Read this article in Hindi to learn about the causes of third Carnatic war in India and its consequences.

कर्णाटक में जो शांति गोदेहो की संधि द्वारा स्थापित हुई वह फिर सप्तवार्षिक युद्ध के कारण टूट गयी । जैसा कि प्रथम कर्णाटक-युद्ध में हुआ था, यूरोप में युद्ध छिड़ जाने से भारत-स्थित अंग्रेज और फ्रांसीसी लड़ने को लाचार हो गये यद्यपि उस समय शायद दोनों में से कोई भी लड़ाई न चाहता था ।

लड़ाई छिड़ने का समाचार भारत में नवम्बर, १७५६ ई॰ में पहुंचा । इसका एक तात्कालिक परिणाम हुआ क्लाइव और वाट्‌सन द्वारा बंगाल के एक फ्रांसीसी उपनिवेश चंदरनगर पर अधिकार, जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है ।

मद्रास में अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों में किसी के पास तुरत लड़ाई प्रारंभ करने के लिए काफी सैनिक साधन न थें । मद्रास की स्थल और जल सेनाओं का अधिकांश क्लाइव एवं वाट्‌सन के अधीन कलकत्ते को पुन जीतने के लिए भेजा जा चुका था । इस उद्देश्य की प्राप्ति के बाद भी क्लाइव ने मद्रास लौटने में देर कर दी ।

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वजह थी उसकी महत्वाकांक्षापूर्ण राजनीतिक योजनाएँ जो अंत में प्लासी की लड़ाई के रूप में प्रतिफलित हुई । इसी प्रकार फ्रांसीसी साधन भी कुछ करने में असमर्थ थे क्योंकि पांडिचेरी के गदर्नर को हैदराबाद में बूसी के लिए सहायता भेजनी थी ।

अतएव सन् १७५८ ई॰ के पहले बड़े पैमाने पर लड़ाई की कार्रवाई प्रारंभ नहीं हुई । वाट्‌सन की मृत्यु सन् १७५७ ई॰ में हो गयी । पोकौक उसका उत्तराधिकार हुआ । अंग्रेजी जलसेना इसी के अधीन बंगाल से लौटी । फांसीसियों को स्वदेश से सहायता मिली तथा काउंट द लाली लड़ाई चलाने को भेजा गया ।

वह सभी गैर-सैनिक और सैनिक मामलों में पूर्ण अधिकार से संपन्न कर दिया गया । किन्तु जलसेना पर उसका कोई नियंत्रण न था । इसका नायक द’ एक था । नायकत्व के इस विभाजन में फूट और अनैक्य पैदा हो गये । फलत: फ्रांसीसियों की प्रगति में बाधा पहुंची तथा,  अंत में उनका सर्वनाश हो गया ।

लाली का प्रारंभ अत्यंत अच्छा रहा । उसने फोर्ट सेंट डेविड (सेंट डेविड के किले) पर एक मई को घेरा डाला तथा इस स्थान ने दो जून को आत्म-समर्पण कर दिया । अब उसने बुद्धिमानी के साथ यह निर्णय किया कि मद्रास की विजय द्वारा कर्णाटक में ब्रिटिश शक्ति के मूल पर ही कुठाराघात करना चाहिए ।

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किन्तु द’ एक ने, जो पहले ही अंग्रेजी जलसेना द्वारा २८ अप्रैल को पराजित हो चुका था, समुद्रमार्ग द्वारा रवाना होने से इनकार कर दिया । जलसेना की सहायता के बिना मद्रास के विरुद्ध कार्रवाई चलाना असंभव था ।

इसलिए उसने अपनी वित्तीय कठिनाइयों को कम करने का निश्चय किया । एतदर्थ उसने तंजौर के राजा को सत्तर लाख रुपये देने को विवश करना चाहा । ये रुपये फ्रांसीसियों के राजा के यहाँ बाकी थे । लाली ने तंजौर पर घेरा डाला (१८ जुलाई) ।

किन्तु लड़ाई के सामानों की कमी के कारण वह घेरे को प्रभावकारी न बना सका । बात यह थी कि लाली और उसके आदमियों के बीच पारस्परिक विश्वास एवं ऐक्य की भावना न थी । उसने अपने असम्य और उद्धत व्यवहार द्वारा उन्हें क्रुद्ध कर डाला । फलस्वरूप उन्होंने उसकी कुसेवा की ।

निस्संदेह लाली उच्च कोटि की सैनिक कुशलता से संपन्न था । किन्तु वह इतना जल्दबाज और बदमिजाज था कि उसके लिए युद्ध-यंत्र के विभिन्न भागों का मिलाना कठिन था । तंजौर के सामने उसने बहुत समय नष्ट किया और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हुआ ।

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इसी बीच अंग्रेजी जलसेना ने द’ एक के छोटे जहाजी बेड़े से लड़ाई की तथा उसको बहुत नुकसान पहुंचाया (३ अगस्त) । ज्यों ही लाली को यह समाचार मिला, उसने तंजौर का घेरा उठा दिया (१० अगस्त) । इस काम द्वारा उसने न केवल अपनी प्रतिष्ठा पर, बल्कि फ्रांसीसी सेना की इज्जत पर भी गहरी चोट पहुँचायी ।

अब फ्रांसीसी जलसेना ने भारतीय समुद्रों को छोड़ दिया । बरसात (मौनसून) के आने पर अंग्रेजी सेना मद्रास समुद्रतट को छोड़ने को लाचार हो जाती थी, क्योंकि यहाँ बंदरगाह न था । लाली को इस मौके की ताक में ठहर जाना पड़ा । बीच के समय का उपयोग उसने छोटी-छोटी अंग्रेजी चौकियों को जीतकर किया ।

बात यहाँ तक जा पहुँची एक मद्रास, त्रिचिनापली और चिंगलपुट को छोड़ कर्णाटक में अंग्रेजों का कुछ न बचा । अंग्रेजी जहाजों के चले जाने पर उसने १४ दिसम्बर को मद्रास पर घेरा डाल दिया । किन्तु मद्रास के घेरे में उसी तरह के दोष थे, जैसे तंजौर के वेरे में देखे गये थे ।

यह किसी तरह १६ फरवरी, १७५९ ई॰ तक चला, जब ब्रिटिश बेड़ा पुन: प्रकट हुआ तथा लाली ने तुरंत घेरा हटा लिया । इस गौरव-नाशक असफलता ने एक तौर से भारत में फ़्रांसीसियों की किस्मत पर मुहर लगा दी ।

अगले बारह महीनों में पराजय पूर्ण हो गयी । लाली ने बूसी को हैदरावाद से बला लिया तथा वहाँ फ्रांसीसी सिपाहियों को अयोग्य सेनानायकों के अधीन छोड़ दिया । यह उसका अत्यंत बद्धिहीन काम हुआ । क्लाइव ने इस अवसर का उपयोग किया ।

उसने उत्तरी सरकार में फ्रांसीसी सिपाहियों के विरुद्ध बंगाल से कर्नल फोर्ड के अधीन एक सेना भेजी । फोर्ड ने फ्रांसीसियों को हराया, एक के बाद दूसरा करके राजमहेंद्री (७ दिसम्बर) एवं मसुलीपटम (६ मार्च) को जीता तथा निजाम सलावत जंग के साथ एक लाभपूर्ण संधि की ।

कर्णाटक में भी अंग्रेज ही आक्रमण करने में अग्रसर रहे । वे पहले तो कांजीवरम् के समीप हरा दिये गये । किंतु फ्रांसीसी, अपने सिपाहियों में असंतोष के कारण, अपनी सफलता को और आगे न बढ़ा सके । उनके सिपाहियों को बहुत समय से दरमाहा न मिला था । जिससे अंत में उन्होंने खुलमखुल्ला विद्रोह कर दिया ।

द’एक का फ्रांसीसी बेड़ा सितम्बर में पुन: प्रकट हुआ था । इसे पोकौक ने बुरी तरह पराजित कर दिया । इस प्रकार अंग्रेजों की हार की कसर पूरी तरह निकल गयी । पोकौक के हाथों मिली इस तीसरी पराजय के बाद द’ एक, अंग्रेजों को समुद्र के निर्विवाद स्वामी के रूप में छोड्‌कर, सदा के लिए भारत से चला गया ।

अक्टूबर के अंत में योग्य जनरल कूट अपने सिपाहियों के साथ मद्रास पहुंचा तथा अंग्रेजों ने प्रथम आघात शुरू किया । कुछ छोटी-छोटी लड़ाइयाँ हुईं । वांडीवाश के किले को लाली ने घेर रखा था । उसी के समीप एक निर्णायक युद्ध हुआ (२२ जनवरी, १७६० ई॰) । फ्रांसीसी सेना पूर्ण रूप से पराजित हुई तथा सदा के लिए फ्रांसीसियों के भाग्य का निर्णय हो गया ।

कूट ने अपनी सफलता को और आगे बढ़ाया । उसने कर्णाटक के छोट-छाटे फ्रांसीसी उपनिवेशों को जीत लिया । तीन महीनों के भीतर जिंजी और पांडिचेरी को छोड़ कर्णाटक में फ्रांसीसियों का कुछ न बचा । तब अंग्रेजों ने पांडिचेरी पर घेरा डाला (मई, १७६० ई॰) ।

लाली की हालत बहुत खराब हो गयी । तब उसने हैदर अली से संधि कर फ़्रांसीसियों की पूर्व स्थिति पुन: प्राप्त करने की आशा बाँधी । हैदर अली उस समय मैसूर में शासन का मुख्य कर्णधार था । विचार तो बहुत अच्छा था, किन्तु इसका कोई व्यावहारिक परिणाम न निकला ।

हैदर ने एक टुकड़ी फ्रांसीसियों की सहायता के लिए भेजी । किन्तु मित्र-शक्तियाँ किसी सैनिक योजना पर मंत्रणा कर एकमत होने में समर्थ नहीं हुई, जिससे उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता मिलने की संभावना थी । इस पर हैदर की टुकड़ी, लाली को उसके भाग्य पर छोड्‌कर, मैसूर लौट आयी ।

पांडिचेरी पर स्थल और समुद्र दोनों ओर से जबर्दस्त घेरा पड़ा । लाली के पास अपनी फौज के रखने के लिए काफी रुपये न थे । इस संकटपूर्ण क्षण में भी वह अपने आदमियों और अफसरों के साथ मेल से काम करने में चूक गया । अंत में वही हुआ, जो होना चाहिए था ।

१६ जनवरी, १७६१ ई॰ को पांडिचेरी ने बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण कर दिया । विजेताओं ने निर्ममतापूर्वक न केवल किलेबंदी को, बल्कि शहर को भी विध्वस्त कर डाला । जैसा कि और्म ने संक्षिप्त रूप में लिखा, “कुछ और महीनों में कभी के इस सुंदर और समृद्धिशील नगर में एक छत भी खड़ी न छोड़ी गयी ।”

पांडिचेरी के आत्म-समर्पण के तुरत बाद जिंजी और माही (मलाबार समुद्रतट पर स्थित एक फ्रांसीसी बस्ती) ने भी आत्म-समर्पण कर दिया । इस प्रकार फ्रांसीसियों के सभी भारतीय उपनिवेश उनके हाथों से चले गये । किन्तु ये पेरिस की संधि (१७६३ ई॰) के द्वारा उन्हें फिर प्राप्त हो गये ।

लाली की असफलता के कारणों को ढूंढने के लिए दूर नहीं जाना पड़ेगा । इनमें से कुछ द्यूप्ले की असफलता के संबंध में कहे जा चुके हैं । दोनों में से किसी को भी स्वदेश से काफी आपूर्ति नहीं मिली । इस काफी आपूर्ति के न मिलने के दो कारण थे । एक कारण था कम्पनी का सरकार की एक छोटी शाखा के रूप में दोषपूर्ण संगठन ।

दूसरा कारण था स्वदेश के अधिकारियों का भारत में राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के महत्व को स्वीकार न करना । समुद्र में फ्रांसीसियों की कमजोरी तथा स्थल एवं समुद्र सेनाओं के नायकों के बीच अनबन होने से दोनों को कठिनाई हुई ।

हाँ, तृतीय कर्णाटक-युद्ध में इन दोनों बातों ने अधिक निर्णयात्मक रूप में फ्रांसीसियों के विरुद्ध अपना असर दिखाया । इसके अतिरिक्त, बंगाल के सैनिक और वित्तीय साधन हाथ लग जाने से अंग्रेजों को निश्चित रूप में लाली से अधिक सुविधा हो गयी ।

इस सुरक्षित आधार से वे बराबर धन-जन मद्रास भेज सकते थे तथा डसे बचाने के लिए वे उत्तरी सरकार के फ्रांसीसियों पर हमला कर उनका ध्यान बँटा सकते थे । यद्यपि यह बात उस समय पूरी तरह महसूस नहीं की गयी थी, फिर भी बंगाल मे अंग्रेजों की स्थिति ने तृतीय कर्णाटक-युद्ध के बिल्कुल प्रारंभ से ही फ्रांसीसियों के संघर्ष को बेकार बना डाला । सचमुच यह कहा जा सकता है कि प्लासी की लड़ाई ने भारत में फ्रांसीसियों के भाग्य का निर्णय कर दिया ।

लाली के चरित्र और व्यवहार ने भी खेदजनक परिणाम पैदा करने में कुछ कम काम नहीं किया । उसे सैनिक कुशलता थी तथा उसने वीरता और स्फूर्ती दिखलायी । किन्तु उसमें न तो नेता की चतुराई थी और न राजनीतिज्ञ की बुद्धिमानी थी । उसका अंत सचमुच करुणापूर्ण हुआ ।

वह दो वर्षों तक युद्ध के बंदी के रूप में इंगलैंड में नजरबंद रहा तथा सप्तवार्षिक युद्ध के अंत में १७६३ ई॰ में उसे फ्रांस लौटने दिया गया । लेकिन वहां उसकी और भी दुर्गति हुई । वह दो वर्षों से अधिक समय तक बेस्तिल में कैद रहा तथा पीछे अपयश और अपमान के साथ फाँसी पर लटका दिया गया ।

इसमें संदेह नहीं कि लाली में कमियाँ और त्रुटियाँ थीं । किन्तु इसके बावजूद यह स्मरण रखना उचित ही होगा कि जो कठिनाइयाँ उसके सामने आयीं, वे वस्तुत: अजेय थी तथा अच्छे-से-अच्छे, नेताओं के रहने पर भी फ्रांसीसियों के अंग्रेजों के विरुद्ध सफल होने की वास्तविक संभावना न थी ।

एक इतिहासकार के इस कथन में काफी सचाई है कि “चाहे अलेक्जेंडर (सिकंदर) महान् हो या नेपोलियन, कोई भी, पांडिचेरी को आधार वनाकर वहाँ से चलने तथा बंगाल और समुद्र पर आधिपत्य रखनेवाली शक्ति से संघर्ष करने पर, भारत का साम्राज्य नहीं जीत सकता था” ।