सैंधव सभ्यता: आद्य इतिहास तथा उत्पत्ति | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सैंधव सभ्यता का आद्य इतिहास (Early History of Sindhu Civilization) 2. सैंधव सभ्यता की उत्पत्ति (Origin of Sindhu Civilization) 3.  धर्म और धार्मिक विश्वास (Religion and Religious Beliefs) 4. कला तथा स्थापत्य (Art and Architecture) and Other Details.

Contents:

  1. सैंधव सभ्यता का आद्य इतिहास (Early History of Sindhu Civilization)
  2. सैंधव सभ्यता की उत्पत्ति (Origin of Sindhu Civilization)
  3. सैंधव निवासियों का  धर्म और धार्मिक विश्वास (Religion and Religious Beliefs of People in Sindh)
  4. सैंधव सभ्यता के  कला तथा स्थापत्य (Art and Architecture of Sindhu Civilization)
  5. सैंधव सभ्यता के मुद्रायें (Currencies and Jewelry of Sindh Civilization)
  6. सैंधव सभ्यता के मृद्‌भाण्ड (Soil Conservation during Sindh Civilisation)
  7. सैंधव सभ्यता के राजनैतिक संगठन (Political Organization during Sindhu Civilization)
  8. सैंधव सभ्यता के बौद्धिक-पक्ष (Intellectual Side of Sindhu Civilization)
  9. सैंधव सभ्यता की देन (Contribution of Sindhu Civilization)


1. सैंधव सभ्यता का आद्य इतिहास (Early History of Sindhu Civilization):

पाषाण युग की समाप्ति के बाद धातुओं के प्रयोग का युग प्रारम्भ हुआ । सबसे पहले मनुष्य ने ताँबे का प्रयोग किया, फिर काँसा तथा अन्तत: लोहा प्रयोग में लाया गया । किन्तु पाषाण उपकरणों का प्रयोग पूर्णतया बन्द नहीं हुआ तथा लम्बे समय तक मनुष्य ने ताँबे तथा पत्थर के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग किया ।

ADVERTISEMENTS:

भारत के विभिन्न भागों में कई ऐसी संस्कृतियों प्रकाश में आई हैं जिनमें पत्थर तथा ताँवे का उपयोग साथ-साथ दिखाई देता है । इन्हें ताम्र पाषाणिक (Chalcolithic) कहा गया है । इनकी कालावधि अत्यन्त विस्तृत है । ये प्राक् हड़प्पा, हड़प्पा तथा उत्तर हड़प्पा काल तक फैली हुई है ।

हड़प्पा अथवा सिन्धु घाटी की मध्यता के पूर्व दक्षिणी अफगानिस्तान के मुण्डीकाक तथा देह मोरासी घुण्डई, बलूचिस्तान में मेहरगढ, नाल, स्याह दम्ब, सादात, किले गुल मुहम्मद, पेरिआनो घुण्डई, कुल्ली, मेही, सिन्ध में कोटदीजी, आम्री, पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में सराय खोला, जलालीपुर, राजस्थान में कालीबंगन तथा हरियाणा के बनावली आदि पुरास्थलों के उत्खनन से ताम्र पाषाणिक संस्कृतियों के प्रमाण प्राप्त होते है ।

बलूचिस्तान तथा सिन्धु क्षेत्र में इन संस्कृतियों के लोग, पाण्डु (Buff) तथा लाल रंग के मृदभाण्ड (Buff and Red Wares) प्रयोग में लाते थे । लाल रंग के भाण्डों का सम्बन्ध दक्षिणी क्षेत्र से माना गया है । पहली संस्कृति को ‘जाब’ (Zhob) नाम दिया है तथा दूसरी अर्थात् पाण्डु वर्णी संस्कृति का विभाजन बेटा,  कुली तथा अम्रिनाल संस्कृतियों के रूप में किया गया है ।

किन्तु कुछ विद्वान् इससे सहमत नहीं है क्योंकि लाल भाण्डों वाले क्षेत्र में पाण्डु भाण्ड तथा पाण्डु भाण्डों वाले क्षेत्र में लाल रंग के भाण्ड भी मिलते है । इन संस्कृतियों को प्राग्सैन्धव, प्राक्‌हडप्पा अथवा प्रारम्भिक हड़प्पा भी कहा जाता है । प्राक् सैन्धव संस्कृतियों के लोग पत्थर के साथ-साथ तांबे के उपकरणों का प्रयोग करते थे । पाषाण फलकों (Flakes) की अधिकता है ।

ADVERTISEMENTS:

ताँबे के उपकरणों में कुल्हाड़ियाँ, चाकू, चूड़ियाँ, मुद्रिकायें, कंकण मिलते हैं । बहुमूल्य पत्थरों के बने हुए मनके मिलते है । विविध प्रकार के हाथ एवं चाक पर बनाये गये मृद्‌भाण्ड मिलते हैं । ये मुख्यत लाल और पाए (हल्के गुलाबी) रंग के हैं । कुछ बर्तनों पर काले रंग की चित्रकारियों मिलती है । इस संस्कृति के लोग कृषक और पशुचारी थे ।

वे गेहूं, जौ, धान, मसूर, उड़द, मटर आदि की खेती करते थे तथा गाय, वैल, भेड़, बकरी, सूअर, भैंस आदि का पालन एवं चारण करते थे । उनके मकान मिट्‌टी तथा घास-फूस से बनते थे । कहीं-कहीं कच्ची ईटों का प्रयोग किया जाता था । कुछ स्थलों- कोटदीजी, कालीबंगन आदि में अनगढ़ पत्थरों के प्रयोग तथा किलेवन्दी के भी साक्ष्य मिलते हैं ।

कुल्ली, जाब आदि से प्राप्त नारी मूर्तियाँ माता देवी की पूजा का संकेत देती हैं । शवाधान में दाहकर्म एवं समाधीकरण दोनों विधियों अपनाई जाती थी । अस्थि कलशों में औजार, उपकरण, आभूषण आदि मिलते है । इससे किसी प्रकार के लोकोत्तर जीवन में विश्वास की झलक मिलती है ।

सिन्ध, पंजाब, राजस्थान आदि की ग्रामीण संस्कृतियाँ अत्यन्त विकसित थीं । कोटदीजी संस्कृति के संबंध में यह दिखाई देता है कि यहां सुनियोजित भवन, सुदृढ़ सुरक्षा दीवार तथा नालियों की उत्तम व्यवस्था थी । समृद्ध ग्रामीण आधार पर ही कालान्तर में नगरीय सैन्धव सभ्यता का विकास हुआ ।


ADVERTISEMENTS:

2. सैंधव सभ्यता की उत्पत्ति (Origin of Sindhu Civilization):

आश्चर्य एवं खेद का विषय है कि इतनी विस्तृत सभ्यता होने के बावजूद भी इस सभ्यता के उद्‌भव और विकास के सम्बन्ध में विद्वानों में भारी मतभेद है । अभी तक की खोजों से इस प्रश्न पर कोई भी प्रकाश नहीं पड़ सका है, कारण कि इस सभ्यता के अवशेष जहाँ कहीं भी मिले है अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में ही मिले है ।

सर जॉन मार्शल, गार्डन चाइल्ड, सर मार्टीमर ह्वीलर आदि पुराविदों की मान्यता है कि सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से हुई । इन विद्वानों के अनुसार सुमेरियन सभ्यता सैन्धव सभ्यता से प्राचीनतर थी ।

इन दोनों सभ्यताओं में कुछ समान विशेषतायें देखने को मिलती है जो इस प्रकार है:

(i) दोनों नगरीय (Urban) सभ्यतायें है ।

(ii) दोनों के निवासी कांसे तथा ताँबे के साथ-साथ पाषाण के लघु उपकरणों का प्रयोग करते थे ।

(iii) दोनों के भवन कच्ची तथा पक्की ईंटों से बनाये गये थे ।

(iv) दोनों सभ्यताओं के लोग चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते थे ।

(v) दोनों को लिपि का ज्ञान था ।

उपर्युक्त समानताओं के आधार पर ह्वीलर ने सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश (Colony) बताया है । किन्तु गहराई से विचार करने पर यह मत तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता । कारण कि दोनों सभ्यताओं में इन बाह्य समानताओं के होते हुए भी कुछ मौलिक विषमतायें भी हैं जिनकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।

सैन्धव सभ्यता की नगर-योजना सुमेरियन सभ्यता की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित है । दोनों के बर्तन, उपकरण, मूर्तियाँ, मुहरें आदि आकार-प्रकार में काफी भिन्न है । यह सही है कि दोनों ही सभ्यताओं में लिपि का प्रचलन था । किन्तु दोनों ही लिपियाँ परस्पर भिन्न हैं ।

जहां सुमेरियन लिपि में 900 अक्षर हैं, वहाँ सैन्धव लिपि में केवल 400 अक्षर मिलते हैं । इन विभिन्नताओं के कारण दोनों सभ्यताओं को समान मानना समीचीन नहीं होगा । पुनश्च यह मत उस समय प्रतिपादित किया गया जबकि भारतीय उपमहाद्वीप में प्राक् हड्प्पाई सांस्कृतिक परिवेश का ज्ञान हमें नहीं था ।

किन्तु अब इस क्षेत्र में प्राक् हड़प्पाई पुरास्थलों से प्रचुर सामग्रियों के मिल जाने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि सैन्धव सभ्यता की जड़ें भारत भूमि में ही जमी थीं और इसके लिये किसी बाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीं थी ।

यह पूर्वगामी संस्कृतियों के क्रमिक विकास का परिणाम है जिसके तार मेहरगढ के नवपाषाणिक स्थल से जुड़े हैं । अतः हम सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन उपनिवेशीकरण का परिणाम नहीं कह सकते है । राव के अनुसार सिन्धु सभ्यता के विकास का श्रेय उसी संस्कृति को दिया जा सकता है जो कालक्रम की दृष्टि से उससे प्राचीन हो तथा उसके साथ-साथ विद्यमान रही हो, जिसमें परिवर्तन के क्रमिक चरण स्पष्ट ही तथा वे तत्व हो जो सैन्धव सभ्यता को विशिष्टता प्रदान करते है ।

प्रो॰ टी॰ एन॰ रामचन्द्रन, के॰ एन॰ शास्त्री, पुसाल्कर, एस॰ आर॰ राव आदि विद्वान् वैदिक आर्यों को ही इस सभ्यता का निर्माता मानते हैं । परन्तु अनेक विद्वान् इसे स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनके अनुसार दोनों ही सभ्यताओं के रीति-रिवाजों, धार्मिक तथा आर्थिक परम्पराओं में पर्याप्त विभिन्नतायें दिखाई देती हैं ।

सैंधव तथा वैदिक सभ्यताओं के मुख्य अन्तर इस प्रकार है:

(a) वैदिक आर्यों की सभ्यता ग्रामीण एवं कृषि प्रधान थी जबकि सैंधव सभ्यता नगरीय तथा व्यापार-व्यवसाय प्रधान थी । आर्यों के मकान घास-फूस तथा बांस की सहायता से बनते थे किन्तु सैन्धव लोग इसके लिये पक्की ईंटों का प्रयोग करते थे ।

(b) सैंधव सभ्यता के निर्माता पाषाण तथा काँसे के उपकरणों का प्रयोग करते थे और लोहे से परिचित नहीं थे । इसके विपरीत वैदिक आयों को लोहे का ज्ञान था ।

(c) वैदिक आर्य इन्द्र, वरुण आदि देवताओं के उपासक थे वे यज्ञ करते थे तथा लिहर-पूजा और मूर्ति-पूजा के विरोधी थे । परन्तु सैधव लोग मुख्य रुप ले मातादेवी तथा शिव के पूजक थे, लिड्गों की पूजा करते थे तथा मूर्ति-पूजा के समर्थक थे ।

(d) आर्यों का प्रिय पशु अश्व था जिसकी सहायता से वे युद्धों में विजय प्राप्त करते थे । किन्तु सैंधव लोग अश्व से परिचित नहीं थे । सिन्धु सभ्यता के लोग व्याघ्र तथा हाथी से भी परिचित थे क्योंकि उनकी मुद्राओं पर इन पशुओं का अंकन हुआ है । इसके विपरीत वैदिक आर्यों को इनका ज्ञान नहीं थी ।

(e) आर्यों के धार्मिक जीवन में गाय की महत्ता थी । इसे ‘अघ्न्या’ कहा गया है । इसके विपरीत सैधव लोग वृषभ को पवित्र एवं पूज्य मानते थे ।

(f) सैन्धव निवासियों के पास अपनी एक लिपि थी, जबकि आर्य लिपि से परिचित नहीं लगते । उनकी शिक्षा प्रणाली मौखिक थी ।

यह प्रस्तावना नितान्त तथ्यहीन है कि सिन्धु सभ्यता नागर एवं साक्षर थी तथा वैदिक सभ्यता ग्रामीण, पशुचारी एवं निरक्षर । डा॰ जी॰ सी॰ पाण्डे ने हाल ही में प्रकाशित अपने ग्रन्थ वैदिक संस्कृति में इस बात का उल्लेख किया है कि ऋक्‌संहिता में कम से कम 85 बार ‘पुर’ का उल्लेख हुआ है जबकि ग्राम मात्र नौ बार तथा ‘ग्राम्य’ एक बार आता है । “न तो हड़प्पा सभ्यता मात्र नागरिक थी, न वैदिक सभ्यता मात्र पशुपालक-यायावरीय । दोनों ही सभ्यतायें देश-काल में विस्तार और प्राविधिक विकास की दृष्टि से समान है । स्थूल रूप से उनमें एक ही विशाल सभ्यता के विविध पक्ष, प्रदेश या अवस्थायें देखी जा सकती हैं” ।

वेदों में लेखन परम्परा के अभाव का कारण यह नहीं है कि आर्य लिपि से अपरिचित थे । इतना विस्तृत गद्य, व्याकरण, मानक भाषा, बिना लिपि के संभव नहीं है । वेद रचना निरक्षर समाज में नहीं हुई । लिपि के अभाव का कारण यह है कि रहस्यात्मक परमज्ञान के लिये लेखन उपयोगी न होकर वाधक माना गया है । जहाँ तक मूर्ति पूजा, लिंग पूजा, योनि पूजा आदि का सम्बन्ध है, हड़प्पा सभ्यता में इनका प्रचलन भी असंदिग्ध रूप से नहीं सिद्ध किया जा सकता ।

उल्लेखनीय है कि लोथल, कालीबंगन आदि कुछ सैन्धव स्थलों से यज्ञीय वैदिया प्राप्त होती है । इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से मिट्‌टी की बनी घोड़े की आकृति, लोथल से घोड़े की तीन मृण्मूर्तिया तथा सुरकोटड़ा से घोड़े की हड्डियाँ प्राप्त हो चुकी हैं ।

लोथल के घोड़े का दायाँ ऊपरी चौघड् (Upper Molar) भी मिलता है जिसके दांत बिल्कुल आधुनिक अश्व के दांत जैसे ही हैं । समुद्री यात्रा, जलयान आदि से संबंधित विवरण यह सिद्ध करते है कि इस सभ्यता में नगरीय तत्व पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थे । वैदिक साहित्य में जो भौतिक सभ्यता मिलती है वही सिख में भी है ।

सैधव सभ्यता की खुदाई से भिन्न-भिन्न जातियों के अस्थिपंजर प्राप्त होते हैं । इनमें प्रोटो- आस्ट्रलायड (काकेशियन) भूमध्यसागरीय, मंगोलियन तथा अल्पाइन-इन चार जातियों के अस्थिपंजर है । मोहेनजोदड़ों के निवासी अधिकांशत भूमध्य-सागरीय थे । अधिकांश विद्वानों की धारणा है कि सैंधव मध्यता के निर्माता द्रविड़ भाषी लोग थे ।

सुनीति कुमार चटर्जी ने भाषाविज्ञान के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ऋग्वेद में जिन दास-दस्युओं का उल्लेख हुआ है वे द्रविड़ भाषी थे और उन्हें ही सिन्ध सभ्यता के निर्माण का श्रेय दिया जाना चाहिये । किन्तु यह निष्कर्ष भी सदिग्ध है । यदि द्रविड सैन्धव सभ्यता के नाल होते तो इस सभ्यता का कोई अवशेष द्रविड़ क्षेत्र से अवश्य मिलता । सैन्धव सभ्यता के विस्तार वाले भाग से ब्राहुई भाषा के साक्ष्य नहीं मिलते । बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा को द्रविड़ भाषा के साथ संबद्ध करने का कोई पुष्ट आधार नहीं है ।

स्ट्रअर्ट पिग्गट, अल्चिन, स्ट्रअर्ट पिग्गट, अल्चिन, फेयरसर्विस, जे॰ एफ॰ देल्स आदि कुछ पुराविदों का विचार है कि सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति दक्षिणी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध तथा पंजाब (पाकिस्तान) और उत्तरी राजस्थान (भारत) के क्षेत्रों में इसके पूर्व विकसित होने वाली ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों-मुंडीगाक, मोरासी घुंडई, जाब, क्वेटा, कुल्ली, नाल, आमरी, कोटदीजी, हडप्पा तथा कालीबगँन से हुई ।

इन ग्रामीण संस्कृतियों के लोग कृषि कर्म तथा पशुपालन करते थे और विविध अलंकरणों वाले मिट्टी के बर्तन तैयार करते थे । खुदाई से पशु तथा नारी मूर्तियों भी मिलती है । अनुमान किया जा सकता है कि बलूचिस्तान के लोग मातादेवी की पूजा तथा लिड्गोपासना भी करते रहें होंगे । उल्लेखनीय है कि इन संस्कृतियों के पात्रों पर प्राप्त कुछ चित्रकारियाँ, जैसे पीपल की पत्ती, हिरण, त्रिभुज आदि सैन्धव पात्रों पर भी प्राप्त होती है ।

कोटदीजी, कालीबंगन, बनावली तथा हड़प्पा की खुदाइयों में प्राप्त शाक सैन्धवकालीन स्तर स्पष्टतः नगरीकरण के प्रमाण प्रस्तुत करते है । नगर नियोजन, उत्तर-दक्षिण दिशा में निर्मित भवन, बस्ती का दुर्गीकरण, गढ़ी तथा निचले नगर की अवधारणा, पकी ईटों का प्रयोग, अन्नागारों का निर्माण आदि के साक्ष्य मिलते है । बनावली के अवशेषों से प्रौढ़ हड़प्पन विकास कम और अधिक स्पष्ट हो जाता है । प्रारम्भ से ही यहाँ के निवासी अपने मकान सीधी दिशा में बनाते थे । यही की खुदाई में पत्थर का एक बटखरा भी मिलता है ।

अतः इतनी अधिक सामग्रियों के मिल जाने के वाद सैन्धव सभ्यता के लिए किसी पाश्चात्य एशियाई प्रेरणा को ढूँढने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती तथा यह स्पष्ट हो जाता है कि इस सभ्यता की जड़ें भारतीय उपमहाद्वीप में ही जमी थी ।

नगर का विकास सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना सम्भव नहीं है और यह आधार निश्चित रूप से सिन्ध, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान की समृद्ध ग्रामीण संस्कृतियों ने प्रदान किया था । सम्भव है भविष्य की खुदाइयों में इन क्षेत्रों से और अधिक स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हो जाय । अतः इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता का विकास इसी क्षेत्र की पूर्ववर्ती सभ्यताओं से हुआ है ।

एक नवीन खोज, जिसके जनक पुरातत्ववेत्ता प्रो॰ मीडो हैं, में दावा किया गया है कि सैन्धव सभ्यता को प्राचीनतम मानना क भ्रान्ति है । भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता सरस्वती नदी के तट पर सिन्धु सभ्यता के पूर्व (लगभग 3300 ई॰ पू॰) फली-फूली तथा विकसित हुई ।

अब वेदों में वर्णित सरस्वती का अस्तित्व उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर प्रमाणित हो चुका है । इस नदी का बहाव उस समय हिमालय से लेकर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक था । राखीगढ़ी के उत्खनन से इस धारणा को बल मिला है ।


3. सैंधव निवासियों का  धर्म और धार्मिक विश्वास (Religion and Religious Beliefs of People in Sindh):

सैंधव नगरों की खुदाई में किसी भी मंदिर, समाधि, आदि के अवशेष नहीं मिलते । कालीबंगन की खुदाई में एक घर से यज्ञवेदी के अवशेष मिले है । सैन्धव निवासियों के धर्म के ज्ञान के लिये हमें मुख्य रुप से मुद्राओं, छोटी-छोटी मूर्तियों तथा पाषाण-प्रतिमाओं के आदि के प्रमाण पर ही निर्भर करना है । इनसे सैन्धव निवासियों के धर्म तथा धार्मिक विश्वासों के ऊपर कुछ प्रकाश पड़ता है ।

सर जॉन मार्शल के अनुसार मातादेवी के सम्प्रदाय का सैंधव संस्कृति में प्रमुख स्थान था । हड़प्पा, मोहेनजोदड़ो चन्हुदड़ों आदि स्थलों से मिट्‌टी की बहुसंख्यक नारी मूर्तियां मिलती है तथा मुहरों के ऊपर भी नारी आकृतियों का अंकन विविध रूपों में प्राप्त होता है ।

इनके सिर पर पखे के समान फैला हुआ आभरण है, लड़ियों वाला हार, चूड़ियों, मेखला, कर्णफूल आदि पहने हुए है । शिराधरण के दोनों ओर दीपक जैसी आकृतियाँ बनी है जिनमें धूँए के चिह्न दिखाई देते है । मैके का विचार है कि इनमें तेलबत्ती डालकर इनका प्रयोग दीपक की तरह किया गया होगा । मोहेनजोदड़ो से एक स्त्री की मूर्ति मिली है जिसे देवी कहा गया है ।

देवी के सिर पर पंखे के समान फैला हुआ एक आभरण है तथा वह करधनी, हार, कर्णफूल, कण्ठहार आदि आभूषण पहने हुए हैं । मैके को कुछ ऐसी मूर्तियाँ मिली है जिन पर धुऐं के चिह्न दिखाई देते है । सम्भव है कि देवी को प्रसन्न करने के लिये उसके सामने धूप आदि सुगन्धित द्रव्य जलाये जाते हों । व्यंकटेश महोदय ने इन मूर्तियों की पहचान दक्षिणी भारत से प्राप्त ‘दीपलक्ष्मी’ की मूर्तियों से की है । मार्शल ने इसे पृथ्वी-देवी (Earth-Goddess) कहा है ।

अधिकांश विद्वान् मिट्‌टी की बनी नारी मूर्तियों की पहचान मातादेवी की मूर्तियों से करते है । हड़प्पा से मिली कुछ मुद्राओं पर विशेष प्रकार की चित्रकारियों दिखाई देती है । एक मुद्रा पर ऊपर की ओर पैर तथा नीचे की ओर सिर किये हुए एक नग्न नारी का चित्र है । देवी के पैर फैले हुए हैं तथा उसके गर्भ से एक पौधा निकल रहा है ।

पृष्ठ भाग पर एक तरफ एक हाथ ऊपर उठाये हुए बैठी हुई एक नारी का चित्र तथा दूसरी तरफ हंसिये के प्रकार का चाकू लिये हुए खड़ा आदमी चित्रित किया गया है । स्पष्टतः यह मानव बलि का दृश्य है । मार्शल का विचार है कि उस समय देवी को प्रसन्न करने के लिये मनुष्यों की बलि का विधान था । एक दूसरी मुद्रा पर पीपल के वृक्ष की दो शाखाओं के बीच एक स्त्री का चित्र है । पेड़ के नीचे एक मनुष्य एक बकरा लिये हुए खड़ा है । नीचे मनुष्यों की एक भीड़ का चित्रण है ।

इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- (1) बकरे की बलि मातृ-देवी की उपासना से सम्बन्धित थी । (2) सम्भवत: पीपल के पेड़ की उपासना मातृ-देवी की उपासना से सम्बद्ध रही हो । मुहरों पर अंकित कुछ नारी मूर्तियों में उनकी गोद में बच्चा दिखाया गया है जिससे उनका मातृत्व सूचित होता है ।

बलूचिस्थान क्षेत्र से प्राप्त कुछ नारी मृण्मूर्तियाँ रौद्र रूप की भी है । इनसे सूचित होता है कि देवी के सौम्य तथा रौद्र दोनों ही रूपों की कल्पना की गयी थी । उल्लेखनीय है कि भारत के बाहर मेसोपोटामिया, मिस्र, एशिया माइनर, सीरिया, फिलिस्तीन, कीट आदि के पुरास्थलों से भी बहुसंख्यक नारी मूर्तियों प्राप्त होती है जो इस बात का प्रमाण है कि मातादेवी की उपासना अत्यन्त प्राचीन काल में संसार के एक बड़े भाग में की जाती थी ।

वैदिक युग में भी हम ‘पृथिवि’, ‘अदिति’, ‘उषा’ आदि नाम से देवी को प्रतिष्ठित पाते है । अत: सैन्धव सभ्यता में मातादेवी की पूजा का व्यापक प्रचलन कोई आश्चर्य की वात नहीं है । ह्वीलर के अनुसार मातृदेवी का सम्प्रदाय राजधर्म नहीं था, वरन् यह एक पारिवारिक सम्प्रदाय था ।

मातृदेवी की उपासना के साथ-साथ हमें एक पुरुष देवता की उपासना का भी प्रमाण मिलता है । मोहेनजीदड़ों से प्राप्त एक मुद्रा के ऊपर प्रजासन की मुद्रा में विराजमान एक योगी का चित्र मिला है । पुरुष की दायीं ओर चीता और हाथी तथा बाई ओर गंडा और भैंसा चित्रित किये गये हैं ।

सिर पर एक त्रिशूल जैसा आभूषण है । इसके तीन मुख है । मार्शल ने इस देवता को ‘रुद्र शिव’ से सम्बंधित किया है जिसे त्रिमुख, पशुपति, योगेश्वर अथवा महायोगी कहा गया है । शिव से सम्बधित दो मुद्रायें मिलती हैं । एक में देवता चौकी पर योगासन में विराजमान है, हाथ दोनों ओर फैलाये है जिनमें चूड़ियों है ।

सिर पर सींगों के बीच से फूल अथवा पत्तियों निकलती हुई दिखाई गयी है । देवता के तीन मुख- एक बीच में तथ दो बगल में । दूसरी मुद्रा भी इंगयुक्त है तथा उसके सिर से वनस्पति निकलती हुई दिखाई गयी है, किन्तु यह एकमुखी है और भूमि पर बेठी हुई है ।

स्पष्ट है कि यह वनस्पति अथवा उर्वरता का देवता है । यह भी शिव का ही रूप है जो प्रकृति की उत्पादन-शक्ति के प्रतीक माने जाते है । एक अन्य मुद्रा पर बनी आकृति में आधा भाग मनुष्य तथा आधा बाघ का है । यह भी मृगयुक्त है तथा बीच से फल और पत्तियों निकल रही है ।

यह भी शिव का आदि रूप प्रतीत होता है । हड़प्पा से भी प्राप्त दो मुद्राओं पर देवता जैसी कोई आकृति है जिसके सिर पर तीन पर्खो का आभरण मिलता है । यहीं की एक मुद्रा के बीच कोई मनुष्य विराजमान है, साथ भी कुछ पशु दिखाये गये है । पेड़ पर चने मचान पर एक आदमी बैठा है ।

मुद्रा के दूसरी ओर त्रिशूल के सामने खड़ा बैल दिखाया गया है । ये सभी आकृतियाँ शिव के साथ संबद्ध की जा सकती । कहा जा सकता है कि मातादेवी के ही समान शिव की पूजा का भी व्यापक प्रचलन सैन्धव सभ्यता में रहा होगा । शिव की पूजा मूर्तियों तथा लिंगों द्वारा होती थी ।

खुदाई में सूच्याकार तथा वर्तुलाकार लिड्ग मिले है । ये पत्थर, सीप, काँच की मिट्‌टी, पेस्ट आदि के बने है तथा भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के है । बड़े लिंग पत्थर के है जो इस बात के प्रमाण है कि भारत में प्रागैतिहासिक काल से ही लिंग पूजा का प्रचलन था । ऐसा प्रतीत होता है कि छोटे लिंगों को सैन्धव निवासी सदैव अपने पास रखते थे । कुछ में छेद भी मिलता है ।

सम्भव है इन्हें ताबीज रुप में पहना जाता हो । इसी प्रकार पत्थर, काँच की मिट्‌टी, शंख, कार्नीलियन आदि के बने बहुसंख्यक चक्र या छल्ले मिले है । ये बड़े तथा छोटे दोनों आकार के है । विद्वानों ने इनकी पहचान ‘योनि’ से करते हुए उस काल में योनिपूजा के प्रचलन का निष्कर्ष निकाला है ।

उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक काल में तक्षशिला, अहिच्छत्र, मथुरा, रोपड़, पाटलिपुत्र आदि से अनेक पत्थर के चक्र मिले है । कुछ के ऊपर वृक्षों अथवा पशुओं के साथ-साथ नग्नावस्था में नारी की आकृतियाँ चित्रित की गयी है । इनसे सूचित होता है कि इन चक्रों का संबंध मातादेवी की उपासना से ही था ।

मातृदेवी तथा शिव की पूजा के अतिरिक्त सैंधव निवासी विविध प्रकार के पशुओं, पक्षियों, वृक्षों आदि की उपासना करते थे । पशुओं में गैंडा, बैल, चीता, हाथी, भैंसा, कूबड़दार बैल आदि प्रमुख है । कुछ पशुओं को महान् शक्ति सम्पन्न होने के कारण पूजा जाता था । कालान्तर में हम देखते हैं कि इनमें से अधिकांश पशुओं का संबन्ध विभिन्न देवी-देवताओं से मान लिया गया-जैसे भैंसा यम का तथा बेल शिव का वाहन माना गया ।

संभव है इस प्रकार की कोई कल्पना सैन्धव धर्म में भी विद्यमान रही हो । फाख्ता एक पवित्र पक्षी माना जाता था । वृक्षों में पीपल पवित्र वक्ष था । मुद्राओं पर इसी का सबसे अधिक अंकन मिलता है । मृदभाण्डों पर भी पीपल की पत्तियों का चित्रण किया गया है । एक मुद्रा पर दो एकशृंगी पशुओं के संयुक्त सिर से पीपल की शाखा को निकलते हुए दिखाया गया है ।

मार्शल का विचार है कि संभवतः एकशृंगी पशु पीपल देवता का वाहन माना जाता था । अन्य वृक्षों में नीम, खजूर, बबूल आदि का भी अंकन प्राप्त होता है । संभव है इनका भी कोई न कोई धार्मिक महत्व रहा हो। इसके अतिरिक्त वे जल, स्वस्तिक तथा चक्र को भी पवित्र मानते थे । एक चित्रित मिट्टी के बर्तन पर किसी बैठे हुए देवता का चित्र बना हुआ है जिसके एक तरफ पुजारी तथा सिर के ऊपर नाग का चित्र है ।

मिट्‌टी के बर्तनों पर सर्प के कुछ चित्रण मिलते है । लोथल से मिले हुए तीन बर्तन के टुकड़ों पर सर्प की आकृतियाँ बनी हुई हैं । इससे नागपूजा का भी कुछ संकेत मिलता है । उनकी मुद्राओं पर स्वस्तिक आदि पवित्र चिह्न भी मिलते है ।

कुछ विद्वान् इसका सम्बन्ध सूर्योपासना से मानते है । एक मुद्रा पर एकशृंगी पशु के सामने सूर्य जैसी आकृति बनी हुई है । अनेक ताबीजें भी प्राप्त होती है । सम्भवत: प्रत्येक सैंधव नागरिक मुद्रा को तावीज के रूप में धारण करता था । ताबीजों पर तरह-तरह के चित्र खुदे हुए है जिनका महत्व धार्मिक रहा होगा ।

लोथल तथा कालीबंगन के पुरास्थलों से अग्निकुण्ड अथवा यज्ञीय वेदियों के साक्ष्य मिलते है । लोथल में एक चबूतरे पर ईंट की बनी वेदी मिली है । साथ ही पशुओं (बैल या गाय) की जली हड्डियां, मनके, चित्रित मृदभाण्ड के टुकड़े तथा राख मिलती है ।

इससे सूचित होता है कि यही के निवासी पशुबलि देते थे । कालीबंगन में एक कुएं के समीप सात आयताकार वेदियां एक पंक्ति में मिलती है तथा निचली बस्ती के अनेक घरों में भी अग्निवेदियां मिलती हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक जीवन में वेदियों का भी महत्व था ।

शवों के साथ दैनिक उपयोग की वस्तुयें जैसे-बर्तन, आभूषण आदि मिलने से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि लोग पारलौकिक जीवन में भी आस्था रखते थे । इस प्रकार सैन्धव धर्म में मातादेवी तथा पुरुषदेवता की उपासना के साथ हम अनेक पशु पक्षियों, वृक्षों, वनस्पतियों, मांगलिक प्रतीकों आदि की पूजा का विधान पाते है ।

मार्शल महोदय के अनुसार कालान्तर में हिन्दू-धर्म में प्रचलित अनेक अन्धविश्वास भी सैंधव सभ्यता में पाये जाते है और इस प्रकार हिन्दू धर्म के अनेक प्रमुख तत्वों का आदि रूप हमें सिन्धु सभ्यता में ही मिल पाता है ।


4. सैंधव सभ्यता के  कला तथा स्थापत्य (Art and Architecture of Sindhu Civilization):

सैंधव सभ्यता के अन्तर्गत हमें कला का सुविकसित स्वरूप देखने को मिलता है । इस सभ्यता के शासक तथा समृद्ध व्यापारी कला के प्रेमी थे तथा उन्होंने इसके विकास को पर्याप्त योगदान दिया । इस सभ्यता में हमें वास्तुकला, मूर्तिकला, उत्कीर्ण कला (रिलीफ स्थापत्य), चित्रकला, मृद्‌भाण्डकला आदि के सम्यक् रूप से उन्नत होने के प्रमाण मिलते है । वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण यही के नगर तथा भवन है ।

मूर्तिकला:

सैन्धव सभ्यता के अर्न्तगत मूर्तिकला का सम्यक विकास हुआ । यहाँ के नगरों की खुदाई में प्रस्तर, धातु तथा मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त होती है । प्रस्तर तथा धातु की मूर्तियाँ यद्यपि कम हैं तथापि वे कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

i. पाषाण (प्रस्तर) मूर्तियाँ:

मोहेनजोदड़ों से लगभग एक दर्जन पाषाण मूर्तियाँ तथा हड़प्पा से दो पाषाण मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं । हड़प्पा से प्राप्त मूर्तियों अपेक्षाकृत अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली है । इनका निर्माण सेलखड़ी, अलबेस्टर, चूना-पत्थर, बलुआ-पत्थर, बेटी पत्थर आदि की सहायता से किया गया है । प्रस्तर मूर्तियों में सर्वप्रथम मोहनेजोदड़ों से प्राप्त योगी अथवा पुरोहित की मूर्ति का उल्लेख किया जा सकता है । यह सेलखड़ी पत्थर की बनी लगभग 19 सेमी ऊंची है ।

योगी के मूंछे नहीं हैं किन्तु दाढी विशेष रूप से सवारी गयी है । इसके केश पीछे की ओर एक फीते से बांधे गये हैं । मस्तक पर गोल अलंकरण हैं तथा यह बांये कंधे को ढकते हुए तिपतिया छाप वाली शाल ओढ़े हुए है । योगी के नेत्र अधखुले, उसके निचले होठ मोटे है तथा उसकी दृष्टि नाक के अग्रभाग पर टिकी हुई है ।

मस्तक छोटा तथा पीछे की ओर ढलुआ है, गर्दन कुछ अधिक मोटी है तथा मुंह की गोलाई बड़ी है । मैंके का विचार है कि कलाकार ने इस मूर्ति के माध्यम से किसी विशिष्ट व्यक्ति का यथार्थ रूपांकन किया है । वे इसे पुजारी की मूर्ति बताते है । चन्दा के अनुसार यह ‘योगी की मूर्ति’ है । इस मूर्ति के केश विन्यास विशेष रूप से आकर्षक है ।

इस प्रकार की कुछ मूर्तियाँ मिस, क्रीट तथा मेसोपोटामिया आदि सभ्यताओं में भी मिलती है जहाँ उनका सम्बन्ध देवताओं से था । अतः मोहेनजोदड़ो की इस मूर्ति का अवश्य ही कोई धार्मिक महत्व रहा होगा । ऐसा लगता है कि सैन्धव सभ्यता में योग विद्या का जो प्रचार था उसी का प्रतिनिधित्व प्रस्तुत मूर्ति में प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त मोहेनजोदड़ो से कुछ अन्य प्रस्तर मूर्तियों भी मिलती है ।

एक श्वेत पाषाण का पुरुष मस्तक (लगभग सात इंच ऊँचा) मिला है । यह दाढ़ी युक्त है तथा मूँछें साफ है । पीछे की ओर जुड़ा बंधा है, छोटे कटे हुए बाल है, कान सीपी जैसे हैं तथा आंखों में पच्चीदार पुतली है । इसमें पहली मूर्ति जैसी कारीगरी नहीं मिलती है ।

इसी प्रकार ग्यारह इंच ऊँची पत्थर की बनी हुई पुरुष मूर्ति का अधोभाग प्राप्त होता है । यह नीचे पारदर्शी वस्त्र पहने हुए हैं तथा ऊपर बायें कन्धे पर शाल जैसा उत्तरीय ओढ़े हुए है । इसकी पीठ पर गुँथे हुए बालों की जूड़ा है । यह मूर्ति साधारण ढंग से बनाई गयी लगती है । इसके अतिरिक्त मीहेनजोदड़ों में अन्य पाषाण निर्मित पशु मूर्तियाँ भी मिलती है ।

इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय श्वेत पाषाण निर्मित लगभग दस इंच ऊँचा एक संयुक्त पशुमूर्ति है जिसमें शरीर भेड़ें का तथा मस्तक सूँडदार हाथी का है । संभवतः इस मूर्ति का कोई धार्मिक महत्व रहा होगा । संभव मुहरों पर भी इसी प्रकार की संयुक्त पशु आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती है ।

हड़प्पा की पाषाण मूर्तियों में दो सिररहित मानव-मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है । पहली मूर्ति लाल वलुए पत्थर की तथा दूसरी काले पत्थर की बनी है । दोनों ही मूर्तियों के मस्तक तथा पैर टूटे हुए हैं । पहली मूर्ति किसी सीधे खड़े हुए पुरुष की है । इसकी गर्दन के ऊपर, कन्धों के निचले भागों तथा जंघों के नीचे छेद बने हुए हैं जो किसी बरमें द्वारा उकेरे हुए लगते हैं ।

ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर के विविध अंगों जैसे मस्तक, हाथ, पैर आदि को अलग-अलग बनाकर किसी मशाले द्वारा जोड़ने की प्रथा उस काल में प्रचलित थी । दुर्भाग्यवश बाद में इस कला का विलोप हो गया । इस नग्न प्रतिमा का कुछ विद्वान कोई जैन मूर्ति मानते है ।

दूसरी मूर्ति के हाथ-पैर टूट गये है । विद्वानों ने इसे किसी नर्तक अथवा नर्तकी की मूर्ति बताया है । इन दोनों की मूर्तियों के शरीर-सौष्ठव को कलाकार ने अत्यन्त कुशलता के साथ उभारा है । इनका गठन अत्यन्त सजीव एवं प्रभावशाली है जिन्हें देखने से ऐतिहासिक युग की दीदारगंज यक्षिणी जैसी कुछ मूर्तियों का आभास होने लगता है ।

यूनानी कलाकारों ने गन्धार की बुद्ध मूर्तियों के निर्माण में जो यथार्थता दिखाई है, वही इन मूर्तियों में भी देखी जा सकती है । दोनों के तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त मार्शल ने यह मत व्यक्त किया है कि ईसा पूर्व चतुर्थ शती का कोई भी यूनानी कलाकार ऐसी मूर्तियाँ तैयार करने में गर्व का अनुभव करता । इन मूर्तियों से यह धारणा भी निर्मूल सिद्ध होती है कि केवल यूनानी कलाकार ही मानव-शरीर के यथार्थ चित्रण में निपुण थे । इनसे सूचित होता है कि हड़प्पा के शिल्पी उच्चकोटि की स्वाभाविक प्रतिमाओं का निर्माण कर सकते थे ।

ii. धातु मूर्तियाँ:

पाषाण के अतिरिक्त सैंधव कलाकारों ने धातुओं से भी सुन्दर प्रतिमाओं का निर्माण किया । मोहेनजोदड़ों, चन्हुदड़ों, लोथल, कालीबंगन आदि स्थलों से धातु मूर्तियों मिली है । धातु निर्मित मूर्तियों में सर्वाधिक उल्लेखनीय मोहेनजोदड़ों से प्राप्त 4½ सेमी॰ लम्बी एक नर्तकी की कास्य मूर्ति है । यह सुन्दर एवं भावयुक्त है । इसके शरीर पर वस्त्र नहीं है तथा पैरों का निचला हिस्सा टूट गया है ।

बायां हाथ कलाई से लेकर कंधे तक चूड़ियों से भरा है तथा नीचे की ओर लटक रहा है । दायें हाथ में वह कंगन तथा केयूर पहने हुए हैं और वह कमर पर टिका हुआ है । उसके घुँघराले बाल पीछे की और जूड़ा में बंधे हुए हैं, गले में छोटा हार तथा कमर में मेखला है । नर्तकी के पैर जो थोड़ा आगे बड़े हुए है, संगीत की लय के साथ उठते हुए जान पड़ते हैं । अपनी मुद्रा की सरलता एवं स्वाभाविकता के कारण यह मूर्ति सबको आश्चर्यचकित करती है ।

मार्शल के अनुसार इस मूर्ति के माध्यम से कलाकार ने किसी आदिवासी स्त्री का यथार्थ रूपांकन करने का प्रयास किया है । इस नृत्यरत स्त्री की स्वाभाविक मुद्रा के अंकन में उसे अपूर्व सफलता मिली है । पिगट इसकी तुलना कुल्ली से प्राप्त मिट्टी की मूर्तियों से करते हुए इसे बलूची नारी की अनुकृति मानते हैं ।

इसके अतिरिक्त यहीं से कांसे की एक अन्य नर्तकी की मूर्ति भी मिली है किन्तु यह कलात्मक दृष्टि से उतनी अच्छी नहीं है । यहीं से ताँबे की दो अन्य मानव मूर्तियों मिलती हैं- पहली कमर पर हाथ रखे हुए तथा दूसरी हाथ ऊपर उठाये हुए हैं । मानव मूर्तियों के साथ-साथ मोहेनजोदड़ों से भैंसा तथा छेड़ा की कांस्य-मूर्तियाँ भी मिलती हैं ।

लोथल से कुत्ते तथा कालीबंगन से प्राप्त वृषभ की ताम्र-मूर्तियाँ भी कलात्मक दृष्टि से अच्छी हैं । धातु से बनी इन मूर्तियों में पशुओं की स्वाभाविक विशेषताओं को उधारने में कलाकार को सफलता मिली है । इन धातु-मूर्तियों में ढलाई की जिस विधि का प्रयोग किया गया है उसे हमारे प्राचीन साहित्य में ‘मधूच्छिष्ट विधि’ (Lost Wax) कहा गया है । इसी से कालान्तर में दक्षिण की नटराज मूर्ति तथा सुल्तानगंज की बुद्ध की ताम्रमूर्ति का निर्माण किया गया ।

iii. मृण्मूर्तियाँ:

सैन्धव मूर्ति-कला के अन्तर्गत लाल रंग की ठोस पकाई हुई मिट्टी की मूर्तियों का भी उल्लेख किया जा सकता है । केवल कुछ को छोड़कर शेष सभी हस्त निर्मित हैं । ये मनुष्यों तथा पशुओं दोनों की है । मानव मूर्तियों अधिकतर स्त्रियों की है । मोहेनजोदड़ों से जो पुरुष मूर्तियों मिली है उनमें लम्बी नाक, साफ ठोड़ी, पीछे की ओर ढलुआं माथा, लम्बी कटावदार आँखें, चिपकाया हुआ मुख आदि मिलता है ।

कुछ को छोड़कर बाकी सभी नग्न है । वत्स ने हड़प्पा से एक ऐसी पुरुष मूर्ति प्राप्त किया है जो लुंगी पहने हुए है। पुरुष मूर्तियों को शृंगयुक्त दिखाया गया है । इनकी साधारण गढ़न से सूचित होता है कि निर्माता कलाकार की इनमें कोई खास रुचि नहीं थी ।

नारी मूर्तियाँ अपेक्षाकृत सुन्दर तथा प्रभावोत्पादक है । इन्हें गहनों से लादा गया है । इनके मस्तक पर पंखे के समान फैला हुआ आभरण, कानों में गोलाकार कुण्डल, गले कंठा, छाती पर कई लड़ियों वाला हार, कमर में मेखला तथा भुजाओं में भुजबन्द प्रदर्शित किये गये है ।

इनकी कमर में घुटनों तक का लम्बा परिधान है तथा निचला भाग नग्न है । इनकी आँखें, स्तन, आभूषण आदि अलग से चिपकाये गये । नौसारो तथा मेहरगढ़ से कुछ ऐसी नारी मूर्तियाँ मिली हैं जिनकी माँग में लाल रंग भरा गया है । बी॰ बी॰ लाल इसे सिंदूर बताते हैं ।

स्पष्ट है कि मूर्ति के अलंकरण पर कलाकार ने विशेष ध्यान केन्द्रित किया है । विद्वानों ने इन नारी-मूर्तियों को माता देवी की मूर्तियाँ बताया है जो सैन्धव धर्म की सर्वप्रमुख देवता थी । कुछ मूर्तियों में उनकी गोद में कभी-कभी एक बच्चा भी दिखाया गया है जिससे उनका मातृत्व सूचित होता है ।

हड़प्पा से मिली एक मूर्ति के योनि से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है । यह भी मातृत्व का प्रतीक है । मातादेवी के अतिरिक्त कुछ सामान्य नारी मूर्तियाँ भी मिलती हैं जिन्हें आटा गूँथते अथवा रोटी लिये हुए दिखाया गया है । नारी मूर्तियों की प्रचुरता से स्पष्ट है कि सैंधव लोगों के धार्मिक जीवन में मातृका-पूजन का विशेष महत्व था ।

कालान्तर में इसी को भारतीय परम्परा में शक्ति, देवी, मातृभूमि, ग्राम देवता आदि रूपों में मान्यता दी गयी । सैंधव नारी मूर्तियों देवी के कल्याणकारिणी स्वरूप की सूचक हैं । कुली से प्राप्त कुछ मूर्तियों का मुखमण्डल भयकर स्वरूप वाला है ।

इन्हें देवी के रौद्र रूप का द्योतक माना जा सकता है जिसे बाद में चण्डिका, काली, भैरवी आदि नाम से जाना गया । मोहनजोदड़ो से बालकों की कुछ मृण्मूर्तियां मिली हैं । ये आभूषण पहने हुए है तथा इन्हें घुटनों के सहारे चलने की मुद्रा में दिखाया गया है । मैंके के अनुसार इनका कोई धार्मिक महत्व रहा होगा । मानव मूर्तियों में कहीं अधिक संख्या में पशुओं की मृण्मूर्तियाँ सैन्धव स्थलों से प्राप्त की गयी है, तथा वे कला की दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि की है ।

इसमें कूबड़दार वृषभ विशेष रूप से पाया जाता है । अन्य पशुओं में हाथी, गैंडा बन्दर, सुअर, बाघ, भालू, खरगोश, भैंसा, भेड़ा आदि की मृण्मूर्तियाँ काफी संख्या में मिली है । गिलहरी तथा सर्प की मूर्तियों भी मिलती है । इनके साथ ही साथ विभिन्न पक्षियों जैसे मोर, कबूतर, तोता, चील, गौरैया, मुर्गा, उलूक आदि की मिट्टी की मूर्तिया भी प्राप्त होती है ।

हड़प्पा से मछली, कछुआ तथा घड़ियाल की मृण्मूर्तिया मिलती है । एक काल्पनिक पशु की गर्दन से दो सिर निकलते हुए चित्रित किये गये हैं । सभवत इसका कोई धार्मिक महत्व रहा होगा । लोथल से मिली एक मूर्ति मानव धड़ तथा पशु का सिर है । यहा से एक गोरिल्ला की मूर्ति मिलती है । हड़प्पा तथा मोहेनजोदडो के स्थलों से गाय की मूर्ति तो नहीं मिलती किन्तु राव ने लोथल से गाय की दो मृण्मूर्तिया को प्राप्त करने का दावा किया है ।

लोथल, कालीबंगन आदि से घोड़े की मृण्मूर्तिया प्राप्त होती हैं । स्थलों से प्राप्त बहुसंख्यक मृण्मूर्तियों में तीन पशुओं की हैं । इनमें वृषभ की आकृतियां अत्यधिक सुन्दर द्न्दं आकर्षक है । मोहेनजोदडो से प्राप्त छोटे सींग वाले वृषभ की आकृति कलात्मक दृष्टि से इतनी उत्कृष्ट है कि मार्शल इसके निर्माता को महान् कलाकार कहते हैं । कालीबंगन से प्राप्त एक वृषभ की सुन्दर आकृति को आक्रामक मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है । पक्षियों को बैठे हुए चोंच खोले हुए एव उड़ते हुए दिखाया गया है।

सैंधव कुम्हार एक विशेष प्रकार की काचली मिट्टी को गूँथ कर मसाला तैयार करते थे जिसकी सहायता से खिलौने, गहने, कड़े-कंगन, ताबीज, वटन, अँगूठी, गोलियाँ, बटखरे आदि बनाये जाते थे। यह काचली मिट्टी क्वार्टज नामक पत्थर के चूर्ण से बनती थी ।

इससे काच का चूर्ण मिलाकर आग में पकाया जाता था जिससे इसका रग कच्चे शीशे जैसा (काचला) हो जाता था । इस प्रकार की मिट्टी से बनी हुई कुछ विशेष मूर्तियों जैसे अनाज के दाने कुतरती हुई गिलहरी, एक दबका हुआ मेंढक, तथा लिपटकर बैठे हुए बानर आदि, उल्लेखनीय है । काचली मिट्टी की वस्तुऐं मेसोपोटामिया, सीरिया, पश्चिमी एशिया, मिस्र आदि से भी मिलती है ।


5. सैंधव सभ्यता के मुद्रायें (Currencies and Jewelry of Sindh Civilization):

सैन्धव कला के अन्तर्गत मुद्राओं अथवा मुहरों (Seals) का विशिष्ट स्थान है जिनमें हमें रिलीफ स्थापत्य के दर्शन होते है । विभिन्न पुरास्थलों में अब तक दो हजार से भी अधिक मुहरें प्राप्त की जा चुकी हैं । सबसे अधिक मुहरें सेलखडी की बनी हैं । इसके अतिरिक्त कांचली मिट्टी, चर्ट, गोमेट, मिट्टी आदि की बनी मुहरें भी है । अधिकांश मुहरें वर्गाकार या चौकोर है किन्तु कुछ गोलाकार, घनाकार अथवा बेलनाकार भी है ।

मुहरों के पीछे छेदकर एक घुंडी लगायी जाती थी । जिसमें धागा डालकर उन्हें काम में लाया जाता था । मुहरें सामान्यतः 2.8×2.8 सेमी आकार की हैं । कुछ कलात्मक दृष्टि से अत्युत्कृष्ट है तथा विश्व की महान् कलाकृतियों में अपना स्थान रखती है । मुहरों पर मनुष्य, पशु, वृक्ष आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण की गयी है । इनमें एक सींग वाले पशु, वृषभ, गैंडा , बाघ, भैंसा, हिरन, हीथी, बकरा, खरगोश आदि पशु है। एक शृंगवृष का अंकन बहुतायत में मिलता है । छोटे सीगों वाले बैल (नटुआ बैल) का अंकन भी काफी लोकप्रिय था ।

एक मुहर पर अंकित वृषभ की आकृति अत्यन्त प्रशंसनीय है जिसमें उसे ढूसा मारने की मुद्रा में दिखाया गया है । उसकी फैली हुई सींगों, झूलते हुए गलकम्बल, लोटती हुई लौट (खोपड़ी) तने हुए मांसपेशियों के लेवड़े आदि आज भी अद्‌भुत प्रतीत होते है । कुछ पर मानव तथा पशु की मिश्रित आकृतियाँ मिलती है ।

मोहेनजीदड़ों तथा लोथल की एक मुहर पर नाव का चित्र मिलता है । एक मुहर पर खुदे हुए चित्र में दो बाघों से लड़ते हुए एक मनुष्य को दिखाया गया है । उल्लेखनीय है कि बेबीलोनिया की कला में भी इस प्रकार की आकृति मिलती है जिसमें एनकीडू तथा गिल्गमेश को क्रमश: सिंह एवं साँड से लड़ते हुए दिखाया गया है ।

संभव है यह चित्रांकन बेबीलोनियन सम्पर्क का ही परिणाम हो । ‘पशुपति शिव’ की एक मुहर मोहेनजोदड़ों से मिली है । इसमें त्रिमुखी शिव को एक चौकी पर पद्‌मासन की मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया है । कुछ मुहरों पर स्वस्तिक, पीपल के वृक्ष आदि के चित्र खुदे हुए है ।

मुहरों के अतिरिक्त सैन्धव नगरों का खुदाई में अनेक मनके भी प्राप्त हुए हैं जो सेलखड़ी, गोमेद, कांचली मिट्टी, शंख, सीप, हाथीदांत, सोना, चाँदी, ताँबा आदि से बने हैं । हड़प्पा तथा मोहेनजोदडो से कुछ तांबे की बनी पट्टिकायें (Tablets) भी मिलती है जिन पर मुहरों से मिलते-जुलते चित्र पाये जाते हैं ।

छापें मिट्टी, कांचली मिट्टी, पेस्ट आदि से बनाई गयी है तथा उनके ऊपर मनुष्यों, पशुओं के चित्र अथवा लेख खुदे हुए है । मोहेनजोदडो से मिले एक मुद्रा छाप के अग्रभाग में छ: मानव आकृतियां एक पंक्ति में बनी हैं, नीचे हाथ में हंसिया लिये एक झुकी हुई आकृति है, उसके सामने पीपल के पेड़ के नीचे एक बकरा है ।

स्पष्टतः यह देवी को प्रसन्न करने के लिये बकरे की बलि दिये जाने का अंकन है । एक दूसरे मुद्रा छाप में एक योगी की मूर्ति के दोनों ओर एक-एक भक्त तथा पीछे नाग दिखाये गये हैं । कुछ मुद्रा छापों पर हाथी, गैंडा, मछली, हिरन, वृष आदि की आकृतियां मिलती है ।

ताम्रपत्र लम्बे, वर्गाकार तथा आयताकार है । मुहरों के विपरीत इन पर पशु आकृतियों को दाहिनी ओर मुँह किये हुए दिखाया गया है । मार्शल इन्हें तावीज बताते हैं जबकि वी॰ एस॰ अग्रवाल ने इन्हें ताम्र मुद्रायें माना है जिनका प्रयोग सिक्कों की भांति किया जाता था ।

आभूषण:

इन कलाकृतियों के अतिरिक्त सैन्धव सभ्यता के स्थलों से विभिन्न प्रकार के आभूषण भी मिले हैं । ये सोने, चाँदी, मिट्टी, पत्थर आदि के है । ये जौहरियों की कला के विकसित होने के प्रमाण प्रस्तुत करते है । आभूषणों के ढेर हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ो से मिलते हैं । हड़प्पा सभ्यता में सोने-चाँदी की अधिकता थी ।

स्त्री-पुरुष दोनों आभूषण पहनते थे । अतः जौहरियों ने सभी के उपयोग के लिये आभूषण तैयार किये । प्रमुख आभूषणों में भुजबंद, हार, करधनी, अंगूठियां, कर्णफूल आदि हैं । सोने-चाँदी के अतिरिक्त हाथीदांत, शंख आदि से भी आभूषण किये जाते थे । चन्हूदड़ों से मनकों के निर्माण का एक कारखाना भी प्राप्त हुआ है ।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि सैंधव कला भारतीय कला के इतिहास में किसी प्रारम्भिक नहीं अपितु विकसित अवस्था को व्यक्त करती है । यहाँ के विविध स्थलों से प्राप्त छोटी से छोटी कलाकृतियाँ उच्चकोटि के तकनीक एवं सौन्दर्य भावना को प्रकट करती हैं । मानव रूप की आदर्शपरक अभिव्यक्ति तथा पशुओं का स्वाभाविक निरूपण हम सैन्धव कला में ही प्राप्त करते है ।

नर्तकी की ताम्रमूर्ति, मुद्रांकित पशुपति एवं वृषभ आदि कुछ ऐसी उत्कृष्ट कलाकृतियों है जिनका निर्माता होना किसी भी काल के कलाकार के लिये आदर्श एवं गौरव की वात है । निःसंदेह परवर्ती धर्म और भारतीय लिपि की भाँति कला की परम्परा का मूल उद्‌गम सिन्धु सभ्यता में ही मानना अभीष्ट होगा । स्टेला क्रमरिश ने उचित ही सुझाया है कि ‘जिस भारतीय मूर्तिकला ने युगों-युगों में अपनी अक्षुण्ण परम्परा को प्रतिष्ठित किया है उसका स्रोत सिंधु घाटी की कला से ही प्रवाहित हुआ था ।


6. सैंधव सभ्यता के मृद्‌भाण्ड (Soil Conservation during Sindh Civilization):

सैन्धव सभ्यता में मृद्‌भाण्ड कला का भी अच्छा विकास हुआ । खुदाई में विभिन्न आकार-प्रकार के मिट्टी के बर्तन तथा उनके बहुसंख्यक टुकड़े पाये गये है । वर्तन चाक तथा हाथ दोनों से बने है । चाक पर बनाये गये बर्तनों की अधिकता है । हस्तनिर्मित बर्तन अपेक्षाकृत काफी कम मिले है । सैन्धव कुम्भकार का दृष्टिकोण उपयोगितावादी था तथा उसने दैनिक उपयोग के बर्तनों का ही निर्माण किया ।

सैंधव मृद्‌भाण्ड मुख्यतया लाल या गुलाबी रंग के हैं । कुछ को लाल रग से पोतकर काली रेखाओं से चित्र बनाये गये है । बर्तन भट्ठों में भली-भांति पकाये जाते थे । खुदाई में भट्टों के अवशेष मिलते हैं । ये वृत्ताकार हैं तथा इनका व्यास 1.8 मीटर से लेकर 2.74 मीटर तक मिलता है ।

इनकी तली में गड्ढा तथा ऊपर घुआं बाहर निकालने के लिये गुम्बद बनाया गया है । बर्तनों में अनाज रखने के बड़े कोठिले, पानी के घड़े, सुराही, मर्तबान, कटोरे, प्याले, तश्तरियों, कुल्हड, थालियाँ, नादें आदि सभी मिलती हैं । अधिकांश बर्तनों पर कोई चित्रण नहीं मिलता । चित्रण वाले बर्तनों की संख्या कम है तथा जो मिले है उनमें भी अधिकांश टूटे-फूटे है ।

कुछ बर्तनों पर विविध पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों जैसे-बकरा, हिरन, मोर, मछली, कछुआ, गाय-बछड़ा, मुर्गा, पीपल, खजूर, नीम, केला आदि का अंकन सुन्दरतापूर्वक किया गया है । एक चित्र में कोई मछुआ अपने कन्धों पर दो जालों की बंहगी उठाये हुए चल रहा है । बर्तन के एक टुकड़े पर मृगया का चित्र है जिसमें दाई ओर शिकारी मृग का शिकार करते हुए तथा बाई ओर कुत्ते को हिरन का पीछा करते हुए चित्रित किये गये है ।

कुछ बर्तनों पर ठप्पे लगे हुए है जिनमें सैन्धव लिपि के कुछ अक्षर हो सकते है । कब्रिस्तानों से जो शवपात्र मिले है उनमें कुल्हड़, प्याले, थालियां, ढक्कन आदि है । सामान्यतः इन पर मोर का अंकन है । इसके अतिरिक्त तारागण, लहरदार रेखायें, त्रिभुज, मछली, उड़ते हुए पक्षी आदि भी चित्रित किये गये है ।

इस प्रकार सैन्धव मृद्‌भाण्ड विविध अलकरणों की दृष्टि से काफी समृद्ध है तथा उनके निर्माण की तकनीक अत्यन्त विकसित है । इनसे सैन्धव सभ्यता की अलग पहचान भी बनती है । गार्डन चाइल्ड के अनुसार मृद्‌भाण्ड उसे दूसरी सभ्यताओं से जोड़ने के बजाय एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करने में सहायक है ।


7. सैंधव सभ्यता के राजनैतिक संगठन (Political Organization during Sindhu Civilization):

सैंधव नगरों की शासन-व्यवस्था के विषय में हमें कुछ भी पता नहीं हैं । इस सम्बन्ध में हम केवल अनुमान ही लगा सकते है । ऐसा प्रतीत होता है कि मोहेनजोदड़ों तथा हड़प्पा का शासन सुदृढ़ दुर्गों द्वारा होता था । इन दुर्गों में बहुसंख्यक केन्द्रीय अधिकारी निवास करते थे । वे सार्वजनिक भवनों का निर्माण तथा जार्णोद्धार कराते तथा श्रम, मूल्य, भार आदि में एकरूपता स्थापित करने का प्रयास करते थे ।

सम्भवत: उनका एक राजा भी होता था जो पुरोहित होता था और देवता के प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाता था । जनता से कर के रूप में अनाज लिया जाता था । प्रत्येक नगर के विभिन्न भागों में प्रायः रक्षकों की भी व्यवस्था थी । शासन में धर्मतत्व की ही प्रधानता थी ।

सैंधव सभ्यता के विस्तार के बावजूद भी इसमें जो एकरूपता दिखाई देती है उससे ऐसा लगता है कि हड़प्पा और मोहेनजोदडों क्रमशः उत्तरी तथा दक्षिणी भाग के शासन केन्द्र थे । स्टूअर्ट पिंगट ने इन्हें एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानिया बताया है । कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सैन्धव साम्राज्य की तीसरी राजधानी कालीबंगन में थी ।

मेसोपोटामिया के सारगोन युगीन शासकों के समान सैंधव नरेशों ने भी सम्पूर्ण सिन्ध प्रदेश को एकछत्र शासन के अन्तर्गत संगठित कर लिया था । संभव है वे विशाल उपाधियाँ भी धारण करते हों । किन्तु सेन्धव शासक युद्ध प्रिय नहीं थे तथा विजय एवं साम्राज्य विस्तार में उनकी रुचि नहीं थी । इसकी अपेक्षा वे व्यापार-वाणिज्य में रुचि लेते थे ।

इसी कारण विद्वानों की मान्यता है कि इस समय का शासन वणिक् चर्ग के हाथों में था । बी॰ बी॰ लाल का अनुमान है कि सैन्धव काल में कई छोटे-घड़े राज्य रहे होंगे तथा प्रत्येक का अलग-अलग मुख्यालय रहा होगा, जैसा कि ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में सोलह महाजनपदों की स्थिति में दिखाई देता है । इस प्रकार सैन्धव काल की राजनैतिक व्यवस्था के विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं है ।


8. सैंधव सभ्यता के बौद्धिक-पक्ष (Intellectual Side of Sindhu Civilization):

सैन्धव सभ्यता के विभिन्न केन्द्रों से जो उत्कीर्ण मुद्रायें मिलती है वे इस बात की निश्चित प्रमाण है कि इसमें लिपि का प्रचलन था, किन्तु दुर्भाग्यवश लिपि के अपठित होने के कारण यह । के निवासियों के बौद्धिक पक्ष के विषय में कम ज्ञात है ।

अधिकांश विद्वानों ने उनकी लिपि को चित्राक्षर (Pictographic) बताया है । इसके लगभग 400 अक्षर ज्ञात है । लिपि चिन्हों में स्पष्टता, विस्तार और विभिन्नता है । सामान्यतः यह दायें से बायें को लिखी जाती थी । बी॰ बी॰ लाल ने कालीबंगन की खुदाई से दो मृत्पिण्ड (Terracotta Cakes) ऐसे प्राप्त किये है जिन पर सैन्धव लिपि में लघुलेख खुदे हुए है ।

इनके आधार पर यह सिद्ध हो जाता है कि लिपि की लेखन-दिशा दायें से बायें ओर ही थी । कहीं-कहीं पक्ति बदले जाने के साक्ष्य भी मिलते हैं । इस पद्धति को बूस्ट्रोफेडन (Boustrophedon) कहा जाता है । इस लिपि का भाषा निर्धारित कर सकना दुष्कर है । कुछ विद्वान् इसे संस्कृत तथा कुछ द्रविड़ कहते है । एस॰ आर॰ राव ने इसे पढ़ लेने का दावा किया है किन्तु बी॰ बी॰ लाल आदि विद्वान् उनके पाठ को संदिग्ध मानते हैं ।

हाल ही में भागलपुर (विहार) के एक परिवहन अधिकारी एन॰ के॰ केला वर्मा तथा विहार सरकार के मुख्य सचिव अरुण पाठक ने इस लिपि को पड़ लेने की बात कही है । वर्मा के अनुसार उन्हें यह सफलता चौदह वर्षों के गहन अध्ययन व शोध के बाद प्राप्त हुई है । किन्तु इसका अर्थ अभी तक स्पष्ट नहीं है ।

सैंधव भवनों के निर्माण की सुनिश्चित योजना को देखते हुए ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे ज्यामिति (Geometry) के कुछ सिद्धान्तों से अवश्य ही परिचित रहे होंगे । उनके भार-माप के पैमाने सुनिश्चित थे । बाटों में अद्‌भुत समता दिखाई देती है । माप-तौल में द्विचर प्रणाली (Binary System) का प्रयोग होता था जिसके अनुसार 1,2,4,8,16,32,64,160,320,1600 तथा 3200 तक की संख्याओं को नियोजित किया जाता था । बाट के रूप में 16 अथवा उसके आवर्त्तकों (Multiples) का व्यवहार होता था । यहाँ के लोग दशमलव पद्धति से भी परिचित थे ।

अंत्येष्टि क्रियायें:

ह्वीलर महोदय ने हड़प्पा से जो खोजें की है उनसे यहाँ के निवासियों के अंत्येष्टि संस्कारों के ऊपर कुछ प्रकाश पड़ता है । यहाँ से तीन कक्षों वाला एक विस्तृत कब्रिस्तान (R 37) मिला है जिससे स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि मृतकों को पूर्णरूप से दफनाने की प्रथा सर्वप्रचलित थी ।

कभी-कभी शवों को खुले मैदान में जंगली जानवरों को खाने के लिये छोड़ दिया जाता था और इसके बाद बची हुई अस्थियों को समाधिस्थ करते थे । ऐसी आंशिक समाधिकरण के उदाहरण बहवलपुर के स्थल से मिलते हैं । हड़प्पा की समाधियों में शवों के सिर अधिकतर उत्तर दिशा की ओर रखे गये गिलते हैं । यही सामान्य प्रथा प्रतीत होती है । किन्तु कहीं-कहीं इसका अपवाद भी देखने को मिलता है ।

जैसे कालीबंगन में दक्षिण-उत्तर, लोथल में पूर्व-पश्चिम तथा रोपड़ में पश्चिम-पूर्व दिशा में लिटाये गये शव प्राप्त होते हैं । इसके अतिरिक्त एक तीसरी प्रथा (दाह-कर्म) भी प्रचलित थी । इसमें शवों को जलाकर भस्मों को घड़े में रखकर समाधियों में गाडा जाता था । कभी-कभी पड़ीं के भीतर भौतिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुयें, बर्तन, आभूषण आदि भी रख दी जाती थीं । यह इस बात का द्योतक है कि इस युग के लोग मरणोपरान्त जीवन में आस्था रखते थे ।

सुरकोटडा की खुदाई से कलश शवाधान का साक्ष्य मिलता है । सामान्यतः एक कब्र में एक ही व्यक्ति को दफनाया जाता था । किन्तु कालीबंगन तथा लोथल से क्रमशः एक या तीन युगल समाधिकरण (Joint Burials) के उदाहरण भी मिलते है । राव इसे सती-प्रथा का द्योतक मानते है किन्तु यह निष्कर्ष संदिग्ध है ।

तिथि:

सैधव सभ्यता की तिथि का निश्चित रूप से निर्धारण कर सकना कठिन है । मोहेनजोदड़ों की खुदाई से निर्माण एवं पुनर्निर्माण के सात स्तर प्रकाश में आये हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि कम से कम 1000 वर्षों तक इस नगर का अस्तित्व रहा होगा । मार्शल इसकी तिथि 3250 ई॰ पू॰ से 2750 ई॰ पू॰ तक मानते है ।

अर्नेस्ट मैके इसकी तिथि ई॰ पू॰ 2800-2500, माधव स्वरूप वत्स 2700-2500 तथा सी॰ जे॰ गैड ई॰ पू॰ 2350-1700 निर्धारित करते है । सम्पूर्ण उपलब्ध प्रमाणों की समीक्षा करने के पश्चात् ह्वीलर महोदय का निष्कर्ष अपेक्षाकृत अधिक तर्कसंगत लगता है जो 2500 ई॰ पू॰ से 1500 ई॰ पू॰ तक इसकी तिथि-निर्धारण करने के पक्ष में है ।

ह्वीलर ने यह निष्कर्ष पश्चिमी एशिया से मिली हुई बारह सैन्धव मुहरों तथा ऋगवेद में अन्तनिहित साक्ष्यों के आधार पर निकाला है । चूंकि सैन्धव सभ्यता का मेसोपोटामिया सभ्यता के साथ व्यापारिक सम्बन्ध सारगोन युग में ही अधिक था, अतः कहा जा सकता है कि यह ई॰ पू॰ 2400 के लगभग स्थापित हुआ होगा । ई॰ पू॰ 1500 के बाद की कोई भी मुहर मेसोपोटामिया के स्थलों से नहीं मिलती ।

अत: इसे सैन्धव मध्यता का अन्त कहा जा सकता है । ह्वीलर ने सैन्धव सभ्यता की अन्तिम तिथि का समर्थन ऋग्वेद के साक्ष्य से किया है । इससे पता चलता है कि इन्द्र ने रक्षा प्राचीरों से युक्त नगरों को ध्वस्त कर दिया जिसके कारण उसे ‘पुरन्दर’ कहा गया । मोहेनजोदड़ों की खुदाई से पता चलता है कि वहाँ के निवासियों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गयी ।

ऐसा लगता है कि आयी ने उनके ऊपर आक्रमण कर नगरों को ध्वस्त किया तथा फिर भागते हुए नागरिकों की सामूहिक हत्या कर दी । अत: इस नरसंहार के लिये इन्द्र को दोषी कहा जा सकता है । भारत में आयी का आगमन ई॰ पू॰ 1500 के लगभग हुआ ।

यही सैन्धव सभ्यता की अन्तिम तिथि मानी जा सकती है । इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि मोहेनजोदड़ों, कोटदीजी, कालीबंगन, लोथल, रोजदी, सुरकोटदा तथा बाड़ा से जो रेडियो कार्बन तिथियां प्राप्त की गयी है उसके आधार पर सैन्धव सभ्यता की तिथि ई॰ पु॰ 2300-1700 तक निर्धारित होती है । लगभग 2300 ई॰ पू॰ से 2000 ई॰ पू॰ तक यह सभ्यता अपने विकास की पराकाष्ठा पर थी ।


9. सैन्धव सभ्यता की देन (Contribution of Sindhu Civilization):

परवर्ती भारतीय सभ्यता के अधिकांश तत्वों का मूल हमें भारत की इस प्राचीनतम सभ्यता में दिखाई देता है । सैन्धव सभ्यता की खोज ने हमारे इतिहास को एक सातत्य प्रदान किया है तथा इसकी प्राचीनता को ई॰ पू॰ 3000-2500 तक पहुँचा दिया है । प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि आर्यों के आगमन के समय तक (लगभग ई॰ पू॰ 1500) भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक हजार वर्षों का व्यवधान है, किन्तु सैंधव सभ्यता ने इसे हटा दिया है ।

पुराणों में भारत का जो पारम्परिक इतिहास वर्णित है वह प्रलय के बाद से प्रारम्भ होकर महाभारत युद्ध (लगभग 1400 ई॰ पू॰) तक माना जाता है । चूंकि सैंधव सभ्यता प्रलयोत्तर है, अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि सैंधव सभ्यता से लेकर महाभारत युद्ध तक की ऐतिहासिक परम्पराओं में एक सातत्य (Continuity) हैं ।

भारतीय (हिंदू) सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, कलात्मक पक्षों का आदि रूप हमें सैंधव मध्यता में प्राप्त हो जाता है । सामाजिक जीवन के क्षेत्र में हम चातुर्वर्ण व्यवस्था के चीज सैंधव सभ्यता में पाते है । मोहेमजोदड़ों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर विद्वानों ने सैन्धव समाज को चार वर्गों में बाँटा हैं- विद्वान, योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक । इन्हें हम ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र का पूर्वज कह सकते हैं ।

आर्थिक जीवन के क्षेत्र में हम पाते हैं कि कृषि, पशुपालन, उद्योग-धन्धों, व्यापार-वाणिज्य आदि का संगठित रूप से प्रारम्भ सैंधववासियों ने ही किया जिनका विकास बाद की सभ्यताओं में हुआ । यहीं के निवासियों ने बाह्य जगत् से सम्पर्क स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया जो बाद की शदियों तक विकसित होता रहा ।

भारतीय आहत मुद्राओं पर अंकित कुछ प्रतीक सैंधव लिपि के चिन्हों जैसे है, जबकि साँचे में ढालकर तैयार की गयी मुद्रायें अपने आकार-प्रकार के लिये सैंधव मुद्राओं की ऋणी है । आहत सिक्कों की मानक माप सैंधव वाटों की माप से मिलती हैं ।

हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ों के बर्तनों, मिट्टी की वस्तुओं आदि पर अंकित कुछ चिढ़, आकृतियां, प्रतीक आदि पंजाब से ईसा पूर्व की प्रारम्भिक शदियों की वस्तुओं पर अंकित मिलते है । सैंधव सभ्यता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव हिंदू धर्म तथा धार्मिक विश्वासों पर दिखाई देता है । मार्शल ने उचित ही सुझाया है कि हिन्दू धर्म के प्रमुख तत्वों का आदि रूप हमें सैन्धव धर्म में प्राप्त हो जाता है ।

इन्हें हम इस प्रकार रख सकते है:

(1) सैंधव धर्म में मातादेवी का प्रमुख स्थान था । इसी का विकसित रूप बाद में शाक्त धर्म के रूप में दिखाई देता है । सिन्धु घाटी के लोगों ने अपने पीछे मातृ पूजन की जो परम्परा छोड़ी उसे भारतीय लोगों ने शक्ति देवी, ग्राम देवता आदि के रूप में स्वीकार किया तथा वह आज तक सर्वोपरि देवी के रूप में विद्यमान है ।

(2) सैंधव धर्म में जिस पुरुष देवता के अस्तित्व मिलते है उसे ऐतिहासिक काल के शिव का आदि रूप स्वीकार किया गया है । यहाँ से लिंग के प्रमाण मिलते है । कालान्तर में हिन्द धर्म में इसे ही शिव का प्रतीक मान लिया गया । सैंधव मुद्राओं पर योगासन में बैठे हुए देवता का चित्र मिलता है । इसका विकास कालान्तर में दक्षिणामूर्ति रूपी शिव तथा योगी रूपी बुद्ध की मूर्तियों के रूप में दिखाई पड़ता है ।

सारनाथ में प्रवचन देते हुए महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ इसी प्रकार की है । सैंधव प्रदेशों में दाढ़ी युक्त नग्न पुरुषों की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं । ये खड़ी मुद्रा में है, पैरों के बीच थोड़ा अन्तर है तथा भुजायें शरीर के दोनों ओर समानान्तर हैं ।

इस मूर्ति का विकास बाद में जैनियों के कायोत्सर्ग मुद्रा की मूर्तियों में देखने को मिलता है जिनमें ध्यानावस्थित तीर्थड्करों को इसी प्रकार दिखाया गया है । मथुरा संग्रहालय में तीर्थड्कर ऋषभदेव की जो मूर्ति स्थापित है वह इसी मुद्रा में है । इस प्रकार स्पष्ट है कि शैव धर्म की भाँति बौद्ध तथा जैन धर्मों का आदि रूप भी हमें सैंधव सभ्यता में ही मिल जाता है ।

(3) सैंधव सभ्यता में वृक्ष पूजा के प्रमाण मिलते हैं । विभिन्न मुद्राओं पर अंकित पीपल के वृक्ष, टहनी, पत्तियों आदि से स्पष्ट है कि पीपल को पवित्र मान कर उसकी पूजा की जाती थी । कालान्तर में हम पाते है कि बौद्ध तथा हिंदू दोनों ही धर्मों में पीपल को पवित्र मानकर उसकी पूजा की जाती थी ।

इसी वृक्ष के नीचे बुद्ध को सम्बोधि प्राप्त हुई थी । भरहुत, साँची आदि के रूपों पर इसका अंकन है । जहाँ तक हिन्द धर्म का प्रश्न है, पीपल की महत्वपूर्ण धार्मिक मान्यता थी । गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को वृक्षों में अश्वत्य (पीपल) बताया है । (अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्…….) ।

पुराणों में वर्णित है कि जो लोग अश्वत्थ पर जल चढ़ाते है उन्हें स्वर्ग प्राप्त होता है । आज भी हिम धर्म में पीपल में देववास माना जाता है तथा उसे काटना या जलाना महापाप कहा जाता है । यह विचार हिन्दू धर्म ने सैधव सभ्यता से ही ग्रहण किया ।

(4) सैंधव सभ्यता में विभिन्न पशुओं की धार्मिक महत्ता थी । कालान्तर के हिन्दू धर्म में भी हमें पशु पूजा के प्रमाण मिलते हैं । विभिन्न मुद्राओं से ज्ञात होता है कि सिन्धुवासी वृषभ तथा भैंसा को पवित्र मानते तथा उनकी पूजा करते थे ।

कालान्तर के हिन्द धर्म में वृषभ का सम्बन्ध शिव से जोड़कर उसे पूज्य माना गया । सैंधव शिव के साथ सिंह का भी अंकन है जिसे हिन्दू धर्म में दुर्गा का वाहन माना गया है । सैंधव मुद्राओं से पता चलता है कि नाग पूजा भी होती थी । हिन्दू धर्म में आज भी नाग पूजा प्रचलित है ।

(5) सैंधव सभ्यता के लोग जल को पवित्र मानते थे तथा धार्मिक समारोहों के अवसर पर सामूहिक स्नान आदि का महत्व था, जैसा कि बृहत्स्नागार से पता लगता है । यह भावना भी हमें बाद के हिन्दू धर्म में देखने को मिलती है । पूजा में धूप-दीप का भी प्रयोग होता था । माता देवी की कुछ मूर्तियों के ऊपर दीप तथा धुऐं के चिह्न है । कुछ मुद्राओं पर अग्नि जलती हुई चित्रित है । ये सभी विधियां हिन्दू उपासना में भी मिलती है।

(6) सैंधव निवासी स्वस्तिक, स्तम्भ आदि प्रतीकों को भी पवित्र मानकर उनकी पूजा करते थे । मुद्राओं पर इनके चित्र मिलते है । हिंदू धर्म में आज भी ‘स्वस्तिक’ को पवित्र माँगलिक चिह्न माना जाता है । इसे चतुर्भुज ब्रह्मा का रूप स्वीकार किया जाता है । स्तम्भ की बौद्ध धर्म में प्रतिष्ठा थी ।

(7) सैंधव निवासी ताबीज धारण करते थे । इनके द्वारा वे भौतिक व्याधियों अथवा प्रेतात्माओं से छुटकारा पाने का प्रयास करते थे । इस प्रकार का अन्धविश्वास आज भी हमें हिन्दू धर्म में देखने को मिलता है ।

(8) सैंधव सभ्यता में प्राप्त विभिन्न देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों आदि की मूर्तियों से स्पष्ट है कि वहाँ के लोग मूर्ति पूजा में विश्वास करते थे तथा अपने देवी-देवताओं की मूर्तियों बनाते थे ।

मार्शल का विचार है कि वे लकड़ी के मन्दिर बनाते थे । कालान्तर के पौराणिक हिन्दू धर्म में मूर्ति तथा मन्दिर उपासना के सर्वमान्य अधिष्ठान बन गये । अतः इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि कालान्तर का हिन्दू धर्म सैंधव धर्म का ही विकसित रूप है ।

धर्म के ही समान भारतीय कला के विभिन्न तत्वों का मूल रूप भी हमें सैंधव कला में दिखाई देता है । भारतीयों को दुर्ग निर्माण तथा प्राचीरों के निर्माण की प्रेरणा यहीं के कलाकारों ने दी थी । सुनियोजित ढंग से नगर बसाने का गान भी हमें हड़प्पा संस्कृति से ही प्राप्त होता है । मौर्य कलाकारों ने स्तम्भयुक्त भवन बनाने की प्रेरणा सैंधव सभ्यता से ही ग्रहण किया था ।

मोहेनजोदड़ों की खुदाई में स्तम्भयुक्त भवन के अवशेष प्राप्त हुए है । ऋग्वेद से भी पता चलता है कि अनार्यो के पुर शतभुजी अर्थात् सौ खम्भों वाले थे जिनका इन्द्र ने भेदन किया था । यहाँ सैंधव दुर्गों की ओर ही संकेत है । लगता है इन्हीं के अनुकरण पर मौर्य कलाकारों ने चन्द्रगुप्त के खम्भों वाले राजप्रासाद का निर्माण किया था । मूर्तिकला का प्रारम्भ सर्वप्रथम सिन्धु घाटी में ही किया गया ।

वहाँ के कलाकारों ने पाषाण, ताम्र, काँसा आदि की जिन कलात्मक मूर्तियों का सृजन किया उनका व्यापक प्रभाव बाद की हिन्दू कलना पर पड़ा । कुछ मुद्राओं पर वृषभ का अत्यंत सजीव तथा प्रभावपूर्ण चित्र मिलता है । कुछ विद्वानों का विचार है कि अशोक के समय के रमपुरवा वृषभ की आकृति इसी के अनुकरण पर बनाई गयी थी ।

सिन्धु सभ्यता में नर्तकी की जो मूर्ति मिलती है उसी के अनुकरण पर मथुरा की पाषाण वेष्टिनी पर यक्षी मूर्तियों का निर्माण हुआ प्रतीत होता है । इस प्रकार ऐतिहासिक काल की प्रारभिक मूर्तिकला सैंधव मूर्तिकला से प्रभावित है । सैंधव सभ्यता की एक प्रमुख देन नगर जीवन के क्षेत्र में है ।

पूर्ण विकसित नगरीय जीवन का सूत्रपात इसी सभ्यता से हुआ । सुरक्षा, स्वास्थ, स्वच्छता इत्यादि के क्षेत्र में सैंधव लोगों ने बाद की पीढ़ियों का दिशा निर्देशन किया है । नगर शासन के क्षेत्र में भी उनका योगदान है क्योंकि उनके नगरों में स्वास्थय एवं सफाई आदि के लिये नगर महापालिकाओं का अस्तित्व अवश्यमेव रहा होगा । सैंधव निवासियों का शासन अत्यन्त सुदृढ़ एवं एकात्मक था । कहा जा सकता है कि एकछत्र एवं सुदृढ़ शासन की प्रेरणा भारतीयों को उन्हीं से मिली ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सेन्धव सभ्यता में केवल नगरों का ही अन्त हुआ, सम्पूर्ण सभ्यता का नहीं । इसके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित सभी तथ्य केवल अवशिष्ट रहे अपितु उन्हें आज भी भारतीय जन-जीवन में न्यूनाधिक परिवर्तनों के साथ देखा जा सकता है । अतः यह कहना समीचीन नहीं है कि आर्यों ने सैन्धव सभ्यता का विनाश किया ।

सैन्धव सभ्यता के अन्त के पश्चात् देश के विभिन्न भागों में कई ग्रामीण संस्कृतियों का उदय हुआ । इनमें सिन्धु क्षेत्र में ‘झूकर संस्कृति’ पश्चिमी पंजाब में ‘कब्रिस्तान एच॰ (Cemetary H) संस्कृति’ पूर्वी पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि में पाण्डुवर्णी मृद्‌भाण्ड वाली संस्कृति तथा गुजरात क्षेत्र में, लाल चमकदार मृद्‌भाण्ड संस्कृति आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

इन सभी की पहचान अनेक प्रकार के मृद्‌भाण्डों के आधार पर की जाती है । इसके साथ ही देश के विभिन्न भागों में कई विकसित कृषि संस्कृतियाँ आस्तित्व में आई । नगरीकरण प्रायः विलुप्त हो गया जिसका पुनर्प्रारम्भ ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में हुआ ।


Home››History››