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यूनान के स्वातन्त्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि:

सतरहवीं शताब्दी तक ओटोमन साम्राज्य बहुत शक्तिशाली बना रहा । क्षेत्रफल की दृष्टि से यूरोप में रूसी साम्राज्य के बाद ही उसका स्थान आता था । पूर्वी यूरोप के यूनान, सर्बिया, रूमानिया, बुल्गेरिया, बोस्निया आदि क्षेत्र इस विशाल साम्राज्य के अन्तर्गत थे । इन क्षेत्रों के निवासी के भाषा, धर्म, रक्त आदि की दृष्टि से तुर्की से सर्वथा भिन्न थे ।

तुर्कों ने उन्हें अपने साम्राज्य में आत्मसात करने को कोई प्रयत्न नहीं किया, वरन् उनका शोषण करते रहे । अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में ओटोमन साम्राज्य में निर्बलता के लक्षण प्रकट होने लगे । ऐसी हालत में आस्ट्रिया और रूस टर्की की पतनोन्मुख अवस्था से लाभ उठाने का प्रयत्न करने लगे ।

आरम्भ में रूस ने इस ओर अधिक ध्यान दिया तथा प्रजाति एवं धर्म की आड़ में उसने अपनी शक्ति बढ़ाने का पूरा प्रयास किया इंगलैण्ड रूस की इस प्रसारवादी नीति का विरोधी था, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि ओटोमन साम्राज्य का अस्तित्व समाज हो जाय और उस पर रूस का आधिपत्य हो जाय । ऐसा न होने पर, उसे आशंका थी कि उसके भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा पर खतरा उत्पन्न हो सकता है ।

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फ्रांस की क्रांति और नेपोलियन के युद्धों ने यूरोप में राष्ट्रवाद और जनतन्त्र की जो भावना फूंकी थी, उससे सारा यूरोप वर्षों तक प्रभावित होता रहा । इन नवीन भावनाओं का प्रभाव बाल्कन क्षेत्र के देशों पर पड़ना भी अनिवार्य था । फ्रांस की क्रांति के उपरान्त यह बिल्कुल असम्भव बात हो गयी कि एक भिन्न जाति दूसरी जातियों पर अपना आधिपत्य जमाये रखे । अतएव, वियना कांग्रेस के बाद इन राज्यों में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए यत्न आरम्भ हुए ।

सर्वप्रथम, सर्बिया के लोगों ने 1804 ई॰ में तुर्की के विरुद्ध आन्दोलन किया । इसके फलस्वरूप सर्बिया के निवासियों को स्थानीय स्वशासन के कुछ अधिकार मिले । सर्बिया को आंशिक स्वशासन का अधिकार प्राप्त करते देख बाल्कन प्रायद्वीप के अन्य देशों का हौसला बढ़ा और वे भी राजनीतिक अधिकार की प्राप्ति का प्रयास करने लगे । वियना-कांग्रेस के बाद इस क्षेत्र में राष्ट्रवाद की लहर जारों से बहने लगी । यूनान का स्वतन्त्रता-युद्ध वियना कांग्रेस के बाद बाल्कन राष्ट्रवाद की सबसे प्रमुख घटना थी ।

यूनान एक बहुत ही प्राचीन देश था । यूरोप में सभ्यता का आरम्भ पहले-पहले वहीं हुआ था । अठारहवीं सदी के अन्त तक यूनानियों में राष्ट्रीय संगठन का विचार कुछ अंशों में प्रस्फुटित हो चुका था । वे सब यूनानी चर्च के अनुयायी थे । समान धार्मिक भावना के कारण उनमें जातीय एकता की अनुभूति भी थी ।

अठारहवीं शताब्दी के अन्त में उनमें अपने प्राचीन गौरव की चेतना भी जागृत हो रही थी । इस समय यूनानी भाषा और साहित्य का पुनरुद्धार करने के लिए एक बौद्धिक आन्दोलन भी चल ना था । एडिमेटिटआस कोरेज नामक प्रसिद्ध लेखक ने अनेक पुस्तकों के माध्यम से यूनानियों को उनकी प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा के प्रति जागरूक रहने का सन्देश दिया ।

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कान्सटेण्टाइन रीगस नामक एक अन्य राष्ट्रवादी साहित्यकार ने देशभक्तिपूर्ण गीतों की रचना की, जिनमें आने वाले युग की क्रांति का पूर्वभण्स था । इस प्रकार, कोरेज और रीगस के राजनीतिक विचार एवं साहित्यिक प्रेरणा के कारण यूनानियों को अपनी परतन्त्रता अखरने लगी । वे टर्की के अत्याचारपूर्ण शासन से मुक्त होकर प्राचीन यूनानी साम्राज्य को पुन: प्रतिष्ठित करने की योजनाएँ बनाने लगे ।

यूनानियों की राष्ट्रीय जागृति में एक और तत्त्व सहायक सिद्ध हुआ । टर्की साम्राज्य के अन्तर्गत यूनानियों की दशा अन्य अधीन जातियों से अच्छी थी । ग्रीक लोगों को शासन के विभिन्न विभागों में उच्च पद दिये जाते थे । एजीयन द्वीप समूह एवं तटवर्ती भागों में यूनानियों को पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त थी, केवल उनको थोड़ा-सा कर देना पड़ता था । अच्छे नाविक होने के कारण टर्की के जहाजी बेड़े में अधिकतर मल्लाह और अफसर यूनानी ही थे । उद्योग और समुद्री व्यापार में भी यूनानी अग्रणी थे, जिनके कारण वे समृद्ध थे ।

यूनान के ईसाइयों को बड़ी मात्रा में धार्मिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त थी । चर्च में ग्रीक पादरियों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त थे । उनमें एक शिक्षितमध्यमवर्ग भी था, जो राष्ट्रीयता की भावना से अधिक प्रभावित था । ऐसी परिस्थितियों में उनका स्वतंत्रता के लिये अग्रसर होना स्वाभाविक था ।

फ्रांसीसी क्रांति द्वारा प्रसारित विचारधारा के कारण उनकी राष्ट्रीयता और स्वतन्त्रता की इच्छा अधिक बलवती हो गयी । इटली और स्पेन के समान यूनान में भी गुप्त क्रांतिकारी समितियों का गठन किया जाने लगा । इन गुप्त समितियों में ‘हिटोरिया फिल्के’ नामक एक सशस्त्र क्रांतिकारी संगठन का नाम विशेष उल्लेखनीय है ।

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इस संस्था में शीघ्र ही देश के अन्दर और बाहर के हजारों यूनानी सम्मिलित हो गये और चार-पाँच वर्षों में उसके सदस्यों की संख्या दो लाख पहुँच गयी । उनका उद्देश्य यूरोप से तुर्कों को निकालकर कॉन्स्टेण्टनोपुल पर पुन: यूनानी साम्राज्य स्थापित करना था ।

यूनानियों का विद्रोह:

1821 ई॰ में यूनानियों ने विद्रोह का झंडा उठाया । उनका सबसे पहला विद्रोह हिप्सलांटी के नेतृत्व में मोल्डेविया में प्रारम्भ हुआ । मोरिया के हजारों तुर्कों का यूनानियों ने वध कर दिया । यूनानियों का विश्वास था कि जब उनका स्वतन्त्रता संग्राम जोर पकड़ेगा तो उन्हें रूस की सहायता प्राप्त होगी ।

लेकिन, इस समय रूस का जार अलेक्जेण्डर मेटरनिक के प्रभाव में था, जो प्रगतिवादी विचारधाराओं का प्रबल विरोधी था । मेटरनिक की राय मानते हुए जार ने यूनानियों को किसी प्रकार की सहायता नहीं दी । इससे टर्की को अच्छा मौका मिला । सुलतान ने एक विशाल सेना भेजकर मोल्डेविया के विद्रोह की दबा दिया ।

लेकिन, यूनान में राष्ट्रीयता की जो आग सुलग गयी थी, उसको बुझाना असम्भव था । मोल्डेविया के विद्रोह के समाज होते ही यूनान के अन्य भागों-मेरिया और ईजिय सागर में स्थित द्वीपों-में बड़े पैमाने पर विद्रोह शुरू हो गये ।

यूनानियों में राष्ट्रीयता का अपूर्व जोश आ चुका था और उन्हें बाहर के लोगों की सहानुभूति भी प्राप्त हो रही थी । कई देशों से स्वयंसेवक लोग यूनानी ईसाइयों की सहायता के लिए यूनान पहुँचने लगे । इंग्लैण्ड का सुप्रसिद्ध कवि बायरन भी इस युद्ध में स्वयंसेवक के रूप में शामिल था । यूरोप भर में यूनान की सहायता के लिए चन्दा एकत्र किया गया । इस हालत में टर्की के लिए विद्रोह को कुचलना अत्यंत कठिन साबित हो रहा था ।

यूनानियों का विद्रोह जोर पकड़ता जा रहा था । टर्की का शासक इस परिस्थिति से घबड़ा उठा । उसने यूनान के विद्रोह को दबाने के लिए मिस्र के शासक मोहम्मद अली से सहायता माँगी । मोहम्मद अली ने आधुनिक सेना के साथ अपने पुत्र इब्राहिम पाशा को सुलतान की सहायता करने के लिए भेजा । उसने बड़ी निर्दयता के साथ विद्रोह को दबा दिया ।

यद्यपि यूरोपीय जनता धन तथा हथियारों से यूनानियों की सहायता कर रही थी, परन्तु मेटरनिक यूनानियों के विद्रोह के विरुद्ध था । उसने यूरोपीय देशों की सरकारों से यूनानियों की सहायता देने की मनाही कर दी । इन देशों पर मेटरनिक का जबरदस्त प्रभाव था । इस कारण यूरोप के राज्य यूनानियों के लिए कुछ कर नहीं सके । यूनानियों की पराजय निश्चित प्रतीत होने लगी ।

महाशक्तियों का हस्तक्षेप:

यूनान के स्वतन्त्रता संग्राम का प्रश्न यूरोपीय कन्सर्ट के समक्ष लाइबेख काँग्रेस में उपस्थित किया गया । मेटरनिक का कहना था कि यूनान के मामले में किसी राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । इंगलैण्ड भी उस समय किसी विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध था । उसकी दृष्टि में यूनानियों की सफलता से तुर्की साम्राज्य कमजोर पड़ जाता और रूस के विस्तार की सम्भावना बढ़ जाती । तुर्की साम्राज्य के अस्तित्व को कायम रखना इंगलैण्ड की विदेश-नीति का एक मुख्य तत्त्व था । इस प्रकार, आस्ट्रिया और इंगलैण्ड दोनों ही किसी प्रकार के हस्तक्षेप और विदेशी सहायता के विरुद्ध थे ।

लेकिन, यूनानियों की पराजय से रूस में बेचैनी फैल रही थी । रूस टर्की साम्राज्य का पतन चाहता था । दक्षिण-पश्चिम की ओर बढ़ना उसकी मुख्य नीति थी और इसके लिए यूनान का युद्ध उसे एक अच्छा अवसर दे रहा था । इसके अतिरिक्त रूस का जार ग्रीक चर्च का प्रधान था और यूनानी लोग ग्रीक चर्च के ही अनुयायी थे । अतएव रूस के लिए यूनानियों की मदद करना आवश्यक था । इसके अतिरिक्त युद्ध के दरम्यान कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिनसे रूस टर्की से बहुत नाराज था । उसने टर्की के साथ अपने दौत्य सम्बन्ध तोड़ लिया और युद्ध की तैयारी करने लगा ।

रूस के हस्तक्षेप की सम्भावना ने परिस्थिति को अत्यन्त गम्भीर बना दिया । टर्की ने इस हस्तक्षेप के पूर्व ही विद्रोह को पूरी तरह से कुचलने का निश्चय किया । उसने क्रीट पर अधिकार जमा लिया और एथेन्स के यूनानियों पर भीषण अत्याचार किये । इन अत्याचारों की खबर से यूरोप भर के ईसाइयों में उत्तेजना फैली । हर जगह यूना।बचो की सहायता के लिए विभिन्न सरकारों पर जनमत का दबाव पड़ने लगा ।

इसी समय दो ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घर्टी, जिनके कारण स्थिति बिल्कुल बदल गयी । 1822 ई॰ में कैसलरे के स्थान पर जॉर्ज कैनिंग इंगलैण्ड का विदेशमंत्री नियुक्त हुआ । वह भी अहस्तक्षेप की नीति का समर्थक था, लेकिन घटनाएँ कुछ इस तरह घट रही थीं कि कैनिंग को मजबूर होकर इस नीति का परित्याग करना पड़ा ।

यूनानी लोग अभी युद्ध में व्यस्त थे और तुर्की का मुकाबला कर रहे थे । इससे इंग्लैण्ड को काफी नुकसान पहुँच रहा था । समुद्र पर यूनानियों का प्रभुत्व था जिसके कारण इंग्लैण्ड को बहुत सारे जहाजों को क्षति उठानी पड़ रही थी । लेकिन, इसके लिए इंग्लैण्ड क्षतिपूर्ति का कोई दावा नहीं कर सकता था, क्योंकि यह दावा तभी जायज था जब यूनान को एक युद्धरत देश मान लिया जाता ।

अभी तक यूनानी समुद्री लुटेरे समझे जाते थे और अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत उनसे क्षतिपूर्ति की माँग नहीं की जा सकती थी । कोत्रंग ने अनुभव किया कि दस लाख की आबादीवाले राष्ट्र को डाकू मानते रहना गलत है । इंग्लैण्ड की इस नीति-परिवर्त्तन के कारण यूनानियों को एक लड़ाकू पक्ष होने की मान्यता मिल गयी ।

इंग्लैण्ड के इस निर्णय का अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा । इसके कारण आस्ट्रिया और रूस को अपनी नीति बदलनी पड़ी । हर जगह हस्तक्षेप की आवश्यकता महसूस होने लगी । पर, हस्तक्षेप किस प्रकार हो इस पर घोर मतभेद उठ खड़ा हुआ । इस बीच जार अलेक्जेण्डर की मृत्यु हो गयी और निकोलस प्रथम रूस की गद्दी पर आया । वह जल्द-से-जल्द यूनानियों का पक्ष लेकर युद्ध में हस्तक्षेप करना चाहता था ।

1826 ई॰ में इंग्लैण्ड और रूस ने टर्की के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि वह टर्की साम्राज्य के अन्तर्गत यूनान का एक राज्य स्वीकार कर ले । पर, सुलतान ने इस प्रस्ताव को नहीं माना । उधर यूरोपीय देशों का जनमत टर्की के विरुद्ध होता जा रहा था । इसके दबाव में रूस, इंग्लैण्ड और फ्रांस की सरकारों ने टर्की के सुलतान को लिख भेजा कि यूरोपीय शान्ति की रक्षा के लिए वह यूनानियों को शीघ्र स्वतन्त्रता दे दे । प्रशा और आस्ट्रिया ने इस प्रस्ताव पर अपना सहयोग नहीं दिया । जिस समय तीन राज्यों का यह सम्मिलित प्रस्ताव टर्की के सुलतान के पास भेजा गया, उसी समय फ्रांस और इंगलैण्ड ने अपने जहाजी बेड़ों को भूमध्यसागर में सतर्क हो जाने का आदेश दिया ।

नेवोरिनो के बन्दरगाह पर टर्की के जहाजी बेड़े भी थे । दोनों पक्षों के जहाजी बेड़ों में एक साधारण- सी मुठभेड़ हो गयी । इस पर युद्ध प्रारंभ हो गया और टर्की का बेड़ा पूर्णतया नष्ट हो गया । ऐसी हालत में यूरोपीय युद्ध की सम्भावना पैदा हो गयी । लेकिन, इस अवसर पर इंग्लैण्ड ने कुछ संयम से काम लिया और अपने जहाज वापस बुला लिये । फ्रांस ने भी इंग्लैण्ड का साथ दिया ।

पर, रूस ने परिस्थिति से लाभ उठाने का निश्चय किया । उसने टर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । टर्की रूस का मुकाबला करने में असमर्थ था । विवश होकर 1829 ई॰ में सुलतान को रूस के साथ ‘एड्रियानोपुल के सन्धि’ करनी पड़ी, जिसके द्वारा यूनान की स्वतन्त्रता को मान्यता मिली एवं एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में यूनान का अभ्युदय हुआ ।

स्वातन्त्र्य युद्ध के परिणाम-दीर्घकालीन एवं कठोर संघर्ष के बाद यूनानियों ने निरंकुश एवं अत्याचारी तुर्की शासन से मुक्ति पायी और अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया । यह यूरोप के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी । यूनानियों की सफलता मेटरनिक की प्रतिक्रियावादी नीति के विरुद्ध राष्ट्रीयता की विजय थी ।

उसने संसार के समक्ष राष्ट्रीयता की भावना की प्रबल शक्ति का प्रभावकारी प्रमाण प्रस्तुत किया । यूनानियों की इस विजय ने 1830 ई॰ के क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी । मेटरनिक की कांग्रेस व्यवस्था यूनान की समस्या के कारण ही छिन्न-भिन्न हो गयी ।

एक ओर ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने सम्मिलित हस्तक्षेप द्वारा यूनान को स्वतन्त्र बनाने का श्रेय प्राप्त किया, वहीं दूसरी ओर आस्ट्रिया और प्रशा उनके प्रयलों में अनेक बाधाएँ उपस्थित करते रहे । एड़ियानोपुल की सन्धि के पश्चात बाल्कन क्षेत्र में रूस की प्रतिष्ठा एवं प्रभाव बढ़ गया, जिसके आधार पर वह अपनी शक्ति को और भी अधिक बढ़ा सकता था ।

इस संघर्ष ने टर्की के साम्राज्य की निर्बलता और खोखलापन भी सभी राज्यों के समक्ष स्पष्ट कर दिया । इसके फलस्वरूप बाल्कन के अन्य ईसाई राज्यों में भी स्वतन्त्र होने की आशा जागृत हुई । यूनान की समस्या ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि बाल्कन की समस्या यूरोप की एक महान एवं जटिल अन्तरराष्ट्रीय समस्या थी, जिसमें ब्रिटेन, रूस और आस्ट्रिया तीनों के अपने-अपने स्वार्थ उलझे हुये थे और इस कारण उनका पूर्ण तटस्थ रहना सम्भव नहीं था ।

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