Read this article in Hindi to learn about the causes of first Carnatic war in India and its consequences.

कोरोमंडल समुद्रतट और इसके पीछे की भूमि को यूरोपियनों ने कर्णाटक का नाम दिया है । यहाँ करीब बीस वर्षों तक फांसीसियों और अंग्रेजों के बीच लंबा संघर्ष चलता रहा, जिसके फलस्वरूप भारत में फ्रांसीसी शक्ति अंतिम रूप में टूट गयी । इसकी प्रतिक्रिया बंगाल में भी हुई, जिसने अनपेक्षित और महत्वपूर्ण परिणाम उपस्थित किये ।

बाद की घटनाओं पर विचार करने पर हम यह उचित तौर से कह सकते हैं कि इस संघर्ष ने सदा के लिए इसका निर्णय कर दिया कि अंग्रेज ही भारत के स्वामी होंगे, फ्रांसीसी नहीं । इन कारणों से कर्णाटक-युद्ध ने इतिहास में इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली है, जिसका पूरा समर्थन न तो तात्कालिक समस्याओं से (जिनके लिए युद्ध लड़ा गया) होता है, न स्वयं युद्ध की घटनाओं से ।

संघर्ष की प्रकृति को पूरी तरह समझने के लिए हमें न केवल भारत में अंग्रेजी फ्रांसीसी कंपनियों की स्थिति और यूरोप में दोनों राष्ट्रों के सम्बन्धों को ध्यान में रखना पड़ेगा, बल्कि दक्कन की तात्कालिक राजनीतिक अवस्था और अंग्रेजी एवं फ्रांसीसी सौदागरों के साथ स्थानीय भारतीय शक्तियों के कुछ अनिश्चित-से सम्बन्ध पर भी ध्यान देना पड़ेगा ।

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व्यापार के विशेषाधिकार के लिए किये गये छोटे संघर्ष से मुरालों के साम्राज्य की प्राप्ति के निमित्त साहसपूर्ण चेष्टा के रूप में घटनायें ज्यों-ज्यों दिकसित होती गयीं, त्यों-त्यों उपर्युक्त सभी महत्वपूर्ण बातों ने उनपर प्रभाव डाला ।

मद्रास और पांडिचेरी कोरोमंडल समुद्रतट पर अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मुख्य व्यापारिक स्थान थे । इनमें से प्रत्येक एक किलाबंद शहर था, जिसमें करीब पाँच सौ यूरोपियन और पचीस हजार भारतीय रहते थे । अंग्रेज मद्रास के अतिरिक्त सेंट डेविड के किले के भी स्वामी थे, जो पांडिचेरी के कुछ दक्षिण में स्थित था ।

तीनों शहर समुद्र-तट पर थे तथा अपनी सुरक्षा और स्वदेश से साधनों की नयी आपूर्ति के लिए समुद्र के आधिपत्य पर निर्भर थे । सच पूछिए, तो प्रारंभ में यह पहलू पूरे तौर पर महसूस नहीं किया गया । किंतु इसका महत्व धीरे-धीरे प्रकट होने लगा । स्थानीय अधिकारियों के पास जंगी जहाजों का बेड़ा न था ।

इसलिए उनके मुकाबले में अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों समुद्र पर आधिपत्य की दृष्टि से अधिक सुविधाजनक स्थिति में हो गये, और तब अंत में दोनों यूरोपीय कम्पनियों के संधर्ष की सफलता इस बात पर निर्भर हो चली कि इन दोनों में कौन समुद्र पर आधिपत्य रखने में समर्थ है ।

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स्थानीय भारतीय अधिकारियों के पास जंगी जहाजों का बेड़ा तो नहीं ही था, साथ ही उनकी हालत ऐसी थी कि शीघ्र ही वे महत्वपूर्ण स्थल-शक्तियों के रूप में गिने जाने लायक भी न रहे । राजनीतिक रूप में कर्णाटक की अवस्था बहुत अनिश्चित थी । यह दक्कन के सूबेदार के अधीन एक प्रांत था । इसका शासन एक प्रांतपति (गवर्नर) करता था, जो नवाब कहलाता था । उसकी राजधानी अरकाट में थी ।

जिस प्रकार दक्कन के सूवेदार निजामुलमुल्क ने व्यावहारिक तौर पर अपने को स्वतंत्र बना लिया था, उसी प्रकार अरकाट का नवाब भी अपनी ओर से एक स्वतंत्र सुलतान-जैसा बर्ताव करने लगा । उसका नाममात्र का अधिपति निजाम मराठों और उत्तरी भारत के कार्यों में इस कदर फँसा हुआ था कि वह कर्णाटक के कार्यों में अपना दबदबा स्थापित नहीं कर सकता था । हाँ, कभी-कभी वह कुछ समय और शक्ति बचाकर उस दक्षिणी प्रांत से हो भर आता था ।

एक ऐसा मौका १७४३ ई॰ के प्रारंभ में आया । तीन वर्ष पहले मराठों ने कर्णाटक को लूटा था, इसके प्रांतपति नवाब दोस्त अली को मार डाला था तथा उसके दामाद चंदा साहब को बंदी बनाकर सतारा ले गये थे ।

दोस्त अली के पुत्र सफदर अली ने मराठों को एक करोड़ रुपये देने का वादा करके अपने जीवन और राज्य की रक्षा की । लेकिन तुरंत ही उसके एक चचेरे भाई द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी तथा उसका (सफदर अली का) अल्पवयस्क पुत्र नवाब घोषित हुआ ।

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इन सब घटनाओं से कर्णाटक में आतंक और अनिश्चितता की भावना उत्पन्न हो गयी । फलस्वरूप निज़ाम ने स्वयं वहाँ जाकर व्यवस्था की पुन: स्थापना करने का विचार किया । फिर भी उस संकटग्रस्त क्षेत्र में शांति स्थापित करना उसके बूते के बाहर की बात थी । यद्यपि उसने एक परीक्षित कर्मचारी अनवरुद्दीन खाँ को कर्णाटक का नवाब नियुक्त किया, तथापि बातें पहले के समान ही बिगड़ती चली गयी ।

नये नवाब की नियुक्ति से बातें बदतर हो उठा, क्योंकि नवाव दोस्त अली के संबंधियों द्वारा, जो अभी भी बहुत किलो और विकृत जागीरों के मालिक थे वह अवश्य ही अनाधिकार प्रवेश करनेवाला और प्रतिद्वंद्वी माना जानेवाला था ।

इधर, जब कि समस्त कर्णाटक में इन राजनीतिक घटनाओं के द्वारा खलबली मची हुई थी, अंग्रेज और फ्रांसीसी बस्तियां तिजारत के अपने शांतिपूर्ण धंधों में लगी हुई थीं नया उपर्युक्त लड़नेवाले दलों में से कोई भी उनपर किसी प्रकार का जोरदार: रुकावट न डालता था ।

अभी तक फ्रांसीसियों और अंग्रेजों ने भारतीय राजनीति में सक्रिय नाग लेना प्रारंभ नहीं किया था वे इसमें तभी भाग लेते थे जब कि उनके व्यपारिक स्वार्थों पर सीधा असर पड़ता था । स्थानीय अधिकारी भी उन्हें इतने यथेष्ठ महत्व का न मानते थे कि गंभीरतापूर्वक उनकी गिनती करें । इस प्रकार, अगर उन्हीं पर छोड़ दिया जाना तो वे अपने साधारण धंधों में लगे हुए समय बिताते चलते तथा उनके आसपास होनेवाली घटनाओं का उनपर कुछ भी असर न पड़ता ।

लेकिन यह नहीं होना था । १७४० ई॰ में इंगलैंड एक यूरोपीय युद्ध में फँस गया, जिसे आस्ट्रियाइ उत्तराधिकार का युद्ध (१७४०-१७४८ ई॰) कहते है । यहाँ उस युद्ध के उद्गम या विकास पर विचार करना आवश्यक नहीं है इतना ही कहना काफी होगा कि इंगलैंड और फ्रांस ने विरोधी पक्ष लिये तथा करीब आठ वर्षों तक नेदरलैंड्‌स इंगलैंड और फ्रांस के बीच युद्ध छिड़ जाने से भारत की दोनों व्यापारिक कंपनियां भी कानूनी तौर पर युद्ध की स्थिति में हो गयी ।

लेकिन यूरोप और भारत दोनों भूभागों के फ्रांसीसी अधिकारियों ने प्रारंभ में इस देश में तटस्थता बरतने की भरसक कोशिश की । ऐसा पहले भी हो चुका था । पांडिचेरी के गवर्नर गूले ने भारत में स्थित अंग्रेज अधिकारियों से इस काम के लिए सीधे बातचीत शुरू कर दी ।

लेकिन इंगलैंड के अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । इसलिए भारत में स्थित उनके प्रतिनिधि लड़ाई न चाहने पर भी तटस्थता की गारंटी देने में असमर्थ थे । समुद्रों में यह बात विशेष रूप से लागू थी, क्योंकि वहाँ इंगलैंड के राजा (हिज मैजेस्टी) के जहाजों पर उनका कोई नियंत्रण न था ।

बार्नेट के अधीन अंग्रेजी जलसेना द्वारा फ्रांसीसी जहाजों पर कब्जा कर लिये जाने पर वस्तुत: लड़ाई छिड़ गयी । भारतीय समुद्रों में फ्रांसीसियों का जहाजी बेड़ा न था । इसलिए द्यूप्ले ने मौरिशस के गवर्नर ला बूर्दने के पास सहायता के लिए अत्यावश्यक प्रार्थना भिजवायी । काफी कठिनाई के वाद ला बूर्दनै ने एक छोटा जहाजी बेड़ा तैयार कराया तथा आठ जहाजों के साथ भारती य समुद्रों में पहुंच गया ।

ला बुर्दने के पहुँचने से युद्ध की गति बदल गयी । अंग्रेजी जहाजों का नायक फांसी- सियों से डटकर मुकाबला करने में या तो अनिच्छुक था या असमर्थ था । वह जलमार्ग से हुगली चला गया तथा समस्त मद्रास समुद्र-तट को फ्रांसीसी बेड़े की मर्जी पर छोड़ दिया ।

फ़्रांसीसियों ने अब स्थल और समुद्र दोनों तरफ से मद्रास पर घेरा डाल दिया । अंग्रेजी पक्ष के छ: व्यक्ति मारे गये । केवल इतनी ही क्षति के बाद एक सप्ताह के भीतर मद्रास ने आत्म-समर्पण कर दिया । अब तक अंग्रेजों ने स्थल या समुद्र पर फ्रांसीसियों से लड़ने में आश्चर्यजनक अयोग्यता दिखलायी थी । ऐसा मालूम पड़ता था कि विजयलक्ष्मी गूले के ही हाथ पड़ेगी ।

लेकिन इस युद्ध की सबसे आश्चर्यजनक घटना का होना अभी बाकी था । यह लड़ाई कर्णाटक के नव-नियुक्त नवाब अनवरुद्दीन के राज्य में लड़ी जा रही थी । नवाब इस लड़ाई का मौन दर्शक न था; उस भूभाग के शासक की हैसियत से वह नाममात्र का ही सही, मगर अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों का रक्षक था ।

जब जरूरत पड़ती थी तब ये दोनों खुले तौर पर इस स्थिति को स्वीकार भी करते थे । इस प्रकार, जब लड़ाई छिड़ने पर अंग्रेज समुद्र में सर्वशक्ति संपन्न थे तब द्यूप्ले ने नवाब से फ्रांसीसी जहाजों की रक्षा की प्रार्थना की । मगर अंग्रेजों ने उसके अधिकार का सम्मान नहीं किया तथा उसके प्रतिवादों और शिकायतों पर कोई ध्यान न दिया ।

लेकिन जब मद्रास फ्रांसीसियों द्वारा घिर गया तब अंग्रेजों ने अपनी बारी आने पर नवाब का संरक्षण चाहा । अनवरुद्दीन अपने संरक्षक के पद रहे प्रति वफादार था । उसने द्यूप्ले से मद्रास का घेरा उठा लेने को कहा । लेकिन जब अग्रेजों का काम उसके अधिकार का सम्मान न करने से चल ही गया था तब फ्रांसीसी भी भला क्यों उसकी बात मानने लगे, जबकि बात मानने से उनका कोई फायदा न था ?

फिर भी एक भारी अंतर था । नवाब के पास जलसेना न थी । अतएव वह जलसेना संबंधी कार्यों में सक्रिय रूप में हस्तक्षेप करने में असमर्थ था । स्थल-युद्ध के संबंध में बात बिल्कुल भिन्न थी, क्योंकि यहाँ नवाब अपनी माँग को सेना के सहारे मनवाने के लिए इच्छुक था तथा उसे सफलता का भरोसा था ।

द्यूप्ले यह जानता था तथा उसने कूटनीति द्वारा उसे चुप करने का प्रयत्न किया । उसने नवाब से कहा कि मैं मद्रास को आपके हाथों में देने के लिए ही ले रहा हूँ । लेकिने नवाब चालाक था । उसने इस बात पर विश्वास नहीं किया । जब उसके बार-बार चेतावनी देने का कोई परिणाम न निकला तब उसने मद्रास पर घेरा डालनेवाली फ्रांसीसी सेना के विरुद्ध एक फौज भेज दी ।

यदि मद्रास में अंग्रेज कुछ भी अधिक समय तक प्रतिरोध करते रहते तो फ्रांसीसी दोनों तरफ से घिर जाते । मगर हुआ यह कि नवाब की फौज ने फ्रांसीसियों को शहर: पर कब्जा किये हुए पाया तथा उन्हें घेर लिया । लेकिन छोटी होने पर भी दुर्गावरुद्ध फ्रांसीसी सेना अवरोधकों पर टूट पड़ी तथा नवाब की विशाल फौज को तितर-बितर कर दिया । नवाब की फौज सेंट थोमी को लौटने को लाचार हो गयी ।

इसी समय फ्रांसीसी सेना की एक टुकड़ी मद्रास में घिरे फ्रांसीसियों की सहायता के लिए बड़ी आ रही थी, जिसने नवाब की फौज को फिर हरा डाला । नवाब की फौज की पराजय के गहरे परिणाम हुए, जिनपर उचित स्थान पर विचार किया जाएगा ।

कुछ समय के लिए फ्रांसीसियों की सफलता पूर्ण जान पड़ी तथा उनके भौतिक लाभ और प्रतिष्ठा-वृद्धि उनकी उच्चतम महत्वाकांक्षाओं से भी आगे बढ़ती हुई मालूम पड़ी । लेकिन यह अत्यधिक सफलता अपने साथ बैर और फूट ले आयी । ला बूर्दने ने उपयुक्त धन के बदले मद्रास लौटा देने का वादा कर रखा था । किंतु द्यूप्ले इस नीति के बहुत विरुद्ध था । एक लम्बे झगड़े के बाद द्यूप्ले उसकी बात मानने को उद्यत मालूम पड़ा ।

इसी समय एक भीषण आँधी ने फ्रांसीसी बेड़े को बहुत क्षति. पहुँचायी तथा ला बूर्दने को अपने जहाजों के साथ भारतीय समुद्रों से हट जाने को लाचार कर दिया । द्यूप्ले ने अब विधिवत् उस संधि के अंत की घोषणा कर दी जिसे ला बूर्दने ने मद्रास की कौंसिल के साथ की थी तथा मद्रास को “ऊपर से नीचे तक” लूटा ।

लेकिन उसकी नीति की सफलता महंगी पड़ी । ला बूर्दने के जाते द्दी अंग्रेजों ने समुद्र पर आधिपत्य प्राप्त कर लिया । इस परिवर्तन का पहला परिणाम यह हुआ कि अठारह महीनों के लंबे घेरे के बावजूद द्यूप्ले फोर्ट सेंट डेविड (सेंट डविडे के किले) को लेने में असफल रहा ।

मद्रास की पराजय का बदला लेने के लिए जून, १७४८ ई॰ में रियर-ऐडमिरल बोस्कावेन के अधीन एक जहाजी बेड़ा इंगलैड से भेजा गया । अब अंग्रेजों ने अपनी बारी आने पर स्थल और समुद्र दोनों ओर से पांडिचेरी को घेर लिया । भाग्यलक्ष्मी इस बार भी द्यूप्ले से प्रसन्न थी ।

अवरोधक सेना की रणकुशलता के अभाव ने गडिचेरी को बचा लिया तथा मानसून (मौसिमी वर्षा) के आने पर अक्टूबर में बोस्कावेन धेज उठा बेने को लाचार हो गया । उसके पुन: घेरा डालने के पहले ही आस्ट्रियाई उत्तरधिकार का युद्ध एलाशपल की संधि (१७४८ ई॰) द्वारा समाप्त हो चला था ।

संधि के शर्तों के अनुसार मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया तथा बोस्कावेन जलमार्ग से यूरोप लौट गया । इस प्रकार संघर्ष की पहली अवस्था समाप्त हुई, जिसमें किसी पक्ष को राज्य सम्बन्धी कोई लाभ न हुआ ।