Read this article in Hindi to learn about the political, social and economic conditions of people during the French revolution.

क्रांति के पहले की व्यवस्था को पुरातन व्यवस्था कहते हैं । फ्रांस में क्रांति का विस्फोट क्यों और कैसे हुआ, इसको समझने के लिए पुरातन व्यवस्था का सर्वेक्षण करना आवश्यक है । इसके अन्तर्गत फ्रांस की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण करके ही हम उन जटिल समस्याओं को समझ सकते हैं, जिन्होंने क्रांति की पृष्ठभूमि का काम किया ।

राजनीतिक स्थिति (Political Condition):

राजतन्त्र की निरंकुशता फ्रांसीसी राजनीतिक जीवन की सबसे प्रमुख विशेषता थी । निरंकुशता की इस परम्परा को स्थापित करनेवाला चौदहवाँ लूई था जिसने 1661 से 1715 ई. तक फ्रांस पर शासन किया । इस लम्बी अवधि में उसने स्थायी सेना का गठन किया, सामंतों को कठोरतापूर्वक दबाया, उन्हें प्रशासनिक अधिकारों से वंचित किया तथा प्रशासनतन्त्र का पूर्ण केन्द्रीकरण किया ।

उसके प्रयासों के फलस्वरूप फ्रांस के राजा के हाथों में असीम अधिकारों का संकेन्द्रण हो गया । वह कार्यकारिणी, विधायनी तथा न्यायिक सभी शक्तियों का स्रोत था ।

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प्रशासन पर राजा का नियन्त्रण इतना व्यापक था कि वह कोई भी कानून बना सकता था, किसी प्रकार का कर लगा सकता था, युद्ध की घोषणा कर सकता था और महत्वपूर्ण अभियोगों पर स्वयं निर्णय कर सकता था ।

एक मामूली राजकीय पदाधिकारी की नियुक्ति भी उसी के द्वारा होती थी । उसकी अनुमति के बिना गाँव के गिरजाघर की मरम्मत तक नहीं हो सकती थी । इस प्रकार, शासन के अंग-प्रत्यंग पर राज्य का प्रत्यक्ष नियन्त्रण था ।

चौदहवें लूई ने शासन का जिस प्रकार केन्द्रीकरण किया था उसमें राजा का योग्य होना आवश्यक था । निरंकुशतन्त्र में राजा का चरित्र बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है । लेकिन, चौदहवें लूई के उत्तराधिकारी, पन्द्रहवाँ लूई और सोलहवाँ लूई दोनों पूर्णतः अयोग्य थे ।

पन्द्रहवाँ लूई केवल कमजोर ही नहीं, बल्कि विलासी और फ्रांस तथा अपने हितों के प्रति भी लापरवाह सिद्ध हुआ । उसके शासनकाल में वर्साय का जीवन विलासिता और षड्यन्त्रों का केन्द्र बन गया ।

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उसके उत्तराधिकारी सोलहवें लूई के शासनकाल में स्थिति और भी बिगड़ी । उसमें न तो स्वयं निर्णय कर सकने की क्षमता थी और न वह किसी दूसरे की सलाह को समझ ही सकता था ।

राज्य की समस्याओं में उसको कोई विशेष रुचि नहीं थी । एक के बाद एक उसने कई मन्त्रियों को नियुक्त किया, परन्तु दृढ़ इच्छा-शक्ति के अभाव में वह उनको अपना समर्थन नहीं दे सका और किसी-न-किसी की शिकायत सुनकर उन्हें बर्खास्त करता रहा ।

उसपर उसकी रानी मेरी एन्त्वायनेत का बड़ा ही विनाशकारी प्रभाव था । आस्ट्रिया के सम्राट द्वितीय जोसेफ की बहन फ्रांस की यह रानी निर्णायक रूप से लूई के शासन को प्रभावित करती थी । लूई किसी काम को अपनी प्रेरणा से नहीं करता था, वरन् रानी के दबाव में आकर करता था ।

यदि वह राजनीति से अलग रहकर अपना व्यक्तिगत जीवन व्यतीत करती, तो सम्भवत: वह जीवन में बहुत सफल होती; लेकिन वह दरबार के षड्‌यन्त्रकारियों के हाथ में एक अबोध खिलौना बन गयी थी तथा उनके बहकावे में पड़कर वह दिन-प्रतिदिन के शासन-कार्यों में बराबर दखल दिया करती थी ।

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निरंकुश शासन की सफलता शासक की योग्यता पर निर्भर करती है, लेकिन चौदहवें लूई के उत्तराधिकारियों में इस गुण का सर्वथा अभाव था । इस कारण वे शक्ति के अत्यधिक संकेन्द्रण को नहीं संभाल सके । प्रशासन को सुचारु रूप से चलाना उनके सामर्थ्य के बाहर की बात थी ।

फलत: उनकी लापरवाही और अयोग्यता के कारण प्रशासन का यन्त्र एकदम अस्त-व्यस्त हो गया । निरंकुश राजतन्त्र जो अभी तक फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था की मुख्य विशेषता थी, वह अब बदली हुई परिस्थिति में अभिशाप बन गयी और फ्रांसीसी राजतन्त्र का गला वस्तुत: उसकी निरंकुशता ही ने घोंटा ।

पुरातन युग के फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था में कोई संसदीय संस्था नहीं थी । यह बात ठीक है कि इंगलैण्ड की पार्लियामेंट की तरह फ्रांस में भी एक संसदीय संस्था थी जिसको इस्टेट्‌स जनरल कहते थे, किन्तु 1614 ई. के बाद 175 वर्षों से इसका कोई अधिवेशन नहीं हुआ था और राजा मनमाने ढंग से अपना शासन चला रहा था ।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का तो नामोनिशान नहीं था । एक प्रकार का वारण्ट (लात्ररे द काशे) जारी कर किसी व्यक्ति को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था और बिना मुकदमा चलाये ही उसे जेल में रखा जा सकता था ।

सरकारी पदों पर नियुक्ति योग्यता के आधार पर न करके जन्म या क्रय-शक्ति के आधार पर की जाती थी । ऐसे सभी कर्मचारी भ्रष्ट होते थे । राजकीय शासन-व्यवस्था कई कार्यालयों, संस्थाओं और एजेन्सियों की कई परतों से बनी थी ।

ये परत सदियों से एकत्र होते आ रहे थे और स्पष्टत: परिभाषित नहीं थे । कभी-कभी इनके कार्यक्षेत्र आपस में एक-दूसरे के विरोधी होते थे । इनमें सामान्यत: अव्यवस्था तथा अयोग्यता व्याप्त थी ।

इस सख्त नौकरशाही से काम लेना किसी को भी निराश करने वाला था । पर, उद्यमी व्यापारियों और छोटे भूमिपतियों के लिए यह विशेष रूप से कष्टकर था । इसी तरह फ्रांस की कानूनी व्यवस्था में कोई एकरूपता नहीं थी ।

वहाँ विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के कानून लागू थे । इन कानूनी के अनुसार जो बात एक जगह वैध मानी जाती थी वह दूसरी जगह अवैध मानी जाती थी । इस कारण न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में सर्वत्र अराजकता व्यास थी । प्रान्तों में केन्द्र का नियन्त्रण ढीला पड़ गया था ।

संपूर्ण देश कई तरह की इकाइयों में बँटा हुआ था और अलग-अलग प्रान्तों में उनकी ऐतिहासिक विभिन्नताएँ बनी हुई थीं । इस प्रकार, जिस भी दृष्टिकोण से देखा जाये पुरातन व्यवस्था की फ्रांस की राजनीतिक स्थिति एकदम गतिहीन हो चुकी थी ।

सारी व्यवस्था एक व्यक्ति और एक परिवार के हित में थी और शेष सभी समर्थ लोग अपने ढंग से अपने हित-साधन में लगे हुए थे । इस जर्जर, भ्रष्ट और गतिहीन राजनीतिक जीवन का अन्त होना ही था ।

सामाजिक दशा (Social Condition):

पुरातन व्यवस्था के अन्तर्गत फ्रांसीसी समाज सामंती व्यवस्था पर अवलम्बित था । इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का कार्य उसके जन्म के आधार पर बँटा हुआ था । समाज में तीन तरह के लोग रहते थे- पादरी, सामंत और साधारण लोग, जिसमें बुर्जुआवर्ग के लोग भी सम्मिलित थे ।

सामंत लोग विशेषाधिकार वर्ग के लोग थे और उन्हें कई तरह की सुविधाएँ प्राप्त थीं । सर्वप्रथम, उन्हें किसी तरह का कर नहीं देना पड़ता था और सभी उच्च राजकीय पदों पर केवल उनकी ही नियुक्ति होती थी ।

वे फ्रांस की एक चौथाई भूमि के मालिक होते थे । कुलीन वर्ग में धनी और अमीर दोनों थे, किन्तु दोनों समान रूप से किसानों को चूसते थे । उनसे तरह-तरह के सामंती कर, देय और बेगारी लेते थे ।

कुलीनों के पालतू पशु कृषकों के खेत उजाड़ते थे । उन्होंने अपनी जागीरों में आटे की चक्कियाँ, शराब की भट्टियाँ तथा तन्दूर आदि खोल रखे थे । यहाँ के समस्त बाशिन्दों को यहीं पर अपनी रोटियाँ सेंकनी पड़ती थीं और शराब तैयार करनी पड़ती थी ।

यदि कोई किसान अपना खेत बेचता था, तो उसे मूल्य का पाँचवाँ हिस्सा जागीरदार को देना पड़ता था । वे अपनी जागीर में बाहर से आने वाली चीजों पर चुंगी वसूलते थे । सड़कों और पुलों पर वे टोल टैक्स वसूलते थे । अधिकांश कुलीन अपनी जागीर से हटकर वर्साय में रहते थे । यह परम्परा चौदहवें लूई ने शुरू की थी ।

इस कारण अपने इलाके से इनका सम्पर्क टूट गया था और समय आने पर वे अपनी जनता का नेतृत्व नहीं कर सकते थे । इस प्रकार, वर्साय ने फ्रांसीसी सामंती वर्ग के राजनीतिक और नैतिक पतन को पूरा कर दिया । राजनीतिक रूप से सामंत नपुंसक बना दिये गये थे ।

अन्य यूरोपीय देशों में सामंती वर्ग एक सशक्त राजनीतिक शक्ति था जो किसी भी नियोजित राजनीतिक उथल-धूमल की दशा में रक्षा की द्वितीय पंक्ति के रूप में काम कर सकता था; लेकिन फ्रांस के सामंती वर्ग को नपुंसक बनाकर चौदहवें लूई ने रक्षा की इस द्वितीय पंक्ति को विनष्ट कर दिया था ।

सामंतशाही पर राजतन्त्र की इस पूर्ण विजय ने स्वयं राजतन्त्र के विनाश तथा क्रांति को पूर्ण विजय प्राप्त करने में सहयोग दिया । एक बार जब केन्द्रीय सरकार उलट दी गयी, तब उसके बाद कोई अवरोध सम्भव नहीं था ।

पुरातन-व्यवस्था के जो थोड़े से रक्षक थे, वे मानो एक ही किले द्वारा संचालित हो रहे थे और उस किले के पतन के बाद फिर कहीं कोई रुकावट नहीं रही । पुरातन व्यवस्था में पादरी लोग प्रथम स्टेट के सदस्य होते थे ।

वे रोमन कैथोलिक चर्च के अधिकारी होते थे । इस चर्च का अपना स्वतन्त्र संगठन, कानून, न्यायालय और करारोपण के अधिकार थे । चर्च टाइथ नामक कर वसूलता था । देश की जमीन का पाँचवाँ भाग चर्च के पास ही था ।

इसकी आमदनी असीमित थी, फिर भी फ्रांसीसी चर्च की स्थिति एक खोखले वृक्ष की तरह हो गयी थी । अनैतिकता और सांसारिकता, भ्रष्टाचार और विशेषाधिकारों के कारण यह एक मृतप्राय: संस्था हो चुकी थी ।

बड़े पादरियों को धार्मिक कार्यों से कोई मतलब नहीं रहता था । वे चर्च की अपार सम्पदा का खुलेआम उपयोग करते थे और हमेशा भोग-विलास में लिप्त रहते थे; जबकि छोटे पादरियों का जीवन बड़े कष्ट से बीतता था । वे ईमानदार होते थे ।

चर्च के सभी कार्यों को वही सम्पन्न करते थे । फिर भी उन्हें भिक्षुकों जैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता था । अत: छोटे पादरी बड़े पादरियों की स्थिति से जलते थे । उच्च पादरियों के ऐश्वर्य और रंगरेलियाँ देखकर उनके हृदय में द्वेषाग्नि धधकती रहती है और शोषित जनसाधारण के प्रति उनकी पूरी सहानुभूति थी ।

ये छोटे पादरी प्राय: सुशिक्षित होते थे और अपने समय के विचारकों के क्रांतिकारी विचारों से पूरी तरह अवगत थे । जनतन्त्रवादी प्रवृत्ति के प्रति उनका काफी झुकाव हो गया था । फ्रांस में जब क्रांति शुरू हुई, तब उन्होंने क्रांति के अग्रदूत का काम किया ।

सर्वसाधारण वर्ग, जिसको तृतीय इस्टेट कहा जाता था, पुरातन व्यवस्था में सबसे अधिक तंग था । यह फ्रांस का विशेषाधिकारहीन वर्ग था । इसमें कृषक, मजदूर, शिल्पी, घरेलू कर्मचारी, व्यापारी और बुद्धिजीवी लोग आते थे ।

कृषकों को राज्य, चर्च तथा जमींदार को अनेक प्रकार के कर तथा सामंती देय देने पड़ते थे । इसके अतिरिक्त उन्हें सामंतों की सेवा भी करनी पड़ती थी । इन सबके चलते कृषकों की कमर टूट चुकी थी ।

सामंती अत्याचार से उनके मन में घृणा पैदा हो गयी थी । वे अपने उद्धार के लिए उतावले हो रहे थे । इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि फ्रांस में जब क्रांति शुरू हुई, तब कृषकों ने हृदय से इसका स्वागत किया और अत्याचारी कुलीनों को खत्म करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी ।

कृषकों का घोर असन्तोष फ्रांस की क्रांति का मुख्य कारण था । मध्यमवर्गीय बुर्जुआवर्ग के लोगों की आर्थिक दशा तो अवश्य अच्छी थी, पर कई कारणों से वे भी असन्तुष्ट थे । ये लोग प्राय: शहर में रहते थे और इस कारण इन्हें दमनात्मक भूमि कर या किसी प्रकार का सामंती देय नहीं देना पड़ता था । फिर भी उनकी कई राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शिकायतें थीं ।

वे देश की राजनीति में सक्रिय भाग लेना चाहते थे । देश की राजनीति और सरकार पर से कुलीनों के प्रभुत्व का अन्त करके वे अपने वर्ग का प्रभुत्व कायम करना चाहते थे । इस कारण, कुलीनों से उनका संघर्ष अनिवार्य था ।

बुर्जुआवर्ग की आकांक्षा थी कि सभी राजकीय पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ हों, जन्म के आधार पर नहीं । सामाजिक स्तर पर भेद-भाव भी बुर्जुआओं को बहुत खलते थे ।

वे धार्मिक असहिष्णुता, अभियोगों के समय न्यायिक शक्तियों के दुरुपयोग, मनमानी गिरफ्तारियों तथा निर्दय और विषम दण्डों से काफी असन्तुष्ट थे । वे कुलीनों के साथ सामाजिक समता प्राप्त करना चाहते थे तथा उनकी सामाजिक श्रेष्ठता से घृणा करते थे ।

उनकी यह अहंमान्यता कि ‘हम कुलीनों से श्रेष्ठ हैं’ क्रांति का एक मुख्य कारण था । फ्रांस की क्रांति का सबसे प्रमुख नारा ‘समानता’ था और मध्यमवर्ग के लोगों ने ही इसको बुलन्द किया था ।

वे ‘स्वतन्त्रता’ पर उतना अधिक जोर नहीं देते थे जितना ‘समानता’ पर । वे अपने युग की क्रांतिकारी विचारधाराओं से अत्यधिक प्रभावित थे । आश्चर्य नहीं कि क्रांति का नेतृत्व और संचालन इसी वर्ग के लोगों ने किया । बुर्जुआवर्ग की कुछ आर्थिक शिकायतें भी थीं ।

वे समझते थे कि सामंती वातावरण में उनका वाणिज्य-व्यापार प्रगति नहीं कर सकता । उनके व्यापार पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगे हुए थे और जगह-जगह पर चुंगी देनी पड़ती थी । नगर सीमा-शुल्क, सामंती सीमा-शुल्क तथा प्रान्तीय सीमा-शुल्क के कारण उनके आर्थिक कार्यकलापों पर कई तरह की रुकावटें पैदा हो जाती थीं ।

वे अपने व्यापार-व्यवसाय के लिए उन्मुक्त वातावरण चाहते थे और सामंती अव्यवस्था का अन्त करना चाहते थे । सामंती व्यवस्था का अन्त करके ही यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता था, जिसके लिए एक क्रांति आवश्यक थी ।

आर्थिक स्थिति (Economic Condition):

पुरातन व्यवस्था के काल में फ्रांस की आर्थिक दशा एकदम अस्त-व्यस्त हो गयी थी । इसके मूल में विदेशी युद्ध, राजमहल के अपव्यय और दोषपूर्ण कर-प्रणाली थी । राज्य को केवल साधारण वर्ग के लोग ही कर देते थे, कुलीन तथा पादरी वर्ग के लोगों को इससे पूर्ण मुक्ति मिली हुई थी ।

यह कहावत ही प्रचलित थी कि ‘सामंत लड़ता है, पादरी पूजा करता है और सामान्य जन कर देता है ।’ किसानों को कई तरह के कर देने पड़ते थे । उसे टैली नामक भूमि कर, टाइथ नामक धर्म कर तथा गैबेल्ल नामक नमक कर देना पड़ता था ।

कर निश्चित करने और वसूलने का तरीका भी अन्यायपूर्ण था । करों की वसूली का काम प्रायः ठेकेदारों को दे दिया जाता था जो मनमानी रकम वसूल करते थे । इससे जनता तो असन्तुष्ट थी ही, राज्य के कोष में राष्ट्रीय आय का उचित भाग भी नहीं पहुँच पाता था ।

अतएव, राज्य सदा दिवालिया बना रहता था । इस स्थिति में फ्रांस के राजाओं को मितव्ययिता से काम लेना चाहिए था, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके । खजाना खाली होने पर सरकार की ओर से कर्ज लिया जाने लगा ।

यह कहा जाता है कि क्रांति के पूर्व फ्रांसीसी सरकार पर साठ करोड़ डालर का ऋण था जिसपर अत्यधिक ब्याज देना पड़ रहा था और ‘बजट’ में प्रतिवर्ष ढाई करोड़ डालर का घाटा हो रहा था ।

नये वर्ष में करों से जो आमदनी होती थी, उसका आधे से अधिक भाग ब्याज के भुगतान में खर्च हो जाता था । इस प्रकार, राज्य सदैव दिवालियेपन की स्थिति में रहता था । यह एक ऐसी स्थिति थी, जो लम्बे अरसे तक नहीं चल सकती थी ।

यह सत्य है कि पुरातन व्यवस्था के काल में विशेषकर 1730 ओर 1780 ई. की अवधि में फ्रांस का क्रमिक आर्थिक विकास हो रहा था, पर इस अवधि में यदा-कदा आर्थिक संकटों का समय भी आता रहता था और यह फ्रांस के विशेषाधिकारहीन वर्गों के लिए घोर मुसीबतों का स्रोत बन जाता था ।

ऐसे ही संकटों में एक गम्भीर संकट का सामना फ्रांस को 1787 ई. में एक खराब पैदावार के बाद करना पड़ा था । अन्न का अभाव, खाद्यान्नों की तेजी से बढ़ती हुई कीमतें, वस्त्र-उद्योग में गिरावट तथा शहरों में बढ़ती हुई बेरोजगारी का सामना देश को करना पड़ा था ।

शहरों तथा गाँवों दोनों ही जगह इससे उत्पन्न दुःखों और परेशानियों ने 1789 ई. की क्रांति की शुरुआत में योगदान दिया । सोलहवें लूई के राजत्वकाल में आर्थिक परेशानियाँ बहुत बढ़ गयीं । इस स्थिति को सुधारने के लिए लूई ने तुर्जों नामक एक व्यक्ति को अपना अर्थ-मन्त्री बनाया । उसने कई प्रकार के सुधार करके आर्थिक जीवन को नियमित करने का प्रयास किया ।

इसके कारण निहित-स्वार्थ के लोग उससे बिगड़ गये और राजा पर दबाव डालकर तुर्जों को बर्खास्त करा दिया । यही हाल नेकर नामक एक दूसरे मन्त्री का हुआ । कुछ दिनों के बाद कालोन्न नामक व्यक्ति को मन्त्री बनाया गया । पर, आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ ।

कालोन्न ने राजा को सूचना दे दी कि राज्य दिवालियेपन की ओर उन्मुख है और पूरे तन्त्र में बिना कुछ मौलिक सुधार किये स्थिति संभल नहीं सकती । अन्त में फ्रांस में विशिष्ट लोगों की सभा बुलाने का निर्णय हुआ ।

इस संस्था के पास भी कोई समाधान नहीं था । एकमात्र समाधान यह हो सकता था कि विशेषाधिकार सम्पन्न और करमुक्त लोगों पर कर लगाया जाये । लेकिन, विशिष्टों की सभा के सदस्य विशेषाधिकार वर्ग के लोग ही थे ।

उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि स्टेट्‌स जनरल के माध्यम से ही राज्य को कर लगाने का अधिकार है । लेकिन, कठिनाई यह थी कि पिछले 175 वर्षों से इस संसदीय संस्था का कोई अधिवेशन नहीं हुआ था और दूसरा विकल्प भी नजर नहीं आ रहा था ।

समस्या को टालने का एक ही तरीका था- स्टेट्‌स जनरल का अधिवेशन बुलाना । अत: राजा ने इसके चुनाव की आज्ञा दे दी । 5 मई, 1789 को वर्साय में स्टेट्स जनरल का ऐतिहासिक अधिवेशन प्रारम्भ हुआ और इसकी बैठक ने क्रांति के विस्फोट के लिए रास्ता तैयार कर दिया ।