Read this article in Hindi to learn about Europe and the French revolution.

क्रांति पर प्रतिक्रिया:

1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति घरेलू मुसीबतों से निपटनेवाला राष्ट्रीय आंदोलन मात्र ही नहीं था । यूरोप के सभी देशों में इस क्रांति के अनेक समर्थक थे और इस अर्थ में शुरू से ही इस क्रांति का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय था । इसी तरह हर जगह इसके कुछ घोर विरोधी थे ।

ऐसे सभी लोग (विशेषाधिकार सम्पन्न सामंत लोग) जिनका जीवन-दर्शन ही खतरे में पड़ गया था, उनमें क्रांति के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया जागृत हुई । उसी समय क्रांतिसमर्थक लोगों का दल तुरंत यूरोप के सभी देशों में बन गया । फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धान्त तेजी से बाहर फैलने लगे थे ।

उन्होंने विश्वव्यापी राजनीतिक दर्शन का रूप धारण कर लिया और समय या स्थान, जाति या देश का विचार किये बिना मानवाधिकारों की घोषणा की । इसके अतिरिक्त जिन लोगों ने जिस दृष्टिकोण से फ्रांस में हुए उथल-पुथल को देखा उनकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही हुई ।

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पोलैंड में जो लोग अपने देश के विभाजन का अन्त कर एक नये राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे उन्होंने फ्रांस में घट रही घटनाओं का स्वागत किया । हंगरी के भूपतियों ने जो राजा जोसेफ द्वितीय के खिलाफ थे, फ्रांस के उथल-पुथल की ओर इशारा किया ।

कुछ समय के लिए इंगलैण्ड में भी कुछ ऐसे लोग जो संसदीय व्यवस्था के समर्थक थे, यह सोचते रहे कि फ्रांसीसी उनका अनुकरण करना चाहते थे । फ्रांस में हुई क्रांति की पहली खबर के प्रति बहुत-से विदेशियों ने आह्लादपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की ।

यूरोपीय समाज के अपवर्जित वर्गों को सर्वाधिक प्रोत्साहन मिला । साइलेसिया के शोषित बुनकरों ने यह आशा व्यक्त की कि फ्रांसीसी लोग उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए भी आयेंगे । आस्ट्रिया में हड़ताल आरम्भ हो गयी और अन्य जगहों पर किसानों ने बगावत कर दी ।

एक अँग्रेज राजनेता का कहना था कि प्रशा की सेना में भी प्रजातांत्रिक भावनाओं ने फ्रांसीसी क्रांति से प्रभावित होकर घर कर लिया था और वे आमूल सुधारों के पक्षधर होते जा रहे थे ।

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बेल्जियम के उन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने, जो आस्ट्रिया के शासन का विरोध कर रहे थे, एक बगावत कर दी । यह बगावत फ्रांस की घटनाओं द्वारा प्रोत्साहित हुई थी । फ्रांसीसी हित के प्रति सद्भाव रखनेवाली असंख्य संस्थाएं इंगलैण्ड में स्थापित हो गयीं ।

इनके सदस्य प्रमुख रूप से प्रगतिशील विचारधारा के लोग थे । इनमें से कुछ ने तो 1789 ई. की क्रांति की तुलना 1688 ई. की इंगलैण्ड की अपनी ‘शानदार क्रांति’ से की तथा स्वतंत्रता के लिए फ्रांसीसियों द्वारा किये जा रहे संघर्ष की तुलना संसदीय सुधारों के लिए स्वयं अपने द्वारा किये गये प्रयासों से जोड़ा ।

टॉम पाइने तथा डॉ. रिचर्ड प्राइस जैसे इंगलैण्ड के उग्रवादियों ने, जो ब्रिटिश संसद तथा चर्च के संगठन में आमूल परिवर्तन चाहते थे, फ्रांसीसी नेशनल एसेम्बली के सदस्यों के साथ पत्र-व्यवहार आरम्भ किया ।

इंगलैण्ड के महत्वपूर्ण व्यापारी वर्ग (जिनमें वाष्प इंजिन के प्रणेता वाट और वाल्टन भी थे) भी फ्रांस की क्रान्ति के समर्थकों में थे; क्योंकि इंगलैण्ड के संसद में उनके वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था और राजनीतिक दृष्टि से वे पूर्णतः उपेक्षित थे ।

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आयरलैंड के लोग भी फ्रांस की घटनाओं की खबर से काफी उत्तेजित हुए और विद्रोह कर बैठे । निश्चय ही सारे यूरोप का शिक्षित वर्ग क्रांति की घटनाओं का बड़ी ही दिलचस्पी के साथ अध्ययन कर रहा था ।

फ्रांस में जो कुछ भी घटित हो रहा था, उससे यह वर्ग आश्चर्यजनक रूप से परिचित था । 1789 ई. में जिस नवयुग के आगमन ने बहुत-से व्यक्तियों को सम्मोहित-सा कर लिया था उनमें एक कवि वर्ड्सवर्थ भी था ।

क्रांति की घटनाओं के स्वागत में उसने निम्न पंक्तियाँ लिखीं:

”उस नवप्रभात में जीवित होना ही वरदान था,

और युवक होना तो स्वर्गिक ही था ।”

इंगलैण्ड के ह्विग पार्टी के नेता चार्ल्स जेम्स फॉक्स ने फ्रांसीसी क्रान्ति के बारे में कहा कि यह ‘दुनिया में अबतक घटनेवाली सभी घटनाओं में महानतम और श्रेष्ठतम’ थी ।

जर्मन दार्शनिक जोहान फॉन हरडर ने क्रान्ति को मानवजाति के जीवन में धर्म-सुधार आन्दोलन के बाद होनेवाले प्रमुखतम आन्दोलन की संज्ञा दी और इसे मानव-स्वतंत्रता की ओर उठाये गये एक निर्णायक कदम के रूप में देखा ।

बर्क के विचार:

लेकिन प्रारम्भ की यह उत्साहजनक प्रतिक्रिया धीरे-धीरे फीकी पड़ती गयी और क्रमश: क्रान्तिविरोधी प्रतिक्रिया जोर पकड़ती गयी । इंगलैण्ड की ह्विग पार्टी के एक नेता एडमंड बर्क, जो शुरू से ही फ्रांसीसी क्रान्ति का कटु आलोचक था, ने 1790 ई. में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Reflections on the Revolution in France की रचना की ।

इस पुस्तक में उसने क्रान्तिकारियों की अतिवादिता की निन्दा की तथा प्राकृतिक अधिकार के सम्पूर्ण दर्शन पर गहरा सन्देह व्यक्त किया । फ्रांस के लिए उसने अराजकता और तानाशाही की भविष्यवाणी की ।

उसने अपने देशवासियों को राय दी कि उन्हें अँगरेजी स्वतंत्रता के दर्शन को ही धीरे-धीरे ग्रहण करना चाहिए । उसने फ्रांसीसी क्रांति के संपूर्ण राजनीतिक दर्शन की निन्दा की और उसे गलत तथा अव्यावहारिक बताया ।

उसने यह भी घोषणा की कि प्रत्येक राष्ट्र का अपनी राष्ट्रीय परिस्थितियों, अपने राष्ट्रीय इतिहास तथा अपने राष्ट्रीय चरित्र के आधार पर निर्माण होना चाहिये । बर्क फ्रांसीसी ‘जंगलीपन तथा हिंसा’ के विरुद्ध एक संघर्ष की आवश्यकता पर बल देने लगा ।

उसका ‘रिफ्लेक्शन्स’ व्यापक रूप से अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित हुआ और पड़ा गया । जर्मन राज्यों में भी क्रांति के समर्थकों का इसी प्रकार हृदय-परिवर्तन हुआ । उन्हें सबसे गहरी निराशा 1793-94 के आतंक के शासन के दौरान की स्वेच्छाचारिता से हुई ।

क्रांति-विरोधी रवैया:

क्रांति के प्रति यूरोपीय शासकों की प्रारम्भिक प्रतिक्रियाएँ मिश्रित एवं विभिन्न प्रकार की थीं । सभी यूरोपीय सम्राट क्रांति होने के समाचार को सुनकर ‘अपनी-अपनी गद्दियों पर काँप उठे’ और उन्हें अपनी स्थिति के सम्बन्ध में वैसी ही आशंकाएँ होने लगीं ।

उनमें से अधिकांश ने तहे दिल से बर्क का समर्थन किया । स्वेडन के राजा गुप्तेवश द्वितीय ने क्रांति के विरुद्ध राजाओं के अभियान का नेतृत्व करने का विचार रखा । रूस में वृद्धा कैथरीन भयातुर हो उठी ।

उसने वाल्तेयर की रचनाओं के अनुवाद पर प्रतिबन्ध लगा दिया । उसने फ्रांसीसियों को क्रूर, जंगली, गन्दे और बदमाश की संज्ञा दी । ‘वायज फ्राम सेंट पिट्‌सबर्ग टू मास्को’ के लेखक रेडिशेहेव को जिसने इस पुस्तक में दास-प्रथा की बुराइयों का उल्लेख किया था, साइबेरिया निर्वासित कर दिया गया ।

यह कहा जाता है कि रूसियों को ग्रह-नक्षत्रों के घूमने की प्रक्रिया के विषय में बातचीत करने की मनाही थी, क्योंकि इस क्रम में ‘रिवोल्यूशन’ शब्द का प्रयोग होता था ।

लूई सोलहवाँ तथा मेरी एन्तावयनेत द्वारा भेजे गये दु:खभरे संवादों तथा प्रवासी कुलीनों द्वारा क्रांति के आतंकों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा था । ये कुलीन वे पुराने सामंत थे जो जुलाई, 1789 में फ्रांस से निकल भागे थे और विदेशों में क्रांतिविरोधी भावनाओं को भड़का रहे थे ।

उन्होंने एक प्रकार का पवित्र युद्ध आरम्भ करने की आवश्यकता पर बल दिया । संक्षेप में, यूरोप शीघ्र ही सभी सीमाओं के बन्धन को तोड़कर दो खेमों में विभाजित हो गया । यह अमेरिका के विषय में भी सत्य था ।

अमेरिका में जैफरसन के नेतृत्व में जिस पार्टी का विकास हो रहा था उसे जैकोबिन तथा फ्रांस समर्थक और हैमिल्टन की पार्टी को प्रतिक्रियावादी तथा ब्रिटेन-समर्थक कहा गया । अमेरिका के स्पेनी उपनिवेशों में भी स्वतन्त्रता-सम्बन्धी विचारों को बल मिला ।

वेनेजुएला का राष्ट्रवादी नेता मिरैंडी फ्रांसीसी सेना का जेनरल नियुक्त हुआ । यूरोप के लगभग सभी देशों में ऐसे असंख्य क्रांतिकारी फ्रांसीसी समर्थक तत्व विद्यमान थे, जो अपनी सरकारों के लिए सिरदर्द बने हुए थे ।

सभी देशों में, फ्रांस में भी, क्रांति के दुश्मन थे । सभी देशों में ऐसे लोग थे जो फ्रांस की क्रांति के प्रति निष्ठावान थे और उसकी सफलता की कामना करते थे । प्रोटेस्टेंट सुधारवाद के बाद और 1917 ई. की रूसी क्रांति के पहले इस तरह की दूसरी घटना नहीं घटी थी ।

जिरोंदिस्तों की नीति:

फ्रांस में जब घटनाएँ बिजली की गति से घटने लगीं तब यूरोप के शासक अत्यन्त चिंतित हो उठे । उन्हें विश्वास हो गया कि क्रांति के जीवाणु अनिश्चित काल तक फ्रांस में ही सीमित नहीं रहेंगे । इस मर्ज को सीमित क्षेत्र में ही रोक रखने के यूरोपीय शासकों के प्रयास के बावजूद कुछ लोग इससे संक्रमित हो ही गये और वे यूरोप के दूसरे देशों के लिए इसके संवाहक बन गये ।

जिरोंदिस्त अब एक अन्तर्राष्ट्रीय क्रांति की पार्टी बन गये । नये दर्शन तथा नयी नैतिकताओं के सिद्धान्त पर आधारित क्रांतिकारी जनतंत्र अब एक धारणा बन गयी और एक नये धर्म के समान सारे विश्व में अब इसका प्रचार किया जा सकता था ।

फ्रांस के क्रांतिकारियों ने घोषणा की कि क्रांति फ्रांस में तबतक सुरक्षित नहीं रह सकती है जबतक यह सारे विश्व में न फैल जाये । उन्होंने एक ऐसे युद्ध की कल्पना की जिसमें फ्रांसीसी पड़ोसी देशों में प्रवेश करें, स्थानीय क्रांतिकारियों के साथ एकता स्थापित करें, स्थापित सरकारों को उलट दें तथा ‘गणतंत्रों का एक संघ’ कायम कर दें ।

एक राजनीतिक विश्वास को एक लड़ाकू शक्ति में बदल देने का उनका निश्चय था, जो इस्लाम की तरह एक साथ ही राजनैतिक तथा आध्यात्मिक विजय प्राप्त कर सके । फ्रांस का हित सभी राजाओं के विरुद्ध सारी जनता का हित बन गया ।

यूरोप के शासकों ने परोपकार के इस आक्रामक सिद्धान्त के रूप में क्रांतिरूपी हजारों फन वाले सर्प-राक्षस को उभरते देखा । ऐसे दुश्मन को कुचल डालने की नीयत से उन्होंने फ्रांस के विरुद्ध युद्ध करने का निश्चय किया ।

यदि वे ऐसा नहीं करते तो यह दानव स्वयं उन्हीं को उन्हीं की राजधानियों में नष्ट कर देता । इस परिस्थिति ने फ्रांस में विदेशी हस्तक्षेप को अवश्यम्भावी बना दिया और इसी से उस परिस्थिति की व्याख्या होती है जिसमें पड़कर फ्रांस लगभग बाइस वर्षों तक विदेशी शक्तियों से युद्धरत रहा ।

ऐसे तो क्रांतिकारी फ्रांस और यूरोपीय देशों के बीच युद्ध के कई कारण बताये जाते हैं, लेकिन इसका मौलिक कारण वैचारिक था । परिस्थिति यह थी कि क्या दो बिल्कुल विभिन्न प्रकार के सिद्धान्तों पर आधारित दो प्रकार के समाज शांतिपूर्वक साथ-साथ रह सकते थे ?

उनमें सह-अस्तित्व सम्भव था ? फ्रांस ने अपनी सीमाओं के अन्दर सामंतवाद का सफाया कर दिया था, राजतंत्रीय निरंकुशवाद के विकारों को नष्ट कर दिया था तथा जनता की प्रभुता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता के आधार पर एक नयी व्यवस्था की स्थापना की थी ।

जिन पुरातन संस्थाओं को फ्रांस ने अपने यहाँ नष्ट कर दिया था वे उसके महादेशीय पड़ोसियों के यहाँ ज्यों-के-त्यों बनी हुयी थीं । क्रांति का प्रभाव सर्वत्र फैल रहा था । यह अन्य शासकों की स्थिति पर खतरा पैदा कर रहा था तथा सभी जगह दास-प्रथा, सामंतवाद और निरंकुशवाद के अस्तित्व के लिए प्रकारान्तर में चुनौती-सा बन गया था ।

क्रांतिकारी विचार इतने गतिशील थे कि तत्कालीन व्यवस्था द्वारा उनकी उपेक्षा करना सम्भव नहीं था । इसके परिणामस्वरूप 1792 ई. में क्रांतिकारी फ्रांस के विरुद्ध यूरोपीय राज्यों के प्रथम गुट की स्थापना की गयी ।

क्रांतिकारियों का आक्रामक रवैया:

गणतंत्र की स्थापना तथा युद्ध के जारी रहने के साथ फ्रांस के क्रान्तिकारी अधिक-से-अधिक आक्रामक होते गये । युद्ध के प्रति उनका रुख कड़ा हो गया और उन्होंने इस युद्ध को यूरोपीय सम्राटों द्वारा कुचल डालने के लिए किये गये षड्यंत्र के रूप में देखा ।

आत्मरक्षा में किये गये बदले की कार्रवाई में उन्होंने एक घोषणा 1792 ई. के नवम्बर में की । इस घोषणा में कहा गया कि फ्रांसीसी राष्ट्र ऐसे सभी देशों को, जो अपनी खोयी स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते हैं, भाईचारे के नाम पर सहायता प्रदान करेगा ।

बाद में प्रसारित की गयी दूसरी घोषणा और स्पष्ट थी- ”उन प्रदेशों में जो फ्रांसीसी गणतंत्र की सेनाओं द्वारा जीते गये हों, या जीत लिये जायेंगे, उनमें तुरत ही सैनिक अधिकारियों द्वारा फ्रांसीसी राष्ट्र के नाम पर वहाँ की जनता की संप्रभुता घोषित कर दी जायेगी । मौजूदा संस्थाओं एवं अधिकारियों को हटा दिया जायेगा तथा सभी प्रकार के सामंती विशेषाधिकारों को हटा दिया जायेगा । वे जनता में घोषणा करेंगे कि वे उनके लिए शान्ति, सहायता, विश्व-बन्धुत्व, स्वतंत्रता और समानता का सन्देश लाये हैं और तब वे जनता को कम्यूनों पर आधारित ऐसेम्बली में संगठित करेंगे जिससे एक कामचलाऊ शासन का निर्माण और संगठन किया जा सके । फ्रांसीसी राष्ट्र घोषणा करता है कि वह उन सबको जनता का दुश्मन समझेगा जो स्वतंत्रता और समानता के सिद्धान्त को अस्वीकार करेंगे या इन सिद्धान्तों से अलग रहकर राजाओं तथा विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों से सम्बन्ध बनाये रखेंगे । फ्रांस यह प्रतिज्ञा करता है कि प्रतिक्रियावादी तत्वों से वह तब तक किसी तरह का समझौता नहीं करेगा या हथियार नहीं डाल देगा जब तक वहाँ की जनता की सम्प्रभुता तथा स्वतन्त्रता कायम नहीं हो जाती है, जिनके प्रदेश में गणतन्त्र की सेनाओं ने प्रवेश किया है ।”

स्पष्टत: जैसे-जैसे फ्रांसीसी सेनाओं ने अधिकाधिक आक्रामक रवैया अपनाया, वैसे- वैसे युद्ध भी सामंती अत्याचारों के विरुद्ध पद्दलित प्रजाओं के लिए मुक्ति-संघर्ष का रूप धारण करता गया ।

लेकिन यह विजित प्रदेशों को फ्रांसीसी राज्य में मिला लेने का एक बहाना था, क्योंकि इस कार्रवाई के पक्ष में कहा गया कि यदि इन प्रदेशों को असुरक्षित छोड़ दिया जाता तो सम्भव था कि उनके पुराने शासक उन पर पुन: अधिकार जमाकर उनपर सामंती व्यवस्था लाद देते ।

स्पष्ट है कि ये घोषणाएँ दूसरे प्रदेशों को अधिकृत करने की अभिलाषा को छुपानेवाला आवरण मात्र था । क्रांतिकारी नेताओं में से कुछ तहेदिल से क्रांति के लाभों को यूरोप की जनता तक पहुँचाना चाहते थे ।

लेकिन यह भी साफ है कि मुक्त की गयी जनता को सामान्यत: अपने मुक्तिदाताओं तथा पुराने शासकों के बीच चुनाव करने का अवसर नहीं दिया गया । प्रचलित तरीका यह था कि किसी विजित प्रदेश में फ्रांसीसियों के प्रति सद्भाव रखनेवालों द्वारा कन्वेन्शन के समक्ष उस विजित प्रदेश को फ्रांसीसी गणतन्त्र में मिला लेने के लिए याचिका प्रस्तुत की जाती थी ।

सीमावर्ती क्षेत्रों को गणतन्त्र में मिला लेने का दूसरा औचित्य इस दावे के रूप में दिया जाता था कि वे ‘फ्रांस की प्राकृतिक सीमाएँ’ अथवा प्रकृति के हाथों ‘फ्रांसीसी गणतन्त्र की निर्धारित सीमा’ के अन्दर पड़ते हैं ।

यूरोप पर प्रभाव:

यह बिल्कुल स्वाभाविक था कि फ्रांस के पड़ोसी राज्यों में इन कदमों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हो । ब्रिटेन, प्रशा और आस्ट्रिया की सरकारों ने अपने ही देश में मौजूद क्रांति के प्रति सहानुभूति रखनेवालों से निपटने के लिए तेजी से कदम उठाये और उन्हें देशद्रोही करार दिया ।

सभी यूरोपीय शासकों ने जैकोबिनवाद की निन्दा की तथा इसे फ़्रांसीसी जासूसों एवं फ्रांसीसी धन द्वारा समर्थित अन्तर्राष्ट्रीय षड्यन्त्र के रूप में देखा । उन देशों की सरकारें भी जो युद्ध में फ्रांस के विरुद्ध शामिल न थीं, उन लोगों के विरुद्ध तेजी से सक्रिय हो उठीं जिन पर थोड़ा भी फ्रांस का समर्थक होने का संदेह था ।

मध्य तथा पूर्वी यूरोप में ऐसे लोगों को मामले-से राजनीतिक अपराधों के जुर्म में कैद कर कठोर दंड दिया गया । उदाहरणार्थ, हंगरी के एक बुद्धिजीवी को जिसने मेग्यर भाषा में फ्रांसीसी क्रांतिकारी गीत मारसेलीज का अनुवाद किया था, मृत्युदण्ड दिया गया ।

फ्रांसीसी विचारों को इन जगहों में प्रवेश करने से रोकने के लिए आस्ट्रिया और रूस में समाचारपत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये गये । ब्रिटेन में उग्रवादियों और प्रगतिवादी व्यक्तियों तथा संस्थाओं के विरुद्ध कदम उठाने में कुछ कठिनाइयाँ अवश्य हुईं ।

कई ब्रिटिश संस्थाओं ने खुलेआम क्रांति के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित की । सरकार ने उनके विरुद्ध कदम उठाया । 1794 ई. में लन्दन की दो प्रमुख संस्थाओं- कौरेस्पौंडिंग सोसाइटी और सोसाइटी फॉर प्रोमोटिंग कौंस्टीट्युशनल रिफार्मेशन के बारह प्रमुख नेताओं पर देशद्रोह का अभियोग लगाया गया ।

प्रधानमन्त्री पिट ने संसद से ऐसे विधान पारित करवाये, ताकि अतिवादी प्रतिपक्ष से निपटा जा सके । 1795-96 में दो कानूनों के द्वारा राजद्रोह की परिभाषा को और विकृत कर इसमें रचनाओं, भाषणों तथा इनसे संबद्ध अन्य कार्यों को सम्मिलित कर किया गया ।

अधिकारियों द्वारा आयोजित सभाओं को छोड़कर सभी बड़ी जनसभाओं को वर्जित कर दिया गया । 1799 ई. में कानून बनाकर ट्रेड यूनियनों के साथ-साथ गुप्त संस्थाओं के अस्तित्व पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया ।

प्रेस पर कड़ा-से-कड़ा प्रतिबन्ध लगाया गया तथा सभी छपाई प्रेसों के लिए अपने को निबंधित करा लेना आवश्यक बना दिया गया । यूरोप का शासकवर्ग युद्ध के लिए चिंतित नहीं था, वरन् इसलिए चिंतित था कि क्रांति एक ऐसे देश (फ्रांस) में हुई थी जो पूरे महादेश में प्राचीनतम तथा सबसे अच्छे ढंग से व्यवस्थित भी ।

इस कारण ऐसा लगना स्वाभाविक था कि यूरोप में स्थापित निरंकुशतावाद तथा सामंतवाद पर यह एक घातक प्रहार था । यदि अति सम्मानित फ्रांसीसी राजतंत्र तथा यूरोपीय कुलीनों के शीर्षस्थ वर्ग अपने विशेषाधिकारों पर हुए इस प्रहार की नहीं झेल सके तो दूसरों के लिए ऐसे संकट और चुनौतियों का मुकाबला करना असम्भव था ।

1792 ई. में क्रांतिकारी सेनाओं द्वारा शेष यूरोप को बलपूर्वक मुक्त कराने के प्रयास ने उन्हें और अधिक भयभीत कर दिया । अब उन्हें पुरानी व्यवस्था में किसी प्रकार का परिवर्तन लाये जाने की प्रक्रिया को रोकने की दिशा में कड़ा रुख अपनाना पड़ा ।

इस तरह उन्होंने ‘क्रांति के जीवाणुओं को फ्रांस तक ही सीमित रखने का प्रयास किया । लेकिन, ‘क्रांति रोग को एक सीमित क्षेत्र तक रोक रखने’ के यूरोपीय शासकों के प्रयास के बावजूद बहुत-से व्यक्ति इससे संक्रमित हो गये तथा पूरी उन्नीसवीं सदी में इसके संवाहक बने रहे । अन्त में कोई भी देश फ्रांसीसी क्रांति के प्रभाव से अछूता नहीं रहा ।

वास्तव में, इसका प्रभाव तो आज भी अनुभव किया जा रहा है । इसने न केवल लम्बी अवधि से चली आ रही परम्पराओं तथा गहरे जड़ जमाये हुए संस्थाओं को नष्ट कर डाला, वरन् इसने नये विचारों की भी घोषणा की जिन्होंने फ्रांस के अन्दर और बाहर की बाद वाली पीढ़ियों को बहुत ही अधिक प्रभावित किया है ।

1789 ई. के मानवाधिकारों की घोषणा तथा क्रांतिकारी फ्रांस के क्रमिक संविधान उन्नीसवीं सदी में सिद्धान्तवादी आन्दोलनों के प्रमुख स्रोत बन गए । उदारवादी तथा राष्ट्रीय आन्दोलन तो निश्चित रूप से फ्रांसीसी क्रांति के ऋणी हैं । समाजवादी भी अपने सिद्धान्तों एवं संयोजनाओं के लिए इसके बड़े ऋणी हैं ।