सीमित स्वशासन के प्रलोभन 1909-19 | Read this article in Hindi to learn about the temptation of self-government (1909-19) in India during British rule. 
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और विशेषकर 1857 के विद्रोह के कुचले जाने के बाद वाले काल को भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का चरमोत्कर्ष माना जाता है । उपनिवेशी शासन में शासकों में एक आत्मविश्वास से
भरी संरक्षक-भावना निरंकुशता का रूप लेने लगी, जो भारतवासियों के स्वशासन के किसी भी अधिकार को मानने के लिए तैयार नहीं थी ।

इस साम्राज्यिक विचार का एक दार्शनिक आधार भी था और व्यावहारिक आधार भी । दार्शनिक स्तर पर तो उस विचार को एरिक स्टोक्स के शब्दों में ”उदारवादी विचारधारा में भारत-संबंधी विचार-भेद” कहेंगे । यह विचार विभाजन अधीनस्थ साम्राज्य को लोकतंत्र और स्वशासन देने से संबंधित था ।

जहाँ आयरलैंड में होमरूल के प्रश्न पर इंग्लैंड का शिक्षित मानस पहले के ग्लैडस्टोन छाप उदारवाद के विरुद्ध हो चुका था, वहीं उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उपयोगितावाद ने इस सवाल पर कुछेक भिन्न-भिन्न मतों को जन्म दिया था ।

एक ओर जॉन ब्राइट और मैनचेस्टर संप्रदाय का घोर उदारवादी रुख था, जो भारत में ब्रिटिश राज की जमकर आलोचना करता था, दूसरी ओर मध्यमार्ग अपनानेवाले जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे दूसरे उदार उपयोगितावादी थे, जो यह मानते थे कि लोकतंत्र और स्वशासन निरंकुश शक्ति के लिए अनिवार्य अंकुश हैं, लेकिन वे यह भी मानते थे कि यह सिद्धांत केवल सभ्य जनगणों के लिए सही है ।

इसलिए उनकी आम राय में भारत पर निरंकुश शासन होना ही चाहिए । लेकिन उनको अठारहवीं सदी के पुनर्जागरण काल का यह आशावाद भी विरासत में मिला था कि समुचित शिक्षा के द्वारा मानव की प्रकृति को बदला जा सकता है ।

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इसलिए उन्होंने साम्राज्यिक लक्ष्य को एक शैक्षिक ध्येय के रूप में स्वीकार किया: भारतवासियों को तब स्वशासन का अधिकार दिया जा सकता है, जब उन्हें बुद्धिवाद और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार स्वशासन के उद्देश्य की समुचित शिक्षा दे दी जाए ।

भारत में जे. एस. मिल को मैकॉले और लॉर्ड रिपन जैसे शिष्य मिले, जो तब भी यह समझते थे कि भारतवासियों को सही समय आने पर स्वशासन के अधिकार दिए जा सकते हैं, जब वे इसके लिए समुचित सीमा तक शिक्षित किए जा चुके हों ।

इसके बावजूद एक तीसरा और अधिक निरंकुश विचार भी मौजूद था । बेंथम और जेम्स मिल दोनों की सोच यह थी कि लोकतंत्र सत्ता के दुरुपयोग पर एक अंकुश और अंतत: बहुमत की इच्छा दर्ज़ करने वाला साधन है ।

लेकिन वैयक्तिक स्वतंत्रता इनमें से किसी में भी विश्वास पैदा नहीं कर पाती थी; सुशासन का उद्देश्य स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सुख है । फ़िट्‌ज़जेम्स स्टीफ़ेन ने, जो भारत में वायसरॉय की काउंसिल के विधि सदस्य के रूप में मैकॉले का उत्तराधिकारी था, इस विचार से एक घोर निरंकुश निष्कर्ष निकाला ।

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उसने बेंथमवाद को होल की निरंकुशता के विचार से समन्वित किया-उसका मानना था कि विधान और सुशासन सुधार के साधन हैं, पर शक्ति का सहारा न हो तो दोनों ही निरर्थक हैं । इसी दर्शन से उसका यह रवैया पैदा हुआ कि भारत में ब्रिटिश राज की भूमिका सभ्यता की पैक्स ब्रिटानिका की प्रगति के लिए आवश्यक शांति और व्यवस्था की, स्थापना करना है । अंग्रेजों का काम भारत में यूरोपीय सभ्यता के बुनियादी सिद्धांतों को लागू करना है ।

उसने (स्टीफ़ेन ने) इस विचार को अस्वीकार कर दिया कि भारत में प्रातिनिधिक संस्थाओं की स्थापना अंग्रेजों का नैतिक दायित्व है । उसके अनुसार ये तभी प्रदान की जा सकती हैं, जब भारतवासियों का एक अच्छा-खासा भाग इसकी जोरदार माँग करे ।

भारत के सिविल कर्मचारियों पर असीमित प्रभाव रखनेवाला स्टीफ़ेन भारत में उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में निरंकुश ब्रिटिश साम्राज्य का विचारक बन बैठा । सुधार का आरंभ करना और किसी विशेष वर्ग को अनुग्रह देकर समर्थन पाने के विचार को अस्वीकार करना प्रत्यक्ष शासन का, साम्राज्यिक विधान का, शक्ति पर और कर्त्तव्य के एक इंजीलवादी (Evangelical) भाव पर आधारित साम्राज्य की परंपरा बन गया ।

फिर भी, क्रमिक ढंग से सही, भारत सरकार को उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में प्रतिनिधिक स्वशासन का आरंभ करना ही पड़ा । 1861 के इंडियन काउंसिल ऐक्ट ने बंगाल, मद्रास और बंबई में सीमित स्वशासन का आरंभ किया और फिर इसे 1886 में पश्चिमोत्तर प्रांत और 1897 में पंजाब में लागू किया गया ।

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1892 के कानून ने प्रांतीय विधायिकाओं (लेजिस्लेटिव काउंसिलों) में मनोनीत सदस्यों की संख्या बढ़ाई । फिर 1882 का स्थानीय स्वशासन का कानून 1883 में इल्वर्ट बिल 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार और 1919 में मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधार भी सामने आए ।

तो फिर हम इन सुधारों की व्याख्या कैसे करें ? इतिहासकारों का पुराना ”कैंब्रिज संप्रदाय” तो ”कमजोर साम्राज्यवाद” के अपने सिद्धांत का उल्लेख कर यह कहेगा कि ये सुधार तो साम्राज्यवाद की कार्यात्मक आवश्यकता की पूर्ति के लिए थे ।

बुनियादी तौर पर साम्राज्य के ”कमज़ोर” होने के कारण उसे राजनीतिक स्तर पर भारतीय सहयोगियों (collaborators) की आवश्यकता थी । इसलिए सिविल सेवा का धीरे-धीरे भारतीयकरण किया गया और स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में निचले स्तरों पर भारतवासियों को प्रवेश दिया गया ।

ब्रिटिश साम्राज्य में जबरदस्त केंद्रीकृत नियंत्रण था, पर तल में लचीलापन था और सत्ता के हस्तांतरण (devolution) का उद्देश्य मूलत: और अधिक सहयोगी पाना था । दूसरी ओर बी. आर. टॉमलिंसन (1975) ने ब्रिटिश राज के भारतीय साम्राज्य में एक वित्तीय संकट का तर्क दिया है, जिसने उसको साम्राज्यिक दायित्व पूरे करने नहीं दिए ।

इसलिए सत्ता के हस्तांतरण का उद्देश्य भारतीयों का समर्थन पाना था, क्योंकि निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधि अधिक राजस्व उगाहने में अधिक समर्थ होंगे और उसे खर्च करने में अधिक विवेक से काम लेंगे । यह अपने आप में कोई बहुत नया विचार नहीं था क्योंकि वित्तीय कारणों से हस्तांतरण पर बहस तो उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में ही शुरू हो चुकी थी ।

वास्तव में  भारतीय स्वशासन के विचार का विरोध युद्ध के दबावों और वित्तीय कमजोरियों के कारण हवा हो गया, लेकिन केवल वित्तीय आवश्यकताओं (exigencies) के आधार पर सुधारों की व्याख्या करना कठिन है । इस क्रमिक हस्तांतरण के पीछे एक अधिक महत्त्वपूर्ण कारण भारतीय राष्ट्रवाद का बढ़ता जोर था जिसे इतिहासकारों के कैंब्रिज संप्रदाय ने कम करके आँकना पसंद किया ।

स्वदेशी आंदोलन की तीव्रता और गरमपंथ के प्रसार ने उपनिवेशी प्रशासन को संवैधानिक सुधारों पर नई सोच के लिए विवश कर दिया, जबकि क्रांतिकारी राष्ट्रवाद ने इस प्रक्रिया को और बल पहुँचाया । यह नया चिंतन तो 1906 में ही आरंभ हो चुका था, जब भारत सचिव लॉर्ड मॉर्ले ने, जो एक उदारवादी विद्वान था, वायसरॉय लॉर्ड मिंटो से अलोकप्रिय बंग-भंग को सुधारों द्वारा संतुलित करने का आग्रह किया ।

हालांकि जहाँ एक ओर विभाजन को एक अटल सत्य करार दिया, गया वहीं दूसरी ओर यह भी अनुभव किया जाने लगा कि भारत पर एक अत्यंत कठोर नौकरशाही के बल पर अब आगे शासन नहीं किया जा सकता ।

भारतीयों को सत्ता में कुछ भागीदारी तो देनी ही होगी, उनको विधायिका में लेना होगा और जरूरी हो तो कार्यकारी परिषद में भी शामिल करना होगा । विधायिकाओं में बजट पर बहस के लिए अधिक समय देना होगा और सरकार द्वारा पेश प्रस्तावों पर संशोधन भी स्वीकार करने होंगे; पर साथ ही सरकार के बहुमत को भी बचाकर रखना होगा ।

इस नई नीति के तीन पहलू थे: एक ओर सीधे-सीधे दमन दूसरी ओर नरमपंथियों को साथ लाने के लिए रियायतें और उनके साथ मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचकमंडलों के माध्यम से बाँटो और राज करो का तरीका । संवैधानिक सुधारों पर बहस का आरंभ सितंबर 1906 में  मॉर्ले के बजट भाषण से हुआ ।

लंदन और कलकत्ता के बीच कुछ विवाद थे, जो खासकर नरमपंथियों की परिभाषा को लेकर थे । इस शब्द से मॉर्ले का आशय कांग्रेस नरमपंथियों से था, जबकि मिंटो का आशय कांग्रेस के बाहर के वफ़ादार तत्त्वों से था, जैसे रजवाड़ों के शासकों या मुस्लिम कुलीनों से ।

गदर के बाद भारतीय समाज के रूढ़िवादी तत्त्वों से गठजोड़ की नीति को अब बढ़ते राष्ट्रवादी दबाव को ध्यान में रखकर और अधिक संस्थागत रूप दिया जाने लगा । 1909 के इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट (मॉर्ले-मिंटो रिफार्म्स) ने सीमित स्वशासन का प्रावधान किया और इसलिए किसी भी भारतीय राजनीतिक समूह को संतुष्ट न कर सका ।

ब्रिटिश भारत के संवैधानिक सुधारों में यह सबसे अधिक अल्पजीवी साबित हुआ और दस साल के अंदर ही उसे संशोधित करना पड़ा । उसने बजट पर बहस करने सवाल पूछने और प्रस्ताव लाने के बारे में काउंसिलों के सदस्यों को कुछ अधिक शक्तियाँ अवश्य दीं; ये सदस्य अब पहली बार निर्वाचित होनेवाले थे ।

इस कानून ने चुनाव का सिद्धांत लागू किया, पर विभिन्न बाधाओं के साथ सीटों के आवंटन और चुनाव संबंधी योग्यताओं का निर्णय स्थानीय सरकारों पर छोड़ दिया गया, और इस तरह नौकरशाही के लिए जोड़-तोड़ की काफी संभावना बाकी रह गई ।

पेशेवर वर्गों भूस्वामियों, मुसलमानों तथा यूरोप और भारत के औद्योगिक तत्त्वों के अतिरिक्त प्रतिनिधित्व के लिए विशेष प्रावधान किया गया । इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में सरकार का बहुमत बनाए रखा गया; इसके 60 सदस्यों मे निर्वाचित सदस्य केवल 27 होते और उनमें भी 8 सीटें अलग मुस्लिम निर्वाचकमंडल के लिए आरक्षित थीं ।

प्रांतों की काउंसिलों में गैर-सरकारी बहुमत का प्रावधान था पर इस गैर-सरकारी बहुमत का महत्त्व इस बात से कम हो जाता है कि इन गैर-सरकारी सदस्यों में अनेक सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते । बंगाल की प्रांतीय विधायिका में निर्वाचित बहुमत का प्रावधान था, पर इन निर्वाचित सदस्यों में चार तो यूरोप के व्यापारिक हितों का प्रतिनिधित्व करते और उनसे हमेशा सरकार के पक्ष में मतदान करने की आशा की जाती थी । आखिरी बात यह कि निर्वाचनमंडल भारी संपत्ति संबंधी योग्यताओं (property qualifications) पर आधारित था और इसलिए बहुत अधिक सीमित था ।

कुछ विषमताएँ भी थीं, जैसे मुसलमानों के लिए आय संबंधी योग्यताएँ हिंदुओं की अपेक्षा कम रखी गई । सबसे बड़ी बात यह कि भारत सरकार को किसी भी उम्मीदवार को राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक होने के संदेह के आधार पर चुनाव लड़ने से रोकने का आम अधिकार प्राप्त था ।

पहले विश्वयुद्ध के दौरान मौजूदा संविधान के प्रति असंतोष में तथा स्वशासन के लिए और अधिक अधिकारों के शोर में और भी वृद्धि हुई । अब ब्रिटिश राज के राजनीतिक हलकों में भी भारत के लिए स्वशासन के विचार को और अधिक स्वीकृति मिली और इसके कारण ब्रिटिश राज की नीतियों में भी अहम बदलाव आए ।

लेकिन सुधार का विचार संभवत: भारत में ही पैदा हुआ, जहाँ सरकार आए दिन भारतीय राजनीति के एक अतिवादी रूपांतरण से जूझ रही थी । इस अनुभव ने ”साम्राज्य के अंदर ही भारतीय स्वशासन” के लक्ष्य के बारे में नए वायसरॉय लॉर्ड चेम्सफ्रोर्ड के उदारवादी दृष्टि को और बल पहुँचाया ।

लेकिन नवंबर 1916 में भारत सचिव के नाम भारत सरकार के पत्र में कहा गया था, कि यह स्वशासन धीरे-धीरे ही दिया जाना चाहिए तथा यह काम शिक्षा के प्रसार, धार्मिक भेदों के समाधान और राजनीतिक अनुभव की प्राप्ति की दर के अनुरूप होना चाहिए ।

दूसरे शब्दों में, सत्ता के हस्तांतरण की कोई निश्चित समय-सूची नहीं थी पर भारतवासियों को अपने ही शासन की निरंकुशता से बचाने के पर्याप्त उपाय किए गए थे । भारत में ब्रिटिश राज की संसदीय संस्थाओं की स्थापना का लक्ष्य इसलिए घोषित करना पड़ा कि भारतीय राजनीति में अतिवादी तत्त्व नरमपंथियों को धीरे-धीरे हाशिये पर धकेलते जा रहे थे ।

दिसंबर 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने पहली बार लखनऊ में एक साझा संवैधानिक कार्यक्रम तैयार किया । होमरूल आंदोलन के आरंभ और अप्रैल 1917 में उसकी नेता एनी बेसेंट की नजरबंदी ने भारतीय राजनीति में और भी गरमी पैदा की ।

लॉर्ड चेम्सफोर्ड का प्रशासन राष्ट्रवादी माँगों को पहले ही अनेक रियायतें दे चुका था, जैसे सूती कपड़े के आयात पर एक आबकारी शुल्क (excise duty) लगाए बिना तटकर शुल्क, श्रमिकों के बहिर्गमन पर प्रतिबंध लगाना आदि ।

अब वह भारत में ब्रिटिश राज के लक्ष्यों की घोषणा करने के लिए हताश था, लेकिन जुलाई 1917 में एडविन मांटेग्यू के भारत सचिव बनने तक कुछ भी नहीं हुआ । एक सहानुभूति रखनेवाले इतिहासकार ने उसे ”रिपन के बाद का सबसे उदार भारत सचिव” कहा है ।

मांटेग्यू ने 20 अगस्त 1917 को हाउस ऑफ कॉमंस में एक ऐतिहासिक घोषणा की कि आगे से भारत में ब्रिटिश राज की नीति ”ब्रिटिश साम्राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में भारत में उत्तरदायी शासन को अधिकाधिक साकार करने के उद्देश्य से स्वशासी संस्थाओं के क्रमिक विकास” की नीति होगी ।

दूसरे शब्दों में, इस घोषणा ने साम्राज्य के खाने से या भारत की स्वतंत्रता की घोषणा नहीं की । लेकिन सुधार के ये प्रस्ताव 1909 के कानून के मुकाबले निश्चित ही एक प्रगति के सूचक थे क्योंकि प्रांतों में कार्यकारी उत्तरदायित्व के साथ निर्वाचित बहुमत उसका मुख्य विषय था ।

लेकिन उत्तरदायी शासन को क्रमिक रूप से ही साकार किया जाना था । इस तरह यह एक अनिश्चितकालीन समयसूची का संकेत देता था, और जोड़-तोड़ करके आसानी से उदारवादी आशाओं पर पानी फेरा जा सकता था ।

मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधारों ने भारत में प्रातिनिधिक और उत्तरदायी शासन का सचमुच आरंभ करना चाहा या नहीं इस बारे में किसी नतीजे पर पहुँचने से पहले हमें उसके प्रावधानों की पड़ताल करनी होगी । 1919 के भारत सरकार अधिनियम ने केंद्र में एक दो सदनों वाली विधायिका का प्रावधान किया-काउंसिल ऑफ स्टेट और लेजिस्लेटिव असेंबली (धारा सभा) का ।

इस धारा सभा में बहुमत निर्वाचित सदस्यों का होता, पर मंत्रियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता । रद्द किए गए विधेयकों को जबरन लागू कराने के लिए वायसरॉय के पास ”सर्टिफिकेट” की कार्यपद्धति के रूप में वीटो की शक्ति होती । निर्वाचकों की संख्या को बढ़ाकर प्रांतो में 55 लाख और इंपीरियल लेजिस्लेचर (केंद्रीय धारा सभा) के लिए 15 लाख कर दिया गया ।

लेकिन दूसरी मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड रिपोर्ट में अलग-अलग निर्वाचकमंडलों के सिद्धांत की थोड़ी सैद्धांतिक आलोचना के बावजूद सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण को न सिर्फ जारी रखा गया, बल्कि काफ़ी बढ़ाया भी गया ।

मुसलमानों के अलावा सिखों को भी अलग निर्वाचकमंडल दिया गया, जबकि मद्रास में गैर-ब्राह्मणों के लिए सीटें आरक्षित की गई और सभी स्तरों पर विधायिकाओं में ‘उत्पीड़ित वर्गो’ (depressed classes) को मनोनीत सीटें दी गई ।

लेकिन इस नए कानून का सबसे प्रवर्तनकारी गुण ‘द्वैधशासन’ (dyarchy) था, जिसका अर्थ यह था कि प्रांतीय सरकारों के कुछ कार्यभार लेजिस्लेटिव असेंबलियों के सामने उत्तरदायी मंत्रियों को दिए गए जबकि दूसरे विषयों को नौकरशाही के जबरदस्त नियंत्रण के लिए ‘आरक्षित’ कर दिया गया ।

लेकिन  जो  विभाग वास्तव में हस्तांतरित किए गए उनका राजनीतिक महत्त्व कम था, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय निकाय आदि । इनका कोष सीमित था जिससे भारतीय मंत्री निश्चित रूप से बदनाम होते, जबकि कानून और व्यवस्था, वित्त आदि अधिक महत्त्वपूर्ण विभागों को आधिकारिक नियंत्रण में रखा गया । प्रांतों की कार्यकारी परिषदों में यूरोपवासियों और भारतवासियों के बीच प्रतिनिधित्व की समानता रखकर इसे कुछ हद तक संतुलित किया गया ।

लेकिन वीटो और सर्टिफ़िकेट की शक्तियाँ प्रांतों के गवर्नरों के पास भी थीं । राजस्व संसाधन केंद्र और प्रांतों के बीच बाँट दिए गए, मालगुज़ारी प्रांतों के हिस्से में आई, जबकि आयकर केंद्र के पास रहा । 1919 के सुधारों के महत्त्व का विभिन्न इतिहासकारों ने अलग-अलग मूल्यांकन किया है ।

एक ओर फिलिप वुड्‌स का तर्क यह था कि सुधारों के पीछे मौजूद विचार भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना और इस तरह वि-उपनिवेशीकरण (decolonisation) की प्रक्रिया के आरंभ के लिए नाजुक अहमियत रखते थे ।”

दूसरी ओर, कार्ल ब्रिज की दृष्टि में ये भारत में ”ब्रिटिश राज की मूल विशेषताओं को सुरक्षित रखनेवाले” कदम थे । टॉमलिंसन के लिए ये ”राज के समर्थन में … भारतीय जनमत के एक प्रभावशाली भाग को” लामबंद करने के प्रयास थे । इस सुधार के साथ प्रमुख समस्या जैसी कि पीटर रॉब ने पहचान की है, यह थी कि ”यह ब्रिटिश राज की मौजूदगी जारी रखने के विचारों के कारण सीमित” थी ।

उस समय तक अनेक भारतवासी साम्राज्य के अंदर स्वशासन के विचार से आगे बढ़ चुके थे । उनका नया लक्ष्य स्वराज था, जिसकी परिभाषा जल्द ही पूर्ण स्वाधीनता के रूप में की गई, इसलिए यह सुधार भारतीय राजनीतिक समूहों को संतुष्ट न कर सका, न अंतत: जन आंदोलन को फूटने से रोक सका ।

कैंब्रिज संप्रदाय ने 1909 और 1919 के सुधारों तथा पहले विश्वयुद्ध के बाद जन-राजनीति के उदय के बीच एक अलग ही ढंग से संबंध स्थापित करने की कोशिश की है । जब निर्वाचकमंडल का विस्तार हुआ तो, भारतीय नेता लोकतांत्रिक ढंग से काम करने और जनता का समर्थन पाने की कोशिश करने पर मजबूर हो गए ।

यह व्याख्या निश्चित तौर पर महात्मा गांधी के नेतृत्व में जनता के उभार की व्याख्या नहीं करती । दिसंबर 1920 में गांधीजी ने जो असहयोग कार्यक्रम आरंभ किया, उसका एक प्रमुख तत्त्व नई परिषदों का बहिष्कार था ।

गांधीवादी दर्शन पश्चिमी नागरिक समाज की एक समालोचना पर आधारित था; जो जन-आंदोलन उन्होंने आरंभ किया उसका तर्कशास्त्र ही पूरी तरह अलग था, क्योंकि उनका ध्येय भारतीय राजनीति को संविधानवाद के इस संकुचित दायरे से मुक्त कराना था ।

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