Comparative study of French and Russian revolution in Hindi! 

1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति और 1917 ई. की रूसी बोल्शेविक क्रांति दोनों विश्व- इतिहास की युगान्तकारी घटनाएँ हैं । भीषण बवण्डर के रूप में घटित होकर इन दोनों क्रांतियों ने यूरोप और अन्ततः संपूर्ण विश्व के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन को झकझोर कर छिन्न-भिन्न कर दिया जिसके फलस्वरूप मनुष्य-मात्र के जीवन में आमूल परिवर्तन हुआ ।

एक नूतन संसार को जन्म देने में इन दोनों क्रांतियों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसलिए इनके महत्व का तुलनात्मक अध्ययन रोचक ही नहीं, वरन् शिक्षाप्रद भी होगा । इस तुलनात्मक अध्ययन को भली-भाँति समझने के लिए हमें पहले उन विभिन्न अवस्थाओं या चरणों का अध्ययन करना आवश्यक है जिनसे होकर दोनों क्रांतियाँ गुजरीं ।

फ्रांस की क्रांति के विभिन्न चरण:

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1789 ई. की फ्रांस की क्रांति विश्व-इतिहास की एक महान घटना थी । 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति के पूर्व एक नूतन संसार को जन्म देने में इसकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण थी । इसने मानव को ‘स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व और सामाजिक न्याय’ का एक नवीन सन्देश दिया जो कालान्तर में विश्व के कोने-कोने में फैला ।

यह क्रांति 1789 ई. में शुरू हुई और लगभग एक दशक तक चलने के बाद 1799 ई. में समाप्त हुई । एक दशक तक चलने वाली केवल एक ही फ्रांसीसी क्रांति की बात की जाये अथवा अलग-अलग कई क्रांतियों की बात की जाए, यह विवाद का विषय हो सकता है ।

लेकिन, लगभग सभी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि स्टेट्स जनरल की बैठक का बुलाया जाना तथा 1789 ई. में नेशनल एसेम्बली की घोषणा ने क्रांति की शुरुआत का संकेत दिया तथा 1799 ई. के राज्य परिवर्तन में नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा सत्ता हथिया लेने के साथ विशुद्ध क्रांति का अन्त हो गया ।

क्रांति के इस चहल-पहल वाले दशक में इसके विभिन्न चरणों को बताना अत्यन्त सरल है । 1789 से 1791 ई. के बीच नेशनल एसेम्बली का काल था । इस काल में सामंतवाद का उन्मूलन हुआ तथा प्रजातान्त्रिक संस्थाओं की स्थापना हुई ।

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मनुष्य के अधिकारों की घोषणा, एक नये प्रजातान्त्रिक संविधान की रचना, प्रशासनिक तथा न्यायिक ढाँचे में आमूल परिवर्तन, राज्य द्वारा चर्च की सम्पत्ति का अधिग्रहण आदि इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ थीं ।

इस काल में पेरिस की भीड़ का क्रांति पर अधिकाधिक नियन्त्रण कायम हुआ, राजा ने फ्रांस छोड़कर भागने का यत्न किया जिसके फलस्वरूप गणतन्त्रवाद की भावना का विकास हुआ तथा फ्रांस में राजनीतिक दलों (जैकोबिन पार्टी) का उदय हुआ ।

1791 ई. के संविधान की घोषणा के बाद नेशनल एसेम्बली ने अपने-आपको विघटित कर लिया तथा नवीन संविधान की व्यवस्थाओं के अर्न्तगत निर्वाचित लेजिस्लेटिव एसेम्बली ने उसकी जगह ले ली ।

यहाँ से क्रांति का दूसरा चरण शुरू होता है । जब यह सभा एक वर्ष तक काम कर चुकी, तब अगस्त-सितम्बर, 1792 में एक ‘द्वितीय क्रांति’ हुई, जिसने राजवंश का तख्ता पलटकर फ्रांस में गणतन्त्र की स्थापना की ।

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इसी काल में कई कारणों से फ्रांस विदेशी युद्धों में फँस गया जिसके कारण क्रांति में एक नया मोड़ आया । कुछ दिनों के बाद लेजिस्लेटिव एसेम्बली का स्थान नवनिर्वाचित नेशनल कन्वेन्शन ने लिया जिसने क्रांति के तीसरे चरण की शुरुआत का संकेत दिया ।

इसने अनौपचारिक रूप से 1795 ई. तक फ्रांस पर शासन किया तथा 1793 ई. के संविधान के अनुरूप सरकार के एक नये यन्त्र की व्यवस्था की । कन्वेन्शन की शासनावधि में फ्रांस सुप्रसिद्ध ‘आतंक के राज्य’ के दौर से गुजरा ।

इस काल में राजकीय शक्ति कुछ ऐसे उग्रवादी और प्रतिबद्ध क्रांतिकारियों के हाथ में रही जो जन-सुरक्षा-समिति के सदस्य थे । इन्होंने असाधारण अधिकारों का प्रयोग करते हुए क्रांति की रक्षा उसके दुश्मनों से की ।

बाह्य और आन्तरिक खतरों से क्रांति को मुक्त किया तथा बुर्जुआ वर्ग से क्रांति को थोड़े समय के लिए छुटकारा दिलाकर सर्वसाधारण वर्ग के हित में कुछ काम किया । क्रांति के चौथे और अन्तिम चरण में डॉयरेक्टरी की स्थापना हुई ।

इसमें कार्यकारिणी की शक्तियाँ पाँच डॉयरेक्टरों को तथा विधायिनी शक्तियाँ एक दो सदन वाली सभा को प्रदान की गयी थीं । यही वह शासन-व्यवस्था थी जिसको 1799 ई. में नेपोलियन ने उलट कर अपनी सैनिक तानाशाही कायम की थी ।

बोल्शेविक क्रांति के विभिन्न चरण:

1917 ई. के नवम्बर माह में लेनिन ने रूस में सत्ता अधिग्रहण करके ‘लाल क्रांति’ को सम्पन्न किया । यह क्रांति मानव-सभ्यता के एक चरण की परिणति तथा दूसरे चरण की शुरुआत थी । रूस में प्रतिबद्ध क्रांतिकारियों का एक गुट पिछले कई वर्षों से क्रांति की भूमिका तैयार कर रहा था । लेकिन, रूस में क्रांति बोल्शेविकों ने नहीं शुरू की । क्रांति पहले ही शुरू हो चुकी थी ।

बोल्शेविकों ने बाद में (नवम्बर, 1917 में) क्रांति का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया । 1917 से 1924 ई. तक क्रांति का नेतृत्व लेनिन के हाथ में रहा । इस काल में उसने क्रांति के आधार को सुदृढ़ बनाया । शासन के सम्बन्ध में कई विस्मयकारी कदम उठाये गये ।

फिर इसी काल में कई तरफ से क्रांति के विरोधियों का उदय हुआ । क्रांति के दुश्मनों की संख्या कल्पनातीत थी । पुराने राजवंश और उसके समर्थक लोग, कुलीन नवोदित बुर्जुआवर्ग आदि एक जुट होकर नये सत्ताधारियों को उखाड़ फेंकने के लिए कृतसंकल्प थे ।

इसी समय विदेशी पूँजीवादी ताकतों का हस्तक्षेप हुआ और रूस पर चारों ओर से हमला हुआ । बोल्शेविकों ने इन मुसीबतों का सामना बड़े धैर्य से किया । विदेशी आक्रमण से निपटने के लिए ट्राटस्की के नेतृत्व में ‘लाल सेना’ गठित की गयी और आन्तरिक उपद्रवों से देश की रक्षा के लिए ‘चेका’ पुलिस की स्थापना हुई ।

चेका के माध्यम से बोल्शेविकों ने एक आतंक का राज्य कायम किया, जो फ्रांस के आतंक के राज्य से भी भयानक था । अन्तत: लाल आतंक का मकसद पूरा हुआ और आन्तरिक विरोधियों का पूर्ण सफाया कर दिया गया ।

इसी बीच यूरोपीय उपनिवेशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष चलाने के लिए लेनिन की प्रेरणा से कामिण्टर्न की स्थापना की गयी । कामिण्टर्न की स्थापना का दूरगामी प्रभाव पड़ा ।

इसकी अनुप्रेरणा से विभिन्न मार्क्सवाद-अनुप्रेरित आन्दोलनों की बाढ़-सी आ गयी । राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों को सोवियत रूस का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ । 1924 ई. में लेनिन की मृत्यु के बाद बोल्शेविक क्रांति ने एक दूसरे चरण में प्रवेश किया जिसमें क्रांति का नेतृत्व जोसेफ स्टालिन ने ग्रहण किया ।

उसकी सबसे पहले अपने प्रतिद्वन्द्वी ट्राटस्की से निपटना पड़ा । ट्राटस्की देश छोड़कर भाग गया । इसके उपरान्त स्टालिन ने देश के आर्थिक विकास के लिए योजनाकरण की नीति अपनायी और पंचवर्षीय योजनाओं का सिलसिला शुरू हुआ ।

इसके परिणामस्वरूप देश का औद्योगीकरण हुआ और कुछ वर्षों पूर्व का पिछड़ा हुआ अविकसित रूस एक प्रमुख औद्योगिक देश हो गया । कई सामाजिक सुधार किये गये और शिक्षा की एक नयी व्यवस्था अपनायी गयी ।

1936 ई. में देश के लिए एक नया संविधान बना और एक शुद्धि-आन्दोलन के माध्यम से क्रांति के विरोधियों का सफाया करके क्रांति को पूरी तरह सुरक्षित कर दिया गया । 1939 ई. में जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा, तब रूस संसार के महान शक्तिशाली राज्यों में एक था ।

क्रांतियों का तुलनात्मक अध्ययन:

विस्तार और प्रभाव में 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति की तुलना 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति से ही की जा सकती है, और इन दोनों क्रांतियों का एक संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन अनेक दृष्टियों से रोचक होगा ।

दोनों के कारण काफी गहरे और दूरगामी थे जो सदियों से दोनों देशों में एकत्र हो रहे थे । दोनों का प्रभाव उनके देशों में अनेक वर्षों तक महसूस किया जाता रहा । वस्तुत: इनका प्रभाव अब भी संसार में काम कर रहा है ।

दोनों का उद्देश्य जनसाधारण को शोषणों से मुक्ति दिलाना था, एक का सामंतवादी शोषण से, दूसरे का पूँजीवादी शोषण से । दोनों ने संसार को नयी विचारधाराएँ प्रदान कीं, एक ने लोकतंत्र की, दूसरे ने समाजवाद की ।

दोनों ही क्रांतियों का उद्देश्य समानता के सिद्धान्त को स्थापित करना था । फ्रांस की क्रांति ने राजनीतिक समानता प्रदान की और रूस की क्रांति ने आर्थिक समानता ।

इनमें कोई भी क्रांति केवल आन्तरिक समस्याओं को दूर करने के उद्देश्य से किया गया राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं था । दोनों की अपील देश, प्रजाति, वर्ण, सम्प्रदाय से परे समग्र मानवता से की गयी थी । दोनों ही अन्तर्राष्ट्रीय थे ।

एक ने मानवाधिकारों की घोषणा समस्त संसार के लिए की, तो दूसरे ने संसार भर के मजदूरों को एक होने का नारा दिया । दोनों क्रांतियों के प्रति प्रतिकूल प्रतिक्रिया देश-देशान्तर के उन सभी लोगों की ओर से हुई, जिनके रहने की पद्धति पर इनसे खतरा उत्पन्न हुआ था ।

फ्रांस की क्रांति का प्रबल विरोध सामंतवाद के निहित स्वार्थों द्वारा हुआ, जबकि रूसी क्रांति को पूँजीवादी-साम्राज्यवादी तत्वों के धीमे प्रतिरोध का सामना करना पड़ा । दोनों देशों ने क्रांतिवादी राजनीति का मिलता-जुलता ढाँचा प्रस्तुत किया ।

पुराने सत्ताधारी वर्ग को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांति के नेताओं में प्रबल एकता बनी रही, लेकिन नयी व्यवस्था की स्थापना के मुद्दों पर उनमें तीव्र फूट तथा झगड़े हुए । यह झगड़ा तब तक बना रहा, जब तक कि क्रांतिकारियों के एक गुट ने दूसरे का सफाया नहीं कर दिया ।

फ्रांस में जैकोबिन लोगों ने जिरोंदिस्तों का और रूस में बोल्शेविकों ने मेन्शेविकों का और बाद में स्टालिनवादियों ने ट्राटस्कीवादियों को जड़मूल से निर्मूल किया, क्योंकि क्रांति के सम्बन्ध में उनकी धारणाएँ भिन्न थीं ।

इन समताओं के बावजूद इन दोनों क्रांतियों के बीच कई अन्तर भी उल्लेखनीय हैं । सामान्य विकास और सभ्यता की दृष्टि से अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में 1900 ई. का रूस सबसे पिछड़ा हुआ देश था, जबकि 1789 ई. में फ्रांस सभी देशों से आगे था ।

सभ्यता-संस्कृति तथा आर्थिक-राजनीतिक दृष्टियों से क्रांति-पूर्व फ्रांस का मुकाबला करने वाला कोई यूरोपीय देश नहीं था । 1900 ई. के रूस में 1789 ई. के फ्रांस से कहीं अधिक निरक्षरता थी ।

अन्तिम जार निकोलस द्वितीय बड़ा ही जंगली प्रवृत्ति का था, उसकी पत्नी जारीना अलेक्जेण्ड्रा अंधविश्वास में डूबी महिला थी, जादू-टोने में उसका बड़ा विश्वास था । फ्रांस के लूई सोलहवें और मेरी एन्तावयनेत का मानसिक स्तर उनसे काफी ऊँचा था ।

1789 ई. की क्रांति शान्तिकाल में शुरू हुई थी, जबकि 1917 ई. की क्रांति युद्ध के समय हुई, लेकिन फ्रांस से क्रांति शुरू होने के तीन वर्ष बाद ही उसे यूरोपीय राष्ट्रों के साथ अनवरत युद्ध में फँसना पड़ा ।

रूस को अपनी क्रांति के उपरान्त 1941 ई. के पूर्व किसी अन्तर्राष्टीय युद्ध में नहीं फँसना पड़ा । वर्ग-आधार की दृष्टि से भी दोनों क्रांतियों में भिन्नता थी । फ़्रांसीसी क्रांति का वर्ग-आधार बुर्जुआ था, जबकि बोल्शेविक क्रांति सर्वहारा वर्ग के आधार पर सम्पन्न हुई थी ।

दोनों क्रांतियों के बीच कुछ और फर्क हैं । फ्रांस में क्रांति महज हो गयी, समाज के किसी तबके का 1789 ई. में क्रांति के विस्फोट करने का उद्देश्य नहीं था, लेकिन अकस्मात् उन्हें क्रांति की परिस्थिति में जाना पड़ा ।

रूस में बात ठीक विपरीत थी । रूस में क्रांतिकारियों के एक प्रतिबद्ध और समर्पित गुट ने पिछले पच्चीस वर्षों से इसकी तैयारियाँ की थीं और उनका स्पष्ट उद्देश्य था देश में क्रांति के बाद समाजवादी व्यवस्था की स्थापना । बोल्शेविकों द्वारा सता-अधिग्रहण एक पूर्व योजना का परिणाम था ।

दोनों ही क्रांतियों को आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं का मुकाबला करना पड़ा और इसके निमित्त दोनों ही जगह आतंक का राज्य कायम हुआ । 1793 ई. के फ्रांस के प्रसिद्ध आतंक के शासन की तरह 1918 ई. का बोल्शेविक आतंक भी अंश रूप में घरेलू और विदेशी युद्धों का जवाब था ।

नवम्बर क्रांति के शीघ्र ही बाद रूस के बोल्शेविकों ने अपने को अंदरूनी और बाहरी दुश्मनों से घिरा पाया और उन्होंने वही तरीका अपनाया जो फ्रांस के गणतन्त्रवादियों ने 1793 ई. में अपनाया था, हालाँकि बोल्शेविक आतंक के सामने पुराना जैकोबिन आतंक फीका पड़ गया ।

रूस में किसी क्रांतिकारी न्यायालय की किसी संक्षिप्त कार्यवाही के बिना ही हजारों को गोली मार दी गयी । ‘चेका’ अब तक की संगठित पुलिस व्यवस्था में सर्वाधिक शक्तिशाली राजनीतिक पुलिस थी ।

नये शासन के सभी विरोधियों को मौत के घाट उतार देना बोल्शेविक आतंक का लक्ष्य था । किसी भी व्यक्ति के पीछे बुर्जुआ वर्ग की पृष्ठभूमि का होना मात्र ही उस पर सोवियत राज्य के विरुद्ध षड्यन्त्र करने के लगाये गये जुर्म को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त था ।

अन्ततोगत्वा बोल्शेविक आतंक अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल रहा । सोवियत सेना की विजय के साथ इसने सर्वहारा वर्ग के नये शासन की स्थापना ठोस आधार पर की । कोई भी बुर्जुआ फिर कभी रूस की राजनीति में हिस्सा लेने की बात नहीं सोच सका या रूसी राजनीति में कभी उभरा तक नहीं ।

परन्तु, फ्रांस में 1793 ई. में ऐसी कोई बात नहीं हुई थी । आतंकवादी शासन के दौरान फ्रांसीसी बुर्जुआ दब कर बैठ गये और थर्मीडोरियाई प्रतिक्रिया के बाद वे पुन: उठ खड़े हुए और जैकोबिनों के विरुद्ध पहले वाले सामंतों के साथ मिलकर उन्होंने एक श्वेत आतंक में भाग लिया ।

उन्होंने 1793 ई. के प्रजातांत्रिक संविधान को नष्ट कर दिया तथा एक नये संविधान का निर्माण किया, जिसके अनुसार फ्रांस का शासन चलने वाला था । बोल्शेविक आतंक अतीत से बिल्कुल ही नाता तोड़ लेने में सफल रहा ।

1793 ई. का आतंक, अपनी वर्ग चेतना के बावजूद, इस बिन्दु पर असफल रहा । फिर फ्रांस में क्रांति समाप्त होने के बाद वहाँ प्रतिक्रिया का युग शुरू हुआ जिसमें देश छोड़कर भागने वाले कुलीन तथा सामंतवाद के अन्य निहित स्वार्थ वापस आ गये तथा जिनके हाथों से सत्ता छीन ली गयी थी, राजनीति में उनकी पुनःस्थापना हुई ।

पूर्वी राजवंश भी फिर से कायम हो गया । पर, रूस में समाजवाद के विरोधियों को सर्वदा के लिए निर्मूल कर दिया गया । जिन सामाजिक वर्गों के हाथ से सत्ता छीन ली गयी थी उनकी वापसी नहीं हुई । विदेशों में आश्रय लेने वाले लोगों में कोई वापस नहीं लौटा । भूतपूर्व रोमोनोव राजवंश को फिर गद्दी नहीं मिली । इस दृष्टि से रूस की क्रांति अधिक कामयाब रही ।

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