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अठारहवीं सदी का फ्रांस यूरोप का सर्वाधिक अग्रगण्य राज्य था । 1700 ई. में उसकी जनसंख्या (21,000,000) इंगलैण्ड से चौगुनी और स्पेन से दुगनी थी । इसकी धरती अत्यन्त उपजाऊ थी । इस युग में फ्रांस का क्रमिक आर्थिक विकास हो रहा था । यह विकास बढ़ती हुई औद्योगिक प्रगति, विदेशी व्यापार में बढ़ोत्तरी और व्यापारी वर्ग की बढ़ती हुई समृद्धि में परिलक्षित होता था ।

यूरोप के अन्य देशों के मुकाबले में फ्रांस की सेना सर्वाधिक रूप से सुव्यवस्थित एवं अनुशासित थी । लूई चौदहवें ने स्थायी सेना रखने की व्यवस्था कर ली थी, जबकि सामंती युग में सशस्त्र सेना रखना लगभग एक व्यक्तिगत व्यवसाय था ।

सभ्यता-संस्कृति में क्षेत्र में भी अठारहवीं सदी का फ्रांस अग्रिम पंक्ति में था । उसने कई उल्लेखनीय कलाकारों, शिल्पकारों, गणितज्ञों, वैज्ञानिकों और साहित्य के रचनाकारों को उत्पन्न किया था; जिनकी रचनाएँ अत्यन्त उच्चकोटि की मानी जाती थीं ।

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अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में फ्रांसीसी सेना, फ्रांसीसी विचार तथा फ्रांसीसी साहित्य संपूर्ण यूरोप पर छा रहे थे । ऐसे ही जाज्वल्यमान राजनीतिक केन्द्र को 1715 ई. में चौदहवें लूई ने अपने उत्तराधिकारी पन्द्रहवें लूई को सौंपा । पर, मात्र छ: दशकों के अन्दर ही वह सारी व्यवस्था बदनाम हो गयी ।

परिणामत: 1789 ई. में फ्रांस को एक ऐसी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ा, जो बाद में फ्रांस की क्रांति के नाम से विख्यात हुई । यह क्रांति सम्पूर्ण यूरोप में प्रचलित सामंती प्रथा के विरोध में मची एक शक्तिशाली उथल-पुथल थी ।

अत: यह इतिहास के गूढ़ प्रश्नों में से एक है कि यूरोप की सारी जनता के बीच केवल फ्रांसीसियों ने ही सामंतवाद के खिलाफ क्यों विद्रोह किया ? फ्रांसीसी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं में वे कौन-सी विशिष्टताएँ थीं जिन्होंने 1789 ई. में क्रांति के सूत्रपात के लिए फ्रांसीसियों को प्रेरित किया ।

फ्रांस की राजनीतिक एकता:

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क्रांति की मूलभूत पूर्व आवश्यकताओं में से एक राजतन्त्र द्वारा कई शताब्दियों की अवधि में अर्जित फ्रांस की राजनीतिक एकता थी जिसका मध्य यूरोप के देशों में सर्वथा अभाव था ।

अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में जहाँ कि फ्रांस एक सुसंगठित राष्ट्र बन चुका था, दूसरे पड़ोसी राज्य केवल क्षेत्रों के समूह मात्र ही थे । वह क्षेत्र जिसमें जर्मन भाषा-भाषी लोग निवास करते थे पवित्र रोमन साम्राज्य कहलाता था, जिसकी स्थापना मध्ययुग में हुई थी ।

यह 338 जर्मन राज्यों का समूह था जिसमें प्रशा और आस्ट्रिया प्रमुख थे । इतनी बड़ी संख्या में ये सभी जर्मन राज्य करीब-करीब सम्प्रभुतासम्पन्न थे । इनमें से हरेक को संधि-समझौता करने का अधिकार प्राप्त था ।

आस्ट्रिया का राजा पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट होता था, लेकिन उसको ऐसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं था जिसके द्वारा वह जर्मन राज्यों पर कोई नियन्त्रण लगा सकता ।

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जर्मन राज्यों की एक डायट (संसद) अवश्य थी; लेकिन यह भी एक व्यर्थ की संस्था थी । संक्षेप में, पवित्र रोमन साम्राज्य एक ‘प्रभु-प्रदत्त उलझन’ था, जो राष्ट्रों के एक लघु संगठन से अधिक कुछ भी नहीं था ।

स्वयं आस्ट्रिया का राज्य एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था, जिसमें मध्य यूरोप, नीदरलैण्डस, भूमध्यसागरीय क्षेत्र तथा दक्षिण इटली के क्षेत्र शामिल थे । पर आस्ट्रिया वास्तव में मध्य डैन्यूब का साम्राज्य था ।

इसमें बोहेमिया, हंगरी और आस्ट्रिया तीनों सम्मिलित थे । आस्ट्रिया के हैप्सबर्ग राजघराने ने बोहेमिया और हंगरी को पूर्ण रूप से आस्ट्रियाई साम्राज्य में विलय करने का प्रयास भी किया ।

लेकिन, इन सभी प्रयासों के बावजूद आस्ट्रिया का राज्य विभिन्न प्रदेशों का एक समूह मात्र ही था । इसके निवासियों के बीच कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं था । प्रशा की स्थिति आस्ट्रिया से कुछ अच्छी अवश्य थी, फिर भी उसने भी अभी ‘राष्ट्र’ का रूप ग्रहण नहीं किया था ।

कुछ ऐसी ही अव्यवस्था ‘इटली’ में फैली हुई थी । इतालवी भाषा-भाषी लोग कई स्वतन्त्र राजनीतिक इकाइयों में विभक्त थे । मध्य यूरोप में व्याप्त इस राजनीतिक अराजकता के विपरीत फ्रांस में एक अत्यन्त ही केन्द्रित राष्ट्रीय राज्य का उद्भव हो चुका था ।

यह लूई चौदहवें के प्रयासों का परिणाम था । उसने सामंतों को कुचला और राजा की सम्प्रभुता पर जोर दिया तथा पूरे फ्रांस को एकता के सूत्र में आबद्ध किया । उसकी प्रसिद्ध गर्वोक्ति कि ‘मैं ही राज्य हूँ’ का गहरा अर्थ यही था ।

उसने अपने उत्तराधिकारियों के लिए एक अत्यधिक संगठित राज्य तथा राजनीतिक रूप से एकीकृत राष्ट्र छोड़ा । इस तरह का राज्य उस समय केवल इंगलैण्ड ही था ।

फ्रांस की राजनीतिक एकता फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता थी और यह क्रांति का एक प्रमुख कारण बनी । जो भी सामाजिक परिस्थितियों रही हों वे राष्ट्रव्यापी जनमत, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, राष्ट्रव्यापी नीतियों तथा राष्ट्रव्यापी विधानों को सिर्फ एक राजनीतिक रूप से संगठित देश में ही जन्म दे सकती थीं ।

मध्य यूरोप में इन परिस्थितियों का अभाव था । फ्रांस में ही एक फ्रांसीसी राज्य का अस्तित्व था । क्रांतिकारियों को इसका निर्माण नहीं करना था, वरन् मात्र इस पर अधिकार कर इसे एक नया स्वरूप देना था ।

कृषकों की अपेक्षाकृत अच्छी दशा:

फ्रांस की क्रांति के सम्बन्ध में एक दूसरी ऐतिहासिक भ्रांति यह है कि 1789 ई. में फ्रांस में निम्न वर्गों ने इसलिए विद्रोह किया कि सामंतशाही का अत्याचार उनके लिए असह्य हो गया था ।

तथ्य यह था कि फ्रांस के किसान यूरोप के अन्य देशों के किसानों की तुलना में कहीं अधिक अच्छी स्थिति में थे । वास्तविकता यह है कि फ्रांसीसी कृषकों की अपेक्षाकृत अच्छी दशा तथा इसे और सुधारने की अभिलाषा ने उन्हें क्रांति की ओर प्रेरित किया ।

रोमन साम्राज्य के पतनोपरान्त यूरोप में सामंतवाद की उत्पत्ति हुई थी जिसने समाज को कुलीन और कम्मी दो वर्गों में विभक्त कर दिया था । कुलीन वर्ग के लोग कम्मियों के शोषण पर पूरी तरह आश्रित थे और उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते थे ।

आस्ट्रिया में ‘रोबट’ का रिवाज प्रचलित था जिसके अन्तर्गत कृषकों को स्वामियों के लिए सप्ताह में तीन दिन बेगारी करनी पड़ती थी । प्रशा के भूपति अधिकतर जंकर घरानों के होते थे और वे अपनी कम्मियों का मनमाने ढंग से शोषण करते थे ।

प्रशा का कोई भी राजा इन जंकरों से दुश्मनी नहीं मोल ले सकता था, क्योंकि वे सेना का संचालन करते थे । अत: वे अपने कम्मियों को चल सम्पत्ति की तरह बेचते थे, उन पर जुआ खेलते थे अथवा उन्हें दूसरे मालिकों को दे देते थे । ऐसी हालत में कम्मियों का परिवार बिखर जाता था ।

उनकी स्थिति गुलामों से शायद ही भिन्न थी । रूस में कम्मी प्रथा की हालत और भी खराब थी । वे कुलीनों की निजी सम्पत्ति माने जाते थे । कैथरीन महान के राज्यकाल में रूस की यह दास प्रथा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी और इसमें एवं मवेशीखाने की गुलामी में कोई अन्तर नहीं रह गया था ।

तुलनात्मक रूप से फ्रांसीसी किसानों की स्थिति काफी अच्छी थी और वे अपने पूर्वी यूरोपीय प्रतिरूप के समान दास न थे । फ्रांसीसी किसान न केवल दो बटा पाँच भाग जमीन के मालिक थे, बल्कि इसके सम्पूर्ण भाग पर उनका वास्तविक अधिकार था ।

फ्रांस तो छोटे-छोटे स्वतन्त्र किसानों का ही देश था । आस्ट्रिया, प्रशा, पोलैण्ड तथा रूस की तरह फ्रांस के मेनोरों के स्वामी कोई आर्थिक भूमिका नहीं निभाते थे । वे कई तरह के सामंती देय प्राप्त कर अपना खर्च चलाते थे । फ्रांसीसी किसान इन्हीं सामंती देशों से नाराज थे । सामंती देय के रूप में उन्हें अनाज का एक अंश देना पड़ता था । इन किसानों को तो जमीन प्राप्त थी, पर वे राजकरों के भार से दबे पड़े थे ।

मात्र वे ही ‘टाली’ तथा ‘गाबेली’ नामक कर अदा करते थे । करों का बोझ गरीबों तथा लाचारों पर लादने वाली यह व्यवस्था भयानक रूप से अन्यायपूर्ण थी । निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि फ्रांसीसी किसानों की मुख्य शिकायत सामंती प्रथा के विरुद्ध नहीं, वरन् त्रुटिपूर्ण कर-व्यवस्था के प्रति थी ।

स्थिति यह थी कि वे अपनी जमीन के स्वतन्त्र अधिकारी थे, पर अर्थहीन दबावों के बोझ से पीड़ित हो रहे थे और यही स्थिति विशेष रूप से झुंझलाने वाली थी । पीड़ा की गहराई नहीं, वरन् पुरातन व्यवस्था की अनियमितताओं के समक्ष नहीं झुकने की अभिलाषा क्रांति की प्रेरणा-शक्ति बनी ।

चैतन्य बुर्जुआवर्ग का उदय:

एक चैतन्य बुर्जुआवर्ग का उदय वह एक दूसरी विशेषता थी जिसने फ्रांस को अन्य यूरोपीय देशों से भिन्न कर दिया था । छठी शताब्दी से यूरोप में शहरी जीवन की शुरुआत हुई । छोटे-छोटे शहर बसने लगे जहाँ व्यापारियों की प्रमुखता थी ।

सोलहवीं शताब्दी में विश्वव्यापी अर्थ-व्यवस्था के उद्भव ने पश्चिम यूरोप में एक सशक्त बुर्जुआवर्ग को जन्म दिया जो व्यापार के कारण काफी शक्तिशाली हो गया और जिसके पास अपार सम्पदा इकट्ठी हो गयी ।  फ्रांस की सरकार इन बुर्जुआओं से ऋण लेती थी । फ्रांस का व्यापारी जैसे ही समृद्ध होता था वह अपने लिए जमींदारी खरीद कर स्वयं कुलीन बन जाने का प्रयास करता था ।

इस प्रकार, फ्रांस में बुर्जुआ और अभिजात वर्ग के लोग एक-दूसरे से घुलने-मिलने लगे थे । पूर्वी यूरोप में इस प्रकार का कुछ भी घटित नहीं हुआ । अत: वहाँ का बुर्जुआवर्ग देश की राजनीति में कोई निर्णायक हिस्सा नहीं ले सका ।

लेकिन, फ्रांस का समृद्धशाली बुर्जुआवर्ग फ्रांसीसी किसानों की तुलना में कुछ कम नाराज नहीं था । फ्रांस के धनी बुर्जुआओं को अभिजातों की उद्दण्डता और मिथ्याभिमान से चिढ़ थी ।

जैसे-जैसे वे अधिकाधिक शक्तिशाली एवं पढ़े-लिखे तथा आत्मविश्वासपूर्ण होते गये, वैसे-वैसे कुलीनों की सामाजिक श्रेष्ठता उन्हें खलने लगी । बुर्जुआ अब यह अनुभव करने लगे कि उन्हें जान-बूझकर सरकारी पदों तथा प्रतिष्ठानों से अलग रखा जा रहा है ।

वे कुलीनों से इस कारण भी भयभीत थे कि नये सिरे से उन्होंने सरकार में अधिक शक्तिशाली होने का प्रयास शुरू कर दिया था । 1789 ई. की क्रांति दो आगे बढ़ती हुई शक्तियों की आपसी टकराहट थी ।

एक ओर विकसित होता हुआ अभिजातीय वर्ग तथा दूसरी ओर विकसित होता हुआ बुर्जुआवर्ग था । मध्य यूरोप में इस तरह के चैतन्य बुर्जुआवर्ग का अभाव था । इस कारण वहाँ सामाजिक टकराहट होने की कोई सम्भावना नहीं थी ।

विशेषाधिकार युक्त वर्ग की अनुपयोगिता और उनमें व्याप्त विरोधाभास:

विशेषाधिकार सम्पन्न सामंतों और पादरियों ने अपनी कुलीनता के नाम पर हर यूरोपीय देश में वरीयता प्राप्त कर रखा था; किन्तु अन्य देशों के पादरी और सामंत अगर विशेषाधिकार का उपयोग करते थे तो समाज और सरकार के प्रति अपने दायित्व का भी पालन करते थे ।

अत: उनके प्रति सामान्य लोगों में आक्रोश की भावना नहीं थी । किन्तु, फ्रांस के पादरी और कुलीन केवल विशेषाधिकार का दुरुपयोग करते थे, वे अपना दायित्व नहीं निभाते थे । फलत: वे समाज पर अनावश्यक बोझ बन गए थे ।

सम्पत्ति और प्रतिष्ठा के अनुपात में वे समाज की कोई सेवा नहीं करते थे । अत: सामान्य जनता इन दोनों वर्गों के विशेषाधिकार को छीन लेना चाहती थी । अगर पादरियों और सामंतों के विरुद्ध क्रांति हुई तो कोई आश्चर्य नहीं ।

दूसरी ओर निम्न पादरी और प्रान्तीय कुलीन फटेहाल और दयनीय स्थिति में थे । उनकी आमदनी इतनी नहीं थी कि वे आराम से रह सकें । उनकी आर्थिक स्थिति तृतीय वर्ग के लोगों से भिन्न नहीं थी ।

गिरजाघरों और जागीरों में रहते हुए वे किसानों और अन्य सामान्य लोगों से घुले-मिले थे । स्थानीय किसानों और मजदूरों का गुस्सा अनुपस्थित पादरियों और सामन्तों के प्रति था न कि गरीब पादरियों और सामंतों के प्रति ।

इन निम्न पादरियों और सामंतों की सद्भावना तृतीय वर्ग के प्रति थी । वे उच्च पादरी और कुलीनों से घृणा करते थे । मई-जून, 1789 में जब उच्च पादरियों और कुलीनों को इनके समर्थन की आवश्यकता थी उन्होंने तृतीय वर्ग का समर्थन करके स्टेट्‌स जनरल पर तृतीय वर्ग का बहुमत स्थापित कर दिया ।

विचारकों का प्रभाव:

फ्रांसीसी क्रांति के पहले वाले वर्षों को सामान्यतः प्रबुद्धता का युग माना जाता है । इस काल में यूरोप में अनेक बिचारकों और लेखकों का आविर्भाव हुआ जिन्हें ‘फिलौसोफेस’ कहा जाता था ।

ये ‘फिलौसोफेस’ लोग प्रचलित अर्थ में दार्शनिक नहीं थे, वरन् इस कोटि में सभी तरह के लेखक, विचारक, उपदेशक, बुद्धिजीवी आते थे । अपने को ‘फिलौसोफेस’ मानने वाले लोग यूरोप में सर्वत्र पाये जाते थे, लेकिन अठाहरवीं सदी के प्रबुद्धवादी आन्दोलन का मुख्य केन्द्र पेरिस था ।

पेरिस के बुद्धिजीवी समाज में गम्भीर गोष्ठियों का ताँता लगा रहता था । ‘फिलौसोफेस’ के सभी साहसिक कार्यों में डेनिस दिदरो द्वारा सम्पादित इनसाइक्लोपीडिया समूह बड़े खण्डों में पेरिस में ही छपा ।

इसमें योगदान करने वाले लेखकों की सूची बड़ी ही उल्लेखनीय थी । फ्रांसीसी त्रिमूर्ति माण्टेस्क्यू, वाल्तेयर और रूसो के साथ लगभग सभी फ्रांसीसी ‘फिलौसोफेसों’ ने इसमें अपनी-अपनी रचनाएँ दीं ।

फ़्रांसीसी त्रिमूर्ति के स्तर का कोई भी रचनाकार पूरे यूरोप में नहीं था । इन तीनों ने अपने-अपने तरीकों से फ्रांस में एक ऐसा बौद्धिक वातावरण तैयार किया । जिसमें हर चीज का, आलोचनामक मूल्यांकन किया जाने लगा ।

एक राष्ट्र जब एक बार सोचना आरम्भ कर देता है, तब फिर उसको रोकना असम्भव हो जाता है । वाल्तेयर और रूसो के साथ फ्रांस ने सोचना शुरू किया और इसी कारण क्रांति का विस्फोट हुआ । यूरोप के किसी भी देश का बौद्धिक वातावरण इतना संवेदनशील नहीं था जितना कि फ्रांस का ।

प्रबुद्ध निरंकुशता की असफलता:

यूरोपीय राजाओं की प्रबुद्ध निरंकुशता एक दूसरी अनोखी विशेषता थी जो फ्रांस को दूसरे यूरोपीय देशों से पृथक करती थी । अठारहवीं सदी में प्रबुद्ध निरंकुशता की एक नयी प्रथा विकसित हुई जिसके अन्तर्गत परम निरंकुश राजा जन-कल्याण के कार्यों को करना अपना कर्तव्य मानने लगे ।

आस्ट्रिया का जोसेफ द्वितीय प्रशा का फ्रैडरिक महान् तथा रूस के कैथरिन सभी-के-सभी प्रबुद्ध निरंकुश शासक थे । इन सभी अधिपतियों ने अपनी प्रजा का दुःख-दर्द समझा और उनको दूर करने का यत्न किया ।

उन्होंने अपने-अपने देशों में सामंतों को कुचलने का यत्न किया, क्योंकि सामंती व्यवस्था अनेक मुसीबतों की जड़ थी । प्रबुद्ध निरंकुश शासक अचानक काम करके तत्काल परिणाम पा लेना चाहता था और अपने को फ्रेडरिक महान की तरह राज्य का प्रथम सेवक मानता था ।

यह सत्य है कि प्रबुद्ध निरंकुश शासकों को पर्याप्त सफलता नहीं मिली, पर उनके प्रयत्नों ने प्रजा को बहुत हद तक शान्त रखा । दूसरी ओर फ्रांस के राजतन्त्र ने एक दूसरे ढंग से काम किया और वहाँ प्रबुद्ध निरंकुशता की परम्परा विकसित ही नहीं हो सकी । लूई चौदहवाँ हमेशा युद्धों और विषय-वासना में फँसा रहा ।

लूई पन्द्रहवाँ (1715-74) अधिकांश गम्भीर प्रश्नों की ओर से उदासीन रहा । यदि वह अन्य प्रबुद्ध निरंकुश शासकों की तरह अपनी प्रजा का कष्ट दूर करना चाहता और इस समस्या की गम्भीरता को समझता, तो निश्चित ही वह फ्रांस में क्रांतिकारी परिस्थितियों को विकसित होने से रोक सकता था, क्योंकि आर्थिक रूप से फ्रांस एक विकसित देश था ।

उसकी मुख्य मुसीबत दोषपूर्ण और असमान कर-प्रणाली थी । विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों पर कर लगाकर इस विकार को समाप्त किया जा सकता था । लेकिन, लूई पन्द्रहवें ने इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया । उसने जो भी कदम उठाया वह अधूरे मन से ।

फलत: कुलीन लोग उससे बहुत चिढ़ गये । उसके उत्तराधिकारी सोलहवाँ लूई भी इस तरफ से उदासीन रहा और कुलीनों को शान्त करने के उद्देश्य से उनके प्रति सुलह-समझौते की नीति अपनाता रहा । साथ ही आर्थिक सुधारों के लिए उसने मन्त्रियों की नियुक्ति की ।

जब उसने संपूर्ण कर व्यवस्था का पुन: निरीक्षण करना शुरू किया, तब पेरिस के पार्लेमाँ ने बड़े शोरगुल के साथ उसका विरोध किया और यह आवाज उठायी कि सिर्फ फ्रांस के स्टेट्‌स जनरल को ही ऐसा करने का अधिकार है । इसी बात ने घटनाओं के उस क्रम का प्रारम्भ किया जिसने मई, 1789 में स्टेट्‌स जनरल की बैठक बुलाने और क्रांति के विस्फोट का संकेत दिया ।