भारत की भूगोल | Geography of India in Hindi.

उच्चावच एवं संरचना के आधार पर भारत को पाँच भू-आकृतिक विभागों में बांटा जा सकता है:

A. उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र (The Mountainous Region of the North):

भारत की उत्तरी सीमा पर विश्व की सबसे ऊँची एवं पूर्व-पश्चिम में विस्तृत सबसे बड़ी पर्वतमाला है । यह विश्व की नवीनतम मोड़दार पर्वत-श्रेणी हैं । इस पर्वत श्रेणी के पश्चिमी भाग में नंगा पर्वत के निकट एवं पूर्वी भाग में मिशमी पहाड़ी या नामचा बरबा के निकट दो तीखे अक्षसंघीय मोड़ (Syntaxial bend) ‘हेयरपिन टर्न’ की भांति मिलते हैं ।

ये प्रायद्वीपीय पठारी भाग के उत्तर-पूर्वी दबाव के कारण निर्मित हुई हैं । हिमालय की पर्वत श्रेणियाँ प्रायद्वीपीय पठार की ओर उत्तल एवं तिब्बत की ओर अवतल हो गई है । पश्चिम से पूर्व की ओर पर्वतीय भाग की चौड़ाई घटती है, किन्तु ऊँचाई बढ़ती जाती है एवं ढाल भी तीव्र होता जाता है ।

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उत्तर के पर्वतीय क्षेत्र को चार प्रमुख समानांतर पर्वत श्रेणी क्षेत्रों में बांटा जा सकता है (Four Categories of North Mountainous Region):

I. ट्रांस हिमालय क्षेत्र (Trans-Himalayan Region):

इसके अन्तर्गत काराकोरम, लद्दाख, जॉस्कर आदि पर्वत श्रेणियाँ आती हैं, जिनका निर्माण हिमालय से भी पहले हो चुका था । ये मुख्यतः पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में मिलते हैं । K2 या गॉडविन ऑस्टिन (8611 मी.) काराकोरम श्रेणी की सर्वोच्च चोटी है जो कि भारत की सबसे ऊँची चोटी भी है । ट्रांस हिमालय वृहत् हिमालय से ‘इंडो-सांगपो शचर जोन’ (Shuture Zone) के द्वारा अलग होती है ।

II. हिमाद्रि अर्थात् सर्वोच्च या वृहद हिमालय (The Greater Himalayas):

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यह हिमालय की सबसे ऊँची श्रेणी है । इसकी औसत ऊँचाई 6000 मी. है जबकि चौड़ाई 120 से 190 किमी. तक है । विश्व के प्रायः सभी महत्वपूर्ण शिखर इसी में स्थित हैं । इनमें एवरेस्ट (8848 मी.), कंचनजंघा (8558 मी.), नंगा पर्वत, नंदा देवी, कामेट व नामचाबरवा आदि इसके कुछ महत्वपूर्ण शिखर हैं ।

विश्व की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट (नेपाल) इसी पर्वत श्रेणी में स्थित है । वृहद हिमालय लघु हिमालय से ‘मेन सेंट्रल थ्रस्ट’ (Main Central Thrust) के द्वारा अलग होती है ।

III. हिमाचल श्रेणी अर्थात लघु या मध्य हिमालय (Central Himalaya):

इसकी औसत चौड़ाई 80 से 100 किमी. एवं सामान्य ऊँचाई 3700 से 4500 मी. है । पीरपंजाल, धौलाधार, मसूरी, नागटीबा एवं महाभारत श्रेणियाँ इसी पर्वत श्रेणी का भाग है । वृहद व लघु हिमालय के मध्य कश्मीर घाटी, लाहुल-स्पीति, कुल्लु व कांगड़ा घाटियां मिलती है । यहां अल्पाइन चारागाह भी है जिन्हें कश्मीर घाटी में ‘मर्ग’ (गुलमर्ग, सोनमर्ग) तथा उत्तराखंड में ‘वुग्याल या पयार’ कहा जाता है ।

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लघु हिमालय अपने स्वास्थ्यवर्द्धक पर्यटक स्थलों के लिए विख्यात है । उदाहरण के लिए, शिमला, कुल्लू, मनाली, मसूरी, दार्जिलिंग आदि को लिया जा सकता है । लघु हिमालय शिवालिक से ‘मेन बाउंड्री फॉल्ट’ (Main Boundary Fault) के द्वारा अलग होती है ।

IV. शिवालिक अर्थात निम्न या वाह्य हिमालय (External Himalaya):

यह 10 से 50 किमी. चौड़ा और 900-1200 मी. ऊँचा है । अन्य दो श्रेणियों के विपरीत यह खंडित रूप में मिलता है । ये हिमालय के नवीनतम भाग हैं । शिवालिक और लघु हिमालय के बीच कई घाटियों हैं जैसे-काठमांडू घाटी । पश्चिम में इन्हें ‘दून’ या ‘द्वार’ कहते हैं जैसे-देहरादून और हरिद्वार ।

खेती की अच्छी संभावना होने के कारण इन घाटियों में लोगों का अच्छा बसाव है । शिवालिक के निचले भाग को ‘तराई’ कहते हैं । यह दलदली और वनाच्छादित प्रदेश है । तराई से सटे दक्षिणी भाग में वृहद सीमावर्ती भ्रंश (Great Boundary Fault) मिलता है, जो कश्मीर से असम तक विस्तृत है ।

हिमालय के उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी छोरों पर सिन्धु व दिहांग गॉर्ज मिलते हैं । यहाँ प्रायद्वीपीय प्रखंड में निकली चट्‌टानी जिह्वाओं (पश्चिम में अरावली पर्वत व पूर्व में मेघालय पठार) के दबाव में ऐसे तीखे ‘अक्षसंघीय मोड’ मिलते हैं जैसे चट्‌टानी समूह एक धुरी (Axis) पर मोड़ दिए गए हों ।

अतः ये मोड़ हिमालय की अंतिम सीमा नहीं है, वरन् सिन्धु-पार के पर्वत जैसे- सुलेमान, किरथर आदि और दिहांग गॉर्जपार के पर्वत जैसे- अराकानयोमा व उत्तर-पूर्वी पर्वतीय क्षेत्र आदि भी हिमालय के ही अंग हैं । हिमालय प्रायः धनुष की आकृति में है । तिब्बत के पठार की ओर इसका ढाल मंद है, अतः हिमालय के उत्तर में हिमनदों का जमाव अधिक मिलता है ।

जहाँ पश्चिमी हिमालय क्रमिक शृंखलाओं में ऊँचाई प्राप्त करता है, वहीं पूर्वी हिमालय एकाएक काफी ऊँचाई को प्राप्त कर लेता है । सिन्धु, सतलज, ब्रह्मपुत्र (सांगपो) आदि पूर्ववर्ती नदियों ने हिमालय क्षेत्र में गहरी घाटियाँ, गॉर्ज व कैनियनों का निर्माण किया है । हिमालय के उत्थान के दौरान इन नदियों के द्वारा निरन्तर कटाव से ये निर्मित हुई हैं ।

हिमालय क्षेत्र में काराकोरम, शिपकीला, नाथुला, बोमडिला आदि अनेक दर्रे भी मिलते हैं । जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में स्थित काराकोरम दर्रा भारत का सबसे ऊंचा दर्रा (5654 मी.) है । यहां से चीन को जाने वाले एक सड़क भी बनाई गई है । बुर्जिल दर्रा श्रीनगर से गिलगित को जोड़ती है ।

जोजिला दर्रा जॉस्कर श्रेणी में स्थित है, इससे श्रीनगर से लेह का मार्ग गुजरता है । पीरपंजाल दर्रे से कुलगांव से कोठी जाने का मार्ग गुजरता है । बनिहाल दर्रे से जम्मू से श्रीनगर जाने का मार्ग गुजरता है । ‘जवाहर सुरंग’ भी इसी में स्थित है । शिपकीला दर्रा शिमला से तिब्बत को जोड़ता है ।

बड़ालाचाला दर्रे से मंडी से लेह जाने का मार्ग गुजरता है । थागा ला, माना, नीति व लिपुलेख दर्रा उत्तराखंड के कुमाऊं श्रेणी में स्थित है, इनसे मानसरोवर झील व कैलाश घाटी का मार्ग गुजरता है । सिक्किम में स्थित नाखूला व जोजेप्ला दर्रे का व्यापक सामरिक महत्व है । यहां से दार्जिलिंग व चुम्बी घाटी से होकर तिब्बत जाने का मार्ग है ।

बोमडिला व यांगयाप दर्रा अरुणाचल प्रदेश में स्थित है, बोमडिला दर्रे से तवांग घाटी होकर तिब्बत जाने का मार्ग जाता है जबकि यांगयाप दर्रे के पास ही ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है । यहां से चीन के लिए मार्ग भी जाता है ।

दिफू व पांगसाड दर्रा अरूणाचल प्रदेश में भारत-म्यांमार सीमा पर स्थित है । मणिपुर में स्थित तुजू दर्रा से इम्फाल से तामू व म्यांमार जाने का मार्ग गुजरता है ।

विभिन्न नदियों ने हिमालय क्षेत्र को चार प्रमुख प्राकृतिक भागों में एक-दूसरे से पृथक कर रखा है:

i. कश्मीर या पंजाब हिमालय (Kashmir or Punjab Himalaya):

सिन्धु और सतलज के बीच 560 किमी. की दूरी में फैला हुआ है । यहाँ हिमालय क्रमिक रूप से ऊँचाई प्राप्त करता है । जास्कर व पीरपंजाल श्रेणियाँ इसी के भाग हैं । हिमालय की चौड़ाई यहाँ सर्वाधिक है एवं यह 250 से 400 किमी. चौड़े क्षेत्र में विस्तृत है ।

ii. कुमायूँ हिमालय (Kumaun Himalaya):

यह सतलज और काली नदियों के बीच 320 किमी. की दूरी में फैला हुआ है । यह उत्तराखंड क्षेत्र में विस्तृत है । नंदा देवी, कामेट, बद्रीनाथ, केदारनाथ, त्रिशूल आदि इसके प्रमुख शिखर हैं ।

iii. नेपाल हिमालय (Nepal Himalaya):

यह काली और तिस्ता नदियों के बीच 800 किमी. की दूरी में फैला हुआ है । यहाँ हिमालय की चौड़ाई अत्यंत कम है, परन्तु हिमालय के सर्वोच्च शिखर यहीं मिलते हैं, जैसे-एवरेस्ट, कंचनजंगा, मकालू आदि ।

iv. असम हिमालय (Assam Himalaya):

यह तिस्ता तथा दिहांग (सांगपो-ब्रह्मपुत्र) नदियों के बीच 720 किमी. की दूरी में फैला हुआ है । यहाँ हिमालय की ऊँचाई पुनः कम होने लगती है ।

B. प्रायद्वीपीय पठार (Peninsular Plateau):

यह प्राचीन गोंडवाना भूमि का भाग है एवं त्रिभुजाकार आकृति में है । इसकी औसत ऊँचाई 600 से 900 मी. है । अरावली, राजमहल और शिलांग की पहाड़ियाँ (मेघालय की पहाड़ियाँ) इस पठार की उत्तरी सीमा पर है । ‘राजमहल-गारो गैप’ वस्तुतः राजमहल व मेघालय की पहाड़ियों के बीच के भाग के जलोढ़ निक्षेपों द्वारा ढक जाने से निर्मित हुए हैं ।

प्रायद्वीपोय पठार की ढाल उत्तर और पूर्व की ओर है जो सोन, चम्बल और दामोदर नदियों की दिशा से स्पष्ट है । दक्षिणी भाग में इसकी ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर है जो कि महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी की दिशा से स्पष्ट है । भारत में दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार अनेक भागों में विभक्त है ।

इसके अंतर्गत मालवा, बैतूल व बघेलखंड का पठार (मध्य प्रदेश), बुंदेलखंड का पठार (मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश), दण्डकारण्य पठार (ओडिशा, छत्तीसगढ़ व आन्ध्र प्रदेश), रायलसीमा का पठार (कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश), तेलगांना का पठार (आन्ध्र प्रदेश), शिलांग का पठार (मेघालय), हजारीबाग व छोटानागपुर पठार (झारखंड) शामिल किए जा सकते हैं ।

प्रायद्वीपीय पठार अत्यधिक घर्षित प्राचीन पठारी भाग है । यहाँ प्राचीन पर्वतमालाओं के अवशेष हैं एवं हिमाच्छादन के भी प्रमाण मिलते हैं । जहाँ हिमालय में क्षैतिज संचलनों के उदाहरण हैं वहीं प्रायद्वीपीय पठारी भाग में ‘लंबवत संचलन’ के अनेक उदाहरण हैं । ‘अरावली श्रेणी’ प्री-कैम्ब्रियन काल की चट्‌टानों से निर्मित अत्यधिक प्राचीन व अवशिष्ट पर्वतमाला हैं ।

यह विच्छिन्न पहाड़ियों की शृंखला के रूप में गुजरात से दिल्ली तक विस्तृत है । इसकी चौड़ाई दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर क्रमशः घटती चली जाती है । अरावली की अधिकतम ऊँचाई माउंट आबू के ‘गुरु शिखर’ (1722 मी.) में मिलती है । ‘विंध्याचल’ अत्यधिक पुराना व घर्षित मोड़दार पर्वतश्रेणी है ।

यह मालवा पठार के दक्षिण में स्थित है एवं उत्तरी भारत को दक्षिणी भारत से अलग करती है । इसकी औसत ऊँचाई 700 से 1200 मीटर है । यह पश्चिम से पूर्व की ओर भारनेर, कैमूर और पारसनाथ पहाड़ियों के रूप में झारखंड तक लगभग 1050 किमी. की लम्बाई में विस्तृत है ।

‘सतपुड़ा’ ब्लॉक पर्वत का उदाहरण है जिसके दोनों ओर नर्मदा और ताप्ती की प्रसिद्ध भू-भ्रंश घाटियाँ हैं । यह पर्वत श्रेणी विंध्याचल के दक्षिण में एवं लगभग उसके समानान्तर स्थित है एवं पश्चिम में राजपिप्पला पहाड़ियों से प्रारम्भ होकर महादेव और मैकाल पहाड़ियों के रूप में छोटानागपुर पठार के पश्चिमी सीमा तक विस्तृत है ।

सतपुड़ा की सबसे अधिक ऊँचाई महादेव पहाड़ी के पंचमढ़ी नगर के निकट ‘धूपगढ़’ (1350 मी.) में मिलती है । मैकाल पहाड़ी का सर्वोच्च शिखर ‘अमरकंटक’ (1036 मी.) है । सोन व नर्मदा नदियों का उद्‌गम यहीं से होता है । मैकाल से पूर्व की ओर जाने पर छोटानागपुर व राजमहल की पहाड़ियाँ भी मिलती हैं । मेघालय की ‘गारो-खासी-जयंतिया’ पहाड़ियाँ भी वस्तुतः दक्षिणी प्रायद्वीप का ही अंग हैं ।

छोटानागपुर स्थित राँची का पठार समप्राय मैदान (Peneplain) का सुन्दर उदाहरण है । छोटानागपुर पठार को ‘भारत का रूर’ भी कहा जाता है, क्योंकि खनिज भंडार की दृष्टि से यह भारत का सबसे सम्पन्न प्रदेश है । शिलांग पठार (मेघालय पठार) छोटानागपुर पठार का ही अग्रभाग है ।

पश्चिमी घाट ताप्ती के मुहाने से लेकर कन्याकुमारी अंतरीप तक 1600 किमी. की लंबाई में विस्तृत है । इसकी औसत ऊँचाई 1200 मीटर है । यह वास्तविक पर्वतश्रेणी नहीं है वरन् प्रायद्वीपीय पठार का ही एक ‘भ्रंश कगार’ (Fault Scarp) है । यह उस भ्रंश का द्योतक है जो अफ्रीका से भारत के अलग होते समय उत्पन्न हुआ था ।

पश्चिमी घाट से उत्तर में गुजरात के सौराष्ट्र प्रदेश में गिर की पहाड़ियाँ मिलती हैं जो एशियाई सिंह के लिए विख्यात है । पश्चिमी घाट को ‘सह्याद्रि’ भी कहा जाता है । ताप्ती से 16 N अक्षांश तक इस पर बैसाल्ट लावा का प्रवाह मिलता है । 16N से पश्चिमी घाट के दक्षिण भाग में स्थित नीलगिरि तक इसमें ग्रेनाइट तथा नीस चट्‌टानें मिलती है ।

थालघाट, भोरघाट व पालघाट पश्चिमी घाट के प्रमुख दर्रे हैं जिनकी ऊँचाई क्रमशः 581 मी., 229 मी. तथा 300 मी. है । महाराष्ट्र में उत्तरी सहयाद्रि में स्थित थालघाट दर्रे (ऊँचाई 583 मी.) से मुंबई-नागपुर-कोलकाता रेलमार्ग तथा सड़क मार्ग गुजरते हैं । भोरघाट भी महाराष्ट्र में उत्तरी सह्याद्रि में स्थित है ।

मुंबई-पुणे-बेलगाँव-चेन्नई रेलमार्ग व सड़क मार्ग इसी से गुजरते हैं । नीलगिरी व अन्नामलाई श्रेणियों के बीच केरल में स्थित पालघाट दर्रे से कालीकट-त्रिचूर-कोयंबटूर-इडोर के रेल व सड़क मार्ग गुजरते हैं । ‘उत्तरी सह्याद्रि’ की सबसे ऊँची चोटी काल्सुबाई है ।

महाबलेश्वर भी इसकी एक प्रमुख चोटी है जो कृष्णा नदी का उद्‌गम स्थल है । ‘नीलगिरी’ की अधिकतम ऊँचाई डोडाबेटा (2637 मी.) में मिलती है । प्रसिद्ध पर्यटक स्थल ‘उटकमंडक या ऊटी’ नीलगिरी में ही स्थित है । नीलगिरि के दक्षिण में अन्नामलाई की पहाड़ियाँ है जिसकी सर्वाधिक ऊँची चोटी ‘अनाईमुदी’ (2695 मी.) है ।

यह पश्चिमी घाट (सह्याद्रि) व संपूर्ण दक्षिण भारत का भी सर्वोच्च शिखर है । अनाइमुदी के निकट ही पालनी और इलामलय (कार्डेमम पहाड़ियाँ) हैं । शेनकोट्‌टा गैप कार्डेमम पहाड़ियों में ही है । प्रसिद्ध पर्यटक स्थल ‘कोडायकनाल’ पालनी पहाड़ी में ही स्थित है । यह तमिलनाडु में स्थित है ।

पूर्वी घाट शृंखलाबद्ध रूप में नहीं मिलती क्योंकि महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों ने इसे जगह-जगह पर काट दिए हैं । पूर्वी घाट की सबसे ऊँची चोटी ओडिशा की ‘अरोयाकोंडा’ (विशाखापत्तनम चोटी) है । पूर्वी घाट को सबसे उत्तरी भाग में उत्तरी पहाड़ी (उत्तरी सर्कार), मध्य में कुडप्पा पहाड़ी और दक्षिण में तमिलनाडु पहाड़ी के नाम से जाना जाता है ।

नल्लामल्ला, एर्रामल्ला, वेलीकोंडा व पालकोंडा कुडप्पा पहाड़ी के एवं शेवराय व जवादी तमिलनाडु पहाड़ियों के अन्तर्गत आते हैं । पूर्वी घाट की औसत ऊँचाई 600 मीटर है यद्यपि दक्षिण में नीलगिरी श्रेणी के निकट यह सर्वाधिक ऊँचाई प्राप्त करती है ।

C. उत्तर भारत का विशाल मैदान (The Vast Plain of the North):

इसे ‘सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान’ भी कहा जाता है । इसका विस्तार लगभग 3200 किमी. तक है एवं चौड़ाई 150 से 300 किमी. तक है । यह मैदान जलोढ़ अवसादों से निर्मित है ।

इसमें जलोढों का निक्षेप 2000 मीटर की गहराई तक मिलता है । ऐसा माना जाता है कि टेथिस भू-सन्नति के निरन्तर संकरे होने एवं अवसादों के उसमें निरन्तर जमाव की प्रक्रिया से इस मैदानी भाग का निर्माण हुआ है ।

इन मैदानों में उच्चावच अत्यधिक कम है एवं कहीं भी इसकी ऊँचाई 204 मीटर से अधिक नहीं है । अंबाला के आसपास की भूमि इस मैदान में जलविभाजक का कार्य करती है क्योंकि इसके पूर्व की नदियाँ बंगाल की खाड़ी में एवं पश्चिम की नदियाँ अरब सागर में गिरती हैं ।

विशिष्ट धरातलीय स्वरूप के आधार पर इस मैदान को चार भागों में बांटा जा सकता है:

1. भाबर प्रदेश:

यह शिवालिक की तलहटी में सिन्धु से लेकर तिस्ता तक अविछिन्न रूप में मिलता है । इसकी चौड़ाई 8 से 16 किमी. है । कंकड़-पत्थरों (बजरी) की अधिकता के कारण इसमें इतनी अधिक पारगम्यता है कि नदियाँ यहाँ विलीन हो जाती हैं ।

2. तराई प्रदेश:

यह भाबर प्रदेश के दक्षिणी भागों में मिलता है । अत्यधिक आर्द्रता के कारण यह प्रायः दलदली क्षेत्र है । भाबर प्रदेश की लुप्त नदियाँ यहाँ पुनः सतह पर आ जाती हैं । परन्तु उनकी गति धीमी रहती है । तराई प्रदेश घने वनों का प्रदेश है एवं जैव विविधता का विशाल भंडार है ।

3. बांगर प्रदेश:

यह मैदानी भागों का वह उच्च भाग है जहाँ सामान्यतः बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता । पुराने जलोढ़ों से इसका निर्माण हुआ है एवं कंकड़ व रेत अधिक मात्रा में हैं ।

जहाँ इस प्रदेश में कंकड़ पत्थरों के कारण असमतल व उच्च भूमि बन गई है, उसे स्थानीय नाम ‘भूड़’ दिया गया है । उदाहरण के लिए गंगा, यमुना दोआब के ऊपरी भाग में यह भूड़ निक्षेपों के रूप में मिलता है ।

4. खादर प्रदेश:

यह नवीन जलोढ़ों से निर्मित है । यहाँ बाढ़ प्रायः हर वर्ष नई उर्वर मिट्‌टी लाती रहती है । अतः इस प्रदेश को ‘कछारी प्रदेश’ या ‘बाढ़ का मैदान’ भी कहते हैं । खादर प्रदेश का ही विस्तार डेल्टा प्रदेश के रूप में हुआ है । उदाहरण के लिए गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा जो पश्चिम बंगाल व बांग्लादेश में फैला हुआ है ।

पंजाब से असोम तक विस्तृत इस मैदानी भाग की संरचना में स्थानीय भिन्नताओं का पाया जाना स्वाभाविक है । पंजाब के पश्चिम में यह मैदान मुख्यतः बांगर से निर्मित है ।

पश्चिमी सप्तसिन्धु प्रदेश जहाँ प्राचीनकाल में आर्यों ने अपनी पहली बस्ती बसाई थी, में पश्चिम से पूर्व की ओर दोआबों का क्रम है- सिन्धु-झेलम का सिन्धु सागर दोआब, झेलम-चेनाब का छाज दोआब, चेनाब-रावी का रेचना दोआब, रावी-व्यास का बारी दोआब, व्यास-सतलज का विस्त दोआब, सतलज-सरस्वती का दोआब ।

सरस्वती के लुप्त होने से अब सतलज-सरस्वती दोआब का अस्तित्व नहीं मिलता । सतलज की पुरानी धारा ही राजस्थान में घग्घर के नाम से जानी जाती है । पंजाब से पूर्व की ओर बढ़ने पर गंगा-यमुना का दोआब मिलता है जो पुराने बांगर जलोढ़ से निर्मित है ।

यह नए जलोढ़ से बनी खादर भूमि से भिन्न है एवं उसमें 15 से 30 मी. की ऊँचाई में मिलती है । इन दोनों के कारण बनी ढाल का स्थानीय नाम ‘खोल’ है । गंगा मैदान के मध्यवर्ती क्षेत्र में विभिन्न नदियों के जलोढ़ शंकु एवं जलोढ़ पंख मिलते हैं । बंगाल का डेल्टाई मैदान अधिक आर्द्रतायुक्त प्रायः दलदली क्षेत्र है ।

प्रायद्वीपीय पठार और हुगली के बीच के क्षेत्र को गिरिपदीय मैदान भी कहा जा सकता है । यहाँ लैटेराइट संरचना (जैसे बारिन्द क्षेत्र) भी काफी दूर तक मिलती है । असोम की ओर गंगा ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों द्वारा लाए गए जलोढ़ वेदिकाएँ मिलती हैं ।

उत्तर भारतीय मैदान आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह अत्यन्त उर्वर भूमि है । चूंकि यहाँ वर्षा और सिंचाई होती है । अतः यहाँ कृषि कार्य सहजता से सभंव है । सड़कों व रेलमार्गों के कारण यहाँ वाणिज्य व्यवसाय का समुचित विकास हुआ है । इन्हीं कारणों से इन मैदानी क्षेत्रों में घनी जनसंख्या का बसाव है ।

D. तटवर्ती मैदान (Coastal Plains):

प्रायद्वीपीय पठारी भाग के पूर्व व पश्चिम में दो संकरे तटीय मैदान मिलते हैं जिन्हें क्रमशः पूर्वी तटीय एवं पश्चिमी तटीय मैदान कहा जाता है । इनका निर्माण सागरीय तरंगों द्वारा अपरदन व निक्षेपण एवं पठारी नदियों द्वारा लाए गए अवसादों के जमाव से हुआ है ।

पश्चिमी तटीय मैदान गुजरात से कन्याकुमारी के तटीय क्षेत्र में विस्तृत है । यह एक संकरी जलोढ़ पट्‌टी है जिसमें बीच-बीच में पहाड़ी भू-भाग हैं । गुजरात क्षेत्र में नर्मदा-ताप्ती के मुहानों पर इसकी चौड़ाई सर्वाधिक (80 किमी.) है । कच्छ काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्री निक्षेपों की प्रधानता है ।

काठियावाड़ के मैदानी भागों में रेगड़ मिट्‌टी (बैसाल्टिक लावा के अपक्षयण से निर्मित काली मिट्‌टी) का पर्याप्त विस्तार है । गुजरात से गोआ तक का तटीय मैदान कोंकण तट कहलाता है । गोआ से कर्नाटक के मंगलोर तक का क्षेत्र कन्नड तट कहलाता है । यह अत्यधिक संकरा मैदानी भाग है ।

मंगलौर से कन्याकुमारी तक का तटीय मैदान मालाबार तट कहलाता है यद्यपि कन्नड़ तट को भी कभी-कभी इसके अंतर्गत शामिल कर दिया जाता है । मालाबार तट में पश्च जल (Black Water) एवं लैगूनों की प्रधानता है जिन्हें ‘कयाल’ कहा जाता है । ये वे जलीय भाग हैं जो स्थलों द्वारा घेर लिए गए हैं ।

पूर्वी तटीय मैदान पश्चिमी तटीय मैदानों की तुलना में अधिक चौड़ा है । महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों के डेल्टाई भागों में इसकी चौड़ाई और भी बढ़ जाती है । दक्षिणी भाग में इसकी अधिकतम चौड़ाई मिलती है ।

ओडिशा व आंध्र प्रदेश के तटवर्ती मैदानों को उत्कल तट, कलिंग तट या उत्तरी सर्कार तट कहा जाता है, जबकि कृष्णा-गोदावरी डेल्टा से कन्याकुमारी तक विस्तृत आंध्र प्रदेश से तमिलनाडु के तटीय मैदानों को कोरोमंडल तट के नाम से जाना जाता है । निवर्तित मानसूनी पवनों से सर्वाधिक वर्षा इसी प्रदेश में होती है ।

कम कटा-छंटा होने के कारण पूर्वी तट पर प्राकृतिक पोताश्रयों की कमी है । कहीं-कहीं लैगूनों का निर्माण भी मिलता है, उदाहरण के लिए चिल्का, कोल्लेरु व पुलीकट । पूर्वी तटीय मैदान अपने अधिक विस्तार के कारण कृषि की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण व घनी जनसंख्या का क्षेत्र है ।

ऐतिहासिक काल में भू-संचलन के कारण दोनों ही तटीय भागों में निमज्जन व उत्थापन के प्रमाण मिले हैं । उदाहरण के लिए मुम्बई के निकट निमज्जन एवं कच्छ के निकट उत्थापन के प्रमाण मिले हैं । इसी प्रकार पूर्वी तट के उत्तरी भागों में उत्थापन के एवं दक्षिण भाग में स्थित तिनेवेली एवं पांडिचेरी के निकट निमज्जन के प्रमाण मिले हैं ।

E. द्वीपीय भाग (Insular Part):

भारत के द्वीपीय भागों में अंडमान-निकोबार व लक्षद्वीप प्रमुख हैं । बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान निकोबार द्वीप समूह म्यांमार स्थित अराकानयोमा का ही दक्षिणी विस्तार है । इस प्रकार ये द्वीप निमज्जित उच्च भूमि के अवशेष हैं । ‘लैंडफॉल द्वीप’ अंडमान-निकोबार द्वीप समूह का सबसे उत्तरी द्वीप है ।

कोको जलमार्ग इसे म्यांमार के कोको द्वीप से अलग करता है, जहां चीन ने इलेक्ट्रॉनिक निगरानी तंत्र लगाया हुआ है । नारकोंडम द्वीप में दो सुषुप्त ज्वालामुखी एवं बैरन द्वीप में एक सक्रिय ज्वालामुखी है । उत्तरी अंडमान एक पर्वतीय क्षेत्र है, जहाँ ‘सैडल पीक’ नामक महत्वपूर्ण पर्वत चोटी मिलती है । यह सदाहरित वनों का भी क्षेत्र है ।

मध्य अंडमान अंडमान-निकोबार का सबसे बड़ा द्वीप है । दक्षिण अंडमान में अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर स्थित है । प्रसिद्ध सेल्युलर जेल यहीं अवस्थित है । ‘माउंट हैरियट’ व हैवलॉक यहाँ के अन्य प्रमुख द्वीप है जहां राष्ट्रीय पार्क भी हैं ।

लघु अंडमान अंडमान द्वीपसमूह का सबसे दक्षिणी भाग है, 10 चैनेल इसे निकोबार द्वीपसमूह के कार निकोबार से अलग करता है । ग्रेट निकोबार अंडमान-निकोबार का दक्षिणतम द्वीप है । ‘इंदिरा प्वाइंट’ यहीं पर स्थित है । यहाँ जीव मंडल आरक्षित क्षेत्र भी है । नानकॉरी निकोबार द्वीप समूह का एक महत्वपूर्ण द्वीप है ।

अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप समूह प्रवाल द्वीपों के उदाहरण हैं । ये अंतः सागरीय चबूतरों पर चूने पर निर्वाह करने वाले मूंगा जीवों के अस्थिपंजरों से निर्मित हैं । ‘आंद्रोत द्वीप’ लक्षद्वीप का सबसे बड़ा द्वीप है, जबकि ‘अमीनदीवी’ लक्षद्वीप का सबसे बड़ा द्वीप समूह है ।

कवरत्ती द्वीप लक्षद्वीप की राजधानी है । यह ‘मिनिकॉय’ द्वीप से 9 चैनेल के द्वारा अलग है । मिनिकॉय द्वीप 8 चैनेल के द्वारा मालदीव से अलग होता है । मूंगा चट्‌टानों से निर्मित ये द्वीप जैव विविधता के विशाल भंडार है ।

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