राजा राम मोहन रॉय द्वारा सामाजिक सुधार | Social Reforms by Raja Ram Mohan Roy.

राजनीतिक खलबलियों और आर्थिक अध:पतन के बावजूद भारत में ब्रिटिश शासन की पहली सदी (१७५७-१८५८ ई॰) कुछ रूपों में उसके इतिहास का एक स्मरणीय युग है । इस काल में भारत में बौद्धिक क्रियाशीलता का अपूर्व स्फोटन हुआ तथा उसके सामाजिक और धार्मिक विचारों में मौलिक रूपान्तर हुआ ।

इन परिवर्तनों के लिए प्रेरणा अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश से मिली । इसी मार्ग से पश्चिम के उदार विचार आये जिन्होंने लोगों को दोलित किया तथा उन्हें, युग-युगांतर की निद्रा से जगाया । इस नवीन जाग्रति की विशेषताएँ थीं भूत के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा भविष्य के लिए नवीन उच्चाकांक्षाएँ ।

श्रद्धा और विश्वास की जगह तर्क ठगर निर्णय ने ले ली अंधविश्वास ने विज्ञान के आगे घुटने टेक दिये निश्चलता का स्थान प्रगति ने लिया तथा प्रत्यक्ष बुराइयों के सुधारार्थ उत्साह ने युगों से आती हुई उदासीनता, तंद्रा और समाज में प्रचलित चीजों के प्रति आत्म-तुष्ट, मौन संमति पर विजय पायी । शास्त्रों का पुराना अर्थ आलोचनात्मक परीक्षण के वशीभूत हुआ तथा नैतिकता और धर्म की नवीन धारणाओं ने कट्टर विश्वासों एवं अभ्यासों को नया रूप दिया ।

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इस महान् परिवर्तन ने प्रारंभ में एक छोटे जन-समूह को ही प्रभावित किया । किन्तु धीरे-धीरे विचार अधिकाधिक लोगों तक फैल गये तथा अंत में उनका प्रभाव कम या अधिक मात्रा में जनता तक पहुँच गया । इस युग की नवीन चेतना (भावना) राजा राममोहन राय के जीवन-चरित द्वारा असाधारण रूप से व्यक्त होती है । उनका व्यक्तित्व अपूर्व था । उनकी मृत्यु (१८३३ ई॰) की शताब्दी १९३३ ई॰ में संपूर्ण भारत में मनायी गयी थी ।

राजा ने अपनी सुधारवादी क्रियाशीलता ईश्वर की एकता का प्रचार कर तथा अनेक देवताओं में हिन्दुओं के प्रचलित विश्वास एवं विस्तृत कर्मकांड के साथ उनकी मूर्तियों की पूजा का विरोध कर प्रारम्भ की ।

उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि उनके विचार हिन्दुओं के प्राचीन एवं सच्चे धर्मग्रंथों के अनुसार थे तथा उनसे आधुनिक व्यतिक्रम पीछे के युग के अंधविश्वासों के कारण हैं और उनके पीछे कोई नैतिक एवं धार्मिक स्वीकृति नहीं है । राममोहन के विचारों ने हिन्दू समाज को इसकी गहराइयों तक मथ डाला तथा कटु विवाद चल निकले ।

राममोहन ने अपने प्रतिपाद्य विषय की प्रतिरक्षा करने के लिए प्राचीन धर्मग्रंथों के बंगला अनुवाद प्रकाशित किये । उन्होंने बड़ी संख्या में बंगाल पुस्तिकाएँ प्रकाशित कीं तथा इस प्रकार करीब-करीब अकेले ही संघर्ष जारी रखा । अपने जीवन के अंत में १८२८ ई॰ में उन्होंने अपने धार्मिक विचारों के आगे बढ़ाने के लिए एक संगठन कायम किया ।

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यह संगठन अंत में ब्रह्म समाज के रूप में विकसित हुआ । उनकी चेष्टा का एक परोक्ष परिणाम यह हुआ कि बंगला गद्य साहित्य एवं बंगला पत्रकारिता के विकास को प्रेरणा मिली । राममोहन अंग्रेजी शिक्षा के महान् पथ-परिष्कारक थे । उन्होंने न केवल स्वयं इस उद्देश्य से संस्थाएं कायम कीं, बल्कि जो अन्य भी ऐसी चेष्टा करते थे उनकी सदैव सहायता करते थे ।

राममोहन की सुधारवादी क्रियाशीलता हिन्दू समाज की सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध भी थी । इनमें जात-पाँत की कठोरता और स्त्रियों की अपमानजनक स्थिति उल्लेखनीय हैं । उन्होंने कई तरीकों से असहाय विधवाओं की हालत सुधारने की चेष्टा भी की । इन तरीकों में दो उल्लेखनीय हैं ।

उन्होंने स्त्रियों के संबंध में उत्तराधिकार के हिन्दू कानूनों को बदलवाया तथा उन्हें उचित शिक्षा दी । वे बहुविवाह एवं बंगाल की सामाजिक प्रथा की दूसरी विविध बुराइयों के विरुद्ध थे ।

उन्होंने विशेष परिस्थितियों में विधवाओं के पुनर्विवाह की भी वकालत की । उन्होंने स्त्रीत्व एवं मनुष्य के उसके प्रति कर्त्तव्य के संबंध में अपने जिन आदर्शों का प्रचार विविध पुस्तिकाओं में जोरदार भाषा में किया था, वे उनके युग के कहीं आगे थे तथा भारत के स्वर्णिम युग की स्मृतियों से प्रेरित हुए थे ।

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मोटे तौर पर उन्होंने स्त्रियों के पक्ष का समर्थन कर तथा जात-पाँत के नियमों की कठोरताओं की भर्त्सना कर भारत में सामाजिक सुधार की सच्ची नाड़ी को पहचाना । तब से सभी सामाजिक सुधार इन्हीं दो मुख्य रास्तों से चले हैं । भारतीय राजनीति के क्षेत्र में भी राजा राममोहन नवीन युग के पैराबर थे ।

उन्होंने संविधानिक ढंग से राजनीतिक दोलन करने के लिए दिशा बतलायी, जिससे अंत में आधी सदी के बाद भारतीय राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) का जन्म हुआ । राजनीतिक समस्याओं पर उनके विचार इतने आधुनिक है कि आश्चर्य होता है । वे मुख्य विशेषताओं में उन्नीसवीं सदी के भारतीय राजनीतिक विचार की पराकाष्ठा को सूचित करते हैं ।

राममोहन की राजनीतिक के आधारभूत सिद्धांत थे “स्वातंत्र्य-प्रेम जो उनकी आत्मा का प्रबलतम आवेग बन गया था” तथा यह दृढ़ विस्वास कि भारत के लोग उन्नति के लिए उतनी ही क्षमता रखते हैं जितनी अन्य कोई सम्य जाति ।

राजा के राजनीतिक आदर्श उनकी अंग्रेज जीवनी-लेखिका द्वारा इस प्रकार वर्णित हुए हैं- “एक शिक्षित भारत की आशा, एक ऐसे भारत की आशा जो संस्कृति के यूरोपीय मानों तक करीब-करीब पहुंच सके, राममोहन के मस्तिष्क में कभी भी अधिक समय तक अनुपस्थित नहीं मालूम पड़ती । उन्होंने, अस्पष्ट रूप से ही सही, अपने देशवासियों के पहले ही उन राजनीतिक अधिकारों का दावा किया, जो सभ्यता की प्रगति होने से आप-से-आप आते हैं । यहाँ भी पुन: राममोहन नवीन भारत के जननायक और पैगंबर के रूप में खड़े होते हैं ।”

उस समय में प्रचलित राजनीतिक विचार का उदाहरण देने के लिए राजा के कुछ ठोस मतों का उल्लेख किया जा सकता है । राजा समाचारपत्रों की स्वतंत्रता के महान पक्षपाती थे । १७९९ ई॰ से ही समाचार पत्रों के प्रकाशन पर कड़ी निगरानी थी ।

१८१७ ई॰ में लार्ड हेस्टिंग्स ने यह निगरानी उठा दी । किन्तु उसने कुछ नियम बना दिये । उनमें से एक नियम के अनुसार कतिपय बातों पर विवाद करने की मनाही हो गयी । लार्ड हेस्टिग्स के पदत्याग के बाद मिस्टर ऐडम ने अस्थायी गवर्नर-जनरल का काम किया । उसने हुक्म निकाला जिसके मुताबिक सरकारी अनुमति के बिना समाचारपत्रों अथवा अन्य पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की मनाही हो गयी ।

राजा राममोहन ने नवीन प्रेस नियमों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट और किंग-इन-कौसिल दोनों के यहाँ आवेदन-पत्र दिये । आवेदन-पत्र अस्वीकृत हो गये, किन्तु वे “भारतीय संस्कृति की प्रगति में एक उच्च कोटि की उल्तेखनीय घटना” हैं ।

हम पुन: उनकी अंग्रेजी जीवनी से उद्धृत करते है “राम, मोहन ने जो अपील निकाली वह अंग्रेजी के उच्चतम कोटि के अंशों में है । इसके पूर्ण वाक्य गौरवरिपवत है । इसके विचार कम गौरवान्वित नहीं है । ये दोनों एक सदी पहले के महान् सुवक्ताओं की वाग्मिता की याद दिलाते हैं । भाषा और शैली में यह अपील स्वतंत्रता के गौरवपूर्ण पक्ष-समर्थन के अनुरूप है । ब्रिटिशशक्ति के स्वेच्छा-चारपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध यह उन सिद्धांतों और परंपराओं का आह्वान करती है जो ब्रिटिश इतिहास की विशेषता सूचक हैं ।”

राममोहन के प्रयत्नों ने पाल दिया, यद्यपि उन्हें इसका देखना नहीं बदा था । १८३५ ई॰ में सर चार्ल्स मेटकाफ ने समाचारपत्रों पर लगाये सभी प्रतिबंध हटा दिये । राजा ने इसी प्रकार १८२७ ई॰ के जुरी कानून के विरुद्ध आवेदन-पत्र दिये । उस कानून की धाराओं और राजा के उसके प्रति उज्र के कारणों का अनुमान इस उद्धरण से किया जा सकता है ।

बोर्ड ऑव कंट्रोल के विगत अध्यक्ष मिस्टर बिन ने अपने प्रसिद्ध जूरी बिल में इस देश की न्याय-प्रणाली में धार्मिक विभिन्नताएँ लाकर न केवल सामान्य देशवासियों में असंतोष के उचित कारण दे डाले है, बल्कि उन्होंने राजनीतिक सिद्धांतों से परिचित प्रत्येक के हृदय में काफी भय का संचार कर दिया है ।

इस बिल के अनुसार किसी भी देशवासी की चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, न्यायसंबंधी जाँच ईसाई ही करेगा, भले ही वह (ईसाई) यूरोपीय हो या देशवासी किन्तु ईसाई, जिनमें देशी धर्मांतरित व्यक्ति भी संमिलित है, किसी हिन्दू या मुसलमान जुरर द्वारा जाँचे जाने की अप्रतिष्ठा से मुक्त हैं, भले ही वह (जुरर) समाज की दृष्टि में ऊँचा क्यों न हो ।

इस बिल में हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को, ग्रैड जुरी में स्थान पाने की प्रतिष्ठा से वंचित किया गया है, यहाँ तक कि उन्हें साथी हिन्दुओं या मुसलमानों की जाँच में भी नहीं रखा गया है । यही मिस्टर बिन के विगत जुरी बिल का सारांश है, जिसकी हम तीव्र शिकायत करते है ।

राजा को भारत का शासन करनेवाले राजनीतिक यंत्र की अच्छी परख थी । जब १८३३ ई॰ में पार्लियामेंट द्वारा कम्पनी की सनद के पुनर्नवीकरण के प्रश्न पर विचार हो रहा था, तब उन्होंने इंगलैंड-स्थित अधिकारियों के समक्ष भारत की दशा के उपस्थित करने के महत्व को अच्छी तरह महसूस कर लिया था ।

यह उनकी इंगलैड की समुद्रयात्रा का एक प्रमुख उद्देश्य था । उन्हें हाउस ऑफ कॉमंस की प्रवर समिति के समक्ष गवाही देने को आमंत्रित किया गया । यद्यपि उन्होंने एतदर्थ सशरीर जाना अस्वीकार किया, तथापि उन्होंने बोर्ड ऑफ कंट्रोल के पास अनेक पत्रों के रूप में अपने विचारित मत पेश किये ।

इन कागजों से हम उस समय के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर राजा राममोहन एवं उनके समकालीन अग्रगामी भारतीय विचारकों के दृष्टिकोण से परिचित होने में समर्थ होते हैं । राजा ने किसानों के पक्ष का प्रबल समर्थन किया । उन्होंने बतलाया कि स्थायी बंदोबस्त में जमींदारों ने अपना धन बड़ा लिया था, लेकिन वे अपनी रैयतों से जो बहुत ज्यादा मालगुजारी लेते थे उससे उनकी हालत बदतर हो गयी थी ।

उन्होंने इस बात की वकालत की कि जमींदार जो राजस्व अदा करते है उसमें कमी करके रैयतों के द्वारा दी जानेवाली मालगुजारी में कमी कर दी जाय । उन्होंने सलाह दी कि इस प्रकार जो राजस्व की हानि होगी उसकी पूर्ति विलास-सामग्री पर कर लगाकर अथवा उच्च वेतन-भोगी यूरोपियनों के बदले अल्प वेतनभोगी भारतीयों को कलक्टर बहाल कर लिया जाए ।

राजा स्थायी बंदोबस्त के पक्ष में थे किन्तु उन्होंने उचित ही यह अर्ज किया कि सरकार को हर किसान द्वारा दी जानेवाली अधिक-से-अधिक मालगुजारी निश्चित कर देनी चाहिए ।

राजा द्वारा प्रचारित अन्य कामों में इनका उल्लेख किया जा सकता है-ब्रिटिश भारतीय सेना का भारतीयकरण, जुरी द्वारा जाँच जज और मैजिस्टेरट के पदों का पृथक्करण, दीवानी और फौजदारी कानूनों का संग्रह, नये कानून बनाने के पहले भारतीय नेताओं से परामर्श तथा कचहरियों की सरकारी भाषा के रूप में फारसी के बदले अंग्रेजी की स्थापना ।

उपर्युक्त बातों का सावधानीपूर्वक पठन करने से यह दावा बिलकुल उचित ठहरता है कि उन्नीसवीं सदी में “भारतीयों के उठाने के लिए जो भी प्रमुख आंदोलन हुए, उन सबकी नींव राममोहन राय ने ही डाली थी” ।

उनकी अंग्रेज जीवनीलेखिका ठीक ही कहती है कि राजा “नवीन भारत के लिए एक अत्यंत उपदेशपूर्ण एवं प्रेरणाजनक अध्ययन प्रस्तुत करते है जिसके वे आदर्श और पथ-परिष्कारक हैं । वे नवीन भावना इसकी अनुसंधान की स्वतंत्रता, इसकी विज्ञान की पिपासा, इसकी विस्तृत मानवीय सहानुभूति, इसकी शुद्ध एवं परीक्षित आचारनीति तथा इसके साथ ही भूत के लिए इसके श्रद्धाभाव-प्रकाशक किन्तु आलोचनापूर्ण आदर और विद्रोह के प्रति…..सतर्क…….विरक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं ।”