Read this article in Hindi to learn about the American war of independence.

अठारहवीं शताब्दी का उतरार्द्ध पश्चिमी दुनिया-अमेरिका और यूरोप-में क्रांति का काल था । इसी शताब्दी में हुई बौद्धिक क्रान्ति या प्रबुद्धवाद की अभिव्यक्ति अमेरिकी क्रांति और फ्रांस की क्रांति में हुई तथा इसकी परिणति नेपोलियन के कारनामों में हुई ।

प्रबुद्धवाद के राजनीतिक और सामाजिक आदर्शों की पहली परीक्षा और पहला प्रयोग एक अनपेक्षित इलाके-ब्रिटिश अमेरिकी उपनिवेशों में हुआ । अमेरिकी क्रांति उन घटनाक्रमों में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम था जिसने 1500 ई. से चली आ रही सरकार की निरंकुश विचारधारा को मार गिराकर पश्चिमी यूरोप के राजनीतिक ढाँचे को बदल डाला ।

अपने बगावत को उचित ठहराने तथा नयी राजनीतिक संस्थाओं को निर्धारित करने के अमेरिकियों के निर्भीक प्रयोग अन्य देशों के लिए प्रेरणास्रोत और आदर्श साबित हुए । अपने सही परिप्रेक्ष्य में, अमेरिकी क्रांति आधुनिक विश्व इतिहास की महान घटनाओं में एक थी ।

अमेरिकी औपनिवेशिक समाज:

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अमेरिकी क्रान्ति एक जटिल आन्दोलन था । इसकी सारी जटिलताओं के पीछे एक मौलिक तथ्य था । 1776 ई. के पूर्व डेढ़ सौ साल के दौरान अमेरिकी समाज ब्रिटिश और यूरोपीय समाजों से भिन्न और अलग हो चुका था ।

1776 ई. के बहुत पहले ही अमेरिका में स्वतंत्र होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी; क्रांति तो इस प्रक्रिया की परिणति थी । 1776 ई. में यूरोप से भिन्न दुनिया में अमेरिकियों के रहने का सबसे स्पष्ट लक्षण था, उनकी जीवन्त अर्थव्यवस्था जो अमेरिका के बीहड़ों में विकसित हुई ।

यह एक उपलब्धि थी, जिसका श्रेय उपनिवेशवासियों के कठोर परिश्रम और पटुता को दिया जाता है; ग्रेट ब्रिटेन का कोई व्यक्ति इसका श्रेय नहीं ले सकता । औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ विविधतापूर्ण कृषि व्यवस्था थी ।

न्यू इंगलैण्ड और मध्यवर्ती उपनिवेशों में छोटे और व्यक्तिगत फार्म थे तो दक्षिण में बड़े-बड़े बगान, जिनमें गुलामों द्वारा खेती करवायी जाती थी । दोनों क्षेत्रों के बीच अमेरिकी लोग कई तरह की फसल पैदा करते थे जैसे- अनाज, तम्बाकू, चावल, नील, सब्जी, फल और कई अन्य चीजें ।

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इस व्यवस्था ने न केवल तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को खिलाया, बल्कि निर्यात के लिए अतिरिक्त भी उपलब्ध कराया । पश्चिम में विशाल भू-भाग खाली था जिसे अभी तक उपयोग में नहीं लाया गया था और इसने यहाँ के लोगों को महान आर्थिक अवसर प्रदान किया ।

अमेरिकावासियों ने वाणिज्य और उद्योग की भी अवहेलना नहीं की । न्यू इंगलैण्ड और मध्यवर्ती उपनिवेशों के व्यापारियों ने अमेरिका के अन्दर उन्नतिशील व्यवसाय विकसित किया ।

उन्होंने समुद्र पार ग्रेट-ब्रिटेन, वेस्ट इंडिज और यूरोपीय देशों के साथ भी व्यापार किया । निर्यातित माल का अधिकांश हिस्सा औपनिवेशिक कच्चा माल जैसे- तम्बाकू और इमारती लकड़ी था, जो तैयार माल और दासों के बदले ब्रिटेन और यूरोप भेजा जाता था ।

हालाँकि, 1776 ई. तक उपनिवेशवासी ब्रिटिश विरोध के बावजूद तैयार माल का उत्पादन करने लगे थे । न्यू इंगलैण्ड में वेस्ट इण्डियन सीरा से रम बनाकर असंख्य व्यापारियों ने अपार धन कमाया । एक उन्नतिशील जहाजरानी उद्योग भी स्थापित हो चुका था । निस्संदेह, उपनिवेशवासी 1776 ई. तक आत्मनिर्भर नहीं हुए थे, परन्तु वे ग्रेट-ब्रिटेन और यूरोप पर पूर्णतः निर्भर नहीं थे ।

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अमेरिकी उद्यमी अपने हितों की रक्षा और विस्तार के लिए दत्तचित थे । अधिकांश अमेरिकी आर्थिक दृष्टि से सुखी थे और उन्हें विश्वास था कि अगर वे अपने आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने में स्वतंत्र रहे तो भविष्य उज्जवल है ।

1776 ई. में अमेरिका की जनसंख्या (2,500,000) बाह्य रूप से ग्रेट-ब्रिटेन की तरह ही वर्ग संरचना में संगठित थी । धनी सौदागरों और बगान-मालिकों का अभिजात-वर्ग, जो आर्थिक जीवन, राजनीति, धर्म और तौर-तरीकों पर हावी था, अपनी स्थिति के बारे में जागरूक था और उसे बनाए रखना चाहता था ।

स्वतंत्र किसानों, दूकानदारों, कारीगरों और व्यवसायी लोगों के एक विशाल उद्यमशील समुदाय का स्थान अभिजात वर्ग के नीचे था । कुछ दैनिक मजदूर, रैयती किसान और बंधुआ नौकर भी थे जिनका समाज में और नीचे स्थान था ।

फिर हब्शी गुलाम भी थे । यह सामाजिक संरचना यूरोप जितनी अपरिवर्तनशील नहीं थी । यूरोप के किसी अभिजात वर्ग का अमेरिका में उत्प्रवासन नहीं हुआ था । औपनिवेशिक अभिजात परिवारों की वंश-परम्परा की जड़े यूरोप में नहीं मिलतीं ।

अमेरिकी अभिजाततंत्र रक्त पर नहीं, बल्कि सम्पत्ति पर आधारित थी । निचले वर्ग के उद्यमी और सौभाग्यशाली लोगों के लिए परिश्रम से प्राप्त ऐश्वर्य द्वारा अभिजात वर्ग का दर्जा प्राप्त करना सम्भव था ।

निचले तबके के ऐसे लोग, जो अभिजातीय प्राधान्य का विरोध करते थे, सीमान्तों में जाकर बस सकते थे । इस प्रकार, औपनिवेशिक परिस्थितियों ने अभिजातीय समाज के बन्धनों को ढीला कर दिया था और छोटे दर्जे और छोटे आय के लोगों को काफी अधिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी ।

नयी और पुरानी दुनिया के बीच सम्भवत: सबसे तीक्ष्ण अन्तर राजनीतिक जीवन में था । यों तो प्रत्येक अमेरिकी उपनिवेशों की अपनी-अपनी सरकार थी, परन्तु यह सामान्य पैटर्न 1776 ई. तक विकसित हुआ था ।

हर उपनिवेश का एक गवर्नर होता था, जो ब्रिटिश राजमुकुट की सत्ता का प्रतिनिधित्व करता था और जो सामान्यतः ब्रिटिश राजमुकुट द्वारा चुना जाता था ।

सिद्धान्तत: गवर्नर को औपनिवेशिक मामलों के निदेशन और राजनीतिक स्वतंत्रता के दमन करने का व्यापक अधिकार प्राप्त था । पेनसिलवानिया को छोड़कर हर उपनिवेश में दो सदनों की विधायिका थी ।

निचला सदन सम्पत्तिशाली लोगों द्वारा चुना जाता था, जबकि ऊपरी सदन के सदस्यों का मनोनयन ब्रिटिश नरेश या गवर्नर द्वारा होता था । औपनिवेशिक विधान सभाओं के अधिकार पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे, लेकिन स्थानीय और कर के मामलों में सामान्यत: उनके अधिकार व्यापक थे ।

इन मामलों पर गवर्नर को लगभग असीम विटो शक्ति प्राप्त थी, लेकिन चूँकि वे वेतन और कोष के लिए व्यवस्थापिका की कृपा पर निर्भर थे इसलिए सामान्यतया इन अधिकारों का प्रयोग करने की स्थिति में नहीं थे ।

ब्रिटिश अदालतों के पैटर्न पर उपनिवेशवासियों की अपनी अदालती व्यवस्था थी और इंगलिश नागरिकों की तरह कानूनी अधिकारों का उपयोग करते थे । यथार्थ प्रक्रिया में औपनिवेशिक सरकारें व्यापक स्वतंत्रता की अभ्यस्त हो चुकी थीं, और उपनिवेशवासियों ने अधिकाधिक तौर पर महसूस करना शुरू कर दिया था कि अपने राजनीतिक भाग्य का फैसला करने का उन्हें अधिकार है ।

1776 ई. के पहले उपनिवेशवासी यह तो मान सकते थे कि उन पर ब्रिटिश सत्ता का नियंत्रण है, लेकिन जब विशेष मामलों की बात आती थी तो वे यह तर्क देते थे कि निर्णय लेने में उनकी अपनी सरकारों की राय भी ली जानी चाहिए ।

उपनिवेशवासियों में यह भावना घर करती जा रही थी कि औपनिवेशिक सरकारों का उतना ही महत्व है जितना कि ब्रिटिश सरकार का । डेढ़ सौ साल के स्वशासन के अनुभव ने ग्रेट ब्रिटेन और उपनिवेशों के बीच अटलाण्टिक से भी बड़ी खाई पैदा कर दी थी ।

औपनिवेशिक धार्मिक जीवन अनूठा था । यद्यपि वे ऐसे चर्च को खर्च चलाने के लिए कर देते थे जो प्राय: असहिष्णु और अधिनायकीय थे, परन्तु इन उपनिवेशों में यूरोपीय देशों की तुलना में कहीं अधिक धार्मिक स्वतंत्रता थी ।

स्थापित प्यूरिटन और ऐंग्लिकन धर्म के साथ-साथ प्रेसाबिटोरयन, क्वेकर, लूथेरन, डच रिफोर्मड, रोमन कैथोलिक और यहूदियों के लिए भी वहाँ जगह थी । अठारहवीं सदी के बौद्धिक क्रान्ति के दौरान कई सुसमाचारी धर्मों जैसे- मेथोडिज्म का जन्म हुआ ।

1776 ई. के पहले उपनिवेशवासी सांस्कृतिक गतिविधियों में कम रुचि लेते थे । अमेरिकियों ने औपनिवेशिक समाज में जीविका प्राप्त करने के लिए कॉलेजों और स्कूलों की स्थापना अवश्य की ।

कई क्षेत्रों में समाचारपत्रों का भी प्रकाशन शुरू हुआ । अमेरिकी वास्तु-शिल्पीय शैली का सूत्रपात हुआ, लेकिन साहित्य और कला के क्षेत्र में ऐसी कोई प्रगति नहीं हुई जो उल्लेखनीय हो । संक्षेप में, औपनिवेशिक सांस्कृतिक जीवन अब भी यूरोप से जुड़ा था ।

शायद औपनिवेशिक अमेरिका की सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि यहाँ के लोगों ने यूरोप के मुख्य सांस्कृतिक प्रवृतियों से जुड़े रहने की क्षमता विकसित की । न तो समुद्र की बाधा, न भाषा और न उपनिवेशों का सख्त जीवन अमेरिकियों को प्रबुद्धवाद के आदर्शों और नए विज्ञान के तात्पर्य को आत्मसात करने से रोक सका ।

यद्यपि 1776 ई. तक अमेरिकी और ब्रिटिश समाज के बीच काफी मतभेद पैदा हो चुके थे, लेकिन इस मतभेद के कारण क्रान्ति नहीं हुई । अधिकांश अमेरिकी अब भी अंग्रेज थे और यूरोपीय परम्परा से निकट से जुड़े हुए थे । उनका आर्थिक विचार, उनकी राजनीतिक व्यवस्था, उनका धर्म और उनकी सामाजिक विचारधारा मूलत: यूरोपीय थी ।

यद्यपि वे नए वातावरण में घुलमिल चुके थे, लेकिन उनका रूपान्तर नए रूप में नहीं हुआ था । उनका विद्रोह इस दृढ़ धारणा से प्रेरित था कि ब्रिटेन उस परम्परा का उल्लंघन कर रहा है, जिसे उपनिवेशवासियों ने उन्हीं से विरासत में प्राप्त किया था ।

अमेरिकी क्रान्ति अमेरिकियों द्वारा यूरोप से सम्बन्ध विच्छेद करने का उदाहरण नहीं था, यह अमेरिकियों द्वारा यूरोप की सबसे कीमती और सबसे उच्च विचारधारा को व्यवहार रूप में परिणत करने का उदाहरण था, ताकि वे उस अमेरिका समाज को दिए गए आश्वासन को पूरा कर सकें जिसका उन्होंने बीजारोपण और पोषण किया था ।

ग्रेट ब्रिटेन के साथ संघर्ष:

औपनिवेशिक समाज की विक्षुब्धता की जितनी कम समझ अठारहवीं सदी के ग्रेट ब्रिटेन में थी उतनी शायद ही कहीं और । ग्रेट ब्रिटेन संकुचित अभिजात वर्ग द्वारा शासित एक आत्मसन्तुष्ट राष्ट्र था जो सतरहवीं सदी में राजनीतिक सुधारों के लिए किए गए अपने संघर्ष को भूल गया था ।

समुद्र पार के उपनिवेशों में ब्रिटिश स्वार्थ मुख्यतः आर्थिक था । सच्चे वाणिज्यवादी ढंग में शासक वर्ग कायल था कि ब्रिटिश सम्पन्नता और शक्ति औपनिवेशिक स्रोतों के शोषण पर निर्भर करती है ।

औपनिवेशिक सम्बन्धों में निहित मानवीय तत्वों की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया । अपने उपनिवेशों के प्रति ग्रेट ब्रिटेन की नीति जहाजरानी कानूनों की श्रृंखला से स्पष्ट होती है, जो यह अपेक्षा करती थी कि उपनिवेशों में उत्पादित कुछ वस्तुएँ केवल ब्रिटेन को ही बेची जाएँ, उपनिवेशवासी सिर्फ ब्रिटेन से ही बना तैयार माल खरीदें, और सभी माल ब्रिटिश या औपनिवेशिक जहाजों में ही ढोया जाय ।

ब्रिटेन का उद्देश्य एक बन्द और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का निर्माण करना था । उसने अपने लाभ के लिए उपनिवेशों को लूटने का षड्यंत्र नहीं किया; उसने सिर्फ इस बात पर जोर दिया कि औपनिवेशिक हितों पर उसके हितों की प्राथमिकता है ।

कई वर्षों से ब्रिटेन अपनी औपनिवेशिक नीति को लागू करने में अत्यन्त लापरवाह था । औपनिवेशिक समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई कारगर एजेन्सी नहीं थी, और गवर्नरों को नियमों को लागू करने में मूल-देश ग्रेट ब्रिटेन से बहुत कम समर्थन मिल पाता था ।

सप्तवर्षीय युद्ध ने वर्षों की अवहेलना को दुरुस्त करने के लिए सुधार-कार्यक्रमों को लागू करने की प्रेरणा दी । 1763 ई. के बाद ग्रेट ब्रिटेन की चिन्ता का मुख्य विषय था- उपनिवेशों की सुरक्षा, युद्ध का कर्ज, और उपनिवेशों में उन आर्थिक नियमों को लागू करवाना, जिनकी वर्षों से अवहेलना हो रही थी ।

ग्रेट ब्रिटेन अमेरिकियों से विशेष रूप से नाराज था, क्योंकि उन्होंने सप्तवर्षीय युद्ध के दौरान युद्ध में भर्ती होने तथा धन देने से इनकार किया था, दुश्मनों के साथ व्यापार किया था, और फ्रांसीसियों से उपनिवेशों को बचाने में लगे ब्रिटिश अधिकारियों की अवज्ञा की थी ।

ग्रेट ब्रिटेन और उपनिवेशवासियों के बीच अनबन 1763 और 1773 के दशक में शुरू हुयी । ब्रिटेन ने ग्रेनविल (1764-65) और टाउनशेण्ड (1767 ई.) एक्टस बनाया जिसमें कई उपाय शामिल थे और जिनका उद्देश्य धन उगाहना और औपनिवेशिक प्रशासन को चुस्त बनाना था ।

ब्रिटिश सरकार ने अलेघनी पार क्षेत्रों में अधिवास बन्द करा दिया, अनेक आयातित मालों और व्यावसायिक दस्तावेजों पर कर लगाया और औपनिवेशिक व्यवसाय की तुलना में ब्रिटिश व्यवसाय को वरीयता प्रदान करने के लिए कदम उठाए ।

उपनिवेशवासियों के इन सारे उपायों में सबसे घृणित स्टाम्प कर और चाय कर (टाउन्शेण्ड एक्ट्स द्वारा आयातित चाय पर लगाया गया कर) थे । उपनिवेशवासियों ने बायकाट, उत्तेजक भाषणों, हिंसा और विरोध सभाओं, जैसे स्टाम्प एक्ट काँग्रेस द्वारा इन दोनों करों का विरोध किया ।

उन्होंने दावा किया कि वे भी अंग्रेज हैं, परन्तु पार्लियामेण्ट में बिना उनके प्रतिनिधित्व के उन पर कर लगाया जा रहा है । औपनिवेशिक विरोध के सामने ब्रिटेन ने कुछ नियमों को रद्द कर दिया, परन्तु उपनिवेशों पर नियंत्रण को कसने की अपनी सामान्य नीति को जारी रखा ।

1768 ई. तक उसने अमेरिका में सेना भेज दी थी और अपने अधिकारियों को वह अमेरिकी सम्पत्ति जब्त करने का आदेश दे दिया जिससे ब्रिटिश कानून का उल्लंघन होता था । धीरे-धीरे अमेरिकियों ने करारोपण से भी कहीं अधिक व्यापक आधार पर ब्रिटिश सता को चुनौती देना शुरू किया । कई उपनिवेशवासियों को विश्वास हो गया कि ब्रिटिश सरकार करारोपण द्वारा उनकी सम्पत्ति की चोरी करने के साथ-साथ उन्हें सारी परम्परागत ब्रिटिश स्वतंत्रताओं से वंचित कर रही है ।

1773 ई. के बाद निरन्तर झगड़ा एक संकट की ओर तेज गति से अग्रसर हुआ । बोस्टन ‘इण्डियन्स’ के व्यवहार से क्रुद्ध होकर, जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चाय से लदे एक जहाज को बर्बाद कर दिया था, ब्रिटिश सरकार ने ‘इनटोलेरेबल एक्ट्स’ पास किया ।

इस कानून ने बोस्टन के बन्दरगाह को बन्द कर दिया, मेसेचुसेट्‌स को सैनिक कमाण्डर के शासन के अधीन कर दिया बोस्टन में सैनिकों को जमा कर दिया और बड़े अपराध करने वाले संदिग्ध व्यक्तियों को ब्रिटेन भेजकर ब्रिटिश कानून के अनुसार दण्डित करने की धमकी दी गयी ।

मानो ये सारे उपाय काफी नहीं थे, ब्रिटिश सरकार ने क्यूबेक एक्ट पास किया जिसने ओहियो नदी के उतर तथा अलेघनी के पश्चिम के सारे क्षेत्रों को क्यूबेक प्रान्त के साथ जोड़ दिया, इस प्रान्त के लिए गैर-प्रतिनिधि राजकीय प्रशासन की स्थापना की, और फ्रांसीसी कैथोलिकों को सहिष्णुता प्रदान की ।

अब अमेरिकियों को पहले की अपेक्षा अधिक विश्वास हो गया कि ब्रिटेन उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है । अब उग्रवादियों, जिनका नेता सेमुअल एडम्स था, के साथ अनेक रंगरूट भर्ती हो गए ।

अशांत स्थिति पर विचार करने के लिए 1774 ई. में बुलाया गया प्रथम महाद्वीपीय अधिवेशन ने एक निर्भीक प्रस्ताव पारित करके एक नयी मनोवृति को अभिव्यक्त किया ।

इसने इनटोलेरेबल ऐक्ट्स को अवैध घोषित किया तथा बताया कि संसद ने व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन किया है । उपनिवेशवासियों की दलील में ‘प्राकृतिक अधिकारों’ का अधिकाधिक उल्लेख महत्वपूर्ण था ।

यह बताता था कि अनेक उपनिवेशवासी अंग्रेजी कानून से श्रेष्ठ प्राकृतिक नियमों में विश्वास करते हैं । यह इस बात का भी द्योतक था कि अगर अंग्रेजी कानून प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करता है तो उन्हें अंग्रेजी कानून के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है ।

दूसरी ओर, ग्रेट ब्रिटेन उपनिवेशवासियों को कोई छूट देने को तैयार नहीं था । वह उन्हें सबक सिखाना चाहता था । अत: ब्रिटेन और उपनिवेश धीरे-धीरे युद्ध की ओर प्रवृत्त हुए । अप्रील, 1775 में लेक्सिंगटन और कांकर्ड में हुई मुठभेड़ के साथ युद्ध की शुरुआत हुई ।

मई, 1775 में स्वतंत्रता की घोषणा के लिए तैयार लोगों के नेतृत्व में द्वितीय महाद्वीपीय काँग्रेस ने पहले से ही शुरू हो चुके युद्ध को संगठित करने के लिए कदम उठाया और जार्ज वाशिंगटन को अमेरिकी सेना का कमाण्ड सौंप दिया ।

शुरू में औपनिवेशिक जनमत का पूरा समर्थन नेताओं को प्राप्त नहीं था, लेकिन जब युद्ध शुरू हो गया तब जनमत तेजी से नेताओं के साथ हो गया । सारा अमेरिका स्वतंत्रता के नारों से गूँज उठा ।

स्वतंत्रता के लिए सबसे प्रभावशाली वक्तव्य थोमस पेन ने अपने ‘कॉमन सेन्स’ नामक पैम्फलेट में दिया जो 1776 ई. के आरम्भ में प्रकाशित हुआ । राजतंत्र और उसकी बुराइयों पर उसके उत्तेजक प्रहार और ब्रिटिश लिप्सा की उसकी कटु आलोचना ने असंख्य अमेरिकियों को अन्तिम कदम उठाने के लिए उत्तेजित कर दिया ।

स्वतंत्रता के समर्थन में लोकप्रिय मनोभाव ने अन्तिम रूप से अपना प्रभाव तब दिखाया जब कई उपनिवेशों ने द्वितीय महाद्वीपीय काँग्रेस के अपने प्रतिनिधिमंडल को ब्रिटेन से सम्बन्ध विच्छेद करने की हिदायत दी ।

जुलाई 4, 1776 को काँग्रेस ने एक उग्र सुधारवादी नेता थोमस जेफरसन की कृति ‘स्वतंत्रता की घोषणा’ जारी की । जॉन लॉक और प्रबुद्धवाद के यूरोपीय शिष्यों के राजनीतिक दर्शन पर आधारित इसकी भव्य प्रस्तावना ने प्राकृतिक अधिकारों तथा अनुबन्ध पर आधारित सरकार के सिद्धान्तों पर जोर दिया ।

ब्रिटिश सरकार ने इन अधिकारों की अवहेलना की थी और इस तरह वह जनता की निष्ठा पर दावा नहीं कर सकती थी । इन अधिकारों की रक्षा के लिए जनता को नया अनुबन्ध करने का अधिकार था ।

स्वतंत्रता की घोषणा ने इस संघर्ष को कानूनी ढंग से स्थापित सता के विरुद्ध मात्र विद्रोह से ऊपर उठा दिया । इसने अमेरिकियों के संघर्ष को सभी प्रबुद्ध लोगों का संघर्ष बना दिया । इसने न केवल 1776 ई. के प्रश्नों को स्पष्ट किया, बल्कि भावी पीढ़ी को उन मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी जो किसी भी सरकार की सत्ता के बाहर होती है ।

अमेरिकी क्रान्ति:

अमेरिकियों के इस वीरोचित संग्राम, जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन, सम्पत्ति और सम्मान की बाजी लगा दी, के बारे में कुछ कहना आवश्यक है । शक्तिशाली ब्रिटेन के सामने उनका प्रयास निराशाजनक लग रहा था, परन्तु कमजोर नेतृत्व, दूरी और दूसरे जगह फँसे रहने के कारण ब्रिटेन का यह लाभ व्यर्थ साबित हुआ ।

अमेरिकियों की मुख्य समस्या आपसी फूट पर विजय पाना था । कई राजभक्तों, या टोरियों ने ब्रिटेन के विरूद्ध युद्ध का अनुमोदन नहीं किया था । नयी सरकार क्या रास्ता अपनाएगी, इस पर देशभक्तों में भी मतभेद था । परन्तु, स्वतंत्रता के नाम पर ये सारे मतभेद समाप्त हो गए ।

जब 1775 ई. में युद्ध की शुरुआत हुई उस समय ब्रिटेन संघर्ष के लिए तैयार नहीं था और उसे कुमुक इकट्ठा करने के लिए बोस्टन से पीछे हटना पड़ा । इस घटना को अमेरिकियों ने विजय माना ।

आरम्भिक लाभों को आगे बढ़ाते हुए अमेरिकियों ने देर 1775 ई. में कनाडा के विरुद्ध एक असफल अभियान किया । जुलाई, 1776 तक न्यूयार्क को अड्डा बनाकर ब्रिटेन आक्रमण करने के लिए तैयार था । अगले महीने क्रान्तिकारियों के लिए सबसे कठिन घड़ी थी ।

भोजन और साज-सामान की कमी से पीड़ित वाशिंगटन की छोटी सी सेना को न्यू जर्सी और डेलावारे से खदेड़ दिया गया; केवल ब्रिटिश कमाण्डर जेनरल होवे की सतर्कता ने इन्हें बर्बादी से बचा लिया । साल के अन्त में वाशिंगटन ट्रेण्टन और प्रिंसटन पर आक्रमण करने में सफल रहा, लेकिन ये सफलताएँ अमेरिकियों के मनोबल को बनाए रखने में महत्वपूर्ण साबित हुई ।

असल मोड़ 1777 ई. में आया जब ब्रिटेन ने हडसन घाटी पर अधिकार करके उपनिवेशों को विभाजित करने का प्रयास किया । उनकी युद्धनीति उत्तर में कनाडा और दक्षिण में न्यूयार्क से अमेरिकी सैनिकों को खदेड़ देना था ।

जेनरल जॉन बरगोयन ने कनाडा में ब्रिटिश सैनिकों को नेतृत्व प्रदान किया । लेकिन, अमेरिकियों के लगातार आक्रमण के कारण उसे कोई ठोस सफलता प्राप्त न हो सकी । दक्षिण से कोई सहायता नहीं मिली ।

होवे फिलाडेलफिया के निरर्थक अधिग्रहण में फँसा रहा । यद्यपि उसने सफलता प्राप्त की, लेकिन बरगोयन का प्रयास घोर संकट में बदल गया । अन्तत: अक्टूबर, 1777 में उसे सरागोटा में आत्मसमर्पण करना पड़ा ।

इस सफलता के फलस्वरूप अमेरिकियों का मनोबल काफी बढ़ गया । इसका मुख्य परिणाम यह हुआ कि फ्रांसीसी अमेरिका के समर्थक बन गए । ग्रेट ब्रिटेन को परास्त देखने की इच्छा और अमेरिकी पक्ष के प्रति सच्ची सद्भावना से प्रेरित लेकर फ्रांस 1775 ई. से ही अनौपचारिक रूप से उपनिवेशवासियों की सहायता कर रहा था ।

हालाँकि, उसने इस डर से कि शायद अमेरिकी ब्रिटेन के साथ अपने झगड़े को सुलझा लें या अमेरिकियों की पराजय हो जाये, अपने को पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं किया था । सरागोटा की सफलता ने फ्रांस को विश्वास दिला दिया कि अमेरिका की सफलता की सम्भावना है ।

1778 ई. में फ्रांस और अमेरिकियों के बीच विधिवत् एक सन्धि हुई और फ्रांस ने आवश्यक धन, जहाज और सेना भेजना शुरू किया । सरागोटा की घटना और फ्रांस की प्रतिबद्धता के फलस्वरूप अन्य यूरोपीय शक्तियों ने अमेरिका के प्रति अधिकाधिक मित्रता और ब्रिटेन के प्रति शत्रुता दिखाना शुरू किया ।

स्पेन और हॉलैण्ड ने अन्ततोगत्वा ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । ब्रिटेन को अब कई देशों के विरुद्ध युद्ध का सामना करना पड़ रहा था । अमेरिका पर दबाब काफी कम हो गया ।

1777 ई. के बाद अमेरिका में युद्ध काफी बड़े क्षेत्र में फैल गया । ब्रिटिश फिलाडेलफिया से पीछे हट गए और न्यूयार्क में भारी सेना केन्द्रित की । वाशिंगटन की सेना मुख्यतः इन सैनिकों पर नजर रख रही थी ।

1780-81 में केरोलिना और वर्जिनिया के अधिग्रहण के प्रयास में ब्रिटिश सैनिकों ने दक्षिण में आक्रामक कार्रवाई की । इस सैनिक अभियान की परिणति अक्टूबर, 1781 में यौर्कटाउन, वर्जिनिया में अनर्थकारी हार में हुई ।

इस सफलता का श्रेय अमेरिकी और फ़्रांसीसी दोनों को मिलता है । अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का यह अन्तिम प्रमुख युद्ध था, यद्यपि औपचारिक रूप से युद्ध 1783 ई. तक चलता रहा । 1781 ई. तक ब्रिटेन इस युद्ध को समाप्त करने के लिए चिन्तित हो उठा था जिसने सारी दुनिया में उसकी शक्ति को चुनौती दे रखी थी ।

शान्ति-वार्ता पेरिस में सम्पन्न हुई । बेन्जामिन फ्रैंकलिन के नेतृत्व में भेजे गये अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल को फ्रांसीसी नेतृत्व को मानने और ब्रिटेन के साथ अलग सन्धि नहीं करने की हिदायत दी गयी थी ।

किन्तु, ब्रिटेन को थोड़ा और चोट पहुंचाने की इच्छा से फ्रांस युद्ध को समाप्त करने की जल्दीबाजी में नहीं था । इसके अतिरिक्त वह 1763 ई. में खोए हुए अमेरिकी क्षेत्रों पर कब्जा करना चाहता था, क्योंकि नये अमेरिकी राष्ट्र का इन क्षेत्रों पर अभी कानूनी दावा नहीं था ।

फ्रांसीसी नीयत को भाँपकर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने उन हिदायतों की अवहेलना की और ब्रिटेन के साथ अलग सन्धि कर ली । 1783 ई. के पेरिस शान्ति सन्धि के अनुसार ब्रिटेन ने अमेरिका की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी और मिसीसीपी के पूरब ग्रेट लेक्स से स्पेनी फ्लोरिडा तक का सारा क्षेत्र उसे सौंप दिया ।

अमेरिकियों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा लिए गए सारे कर्जों को मान्यता दी और टोरियों को पुन: प्रतिष्ठित करना स्वीकार किया जिन्हें युद्ध के दौरान कष्ट उठाना पड़ा । फ्रांस ने भी इन सारी शर्तों को मान्यता दे दी । अमेरिकी राष्ट्र ने नया जीवन शुरू करने के लिए एक शानदार विजय प्राप्त की ।

अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का परिणाम और महत्व:

पेरिस की सन्धि के द्वारा पहले के तेरह उपनिवेशों को संप्रभु एवं स्वतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका के रूप में मान्यता मिली । वर्साय की सन्धि के अनुसार फ्रांस ने वेस्ट इण्डिज में टोबेगो और अफ्रीका में सेनेगल का प्रदेश प्राप्त किया जो वह 1763 ई. में खो चुका था ।

स्पेन ने मिनोरका का टापू और फ्लोरिडा का अमेरिकी क्षेत्र फिर से प्राप्त किया । नीदरलैंड को ब्रिटेन के हाथों भारत के व्यावसायिक हितों और ईस्ट इण्डियन टापुओं के साथ व्यापार के कुछ अंश खोना पड़ा । अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का महत्व सन्धि-शर्तों से कहीं अधिक है ।

सचमुच में, यह कई दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है:

(1) ब्रिटेन ने अपने सबसे घनी आबादीवाला उपनिवेश खो दिया और महानता की सम्भावनाओं वाला यूरोपीय उद्गम का एक स्वतंत्र देश अटलाण्टिक पार उदित हुआ ।

(2) चूँकि अमेरिकी क्रान्ति एक तरह से वाणिज्यवादी प्रतिबन्धों के विरुद्ध एक विद्रोह था, इसलिए इसने एडम स्मिथ के लेसेज-फेयर के सिद्धान्त को मजबूत किया और वाणिज्यवादी विचारधारा पर गहरा आघात किया ।

इस क्रान्ति ने यह स्पष्ट कर दिया कि जब दूसरे उपनिवेश भी समर्थ और धनी बन जायेंगे तो वे पके नाशपाती की तरह मातृ-वृक्ष से टूटकर अलग हो जायेंगे और स्वतंत्र हो जायेंगे ।

व्यावसायिक प्रतिबन्धों के महत्व पर संदेह किया जाने लगा । अमेरिका की स्वतंत्रता के कुछ ही दिनों बाद ब्रिटेन ने स्वतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ पहले की अपेक्षा कहीं अधिक फलता-फूलता व्यापार विकसित किया ।

(3) फ्रांस ने सप्तवर्षीय युद्ध में अपनी हार का आंशिक बदला लिया, परन्तु यह बदला उसने भारी कीमत देकर लिया । पहले से ही डाँवाँडोल उसकी अर्थव्यवस्था अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उठाए भारी खर्च के कारण पूर्णत: अस्त-व्यस्त हो गयी । अभी तक जो अर्थव्यवस्था कठिन थी, अब असाध्य हो गयी ।

(4) ब्रिटेन की हार का दोष राजा जार्ज तृतीय और उसके मंत्रियों पर मढ़ा गया । निरंकुश राजा बनने का जार्ज तृतीय का प्रयास इसी असफलता के कारण विफल हो गया । काफी हद तक अमेरिकी और फ़्रांसीसी सफलता ने ब्रिटेन में सीमित राजतंत्र ओर राजनीतिक स्वतंत्रता बनाए रखने में मदद की ।

(5) अमेरिकी क्रांति ने राजनीतिक अभिनव परिवर्तनों की एक श्रृंखला प्रारम्भ की जो आगामी वर्षों में काफी महत्वपूर्ण साबित हुई ।

(6) अमेरिकी क्रांति के आदर्शों और अनुभवों का प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ा । लगभग तुरंत ही उनका असर फ्रांस पर अत्यन्त महत्वपूर्ण रूप से दिखायी पड़ा ।

अंतिम दो बाते इतनी महत्वपूर्ण हैं कि विशद रूप में अलग से इनकी चर्चा करना आवश्यक है ।

अमेरिकी राजनीतिक अभिनव परिवर्तन:

अमेरिकी कांति और इसके सहवर्ती अंतर्राष्ट्रीय युद्ध से लोकप्रिय संप्रभुता और सफल क्रांति पर आधारित संयुक्त राज्य अमेरिका का स्वतंत्र राज्य के रूप में उदय हुआ ।

मात्र इसके उद्भव ने इस राष्ट्र को निरंकुश राजतंत्र के लिए एक डरावना उदाहरण और पीड़ित लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बना दिया । इसके अतिरिक्त, क्रांति के दौरान और फिर बाद में भी संयुक्त अमेरिका ने महत्वपूर्ण राजनीतिक आदर्शों की श्रृंखला का दृष्टान्त सामने रखा ।

चार शब्दों में इनका सारांश प्रस्तुत किया जा सकता है- गणतंत्रवाद, जनतंत्रवाद, संघवाद और संविधानवाद । प्राचीन यूनान और रोम, इटालियन नगर राज्यों और स्विट्‌जरलैण्ड में पहले भी गणतन्त्र थे ।

परंतु, संयुक्त राज्य अमेरिका इन उदाहरणों से काफी बड़ा था, इतना बड़ा कि इसे प्रतिनिधि सरकार की एक जटिल प्रणाली विकसित करनी पड़ी । इसके अतिरिक्त, यह अपने गणतंत्रवाद के बारे में काफी आत्मचेतन था ।

थोमस पेन के राजतंत्रविरोधी नारों और जार्ज तृतीय के प्रति उसकी आपत्तियों ने अधिकांश अमेरिकियों को यह विश्वास दिला दिया था कि राजाओं के दिन अब लद चुके हैं । परंतु, अब भी कुछ लोगों को संदेह था ।

कुछ लोग वाशिंगटन को राजा के रूप में देखना चाहते थे । कुछ लोग यह सोचते थे कि स्टुअर्ट वंश के किसी राजकुमार को राजा बनाया जायेगा । परंतु, जब नया संविधान बना तो यह पूर्णतया गणतंत्रवादी था । हर राज्य में भी गणतंत्रीय सरकार की स्थापना की गई ।

शुरू में राज्य व्यवस्थापिका, जिसने औपनिवेशिक व्यवस्थापिका का स्थान लिया था, बहुत जनतांत्रिक नहीं थी । मताधिकार पुरुषों और साधारणतया जमींदारों और अधिक सम्पन्न वर्गों तक सीमित था । फिर कुछ धार्मिक योग्यताओं के कारण कैथोलिक और कुछ खास तरह के प्रोटेस्टैंट भी मताधिकार से वंचित थे ।

लेकिन, वहाँ जन्मजात अभिजात वर्ग नहीं था और इस विकासशील तथा बढ़ते हुए देश में नए लोगों ने संपत्ति अर्जित की । शुरू में, पद धनी लोगों तक सीमित थे और अप्रत्यक्ष चुनाव ने सामान्य जनता की शक्ति को सीमित कर रखा था ।

लेकिन, थोड़े ही दिनों में सामान्य लोगों का उदय होने लगा । शुरू में धीरे-धीरे, परंतु बाद में तेजी से मताधिकार और पद के लिए संपत्ति-योग्यता और धार्मिक असमर्थता को एक के बाद दूसरे राज्य में समाप्त कर दिया गणतांत्रिक राज्यों के साथ-साथ पहले संघशासन भी था ।

यथार्थ में, 1774 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य एक तरह से संघ ही था, क्योंकि कई उपनिवेशों में कुछ शक्तियों वाली व्यवस्थापिकाएँ थीं । परंतु, संयुक्त राज्य अमेरिका पहला व्यापक, सावधानीपूर्वक एवं सोच-समझ कर बनाए गए संघवाद का उदाहरण था ।

‘संप्रभु राज्यों’ से बना हुआ यह संप्रभु राष्ट्र अपने-आप में एक विरोधाभास था । इसने स्थानीय और राष्ट्रीय हितों में समन्वय स्थापित करने का रास्ता दिखाया । इसने दिखाया कि परस्पर-विरोधी लोगों ओर अलग-अलग स्वार्थों को किस तरह सामान्य हित के लिए एक सरकार के अंदर लाया जा सकता है ।

अमेरिकी संघवाद के उदाहरण का कई देशों पर-लौटिन अमेरिकी गणतंत्रों (ब्राजील या कोलम्बिया) से लेकर पुराने ब्रिटिश उपनिवेशों (कनाडा, आस्ट्रेलिया, भारत) और यहाँ तक कि सोवियत समाजवादी गणतंत्र पर भी, दूरगामी असर पड़ा ।

जब मई, 1787 में फिलाडेलफिया में पुराने संघशासन के प्रावधानों से उत्पन्न अंतर्राज्जीय विवादों का समाधान करने और एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार की स्थापना की युक्ति निकालने के लिए जार्ज वाशिंगटन की अध्यक्षता में सम्मेलन बुलाया गया, उस समय लोग एक संविधान के आदर्शों से परिचित थे ।

क्रामवेलकालीन इंगलैण्ड का इन्सट्रूमेण्ट ऑफ गर्वर्मेण्ट, ब्रिटिश सरकार की अलिखित परपराएँ, औपनिवेशिक चार्टर, नए राज्य संविधान, संघ सरकार के प्रावधान आदि संविधान के ही विभिन्न उदाहरण थे परंतु, संघीय संविधान पूरे राष्ट्र के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाया और लागू किया गया पहला संविधान था ।

यह कहा जा सकता है कि इसने अपनी-अपनी सरकारों को निर्मित करने के विभिन्न देशों के अनुभवों, अलिखित ब्रिटिश संविधान के लचीलेपन के अनुभव और हाब्स से जेफरसन तक के सैकड़ों विचारकों के लेखों को एक लिखित संविधान में केंद्रीभूत एवं एकत्रित किया ।

1789 ई. में लागू किए गए अमेरिकी संविधान ने न केवल कई महत्वपूर्ण राजनीतिक आदर्शों-गणतंत्रवाद, सीमित सरकार, शक्ति के पृथक्करण, नियंत्रण और संतुलन, प्रतिनिधि व्यवस्थापिकाओं को प्रतिस्थापित किया, बल्कि यह अपने-आप में भी अत्यन्त महत्व का एक आदर्श है ।

इसके बाद क्रांति या अन्य तरीके से स्थापित लगभग हर राष्ट्र ने संविधान बनाने और फिर जनता से इसकी संपुष्टि प्राप्त करने की कोशिश की । 1789 ई. के तुरंत बाद संविधान में दूसरा अमेरिकी अभिनव परिवर्तन हुआ, क्योंकि दिसम्बर, 1791 में पहले दस संशोधन लागू करने की घोषणा की गई ।

कुल मिलाकर उन्होंने सरकार से प्रत्येक नागरिक की रक्षा के लिए एक ‘बिल ऑफ राइट्‌स’ का संस्थापन किया । इससे विधि-प्रशासन, चर्च ओर राज्य के पृथक्करण, भाषण, प्रेस, आवेदन और व्यवस्थापिका की गारंटी मिली । अमेरिका के उदाहरण का महत्व इस कारण भी बढ़ गया, क्योंकि शुरू से ही इस सरकार ने कारगर ढंग से काम करना शुरू किया और उपर्युक्त आदर्शों को लागू किया ।

सच्चाई यह है कि आरंभिक राष्ट्रपति-वाशिंगटन, जॉन एडम्स, जेफरसन और मेडिसन तथा उनके मंत्रिमंडलीय अधिकारीगण इतनी असाधारण योग्यता और प्रतिभा के धनी थे कि उन्होंने संवैधानिक संरचना की किसी भी कमी से बचने के लिए नई परंपराओं की नींव डाली । शुरू से ही यह स्पष्ट हो गया कि निर्भीक अमेरिकी प्रयोग में असाधारण जीवन-शक्ति है ।

ब्रिटेन एवं फ्रांस पर अमेरिकी क्रांति का प्रभाव:

संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ शांति-संधि के पहले ही जॉर्ज तृतीय को लॉर्ड नार्थ ओर उसके मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर ओर अधिक उदार मंत्रिमंडल नियुक्त करना पड़ा । तुरंत कई सुधार लागू किए गए ।

आयरिश संसद को लगभग स्वतंत्र स्थान प्राप्त हुआ (1782 ई.) ओर कैथोलिक आयरिश लोगों को मताधिकार मिला (1793 ई.) । 1800 ई. में आयरिश संसद को वेस्टमिंस्टर संसद के साथ जोड़ दिया गया और इसके बाद एक शताब्दी से अधिक दिनों तक ब्रिटिश द्वीप समूह को ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड का संयुक्त राज्य कहा जाता रहा ।

परंतु, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बाद में (1839-49) लिए गए कदम थे, जिनके द्वारा पुराने उपनिवेशों को क्रमशः स्वशासी डोमिनियन में परिणत किया गया । अमेरिकी क्रांति का इससे भी अधिक तात्कालिक ओर अधिक नाटकीय प्रभाव फ्रांस पर पड़ा ।

स्वतंत्रता की घोषणा के गूँजते हुए- स्वतंत्रता, समानता ओर मानव के अधिकार के नारों की प्रतिध्वनि फ्रांस में सुनाई पड़ी । अमेरिकियों और उनके ब्रिटिश समर्थकों के राजतंत्रविरोधी लेखों का प्रयोग लूई सोलहवें और जार्ज तृतीय दोनों के मामले में हो सकता था ।

फ्रांसीसियों में इस तरह के प्रचार को और बल इस बात से मिला कि उसके कई सैनिक अधिकारी जैसे लाफायते, अमेरिका गए थे, अमेरिकियों से घुले-मिले थे और गणतांत्रिक संस्थाओं को काम करते देखा था ।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक बेंजामिन फ्रैंकलिन नए सिद्धांतों का प्रखर समर्थक था । फ़्रांसीसी फ्रीमेशन अपने अमेरिकी भाइयों के निकट संपर्क में थे । जब अमेरिकी राज्यों ने ओर अंतत: संयुक्त राज्य ने नए संविधान की रचना की तब फ्रांस के बौद्धिक समुदाय में इसे उत्सुकता से पढ़ा गया और इस पर बहस हुई ।

व्यवहार में प्रयुक्त गणतंत्रवाद का यह एक नमूना था । यहाँ मानवीय समानता को कानूनी रूप दिया गया था । यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अमेरिकी क्रांति फ्रांस के ईश्वर-प्रदत्त राजतंत्र और अभिजातीय विशेषाधिकार पर निर्णायक आघात था ।

अमेरिकी युद्ध में शामिल होने के कारण फ्रांस आर्थिक दिवालिएपन की ओर उन्मुख हुआ । इसने कार्यक्षमता और सुधार के प्रयास को अवरुद्ध किया, राजतंत्र की कमजोरी को उजागर किया एवं इसके विरोधियों को अनेक अवसर प्रदान किए ।

अमेरिकी क्रांति के आदर्शों से फ्रांस के लोगों को प्रेरणा मिली और वे भी अब परिवर्तन की माँग करने लगे । बौद्धिक क्रांति के प्रबुद्ध विचारों से तैयार फ्रांस की जमीन पर अमेरिकी क्रांति के बीज ने फ़्रांसीसी क्रांति का बीज बोया ।

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