सैंधव सभ्यता का पतन | Decline of Sindh Civilization in Hindi Language.

हडप्पा के प्राचीन अवशेषों के अध्ययन से यह पता चलता है कि अपने अस्तित्व के अन्तिम चरण में यह सभ्यता पतनोन्मुख रही। इस काल के बर्तन निम्नकोटि के है । प्राचीन भव्य भवन छोटे-छोटे कमरों में विभक्त हैं । अन्ततोगत्वा द्वितीय सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य यह सभ्यता पूर्णत विलुप्त हो गयी ।

मार्शल, मैंके, एस॰ आर॰ राव आदि कई विद्वानों के अनुसार इस सभ्यता का विनाश एकमात्र नदी की बाढ़ के कारण हुआ । सैंधव नगर नदियों के तट पर बसे हुए थे जिनमें प्रतिवर्ष बाढ़ आती थी । हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ों की खुदाइयों से पता चलता है कि कई बार इन नगरों का पुनर्निमाण किया गया । प्रत्येक वार भवनों का निर्माण ऊँचे धरातल पर किया जाता था ।

बाढ़ से प्रतिवर्ष लोगों की काफी क्षति होती होगी तथा वे अपना मूल निवास छोड्‌कर अन्यत्र बसने के लिये बाध्य हुए होगें । मार्शल को मोहेनजोदड़ों की खुदाई में विभिन्न स्तरों से बालू की परतें मिली है जो बाढ के कारण ही जमा हुई थी । इसी प्रकार मैंके ने चन्हूदड़ों की खुदाई में बाढ़ के प्रमाण प्राप्त किये हैं ।

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उनका मत है कि बाढ़ की विभीषिका से बचने के लिये यहाँ के निवासी ऊँचे धरातलों पर जाकर बस गये होंगे । एस॰ आर॰ राव को लोथल, भागत्राव में भी भीषण बाढ़ आने के संकेत मिलते है । बाद में उनके समृद्ध बन्दरगाह नष्ट हो गये होंगे तथा भवन ढह गये होगें । बाढ़ के साथ बहाकर लाई गयी मिट्टी ने नदी तल को ऊंचा कर दिया होगा जिससे सकट और बढ गया होगा ।

यद्यपि इस संभावना में इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाढ़ के कारण सिंधु तट पर बसे कुछ प्रमुख नगर नष्ट हो गये तथापि इससे यह बात स्पष्ट नहीं होती कि इस सभ्यता के जो नगर सिन्धु अथवा अन्य नदियों के तटों पर स्थित नहीं थे उनका विनाश कैसे हुआ ।

अतः इस पूरी सभ्यता के विनाश के लिये हमें कुछ अन्य कारणों को भी उत्तरदायी मानना पड़ेगा गार्डेन चाइल्ड, मार्टीमर ह्वीलर, स्टुवर्ट पिगट आदि विद्वानों के अनुसार बाह्य आक्रमण का भी सैन्धव सभ्यता के विनाश में प्रमुख हाथ रहा ।

पुरातत्व सम्बन्धी अवशेषों से यह निश्चित संकेत मिलते है कि मोहेनजोदडों को लूटा गया तथा वहाँ के लोगों की अत्यन्त निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गयी । केवल एक कमरे में 13 मृत व्यक्तियों के अस्थिपंजर प्राप्त हुये हैं । एक गली से कुछ व्यक्तियों के अस्थिपन्जरों के ढेर मिले है जिनमें स्त्रियों तथा बालकों के भी अस्थिपंजर सम्मिलित है ।

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ह्वीलर ने हड़प्पा में अपने उत्खनन के दौरान एक टीले (Mound AB) के चारों ओर सुरक्षा भित्ति (Fortification Wall) का पता लगाया । साथ ही ऋग्वेद में उल्लिखित ‘पुरन्दर’ तथा हरियूपीया’ शब्दों की जानकारी उन्हें प्राप्त हुई । इस आधार पर आर्य आक्रमण का सिद्धान्त गढ़ने में उन्हें सफलता मिली क्योंकि पुरन्दर का अर्थ होता है ‘दुर्गो का विनाशक’ ।

उन्होंने फौरन यह घोषणा कर दी कि सरसरी तौर पर ‘इन्द्र (आर्यों के प्रतीक) सैन्धव पुरी के विनाश के लिये दोषी ठहराया जा सकता है । ‘हरियूपीया’ का तादात्म्य हड़प्पा से स्थापित करते हुए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि आर्यों ने ई॰ पू॰ 1500 के लगभग अचानक आक्रमण करके सैन्धव नगरों को ध्वस्त कर दिया तथा वहाँ के नागरिकों को मार डाला ।

किन्तु अब आर्य आक्रमण का सिद्धान्त कल्पना की उपज सिद्ध हो गया है । मोहेनजोदड के जिन नर-कंकालों का विद्वानों ने उल्लेख किया है वे न तो एक ही स्तर के हैं और न ही वह इस सभ्यता का अन्तिम स्तर है । ये कंकाल ऊपरी स्तर से भी नहीं मिलते । इन पर शारीरिक घाव के चिह्न बहुत कम है ।

कुछ के मस्तक पर कटने के ऐसे निशान है जो अंशतः भर गये हैं । इससे सूचित होता है कि चोट लगने तथा मृत्यु के बीच काफी अन्तराल था । पुनश्च जिस स्तर से ये कंकाल मिलते हैं, वहीं अथवा उसके बाद के स्तरों से युद्ध में प्रयुक्त होने वाली कोई भी सामग्री-बाण, भाला, फरसा, कवच आदि-नहीं प्राप्त होती है ।

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कहीं भी इस बात का प्रमाण नहीं मिलता कि इतने बड़े पैमाने पर आक्रमण हुआ था । कुछ विद्वानों के अनुसार इनमें से अधिकांश की मृत्यु प्लेग, मलेरिया जैसी बीमारियों से हुई जान पड़ती है । अतः आयी द्वारा सैन्धववासियों पर आक्रमण कर उनकी सामूहिक हत्या किये जाने की बात पुष्ट नहीं होती ।

जहाँ तक ‘हरियूपीया’ के हड़प्पा से तादात्म्य का प्रश्न है, इसके लिये दोनों शब्दों में मात्र ध्वनिसाम्य के अतिरिक्त अन्य कोई आधार नहीं है । अतः अब आर्यों को सैन्धव सभ्यता के विनाश के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता ।

अमेरिकी पुराविद् रचर्ड एच॰ मीडो ने भी स्वीकार किया है कि 1921 ई॰ से आज तक मोहनजोदड़ो तथा हडप्पा से एक भी ऐसा साक्ष्य नहीं मिलता जिससे सिद्ध हो सके कि ये नगर आक्रमणकारियों द्वारा विनष्ट किये गये थे । बाढ़ तथा बाह्य आक्रमणों के साथ-साथ विद्वानों ने सैन्धव सभ्यता के विनाश के पीछे कुछ अन्य कारण भी खोज निकाले है ।

इनका सारांश इस प्रकार है:

(1) आरेल स्टोन, ए॰ एन॰ घोष आदि विद्वानों का मत है कि सैन्धव सभ्यता का विनाश जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ । इनके अनुसार सिन्ध, राजस्थान, पंजाब आदि में पहले काफी पानी बरसता था तथा इन क्षेत्रों में घने वन स्थित थे, धीरे- धीरे ईंट पकाने तथा मकान बनाने के लिये जंगलों की कटाई की गयी तथा जमीन के ऊपर से घास की छाया समाप्त होती गयी ।

इस कारण पानी बरसना काफी कम हो गया होगा तथा इससे कृषि की पैदावार घट गयी होगी । बड़े पैमाने पर वनों के कट जाने से सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हुई तथा यहाँ के निवासी भुखमरा के शिकार हो गये । जलवायु परिवर्तन से नदियों भी सुख गयी तथा सैन्धव नगरों का विनाश हो गया ।

(2) भूतत्व वैज्ञानिक एम॰ आर॰ साहनी का विचार है कि सैन्धव नगरों का विनाश भारी जलप्लावन के कारण हुआ । जलप्लावन के कारण जमीन दलदल तथा कीचड़ युक्त हो गयी यातायात बाधित हुआ एवं पैदावार घट गयी । इस कारण लोग अपना घर छोड़कर दूसरे स्थान पर जा बसे तथा क्रमशः सभ्यता का विनाश हो गया ।

इसी प्रकार एच॰ टी॰ लैग्ब्रिक तथा माधोस्वरूप वत्स जैसे विद्वान् सित्र तथा अन्य नदियों के मार्ग परिवर्तन को इल सभ्यता के विनाश का कारण मानते हैं। वत्स के अनुसार हड़प्पा नगर का विनाश रावी नदी के मार्ग परिवर्तन के कारण संभव हुआ । जी॰ एफ॰ देल्स के अनुसार कालीबंगन का विनाश घग्गर तथा उसकी सहायक नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण हुआ । नदियों द्वारा इस प्रकार मार्ग बदल देने से पीने तथा खेती के लिये पानी का अभाव हो गया और जलीय व्यापार ठप्प पड़ गया जो अन्तत सैन्धव नगरों के पतन में सहायक हुआ ।

(3) के॰ यू॰ आर॰ कनेडी ने मोहेनजोदड़ों से प्राप्त नर कंकालों का परीक्षण करने के पश्चात् यह निष्कर्ष दिया है कि सैन्धव निवासी मलोरिया महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हुए । इन आकस्मिक बीमारियों ने उनके जीवन का अन्त कर दिया होगा जिसके परिणामस्वरूप सैन्धव सभ्यता का पतन हो गया ।

(4) कुछ विद्वान् आर्थिक दुर्व्यवस्था को सिन्धु सभ्यता के पतन का कारण निरुपित करते है । सैन्धव नगरों की समृद्धि का मुख्य आधार उनका पश्चिमी एशिया, विशेषकर मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता के साथ व्यापार था । यह व्यापार 1750 ई॰ पू॰ के लगभग अचानक समाप्त हो गया ।

इस कारण सैन्धव सभ्यता का नगरीय स्वरूप भी समाप्त हो गया तथा उसमें ग्रामीण संस्कृति के चिह्न स्पष्ट होने लगे । ह्वीलर ने इस सभ्यता के उत्तर काल में पतन के लक्षणों का निरूपण करते हुए बताया है कि प्राचीन बड़े भवन छोटे-छोटे कमरों में विभक्त हो गये तथा मकानों को बनाने के लिये पुरानी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा ।

(5) एम॰ दिमित्रियेव नामक रूसी विद्वान् के अनुसार सैन्धव सभ्यता का विनाश पर्यावरण में अचानक होने वाले किसी भौतिक-रासायनिक विस्फोट ‘अदृश्य गाज’ के माध्यम से हुआ । इस ‘अदृश्य गाज’ से निकली हुई उर्जा तथा ताप 15000 डिग्री सेल्सियस के लगभग मानी जाती है जिससे दूर-दूर तक सब कुछ विनष्ट हो जाता है । यह पर्यावरण को पूर्णतया विषाक्त कर बाबू दूषित कर देता है ।

मोहेनजोदड़ों क्षेत्र में प्राप्त नरकंकालों की दशा तथा भीषण अग्नि से पिघले पाषाण अवशेषों से दिमित्रियेव के निष्कर्ष का समर्थन भी होता है । उन्होंने इस संबंध में महाभारत में उल्लिखित इसी प्रकार के विस्फोट की और संकेत किया है जो मोहेनजोदड़ों के समीप हुआ था ।

इस प्रकार इन विभिन्न कारणों ने मिलकर सैन्धव सभ्यता को समाप्त कर दिया । स्पष्ट है कि इसका अन्त अचानक न होकर एक दीर्घकालीन प्रक्रिया का परिणाम था । अतः इसके लिये किसी कारण विशेष को उत्तरदायी ठहराना समीचीन नहीं होगा ।

बी॰ बी॰ लाल के अनुसार जलवायु परिवर्तन, प्रदूषित वातावरण तथा व्यापार में भारी गिरावट के फलस्वरूप इस सभ्यता की समृद्धि समाप्त हो गयी तथा नगरीकरण का अन्त हुआ । उल्लेखनीय है कि अभी हाल में गुजरात के कच्छ तथा अन्य भागों में आये भूकम्प से जो भारी तबाही हुई है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि कुछ क्षेत्रों में समृद्ध सैन्धव नगरों का विनाश भूकम्प के प्रकोप से भी हुआ होगा ।

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