Read this article in Hindi to learn about:- 1. औद्योगिक क्रांति का अर्थ (Meaning of Industrial Revolution) 2. औद्योगिक क्रांति की वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि (Scientific and Technological Background of Industrial Revolution) and Other Details.

Contents:

  1. औद्योगिक क्रांति का अर्थ (Meaning of Industrial Revolution)
  2. औद्योगिक क्रांति की वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि (Scientific and Technological Background of Industrial Revolution)
  3. इंगलैण्ड में औद्योगिक क्रांति का आरम्भ (Beginning of Industrial Revolution in England)
  4. औद्योगिक क्रांति का यूरोप में प्रसार (Expansion of Industrial Revolution in Europe)
  5. औद्योगिक क्रांति के परिणाम (Consequences of Industrial Revolution)


1. औद्योगिक क्रांति का अर्थ (Meaning of Industrial Revolution):

मानव-सभ्यता के आरम्भ से उन्नीसवीं सदी पूर्व तक दुनिया का सारा काम-काज सामान्यत: हस्तचालित औजारों के द्वारा ही सम्पन्न होता था । उन्नीसवीं सदी के आरम्भ से अधिकाधिक काम मशीनों द्वारा किये जाने लगे ।

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लगभग 1800 ई. के पहले तक शक्ति या ऊर्जा के स्रोत मानवश्रम या कुछ पशु थे । वायु, जलप्रवाह या झरना से परिचालित लिवर या पुली की सहायता से कुछ काम होते थे ।

किन्तु, उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से मानव ने ऊर्जा के कई नये स्रोतों की खोज की और इनके उपयोग से उसकी कार्य-शक्ति की कोई सीमा नहीं रही । वाष्प-शक्ति, विद्युत-ज्वलन, गैस आदि क्षेत्र में मानव के बढ़ते चरण थे, जिसकी परिणति अणु ऊर्जा के आविष्कार में हुई ।

प्रकृति के अक्षय शक्ति-स्रोत इन उपादानों में छिपे पड़े थे । मानव की जिज्ञासा तथा आविष्कारिणी बुद्धि ने उन रहस्यों को खोला, गुत्थियों को सुलझाया तथा इनके फलस्वरूप वह कल्पनातीत शक्ति एवं ऊर्जा का अधिपति बन गया । तकनीकी क्रांति मानव के इसी हस्तचालित औजारों से शक्ति-चालित संयंत्रों तक के अभियान का दूसरा नाम है । इस तकनीकी क्रांति के फलस्वरूप औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ ।

औद्योगिक क्रांति का तात्पर्य उत्पादन-प्रणाली में हुये उन आधारभूत परिवर्तनों से है, जिनके फलस्वरूप जनसाधारण को अपने परम्परागत कृषि, व्यवसाय एवं घरेलू उद्योग-धंधों को छोड़कर नये प्रकार के वृहत उद्योगों में काम करने तथा यातायात के नवीन साधनों के प्रयोग का अवसर मिला ।

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एक कैपसुल मुहावरे के रूप में ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांस के समाजवादी नेता ब्लांकी ने 1837 ई. में किया था और उसके बाद ही यह शब्द अन्य कई लोगों द्वारा प्रयोग किया गया ।

इस क्रांति के आरम्भ की कोई निश्चित तिथि निर्धारित करना सम्भव नहीं । पिछली सदियों की तकनीकी प्रक्रियाओं तथा प्रचलनों के गर्भ से इसका जन्म हुआ ।

क्रांति की प्रक्रिया अब भी चल रही है, क्योंकि अनेक देशों में औद्योगीकरण अभी शुरू ही हुआ है तथा सर्वाधिक समुन्नत औद्योगिक देशों में भी प्रगति के चरण सतत बढ़ते जा रहे हैं ।

विकास का सिलसिला तो आनेवाली सदियों में भी चलता रहेगा । वैसे, औद्योगीकरण से गहराई तक प्रभावित होने वाला पहला देश ग्रेट ब्रिटेन था । इंगलैण्ड में इसका प्रभाव 1780 ई. के बाद के पाँच दशकों की कालावधि में प्रकट हुआ ।

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अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन में तकनीकी खोजों तथा आविष्कारों की एक बाढ़-सी आ गयी । मानव-चालित औजारों के स्थान पर जलशक्ति या वाष्पशक्ति-चालित संयंत्रों के उपयोग से औद्योगीकरण का दौर तो शुरू हुआ ही, उत्पादन व्यवस्था के संगठन या संरचना में भी कई सम्बद्ध परिवर्तन हुये ।

ये भी कम महत्वपूर्ण नहीं थे । उदाहरण के लिए, वस्त्र का उत्पादन पहले श्रमिकों के घर में होता था । अब उसके बड़े-बड़े कारखाने बन गये जिनमें असंख्य लोग काम करते थे ।

लोगों के रहन-सहन और उनकी मानसिकता पर इसका प्रभाव पड़ना अनिवार्य था । इसके लिये पहले तो ऐसे क्षेत्रों में अनेक लोगों का जाना आवश्यक था, जहाँ शक्ति की पर्याप्त आपूर्ति सरलतापूर्वक हो सकती थी । अत: कुछ नये शहर बसे, कुछ पुराने और भी बड़े हुये ।

उत्पादन का उच्च-स्तर बनाये रखने के लिए केवल मशीनें ही काफी नहीं थीं । औद्योगिक क्रांति से कच्चे माल के नये स्रोतों की खोज तथा उपयोग को बल मिला, नये बाजारों की तलाश शुरू हुई तथा नवीन व्यापार के तरीके विकसित हुये ।

यातायात-परिवहन के साधनों एवं तरीकों में क्रांतिकारी परिवर्तन भी औद्योगिक क्रांति का एक अभिन्न अंग था । कच्चा माल तथा कारखानों में बने साज-सामान के तेजी से परिवहन के लिए यह आवश्यक था ।


2. औद्योगिक क्रांति की वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि (Scientific and Technological Background of Industrial Revolution):

विज्ञान के क्षेत्र में हुए अनुसंधानों के कारण बौद्धिक क्रांति हुई । इन्हीं अनुसंधानों ने औद्योगिक क्रांति के लिए पृष्ठभूमि तैयार की । वैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग जब तकनीक में हुआ तब तकनीकी या औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई । 1750 और 1850 ई. के बीच वैज्ञानिक अनुसंधान के हर क्षेत्र में गहन शोध हुए ।

गणित, रसायन, भौतिकी, जीवविज्ञान तथा तकनीकी क्षेत्रों में अनेक अनुसंधान हुए । वैज्ञानिक अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया कि विभिन्न क्षेत्रों में हुए अनुसंधानों का प्रयोग एक-दूसरे से संबंधित है ।

जो ज्ञान अभी तक खंडित और एक-दूसरे से अलग था, अब अंतर्सम्बंध प्रकट करने लगा और इस अंतर्सम्बंध ने एक नया महत्व प्राप्त किया । असल में विज्ञान के अधिकांश महत्वपूर्ण आविष्कार इसी अप्रत्याशित अंतर्सम्बंध को दर्शाते हैं ।

वैज्ञानिक आविष्कार सामंजस्य और समन्वय की ही अभिव्यक्ति करता है । न्यूटन ने गति को परिमाण से जोड़ा और बताया कि सभी भौतिक वस्तुओं की गति ही इस ब्रह्माण्ड की जटिल कार्यपद्धति को निर्धारित करती है ।

लेभोसियर ने प्राकृतिक ढाँचे के अंदर तात्त्विक रासायनिक पैटर्न को ढूँढ़ निकाला । लैमॉर्क ने वनस्पति-विज्ञान और जीवविज्ञान से प्राप्त विशाल आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाया कि विकास की लंबी और धीमी प्रक्रिया के दौरान जीव का रूप बदलता रहा है और सभी जीवित प्राणियों में कुछ विकासमूलक अंतर्सम्बंध हैं ।

अब तक छिपी और रहस्यमय विविधताओं से प्राप्त सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांत की खोज विज्ञान के इतिहास की महान वर्तनबिंदु था । इन वैज्ञानिक सिद्धांतों ने एक नयी अंतर्दृष्टि पैदा की, जिसे व्यावहारिक तौर पर सत्यापित किया जा सकता है ।

एक क्षेत्र में प्राप्त अंतर्दृष्टि का प्रयोग दूसरे क्षेत्र में किया जा सकता है । इस वैज्ञानिक विचारधारा ने विचारों को प्रभावित किया, धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी एवं नये दार्शनिक प्रश्न खड़े किये ।

इस वैज्ञानिक और तकनीकी पृष्ठभूमि ने विचारधारा के क्षेत्र में क्रांति पैदा कर दी, क्योंकि इससे सारा मानव-जीवन प्रभावित हुआ । यों तो विज्ञान और तकनीक ने सबसे पहले इंगलैण्ड में क्रांति पैदा की, लेकिन वैज्ञानिक विचारधारा को नेतृत्व फ्रांस ने दिया ।

उसके महान गणितज्ञों, भौतिकशास्त्रियों रसायनशास्त्रियों और जीव वैज्ञानिकों ने किसी भी देश की तुलना में वैज्ञानिक ज्ञान के सीमा क्षेत्र को कहीं अधिक फैलाया ।

विज्ञान के प्रति उनके विशिष्ट विश्वास की अभिव्यक्ति महान रसायनशास्त्री लैभोसियर में होती है, जिसने 1793 ई. में राष्ट्रीय कन्वेन्शन के सामने राष्ट्रीय शिक्षा पर एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था ।

उसने तर्क दिया कि विज्ञान और तकनीक की सभी शाखाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं और सभी वैज्ञानिक समान उद्देश्य से काम करते हैं और सबके स्वार्थ समान हैं । वैज्ञानिक एक सेना के समान हैं जिन्हें समान फ्रंट पर आगे बढ़ना है और समन्वित रूप में काम करना है ।

लैभोसियर ने बताया कि ज्ञान के सभी रूप एक महान दीवारदरी के विभिन्न धागों के समान हैं और हमें अंततः एक पैटर्न और डिजाइन की प्राप्ति होगी, क्योंकि सारे ज्ञान के पीछे एकत्व है ।

1850 ई. तक ज्ञान की तेज प्रगति ने असीम आशावादिता और प्रफुल्लित उम्मीद की मनःस्थिति पैदा की । इस आशावादिता से प्रेरित होकर वैज्ञानिक अधिक निडर हो गये, बल्कि अधिक दुस्साहसी हो गये और उन्होंने असंलग्न तथ्यों के बीच संबंध बताकर सामान्य अनुमान निकालना शुरू किया ।

भौतिकी के क्षेत्र में टन की गति और परिमाण के सिद्धांतों को लैभोसियर के रासायनिक तत्वों के सिद्धांत से जोड़कर आणविक परिमाण, थर्मो-डॉयनामिक्स और गैस के काइनेटिक सिद्धांत का अध्ययन शुरू हुआ ।

इसी प्रकार, अनेक अन्य वैज्ञानिक सिद्धांतों के अंतर्सम्बंध ने अन्य वैज्ञानिक आयामों को जन्म दिया । विज्ञान और तकनीक के इसी मिले-जुले प्रयास के कारण एक के बाद एक वैज्ञानिक आविष्कार होते गये और औद्योगिक क्रांति अपने अनंत विकास की ओर अग्रसर हो चली ।


3. इंगलैण्ड में औद्योगिक क्रांति का आरम्भ (Beginning of Industrial Revolution in England):

औद्योगिक क्रांति पहले-पहल इंगलैण्ड में शुरू हुई । इसके क्या कारण थे ? ब्रिटिश समाज तथा अर्थव्यवस्था में वे कौन-सी विशेषताएँ थीं जिनसे उसे इन परिवर्तनों का नेतृत्व करने का मौका मिला ?

इन सवालों का कोई एक जवाब नहीं दिया जा सकता । वस्तुतः इसके कई कारण थे । क्रांतिकारी उथल-पुथल की बात इतिहासकार चाहे जो करें, आम आदमी आदतन अपरिवर्तनवादी या रूढ़िप्रिय होता है ।

बिना किसी जबरदस्त प्रलोभन या आकर्षण के श्रमजीवी रहन-सहन के पुराने तरीकों को नहीं छोड़ना चाहते, न ही वे अजनबी तथा भीड़-भड़ाकेवाले शहरों में ही जाकर बसना चाहते हैं अथवा कारखानों के सीलन भरे तथा खतरनाक परिवेश में काम करने को तैयार होते हैं ।

इसी तरह निश्चित आमदनी पर आराम की जिन्दगी बिताने वाले धनी-मानी लोग भी, जब तक कोई बड़ा कारण नहीं होता, अपनी सम्पत्ति नवीन तथा पहले से अपरीक्षित व्यवसायों में लगाने का खतरा मोल लेना नहीं चाहते ।

किसी देश की अर्थव्यवस्था आधुनिक मशीनी उत्पादन की ओर तभी मोड़ी जा सकती है, जब वहाँ के लोगों में गत्यात्मकता हो तथा वहाँ की राष्ट्रीय सम्पदा भी गत्यात्मक हो ।

अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध के इंगलैण्ड में ऐसी ही गत्यात्मकता थी । यह सुदीर्घ ऐतिहासिक घटनाओं की परिणति थी और यह घटना कृषि क्रांति के साथ जुड़ी थी ।

इंगलैण्ड में अठारहवीं सदी में कृषि तथा पशुपालन के तरीकों में व्यापक परिवर्तन हुए थे । इन्हें कुल मिलाकर कृषि क्रान्ति का नाम दिया गया । औद्योगिक क्रान्ति उन परिवर्तनों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध थी ।

इंगलैण्ड के बड़े भूमिपतियों ने सतरहवीं शताब्दी की क्रान्तियों में वहाँ के नरेश पर विजय हासिल की थी और नये शासनतंत्र पर हावी हो गये थे । इसका फायदा उठाकर अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए उन्होंने परिवर्तनों का एक नया दौर शुरू किया था ।

खुले होने के कारण असुरक्षित खेत, आम उपयोग को जमीन तथा खेती की अर्द्ध-सामुदायिक तरीके की पिछली सदियों से चली आती हुई प्रणाली के कारण खेती तथा पशुपालन के उन्नत तरीकों की खोज करने तथा उन्हें लागू करने में बाधा उत्पन्न होती थी ।

इस दिशा में सफलता हासिल करने के लिये भूमिपतियों को जमीन के बड़े-बड़े टुकड़ों की जरूरत थी, जिनके चारों ओर घेराबन्दी की गयी हो । इसके लिए भूमिपतियों ने घेराबन्दी कानून पास करवाया ।

इन सबके परिणामस्वरूप विस्तृत क्षेत्रों में खेती और पशुपालन से आमदनी काफी बढ़ गयी, खेती उन्नत तरीकों से की जाने लगी तथा उत्पादन में वृद्धि हुई । दूसरी ओर, हजारों-हजार कृषक तथा कृषिजीवी परिवार अपनी जमीनों से बेदखल हुये, असंख्य लोग गृह-विहीन हुये तथा अनेकों की आजीविका के परम्परागत साधन छिन गये ।

पर, घेराबंदी के कारण खाद्यान्नों के उत्पादन में निश्चित तरक्की हुई । ब्रिटिश फार्मों में पहले की अपेक्षा कहीं कम लोगों से काम कराकर इतना उत्पादन किया जा रहा था, जिससे काफी बड़ी आबादी को खिलाया जा सकता था ।

उधर घर-बार से विच्छिन्न अनेक लोगों ने नये कारखानों तथा औद्योगिक केन्द्रों में आजीविका अर्जन हेतु आश्रय लिया । इस प्रकार, औद्योगिक क्रान्ति के लिए जिस बड़ी संख्या में श्रमजीवियों की जरूरत होती है, वह इंगलैण्ड में सहज ही उपलब्ध थी ।

उधर महादेशीय यूरोप में उन्नीसवीं सदी के मध्य तक श्रमिक आपूर्ति का कोई स्रोत नहीं था । मिसाल के तौर पर फ्रांस में छोटे काश्तकारों की पद्धति कायम थी । इससे वहाँ के उद्योग-धंधों के विकास में बाधा पड़ी ।

औद्योगिक क्रान्ति के लिए दो अन्य उपादान भी आवश्यक हैं- कारखानों के लिये कच्चे माल का पर्याप्त आपूर्ति-स्रोत तथा कारखानों में तैयार सामग्री की बिक्री के लिये बाजार ।

औरों की अपेक्षा ब्रिटेन को इनके लिए भी कई सुविधाएँ थीं । उसके पास मालवाही जहाज बड़ी संख्या में थे तथा औपनिवेशिक साम्राज्य भी । साम्राज्य-विस्तार की होड़ में उसे फ्रांस पर जीत हासिल हुई थी ।

नेपोलियन की पराजय के बाद अमेरिकी महादेश में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देनेवाला कोई नहीं रहा था । इंगलैण्ड में प्रगतिशील व्यापारी वर्ग था । उसके व्यापारी कच्चा माल तथा औद्योगिक उत्पादन को सुदूर समुद्र पार के देशों से लाने-ले जाने को उद्यत रहा करते थे ।

उसके तैयार माल के लिए बड़ी संख्या में सम्भावित ग्राहक पहले से ही उपनिवेशों तथा शासित क्षेत्रों में मौजूद थे । ब्रिटिश सौदागर को ‘माल कहाँ बेचे’ की चिन्ता नहीं होती थी । वह जितना भी माल तैयार कर सकता था, उसे बेच सकता था ।

फलत: उसे ग्राहकों की कमी नहीं थी । उसके पास परिवहन के अच्छे साधन थे । इनके अतिरिक्त, नये विचारों को कार्यान्वित करने के लिए उसके पास पर्याप्त पूँजी भी थी ।

आधिकाधिक लाभार्जन की अनुप्रेरणा से वह उत्पादन के नये तथा तेज रफ्तार में काम करनेवाले साधनों की तलाश में रहता था । ऊनी वस्त्र का उत्पादन इंगलैण्ड में बहुत अरसे से होता आ रहा था ।

जरूरत थी उसका उत्पादन बढ़ाने की, ताकि उसे ज्यादा-से-ज्यादा मात्रा में बेचा जा सके । इसी तरह, सूती वस्त्र उद्योग के विस्तार की अपार सम्भावना थी । एशियाई देशों से महीन सूती वस्त्र के आयात के फलस्वरूप यूरोप के वैभवशाली लोगों की रुचि बदल गयी थी ।

हाथ से कलाई-चुनाई करके उनकी माँगे पूरी नहीं की जा सकती थीं । यदि मशीनों द्वारा कताई-बुनाई तथा रँगाई-छपाई की जा सकती तो फिर क्या कहना था । बाजार की असीम सम्भावनाएँ थीं ।

कताई तथा बुनाई की शक्ति-परिचालित संयंत्रों की तलाश एवं आविष्कार के मूल में यही अनुप्रेरणाएँ काम कर रही थीं । संयंत्रों का विकास तथा कारखाना बिठाना व्ययसाध्य होते हैं । इनके लिए बड़ी मात्रा में पूँजी आवश्यक है ।

फलत: औद्योगीकरण की एक आवश्यक शर्त है पूँजी-निर्माण तथा पूँजी की उपलब्धि । इंगलैण्ड में काफी पहले से ही बैंकिंग, साख तथा सट्टा कम्पनियाँ काम कर रही थीं ।

अत: गत्यात्मक तथा चालू पूँजी का यहाँ कतई अभाव नहीं था । आवश्यकतानुसार धनराशियाँ एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय में हस्तान्तरित की जा सकती थीं । अनेक ऐसे भूमिपति थे, जो अपनी सम्पदा उद्योग-धंधों में लगाने को उत्सुक रहते थे ।

कभी-कभी पूँजी लगानेवालों को नुकसान भी होता था, कोई कम्पनी दीवाला पीट कर बैठ जाती थी । कुछ ऐसे काम होते थे, जिनमें धन लगानेवालों को लाभ अर्जित करने के लिए काफी लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी ।

फिर भी, पूंजी लगाने के लिये इंगलैण्ड में धन का अभाव नहीं था । अत: इंगलैण्ड जैसा देश जो वाणिज्य-व्यवसाय, खेती-बाड़ी तथा पशुपालन से अपार सम्पदा का स्वामी हो चुका था, मशीन-युग का अग्रदूत बनने की स्थिति में था । महादेशीय यूरोप के देश अभी इसमें काफी पीछे थे ।

नये यान्त्रिक आविष्कार:

इंगलैण्ड में यान्त्रिक युग की शुरुआत वस्त्र उद्योग से हुई । 1773 ई. में जॉन के ने नाका शट्‌ल का आविष्कार किया । इस मशीन से दो बुनकरों द्वारा चलाये जानेवाले लूम की चलाने के लिए केवल एक ही आदमी की जरूरत होती थी ।

इससे बुनाई की रफ्तार बढ़ी तो अधिक सूत की माँग होने लगी । इसके पूर्व सातवें दशक में ही स्पिनिंग जेनी नामक कताई का यांत्रिक उपकरण बनाया जा चुका था । कताई तथा बुनाई के दोनों उपकरणों का पहले कतिनों एवं बुनकरों द्वारा घर में ही उपयोग किया जाता था ।

1769 ई. में आर्कराइट ने कताई का एक नया संयंत्र ईजाद किया । इससे अनेक सूत एक ही साथ तैयार होते थे । पहले इसे जल-शक्ति द्वारा चलाया जाता था, नौवें दशक में उसे बाध्य इंजिन से चलाया जाने लगा ।

अब वस्त्रों का उत्पादन तथाकथित ‘मिल’ या ‘फैक्टरी’ में होने लगा । वस्त्र उत्पादन के ये कारखाने बड़े-बड़े मकानों में होते थे । ये मकान धूप, हवा तथा रोशनी के अभाव में अरुचिकर तथा अनाकर्षक थे । इनमें अनेक मजदूर काम करते थे ।

कताई के उपकरण तथा उन्हें चलाने के लिए इंजिन लगे होते थे । मशीनी कताई से सूत का इतना अधिक तथा कम खर्च पर उत्पादन होता था कि हाथ की कताई का उसकी होड़ में टिके रहना असंभव हो गया, तब पावरलूम का ईजाद हुआ ।

1800 ई. के कुछ ही बाद बुनाई तथा कताई दोनों ही कारखानों में की जाने लगी । अब समस्या थी कपास की धुनाई की, ताकि कारखानों के संयंत्र बेकार नहीं बैठे रहे ।

इली व्हिटनी ने धुनाई का नया उपकरण बनाकर इस कमी को भी दूर कर दिया । इस उपकरण द्वारा कपास से बीज निकालने का काम काफी तेजी से होता था । इन संयंत्रों के ईजाद के फलस्वरूप 1820 ई. तक ब्रिटिश सूती वस्त्र उद्योग में काफी वृद्धि हुई ।

कोयला और लोहा:

ब्रिटेन के दो अन्य बुनियादी उद्योगों-कोयला निकालने तथा अन्य खनिज पदार्थों के उद्योग में नयी टेक्नॉलोजी विकसित हुई । नये इंजिनों की उर्जा-आपूर्ति का आवश्यक उपादान कोयला था । लोहा-इंजिनों को बनाने के लिए आवश्यक था ।

अत: वस्त्र उद्योग में प्रगति कोयले तथा लोहे के उत्पादन तथा लौह उद्योग पर निर्भर करती थी । ब्रिटेन में कोयले के प्रचुर भंडार थे । लेकिन, जलावन के लिए जब तक लकड़ी उपलब्ध रही, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया ।

अठारहवीं सदी के आरम्भ तक अधिकांश जंगल कट चुके थे । फलत: जलावन के लिए लकड़ी का कोयला इस्तेमाल किया जाता था । लेकिन, लकड़ी की कमी से कोयला भी मुश्किल से ही मिल पाता था ।

फलत: लोहा गलाने और ऊर्जा प्राप्त करने की किसी नयी प्रक्रिया की तलाश हो रही थी । कोयला इन दोनों जरूरतों को पूरा कर सकता था । 1700 ई. तक कोयला निकालने के प्रारम्भिक प्रयास शुरू हो चुके थे ।

किन्तु, जमीन के अन्दर पानी निकल जाने के कारण ज्यादा गहरायी तक खोदना सम्भव नहीं था । इस पानी को बाहर निकाल फेंकने का जब तक कोई तरीका नहीं सोचा जाता, कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ सकता था ।

वाष्प-चालित इंजिन का निर्माण इसी प्रक्रिया की खोज के क्रम में हुआ । वैसे लगभग एक सौ वर्ष से वाष्प-इंजिन के ईजाद के लिए प्रयत्न जारी थे । 1702 ई. के लगभग टामस न्यूकॉम ने पहला वाष्प-इंजिन बनाया ।

कोयले की खानों में से पानी निकाल फेंकने के काम में इसका व्यापक उपयोग होने लगा । लेकिन, इसे चालू रखने में इतना अधिक ईंधन लगता था कि इसे कोयले की खान में इस्तेमाल किया जाना काफी महँगा पड़ता था ।

1763 ई. में ग्लासगो विश्वविद्यालय के एक तकनीकी सहायक जेम्स वोट ने न्यूकॉम द्वारा निर्मित इंजिन में सुधार का काम शुरू किया । मैथ्यु बोल्टन के साथ मिलकर उसने इसके लिए एक कम्पनी खोली ।

वॉट के प्रयोग खर्चीले होते थे । इसके लिए बोल्टन ने धन की व्यवस्था की । सदी के आठवें दशक तक यह कम्पनी अच्छे तथा उपयोगी वाष्प-इंजिन बनाने में कामयाब हो गयी ।

न केवल अपने देश की जरूरतें पूरी करने के लिये, बल्कि अन्य देशों में निर्यात के लिये काफी इंजिन तैयार होने लगे थे । ब्रिटेन की खानों में लोहे की कमी नहीं थी, लेकिन इस्तेमाल करने के पहले उन्हें गलाना आवश्यक था ।

लकड़ी के कोयले पर भरोसा नहीं किया जा सकता था । अत: इसके लिए भी किसी नयी प्रक्रिया की तलाश जारी थी । लोहा गलाने की प्रक्रिया ईजाद करने में अब्राहम डार्बी ने पहल की ।

1709 ई. में उसे लकड़ी के कोयले के बदले पत्थर-कोयले से उच्च कोटि का लोहा गलाने में सफलता मिली, हालांकि इस ईजाद से तत्काल लौह-उद्योग को बहुत सहायता नहीं मिली । कारण यह था कि डार्बी की प्रक्रिया से गलाया गया लोहा शुद्ध नहीं समझा जाता था ।

1783-84 में हेनरी कोर्ट ने कोक कोयले का इस्तेमाल करके कच्चे लोहे से सभी अशुद्धियों दूर करके उससे फोर्ज में व्यवहार करने योग्य शुद्ध लोहा निकाला । इसके फलस्वरूप लकड़ी के कोयले पर आश्रित रहने से मुक्ति मिली तथा लोहा-उद्योग के विकास का मार्ग खुल गया ।

परिवहन के क्षेत्र में क्रांति:

इस प्रकार, 1800 ई. तक इंगलैण्ड में तकनीकी क्रांति की पूरी पृष्ठभूमि बन चुकी थी । ईंधन के लिए कोयला प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था । मशीनों तथा अन्य काम के लिए उच्च स्तर का लोहा भी मिल रहा था ।

वाष्प-इंजिन से शक्ति की समस्या हल की जा चुकी थी । केवल एक चीज की कमी रह गयी थी, तेज रफ्तार से चलनेवाली तथा विश्वसनीय परिवहन के साधन की । 1769 तथा 1830 ई. के मध्य नहरों का जाल बिछाकर देश के एक छोर से दूसरे छोर तक माल ले जाने-ले आने का काम बहुत सहज तथा कम खर्चीला कर दिया गया था ।

इससे कोयले जैसे भारी-भरकम सामान के परिवहन में भारी सुविधा हुई थी । सदी के चौथे दशक में इंगलैण्ड में रेल की पटरियाँ बिछाकर तथा रेलगाड़ी चलाकर यातायात तथा परिवहन के क्षेत्र में क्रांति-सी ला दी गयी ।

कच्चा माल तथा कारखानों में बने सामान तेज रफ्तार की गाड़ियों से लाना-पहुँचाना आधुनिक औद्योगिक समाजों का एक प्रमुख लक्षण है । वाष्प-इंजिन-चालित रेलगाड़ी इसका प्रतीक था । इसके पूर्व कई दशकों तक कोयले को घोड़ागाड़ियों से ढोया जाता था ।

सदी के तीसरे दशक में व्यावसायिक वाष्प-इंजिन-चालित रेलगाड़ी का निर्माण हुआ । 1829 ई. में जार्ज स्टीफेन्सन ने अपने स्व-निर्मित इंजिन से लिवरपुर और मैनचेस्टर के बीच सोलह मील प्रति घंटा की रफ्तार से रेलगाड़ी चलाकर रेल-परिवहन के युग की शुरूआत की ।

मुख्य बात यह थी कि यह भी ब्रिटेन में ही हुआ था । फिर तो दो दशकों के भीतर ही ब्रिटेन में साढ़े छह हजार मील से भी अधिक रेल-लाइनें बिछा ली गयीं । इस नये परिवहन साधन का प्रभाव इंगलैण्ड के जीवन के लगभग हर पक्ष पर महसूस किया जाने लगा था ।

अपने प्रारम्भिक चरण में ब्रिटेन की तकनीकी क्रांति मुख्यत: कपड़ा उद्योग तथा लोहा और कोयला के खनिज उद्योगों से ही सम्बन्धित थी । आरम्भिक कारखाने मुख्यत: कपड़ा उद्योग के ही थे, वस्तुत: सूती कपड़ा उद्योग के ।

सूती कपड़े का उद्योग यूरोपीय देशों के लिये नया था । अत: इसके यंत्रीकरण में किसी ओर से कोई बाधा नहीं आयी । किन्तु, ऊनी वस्त्र उद्योग की जड़े काफी गहरी थीं । इसमें कारखाने के मालिक तथा उसमें काम करनेवाले दोनों ही पुराने तथा प्रचलित तरीकों का परित्याग करने को जल्दी तैयार नहीं हो रहे थे । फलत: इस उद्योग में यन्त्रीकरण की गति धीमी रही ।

परिवर्तनों की आकस्मिकता का अतिरंजित बखान नहीं होना चाहिए । अक्सर ऐसा कहा गया है कि औद्योगिक क्रांति वास्तव में कोई क्रांति थी ही नहीं । उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक तक अँगरेज मजदूर वर्ग का एक बहुत छोटा हिस्सा ही नये कारखानों में काम कर रहा था ।

लेकिन, यह माना जाने लगा था कि भविष्य कारखाना-उत्पादन तथा कारखाना- व्यवस्था का ही होनेवाला था । साफ झलक रहा था कि कारखाना-उत्पादन पद्धति का विकास होना है । कारखाने प्रगति के बढ़ते कदम के जबरदस्त प्रतीक थे ।


4. औद्योगिक क्रांति का यूरोप में प्रसार (Expansion of Industrial Revolution in Europe):

1830 ई. तक इंगलैण्ड में औद्योगिक क्रांति के प्रथम दो दशकों में नयी उत्पादन विधियों एवं आविष्कारों के फलस्वरूप उद्योगों में और तीव्र गति से परिवर्तन हुआ । इस काल में विज्ञान और प्रगति के बीच निकट का सम्बन्ध स्थापित हुआ ।

कुछ प्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने ऐसे नये आविष्कार किये, जो औद्योगिक विकास के लिए अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हुये । इन आविष्कारों ने मानव-जीवन में आमूल परिवर्तन ला दिया ।

इंगलैण्ड के बाद यूरोप के अन्य देशों में भी औद्योगिक क्रांति का प्रसार होने लगा । फ्रांस और बेल्जियम में क्रांति पहले पहुँची । लेकिन, मध्य यूरोपीय देशों के साथ एक कठिनाई थी । वहाँ सामन्तवाद और कृषक दासता अब भी कायम थी ।

किसान कुलीनों के साथ खेतों में बँधे रहते थे और आबादी में उस गत्यात्मकता का अभाव था, जिसने इंगलैण्ड में औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की थी । लेकिन, 1848 ई. के आते-आते जर्मनी और आस्ट्रिया में भी कृषि-दासता और सामंती प्रथा समाप्त हो गयी ।

अब वहाँ के कृषकों को भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता मिली और आबादी में गत्यात्मकता आयी । कृषकों को एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान जाने अथवा अपने इच्छानुसार व्यापार चुनने में किसी प्रकार की रुकावट नहीं रही ।

इसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कारण यूरोपीय कृषि-व्यवस्था में परिवर्तन हुआ । इसके पश्चात यूरोपीय देशों ने इंगलैण्ड में किये गये विभिन्न आविष्कारों से लाभ उठाया । वहाँ भी औद्योगिक क्रांति की लहर चल पड़ी ।

फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी, इटली, आस्ट्रिया, स्वीडेन, स्पेन आदि सभी देश इस क्रांति से प्रभावित हुये और उन्नीसवीं सदी का अन्त होते-होते सम्पूर्ण यूरोप में औद्योगिक क्रांति का प्रसार हो गया । यूरोप के बाहर संयुक्त राज्य अमेरिका में भी उन्नीसवीं सदी के द्वितीय चरण में औद्योगिक क्रांति का विस्तार हुआ और शताब्दी के अन्त तक वह विश्व का एक प्रमुख औद्योगिक राष्ट्र बन गया ।


5. औद्योगिक क्रांति के परिणाम (Consequences of Industrial Revolution):

i. कारखानेदारी प्रथा:

उत्पादन-तकनीक में क्रांतिकारी परिवर्तन का सामाजिक जीवन पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था । जो लोग सीलनभरी खानों अथवा मशीनों के शोर के बीच फैक्टरियों में काम करते हुए जिन्दगी बिता रहे थे, उनके जीवन पर इन परिवर्तनों का क्या प्रभाव पड़ा ?

मानव-इतिहास में इससे पहले शायद कभी आदमी के काम करने की स्थितियों तथा उसके परिवेश में इतना व्यापक और आमूल परिवर्तन नहीं हुआ था । एक के बाद दूसरा देश औद्योगीकरण की चपेट में आ रहा था ।

फलत: वहाँ का आम आदमी, जो पहले खेतों की खुली हवा में काम किया करता था, बाल-बच्चों के साथ बस्तियों में रहा करता था, जहाँ उसके अपने मकान होते थे, अब खानों या फैक्टरियों में दस-बारह घंटे रोज कमरतोड़ मेहनत करने और भीड़ भरे शहरों में रहने लगा था ।

यह परिवर्तन कितना व्यापक और गहरा था, इसके अनेक अतिरंजित वर्णन किये गये हैं । परिवर्तनों की गति का भी अतिरंजित वर्णन किया गया है । वस्तुत: ग्रेट ब्रिटेन में, जहाँ परिवर्तन काफी तेजी से हुआ था, स्थिति उतनी बुरी नहीं थी जितना कि अधिकांश विवरणों में बताया गया है ।

यद्यपि अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में देहातों की आम उपयोग की जमीनों की घेराबन्दी में अधिक तेजी आयी, तथापि अनेक छोटे काश्तकार गाँव में ही भूमिहीन मजदूर बनकर अपनी कुटियों में कताई-बुनाई करके जीवन-यापन करते रहे ।

बहुत धीरे-धीरे ही वे कारखानों में काम करने को जाने लगे । आम तौर पर कारखाने नदियों के समीप स्थापित किये जाते थे, जिससे पानी आसानी से सुलभ हो सके ।

शुरू-शुरू में ब्रिटेन के उत्तरवर्त्ती इलाके में मिल मालिकों को श्रमिक जुटाने में काफी परेशानी होती थी । इसके चलते वे लन्दन या दक्षिणी क्षेत्रों से कंगाल या अनाथ बच्चों को शिक्षार्थी-कर्मी के रूप में नियुक्त करते थे ।

1800 ई. से कपास उद्योग में वाष्प-शक्ति का उपयोग शुरू होने के फलस्वरूप फैक्टरियाँ कोयला-केन्द्रों के समीप या शहरों में खोली जाने लगीं । इससे श्रमिकों की आपूर्ति अधिक सरलता से होने लगी ।

कई मुख्य औद्योगिक नगरों का विस्मयकारी विकास उन्नीसवीं सदी के प्रथम चरण में हुआ । नये औद्योगिक नगर या पुराने नगरों के औद्योगिक मुहल्ले हमेशा धूमिल रहते थे ।

कोयला युग के उस आरम्भिक चरण में कोयले की धूल और धुआँ कारखानों की दीवारों पर तथा श्रमिकों के आवासों पर मोटी परत बनकर जमे रहते थे । श्रमिकों के आवासों में खुली हवा या रोशनी जाने का कोई प्रबन्ध नहीं था ।

कारखानों की भी यही हालत थी । कार्मिकों के लिए जल्दीबाजी में घर बनाये जाते थे । इनकी संख्या बहुत कम होती थी । इन घरों में लोग ठूंसे होते थे । एक ही कमरे में सारा परिवार रहता था ।

कभी-कभी दो-तीन परिवार भी एक कमरे में गुजारा करते थे । मजदूरों में स्त्रियों की संख्या काफी थी तथा उन्हें दिनभर कारखानों में काम करना पड़ता था । फलत: पारिवारिक जीवन का बिखराव तथा नैतिक पतन अनिवार्य था ।

ग्लासगो के एक पुलिस अधिकारी ने कहा था कि नगर में ऐसे समूचे-समूचे मकान थे, जिनमें एक हजार फटेहाल बच्चे भरे थे, जिनका कोई पारिवारिक नाम नहीं था, क्योंकि वे अवैध सन्तान थे ।

नये कारखानों में अधिकतर केवल साधारण मजदूरों की जरूरत होती थी, कुशल श्रमिकों या कारीगरों की नहीं । अत: कुशल कर्मियों और कारीगरों की स्थिति दयनीय थी । कताई-बुनाई करनेवाले पहले के कारीगरों की रोजी छिन गयी थी ।

वे घोर गरीबी में दिन काट रहे थे । औद्योगिक क्रांति के दिनों में इस वर्ग की हालत सबसे खराब थी । इनमें से कुछ किसी कारखाने में काम ढूँढ़ते फिरते थे । उस काल के सामान्य श्रमिकों को मजदूरी-दर की दृष्टि से कारखानों में अधिक मजदूरी मिलती थी, किन्तु मजदूरी बहुत ही कम होती थी ।

जो मजदूरी मिलती थी, उससे परिवार का खाना-पीना चलाना मुश्किल था । वैसे इंगलैण्ड में तथा अन्यत्र औद्योगिक क्रांति की पूर्ववर्ती व्यवस्था में भी मजदूरी-दरें ऐसी ही थीं । कारखानों में इतना यांत्रिक काम होता था कि मालिक महिला तथा बच्चों से काम कराना अधिक पसन्द करता था ।

छह वर्ष की उम्र के बच्चों को भी कारखानों के काम में लगाया जाता था । ये लोग कम ही मजदूरी लेकर काम किया करते थे तथा वयस्कों की अपेक्षा बाबिन का काम करने में अधिक कुशल होते थे । अधिकतर वयस्क मजदूर इनसे चिढ़े रहते थे ।

कारखानों में प्रतिदिन चौदह घंटे या उससे भी ज्यादा काम लिया जाता था । छुट्टियाँ नहीं के बराबर या बहुत कम थीं । वैसे बेकारी की स्थिति में, जो अक्सर बनी रहती थी, अनिवार्यत: छुट्टी हो जाया करती थी ।

औद्योगिक प्रसार के इस चरण में व्यावसायिक उतार-चढ़ाव होते ही रहते थे । इस कारण कब कितने मजदूरों को काम मिलेगा, यह नितान्त अनिश्चित था । जिस दिन काम नहीं मिला, भूखे रहने या उधार खाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रहता था ।

अत: जिन कारखानों में अपेक्षाकृत अच्छी मजदूरी भी दी जाती थी, वहाँ भी कर्मियों की औसत या वास्तविक आय बहुत कम होती थी । कारखाने हों या खान, इनके कार्मिक सर्वथा असंगठित होते थे ।

इन दिनों का मजदूर किसी ‘वर्ग’ का सदस्य नहीं होता था । वे जहाँ-तहाँ से इकट्ठे लोगों का एक ढीला-ढाला समूह-मात्र थे जिसकी कोई परम्परा नहीं बन पायी थी । उनमें आपसी भाईचारे की भावना भी नहीं होती थी ।

हर आदमी कारखानेदार से व्यक्तिगत तौर पर बातें करता था । कारखानेदार स्वयं प्राय: छोटा व्यवसायी होता था । उसे कठोर प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता था । खरदीने के लिए कर्ज लिये रहता था या और खरीदने के लिए धन संचय करने के फेरे में रहता था ।

अत: मजदूरी के मद में कम-से-कम व्यय हो, इसके लिए वह हमेशा प्रयास करता रहता था । नये औद्योगिक नगरों में कारखाना श्रमिकों के रहन-सहन, आर्थिक अवस्था तथा मानसिकता औद्योगिक क्रान्ति के अध्येयताओं में एक सर्वाधिक विवाद का विषय रही है ।

कुछ लोगों का कहना है कि नये उद्योगों में काम करनेवालों की दशा गुलाम से थोड़ा ही बेहतर होती थी, उन्हें मालिकों की मर्जी पर आश्रित रहना पड़ता था तथा हर तरह के भौतिक एवं मानसिक कष्ट सहने होते थे ।

इस मत को माननेवाले मजदूरों के काम करने की लम्बी अवधि, निम्न मजदूरी दर तथा दुर्दशापूर्ण आवासीय स्थिति पर बल देते हैं । किन्तु, यह आलोचना एकांगी तथा पूर्वाग्रहपूर्ण है एवं उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में संसदीय आयोगों की रिपार्टों पर आधारित है ।

ये आयोग औद्योगिक प्रतिष्ठानों में काम करनेवालों की अवस्था की जाँच करने हेतु नियुक्त किये जाते थे । इनमें अधिकतम सुधारक तरह के लोग सदस्य होते थे । इनका उद्देश्य नवीन औद्योगिक व्यवस्था की बुराइयों को प्रकाश में लाना था ।

औद्योगिक क्रांति के प्रारम्भिक दिनों में बुराइयाँ थीं, इससे किसी को इनकार नहीं, लेकिन हर जगह स्थिति एक समान बुरी नहीं थी । विभिन्न औद्योगिक संस्थानों के सभी कार्मिकों की अवस्था एक ही जैसी नहीं थी ।

अक्सर एक ही औद्योगिक केन्द्रों तथा संस्थानों में तो फर्क रहता ही था । इसके अतिरिक्त कार्मिकों की दुरावस्था की सारी जिम्मेवारी औद्योगीकरण पर ही नहीं थोपी जा सकती । अठारहवीं सदी के अन्तिम तथा उन्नीसवीं सदी के प्रथम डेढ़ दशकों में इंगलैण्ड लगभग अनवरत युद्धों में उलझा रहा ।

इसके फलस्वरूप आर्थिक मन्दी, उतार-चढ़ाव तथा अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती रहती थी । यह भी कारखाना मजदूरों की दुरावस्था हेतु कुछ हद तक जिम्मेवार था अठारहवीं सदी में कृषि-कर्मियों तथा काश्तकारों की जिन्दगी काफी कठोर थी ।

उन्नीसवीं सदी के कारखाना-कर्मी का जीवन-स्तर एवं स्वास्थ्य उनकी अपेक्षा सम्भवत: अच्छा ही था । औद्योगीकरण के आरम्भिक दिनों में कारखानों के भीतर तथा इर्द-गिर्द के माहौल का विस्तृत, किन्तु बड़ा ही धूमिल चित्रण उपन्यासकार डिकेन्स के ‘हाई टाइम्स’ जैसे उपन्यासों में मिलता है ।

इन पर तथा अन्य स्रोतों से मिले विवरणों पर आधारित परम्परागत धारणा में कुछ परिवर्तन हुआ है । यह शायद जरूरी भी था । लेकिन, यदि कुछ देर के लिए मान भी लिया जाये कि शहर के कर्मियों का जीवन-स्तर उसके ग्रामीण पूर्वजों की तुलना में थोड़ा ऊँचा था, तब भी दोनों की स्थिति में कुछ बुनियादी फर्क तो था ही ।

काम करने की रोजाना की कालावधि भले ही ग्रामीण कृषि-कर्मी की कम रही होगी, उसका रहन-सहन मोटा तथा आदिम ढंग की होगी, रोग-व्याधियों का वह कुछ अधिक ही शिकार बनता होगा, किन्तु इन सबके बावजूद पुरानी व्यवस्था में आम आदमी को प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध था ।

उसे कारखाने के सीलन-भरे तथा धूमिल कमरों में नहीं, खुले मैदानों की खुली हवा तथा रोशनी में काम करना होता था । उसके रोजाना के काम भिन्न तरीके के होते थे । उसे मनोरंजन के अधिक साधन तथा अवसर उपलब्ध थे ।

आरम्भिक कारखाना-कर्मी को एक ही तरह का जी उबानेवाला काम हमेशा करते रहना तथा कारखाने की जिन्दगी का लौह अनुशासन सबसे ज्यादा अखरता था । अरुचिकर, हड़बड़ी में बनाये गये शहरों के आवासों में ठूस-ठुँसाकर रहना उसके असन्तोष का सबसे बड़ा कारण था ।

इनके अतिरिक्त, खानों तथा कारखानों में दुधमुहें बच्चों एवं सूती कारखानों में स्त्रियों का काम पर लगाया जाना औद्योगीकरण पर लगा ऐसा कलंक है, जिसे भुलाया नहीं जाना चाहिए । औद्योगीकरण का यह पक्ष केवल सुधारकों तथा मानवतावादियों की आत्मा को ही नहीं झकझोरता रहा, वरन् कई उद्योगपति भी इससे विचलित हुए ।

जब उत्तर की सूती मिलों में छह-सात वर्ष तक के बच्चों से सप्ताह में छह दिन तथा हर दिन बारह-चौदह घंटे काम कराये जाने की बात प्रकाश में आयी, तब अनेक लोगों को एक भारी आघात लगा ।

इसी की प्रेरणा से 1802 ई. में कारखानों में बच्चों को काम पर लगाने पर रोक लगा दी गयी, लेकिन कानून को लागू करने में ढिलाई रही । इस कारण 1833 ई. में एक प्रभावी फैक्टरी ऐक्ट पारित किया गया ।

इसके अनुसार सूती मिलों में नौ वर्ष से कम उम्र के बच्चों को नियुक्त करना वर्जित कर दिया गया तथा नौ से बारह वर्ष तक की आयु के बच्चों से सप्ताह में चालीस घंटे से अधिक काम न कराने का प्रावधान किया गया ।

औद्योगिक क्रान्ति के दूरगामी लाभों से इनकार नहीं किया जा सकता । साथ ही, उसके प्रारम्भिक चरण में मानव को निर्मम तथा प्राणान्तक शोषण के रूप में भारी मूल्य चुकाना पड़ा, यह भी स्मरण रखना चाहिए ।

इंगलैण्ड के मेहनतकश लोगों के लिये औद्योगिक क्रान्ति का दौर सचमुच बड़ा ही कठोर एवं कटु अनुभव लेकर आया था । किन्तु, यह भी नहीं भूलना होगा कि शहरों तथा कारखानों में कर्मियों के बड़ी संख्या में एक साथ रहने के फलस्वरूप उनकी स्थिति में सुधार का मार्ग भी प्रशस्त हुआ ।

शहर में रहने से उन्हें दुनिया देखने का मौका मिला तथा अपनी हीनता एवं दुर्दशा का बोध हुआ । एक-दूसरे से मिलने-जुलने, दुःख-सुख में सहभागी होने से भाईचारे की भावना जगी, वर्ग-चेतना आयी तथा वर्गहितों का ज्ञान हुआ ।

सभी मेहनतकश लोगों का राजनैतिक लक्ष्य एक ही होना चाहिए, ऐसा महसूस करने का माहौल बना । कालान्तर में कारखाना-कर्मी संगठित हुए, संघों की स्थापना हुई तथा संघर्ष करके राष्ट्रीय आय का वृहत्तर हिस्सा हासिल करने की दिशा में प्रगति के चरण उठे ।

ii. सामाजिक वर्ग-संरचना पर प्रभाव:

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप यूरोपीय समाज की वर्ग-संरचना में परिवर्तन हुआ । इससे राजनीति में नये आयाम आये तथा नयी सामाजिक शक्तियाँ सक्रिय हुयी । नेपोलियन की पराजय के उपरान्त फ्रांस में पुरानी व्यवस्था फिर सत्तारूढ़ हुई थी तथा अन्य देशों में भी नयी प्रगतिशील शक्तियों को भारी धक्का लगा था । किन्तु, उन्नीसवीं सदी के चौथे तथा पाँचवें दशकों में अभिजातवर्ग को पुन: चुनौती दी जाने लगी ।

इस बार उन्हें चुनौती देनेवाले थे बुर्जुआवर्ग के लोग, जो परम्परागत शासकवर्ग से बराबर के दर्जे के अतिरिक्त देश की राजनीति तथा शासन-तंत्र में भी अपना हिस्सा माँग रहे थे ।

इनकी ताकत सबसे अधिक थी, इंगलैण्ड, फ्रांस तथा हॉलैण्ड व बेल्जियम में । इन देशों में राज्य के शासनतंत्र पर नियन्त्रण स्थापित करने में इन्हें कामयाबी मिली । यूरोप के अन्य क्षेत्रों, राज्यों, रजवाड़ों में 1848 ई. की क्रान्तियाँ इसी वर्ग द्वारा सत्ता का सूत्र अपने हाथों में लेने के प्रयास में हुई थीं ।

इन प्रयासों में इन्हें नरेशों तथा पुराने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु जमाने की रफ्तार इनके पक्ष में थी । शक्ति-सत्ता की इनकी माँग दुर्दमनीय थी ।

कालक्रम में यूरोप के लगभग हर राजा-महाराजा तथा शासनाधीश को इस नवोदित वर्ग से सुलह-समझौता करना पड़ा । इसके लिये कहीं राजनैतिक प्रतिनिधित्व के अधिकार दिये गये, कहीं उनके बुनियादी आर्थिक हितों के लिए अनुक्त कानून बनाये गये ।

बुर्जुआवर्ग ने अभिजातवर्ग पर केवल अपने ही बल पर विजय हासिल नहीं की । उसकी शक्ति बहुत-कुछ उन मेहनतकश लोगों पर आधृत थी, जिन्हें हम औद्योगिक क्रांति की सन्तान कह सकते हैं ।

इन लाखों-करोड़ों लोगों के समर्थन के बिना बुर्जुआवर्ग को अभिजात वर्ग से अपने संघर्ष में कामयाबी नहीं मिल सकती थी । 1830 तथा 1848 ई. की क्रांतियों के दौरान मेहनतकश जनता बुर्जुआवर्ग के साथ कन्धे-से-कन्या मिलाकर संघर्ष कर रही थी ।

किन्तु, ज्योंही अभिजातवर्ग के हाथों से सत्ता छीनने में बुर्जुआवर्ग को सफलता मिली, तथा उद्योगपति एवं महाजनों की शक्ति तथा सत्ता के गढ़ पर कब्जा हो गया, मेहनतकश कर्मी लोगों के साथ इनके सम्बन्धों में परिवर्तन होने लगा ।

अब यही लोग यथावत स्थिति के प्रहरी हो गये । परम्परागत सत्ताधीशों को हराकर जो सुविधाएँ उन्होंने हासिल की थीं, उनमें रंचमात्र भी सहभागिता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी ।

स्वभावत: अब सुविधा एवं सत्ता के लिए संघर्ष कर्मीवर्ग को करना था । समाजवादी पार्टियों अथवा श्रमिक संघों के नेतृत्व में यह संघर्ष शीघ्र शुरू हो गया ।

iii. औद्योगिक क्रांति और साम्राज्यवाद:

औद्योगिक क्रांति के कारण यूरोप में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ स्थापित हुयीं जिनमें बृहत् पैमाने पर उत्पादन-कार्य होने लगा । इन उत्पादित मालों की खपत अपने देश में होना असम्मव था ।

फिर, माल तैयार करने के लिये कच्चे माल की जरूरत थी और यह यूरोप से बाहर ही उपलब्ध था । अतएव, प्रत्येक औद्योगिक देश अपने पक्के माल की खपत के लिए तथा कच्चे माल की प्राप्ति के लिए उपनिवेश-स्थापना की होड़ में शामिल हो गया ।

इस प्रकार, औद्योगिक क्रांति ने साम्राज्यवाद को प्रोत्साहन दिया जिसके शिकार एशिया, अफ्रीका, अमेरिका के देश हुये । अधीनस्थ उपनिवेशों के शोषण का क्रम शुरू हुआ और उपनिवेशों पर विपत्ति के बादल टूट पड़े । इससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव बढ़ा और विश्वयुद्धों की पृष्ठभूमि बनने लगी ।

iv. नवीन राजनैतिक विचारधाराओं का उदय:

औद्योगिक क्रांति ने कुछ महत्वपूर्ण राजनैतिक विचारधाराओं को जन्म दिया और उन्हें विकसित किया । इनमें ‘लैसेज फेयर’ या आर्थिक उन्मुक्तवाद एक था । इसके अनुसार इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया कि आर्थिक कार्यकलापों में सरकार का किसी तरह हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए और पूंजीपतियों को पूरी स्वतन्त्रता रहनी चाहिए ।

v. ‘लैसेज फेयर’ सिद्धांत का उदय:

नये मिल-मालिक (इन्हें ‘कॉट्न लॉर्ड्स’ कहा जाता था) वास्तव में पहले औद्योगिक पूँजीपति थे । इन्होंने सम्पदा, प्रतिष्ठा तथा प्रभाव स्वयं अपनी सूझ-बूझ, दूरदर्शिता एवं अध्यवसाय से अर्जित की थी ।

ये लोग ज्यादा शान-शौकत या दिखावे में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन रहते आराम से थे । इन्हें हर साल जो आमदनी होती थी, उसमें से कुछ बचाकर अपने कारखानों का विस्तार करते तथा मशीनें बढ़ाते अथवा उनमें सुधार करते थे ।

ये लोग स्वयं कठोर परिश्रम करनेवाले होते थे । इनकी धारणा थी कि जमींदार-जागीरदार अर्थात पुराने अभिजात आरामतलब और अकर्मण्य होते हैं, तथा कर्मी सर्वहारा आलसी ।

ये लोग आम तौर पर ईमानदार होते थे, पैसा बनाने में इन्हें साधन के अच्छे-बुरे होने की चिन्ता नहीं होती थी । वैसे कानून के दायरे का अतिक्रमण ये प्राय: नहीं करते थे । इन्हें कठोर या हृदयहीन नहीं कहा जा सकता ।

इनकी यह पक्की धारणा थी कि ‘गरीब’ लोगों को काम देकर तथा उनसे उपयोगी काम कराकर ये उन पर अनुग्रह करते थे । अधिकतर उद्योगपति अपने काम कराने पर किसी तरह की पाबन्दी नापसन्द करते थे ।

यद्यपि कुछ लोग बच्चों से अतिशय काम लेने जैसे अनुचित या अमानवीय तरीकों का इस्तेमाल करके अनुचित प्रतियोगिता के कारण ऐसी पाबन्दियों का समर्थन भी करते थे, जिनमें सभी औद्योगिक उत्पादक समान ढंग से काम करा सकें ।

रॉबर्ट पील नामक एक कपास उद्योग के मिल-मालिक ने ही 1802 ई. में पहला फैक्टरी कानून ब्रिटिश संसद में पारित कराया था । इस कानून में अनाथ या कंगाल बच्चों के सूती मिलों में काम पर लगाये जाने का नियमन करने का प्रावधान था ।

किन्तु, इसमें कारखाना-अधीक्षकों की पर्याप्त व्यवस्था न होने से शुरू से ही इसका कार्यान्वयन शिथिल या न के बराबर रहा । उन दिनों यूरोप में ब्रिटेन ही एकमात्र ऐसा देश था, जहाँ प्रशिक्षित तथा वेतनभोगी प्रशासन अधिकारी नहीं हुआ करते थे ।

वहाँ स्थानीय स्वशासन तथा स्थानीय लोगों के पहल में आम तौर पर इतना विश्वास किया जाता था कि वेतनभोगी पेशेवर शासन अधिकारियों की जरूरत भी महसूस नहीं की जाती थी ।

फलत: कारखानों के निजी मामलों के अधीक्षण हेतु सरकारी अधिकारी नियुक्त करना अन्य यूरोपीय देशों में प्रचलित व्यवस्था का अनुकरण करनेवाला अनावश्यक प्रशासनिक हस्तक्षेप माना जाता था ।

आर्थिक नियमन के परम्परागत तरीके नये औद्योगिक दौर में प्रभावहीन हो रहे थे । इस आधार पर लोग नियमन की प्रणाली को ही बेकार समझने लगे थे । नवीन उद्योगपति अपने काम-धाम में पूर्ण अहस्तक्षेप पसन्द करता था ।

उसकी सूझ-बूझ या फैसलों में हस्तक्षेप हो, इसके वह सर्वथा विरुद्ध था । वह यह मानता था कि यदि उसे अपने तरीके से, बिना किसी हस्तक्षेप के काम करने दिया जाये तो इससे देश का अधिक हित होगा ।

उन दिनों इंगलैण्ड में इस धारणा को पुष्ट करनेवाले राजनैतिक चिन्तन की हवा भी बहनी शुरू हुई थी । 1776 ई. में एडम स्मिथ की युगान्तकारी पुस्तक ‘वेल्थ आफ नेशन्स’ प्रकाशित हुई ।

इस पुस्तक में वाणिज्यवाद की नियामक तथा एकाधिकारपरक अवधारणाओं की आलोचना की गयी तथा उन्हें तत्कालीन आर्थिक माहौल के लिए अप्रासंगिक बताया गया । अपनी पुस्तक में एडम स्मिथ ने इस बात पर बल दिया था कि उत्पादन तथा विनिमय के कुछ ‘प्राकृतिक विधान’ होते हैं; इन्हें अपना कार्य करने देना चाहिए ।

एडम स्मिथ के उपरान्त टॉमस माल्थस, डेविड रिकार्डो एवं कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों (इन्हें तथाकथित ‘मैनचेस्टर स्कूल’ का चिन्तक कहा जाता था) की पुस्तकें अथवा लेख प्रकाशित हुए । इनकी अर्थशास्त्रीय स्थापनाओं को मोटे तौर से शास्त्रीय अर्थशास्त्र कहा गया है ।

इन सिद्धांतों को इनके विरोधी ‘लैसेज फेयर’ कहते हैं । क्लासिकल अर्थशास्त्रियों की बुनियादी स्थापना के अनुसार आर्थिक सम्बन्धों तथा क्रियाकलापों की शासनवत एवं राजनीति से पृथक् अपनी अलग दुनिया होती है । आर्थिक संबंधों की यह दुनिया कतिपय बुनियादी प्राकृतिक विधानों से नियमित होती है; मिसाल के तौर पर माँग एवं पूर्ति के नियम ।

उन्होंने अन्य कई स्थापनाएँ प्रतिपादित कीं, यथा हर आदमी को अपने स्वहित के अनुसार काम करना चाहिए, क्योंकि आदमी अपना हित खुद ही जितना जान सकता है, दूसरा नहीं । हर व्यक्ति के कल्याण का कुल जमा ही आम लोगों का कल्याण तथा आजादी होगा ।

आर्थिक क्षेत्र में सरकार की भूमिका यथासंभव कम-से-कम होनी चाहिए । शासनतंत्र का दायरा जान और माल की सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, न्यायालय आदि तक ही सीमित रहना चाहिए, जिसमें निजी संविदाएँ, वित्तीय लेन-देन आदि की शर्तें, कानूनी जिम्मेवारियाँ आदि पूरी करने में किसी की ओर से व्यवधान नहीं हो ।

केवल व्यवसाय ही नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य व्यक्तिगत मामलों में शासनतंत्र को दखल देने की कोई जरूरत नहीं । इन मामलों में निजी पहल ही ज्यादा कारगर होती है ।

शास्त्रीय अर्थशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्दर्भ में चुंगी तथा संरक्षण के अलावा किसी तरह की सरकारी दखलन्दाजी का विरोध करते थे । वे उन्मुक्त व्यापार के कट्टर समर्थक थे ।

वे कहते थे, आर्थिक कारोबार सारी दुनिया में चलते रहते हैं तथा घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं । राष्ट्रों या राज्यों के मतभेद, या राजनैतिक सीमांकनों से आर्थिक शक्तियाँ खंडित नहीं होतीं ।

शास्त्रीय अर्थशास्त्र मेहनतकश कर्मियों के लिए सबसे अधिक कठोर था । शास्त्रीय अर्थशास्त्री यह उद्घोषित करते थे कि श्रमजीवियों को उतनी ही मजदूरी दी जानी चाहिए, जितने में वे निम्नतम व्यय पर जीवन-यापन कर सकें ।

इस सन्दर्भ में उनकी अवधारणा को ‘पारिश्रमिक का लौह कानून’ (आइरन ली ऑफ वेजेज) का नाम दिया गया । इस अवधारणा के अनुसार मेहनतकश लोगों को मात्र जीवन-यापन के लिए पारिश्रमिक मिले, इसमें वृद्धि होने से वे ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, जिससे वे पहले जैसे ही गरीब बने रहते हैं ।

मेहनतकश वर्ग को अपनी अवस्था से असन्तुष्ट होकर अर्थव्यवस्था को बदलने की बात नहीं सोचनी चाहिए, क्योंकि यह (व्यवस्था) प्रकृति का विधान है, और दूसरी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती ।

औद्योगिक क्रान्ति के चरण पूरी गति के साथ बढ़ते जा रहे थे । ब्रिटेन उन दिनों मशीनी औद्योगिक दुनिया का केन्द्र था । वाटरलू के बाद वह दुनिया का कर्मशाला कारखाना बन गया ।

वाष्प-शक्ति का उपयोग करनेवाली फैक्ट्रियाँ फ्रांस, बेल्जियम, अमेरिका तथा अन्यत्र खुल रही थीं । किन्तु, 1860 ई. के पहले तक औद्योगिक उत्पादन में ब्रिटेन का कोई मुकाबला नहीं था । वस्त्र उद्योग तथा मशीनी पुर्जों के उत्पादन में उसका एकाधिकार-सा बना रहा ।

इंगलैण्ड के मध्यवर्ती जिलों तथा स्कॉटलैण्ड के औद्योगिक केन्द्रों से सूती वस्त्र, वाष्प-चालित इंजन आदि सारी दुनिया में निर्यातित होते थे । ब्रिटिश पूँजी देश-देशान्तर में पहुँच रही थी, नये-नये व्यवसाय खोलने में पहल कर रही थी ।

लंदन दुनिया का वित्तीय केन्द्र बन गया था । अपने-अपने देश को आगे बढ़ाने के हामी लोग ब्रिटेन की ओर आदर्श के लिये देखते थे । ब्रिटेन के औद्योगिक तरीके तथा संसदीय व्यवस्था दुनियाभर के अनुकरण हेतु एक नमूना बन गयी थी ।