Read this article in Hindi to learn about the Indo-Greek invasion and its effects.

चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को परास्त कर भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों तथा अफगानिस्तान पर अपना अधिकार कर लिया था । लगभग एक शताब्दी (305-206 ईसा पूर्व) तक सेल्युकस वंशी राजाओं का भारतीय नरेशों के साथ मैत्री सम्बन्ध बना रहा ।

परन्तु परवर्ती मौर्य नरेशों के निर्बल शासन काल में स्थिति बदल गयी तथा मौर्य साम्राज्य के पतनोपरान्त भारत पर पश्चिमोत्तर से पुन: विदेशियों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये । यह देश का दुर्भाग्य था कि उस समय आक्रमणकारियों का सामना करने के लिये यहाँ चन्दगुप्त जैसा कोई सम्राट नहीं था ।

इसमें सर्वप्रथम आने वाले बल्ख (बैक्ट्रिया) के यवन शासक थे । उन्होंने भारत के कुछ प्रदेशों को जीत लिया । इन्हीं भारतीय-यवन राजाओं को हिन्द-यवन (इण्डो-ग्रीक) अथवा बख्त्री-यवन (बैक्ट्रियन-ग्रीक) कहा जाता है ।

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इतिहास के साधन:

हिन्द-यवन शासकों का इतिहास भारतीय ग्रन्थों में मिलने वाले उनके छिट-पुट उल्लेखों, क्लासिकल लेखकों के विवरण, यवन शासकों के लेखों तथा बहुसंख्यक मुद्राओं के आधार पर ज्ञात किया जाता है । महाभारत में यवन जाति का उल्लेख मिलता है ।

यवनों के आक्रमण से सम्बन्ध रखने वाले कुछ गुच्छों का उल्लेख शुंग इतिहास के साधनों में किया जा चुका है । हिन्द-यवन शासक मिलिन्द (मेनाण्डर) के विषय में सूचना हमें बौद्ध विद्वान नागसेन के ‘मिलिन्दपण्हो’ तथा क्षेमेन्द्रकृत ‘अवदानकल्पलता’ से भी प्राप्त होती है ।

इन ग्रन्थों से उसके बौद्ध मतानुयायी होने की बात पुष्ट होती है । क्लासिकल लेखकों में पोलिबियस, स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि के विवरण हिन्द-यवन इतिहास के ज्ञान के लिये उपयोगी हैं । हिन्द-यवन शासकों के लेख तथा सिक्के उनके इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डालते हैं । हाल ही में फतेहपुर (उ. प्र.) के रेह नामक स्थान से एक लेख प्राप्त हुआ है ।

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इसमें राजा का नाम मिट गया है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष जी. आर. शर्मा इस लेख के शासक की पहचान मेनान्डर के साथ करते हुये यह प्रतिपादित करते हैं कि उसने इस भाग की विजय की थी ।

किन्तु कुछ अन्य इतिहासकार एवं पुरालिपिवेत्ता इस मत से सहमत नहीं हैं । बी. एन. मुकर्जी का विचार है कि यह कोई शक-पह्लव शासक है । टी. पी. वर्मा की धारणा है कि यह लेख किसी कुषाणवंशी शासक का है । डी. सी. सरकार तथा जी. सी. पाण्डे जैसे विद्वान् भी रेह के लेख में मेनान्डर के नामोल्लेख होने में सन्देह व्यक्त करते हैं । इस प्रकार इस लेख के आधार पर सम्प्रति कोई निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत नहीं होगा ।

हिन्द-यवन शासकों के बहुसंख्यक सिक्के पश्चिमी, उत्तरी पश्चिमी तथा मध्य भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त किये गये हैं । उत्तर-पश्चिम में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन सर्वप्रथम यवन शासकों ने ही करवाया था । यवनों के चांदी के सिक्के ‘द्रम’ कहे जाते थे । यह नाम बहुत बाद तक प्रचलित रहा ।

अन्य साक्ष्यों में हेलियोडोरस के बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख का भी उल्लेख किया जा सकता है जिसमें यवनों की भारतीय धर्म के प्रति निष्ठा सूचित होती है । इन सभी प्रमाणों के आधार पर हम हिन्द-यवन शासकों के इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं ।

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इतिहास:

पार्थिया तथा बैक्ट्रिया सेल्युकस के साम्राज्य के दो प्रान्त थे । सेल्युकस के उत्तराधिकारी अन्तियोकस प्रथम (281-261 ईसा पूर्व) के काल तक ये दोनों प्रदेश सेल्युकसी साम्राज्य के अंग बने रहे । परन्तु अन्तियोकस द्वितीय (261-246 ईसा पूर्व) के शासन काल में 250 ईसा पूर्व के लगभग पार्थिया तथा बैक्ट्रिया के प्रदेश स्वतन्त्र हो गये ।

पार्थिया के विद्रोह का नेता अर्सेक्स तथा बैक्ट्रिया के विद्रोह का नेता डायोडोटस था । न तो अन्तियोकस द्वितीय और न ही उसके उत्तराधिकारियों-सेल्युकस द्वितीय तथा सेल्युकस तृतीय में से कोई इतना अधिक शक्तिशाली था कि वह इन विद्रोही प्रदेशों को अपने अधिकार में कर सके ।

अन्तत: अन्तियोकस तृतीय (223-187 ईसा पूर्व) ने इन प्रदेशों को अधीन करने का प्रयास किया परन्तु अपने को असमर्थ पाकर उसने इन दोनों प्रान्तों की स्वाधीनता स्वीकार कर ली । बैक्ट्रिया के स्वतन्त्र यूनानी साम्राज्य का संस्थापक डायोडोटस था ।

वह एक शक्तिशाली शासक था जिसने सोग्डिया से मार्जियाना तक के प्रदेश पर चिरकाल तक शासन किया । डायोडोटस की मृत्यु के पश्चात् उसके अवयस्क पुत्र की हत्या कर यूथीडेमस नामक एक महत्वाकाँक्षी व्यक्ति ने सत्ता हथिया ली ।

i. यूथीडेमस:

रोमन लेखक पोलिबियस के विवरण से पता चलता है कि यूथीडेमस की राजधानी बेक्ट्रा अथवा जेरियस्पा को सेल्युकस वंशी अन्तियोकस तृतीय ने घेर लिया । दो वर्ष के घेरे के बाद 206 ईसा पूर्व के लगभग दोनों में सन्धि हो गई ।

अन्तियोकस ने यूथीडेमस को बैक्ट्रिया का राजा मान लिया तथा उसके पुत्र डेमेट्रियस के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया । तत्पश्चात् अन्तियोकस हिन्दूकुश पार कर काबुल के मार्ग से भारतीयों के शासक सोफेगसेनस (सुभगसेन) के राज्य में पहुंचा ।

भारतीय नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की तथा उसे 500 युद्ध के हाथी उपहार में दिया । इसके बाद अन्तियोकस सीरिया लौट गया । सम्भवत: यह भारतीय नरेश अशोक का कोई उत्तराधिकारी था । यूथीडेमस का साम्राज्य हिन्दूकुश तक ही सीमित था ।

किसी भी लेखक ने यवनों की भारतीय विजय के प्रसंग में उसका नामोल्लेख नहीं किया है । वस्तुतः इन्डो-यूनानियों की भारतीय विजय का इतिहास यूथीडेमस के शक्तिशाली पुत्र डेमेट्रियस के समय से ही प्रारम्भ होता है ।

ii. डेमेट्रियस:

190 ईसा पूर्व के लगभग यूथीडेमस की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र डेमेट्रियस बैक्ट्रिया के यवन साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना । वह एक महान् विजेता तथा महत्वाकांक्षी शासक था । उसने एक विशाल सेना के साथ हिन्दूकुश की पहाड़ियों को पार कर सिन्ध तथा पंजाब के प्रदेशों की विजय की ।

डेमेट्रियस का भारत के साथ सम्बन्ध कुछ साहित्यिक तथा पुरातत्वीय प्रमाणों द्वारा भी सूचित होता है । सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत पर यवनों का प्रथम आक्रमण पुष्यमित्र शुंग के समय में हुआ था और इस प्रकार आक्रमण का नेता डेमेट्रियस ही था ।

इसका उल्लेख अनेक भारतीय ग्रन्थों- पतंजलि के महाभाष्य, गार्गीसंहिता, मालविकाग्निमित्र आदि में हुआ है । इन ग्रन्थों के अनुसार यवन साकेत, माध्यमिका (चित्तौड़) पञ्चाल तथा मथुरा को जीतते हुये पाटलिपुत्र तक बढ़ आये थे । परन्तु वे मध्यप्रदेश में अधिक दिनों तक न ठहर सके और उन्हें शीघ्र ही देश छोड़ना पड़ा ।

इसके दो कारण थे:

(a) गार्गी-संहिता के अनुसार उनमें आपस में ही घोर युद्ध छिड़ा ।

(b) पुष्यमित्र शुंग के भीषण प्रतिरोध में भी यवनों के पैर उखड़ गये । उसके पौत्र वसुमित्र ने यवनों को सिन्धु नदी के दाहिने किनारे पर पराजित कर दिया ।

यद्यपि यवन मध्यप्रदेश पर अधिकार नहीं कर सके तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिमी पंजाब तथा सिन्धु की निचली घाटी पर डेमेट्रियस ने अपना राज्य कायम कर लिया । इन प्रदेशों से उसकी ताम्र मुद्रायें मिलती हैं ।

इन पर यूनानी तथा खरोष्ठी लिपियों में लेख (महारजस अपरजितस दिमे त्रियस) उत्कीर्ण हैं । बेसनगर से प्राप्त एक मुद्रा पर ‘तिमित्र’ उत्कीर्ण मिलता है । क्रमदीश्वर के व्याकरण में ‘दत्तमित्री’ नामक एक नगर का उल्लेख मिलता है जो सौवीर (निचली सिन्धु घाटी) प्रदेश में स्थित था ।

सम्भवत: इसकी स्थापना डेमेट्रियस द्वारा की गई थी । ऐसा लगता है कि उसने शाकल पर पुन: अधिकार कर लिया । खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में ‘दिमिति’ नामक किसी यवन राजा का उल्लेख मिलता है । काशी प्रसाद जायसवाल ने उसकी पहचान डेमेट्रियस से की है, परन्तु यह संदिग्ध है । इस प्रकार डेमेट्रियस ने आक्सस नदी से सिन्धु नदी तक के प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लिया था ।

iii. यूक्रेटाइडीज:

जिस समय डेमेट्रियस अपनी भारतीय विजयों में फँसा हुआ था उसी समय यूक्रेटाइडीज नामक किसी महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने उसके गृह-राज्य बैक्ट्रिया में विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया तथा 171 ईसा पूर्व के लगभग बैक्ट्रिया डेमेट्रियस के अधिकार से जाता रहा । डेमेट्रियस एक बड़ी सेना के साथ बैक्ट्रिया पहुंचा, परन्तु चार महीने के घेरे के बाद भी उसे सफलता नहीं मिली ।

डेमेट्रियस के अन्तिम दिनों के विषय में हमें पता नहीं है । या तो वह यूक्रेटाइडीज के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया अथवा विद्रोह का दमन करने में असफल होने पर उसने अपने अन्तिम दिन भारत में ही व्यतीत किये । स्ट्रेबो के विवरण से हमें ज्ञात होता है कि यूक्रेटाइडीज ने अपने को बैक्ट्रिया से 1,000 नगरों का शासक बना लिया ।

जस्टिन के अनुसार उसने भारत (सिन्ध प्रदेश) की भी विजय की । ऐसा प्रतीत होता है कि यूक्रेटाइडीज ने डेमेट्रियस को मृत्यु के पश्चात उसके कुछ भारतीय प्रान्तों के भी जीत लिया । उसके सिक्के पश्चिमी पंजाब से पाये गये हैं ।

उनमें यूनानी तथा खरोष्ठी लिपियों में लेख मिलते हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि ये सिक्के भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में चलाने के उद्देश्य से ही ढलवाये गये थे । स्ट्रैबो के अनुसार यूक्रेटाइडीज झेलम नदी तक बढ़ आया था ।

यूक्रेटाइडीज की भारतीय विजयों के फलस्वरूप पश्चिमोत्तर भारत में दो यवन-राज्य स्थापित हो गये:

(a) यूक्रेटाइडीज तथा उसके वंशजों का राज्य- यह बैक्ट्रिया से झेलम नदी तक फैला था तथा इसकी राजधानी तक्षशिला में थी ।

(b) यूथीडेमस के वंशजों का राज्य- यह झेलम से मथुरा तक फैला था तथा इसकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) में थी ।

जस्टिन हमें बताता है कि जब यूक्रेटाइडीज अपनी भारतीय विजयों के पश्चात् बैक्ट्रिया जा रहा था तो मार्ग में अपने पुत्र द्वारा मार डाला गया । यह हत्यारा सम्भवत: हेलियोक्लीज था । वह बैक्ट्रिया में यवनों का अंतिम शासक था । 125 ईसा पूर्व के लगभग बैक्ट्रिया से यवन-शासन समाप्त हो गया तथा वहाँ शकों का राज्य स्थापित हो गया । हेलियोक्लीज काबुल घाटी तथा सिन्धु स्थित अपने राज्य में वापस लौट आया ।

बैक्ट्रिया के हाथ से निकल जाने के पश्चात् यवनों का राज्य अब केवल मध्य एवं दक्षिण अफगानिस्तान तथा पश्चिमोत्तर भारत तक ही सीमित रह गया । इन भागों में डेमेट्रियस तथा यूक्रेटाईडीज दोनों के वंश के अनेक राजाओं ने शासन किया ।

सिक्कों से इन दोनों कुलों के कम से कम 35 राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं जिन्होंने द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य से लेकर लगभग 100 वर्षों तक (हिन्द-पह्लव तथा शकों के आगमन तक) इन प्रदेशों में राज्य किया । उनका शासन काल परस्पर संघर्ष एवं विद्वेष का काल है ।

iv. मेनाण्डर:

इन्डो-यूनानी शासकों में मेनाण्डर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है । क्लासिकल लेखकों ने उसके साथ-साथ एपोलोडोटस का नामोल्लेख किया है । संभवतः वह डेमेट्रियस का छोटा भाई था और उसी के साथ भारतीय युद्धों में भाग लिया था ।

संभव है उसने डेमेट्रियस के पश्चात् कुछ समय तक शासन भी किया हो परन्तु उसके राज्य-काल के विषय में हमें अधिक ज्ञात नहीं है । अनेक क्लासिकल लेखकों-स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि ने मेनाण्डर की गणना महान् यवन विजेताओं में की है ।

उसका एक लेख, शिवकोट (बजैर-घाटी) की धातुगर्भ मंजूषा के ऊपर अंकित प्राप्त हुआ है । इससे सूचित होता है कि बजौर क्षेत्र (पेशावर) उसके अधिकार में था । हाल ही में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में स्थित रेह नामक स्थान से एक अन्य लेख मिला है ।

इसे जी. आर. शर्मा ने मेनाण्डर का मानते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि उसने इस भाग को जीता था । किन्तु यह पहचान संदिग्ध है । पेरीप्लस के अनुसार मेनाण्डर के सिक्के भड़ौच में चलते थे । स्ट्रेबो लिखता है कि उसने सिकन्दर से भी अधिक प्रदेश जीते थे तथा हाइफेनिस (व्यास) नदी पारकर इसेमस (कालिन्दी अथवा यमुना नदी जिसे प्राचीन साहित्य में इक्षुमती कहा गया है) तक पहुंच गया था ।

मथुरा से उसके तथा उसके पुत्र स्ट्रेटो प्रथम के सिक्के मिले हैं । इस प्रकार मेनाण्डर एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बना जो झेलम से मथुरा तक विस्तृत था तथा शाकल (स्यालकोट) उसकी राजधानी थी । मिलिन्दपण्हो में इस नगर का सुन्दर वर्णन मिलता है । तदनुसार ‘अनेक आराम, उद्यान तथा तड़ागों से यह सुशोभित था । नगर के चारों ओर साकार एवं परिखा (खाई) बनवाई गयी थी । नगर के भीतर सुन्दर सड़कें, स्वच्छ नालियाँ तथा भव्य चौराहे बनाये गये थे ।’

कुछ विद्वानों का मत है कि मेनाण्डर ने यूक्रेटाइडीज के वंशजों से भी कुछ प्रदेशों को छीन लिया था क्योंकि काबुल घाटी तथा सिंध क्षेत्र से उसकी मुद्रायें मिलती हैं । उसके सिक्कों का विस्तार गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था ।

उसके पांच प्रकार के चांदी के सिक्के मिलते है जिनकी तौल 32-35 रत्ती के बीच है । मुख भाग पर मुकुट धारण किये हुए राजा का सिर तथा यूनानी विरुद के साथ उसका नाम तथा पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी लिपि में मुद्रालेख ‘महरजस पतरस मिलिद्रस’ उत्कीर्ण है ।

मेमाण्डर के कुछ तांबे के सिक्के भी मिलते हैं जिनपर यूनानी तथा प्राकृत भाषा में लेख जैसे- महरजस ध्री मिकस मिनिद्रस, बेसिलियस सोटेरस मिनिन्द्राय, बेसिलियम डिकेआय मिनिन्द्राय, आदि अंकित हैं । ‘ध्रमिकस’ उपाधि से सिद्ध होता है कि वह एक धर्मनिष्ठ बौद्ध था ।

प्लूटार्क हमें बताता है कि वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा अपनी प्रजा में बहुत अधिक लोकप्रिय था । वह अपने विशाल साम्राज्य का शासन राज्यपालों की सहायता से चलाता था । शिवकोट धातुगर्भ मंजूषा लेख में वियकमित्र तथा विजयमित्र नामक उसके राज्यपालों का उल्लेख मिलता है जो स्वातघाटी में शासन करते थे ।

बौद्ध जनश्रुति में मेनाण्डर को बौद्ध धर्म का संरक्षक बताया गया है । क्षेमेन्द्रकृत अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मेनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण करवाया था । मेनाण्डर का समीकरण मिलिन्द से किया जाता है जिनका उल्लेख नागसेन ने ‘मिलिन्दपण्हो’ (मिलिन्द-प्रश्न) में किया है ।

इस ग्रन्थ में महान् बौद्ध भिक्षु नागसेन राजा मिलिन्द के अनेक गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं तथा अन्ततोगत्वा वह उनके प्रभाव से बौद्ध हो जाता है । यह कहा गया है कि मेनाण्डर अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर न केवल भिक्षु अपितु ‘अर्हत्’ बन गया ।

मिलिन्दपण्हो के अनुसार मेनाण्डर का जन्म अलसन्द (काबुल के समीप सिकन्दरिया) द्वीप के ‘कालसीग्राम’ में हुआ था । प्लूटार्क लिखता है कि उसकी मृत्यु में बाद अनेक नगरों में उसकी धातुओं (भस्मावशेष) के लिए संघर्ष हुए तथा प्रत्येक नगर में उनके ऊपर स्तूपों का निर्माण हुआ ।

यह विवरण हमें बुद्ध के भस्मावशेषों के विवरण की याद दिलाता है । टार्न का विचार है कि बौद्ध मत की ओर उसका झुकाव राजनीतिक कारणों से था क्योंकि उसकी जनसंख्या में बौद्धों का एक बड़ा भाग सम्मिलित था ।

जी. आर. शर्मा का विचार है कि मेनाण्डर के ही नाम का उल्लेख रामायण में कर्दम, भागवत पुराण में ‘पुष्पनिद्र’, विष्णु पुराण में ‘अलिसन्निभ’, दिव्यावदान में ‘यक्षकृमिश’, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में ‘महायक्ष’ तथा तारानाथ के विवरण में ‘मिनार’ रूप में हुआ है ।

इससे उसकी लोकप्रियता सूचित होती है । इस प्रकार मेनाण्डर एक शक्तिशाली एवं न्यायप्रिय शासक था । एक साधारण स्थिति से ऊपर उठकर अपनी योग्यता के बल पर वह एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बन बैठा ।

मिलिन्दपण्हो से पता चलता है कि वह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या और कला का प्रेमी था । मिलिन्दपण्हो के अनुसार उसे इतिहास, पुराण, ज्योतिष, न्याय-वैशेषिक, दर्शन, तर्कशास्त्र, सांख्य, योग, संगीत, गणित, काव्य आदि विभिन्न विद्याओं का अच्छा ज्ञान था ।

उसकी राजधानी शाक्ल तत्कालीन भारत का प्रमुख सांस्कृतिक एवं व्यापारिक स्थल बन गयी थी । मिलिन्दपण्हो से पता चलता है कि यहाँ की बाजारों में बहुमूल्य वस्तुएँ बिक्री के निमित्त सजी रहती थीं । नगर के भीतर हजारों की संख्या में भव्य एवं उत्तुंग प्रासाद शोभायमान थे । यहाँ के नागरिकों के पास भारी मात्रा में कार्षापण, स्वर्ण तथा रजत मुद्रायें विद्यमान थीं । इसकी शोभा को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि- ‘साक्षात् स्वर्गलोक ही पृथ्वी पर उतर आया है ।’

मेनाण्डर यद्यपि एक विदेशी शासक था तथापि उसने भारतीय धर्म को अपनाया तथा उसमें अपने लिये अत्यन्त आदरणीय स्थान बना लिया । नि:सन्देह भारत में उसका स्थान सिकन्दर की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचा है ।

मेनाण्डर के उत्तराधिकारी:

मेनाण्डर के अन्तिम दिनों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है । उसकी मृत्यु के समय उसका पुत्र स्ट्रेटो प्रथम अवयस्क था । अत: उसकी पत्नी ऐगथोक्लिया ने शासन सम्हाला । उसने अपने पुत्र के साथ मिलकर सिक्के प्रचलित करवाये थे ।

स्ट्रेटो प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी स्ट्रेटो द्वितीय बना । इन दोनों का काल यूथीडेमस साम्राज्य के पतन का काल रहा । प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य तक आते-आते पूर्वी पंजाब स्थित उनका राज्य शकों के अधिकार में चला गया । इस प्रकार यूथीडेमस कुल का अन्त हुआ ।

यूक्रेटाइडीज वंश:

यूथीडेमस कुल के विनाश के पश्चात् यूक्रेटाइडीज के वंशज शक्तिशाली हुए । इस कुल के दो राजाओं के नाम मिलते हैं- एन्तियालकीडस तथा हर्मियस । एन्तियालकीडस तक्षशिला का शासक था जिसने शुंगनरेश भागमद्र के विदिशा स्थित दरबार में हेलियोडोरस नामक अपना एक राजदूत भेजा था ।

उसका उल्लेख बेसनगर के गरुड़ स्तम्भ-लेख में हुआ है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब यवनों की शक्ति काफी क्षीण हो गयी थी और वे आक्रमण का मार्ग छोड़कर भारतीय नरेशों के साथ मैत्री-सम्बन्ध बनाये रखने के इच्छुक थे ।

हर्मियस यूक्रेटाइडीज वंश का अन्तिम हिन्द यवन शासक था । उसका राज्य ऊपरी काबुल घाटी तक सीमित था । उसके कुछ सिक्कों के ऊपर कुषाण वंश के प्रथम शासक कुजुल कडफिसेस का नाम उत्कीर्ण है । यह इस बात का सूचक है कि बैक्ट्रिया में कुजुल उसकी अधीनता स्वीकार करता था ।

वह अपने राज्य को अधिक दिनों तक सुरक्षित नहीं रख सका तथा प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के द्वितीयार्ध में कान्धार क्षेत्र के पार्थियनों ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया । हर्मियस ने 50 ईसा पूर्व से 30 ईसा पूर्व के लगभग तक शासन किया । उसके साथ ही पश्चिमोत्तर भारत से यवनों का लगभग दो सौ वर्षों का शासन समाप्त हुआ ।

यवन-आधिपत्य का प्रभाव:

बख्त्री-यवनों का पश्चिमोत्तर भारत पर शासन सिकन्दर की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ । इस समय भारत तथा यूनान के सांस्कृतिक सम्पर्क बहुत अधिक बढ़ गये । एक ओर जहाँ यूनानी भारतीय धर्म से प्रभावित हुये वहीं दूसरी ओर भारतीयों ने कला, विज्ञान, मुद्रा, ज्योतिष आदि के विषय में यूनानी संस्कृति से बहुत कुछ सीखा ।

यवन सम्राट मेनाण्डर नागसेन के प्रभाव से बौद्ध हो गया तथा वह अर्हत् पद पर पहुँच गया । हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण कर लिया तथा विष्णु मन्दिर के सामने (विदिशा में) विष्णुध्वज की स्थापना की । इसी प्रकार कुछ अन्य यवनों ने भी भारतीय धर्म, रहन-सहन आदि अपना लिया था ।

दूसरी ओर भारत भी यवन प्रभाव से अछूता न रहा । कला के क्षेत्र में स्पष्टतः यूनानी प्रभाव देखा जा सकता है । कला की गन्धार शैली की नींव इसी युग में पड़ी थी । इसमें भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया ।

साँचे में ढली मुद्राओं के निर्माण की विधि भारतीयों ने यूनानियों से ही ग्रहण की । यूनानी प्रभाव से भारतीय मुद्रायें सुडौल, लेखयुक्त तथा कलात्मक होने लगीं । कुणिन्द तथा औदुम्बर गणराज्यों के सिक्के यवन नरेश अपोलोडोटस के सिक्कों के अनुकरण पर ढाले गये हैं ।

इण्डो-ग्रीक शासकों ने ही सर्वप्रथम अपने सिक्कों पर लेख उत्कीर्ण करवाया धा । पूर्व मध्य काल के लेखों में सिक्के के लिये ‘द्रम्म’ शब्द आया है । यह यूनानी भाषा से लिया गया है । ज्योतिष के क्षेत्र में भी भारत ने यूनान से प्रेरणा ली । बृहत्संहिता में कहा गया है कि- ‘यवन बर्बर हैं, पर ज्योतिष का जन्म उनसे हुआ है, अत: वे ऋषियों की भाँति सम्मान-योग्य हैं ।’

भारतीय ग्रन्थों में ज्योतिष के पांच सिद्धान्त मिलते हैं:

(1) पैतामह,

(2) वशिष्ट,

(3) सूर्य,

(4) पोलिश और

(5) रोमक ।

इनमें अन्तिम दो का उदय यवन-सम्पर्क से ही बताया जाता है । पोलिश सिद्धान्त सिकन्दरिया के पाल की खोजों पर आधारित लगता है । रोमक के सम्बन्ध में वाराहमिहिर ने जिन नक्षत्रों के नाम गिनाये हैं वे यूनान से लिये गये प्रतीत होते हैं ।

वाराहमिहिर के ‘होरा’ विषयक ज्ञान, जिसका सम्बन्ध कुण्डलियों से है, के ऊपर यूनानी खगोलशास्त्र का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है । सम्भवत: इस विद्या का जन्म बेवीलोन में हुआ था और यहां से यह यूनान एवं अन्य देशों में पहुँची ।

भारतीय ज्योतिष में प्रचलित अनेक शब्द जैसे- केन्द्र, हारिज, लिप्त, द्रक्कन आदि यूनानी भाषा से ही लिये गये प्रतीत होते हैं । टार्न के अनुसार निश्चित तिथि से काल-गणना की प्रथा, संवतों का प्रयोग तथा सप्ताह का सात दिनों में विभाजन आदि भारतीयों ने यूनानियों से ही सीखा ।

इसी प्रकार यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेटिज तथा भारतीय चिकित्साशास्त्री चरक के सिद्धान्तों में अनेक समानतायें दिखाई देती हैं । दोनों के ग्रन्थों में चिकित्सा-शास्त्र के विद्यार्थी के लिये जो प्रतिज्ञा बताई गयी है वह एक समान है ।

दर्शन के क्षेत्र में भी भारतीयों तथा यूनानियों में अनेक समानतायें हैं । बेबर आदि कुछ विद्वान भारतीय नाटकों का उद्भव भी यूनानी नाटकों से ही बताते हैं । संस्कृत नाटकों में पर्दे के लिये ‘यवनिका’ शब्द आया है जो यूनानी भाषा से लिया गया प्रतीत होता है ।

कुछ विद्वान ‘मृच्छकटिक’ की तुलना ‘न्यू एटिक कामेडी’ से करते हैं । किन्तु यह ठीक नहीं है । वस्तुतः भारतीय नाटकों का उद्भव ‘नट’ (नृत्य) में ढूंढा जाना चाहिए । नृत्य में प्रयुक्त मुद्रायें ही नाटकों में प्रयुक्त होती थी ।

भारतीय नाटकों को कहीं से कोई प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं थी । इसका मूल यम-यमी संवाद में देखा जा सकता है । संस्कृत शब्दकोश में स्याही, कलम, फलक आदि के लिये जो शब्द मिलते हैं वे यूनानी भाषा से लिये गये प्रतीत होते हैं ।

परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि संस्कृति के मूल तत्व सर्वथा अप्रभावित एवं अपरिवर्तित ही रहे तथा यवन भारतीयों पर कोई गहरा प्रभाव नहीं छोड़ सके । भारतीय सभ्यता पर यवन-संस्कृति के प्रभावों को अतिरंजित करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है ।

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