Read this article in Hindi to learn about the Russian revolution of 1917.

क्रांति का वर्ग-आधार:

उन्नीसवीं सदी के मध्य का रूस पश्चिमी यूरोपीय पैमाने पर एक पिछड़ा हुआ देश था । सदी के उतरार्द्ध में, विशेषकर क्रीमिया युद्ध 1853-56 के बाद वहाँ आधुनिकीकरण का जो दौर शुरू हुआ उसकी गति बड़ी धीमी थी । 1880 ई॰ के दशक में रूस में औद्योगिक क्रान्ति का युग शुरू हुआ ।

यूरोपीय देशों से पूँजी आने लगी, रेलवे, खनिज, उद्योग, कल-कारखाने खोले जाने लगे । 1888 से 1991 ई॰ के मध्य रूस में रेल-यातायात की सुविधा दुगुनी हो गयी थी । औद्योगिकीकरण के पदचिह्नों पर व्यापार-व्यवसाय में वृद्धि हुई तथा वेतनभोगी बुर्जुआवर्ग तथा श्रमजीवीवर्ग उभर कर सामने आया । इनकी संख्या उत्तरोतर बढ़ रही थी, किन्तु पश्चिमी यूरोपीय देशों की तुलना में कुछ ज्यादा नहीं थी ।

कारखानों में प्रतिदिन ग्यारह-बारह घंटे काम करनेवाले श्रमिकों की हालत 1850 ई॰ के पहले के इंग्लैण्ड या फ्रांस के मजदूरों से ज्यादा भिन्न नहीं थी । मजदूर संघ नहीं बना सकते थे तथा हड़ताल करने पर कानूनी रोक थी । इसके बावजूद सदी के अन्तिम दशक में कई बड़ी-बड़ी हड़तालें हुईं, जिनसे औद्योगिक श्रमिकों की दुर्दशा की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ ।

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उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों में शासन द्वारा कुछ श्रमिक कानून बनाये गये, लेकिन उनसे मजदूरों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ । ऐसी हालत में रूस के क्रान्तिकारी समाजवादी दल ने मजदूरों को नेतृत्व प्रदान किया, उनके बीच समाजवादी सिद्धांतों का प्रचार किया और पूँजीपतियों के विरुद्ध उन्हें संगठित करने का प्रयास किया ।

मजदूरवर्ग पर क्रांतिकारी समाजवादी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा । रूस के औद्योगिकीकरण के स्वरूप से उन्हें अपने को संगठित करने में बड़ी सहूलियत मिली । रूस के उद्योग-धन्धे बड़े ही केन्द्रित थे । सम्पूर्ण रूसी श्रमिक की जनसंख्या का आधा से अधिक भाग ऐसे बड़े कल-कारखानों में काम करता था जिनमें पाँच सौ से अधिक श्रमिक लगे रहते थे ।

इतनी संख्या में एक स्थान पर इकट्ठे होने से श्रमिकों को अपने को संगठित करने तथा अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने का अच्छा अवसर मिला । इसी कारण रूस की क्रान्ति में कामगार मजदूरवर्ग की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रही । बीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही श्रमिकवर्ग देश की राजनीति में प्रमुख हिस्सा लेने लगा था ।

1905 ई॰ की प्रसिद्ध क्रान्ति को प्रारम्भ करने में इस वर्ग ने जिस भूमिका का निर्वाह किया उससे उसकी वर्ग-सजगता का परिचय मिलता हे सेट पीटर्सबर्ग के श्रमिकों ने हड़ताल करके शासन को अस्त-व्यस्त कर दिया और अपनी पृथक् सरकार बना ली, जिसे ‘श्रमिकों की सोवियत’ का नाम दिया गया था । यद्यपि 1905 ई॰ की क्रान्ति दबा दी गयी, लेकिन श्रमिकों के राजनीतिक जागरण को नहीं दबाया जा सका ।

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लगभग 1800 ई॰ तक रूस एक पिछड़ा हुआ कृषि-प्रधान देश ही बना हुआ था । पर, रूस के कृषकों की दशा अत्यन्त दयनीय थी । वहाँ की निरंकुश जारशाही, मुफ्तखोर कुलीनशाही तथा भ्रष्ट नौकरशाही ने कृषकों की स्थिति में सुधार पर कोई ध्यान नहीं दिया । क्रीमियां के युद्ध में हारने के बाद रूस के शोषक समाजवर्ग ने इस समस्या पर थोड़ा ध्यान दिया था, लेकिन इसका कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं निकला ।

1861 ई॰ में कृषकदासों की उन्मुक्ति के लिए कुछ कदम अवश्य उठाये गये, लेकिन उससे कुछकी की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ । रूस की भूमि के असली मालिक जमींदार ही बने रहे रूस की समस्त कृषक जनसंख्या का एक-तिहाई भाग अन्त तक भूमिहीन बना रहा ।

1861 ई॰ के सुधारों के फलस्वरूप जो भूमि कृषकों को दी गयी थी, वह भी उन्हें ग्राम समुदाय के साथ सामूहिक रूप से रखनी पड़ती थी । भूमिहीन किसान हमेशा जमींदारों के शोषण के शिकार होते रहते थे । 1860 ई॰ के बाद रूस के कृषकों की आबादी निरन्तर बढ़ती जा रही थी । किन्तु, इस बढ़ती हुई आबादी के लिए भूमि उपलब्ध नहीं थी । इस कारण भूमिहीन कृषकों की संख्या में वृद्धि होती जा रही थी ।

ये गरीब किसान गन्दी झोपड़ियों में रहते थे और बड़ी कठिनाई से रूखे-सूखे भोजन की व्यवस्था कर पाते थे । शासन की ओर से उनकी अवस्था में सुधार का कोई यत्न नहीं किया गया । 1902 ई॰ में कई इलाकों में किसानों के बड़े-बड़े विद्रोह हुए क्रान्तिकारी समाजवादी दल ने विद्रोही किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें शासन तथा जमींदारों के विरुद्ध उत्तेजित किया फलत: 1905 ई॰ में रूस के कई भागों में कृषक विद्रोह हुए ।

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किसानों ने भूमिपतियों की जमीन और जंगलों पर अधिकार कर लिया । उसी वर्ष रूस के कृषकों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन मास्को में हुआ और एक अखिल रूस कृषक संघ की स्थापना की गयी बाद में युद्धकालीन परिस्थितियों ने कृषकों के दबे हुए रोष और क्रोध की भावना को भड़का दिया ।

क्रांतिकारी उपद्रवों का तीसरा स्रोत पढ़ा-लिखा प्रबुद्ध या बुद्धिजीवी वर्ग था । ये लोग जारशाही का पतन देखना चाहते थे । इन लोगों ने अपने गुप्त संगठन बना रखे थे । आतंकवाद या निहिलिस्ट तरीकों पर वे लगातार बहस-मुहाबसा चलाते रहते थे । बहस का एक मुद्दा था सच्चा क्रान्तिकारीवर्ग कौन था ? किसान या कारखानों में काम करनेवाले मजदूर ? एक दूसरा मुद्दा था रूस का किसान उन्हीं ऐतिहासिक प्रक्रियाओं तथा मंजिलों से गुजरेगा जिनसे पश्चिमी देशों के किसानों को गुजरना पड़ा था या नहीं ?

एक अन्य प्रमुख प्रश्न था रूस को सर्वहारा क्रान्ति के पूर्व पूँजीवादी व्यवस्था की मंजिल से गुजरना जरूरी था या उसके बिना ही समाजवाद तक पहुंचा जा सकता है ? कुछ लोग कहते थे कि निरंकुश शासन के देश में आतंकवाद तथा हत्या की राजनीति नैतिक आवश्यकताएँ थीं । उन्हें इसमें विश्वास था कि रूसी किसानों में क्रान्ति की परम्परा बनी हुई थी ।

वे इस पर विश्वस्त थे कि कम्यून या मीर के आधार पर अधिक विकसित समाजवाद का निर्माण किया जाना संभव था मार्क्स और ऐंजेल्स की रचनाओं का वे अध्ययन किया करते थे, किन्तु उन्हें इसमें विश्वास नहीं था कि शहरी सर्वहारा एकमात्र सच्चा क्रान्तिकारीवर्ग होता है । उनका कहना था कि रूस को पूँजीवाद की विभीषिका से गुजरना जरूरी नहीं है । वे किसानों की दुर्दशा की बातें करते, जमींदारी की बुराइयों का उल्लेख करते, मीर को मजबूत बनाने का समर्थन करते तथा उसमें हर किसान को बराबर हिस्सा दिये जाने पर बल देते थे ।

उन्हें अपने देश में पूँजीवाद की विजय (समाजवाद की स्थापना के पहले की मंजिल के रूप में) तक नहीं ठहरना पड़ सकता था । इसलिए, वे सोचते थे कि क्रान्ति जल्द ही आ सकती हे इन लोगों ने क्रान्तिकारी पार्टी की स्थापना की । ये लोकवादी नेता मार्क्सवादी भी होते जा रहे थे इन लोगों में एक का नाम वी॰आई॰ लेनिन था । लेनिन एक बड़ा ही प्रतिबद्ध और समर्पित क्रान्तिकारी था । उसमें बौद्धिक प्रखरता, अदम्य शक्ति तथा क्रान्ति की समर नीति निर्धारित करने की अद्‌भुत क्षमता थी । फलत: कुछ ही दिनों में पार्टी में उसका लोहा माना जाने लगा था ।

रूस में मार्क्सवाद:

1898 ई॰ में रूसी मार्क्सवादियों ने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की । वैसे ये लोग सामाजिक क्रान्तिवादियों से अधिक उग्र नहीं थे । पर, क्रान्ति की उनकी अवधारणा इनसे भिन्न थी । वे यह मानते थे कि क्रान्ति एक अन्तरराष्ट्रीय पैमाने की होती है और इसमें हर देश का साझा होता है ।

मार्क्सवादी आकस्मिक आतंकवाद तथा व्यक्तिगत हत्या की राजनीति में विश्वास नहीं करते थे रूसी मार्क्सवादियों ने 1903 ई॰ में लन्दन में अपना सम्मेलन किया । हर रूसी मार्क्सवादी को एकजुट करना उनका मकसद था । पर, हुआ यह कि वे हमेशा के लिए दो गुटों में बंट गये । एक गुट अपने को बोल्शोविक या बहुमत दल कहता और दूसरा गुट मेन्शेविक या अल्पमत गुट । बोल्शेविक गुट का नेता लेनिन था । 1912 ई॰ में बहुमत गुट या बोलोविकों ने अपनी अलग पार्टी बनायी ।

लेनिन मार्क्सवाद का गहन अध्येता था । उसने मार्क्सवाद के तत्त्वों की खोज की । उसे मार्क्सवाद में क्रान्ति के जो सिद्धान्त-सूत्र मिले, उन्हें उसने वैज्ञानिक समझकर पूरा-का-पूरा स्वीकार कर लिया । इन पर वह मार्क्स से भी अधिक कट्टरता के साथ विश्वास करता था वह एक सक्रिय कार्यकर्ता था, आंदोलन करने में सबसे बड़ा माहिर ।

वह वर्ग संघर्ष के मोर्चे का सिपहसालार था । लेकिन, उस समय जब 1903 ई॰ में बोल्शेविक गुट पहले-पहल उभरा था तो उसका कोई असर नहीं हुआ था । रूस में क्रान्ति भड़की 1905 ई॰ में । उस समय जो क्रान्तिकारी देश से बाहर थे, वे सभी उसकी आकस्मिकता, अदम्य शक्ति तथा विस्तार पर स्तंभित हो गये ।

राजनीतिक स्थिति:

रूस में उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के आरम्भ में तीन राजनीतिक पार्टियाँ लगभग एक साथ ही स्थापित हुईं । यह देश में बढ़ते हुए असन्तोष का एकमात्र प्रमाण था । वैसे इनमें एक भी उस तरह की पार्टी नहीं थी, जो चुनाव लड़नेवाली हो, जैसे कि पश्चिमी यूरोप के देशों में होती थी इसका कारण यह था कि रूस में प्रादेशिक जेम्ताफ के लार से ऊपर चुनाव की व्यवस्था ही नहीं थी ।

रूस की ये पार्टियाँ प्रचार-एजेन्सियाँ थीं; पुलिस की उन पर कड़ी दृष्टि रहती थी । फलत: उन्हें छिपकर या भूमिगत होकर काम करना पड़ता था । 1900 ई॰ के बाद लोगों के व्यापक असन्तोष लक्षित होने लगे थे । स्थानीय जमींदारों तथा कर वसूली का काम करनेवालों के विरुद्ध किसानों के विद्रोह मामूली बात हो गयी थी । कारखानों के मजदूर जब-तब काम करना बन्द कर दिया करते थे । किन्तु, इन आन्दोलनों के साथ एक भी पार्टी अपने को नहीं जोड़ पाती थी ।

उधर सरकार भी कोई रियायत देने को तैयार नहीं थी । जार निकोलस द्वितीय 1894 ई॰ में सिंहासन पर बैठा था । उसकी दृष्टि तथा विचार बहुत अपरिवर्तनवादी थे । वह अपने को रूसी प्रजा के लिए पितृवत् मानता था । फलत: किसी तरह की आलोचना उसे बिस्कूल बचकानी-सी लगती थी । रूस का अधिकारीवर्ग यह समझ नहीं पाता था कि शासनतंत्र पर सरकार के बाहर के लोगों या हितों का कोई हाथ हो ।

रूस के लिए एकतंत्र ही उपयुक्त शासन-पद्धति थी, इसमें उनका दृढ़ विश्वास था । उच्च रूसी अधिकारी सोचते थे कि जापान के साथ एक छोटा-मोटा युद्ध तथा उसमें विजय हासिल करके वे लोगों की श्रद्धा एवं सहानुभूति हासिल करेंगे । किन्तु, युद्ध में रूस की पराजय हुई, युद्ध का संचालन इतना ढीले-ढाले ढंग से किया गया कि सारे देश में सरकार के निकम्मेपन पर शोर मच गया ।

सरकार के आलोचकों को भी एक नवोदित एशियाई राष्ट्र के हाथों रूस-जैसे विशाल साम्राज्य के पराजित होने पर ग्लानि तथा लज्जा महसूस हो रही थी । लोगों को लग रहा था कि शासनतंत्र ने सारी दुनिया में अपना निकम्मापन जाहिर कर दिया था उदारवादी सोचते थे कि छिपे-छिपे काम करने का तरीका, आलोचना या परामर्श के प्रति असहिष्णुता आदि के कारण रूसी शासनतंत्र, अकर्मण्य, हठी, अक्षम, निकम्मा एवं गतिहीन हो गया था । वह न तो युद्ध जीत सकता था और न ही आर्थिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को नेतृत्व प्रदान कर सकता था । किन्तु, तत्काल उदारवादी लोग कुछ भी करने में असमर्थ थे ।

1905 ई॰ की क्रान्ति:

इसी बीच श्रमजीवियों में असन्तोष काफी बढ़ चला था । सीधे-सादे श्रमजीवियों का विश्वास था कि यदि किसी तरह वे अपनी फरियाद जार तक पहुँचा सके तो वह उनकी बाते विस्मय के साथ सुनेगा तथा रूसी जनता के सारे दु:ख-दर्द दूर कर देगा, क्योंकि वह हर पूँजीपति तथा उच्च अधिकारी से बहुत ऊपर था ।

फलत: एक आवेदन-पत्र तैयार किया गया । उसमें श्रमजीवियों की मुख्य माँगे रखी गयीं- आठ घण्टे प्रतिदिन काम, एक रूबल प्रतिदिन मजदूरी, अधिकारीवर्ग के प्रति शिकायतें, प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के लिए संविधान-निर्मात्री परिषद् आदि ।

इस आवेदन-पत्र को लेकर निरस्त्र, शान्तिप्रिय, ‘भगवान जार की रक्षा करें’ गाते हुए लगभग दो लाख लोगों की भीड़ जनवरी, 1905 के एक रविवार के दिन जार के प्रासाद के सामने एकत्र हो गयी । लेकिन, जार महल छोड़कर कहीं चला गया था । अधिकारीबर्ग आतंकित था । फौज को भीड़ रोकने के आदेश दे दिये गये, गोलियाँ चलीं और सैकड़ों लोग मारे गये ।

सेंट पीटर्सबर्ग के इस खूनी रविवार ने शासनतंत्र और रूसी जनता के बीच के सारे नैतिक सम्बन्ध-सूत्र तोड़ दिये थे । श्रमजीवियों के समक्ष के यह वास्तविकता प्रकट हुई कि जार उनका मित्र नहीं था । रूसी निरंकुशतंत्र घृणित अधिकारीबर्ग, कर वक्त करनेवाले कर्मचारी, जमींदार तथा कारखानेदारों का समर्थक था । देश-भर में हड़तालों की लहर फैल गयी । इन आन्दोलनों को दिशा प्रदान करने के लिए विदेशों में रहनेवाले सोशल डेमोक्रेट रूस आये ।

इनमें बोल्दोविकों की तुलना में मेचोविक अधिक थे । मास्को तथा सेट पीटर्सबर्ग में श्रमजीवियों की ‘सोवियत’ या समितियाँ गठित की गयीं । ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों ने भूमिपतियों के खेतों पर धावा बोलना शुरू किया । देश-भर में हिंसात्मक कार्रवाइयों का ताँता लग गया । चारों ओर से एक ही आवाज आ रही थी- ‘शासनतंत्र में जनप्रतिनिधित्व’ ।

जार बहुत अनिच्छापूर्वक तथा कम-से-कम रियायतें देने को तैयार हुआ । फलत: क्रांति का दौर चलता रहा । सेंट पीटर्सबर्ग के श्रमजीवियों की सोवियत ने मेन्शोविकों के नेतृत्व में अकबर में आम हड़ताल शुरू कर दी । रेलों का चलना बन्द हो गया, बैंक बन्द हो गये । अखबारों का प्रकाशन रुक गया, वकीलों ने भी कचहरी जाने से इनकार कर दिया । अन्य नगरी में भी काम बन्द हो गये । क्रान्ति देहातों में भी फैल गयी ।

इस प्रकार, शासनतंत्र का सारा कामकाज ठप्प पड़ गया था । इस स्थिति में जार ने ‘अक्टूबर घोषणापत्र’ जारी किया । इसमें संविधान, नागरिक स्वतन्त्रता, हर वर्ग द्वारा समान रूप से निर्वाचित संसद् अधिराज, कानून बनाने तथा प्रकाशन पर नियन्त्रण रखने के चूरमा के अधिकार आदि थे । पर, जार की वास्तविक मंशा कुछ और थी ।

वह संविधान का वादा कर विरोधी पक्षों में फूट डालना चाहता था । इसमें उसे सफलता मिली । संविधान की माँग करनेवाले उदारवादियों ने आशा की थी कि अमा जब काम करने लगेगी तो संसदीय शासन का युग शुरू हो जाएगा । किन्तु, सोशल डेमोक्रैट मात्र इतने से संतुष्ट नहीं थे ।

उन्होंने आन्दोलन को जारी रखना चाहा । फलत: सोवियते काम करती रहीं, हड़तालें जारी रहीं तथा सैनिक बगावत करने लगे । इन सबके बावजूद बुर्ज-वर्ग के उदारवादी अब चुप बैठ गये थे । अत: शासनतंत्र किसी तरह काम चलाता रहा । अधिकारियों ने सेंट पीटर्सबर्ग सोवियत के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया । क्रान्तिकारी नेतृत्व बिखर गया । कुछ लोग जेल में बंद कर दिये गये; अन्य लोग या तो भूमिगत हो गये या उन्होंने विदेशों में शरण ली ।

रूस में संसदीय शासनतंत्र का ढाँचा खड़ा किया जाना 1905 ई॰ की क्रांति का मुख्य परिणाम था । घूमा-रूसी संसद्-का अधिवेशन बुलाया गया । 1906 से 1916 ई॰ तक रूस में संवैधानिक राजतंत्र की संरचना मात्र ऊपर-ऊपर कायम रही । रूस के 1905 ई॰ की तुलना फ्रांस के 1789 ई॰ से की जा सकती है, पर उसका 1793 ई॰ आने में बारह वर्ष की देर थी । साथ ही, जारशाही एक बात पर अटल थी कि आम लोगों को शासनतंत्र की भागीदारी नहीं देनी थी । 1906 ई॰ में ही यह घोषित कर दिया गया था कि ड्यूमा को प्रशासनकर्मियों पर, बजट-निर्माण पर तथा विदेश-नीति पर कोई अधिकार नहीं होगा ।

इसी रूप में 1916 ई॰ तक अमा बनी रही और बीच-बीच में क्रांतिकारी वारदातें भी होती रहीं । कुल मिलाकर प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने के समय रूसी साम्राज्य पश्चिमी यूरोपीय देशों के मार्ग पर अग्रसर हो रहा था । निजी संपत्ति तथा व्यक्तिगत पूँजीवाद का प्रसार हो रहा था, साथ-ही-साथ वर्ग-तनाव भी बढ़ रहा था ।

1917 ई॰ की मार्च क्रांति:

प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के पूर्व रूसी शासनतंत्र का संचालन घोर प्रतिक्रियावादी लोगों के गुट के हाथों में था अपनी सत्ता पर खतरा देखकर इन लोगों को यूरोपीय युद्ध की आग भड़काने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई । रूस के निरंकुशतंत्र का ख्याल था युद्ध के कारण रूस की जनता घरेलू असन्तोष को भूलकर बाहरी मामलों में उलझ जायेगी ।

अत: रूस की सरकार ने सर्बियाई राष्ट्रवादियों को समर्थन दिया । प्रथम विश्वयुद्ध में रूस शुरू से ही एक युद्धरत था । युद्ध में युद्धरत शक्ति बन जाने के फलस्वरूप जारशाही हुकूमत एक ऐसी कसौटी पर चढ़ चुकी थी जिस पर खरा उतरना उसके लिए बिल्कुल ही संभव नहीं था । यह युद्ध सरकारों या राजाओं के बीच नहीं, वरन् राष्ट्रों के बीच लड़ा जा रहा था जिसमें देश की सारी जनता सहभागी थी ।

देश की जनता का स्वेच्छा से सहयोग इसमें विजय की पहली शर्त थी । पर, जार के शासनतंत्र को यह वस्तु ही हासिल न थी । राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों- पोल, यहूदी, युक्रेनी, काकाससी तथा अन्य ऐसे लोगों-में असन्तोष भरा था । समाजवादी अन्य देशों में सरकार का साथ दे रहे थे, पर रूसी दरमा के मुट्‌ठीभर समाजवादी सदस्यों ने युद्ध का विरोध किया । उन्हें तुरत गिरफ्तार कर लिया गया ।

सामान्य श्रमजीवी तथा किसान ने फौज का साथ तो दिया, पर उनमें वह व्यक्तिगत निष्ठा नहीं थी जो जर्मनी या फ्रांस में थी । मध्यमवर्ग का रवैया और भी निर्णायक था । वे दिल से रूस की विजय की कामना करते थे, शासनतंत्र का कुप्रबन्ध उनके लिए असह्य था ।

युद्ध के आरम्भ होते ही सरकार की दुर्बलता प्रकट होने लगी । 1915 ई॰ तक लगभग बीस लाख रूसी सैनिक हताहत हुए थे या बन्दी बनाये जा चुके थे । हर मोर्चे पर रूस की पराजय हो रही थी । युद्ध छिड़ने पर मध्यवित्तवर्ग सरकार को हर संभव सहायता देने को तैयार हो गया ।

कृषि तथा उद्योग-धंधों के साधनों को युद्ध में लगाने के लिए भरपूर प्रयत्न किये गये व्यवसायियों ने उत्पादन अधिक-से-अधिक बढ़ाने की कोशिश की । लेकिन, इसके साथ ही मध्यवित्तवर्ग को अपनी ताकत का भी ज्ञान हुआ । ये लोग अधिकारीवर्ग के और भी कट्टर आलोचक हो गये । युद्ध मंत्रालय के कुछेक अधिकारियों पर जर्मनी के प्रति सहानुभूति रखने का संदेह किया जाता था ।

राजपरिवार में विचित्र बाते हो रही थीं महारानी अलेक्जेण्ड्रा राजकुल को छोड़कर आम रूसियों को गँवार समझती थी । वह स्वयं रासपुटीन नामक एक पाखंडी धर्म-पुरोहित से अत्यधिक प्रभावित थी अपने पति को भी वह निर्मम होने को प्रेरित करती थी । महारानी पर अपने प्रभाव के कारण रासपुटीन उच्च पदों पर अयोग्य व्यक्तियों को नियुक्त करा देता था । सम्राट् से भेंट करने के लिए भी रासपुटीन की पैरवी की जरूरत होती थी ।

स्वभावत: निष्ठावान और देशभक्त लोगों को इस पर रोष होता था तथा वे विरोध करते, लेकिन उनकी बात सुनी नहीं जाती थी । इन परिस्थितियों तथा युद्ध में शर्मनाक पराजयों को देखते हुए जेम्सतीफ के संघ एवं अन्य युद्धकालीन संस्थाएँ प्रशासन की खामियों की ही नहीं, राज्य की बुनियादी अवस्था की भी शिकायतें करने लगी थीं ।

युद्ध के दरम्यान ड्यूमा का सत्रावसान कर दिया गया था । महारानी, रासपुटीन तथा अन्य उच्च पदस्थ लोग यह आशा करते थे कि महायुद्ध में विजय होने पर उदारवादियों को तथा अन्य परिवर्तन की माँग करनेवालों को कुचल देना कठिन नहीं होगा ।

फलत: 1905 ई॰ में जितनी भी बुनियादी समस्याएँ रूस में बनी हुई थीं, वे सब युद्धकाल में पुन: मुखर होने लगीं । जेम्सताफ संघ ने रूसी संसद् का अधिवेशन बुलाये जाने की माँग की । ड्यूमा की बैठक नवम्बर, 1916 में हुई जिसमें युद्धनीति की कटु आलोचना हुई । युद्ध की गतिविधियों तथा सरकार का अक्षमता पर देश-भर में घोर असन्तोष की लहर फैल रही थी ।

दिसम्बर में रासपुटीन की किसी ने हत्या कर दी । इस पर जार ने चूरमा की बैठक स्थगित कर दी तथा दमनकारी उपाय सोचे जाने लगे । अमा तथा नयी गैर-सरकारी संस्थाओं के सदस्य सोच रहे थे कि शक्ति-प्रयोग करके ही स्थिति को सुधारा जा सकता है । जब नरम विचार के लोग इस प्रकार सोचने लगें तो क्रांति अवश्यंभावी हो जाती है ।

नरमपंथियों और उदारवादियों के रवैये में परिवर्तन, प्रतिक्रियावादियों से अपने को बचाने के लिए सत्ता-अधिग्रहण की जरूरत महसूस करने आदि से जो स्थिति उत्पन्न हो रही थी, उसमें क्रांतिकारियों की सक्रियता और बढ़ गयी । ऐसे ही अवसर पर सेट पीटर्सबर्ग के श्रमजीवियों ने पहल की ।

युद्धरत देशों में खाद्यान्न की भारी कमी हो गयी थी । अन्य देशों में कंट्रोल और राशनिंग द्वारा इस समस्या का समाधान करने के प्रयास किये जा रहे थे, किन्तु रूसी शासनतंत्र में घूसखोरी तथा अयोग्यता के कारण इतनी सूझबूझ नहीं थी कि कोई भी कारगर कदम उठाया जाता । खाद्यान्न के अभाव के कारण देश के निर्धन लोगों को सबसे अधिक कष्ट उठाना पड़ता था ।

8 मार्च, 1917 को खाद्यान्न के मुद्दे पर दंगे हुए । क्रांतिवादी बुद्धिजीवियों की प्रेरणा से दंगों ने राजनीतिक रंग ले लिया । प्रदर्शनकारी ‘जार का नाश हो’, ‘जार मुर्दाबाद’ का नारा लगा रहे थे । सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया । सैनिक टुकड़ियों में बगावत फैलती जा रही थी । कुछ ही काल में पेट्रोग्राड (सेंट पीटर्सबर्ग का नया नाम) में श्रमिकों तथा सैनिकों की सोवियत स्थापित हो गयी ।

देश का बुर्जुआ नेतृत्व सरकार से सहयोग कर रहा था । किन्तु, नये माहौल में वह निस्सहाय-सा महसूस कर रहा था । उसने मंत्रिपरिषद् का विघटन करके ऐसा मंत्रिमंडल बनाये जाने की माँग की जिसे अमा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो । अमा ने एक कार्यपालिका समिति नियुक्त करके उसे स्थिति साफ होने तक कार्यभार सँभालने को अधिकृत किया । इस प्रकार, राजधानी में अब सत्ता के दो केन्द्र हो गये थे-विधान-सम्मत नरमपंथी कार्यपालिका समिति जिसकी नियुक्ति अमा ने की थी व क्रान्तिकारी तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करनेवाली पेट्रोग्राड सोवियत जिसे अधिकाधिक जन-समर्थन मिलता जा रहा था ।

पेट्रोग्राड सोवियत 1917 ई॰ के रूस में लगभग वही काम कर रहा था, जो पेरिस कम्यून ने 1792 ई॰ में पेरिस में किया था- यह काम था सत्ता के आसन को अधिकाधिक वामपंथ की ओर उन्मुख कराना । पेट्रोग्राड की सोवियत श्रमजीवीवर्ग के उथल-पुथल का सार्वजनिक मंच तथा प्रशासनिक केन्द्र बन गया था ।

सभी तरह के सिद्धान्तवादी समाजवादी बोल्शेविक, मेन्शेविक, सोशल डेमोक्रैट आदि-इस पर अपना प्रभाव स्थापित करके अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोग करने का प्रयत्न कर रहे थे ।

पेट्रोग्राड की क्रान्ति:

मार्च, 1917 को रूस में क्रान्ति का प्रथम विस्फोट हुआ । उस दिन गरीब किसान-मजदूरों ने पेट्रोग्राड की सड़कों पर जुलूस निकाला । पेट्रोग्राड के होटलों और दुकानों को वे लूटने लगे और स्थिति काबू से बाहर होने लगी । सरकार ने आदेश दिया कि भीड़ पर गोली चलाकर उसको तितर-बितर कर दिया जाय ।

किन्तु, सिपाहियों की सहानुभूति मजदूरों के साथ थी । उन्होंने गोली चलाने से इनकार कर दिया । क्रान्ति की भावना उनमें भी प्रवेश कर चुकी थी । इससे स्थिति और भी गंभीर हो गयी । अब रूस के कोने-कोने में क्रान्ति की लहर फैल गयी । चारों ओर हड़ताले होने लगीं ।

अगले दिन 8 मार्च को कपड़े की मिलों की मजदूर-स्त्रियों ने रोटी की माँग करते हुए हड़ताल कर दी । दूसरे दिन उनके साथ अन्य मजदूर शामिल हो गये । उस दिन सारे शहर में आम हड़ताल हो गयी और रोटी के नारों के साथ उन्होंने ‘युद्ध बंद करो’ और ‘अत्याचारी शासन का नाश हो आदि नारे लगाने शुरू किये ।

11 मार्च को जार ने मजदूरों को काम पर लौटने का आदेश दिया, पर उन्होंने नहीं माना । तब सिपाहियों को गोली चलाने की आज्ञा दी गयी । पर, उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया । उसी दिन जार ने चूरमा को भंग करने का आदेश भी दे दिया । पर, अमा ने भंग होने से इनकार कर दिया । उसी दिन पचीस हजार सैनिक हड़तालियों के पक्ष में मिल गये ।

स्थिति अब एकदम काबूसे बाहर हो गयी थी । हड़ताली मजदूर और सैनिकों ने पेट्रोग्राड में एक सोवियत की स्थापना की । अगले दिन समूची राजधानी पर सोवियतों का अधिकार हो गया ।

जार ने इस अराजकता का अंत करने के अभिप्राय से युद्ध-स्थल से राजधानी जाने का निश्चय किया । लेकिन, विप्लवकारी सैनिकों और रेल के पदाधिकारियों ने उसे वहाँ न जाने दिया तथा उसकी स्पेशल रेलगाड़ी को विस्साव नगर भेज दिया, जहाँ उसको कैद कर लिया गया ।

जार के बंदी किये जाने पर अब रूस में ड्यूमा ही ऐसी संस्था रह गयी थी जो देश की सरकार का संचालन करती । 14 मार्च को ड्यूमा के अध्यक्ष रोजीयान्को और पेट्रोग्राड सोवियत के बीच एक समझौता हुआ, जिसके फलस्वरूप 18 मार्च, 1917 को उदारवादी नेता जॉर्ज ल्वाव के नेतृत्व में एक उत्तरदायी अस्थायी सरकार की स्थापना की गयी । वह रूस का प्रधानमंत्री नियुक्त हुआ ।

दूसरे दिन उसकी ओर से एक प्रतिनिधिमंडल जार से मिला और उससे यह माँग की गयी कि वह सिंहासन त्याग दे । जार को परिस्थिति की गंभीरता समझने में देर नहीं लगी । उसने इस प्रस्ताव का कोई विरोध नहीं किया और चुपचाप सिंहासन त्याग दिया । इस प्रकार, तीन शताब्दियों से रूस के विशाल साम्राज्य पर एकछत्र निरंकुश शासन करनेवाले रोमनोव राजवंश का अंत हो गया ।

यह मार्च की क्रान्ति थी । इस क्रान्ति में पेट्रोग्राड ने वही काम किया जो फ्रांस की क्रान्ति में पेरिस ने किया था । क्रान्ति मजदूरों ने की थी, लेकिन शासनसत्ता मध्यमवर्ग के हाथ में चली गयी । इसका कारण यह था कि मजदूर लोग अभी देश का शासन सँभालने में अपने को असमर्थ अनुभव करते थे और सेना का रुख भी अनिश्चित था । बरमा द्वारा नियुक्त शासन के प्रति क्रान्ति का भय भी नहीं था ।

अस्थायी सरकार:

अस्थायी सरकार का निर्माण लिबरल दल के नेता प्रिन्स ल्वाव के नेतृत्व में किया गया था । इनके अन्य मन्त्री बड़े ही योग्य थे । इसमें मियूकाव विदेशमंत्री, गुचकाव युद्धमन्त्री तथा करेन्सकी न्यायमन्त्री थे । स्थापना के तुरंत बाद इस सरकार ने भाषण, प्रेस, धर्म, संघ-संस्था आदि की स्वतंत्रता घोषित कर दी । राजनीतिक बंदी मुक्त कर दिये गये और निर्वासितों को घर लोटने की अनुमति मिल गयी । अस्सी हजार के लगभग व्यक्ति साइबेरिया से लौट कर आये ।

मृत्यु की सजा बंद कर दी गयी, यहूदी-विरोधी कानून रह कर दिये गये तथा स्वेच्छापूर्वक गिरजारियाँ अवैध घोषित कर दी गयीं । चर्च के विशेषाधिकार भी समाप्त कर दिये गये । सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य इसका यह रहा कि उसने नये विधान के निर्माण के लिए शीघ्र ही वयस्क मताधिकार पर एक विधानसभा के निर्वाचन की घोषणा कर दी ।

वैदेशिक नीति के क्षेत्र में फिनलैण्ड के वैध अधिकार को वापस करके पोलैण्ड को स्वायत्त शासन का वचन दिया गया युद्ध की ओर इस सरकार ने नये उत्साह से ध्यान दिया ।

किन्तु, इस सरकार की स्थिति प्रारम्भ से ही कठिन थी । इसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि इसके ऊपर आरम्भ से ही एक असफल युद्ध-संचालन का भार आ पड़ा । इसके अतिरिक्त, सरकार को अपनी सजा स्थायी रखने के लिए उदार समाजवादियों की सहायता का सहारा लेना पड़ता था । यद्यपि श्रमिक शासन पर अपना अधिकार नहीं कर पाये थे, लेकिन वे शासन पर नियंत्रण करने का इरादा अवश्य रखते थे ।

मजदूरों ने अपनी सोवियतें स्थापित कर ली थीं और इन पर शासन करना तथा सोवियतें साम्यवादी सिद्धान्त को कार्यान्वित करना चाहती थीं । इस हालत में सरकार ने उदारवादी दिशा में प्रशंसनीय कार्य किये, पर वास्तविक समस्या को हल करने में वह बिल्कुल असमर्थ रही ।

जारशाही का अंत इसलिए हुआ था कि उसने इस वास्तविक समस्या की ओर से मुँह मोड़ लिया था । इसमें सैनिकों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे । सरकार ने उदारवादी सिद्धान्तों का आधार लिया था । इस कारण नयी सरकार की भी वही दुर्गति हुई, जो जारशाही की हुई थी ।

हम कह आये हैं कि नयी सरकार युद्ध जारी रखने के पक्ष में थी और सोवियतें इसका विरोध कर रही थीं । राजनीतिक समस्याओं में जनता की दिलचस्पी नहीं थी, वह भोजन के अभाव और युद्ध से मुक्ति चाहती थी और अस्थायी सरकार इस माँग की पूर्ति नहीं कर रही थी ।

इस कारण जनता में उसके विरुद्ध व्यापक असंतोष फैला । युद्ध में निरन्तर हार हो रही थी, इस कारण मन्त्रिमण्डल का पुनर्गठन हुआ और करेन्सकी को युद्धमन्त्री बनाया गया । वह भी युद्ध के संचालन में असफल रहा । पर, इसके बाद ही करेन्सकी प्रधानमन्त्री बन गया । वह एक समाजवादी था और उससे यह आशा की जाने लगी कि यह युद्ध का अंत कर शत्रु के साथ शान्ति स्थापित कर लेगा । किन्तु, उसने ऐसा नहीं किया । इस कारण साम्यवादी उसका भी विरोध करने लगे ।

बोल्शेविक क्रान्ति (नवम्बर, 1917):

अन्तरिम सरकार ने यूरोपीय देशों की क्रान्ति की परम्परा में संविधान बनाने के लिए एक संविधान-निर्मात्री परिषद् गठित करने के लिए आम निर्वाचन की घोषणा कर दी । निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जानेवाला था । जर्मनी के विरुद्ध लड़ाई भी जारी रखने की कोशिश की गयी ।

जुलाई में पूरी तैयारी के साथ प्रत्याक्रमण किया गया, पर रूसी सेना तितर-बितर होकर बिखर गयी । अंतरिम सरकार ने किसानों में जमीन का पुनर्वितरण करने का वादा कर दिया, पर उसपर अमल करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया इस बीच ग्रामीण इलाकों में किसान जमीन पर कब्जा करते जा रहे थे साथ-साथ लूट, आगजनी और हिंसा का बाजार भी गर्म था ।

युद्ध के मोर्चे पर अनेक उच्च अधिकारी नये गणतंत्र की सेना में रहने से इनकार कर रहे थे । सैनिक खेती करने के लिए वापस लौट रहे थे । पेट्रोग्राड सोवियत ने जल्दी युद्ध समाज करने की माँग की । अधिकारियों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया की आशंका से 14 मार्च को अपना पहला आदेश निकालकर फौजी कमान अधिकारियों तथा सैनिकों की संयुक्त समितियों को सौंप दिया । अनुशासन पूरी तरह भंग हो चुका था ।

लेनिन का नेतृत्व:

कई बोल्शेविक नेताओं के साथ लेनिन मध्य अप्रिल में पेट्रोग्राड आया । अपने उग्र साम्यवादी विचारों के कारण वह जार की सरकार द्वारा निर्वासित कर दिया गया था । जब मार्च, 1917 में रूस की क्रान्ति हुई तो वह जर्मनी की सहायता से रूस पहुँचा । लेनिन के आ जाने से परिस्थिति एकदम बदल गयी इस समय तक क्रान्ति अपने पूरे दौर पर थी ।

एक मेन्शेविक नेता ने लेनिन का स्वागत करते हुए सभी लोकतंत्रात्मक तत्त्वों को क्रान्ति के रक्षार्थ एकजुट होने का एलान किया लेनिन ने अपने स्वागत में एकत्र लोगों को संबोधित करते हुए कहा- ”आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, यूरोपीय साम्राज्यवाद की इमारत ढहनेवाली है । आपने रूसी क्रान्ति की शुरुआत की है, इससे एक नया युग शुरू हुआ है । साम्राज्यवाद के अंत की भूमिका इससे तैयार हुई है । सारी दुनिया समाजवादी क्रान्ति का स्वागत करें ।”

इन शब्दों में लेनिन ने संकेत किया कि अब तक जो कुछ हुआ था, वह बुर्जुआ क्रान्ति थी । उसके पद-चिह्नों पर अब दूसरी क्रान्ति होनी चाहिए । इसमें श्रमजीवियों ओर किसानों के हाथों में सत्ता आयेगी । लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने अविलम्ब कार्यकारी सरकार के विरुद्ध पेट्रोग्राड सोवियत का साथ दिया । अन्य क्षेत्रों में भी तबतक सोवियते बनायी जा चुकी थीं तथा वे काम कर रही थीं । लेनिन के इशारे पर बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने इनका साथ दिया ।

बोल्शेविक नेतृत्व में एक विद्रोह भी हुआ, पर उसे दबा दिया गया और लेनिन को भागकर फिनलैण्ड में शरण लेनी पड़ी । इसी समय जनसमर्थन के लिए केरेन्सकी को अंतरिम सरकार का प्रधान बना दिया गया । लेकिन, उस पर दक्षिणपंथियों की ओर से भी दबाव पड़ रहा था । कार्निलाफ नामक एक सेनापति ने सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश की । उसे अनेक उदारवादियों का समर्थन भी मिला ।

स्पष्टत: यह क्रांति-विरोधी प्रयत्न था । इसे बोल्शेविकों की मदद के बिना नाकाम नहीं किया जा सकता था । विभिन्न क्रांतिकारी तत्त्वों ने मिलकर कार्निलाफ के प्रयत्न को विफल कर दिया । अब केरेन्सकी ने बोल्शेविकों को छोड़कर अन्य सभी समाजवादी तत्त्वों को मिलाकर सरकार बनायी । इधर खाद्यान्न की स्थिति और बिगड़ गयी थी ।

यातायात परिवहन की व्यवस्था पूरी तरह टूट चुकी थी । खेती करनेवाले लोग प्रदर्शनकारी बन गये । फलत: देश-भर में अकाल, भुखमरी, अराजकता की स्थिति पैदा होने लगी थी । ऐसी स्थिति में स्वाभाविक था कि लोग उसकी बात सुनते जो सबसे ज्यादा उग्र तथा चरमपंथी होता ।

लेनिन ने लोगों के समक्ष एक ऐसा कार्यक्रम रखा जो सर्वाधिक उत्तेजित और अतिवादी तत्त्वों को भी पसन्द होता उसके कार्यक्रम के मुख्य चार मुद्दे थे:

(i) केन्द्रीय शक्तियों के साथ युद्ध की तत्काल समाप्ति,

(ii) किसानों के मध्य जमीन का पुनर्वितरण,

(iii) कल-कारखानों आदि का पूँजीपतियों के हाथों से श्रमजीवी-सोवियतों को हस्तांतरण, तथा

(iv) अंतरिम सरकार के स्थान पर सोवियत को सर्वोच्च सत्ता अधिकरण स्वीकार करना ।

लेनिन सैद्धान्तिक पक्ष पर समझौता नहीं किया करता था, किन्तु समरनीति तय करते समय वह नमनीय हो सकता था । इस मुद्दे पर वह अत्यन्त साहसिक निर्णय ले सकता था । 1917 ई॰ में लेनिन के फैसले मार्क्सवादी सिद्धान्तों द्वारा उतना नहीं, जितना रूस की तत्कालीन स्थिति द्वारा अनुप्रेरित थे ।

सैनिकों, किसानों, श्रमजीवियों को अपने पक्ष में एकजुट करना था । यह ‘शान्ति, जमीन और रोटी’ का वादा करके ही किया जा सकता था और लेनिन यही कर रहा था इस कार्यक्रम के फलस्वरूप संसदीय समरनीति के द्वारा, प्रतिद्वन्द्वियों में घुसपैठ करके तथा अन्य कई तरीकों से बोत्योविक तत्त्वों को पेट्रोग्राड सोवियत तथा अन्यत्र देश भर के सोवियतों में बहुमत हासिल हो गया ।

अब लेनिन का नारा था- ‘सारी सत्ता सोवियतों के हाथ ।’ वह एक ओर केरेन्सकी की ताकत को तोड़ना चाहता था, दूसरी ओर संविधान-निर्मात्री परिषद् नहीं बुलवाने देना चाहता था । केरेन्सकी के लिए अपना जनसमर्थन विस्तृत करना जरूरी हो गया था ।

संविधान-निर्मात्री परिषद् के गठन तक चुप बैठे रहने के लिए उसके पास समय नहीं था । फलत: उसने हर पार्टी, श्रमिक-संघ तथा जेम्सतॉफ के प्रतिनिधियों का एक अधिवेशन आहूत किया । अपने अनुयायियों तथा साथियों सहित लेनिन ने इसका बहिष्कार किया । उसने एक अखिल रूसी सोवियत काँग्रेस के अधिवेशन का ऐलान किया ।

लेनिन देख रहा था कि सत्ता अधिग्रहण की घड़ी आ गयी थी । उच्च बोल्शेविक नेतृत्व में इस पर मतभेद नहीं था । जिनोफिफ तथा कामेनेफ-जैसे अनेक लोग विरोध कर रहे थे, किन्तु ट्राटस्की, स्टालिन तथा अधिकतर पार्टी की केन्द्रीय समिति के दूसरे लोगों ने लेनिन का समर्थन किया पेट्रोग्राड के शिविरों के सेनिकों ने सोवियतों का साथ देने के पक्ष में मत व्यक्त किया ।

इस समय तक सोवियतों पर बोल्शेविक पार्टी का नियन्त्रण हो चुका था । 6-7 नवम्बर की रात में बोल्दोविकों ने राजधानी के टेलीफोन एक्सचेंज, रेलवे स्टेशनों, बिजलीघरों पर कब्जा कर लिया । केरेन्सकी की रक्षा करने को एक भी सैनिक नहीं उपलब्ध था । जल्दी-जल्दी में सोवियतों की काँग्रेस बुलायी गयी । उसमें केरेन्सकी की सरकार को विघटित करके लेनिन के नेतृत्व में एक नये मन्त्रिमण्डल के गठन की घोषणा की गयी । ट्राटस्की को युद्धमंत्री तथा स्टालिन को गृहमंत्री नियुक्त किया गया । केरेन्सकी देश छोड़कर चला गया ।

इस प्रकार, रूस की नवम्बर क्रांति निष्पन्न हुई तथा बोल्शेधिक पार्टी के हाथों में सत्ता आ गयी । अब केवल संविधान-निर्मात्री परिषद् से निपटना शेष रह गया था । जनवरी, 1918 में इसका अधिवेशन हुआ । इसके लिए मतदान करनेवाले 3,60,00,000 लोगों में केवल 90,00,000 मतदाताओं के मत बोल्शेविक प्रतिनिधियों के पक्ष में पड़े थे; शेष केरेन्सकी की पार्टी के पक्ष में ।

केरेन्सकी की पार्टी के पक्ष में लगभग 2,10,00,000 लोगों ने मतदान किया था । अत: लेनिन को इस वास्तविकता से निबटना था । उसने घोषणा की कि संविधान- निर्मात्री परिषद् को सत्ता सौंप देना रूसी बुर्जुआओं के साथ समझौता करना होगा । अत: संविधान-निर्मात्री परिषद् भंग कर दी गयी । सोवियत मन्त्रिमण्डल द्वारा भेजे गये सशस्त्र नाविकों ने परिषद् भवन को घेर लिया ।

परिषद् का विघटन हो गया । संविधान-निर्मात्री परिषद् का विघटन लोकतंत्रात्मक आचारसंहिता की दृष्टि से सर्वथा वर्जनीय काम था । लेकिन, नयी व्यवस्था में इसे वर्गशासन के पक्ष में बहुमत शासन का परित्याग कहा गया । कहा गया कि इस शासनतंत्र का संचालन सर्वहारा के पक्ष में उनकी पार्टी- बोल्शेविक पार्टी- करेगी ।

सर्वहारा का अधिनायकवाद स्थापित हो चुका था । मार्च, 1919 में बेल्शेविक पार्टी का नाम बदलकर फिर कम्युनिस्ट पाटी कर दिया गया ।

लेनिन की सफलता का राज:

1924 ई॰ में मृत्यु होने तक लेनिन रूस की राजनीति पर छाया रहा । शेष विश्व के राजनीतिक मंच पर जो घटनाएँ हो रही थीं, उन पर उसका प्रभाव महसूस किया जाता रहा । लेनिन की सफलता के अनेक कारण थे । सता में आने के पूर्व उसने मार्क्सवादी साहित्य का गहरा अध्ययन किया था । वह कहता था कि इससे उसे अचूक साधन तथा स्पष्ट मार्ग मिले थे ।

पार्टी-निर्माता के रूप में उसने लोकशक्ति के प्रयोग तथा उपयोग की कला सीखी थी । इन सबके फलस्वरूप रूस वापस आने पर सजा अधिग्रहण, अपना शासनतंत्र सुदृढ़ करने तथा हर संकल्प के साथ रूस की सामाजिक तथा राजनीतिक कायापलट करने में वह कामयाब हुआ । लेनिन की एक विशेषता यह थी कि उसकी दृष्टि लक्ष्य पर केन्द्रित रहती थी, उसे हासिल करने में चाहे जो भी मूल्य चुकाना पड़े, उसमें उसे हिचकिचाहट नहीं होती थी ।

लेनिन को बड़ी संख्या में निष्ठावान तथा प्रतिबद्ध अनुयायियों का सहयोग मिलता रहा । ये लोग खुद भी बड़े समर्थ तथा प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । लेनिन की प्रतिभा के पूरी तरह कायल होने के कारण इन्होंने उसके लेखों का गहरा अध्ययन किया था तथा अपनी पूरी निष्ठा उसे प्रदान करते थे ।

पूरा तर्क और बहस-मुबाहिसा के बाद जो फैसले लिये जाते थे उनपर एकजुट होकर अमल करना, इसमें किसी तरह का तर्क या हीलाहवाला नहीं सुनना, लेनिन की यही कार्यपद्धति थी । अपने साथियों से वह आँख मूँदकर स्वीकृत फैसलों पर अमल करने पर बल देता था ।

निर्णय लिये जाने के पहले अपने घनिष्ठ अनुयायियों के विचार सुनने तथा विभिन्न संभावनाओं पर सोचने, ध्यान देने को तैयार रहता था । अंत में जो निर्णय लिया गया हो, उससे भिन्न विचार प्रकट करनेवाले साथियों के प्रति वह किसी तरह की दुर्भावना अपने मन में नहीं रखता था, स्टालिन में इतनी उदारता नहीं थी । किंतु, एक बार निर्णय लिये जाने पर विरोध को सहन नहीं किया जाता था ।

लेनिन आम कार्यकर्ताओं के मध्य बहुत ही लोकप्रिय था । आम श्रमजीवियों की अशेष निष्ठा उसे प्राप्त थी । वह महान् वक्ता नहीं था । पढ़ने में उसके भाषण रोचक नहीं लगते । पर, वह आम जनता के समक्ष भाषण नहीं किया करता था । किस घड़ी कौन-सी जरूरत है, इसे बहुत स्पष्टता के साथ कह दिया करता था । वह क्यों किसी खास निष्कर्ष पर पहुँचा है, इसे अकाट्‌य तर्क के साथ सीधे और साफ शब्दों में जनता के समक्ष रख देता था ।

जनता को यह विश्वास हो जाता था कि वह उनके सामने सारी बातें रख रहा है, उनसे कुछ छिपाता नहीं है । अत: वे उस पर भरोसा कर सकते थे । उसके पूर्ण नि:स्वार्थ होने में उन्हें किंचित् भी शंका नहीं थी । जब वह रूस का सर्वोच्च शासक था, उन दिनों भी वह बड़ी सादगी से रहता था ।

भारत के गाँधीवादी नेताओं की तरह उसने कभी किसी तरह की सुविधा या अपने लिए विशेष प्रबन्ध की माँग नहीं की । रूस का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होते हुए भी उसे जब कभी कोई पुस्तक रात भर के लिए रखनी होती तो इसके लिए वह पुस्तकालय के अध्यक्ष से अनुमति प्रदान करने के लिए लिख देता था ।

लेनिन रूसी जनता की दृष्टि में पितातुल्य हो गया । उसके सत्ता के सर्वोच्च आसन पर पहुँचने का एक रहस्य यह था कि उसे दृढ़ विश्वास था कि आम आदमी सबसे ज्यादा शांति चाहता है । बोल्शेविकों के सत्ता में आने के पहले की दूसरी क्रांतिकारी सरकारें तथा कुछ बाद में आनेवाली सरकारें भी इसे नहीं समझ पायी थीं ।

क्रांति का सुदृढ़ीकरण:

युद्ध बंद करने लिए बोल्शेविक सरकार ने 3 मार्च, 1918 को जर्मनी के साथ ब्रेस्टलिटोब्स्क की सन्धि की । इसके अनुसार बाल्टिक के तटवर्ती इलाकों (इस्थोनिया, सिवोजिया, कोरैल, लिथुआनिया), पोलैण्ड तथा युक्रेन, फिनलैंड जॉर्जिया, बातुम, अर्धान और कार्स रूस के हाथों से निकल गये । दो सौ वर्षों के दरम्यान विजय-अभियानों में हासिल किये गये इतने विस्तृत क्षेत्र रूस से विच्छिन्न हो रहे थे ।

पर, लोनिन के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था उसे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं था कि महान् विश्व-क्रान्ति की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी, रूस का घटनाक्रम उसकी भूमिका थी । यूरोप में जो युद्ध चल रहा था उससे सारा महादेश मार्क्सवादी क्रांति की चपेट में आने ही वाला था । यह नियति का अभिलेख था । फलत: साम्राज्यवादी व्यवस्था का अंत होना ही था ।

पोल, युक्रायनी तथा दूसरे लोग जल्द ही स्वतन्त्रता तथा समाजवाद के नये लोक में उठ खड़े होगे । स्वयं जर्मनी के लोग भी मुक्त होगे । उसकी ये आशाएँ या सपने चाहे सत्य न हुए हो, किन्तु यह सत्य है कि शांति का वादा करके ही उसने रूसी जनता का समर्थन हासिल किया था, जिसके बिना केरेन्सकी को सत्ता से उखाड़ना संभव नहीं होता ।

जर्मनी के साथ सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर करके युद्ध समाप्त करना केरेन्सकी भी चाहता था, किन्तु उसने देर कर दी थी । वह इंग्लैण्ड और फ्रांस की सरकारों द्वारा त्रिपक्षीय समझौते के दायित्वों से मुक्त किये जाने की प्रतीक्षा करता रहा ।

बोल्शेविक शासन के प्रथम चरण में कई विस्मयकारी कदम उठाये गये तथा चौका देनेवाले कानून जारी किये गये । उस जमाने की शेष दुनिया की सरकारों के लिए ये घोर अनुचित तथा हजारों-हजार वर्षों की राजनीतिक परम्परा को खण्डित करनेवाले थे नये शोसनतंत्र में निष्ठावान तथा विश्वसनीय सेवा पदाधिकारियों को रखा गया, पर पार्टी के सदस्यों को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया । नियुक्ति के पहले उनकी अर्हता की पूछ-ताछ नहीं की गयी, या उनको परीक्षा में नहीं बैठाया गया ।

अदालतों में ऐसे न्यायाधीशों को पदस्थापित किया गया जिन्हें कानूनी प्रशिक्षण नहीं मिला था । इस प्रकार के रूढ़ि एवं परम्परा के पोषक होने के कारण न्यायाधीश सामान्यत: क्रांतिकारी शासनतंत्र के काम में अड़ंगा लगाया करते थे उपर्युक्त तरीकों से सोवियत सरकार इस परेशानी से बची रही, पर शेष यूरोप के लिए यह एक भयावह बात थी शेष यूरोप प्रशासनिक सेवा अधिकारी को एक विशिष्ट और उच्चतर स्तर का आदमी मानने का आदी रहा हे ।

अर्थव्यवस्था तथा चित के क्षेत्र में बोल्शेविक शासनतंत्र ने ऐसे काम किये, जिनसे वह यूरोपीय सत्ताधारी वर्ग की अशेष घृणा का पात्र हो गया । बोल्शेविक शासकों ने बेंको का राष्ट्रीयकरण कर दिया तथा निजी खाते में जमा सारी रकम जब्त कर ली । कारखाने श्रमिकों को सौंप दिये गये भूमि को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया गया निजी व्यापार बद कर दिया गया; खुदरा दुकानें समाप्त कर दी गयीं ।

नये शासनतंत्र में सबसे पुरानी संस्था पार्टी थी । 1903 ई॰ में इसकी स्थापना सोशल डेमोक्रैट पार्टी की एक शाखा के रूप में की गयी थी । इसके बाद सोवियतें थीं इनका इतिहास 1905-07 से शुरू होता था । तदुपरांत था सत्ता अधिग्रहण के दिन स्थापित पीपुल्स कमिस्सार । नयी व्यवस्था में सबसे पहले राजनीतिक पुलिस की स्थापना की गयी ।

एक अभिनव सरकारी संस्थान था अखिल रूस प्रतिक्रान्ति विरोधी संघर्ष आयोग । रूस में इसे ‘चेका’ के नाम से आमतौर पर लोग जानते थे । तोड़-फोड़ की कार्रवाइयों, सरकार का तख्ता उलटने के षड़यंत्रों आदि से निबटने के लिए इसकी स्थापना की गयी थी । बाद में यह संस्थान ‘ऑगपू’ तथा एन॰के॰वी॰डी॰ एवं एन॰ वी॰डी॰ के नाम से काम करता रहा । इसकी स्थापना 1917 ई॰ के 7 दिसम्बर को हुई थी ।

जनवरी, 1918 में ‘लाल सेना’ की स्थापना हुई । तत्कालीन युद्धमंत्री ट्राटस्की को इसका संगठन करने का श्रेय था । ट्राटस्की ही इसका अम्मक्ष था । 1919 ई॰ के जुलाई में नया संविधान लागू किया गया ।

क्रांति-विरोधियों का उदय:

सामाजिक क्षेत्र में बोल्शेविक सरकार ने पहले-पहल कोई दूरगामी योजना नहीं लागू की । जो कुछ किया, वह मार्क्सवादी सिद्धांतों तथा तत्कालीन आवश्यकता की खिचड़ी थी । इसे ‘वार कम्युनिज्म’ युद्धकालीन साम्यवाद का नाम दिया गया । तत्काल सबसे बड़ी समस्या खाद्य के प्रबंध की थी । खाद्य-सामग्री का घोर अभाव देशभर में महसूस किया जा रहा था । परिवहन की व्यवस्था चौपट हो चुकी थी ।

लूटपाट, मुद्रा की अव्यवस्था, जमीन पर स्वत्त्वाधिकार की अनिश्चितता आदि अनेक कारण से लोग पहले की तुलना में बहुत कम खाद्य-सामग्री का उत्पादन कर रहे थे । जो कुछ उपजाते भी थे, उसे या तो खुद खा-पका जाते थे अथवा अपने खलिहानों में ही जमा करके रखते थे । शहरों में काम करनेवाली तथा शासनतंत्र की प्रतिक्रिया भी फ्रांसीसी क्रान्ति के दिनों-जैसी ही थी ।

नये शासनतंत्र ने लेवी- अनिवार्य वसूली व्यवस्था कायम की, किसानों को सरकार द्वारा निर्धारित मात्रा में खाद्य पदार्थ देने को कहा जाता, श्रमिक संघों की सशस्त्र टोलियाँ देहाती इलाकों में भेजकर खाद्याब्र हासिल करने की छूट दी जाती । चूँकि बड़े किसानों के पास ही अतिरिक्त खाद्य पदार्थों के भंडार होते थे, इसलिए उन्हें ‘लोगों को भूखे रखनेवाला’ कहकर बदनाम या परेशान किया जाता । देशभर में वर्ग-युद्ध भड़क उठा-निर्मम, कठोर, खूनी एवं भयानक ।

इसमें एक ओर होते किसान, भूमिपति, कल-कारखानों के छोटे-मोटे मालिक, इन्हें अपनी आँखों के सामने अपनी जान-माल पर भयानक खतरा दीख पड़ता, दूसरी ओर होते शहरी लोग, खेत मजदूरों का हुजूम तथा अकाल एवं भुखमरी के मारे हुए लोग । अनेक किसान, खास करके जो बड़े किसान कुलाक थे, बोल्शेविकविरोधी नेताओं के झंडे के नीचे आ रहे थे ।

नये शासनतंत्र के दुश्मनों की संख्या कल्पनातीत थी । पुराने राजवंश एवं उनके समर्थक लोग, जमींदार-जागीरदार तथा कुलीन अभिजात्य के समर्थक एवं उनके भूतपूर्व निष्ठावान अधिकारी-कर्मचारी । लोकशाही के पोषक उदारतावादी, नवोदित संपन्न तथा पेशेवर लोग, जेम्सताँफ के लोग, संवैधानिक डेमोक्रैट आदि एकजुट होकर नये सत्ताधारियों को उखाड़ फेंकने के लिए कृतसंकल्प थे लेनिनविरोधी समाजवादी मेत्रोविक तथा सामाजिक क्रान्तिवादी भी इसमें आ मिले थे ।

ये लोग देशभर में फैलकर बोल्शेविकों के विरुद्ध प्रतिरोध भड़का रहे थे तथा मोर्चाबन्दी कर रहे थे । उन्हें किसानों में अनुयायी मिलते, पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों से प्रचुर सहायता मिलती । इस स्थिति में विरोध के केन्द्र हर जगह खड़े हो रहे थे । डॉन-तलहटी में सैनिक अधिकारियों, संपन्न भूमिपतियों, संपत्ति-वंचित व्यवसायियों की एक अच्छी-खासी सेना तैयार हो गयी थी ।

मध्य वोल्गा अंचल में सोशल डेमोक्रैटों ने मोर्चा सँभाल रखा था । ओझक में एक अन्य विक्षुब्ध ग्रुप ने साइबेरिया की आजादी की घोषणा कर दी थी । सैनिक संगठन की दृष्टि से ऑस्ट्रियाई फौज के बंदी बनाये हुए 45,000 चेक नौजवानों की एक चेक सेना रूस के पक्ष में लड़ने के हेतु बनायी गयी थी ।

नवम्बर क्रान्ति तथा ब्रेस्टलिटोब्स्क की संधि के उपरान्त ये सैनिक ट्रान्स साइबेरियन रेलवे तथा सड़क यातायात का उपयोग करके रूस छोड़ देना चाहते थे । वहाँ से ये लोग समुद्र की राह से यूरोप लौटकर पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध में शामिल होना चाहते थे । बोल्शेविक अधिकारियों ने उन्हें निरस्त्र करना चाहा, तो ये लोग बोल्गा नदी के अंचलवाले मोर्चे पर सोशल डेमोक्रैटों से जा मिले ।

मित्रराष्ट्रों का विश्वास था कि बोल्शेविकवाद बहुत काल तक नहीं चलनेवाला था तथा थोड़ा प्रयत्न करके उसको समाप्त किया जा सकता था । वे रूस को जर्मनी के खिलाफ पुन: युद्ध में उतारना चाहते थे । जबतक यूरोप में युद्ध जारी था, वे काला सागर या बाल्टिक सागर के रास्ते से रूस में प्रवेश नहीं कर सकते थे ।

मित्रराष्ट्रों की एक सैनिक टुकड़ी ने उत्तर में मटमैंस्क तथा आर्केब्जल पर अधिकार कर लिया । वैसे सैनिक हस्तक्षेप के लिए सुगम-से-सुगम रास्ता सुदूरपूर्व में ब्लाडिवास्टक से होकर होता । जापानियों ने युद्ध के किसी अन्य मोर्चे पर मित्रराष्ट्रों को सक्रिय सहायता देने से इनकार कर दिया था, किन्तु ब्लाडिवास्टक के रास्ते साइबेरिया में प्रवेश करने के प्रस्ताव का उन्होंने स्वागत किया । कारण स्पष्ट था-एशिया के उस भाग में रूसी साम्राज्य के विघटन से उनका प्रभावक्षेत्र बढ़ता ।

यह तय हुआ कि मित्रराष्ट्रों की एक फौजी टुकड़ी ब्लाडिवास्टक में उतरेगी, जो साइबेरिया को पार करते हुए मध्य वोल्गा क्षेत्र में चेक सैनिक टुकड़ी के साथ जा मिलेगी । फिर, बोल्शेविक को विनष्ट करके पश्चिम की ओर बढ़ते हुए जर्मनों पर आक्रमण करेगी । इस महत्त्वाकांक्षी सामरिक योजना में मुख्यत: अमेरिकी तथा जापानी सैनिक भाग लेंगे । 72,000 जापानी तथा 8,000 अमेरिकी सैनिकों को 1918 ई॰ के अगस्त में ब्लाडिवास्टक में उतारा गया ।

रूस में गृहयुद्ध रुक-रुककर 1920 ई॰ या इसके भी बाद तक कुछ स्थानों पर चलता रहा । विक्षुब्ध रूसी तथा विदेशी हरूक्षेपकारी टुकड़ियों के साथ पेट्रोग्राड के समर्थक लोगों की यह लड़ाई दूर-दूर पर फैले हुए मोर्चों पर एक-एक कर चली । सर्वप्रथम चुकटैन में जर्मनों के साथ लड़ाई हुई । तदुपरांत फ्रांसीसियों के साथ, जो ओडेस्सा बंदरगाह में उतर चुके थे । यूक्रेन, आरमीनिया, जॉर्जिया तथा अजरबैजान के लोगों ने अपने को आजाद घोषित कर दिया था ।

पेट्रोग्राड सरकार के समर्थकों ने इनपर पुन: कब्जा किया । गृहयुद्ध के दौरान लगभग एक लाख हस्तक्षेपकारियों तथा उनके रूसी मददगारों को पराजित करके वापस लोटने पर मजबूर किया गया । ऐडमिरल कोलचाक ने विदेशियों की सहायता से अपने को रूस का शासक घोषित कर दिया था । उसे भी पराजित किया गया ।

नवोदित पोलैण्ड गणतंत्र यूक्रेन तथा श्वेत रूस के इलाकों पर अधिकार जमाना चाहता था तथा इसके लिए तेयारियाँ कर रहा था (ये इलाके 1772 ई॰ के पूर्व तक तत्कालीन पोलैण्ड के अन्तर्गत थे) । पर, समय रहते पोलैण्ड पर आक्रमण करके उसकी इस कोशिश को नाकाम कर दिया गया । इन सबके बावजूद जापानी सैनिक ब्लाडिवॉस्टक में 1922 ई॰ तक तथा ब्रिटिश, फ्रांसीसी एवं अमेरिकी सैनिक में 1919 ई॰ तक जमे रहे ।

बोल्शोविकों के सौभाग्य से उनके विरोधी कभी एकजुट नहीं हो सके इसका एक कारण था कि विरोधियों में अनेक तरह के लोग थे- भूतपूर्व जार के प्रति निष्ठावान लोगों से लेकर वामपंथी सोशल क्रान्तिवादियों तक । दूसरा कारण यह था कि बोल्शेविक-विरोधी मुख्यत: दक्षिणपंथी लोग थे, वे जहाँ भी जाते जमींदारों की छीनी हुई जमीन उन्हें वापस करते जाते, इससे आम रूसी जनता उनका कट्टर शत्रु हो जाती । अनेक हस्तक्षेपकारी काफी खून-खराबी, बदले की कार्रवाई आदि करते जाते ।

इसका प्रतिकूल प्रभाव होना स्वाभाविक था मित्रराष्ट्रों में स्वयं भी मतैक्य नहीं था । फ्रांसीसी हस्तक्षेप जारी रखने को तैयार थे, पर अँगरेज या अमेरिकी जर्मनी की पराजय के साथ ही किसी भी सैनिक कार्रवाई में फँसने को बिलकुल तैयार नहीं थे । दूसरी ओर, लियो ट्राटस्की अथक लगन, प्रतिभा तथा परिश्रम के साथ लाल सेना की संरचना कर रहा था । संगठन, प्रशिक्षण, शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति आदि के प्रबन्ध बड़े ही मनोयोग के साथ किये गये ।

सैनिकों का मनोबल ऊँचा करने में इन सबका बहुत बड़ा हाथ था । हर टुकड़ी के लिए सुयोग्य नायक नियुक्त किये गये । इस प्रकार, दो-तीन वर्षों के गृहयुद्ध के दौरान नये रूसी शासनतंत्र के लिए एक ऊँचे मनोबलवाली, समर्थ, शक्तिशाली तथा समर्पित सेना तैयार हो चुकी थी ।

1922 ई॰ तक नया रूसी शासनतंत्र तथा रूस की बोल्शेविक-कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिमी सीमान्त को छोड़कर रूसी साम्राज्य के पुराने सीमान्तों तक अपना आधिपत्य पुन: स्थापित कर चुकी थी । पश्चिमी सीमान्त पर लैटाविया, लियुआनिया तथा एस्टोनिया नामक नये राज्य बालटिक तटवर्ती इलाके में उदित हुए थे ।

बेसासरेबिया को रूमानिया में मिलाया जा चुका था ई के युद्ध के परिणामस्वरूप पोलैण्ड की सीमान्त काफी पूरब तक बढ़ आया था इस प्रकार, पुराने रूसी साम्राज्य के कई हजार वर्गमील के इलाके तत्काल के लिए उससे छिन गये थे । लेकिन, रूस को जरूरत थी शान्ति की तथा स्थायित्व की, ये उसे मिलीं बोत्योविक क्रांति का महत्त्व-परिणाम और महत्व की दृष्टि से बीसवीं सदी के इतिहास में रूस की क्रांति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना थी ।

फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप लोकतन्त्र, राष्ट्रवाद और राजनीतिक समता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ था । किन्तु, 1917 ई॰ की रूसी क्रांति उससे कहीं आगे बढ़ गयी । इसके फलस्वरूप एक नयी सामाजिक व्यवस्था का आदर्श उपस्थित हुआ ।

साम्यवाद के रूप में संसार में एक नयी विचारधारा प्रारम्भ हुई जो एक नये समाज, नयी सभ्यता-संस्कृति का संदेश लेकर आयी फ्रांस की क्रांति ने अभिजातीय कुलीनवर्ग के हाथ से सत्ता छीनकर बुर्जुआवर्ग के हाथ में सौंप दी, पर रूस की बोल्शेविक क्रांति ने कुलीन और बुर्जुआ दोनों वर्गों को समाप्त कर सजा किसानों-मजदूरों को सौंप दी और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित किया रूस की तानाशाही का उद्देश्य दरिद्र जनता को सुखी बनाना था तथा इसके लिए पूँजीवाद का अन्त करना आवश्यक था ।

लेनिन के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार ने रूस में एक नया प्रयोग किया जिसके द्वारा वहाँ एक वर्गविहीन समाज का निर्माण किया गया तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का पूर्णत: अंत कर दिया गया । अब प्रत्येक श्रमिक अपने परिश्रम का उपभोग स्वयं कर सकता था ।

इस प्रकार, बोलशेविक क्रांति ने रूस में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये । लेनिन ने जिस सोवियत व्यवस्था की नींव डाली थी, उसके उत्तराधिकारियों ने आनेवाले वर्षों में उसे एक विराट संरचना का रूप दिया । स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण का एक विस्तृत कार्यक्रम अपनाया गया । उसने देश की संपूर्ण जीवन-व्यवस्था में परिवर्तन करने के लिए योजनाकरण की नीति का सहारा लिया ।

बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे खोले गये और कृषि-उत्पादन बढ़ाने के लिए विशाल सामूहिक फार्म बनाये गये । एक दशक के भीतर सोवियत संघ में जो आर्थिक विकास हुआ, वह विस्मयकारी था । समाजवाद का कार्यान्वयन योजनाओं में किया जा रहा था । उन्मुक्त आर्थिक कार्यकलाप से होनेवाली बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं रही । बेकारी की समस्या खत्म हो गयी । तेजी और मंदी का सिलसिला भी जाता रहा ।

व्यक्तिगत आय की एक निम्नतम सीमा निर्धारित की गयी, इससे कम किसी को नहीं मिलता था । हर आदमी समाजवादी व्यवस्था तथा समाजवाद युग के निर्माण में एकजुट होकर लगा हैं- आम आदमी को इस भावना से ओत-प्रोत करा देना नयी व्यवस्था की संभवत: सबसे बड़ी उपलब्धि थी श्रमजीवियों को सचमुच ऐसा महसूस होता था कि ये सारी उपलब्धियाँ उनकी अपनी थीं; इनमें उनका साझा था लोकतन्त्र ने आम आदमी को देश के शासनतन्त्र तथा राजनीतिक संरचना में सहभागी होने का अहसास कराया था, रूसी समाजवाद ने आर्थिक संरचना में भी सहभागिता का अहसास कराया । लोग हर राष्ट्रीय उपलब्धि को अपनी व्यक्तिगत सफलता समझकर खुश होते थे ।

भौतिक, आर्थिक या यान्त्रिक उत्कर्ष पर इतनी खुशी शायद ही पहले कभी जाहिर की जाती हो । इस प्रकार, एकजुट होकर स्वेच्छा से बिना कोई भेदभाव के देश के निर्माण में योगदान करते रहने की यह मिसाल अनोखी थी ।

वैसे सोवियत संघ का अस्तित्व मात्र ही दुनिया के लिए भारी प्रभाव-स्रोत था । नवम्बर क्रांति के दो दशकों के भीतर ही यह प्रमाणित हो गया था कि संसार में एक नयी अर्थव्यवस्था का उदय हो चुका है जो मौजूदा सभी व्यवस्थाओं की तुलना में कहीं अधिक उत्तम है । किसी भी प्रकार से कोई रूस की विवेचना क्यों न करें, वह इसके समाजवाद को स्वप्नद्रष्टा अथवा अव्यावहारिक नहीं कह सकता था ।

स्वतंत्र उद्योग और पूँजीवाद का एक ठोस विकल्प अस्तित्व में आ गया था । मार्क्सवाद महज एक सिद्धान्त नहीं रहा था, अब यह एक वास्तविक समाज था जिसके अंतर्गत संपूर्ण विश्व की जनसंख्या का छठा भाग रहता था और जो अपने को मार्क्सवादी कहता था । हर देश में वे जो पूँजीवादी व्यवस्था के तीव्र आलोचक थे, अपने देश की संस्थाओं की तुलना रूस की संस्थाओं से करते थे और उन्हें कम अच्छा ठहराते थे । बहुतों का यह विश्वास था कि रूसी तरीकों का प्रयोग किये बिना रूसी परिणामों को प्राप्त किया जा सकता है ।

एक अतिवादी साम्यवादी विचारधारा के उदय होने से समाजवाद और समाजवादी विचार तुलनात्मक रूप से मध्यमवादी और सम्मानित नजर आने लगा । 1930 ई॰ के दशक में अनेक देशों में योजनाकरण को स्वीकृति मिलने लगी थी । हर जगह श्रमजीवियों ने अधिक सुरक्षा प्राप्त की । एशिया की पिछड़ी हुई और दासता के बंधनों में जकड़ी हुई जनता रूस की उपलब्धियों से विशेष रूप से प्रभावित हुई ।

रूस ने उन्हें दिखाया किस प्रकार एक अत्यन्त पिछड़ा देश बिना विदेशी सहायता के एक औद्योगिक-वैधानिक सभ्यता का विकास कर सकता है । रूस की महान् उपलब्धियों ने पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को रक्षात्मक रवैया अपनाने पर मजबूर किया । 1930 ई॰ के दशक में जो सामान्यत: साम्यवादी नहीं थे, वे न तो रूसी साम्यवाद और न पाश्चात्य पूँजीवाद को पूरी तरह स्वीकारते थे । उन्होंने दोनों की विशेषताओं को मिलाने की इच्छा व्यक्त की । किन्तु, यदि इतना भी हुआ तो वह रूसी क्रांति के युगान्तकारी महत्व का प्रमाण था ।

1917 ई॰ के पहले कौन सोचता था कि रूस से भी कुछ सीखा जा सकता है । बीस वर्ष बाद रूस के आलोचकों को भी यह विश्वास हो गया था कि यह भविष्य के इतिहास की मुख्य लहर होगी । व्यावसायिक, व्यापारी तथा पेशेवर संपन्न लोगों के लिए रूस की साम्यवादी व्यवस्था भले ही निर्मम या हिंसक रही हो, किन्तु अपनी चिन्तनधारा, प्रतिष्ठा तथा साम्राज्यवाद-विरोधी रवैये को लेकर वह एक ऐसा शक्ति-स्रोत बन गया था जिसे अनदेखा किया जाना कठिन और असंभव दोनों ही था ।

संसार की पराधीन जातियों और यूरोप के साम्राज्यवादी देशों पर बोल्शेविक क्रांति का प्रभाव विशेष रूप से पड़ा । पराधीन जातियों के स्वतंत्र-संग्राम में मदद देने तथा साम्राज्यवादी देशों को परेशान करने के उद्देश्य से रूस ने कामिण्टर्न नामक एक संस्था की स्थापना की ।

इसका मकसद विश्व-क्रांति का, अर्थात् पूँजीवादी देशों की सरकारों का तख्ता पलटना था । बोल्शेविक नेताओं का ख्याल था कि साम्राज्यवादी ताकतों की शक्ति के स्रोत उनके उपनिवेश हैं । अत: औपनिवेशिक क्षेत्रों पर से यूरोपीय देशों के आधिपत्य को क्षीण करना बोल्शेविकों का मुख्य उद्देश्य था ।

कामिण्टर्न की अनुप्रेरणा से विभिन्न मार्क्सवाद-अनुप्रेरित श्रमजीवी आन्दोलनों का जन्म हुआ जिन्होंने साम्राज्यवाद के खिलाफ आक्रामक राष्ट्रवादी रवैया अपनाया । 1919 ई॰ में एक कामिण्टर्न घोषणा-पत्र निकला जिसमें ऐलान किया गया कि- ‘एशिया और अफ्रीका के औपनिवेशिक गुलामों ! यूरोप में सर्वहारा अधिनायकशाही की स्थापना का क्षण तुम्हारी भी आजादी का क्षण होगा ।’

1920 ई॰ में इस मुद्दे पर और भी विस्तार से विचार किया गया । घोषणा की गयी कि सभी राष्ट्रीय और मुक्ति आन्दोलनों का सोवियत रूस समर्थन करता रहेगा । सारी दुनिया की शोषित जनता को आजाद कराना कामिण्टर्न का उद्देश्य हे इस प्रकार, पृथ्वी पर जहाँ भी यूरोपीय देशों की गुलामी की जंजीरों में लोग बँधे थे, रूस उनका दोस्त तथा मददगार हो गया ।