औपनिवेशिक देशों के लिए स्वतंत्रता की घोषणा | Declaration of Independence for Colonial Countries.

Essay # 1. वि-उपनिवेशिकरण का अर्थ (Meaning of Decolonization):

प्राय: यह समझा जाता है कि वि-उपनिवेशीकरण बीसवीं शताब्दी का और विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात का उत्पाद था । यद्यपि, यह सही नहीं है । उपनिवेशवाद विरोधी लहर की पहली अनुभूति अठारहवीं शताब्दी में प्रकट हुई जब ब्रिटेन के तेरह अमेरिकी उपनिवेशों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह किया और स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया ।

बाद में लैटिन अमेरिकी देशों ने भी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के पश्चात् स्वतंत्रता प्राप्त कर ली । बेंथम जैसे दार्शनिकों ने भी ब्रिटेन तथा फ्रांस को, उपनिवेशों पर से अपनी निर्भरता को समाप्त करने के लिए सशक्त तर्क दिए । परंतु प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् ही उपनिवेशवाद की समस्या पर गंभीरता से विचार किया गया ।

वर्साय की शांति वार्ता जोकि पराजित राष्ट्रों के क्षेत्रों की समस्या का समाधान करने के लिए आयोजित की गई थी उसमें इन क्षेत्रों के कल्याण तथा विकास पर भी पूरा ध्यान दिया गया । शांति वार्ताकारों ने राष्ट्र संघ की प्रसंविदा में इन समस्याओं का समाधान करने के लिए कुछ प्रावधानों को भी जोड़ा । प्रसंविदा में इन क्षेत्रों के लोगों के विकास तथा कल्याण को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया और इसे सभ्यता का एक पवित्र कार्य माना गया था ।

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विभिन्न मित्र तथा संबंधित शक्तियां जो इन क्षेत्रों के कल्याण से संबंधित नहीं थी उनको राष्ट्र संघ की ओर से इनके कल्याण का कार्य सौंपा गया और उन्होंने इन क्षेत्रों को केवल अपनी प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में ही प्रयोग किया । प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् एशिया तथा अन्य क्षेत्रों में राष्ट्रवाद के प्रसार ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध एक गंभीर चुनौती पेश की ।

इस काल के दौरान वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया प्रभार हुई और इस काल में और उपनिवेशों की स्थापना हुई थी । इस दिशा में इटली द्वारा इथोपिया पर आक्रमण तथा जापान द्वारा चीन और पूर्वी एशिया में प्रसार इसका अपवाद थे । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ही वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को गति प्राप्त हुई । रूम्पर्ट एमरशन के अनुसार- द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया इतनी तेजी तथा गहनता से चली कि यह उन्नीसवीं शताब्दी के उपनिवंशवाद से मिलती-जुलती थी ।

उपनिवेशों पर कब्जा करना जो कभी गर्व तथा प्रतिष्ठा का मामला समझा जाता था अब एक पाप बन गया और इसका प्रायश्चित केवल इन्हें तुरत स्वतंत्रता प्रदान करके ही किया जा सकता था । इस समस्या के प्रति राष्ट्र संघ की उदासीनता का प्रतिस्थापन संयुक्त राष्ट्र संघ के वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के प्रति गंभीर कदमों के द्वारा कर दिया गया ।

Essay # 2. यूएन चार्टर तथा औपनिवेशिक जनसमूह (UN Charter and the Colonial People):

सेन-फ्रांसिस्को में होने वाले सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने उपनिवेशों में राष्ट्रवाद के उदय की लहर को ध्यान में रखते हुए, उपनिवेशी लोगों के संबंध में कुछ विस्तृत प्रावधान किए जोकि लीग की प्रसंविदा से अधिक प्रगतिशील थे । उन्होंने यूएन चार्टर में गैर-स्वशासन क्षेत्र से संबंधित एक घोषणापत्र को जोड़ा । यह घोषणापत्र इसके सदस्यों पर जिस क्षेत्र के लोगों को अभी तक स्व-निर्णय (स्वशासन) के पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं हुए थे, उन क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में दायित्वों को लागू करता था ।

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घौषणा पत्र के अनुच्छेद 73 में कहा गया है कि:

(अ) इस क्षेत्र के लोगों की संस्कृति को ध्यान में रखते हुए उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षिक प्रगति दुर्व्यवहारा के विरुद्ध सुरक्षा तथा न्यायपूर्ण व्यवहार ।

(ब) स्व-शासन को विकसित करना लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करना तथा प्रत्येक उपनिवेश के विकास की अलग-अलग अवस्था के अनुरूप उसके लोगों की विशिष्ट आवश्यकताओं क अनुसार, उनकी स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाओं को प्रगति के मार्ग की ओर उन्मुख करना ।

(स) अनुच्छेद में निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अन्य विशेषज्ञ अतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ इन क्षेत्रों के सामाजिक तथा आर्थिक विकास के संरचनात्मक उपायों को बढ़ावा देना, वैज्ञानिक शोध और एक-दूसरे को, जब जहां उपयुक्त हो, प्रोत्साहित करना ।

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(द) इन क्षेत्रों में जहां तक सुरक्षा तथा संवैधानिक सुझावों की आवश्यकता हो तथा इन लोगों के आर्थिक सामाजिक तथा शैक्षिक परिस्थितियां से संबंधित तकनीकी प्रकृति की सूचना को इस प्रकार की सीमाओं के साथ, सूचनाओं के उद्देश्यों के लिए, महासचिव को नियमित रूप से संचारित करना जिसके लिए वे अलग से उत्तरदायी हैं ।

यूएन (संयुक्त राष्ट्र संघ) के अन्य सदस्यों को औपनिवेशिक क्षेत्रों में रुचि लेनी चाहिए । यदि प्रशासनिक शक्तियां अप्रवास, व्यापार तथा वाणिज्य इत्यादि के संबंध में मनमानी नीतियों को अपनाती हैं तो गैर-प्रशासनिक देश शिकायत कर सकते हैं । संक्षेप में, यूएन ने औपनिवेशिक क्षेत्रों में स्व-शासन की आशाओं की उजागर किया है ।

यूएन चार्टर के गैर-स्वशासित क्षेत्रों के संबंध में, घोषणापत्र के महत्त्व पर टिप्पणी करते हुए बाल तथा किलोघ कहते है कि इसने निर्भर लोगों के विकास में, ट्रस्टीशिप सिद्धांत की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व में महत्त्वपूर्ण प्रगति दर्ज की है ।

गैर-स्वशासित क्षेत्रों के घोषणापत्र में अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों ने पहली बार, सभी निर्भर-क्षेत्रों के प्रशासकों ने निर्भर लोगों के कल्याण को एक सर्वोच्च महत्त्व के रूप में स्वीकार किया । चार्टर के घोषणापत्र में इससे भी आगे बढ़कर पहली बार सभी निर्भर राष्ट्रों के मूलभूत सिद्धातों के कार्यान्वन के लिए उठाए गए कदमों को, एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी को रिपोर्ट करने का दायित्व सौंपा गया है ।

चार्टर न वि-उपनिवेशीकरण को एक नई दिशा दी परंतु यह कहना गलत होगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् सभी देशों में उपनिवेशों की आजादी का कारण यूएन के प्रयास थे । यूएन का महत्त्वपूर्ण योगदान सकारात्मक विचारों के वातावरण का निर्माण रहा है जिसने वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान की ।

इसने केवल वैश्विक मच होने के नाते दावों मांगो तथा विरोधों को अनिवार्य रूप से सुना और प्रस्तावों एवं निर्णयों के निर्माण को एक संगठित रूप प्रदान किया जिस पर विश्व सस्ता की मोहर लगी होती थी । महासभा के सहायक अंगो तथा ट्रस्टीशिप परिषद, संयुक्त राष्ट्र संघ ने औपनिवेशिक शक्तियों के द्वारा लोगों के जीवन में बहुत से सुधार करने के लिए प्रेरित किया ।

उनके कल्याण की व्यापक चिता ने वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को और तेज करने के लिए औपनिवेशिक शक्तियों पर दबाव के एक मच के रूप में सहायता तथा उनके हितों के लिए कार्य करने की ओर प्रेरित किया । संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रारंभ से ही वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।

1947 में महासभा ने 16 सदस्यों की एक समिति की नियुक्ति की । इस समिति में सभी औपनिवेशिक तथा गैर-औपनिवेशिक शक्तियों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया । इस समिति का कार्य प्रशासनिक शक्तियों द्वारा सौंपी गई रिपोर्टों में महासभा की सहायता करना था ।

औपनिवेशिक शक्तियों ने इस तर्क, इस समिति के निर्माण का विरोध किया कि वे केवल महासभा को सूचना देने के लिए रिपोर्ट भेजने की आशा कर रहे थे जो सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक क्षेत्रों में अभी आत्मशासित नहीं हुए थे तथा क्या कोई क्षेत्र आत्मशासित है या नहीं इस प्रश्न के निर्णय के निर्धारण का अधिकार महासभा को होना चाहिए ।

इन मुद्दों पर औपनिवेशिक तथा गैर औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपनाई गई कठोर प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप तनावपूर्ण माहौल का जन्म हुआ । अंतत: गैर-औपनिवेशिक शक्तियां, औपनिवेशिक शक्तियों के विरोध के बावजूद महासभा द्वारा बहुत से प्रस्तावों को गैर-औपनिवेशिक क्षेत्रों को अंतर्राष्ट्रीय चिता के मामले के रूप में दावा करते हुए पारित करवाने में सफल रही ।

इन तनावों के बावजूद अपने निर्माण के पहले पंद्रह वर्षों में यूएन बहुत से उपनिवेशों की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने में सफल रहा । इसने लीबिया, इरीट्रिया तथा सोमोलीलैड की संभावित स्वतंत्रता के लिए शर्तों का निर्धारण तथा उनकी स्वतंत्रता को सुरक्षित किया । ग्रेट ब्रिटेन द्वारा फिलीस्तीन पर मेडेट (निषेध) के स्वीकार किए जाने पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने क्षेत्र के विभाजन के संबंध में निर्णय लिया तथा इजराइल नाम के एक स्वतंत्र देश का निर्माण किया ।

इसने डच शासन द्वारा इंडोनेशिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि उपनिवेशों की स्वतंत्रता के पीछे एकमात्र कारण यूएन की नीतियां तथा प्रयास ही नहीं थे अपितु कुछ औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपनाई गई उदारवादी नीतिया इसके लिए उत्तरदायी थीं । उदाहरणार्थ ब्रिटेन ने स्वयं ही पाकिस्तान, भारत, बर्मा, सीलोन, मलाया इत्यादि को स्वतंत्रता प्रदान की ।

इसी प्रकार, फ्रांस ने अल्जीरिया को छोड़कर अपने अधिकतर उपनिवेशों को स्वैच्छिक रूप से स्वतंत्रता प्रदान की । अमेरिका ने भी अपनी इच्छा से फिलीस्तीन को स्वतंत्रता प्रदान की । अमेरिका ने भी अपनी इच्छा से फिलीस्तीन को स्वतंत्रता प्रदान की ।

Essay # 3. वि-उपनिवेशीकरण पर विशेष समिति (Special Committee on Decolonization):

उपनिवेशी देशों तथा लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करने के घोषणापत्र के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से महासभा ने 1961 में एक विशेष समिति का गठन किया । नवंबर 1961 में विशेष समिति के निर्माण को स्वीकार करते समय महासभा ने खेद प्रकट करते हुए कहा कि कुछ अपवादों को छोड़कर घोषणापत्र के प्रावधानों का कार्यान्वयन नहीं किया गया है तथा आश्रित लोगों के विरुद्ध सशस्त्र कार्यवाही तथा दमनात्मक गतिविधियां अभी भी जारी हैं ।

महासभा ने सभी संबंधित राष्ट्रों से घोषणापत्र के कार्यान्वयन तथा विश्वसनीय उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए अवि लब कार्यवाही की मांग की । इसने 17 सदस्यों की एक विशेष समिति का गठन किया । (1962 के अंत तक इसके सदस्यों की संख्या 24 हो गई।)

इसके सदस्यों की नियुक्ति महासभा के अध्यक्ष द्वारा की गई और उनसे आशा की गई कि वह घोषणापत्र के कार्यान्वयन की समीक्षा के साथ-साथ इसके कार्यान्वयन की प्रगति के लिए सुझावों तथा अनुशंसाओं को भी देखेंगे । 1962 में विशेष समिति के कार्य प्रारंभ से पहले इसे तीन अन्य समितियों के कार्य भी सौंपे गए । इसके पश्चात् यह संयुक्त राष्ट्रसंघ की मुख्य चिता निर्भर क्षेत्रों के लोगों की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता से संबंधित मुद्दे बन गए थे ।

विशेष समिति ने प्रशासनिक शक्तियों के बीच सहयोग को सुनिश्चित करने की भी मांग की । इस समिति ने इन क्षेत्रों के निवासियों की भविष्य से संबंधित इच्छाओं को जानने तथा स्थिति के बारे में प्राथमिक सूचना प्राप्त करने के लिए गैर-स्वशासी क्षेत्रों के व मंडल भेजे । समिति ने याचिकाओं पर एक-समिति का गठन किया ।

इसके गठन का कारण गैर-स्वशासी क्षेत्रों के लोगों की शिकायतों पर ध्यान देना तथा इन निवेदनों के आधार पर महासभा को आवश्यक सुझाव देना था । महासभा को दिए जाने वाले सुझावों में समिति इस बात का ध्यान रखती थी कि औपनिवेशिक विवाद वैश्विक शांति के लिए गंभीर चुनौती है तथा पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का अपरिहार्य अधिकार है ।

संभवत: विशेष समिति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि औपनिवेशिक देशों तथा लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करने के घोषणापत्र के पूर्ण कार्यान्वयन के लिए 1970 में महासभा द्वारा इससे संबंधित एक विशेष प्रस्ताव पारित करवाने में सफलता प्राप्त करना था । इस प्रस्ताव के आधार पर महासभा ने औपनिवेशिक लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ-साथ इसकी समाप्ति के लिए औपनिवेशिक शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष में सभी साधनों के उपयोग को मान्यता प्रदान की थी ।

1978 में यूएन की महासभा ने नामीबिया की राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा आत्मनिर्णय के कार्यक्रम की कार्यवाही से संबंधित एक घोषणापत्र स्वीकार किया । घोषणापत्र में दक्षिण अफ्रीका की गैर कानूनी व्यवस्था की समाप्ति के प्रति प्रतिबद्धता आत्मनिर्णय के अधिकार तथा नामीबियाई लोगों की स्वतंत्रता पर बल दिया गया ।

इसने सदस्य राष्ट्रों से स्वैपो को सहायता देने उसे बनाए रखने और इसमें वृद्धि करने के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका के साथ सभी प्रकार के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयोग का प्रतिरोध करने की अपील की । अप्रैल 1979 में 24 सदस्यीय वि-उपनिवेशीकरण की यह समिति यूगोस्लाविया में मिली तथा जिम्बाब्बे एवं नामीबिया के वि-उपनिवेशीकरण के लिए इसने एक अंतिम दस्तावेज को स्वीकार किया ।

इस समिति ने दक्षिणी रोडेशिया के विरुद्ध प्रतिबंधों को बढ़ाने तथा दक्षिणी अफ्रीका के विरुद्ध अनिवार्य प्रतिबंध लगाने की मांग की । महासभा ने अमेरिका के सोमोआ गाम के यूएस प्रशांत के आश्रित वर्जिनिया द्वीप, कैमन द्वीप तथा पूरे कैरीबियाई द्वीप के लिए लड़ाई लड़ने के शृंखलाबद्ध प्रस्तावों की पुन: पुष्टि करते हुए, उनकी स्वतंत्रता तथा आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार किया । महासभा ने ब्रिटेन के आश्रिता के संबंध में भी इसी प्रकार का प्रस्ताव स्वीकार किया ।

इस प्रस्ताव के सुझाव इसके अड़तीस सत्रों में पहले ही स्वीकार किए जा चुके थे । यूएन महासभा ने 1985 में 1960 के औपनिवेशिक देशों तथा लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करने के घोषणापत्र की 25वीं वर्षगांठ को सूचित करने के लिए कार्यवाही का एक अन्य व्यापक प्रस्ताव स्वीकार किया ।

यूएन महासभा ने 1999-2000 को उपनिवेशवाद के उन्मूलन की अतर्राष्ट्रीय शताब्दी के रूप में गुट निरपेक्ष आंदोलन द्वारा अग्रप्रेषित स्वीकार किया । प्रस्ताव ने महासभा के वे अधिवेशन में यूएन महासचिव द्वारा 21वीं शताब्दी को उपनिवेशवाद मुक्त विश्व की घोषणा की एक कार्ययोजना को स्वीकार करने पर बल दिया ।

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