक्ष जिला सहकारी बैंक, जिले के सबसे बड़ी नगरपालिका का अध्यक्ष, राज्य सरकार द्वारा मनोनीत सामाजिक कार्यकर्त्ता, जिले के विकास विभागों के जिला अधिकारीगण इसके सदस्य होते है ।

मध्यप्रदेश में गरीबी निवारण में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भूमिका (Role of Public Distribution System in Reducing Poverty in Madhya Pradesh):

भारत में राशनिंग के रूप में सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शुरू की गई थी । आजादी के पश्चात् इसे सुदृढ़ किया गया । क्योंकि उस समय अनिवार्य वस्तुओं की बड़े पैमाने पर कमी महसूस की गई थी ।

खाद्यान्न समस्या के निराकरण के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 भारत सरकार ने संसद में इसे पारित किया गया । और उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं के स्थान, समय एवं आार्बक पहलू की उपयोगिता का ध्यान रखते हुए, न्यायपूर्ण कीमत पर तथा उपर्युक्त आधार पर समान वितरण की समुचित व्यवस्था की गई ।

शासन का खादय एवं नागरिक आपूर्ति विभाग सार्वजानक वितरण प्रणाली के माध्यम से खुले बाजार की अनुचित व्यापार पद्धतियों के शोषण से उपभोक्तओं की सुरक्षा का प्रयास कर रहा है । मध्यप्रदेश में 20,788 राशन की दुकानें है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में शासकीय उचित मूल्य की 16,773 दुकाने है और ग्रामीण की तुलना में शहरी क्षेत्रों में शासकीय उचित मूल्य की दुकानों की संख्या अपेक्षाकृत कम है जो कि 4015 दुकाने है । जिन के माध्यम से 53.48 लाख बी.पी.एल. परिवार व 15 लाख ऐसे अतिरिक्त परिवार भी है । जिन्हें अंत्योदय अन्न योजना का लाभ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के द्वारा मिलता है ।

वर्तमान ढांचा:

सन् 1979-80 में नई सार्वजनिक वितरण स्कीम तैयार की गई, जिसमें सहकारिताओं को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन का उत्तरदायित्व सौंपा गया, वर्तमान में संपूर्ण भारत में लगभग 4 लाख से अधिक उचित मूल्य की दुकान के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संचालन किया जा रहा है ।

इनमें से अधिकांश दुकानें उपभोक्ता सहकारी समितियों द्वारा संचालित की जाती है । इस प्रकार उपभोक्ता सहकारिताएं सार्वजनिक वितरण प्रणाली की रीढ़ है । जहाँ उपभोक्ता सहकारिताएं इन्हें लेने से इंकार करती है । वहाँ शिक्षित बेरोजगार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आदि को शासकीय उचित मूल्य की दुकान का आवंटन किया जाता है ।

मध्यप्रदेश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन में सहकारी समितियों का पर्दापण:

मध्यप्रदेश शासन ने 2 अक्टूबर, 1980 से प्रदेश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन हेतु आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं का वितरण की जबावदारी सहाकरी संस्थाओं को सौंपी गई । शासन के निर्णयानुसार 20 से 30 प्राथमिक संस्थाओं के ऊपर एक लीड संस्था बनाई जाती है ।

जिले के थोक उपभोक्ता भण्डार, प्राथमिक विपणन समितियाँ, वन समितियाँ या इनके अभाव में स्थानीय सेवा सहकारी समितियों को ही लीड अथवा संस्था बनाया जाता है तथा प्राथमिक सहकारी संस्थाएँ जो लिंक संस्था कही जाती है । लीड एवं लिंग संस्थाओं को राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम दिल्ली द्वारा निम्न प्रकार अनुदान व ऋण दिया जाता है ।

इस योजना के अन्तर्गत लीड संस्थाएँ अपने क्षेत्र की मांग के अनुसार थोक में भारतीय खादय निगम से उचित मूल्य की शक्कर उठाकर, अपनी लिंक संस्था की दुकानों में पहुँचाती है । गेहूँ और चावल म.प्र. राज्य आपूर्ति निगम, भारतीय खादय निगम से लेकर प्रदाय केन्द्र तक पहुंचता है । अन्य वस्तुओं की पूर्ण आपूर्ति राज्य उपभोक्ता सहाकरी संघ द्वारा प्रदेश स्तर पर की जाती है ।

वितरण की वस्तुएँ:

शासन के निर्णयनुसार देश में उपभोक्ताओं को निम्नांकित वस्तुएँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से उपलब्ध कराई जाती है ।

सरकार उपयुक्त वस्तुओं के वितरण के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से 2000 जनसंख्या पर एक शासकीय उचित मूल्य दुकान की स्थापना करती है । म.प्र. में 2001 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 60,348,023 थी जो कि बड़कर 2011 में 72,597,565 पहुँच गई है । इतनी जनसंख्या पर म.प्र. में शासकीय उचित मूल्य की दुकानों की संख्या 20,788 है । ग्रामीण क्षेत्रों में 16,773 दुकानें है । शहरी क्षेत्रों में 16,773 दुकानें है जो कि कम है ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली नेटवर्क में भारतीय खाद्य निगम के 39 बेस डिपो, मध्यप्रदेश स्टेट सिविल सप्लाईज कार्पोरेशन के 187 प्रदाय केन्द्र, 369 लीड एवं 5776 लिंक सहकारी समितियाँ एवं 20476 उचित मूल्य दुकान एवं 29 चलित वाहन सम्मिलित हैं शहरी क्षेत्रों में 3903 एवं ग्रामीण क्षेत्रों में 16573 शासकीय उचित मूल्य की दुकानों की स्थापना की जा चुकी है ।

प्रदेश के ऐसे स्थानों, जिनके आवागमन मार्ग वर्षा के दौरान अवरूद्ध हो जाते हैं, मैं खाद्यान्न, शक्कर तथा केरोसीन उपभोक्ताओं को सुलभ कराने की दृष्टि से वर्षा ऋतु के पूर्व ही संग्रहण किया जाता है । शासन द्वारा सहकारी समितियों को इन क्षेत्रों में आवश्यक वस्तुऐं चार माह के लिए संग्रहित करने हेतु बिना ब्याज का ण उपलब्ध कराया जाता है ।

प्रदेश में भारतीय खाद्य निगम के 39 बेस डिपो स्थापित हैं । 25 बेस डिपो से ए.पी.एल. व बी.पी.एल. खाद्यान्न तथा 14 बेस डिपो से बी.पी.एल. खाद्यान्न प्रदाय किया जा रहा है । राज्य शासन की एजेन्सी के रूप में मध्यप्रदेश स्टेट सिविल सप्लाईज कार्पोरेशन द्वारा खाद्यान्न बेस डिपो से एवं शक्कर कारखानों से शक्कर उठाकर अपने 187 प्रदाय केन्द्रों के माध्यम से 369 लीड एवं 5776 लिंक समितियों को उपलब्ध कराता है ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत प्रदेश को केन्द्र शासन से प्रतिमाह गेक्त चावल शक्कर 7 मिट्टी तेल का आवंटन प्राप्त होता है । 2010 की स्थिति में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत निम्नानुसार आवंटन प्राप्त हुआ है । केन्द्र शासन की प्रदाय दरों में अनुषांगिक व्यय जोड़कर राज्य शासन द्वारा खान्न, शक्कर एवं केरोसीन की उपभोक्ता दरें निश्चित की जाती हैं ।

उपभोक्ताओं को उचित मूल्य दुकानों के माध्यम से आवश्यक वस्तुऐं उपलब्ध कराने की दृष्टि से राशनकार्ड प्रदान किए जाने की व्यवस्था है । ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम समाओं तथा नगरीय क्षेत्रों में नगर निगम / नगरपालिका / नगर पंचायत विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण (साडा) एवं केन्टोमेनमेन्ट बोर्ड को अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत राशनकार्ड बनाने के अधिकार हैं ।

वर्ष 1991 तथा 1997-98 की सर्वे सूची के आधार पर गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले (बी.पी.एल.) परिवारों को राशनकार्ड प्रदाय किए जा चुके हैं । वर्ष 2010 की स्थिति में प्रदेश में 5232 लाख ए.पी.एल. सामान्य राशनकार्ड तथा 8029 लाख बी.पी.एल. राशनकार्ड हैं ।

मिट्टी तेल का वितरण:

केन्द्रशासन से प्रतिमाह 52320 के एल. मिट्टी के तेल का आवंटन प्राप्त हो रहा है, जो चार तेल कंपनियों द्वारा थोक विक्रेताओं के माध्यम से उपलब्ध कराया जाता हैं उपभोक्ताओं को मिट्टी का तेल उचित मूल्य पर चुकाना, फुटकर विक्रेताओं एवं हॉकर्स के माध्यम से उपलब्ध होता है ।

हाट बाजारों में बिना राशन कार्ड के भी मिट्टी का तेल प्रदाय किया जाता है । इसके अतिरिक्त चलित उचित मूल्य दुकानों के माध्यम से भी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में मिट्टी का तेल उपलब्ध कराया जाता है । प्रदेश में मिट्टी तेल आयल कंपनी द्वारा 311 एवं जन केरोसीन के अंतर्गत स्टेट सिविल सप्लाईज कार्पोरेशन के द्वारा 28 थोक विक्रेता, 614 सेमी होलसेलर, 1640 फुटकर केरोसीन अनुज्ञाप्तिधारी तथा 1995 हॉकर्स कार्यरत है ।

उपभोक्तओं को केरोसीन की सरल और सुगम उपलब्धि सुनिश्चित करने के उद्देश्य से केरोसीन के थोक विक्रेता अपने टैंकर्स से शासकीय उचित मूल्य दुकानों को सीधे केरोसीन उपलब्ध कराते हैं । यह योजना इंदौर, भोपाल एवं जबलपुर में अगस्त 1993 से प्रभावशील है तेल कंपनियों की प्रदाय दरों के आधार पर क्षेत्र विशेष के लिये परिवहन तथ्य आदि जोड़कर उपभोक्ता क्रय दरें कलेक्टरों द्वारा निर्धारित की जाती है ।

राज्य मैं केरोसीन की उपभोक्ता दर रूपये 886 पैसे से रूपये 997 पैसे प्रतिलीटर तक हैं । प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्र के उपभोक्ताओं को राशनकार्ड पर कम से कम 4 लीटर तथा नगरीय क्षेत्र के उपभोक्ताओं को राशनकार्ड पर 4 लीटर प्रदाय किया जाता है ।

भारत शासन के निर्देशानुसार एल.पी.जी. के डबल बटल कनेसानधारी को केरोसीन नहीं दिया जाता है, जबकि सिंगल बाटल कनेक्श्नधारी उनके राशनकार्ड के उपभोक्ता को फ्रीसेल पर 2 लीटर प्रति व्यक्ति केरोसीन उपलब्ध कराया जाता हैं उपभोक्ताओं को समय पर केरोसीन उपलब्ध कराने हेतु थोक केरोसीन विक्रेताओं को उन्हें आवंटित मात्रा को माह की 10 तारीख तक 60 प्रतिशत, 17 तारीख तक 85 प्रतिशत तथा 25 तारीख तक शतप्रतिशत उठाव के निर्देश प्रदेश सरकार द्वारा किए गए हैं ।

राज्य में केरोसीन उपभोक्ताओं को सही दर एवं मात्रा में उपलब्ध कराने के लिये नियमित जांच एवं विशेष जांच अभियान चलाया जाता है । उचित मूल्य दुकान स्तर पर इसकी निगरानी के लिये जनप्रतिनिधि (सरपंच/पार्षद) की अध्यक्षता में निगरानी समिति भी बनाई गई हैं । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के केरोसीन के दुरूपयोग रोकने हेतु राज्य शासन द्वारा वर्ष 2004 में केरोसीन टैंकरों पर नीले रंग की पट्‌टी में लगाने के निर्देश दिये गये हैं एवं पालन कराया जा रहा है ।

पायलट प्रोजेक्ट जन केरोसीन परियोजना:

भारत सरकार पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा पायलट प्रोजेक्ट जन केरोसीन परियोजना दिनांक 2.10.2005 से लागू की गई है । प्रदेश में 48 जिलों में से 25 जिलों के 31 विकासखण्डों का चयन किया गया है । चयनित विकासखण्डों में से 28 विकासखण्डों में जन केरोसीन परियोजना संचालित है ।

इस परियोजना अंतर्गत संचालित स्थानों में आयल कम्पनी के डीलर्स अपने कारोबार स्थल पर 11 केरोसीन भूमिगत टैंक में प्राप्त करके डिस्पेंसिग यूनिट से प्रदाय करते है । यह केरोसीन ड्रमों के माध्यम से उचित मूल्य की दुकान तक पहुंचाने का प्रावधान है । इस परियोजना में 18 स्थानों पर आयल कम्पनी के निजी थोक डीलर तथा 10 स्थानों पर म.प्र. स्टेट सिविल सप्लाईज कार्पोरेशन थोक डीलर के रूप में कार्यरत है ।

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