मौर्ययुगीन साम्राज्य: शासन प्रबन्ध तथा न्याय व्यवस्था | Mauryan Empire: Administration and Judicial System. Read this article in Hindi to learn about:- 1. मगध साम्राज्य के शासन प्रबन्ध (Administration during Mauryan Empire) 2. मगध साम्राज्य के प्रान्तीय शासन (Provincial Governance of Mauryan Empire) 3. न्याय-व्यवस्था (Judicial System) and Other Details.

Contents:

  1. मगध साम्राज्य के शासन प्रबन्ध (Administration during Mauryan Empire)
  2. मगध साम्राज्य के प्रान्तीय शासन (Provincial Governance of Mauryan Empire)
  3. मगध साम्राज्य के न्याय-व्यवस्था (Judicial System of Mauryan Empire)
  4. मौर्य सेना का प्रबन्ध (Management of Mauryan Army)
  5. मगध साम्राज्य के प्रबुद्ध राजतन्त्र (Enlightened Monarchy of Mauryan Empire)
  6. मगध साम्राज्य के  भाषा तथा साहित्य (Language and Literature of Mauryan Empire)
  7. मगध साम्राज्य के  कला तथा स्थापत्य (Art and Architecture of Mauryan Empire)


1. मगध साम्राज्य के शासन प्रबन्ध (Administration during Mauryan Empire):

मगध साम्राज्य के उत्कर्ष की जो प्रक्रिया बिम्बिसार से प्रारम्भ हुई वह मौर्य सम्राटों के अधीन पूर्णता को प्राप्त हुई । देश में प्रथम बार एक विशाल चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना हुई जिसकी राजधानी बनने का गौरव पाटलिपुत्र को प्राप्त हुआ । राजनीतिक एकता और सुदृढ़ता के वातावरण में भौतिक एवं सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त हुआ ।

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मौर्य शासन व्यवस्था का जनक चन्द्रगुप्त था । वह न केवल एक महान् विजेता ही था, अपितु एक उच्चकोटि का प्रशासक भी था । वह युद्ध के समय जितना स्कूर्तिवान था, शान्ति-काल में उससे कहीं अधिक कर्मठ था ।

उसके नेतृत्व में भारतवर्ष ने सर्वप्रथम राजनीतिक केन्द्रीकरण के दर्शन किये थे तथा चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को व्यवहारिक रूप प्रदान किया गया । उसने जिस विस्तृत शासन-व्यवस्था की नींव डाली उसके अनेक तत्व यद्यपि ईरानी और यूनानी शासन से ग्रहण किये गये थे, तथापि वह पर्याप्त अंशों में अद्भुत एवं मौलिक ही थी ।

इस शासन-व्यवस्था का चरम लक्ष्य प्रत्येक परिस्थिति में जनता का हित-साधन करना था । चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा मेगस्थनीज की इण्डिका से महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती हैं ।

रुद्रदामन् का गिरनार शिलालेख पश्चिमी भारत में मौर्य प्रशासन के अध्ययन के लिये बहुमूल्य सामग्रियाँ प्रदान करता है । यहाँ हम इन्हीं स्रोतों के आधार पर उसकी शासन-व्यवस्था की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे ।

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सम्राट:

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था । प्रथम बार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ही हम राज्य की सुस्पष्ट परिभाषा पाते हैं जहाँ वह इसे सात प्रकृतियों की समष्टि कहता है । इनमें सम्राट की स्थिति ‘कूटस्थनीय’ होती थी (तत् कूटस्थानीयो हि स्वामी इति) ।

राजा में सभी अधिकार एवं शक्तियाँ निहित थीं । सम्राट अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास नहीं करता था, फिर भी वह ईश्वर का प्रिय पात्र समझा जाता था । वह सैनिक, न्यायिक, वैधानिक एवं कार्यकारी मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था । वह सेना का सबसे बड़ा सेनापति, न्याय का प्रधान न्यायाधीश, कानूनों का निर्माता तथा धर्मप्रवर्तक माना जाता था । शास्त्र तथा राजा के न्याय (धर्मन्याय) में विरोध होने पर अन्तिम को ही प्रमाण माना जाता था ।

वह साम्राज्य के सभी महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति करता था और इस प्रकार वह प्रशासन का प्रमुख स्रोत था । उसकी दिनचर्या अत्यन्त कठोर थी । मेगस्थनीज हमें बताता है कि वह दिन में नहीं सोता था अपितु निर्णय देने या अन्य सार्वजनिक कार्यों के लिये पूरे दिन राजसभा में बैठा रहता था और प्रजा के प्रतिवेदनों को सुना करता था ।

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इस कार्य में वह किसी प्रकार का अवरोध सहन नहीं कर सकता था । ‘जब उसका शरीर आबनूस के मुगदरों से दबाया जाता था अथवा उसके शरीर के मालिश का समय रहता था तब भी वह प्रजा की शिकायतों को सुना करता था । अपने बाल झाड़ने तथा सँवारने के समय भी उसे जनता के कार्य से छुट्टी नहीं थी । इस समय वह राजदूतों की बात सुना करता था ।’

इस विषय में कौटिल्य का भी स्पष्ट मत था कि राजा को प्रजा की शिकायतों को सुनने के लिये सदैव सुलभ रहना चाहिये तथा प्रजा से अधिक देर तक प्रतीक्षा नहीं करवानी चाहिये । वह स्पष्टतः चेतावनी देता है कि- ‘जिस राजा का दर्शन प्रजा के लिये दुर्लभ है, उसके अधिकारी प्रजा के कामों को अव्यवस्थित कर देते हैं जिससे राजा या तो प्रजा का कोपभाजन बनता है या शत्रुओं का शिकार होता है ।’

अत: राजा को सदा उद्योगपरायण अर्थात् कार्य में संलग्न रहना चाहिये । यही उसका व्रत है । सम्राट मुख्यतः राजधानी में रहता था तथा विशाल राजप्रासाद में निवास करता था । उसकी राजसभा ऐश्वर्य एवं शान-शौकत से परिपूर्ण होती थी ।

वह अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान रखता था । वह सदैव सशस्त्र अंगरक्षकों से घिरा रहता था । राजमहल से बाहर निकलने पर मार्ग में सशस्त्र सैनिक उसकी सुरक्षा के लिये तैनात किये जाते थे । इस प्रकार कौटिल्य की व्यवस्था में राजनैतिक एवं सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों पर सम्राट का पूर्ण नियंत्रण था ।

राज्य के सप्तांगों में वह सम्राट (स्वामी) को ही सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है । उसके शेष अंग- अमात्य, जनपद, दुर्ग कोष, बल तथा मित्र-सम्राट के द्वारा ही संचालित होते हैं तथा अपने अस्तित्व के लिये उसी पर निर्भर करते हैं (राजा राज्यमिति प्रकृति संक्षेप) ।

अमात्य, मन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद:

सम्राट अपने कार्यों में अमात्यों, मन्त्रियों तथा अधिकारियों से सहायता प्राप्त करता था । अमात्य या सचिव एक सामान्य सका थी जिससे राज्य के सभी प्रमुख पदाधिकारियों का बोध होता था । यूनानी लेखक इन्हें ‘सभासद तथा निर्धारक’ कहते हैं ।

‘ये सार्वजनिक कार्यों में सम्राट की सहायता करते थे । उनकी संख्या यद्यपि कम थी तथापि वे अत्यन्त प्रभावशाली थे ।’ प्रशासन के प्रमुख पदाधिकारियों का चयन उन्हीं के परामर्श से किया जाता था । परन्तु वे सभी मन्त्री नहीं होते थे ।

वह अपने अमात्यों में से जो सभी प्रकार के आकर्षणों से परे हुआ करते थे, मन्त्री नियुक्त करता था । ये मन्त्री एक छोटी उपसमिति के सदस्य थे जिसे “मन्त्रिण:” कहा जाता था । इसमें कुल तीन या चार सदस्य होते थे । आत्ययिक (जिनके बारे में तुरन्त निर्णय लेना हो) विषयों में ‘मन्त्रिण:’ से परामर्श की जाती थी । संभवतः इनमें युवराज, प्रधानमन्त्री, सेनापति तथा सन्निधाता (कोषाध्यक्ष) आदि सम्मिलित थे ।

‘मन्त्रिण:’ के अतिरिक्त एक नियमित मन्त्रिपरिषद् भी होती थी जिसकी सदस्य संख्या अवश्य ही काफी खड़ी होगी क्योंकि कौटिल्य के अनुसार बड़ी मन्त्रिपरिषद् रखना राजा के अपने हित में होता है और इससे उसकी ‘मन्त्रशक्ति’ बढ़ती है ।

इस प्रसंग में वह एक सहस्त्र सदस्यों वाली इन्द्र की मंत्रिपरिषद का उल्लेख करता है जिसके कारण उन्हें ‘सहस्त्राक्ष’ कहा जाता था । मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था । आवश्यक कार्यों के विषय में निर्णय के लिये इसकी सभा बुलायी जाती थी तथा बहुमत से निर्णय लिए जाते थे किन्तु सम्राट को यह अधिकार था कि वह बहुमत के निर्णय की उपेक्षा कर अल्पमत के निर्णय को ही स्वीकार करें, यदि ऐसा करना राष्ट्र के हित में हो ।

मंत्रिपरिषद तथा मन्त्रिण: का क्या सम्बन्ध था, यह निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता । परन्तु ऐसा लगता है कि मन्त्रिण: के सदस्य मन्त्रिपरिषद के सदस्यों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होते थे । मन्त्रिण: के सदस्यों को 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था । राजा प्रायः मन्त्रिण: तथा मन्त्रिपरिषद् की ही परामर्श से शासन कार्य करता था ।

अर्थशास्त्र में मंत्रिपरिषद को एक वैधानिक आवश्यकता बताया गया है । उसके अनुसार- “राजत्व केवल सबकी सहायता से ही सम्भव है, सिर्फ एक पहिया नहीं चल सकती । अत: राजा को सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिये और उनसे मन्त्रणा लेनी चाहिये ।”

इसी प्रकार अन्यन्त्र वर्णित है, राजवृत्ति तीन प्रकार की होती है- प्रत्यक्ष, परोक्ष तथा अनुमेय । जो अपनी आँखों से देखा जाये, वह प्रत्यक्ष, जिसे दूसरे लोग बतायें वह परोक्ष तथा कृत कार्यों को देखकर शेष का अनुमान कर लेना ही अनुमेय है ।

राजा के पास अनेक काम होते हैं जो एक साथ पूरे नहीं किये जा सकते । ये काम भिन्न-भिन्न स्थानों में होते हैं और अकेला राजा उन्हें पूरा नहीं कर सकता । अत: राजा मन्त्रियों को नियुक्त करके उन कार्यों को सम्पन्न करवाये ।

दुर्भाग्यवश अर्थशास्त्र में मन्त्रियों तथा अध्यक्षों में कोई खास अन्तर नहीं था । इसी कारण कौटिल्य ने मन्त्रियों के विभागों का अलग से उल्लेख नहीं किया है । मंत्रिपरिषद् का कार्य ‘अनारब्ध कार्य को प्रारम्भ करना, आरम्भ हुए को पूरा करना, पूरे हुए कार्य में सुधार करना तथा राजकीय आदेशों का कठोरता के साथ पालन करवाना’ बताया गया है ।

केन्द्रीय अधिकारी-तन्त्र:

अर्थशास्त्र में केन्द्रीय प्रशासन का अत्यन्त विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । शासन की सुविधा के लिये केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बँटा हुआ था । प्रत्येक विभाग को ‘तीर्थ’ कहा जाता था ।

अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों के प्रधान पदाधिकारियों का उल्लेख हुआ है:

(i) मन्त्री और पुरोहित,

(ii) समाहर्ता,

(iii) सन्निधाता,

(iv) सेनापति,

(v) युवराज,

(vi) प्रदेष्टा,

(vii) नायक,

(viii) कर्मान्तिक,

(ix) व्यवहारिक,

(x) मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष,

(xi) दण्डपाल,

(xii) अन्तपाल,

(xiii) दुर्गपाल,

(xiv) नागरक,

(xv) प्रशास्ता,

(xvi) दौवारिक,

(xvii) आन्तर्वंशिक तथा

(xviii) आटविक ।

इनमें मन्त्री तथा पुरोहित प्रधानमन्त्री तथा प्रमुख धर्माधिकारी होते थे । चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ये दोनों ही विभाग कौटिल्य के अधीन थे । समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी था, सन्निधाता राजकीय कोषाधिकरण का प्रमुख अधिकारी होता था, सेनापति युद्ध विभाग का मन्त्री था, युवराज राजा का उत्तराधिकारी होता था जो अपने पिता के शासन काल में प्रशासनिक कार्यों में उसकी मदद करता था, प्रदेष्टा फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश, नायक सेना का संचालक, कर्मान्तिक देश के उद्योग-धन्धों का प्रधान निरीक्षक, व्यावहारिक दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश, मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष, दण्डपाल सेना की सामग्रियों को जुटाने वाला प्रधान अधिकारी, अन्तपाल सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक, दुर्गपाल देश के भीतर दुर्गों का प्रबन्धक, नागरक नगर का प्रमुख अधिकारी, प्रशास्ता राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला तथा राजकीय आज्ञाओं को लिपिबद्ध कराने वाला प्रधान अधिकारी, दौवारिक राजमहलों की देख-रेख करने वाला प्रधान अधिकारी, आन्तर्वंशिक सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रधान तथा आटविक वन विभाग का प्रधान अधिकारी होता था ।

ये उच्च श्रेणी के अधिकारी थे । उपर्युक्त पदाधिकारियों के अतिरिक्त अनेक अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है । इन्हें ‘अध्यक्ष’ कहा गया है जिनके जिम्मे कोई न कोई सरकारी विभाग होता था । अर्थशास्त्र में विभागीय अध्यक्षों तथा उनके कार्यों की एक लम्बी सूची मिलती है । सम्भवत: इन अध्यक्षों को ही यूनानी लेखकों ने ‘मजिस्ट्रेट’ कहा है ।

इसमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं- पण्याध्यक्ष (वाणिज्य का अध्यक्ष), सुराध्यक्ष, सूनाध्यक्ष (बूचड़खाने का अध्यक्ष), गणिकाध्यक्ष (वेश्याओं का निरीक्षक), सीताध्यक्ष (राजकीय कृषि विभाग का अध्यक्ष), आकराध्यक्ष (खानों का अध्यक्ष) कोष्ठागाराध्यक्ष, कुप्याध्यक्ष (वन तथा उसकी सम्पदा का अध्यक्ष), आयुधागाराध्यक्ष, शुल्कध्यक्ष, सूत्राध्यक्ष (कताई-बुनाई विभाग का अध्यक्ष), लोहाध्यक्ष (धातु विभाग का अध्यक्ष), लक्षणाध्यक्ष (छापेखाने (Mint House) का अध्यक्ष), सुवर्णाध्यक्ष, गोSध्यक्ष (पशुधन विभाग का अध्यक्ष), वीवीताध्यक्ष (चारागाह का अध्यक्ष), मुद्राध्यक्ष (पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष), नवाध्यक्ष (जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष), पत्तनाध्यक्ष (बन्दरगाहों का अध्यक्ष), संस्थाध्यक्ष (व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष), देवताध्यक्ष (धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्षा) ।

मौर्यों के केन्दीय प्रशासन में अध्यक्षों का महत्वपूर्ण स्थान था तथा उन्हें 1000 पण वार्षिक वेतन मिलता था । मजिस्ट्रेटों के कार्यों का वर्णन करते हुए मेगस्थनीज लिखता है कि- “उनमें से कुछ बाजार, कुछ नगर, कुछ सेना के अधिकारी थे ।

कुछ नदियों की देख-भाल करते थे तथा बन्द जलसंग्रहों, जिनके द्वारा नदियों में पानी बहता था, का निरीक्षण करते थे ताकि सबको समान जल प्राप्त हो सके । वे आखेटकों के भी अधिकारी थे तथा उन्हें पुरस्कृत अथवा दण्डित करने का भी अधिकार प्राप्त था । वे कर-संग्रह करते तथा भूमि-सम्बन्धी व्यवसायों, जैसे- लकड़ी काटना, बढ़ईगिरी, पीतल तथा खान में कार्य करने वालों का निरीक्षण करते थे । वे सार्वजनिक मार्गों का निरीक्षण करते थे तथा दूरी बताने के लिए प्रति दस स्टेडिया पर स्तम्भ स्थापित करते थे । जो नगरों के अधिकारी थे वे पाँच-पाँच सदस्यों वाली छ: परिषदों में विभक्त थे ।”

यहाँ उल्लेखनीय है कि विभागीय अध्यक्ष भी अमात्यों में से ही नियुक्त किये जाते थे । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रथम श्रेणी के अमात्य मन्त्रिण के सदस्य, द्वितीय श्रेणी के अमात्य मन्त्रिपरिषद् के सदस्य राधा तृतीय श्रेणी के अमात्य विभागीय अध्यक्ष होते थे ।


2. मगध साम्राज्य के प्रान्तीय शासन (Provincial Governance of Mauryan Empire):

चन्द्रगुप्त मौर्य का विशाल साम्राज्य अवश्य ही प्रान्तों में विभाजित रहा होगा, परन्तु उसके साम्राज्य के प्रान्तों की निश्चित संख्या हमें ज्ञात नहीं है ।

उनके पौत्र अशोक के अभिलेखों से हमें उसके निम्नलिखित प्रान्तों के नाम ज्ञात होते हैं:

(1) उदीच्य- (उत्तारापथ) इसमें पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित था । इसकी राजधानी तक्षशिला थी ।

(2) अवन्तिरट्‌ठ- इस प्रदेश की राजधानी उज्जयिनी थी ।

(3) कलिग- यहाँ की राजधानी तोसलि थी ।

(4) दक्षिणापथ- इसमें दक्षिणी भारत का प्रदेश शामिल था जिसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी । के. एस. आयंगर इस स्थान की पहचान रायचूर जिले में स्थित आधुनिक कनकगिरि से करते हैं ।

(5) प्राच्य या प्रासी- इससे तात्पर्य पूर्वी भारत से है । इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी ।

उपर्युक्त प्रान्तों में से उत्तरापथ, अवन्तिरट्‌ठ तथा प्राच्य निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य के भी समय में विद्यमान थे । यह असम्भव नहीं कि दक्षिणापथ भी उसके साम्राज्य का एक अंग रहा हो । इन प्रान्तों के राज्यपाल प्रायः राजकुल से सम्बन्धित ‘कुमार’ होते थे ।

किन्तु कभी-कभी अन्य योग्य व्यक्तियों को भी राज्यपाल बनाया जाता था । चन्द्रगुप्त ने पुष्यगुप्त वैश्य को काठियावाड़ का राज्यपाल बनाया था । अर्थशास्त्र के अनुसार राज्यपाल को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था । वे अनेक अमात्यों एवं अध्यक्षों की सहायता से प्रान्तों का शासन चलाते थे । उनके पास अपनी मन्त्रिपरिषद् भी थी ।

मण्डल, जिला तथा नगर प्रशासन:

प्रत्येक प्रान्त में कई मण्डल होते थे जिनकी ममता हम आधुनिक कमिश्नरियों से स्थापित कर सकते हैं । अर्थशास्त्र में उल्लिखित ‘प्रदेष्टा’ नामक अधिकारी मण्डल का प्रधान होता था । अशोक के लेखों में इसी को ‘प्रादेशिक’ कहा गया है ।

वह अपने मण्डल के अधीन विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्यों का निरीक्षण करता था तथा समाहर्ता के प्रति उत्तरदायी होता था । मण्डल का विभाजन जिलों में हुआ था जिन्हें ‘आहार’ या ‘विषय’ कहा जाता था । जिले के नीचे ‘स्थानीय’ होता था जिसमें 800 ग्राम थे । स्थानीय के अन्तर्गत दो ‘द्रोणमुख’ थे । प्रत्येक के चार-चार सौ ग्राम होते थे ।

द्रोणमुख के नीचे खार्वटिक तथा खार्वटिक के अन्तर्गत 20 संग्रहण होते थे । प्रत्येक खार्वटिक में दो सौ ग्राम तथा प्रत्येक संग्रहण में दम ग्राम थे । इन संस्थाओं के प्रधान, न्यायिक, कार्यकारी तथा राजस्व सम्बन्धी अधिकारों का उपभोग करते तथा युक्त नामक पदाधिकारियों की सहायता से अपना कार्य करते थे ।

संग्रहण का प्रधान अधिकारी ‘गोप’ कहा जाता था । मेगस्थनीज जिले के अधिकारियों को एग्रोनोमोई कहता है । वह विभिन्न वर्गों के कर्मचारियों का उल्लेख करता है जो जिले के विभिन्न विभागों का शासन चलाते थे । भूमि तथा सिंचाई, कृषि, बन, काष्ठ-उद्योग, धातु शालाओं, खानों तथा सड़कों आदि का प्रबन्ध करने के लिए अलग-अलग पदाधिकारी थे ।

मौर्य युग में प्रमुख नगरों का प्रशासन नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था । नगर शासन के लिए एक सभा होती थी जिसका प्रमुख ‘नागरक’ अथवा ‘पुरमुख्य’ कहा जाता था । मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर-परिषद की पाँच-पाँच सदस्यों वाली छ: समितियों का उल्लेख किया है ।

पहली समिति विभिन्न प्रकार के औद्योगिक कलाओं का निरीक्षण करती तथा कारीगरों और कलाकारों के हितों की देख-रेख करती थी । दूसरी समिति विदेशी यात्रियों के भोजन, निवास तथा चिकित्सा का प्रबन्ध करती थी । यदि वे देश से बाहर जाते थे तो यह उनकी अगुआई करती थी तथा उनकी मृत्यु हो जाने पर अंत्येष्टि संस्कार का भी प्रबन्ध करती थी । राज्य की सुरक्षा के लिये विदेशियों के आचरण एवं उनकी गतिविधियों के ऊपर कड़ी दृष्टि रखना भी इस समिति का कार्य था ।

तीसरी समिति जनगणना का हिसाब रखती थी । चौथी समिति नगर के व्यापार-वाणिज्य की देख-रेख करती थी । विक्रय की वस्तुओं तथा माप-तौल का नियन्त्रण करना इसी का कार्य था । किसी भी व्यक्ति को दो वस्तुओं को बेचने की अनुमति तब तक नहीं मिलती थी जब तक कि वह दूना कर अदा न कर दे ।

पाँचवीं उद्योग समिति थी जो बाजारों में बिकने वाली वस्तुओं में मिलावट को रोकती तथा मिलावट के अपराध में व्यापारियों को दण्ड दिलवाती थी । नई तथा पुरानी दोनों प्रकार की वस्तुओं को बेचने के लिये अलग-अलग प्रबन्ध था । छठीं कर समिति थी जिसका काम क्रय-विक्रय की वस्तुओं पर कर वसूलना था । वह बिक्री के मूल्य का 1/10 होता था । इस कर की चोरी करने वालों को मृत्युदण्ड दिया जाता था ।

मेगस्थनीय नगर के पदाधिकारियों को एस्टिनोमोई कहता है । यद्यपि अन्य नगरों के शासन के विषय में हमें ज्ञात नहीं है तथापि इस विवरण के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि पाटलिपुत्र के समान दूसरे प्रमुख नगरों में भी समितियाँ रही होंगी । इससे स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य युग में नगरों को स्वायत्त शासन प्राप्त था ।

ग्राम-प्रशासन:

ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होता था । ग्राम का अध्यक्ष ‘ग्रामणी’ होता था । वह ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होता था तथा वेतन-भोगी कर्मचारी नहीं था । अर्थशास्त्र ‘ग्रामवृद्धपरिषद’ का उल्लेख करता है । इसमें ग्राम के प्रमुख व्यक्ति होते थे जो ग्राम शासन में ग्रामणी की मदद करते थे । राज्य सामान्यतः ग्रामों के शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था ।

ग्रामणी को ग्राम की भूमि का प्रबन्ध करने तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करने का अधिकार था । ग्राम-वृद्धों की परिषद् न्याय का भी कार्य करती थी । यह ग्रामों के छोटे-मोटे विवादों का फैसला करती तथा जुर्माना आदि लगा सकती थी । ग्रामणी कृषकों से भूमिकर एकत्र कर राजकीय कोषागार में जमा करता था ।

ग्राम सभा के कार्यालय का कार्य ‘गोप’ नामक कर्मचारी किया करते थे । वे ग्राम के घरों तथा निवासियों का ठीक ढंग से विवरण सुरक्षित रखते थे और उनसे प्राप्त होने वाले करों का भी हिसाब-किताब रखते थे । चन्द्रगुप्त मौर्य-कालीन ग्राम शासन के विषय में सोहगौरा (गोरखपुर) तथा महास्थान (बँगला देश के बोगरा जिले में स्थित) के लेखों से कुछ सूचनायें प्राप्त होती हैं । इनमें जनता की सुरक्षा के लिए बनवाये गये कोष्ठागारों का उल्लेख मिलता है ।

अर्थशास्त्र में भी कोष्ठागार-निर्माण की चर्चा है । इससे लगता है कि कर वसूली अन्नों के रूप में भी की जाती थी तथा इन्हें कोष्ठागारों में संचित किया जाता था । इस अन्न को अकाल, सूखा जैसी दैवी आपत्तियों के समय ग्रामीण जनता के बीच वितरित किया जाता था ।


3. मगध साम्राज्य के न्याय-व्यवस्था (Judicial System of Mauryan Empire):

मौर्यों के एकतन्त्रात्मक शासन में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था । वह सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई की अन्तिम अदालत था । इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण साम्राज्य में अनेक अदालतें होती थीं ।

न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के थे:

1. धर्मस्थीय तथा

2. कण्टक-शोधन ।

इन न्यायालयों का अन्तर बहुत स्पष्ट नहीं है, फिर भी हम इन्हें सामान्यतः दीवानी तथा फौजदारी न्यायालय कह सकते हैं । इन दोनों में तीन-तीन न्यायाधीश एक साथ बैठकर न्याय का कार्य करते थे । विदेशियों के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष प्रकार की अदालतें संगठित की गयी थीं । दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे । सामान्य अपराधों में आर्थिक जुर्माने होते थे ।

कौटिल्य तीन प्रकार के अर्थदण्डों का उल्लेख करता है:

(1) पूर्व साहस दण्ड- यह 48 से लेकर 96 पण तक होता था ।

(2) मध्यम साहस दण्ड- यह 200 से 500 पण तक होता था ।

(3) उत्तम साहस दण्ड- यह 500 से 1000 पण तक होता था ।

इसके अतिरिक्त कैद, कोड़े मारना, अंग-भंग तथा मृत्यु-दण्ड की सजा दी जाती थी । कारीगरों की अंग-क्षति करने पर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था । इसी प्रकार का दण्ड करों की चोरी करने वालों तथा राजकीय धन का घोटाला करने वालों को भी मिलता था ।

अर्थशास्त्र से पता चलता है कि युक्त नामक अधिकारी प्रायः धन का अपहरण करते थे । एक स्थान पर उल्लिखित है कि- ‘जिस प्रकार जल में विचरण करती हुई मछलियों को जल पीते हुये कोई नहीं देख सकता उसी प्रकार आर्थिक पद पर नियुक्त युक्तों को धन का अपहरण करने पर कोई जान नहीं सकता है ।’

ब्राह्मण विद्रोहियों को जल में डुबो कर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था । जिस अपराध में कोई प्रमाण नहीं मिलता था वहाँ जल, अग्नि तथा विष आदि द्वारा दिव्य परीक्षाएँ ली जाती थीं । मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि दण्डों की कठोरता के कारण अपराध प्रायः नहीं होते थे । लोग अपने घरों को असुरक्षित छोड़ देते थे तथा ने कोई लिखित समझौता नहीं करते थे ।

कानून की शरण लोग बहुत कम लेते थे । एक बार जब वह चन्द्रगुप्त के सैनिक शिविर में गया तो उसे पता चला कि- ‘सम्पूर्ण सेना में चोरी की गयी वस्तुओं का मूल्य 200 द्रेक्कम से भी कम था ।’ अर्थशास्त्र से पता चलता है कि जो अमात्य ‘धर्मोपधाशुद्ध’ अर्थात् धार्मिक प्रलोभनों द्वारा शुद्ध चरित्र वाले सिद्ध होते थे, उन्हें ही न्यायाधीश बनाया जाता था । न्यायाधीशों को धर्म, व्यवहार, चरित्र, तथा राजशासन का अध्ययन करके ही दण्ड का निर्णय करना पड़ता था ।

इन चारों में राजशासन (राजाज्ञा) ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता था । न्यायालयों के कर्मचारियों के लिए भी दण्ड की व्यवस्था की गयी थी । गलत बयान लिखने, निरपराध व्यक्ति को कारावास देने, अपराधी को छोड़ देने के दोष में न्यायाधीशों एवं न्यायालय के कर्मचारियों को दण्ड दिये जाते थे ।

गुप्तचर विभाग:

चन्द्रगुप्त मौर्य के विस्तृत प्रशासन की सफलता बहुत कुछ अंशों में कुशल गुप्तचर विभाग पर आधारित थी । यह विभाग एक अमात्य के अधीन रखा गया जिसे ‘महामात्यापसर्प’ कहा जाता था । गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में ‘गूढ़ पुरुष’ कहा गया है ।

इस विभाग में वे व्यक्ति नियुक्त किये जाते थे जिनके चरित्र की शुद्धता एवं निष्ठा की परीक्षा सब प्रकार से कर ली जाती थी, उपाधिभि: शुद्धामात्यवर्गों गूढ़पुरुषानुत्पादयेत् । पूरे साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा हुआ था । वे अनेक प्रकार के छद्‌मवेषों में भ्रमण किया करते थे तथा दिन-प्रतिदिन के कार्यों की सूचना सम्राट को दिया करते थे ।

वे सभी प्रकार के पदाधिकारियों की गतिविधियों पर दृष्टि रखते थे । अर्थशास्त्र में कहा गया है कि- ‘शत्रु, मित्र मध्यम तथा उदासीन सब प्रकार के राजाओं एवं अट्‌ठारह तीर्थों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति की जानी चाहिये ।’

यूनानी लेखकों ने उन्हें निरीक्षक तथा ओवरसियर्स कहा है । स्ट्रेबो के अनुसार इन दोनों पदों पर अत्यन्त योग्य तथा विश्वसनीय व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी । अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है- संस्था: अर्थात् एक ही स्थान पर रहने वाले तथा संचरा: अर्थात् प्रत्येक स्थानों में भ्रमण करने वाले । पुरुषों के अतिरिक्त चतुर स्त्रियाँ भी गुप्तचरी करती थी । अर्थशास्त्र से पता चलता है कि वेश्यायें भी गुप्तचरों के पदों पर नियुक्त की जाती थीं ।

यदि कोई गुप्तचर गलत सूचना देता था तो उसे दण्डित किया जाता था तथा पद से मुक्त कर दिया जाता था । गुप्तचर के अतिरिक्त शान्ति व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधों की रोकथाम के लिये पुलिस भी थी जिसे अर्थशास्त्र में ‘रक्षिन्’ कहा गया है ।

भूमि तथा राजस्व:

चन्द्रगुप्त की सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ वित्तीय आधार पर अवलम्बित थी । साम्राज्य के समस्त आर्थिक कार्य-कलापों पर सरकार का कठोर नियंत्रण होता था । कृषि की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया गया तथा अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया गया ।

भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार होता था । राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी ‘सीताध्यक्ष’ था जो दासों, कर्मकारों तथा बन्दियों की सहायता से खेती करवाता था । कुछ राजकीय भूमि खेती करने के लिये कृषकों को भी दे दी जाती थी ।

राज्य की आय का प्रमुख सोत भूमि-कर था । यह सिद्धान्तत: उपज का 1/6 होता था, परन्तु व्यवहार में आर्थिक स्थिति के अनुसार कुछ बढ़ा दिया जाता था । अर्थशास्त्र तथा यूनानी प्रमाणों से पता चलता है कि मौर्य शासन में कृषि की आय पर लोगों को 25% तक कर देना पड़ता था ।

ऐसी भूमि से तात्पर्य राजकीय भूमि से है । अर्थशास्त्र से पता चलता है कि यदि कोई किसान अपने हल-बैल, उपकरण, बीज आदि लगाकर राजकीय भूमि पर खेती करता था तो उसे उपज का आधा भाग प्राप्त होता था । इसके अतिरिक्त किसानों के पास व्यक्तिगत भूमि भी होती थी ।

ऐसे लोग अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देते थे । भूमिकर को ‘भाग’ कहा जाता था । राजकीय भूमि से प्राप्त आय को ‘सीता’ कहा गया है । कृषकों को सिंचाई कर भी देना पड़ता था । नगरों में जल एवं भवन कर लगाये जाते थे ।

अर्थशास्त्र में भाग के साथ-साथ बलि तथा कर का भी उल्लेख मिलता है । पहला संभवतः धार्मिक देय था जबकि ‘कर’ सामायिक देय था जो समय-समय पर जनता से वसूला जाता था । कालान्तर में इसे दमनात्मक माना जाने लगा जैसा कि जूनागढ़ लेख से ध्वनित होता है ।

रूम्मिनदेइ लेख में भी ‘बलि’ का उल्लेख है । राजकीय आय के अन्य प्रमुख साधन राजा की व्यक्तिगत भूमि से होने वाली आय, सीमा-शुल्क, चुड्गि, बिक्री-कर, व्यापारिक मार्गों, सड़कों तथा घाटों पर लगने वाले कर, अनुज्ञा शुल्क तथा आर्थिक दण्ड के रूप में प्राप्त हुये जुर्माने आदि थे ।

समाहर्ता नामक पदाधिकारी करों को एकत्र करने तथा आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने के लिए उत्तरदायी होता था । ‘स्थानिक’ तथा ‘गोप’ नामक पदाधिकारी प्रान्तों में करों को एकत्र करते थे । वस्तुतः प्रथम बार मौर्य काल में ही कर-प्रणाली की विस्तृत रूप-रेखा प्रस्तुत की गयी जिसका विवरण हमें अर्थशास्त्र में मिलता है । इसका उद्देश्य अधिकाधिक वस्तुओं पर कर लगाकर सरकार की आवश्यकताओं को पूरा करना था । सरकारी आय का व्यय विभिन्न रूपों में होता था ।

उसका एक भाग सम्राट एवं उसके परिवार के भरण-पोषण में, दूसरा भाग विविध पदाधिकारियों को वेतनादि देने में, तीसरा भाग सैनिक कार्यों में, चौथा भाग लोकोपकारी कार्यों, जैसे- सड़कों, नहरों, झीलों एवं जलाशयों के निर्माण में तथा पाँचवाँ भाग धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं को दान देने में खर्च किया जाता था ।

इसके अतिरिक्त कारीगरों के लाभार्थ राज्य की ओर से चलाये जाने वाले उद्योगों तथा खानों आदि में भी बहुत अधिक धन व्यय होता था । नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए राज्य की ओर से औषधालय खोले जाते थे तथा दवाओं का वितरण होता था । इन कार्यों में भी बहुत अधिक धन लगता था । इस प्रकार इन अनेक मदों में सरकारी आय का व्यय हुआ करता था ।


4. मौर्य सेना का प्रबन्ध (Management of Mauryan Army):

चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक अत्यन्त विशाल सेना थी । इसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार अश्वारोही, 9 हजार हाथी तथा संभवतः 800 रथ थे । सैनिकों की संख्या समाज में कृषकों के बाद सबसे अधिक थी । सैनिकों को नकद वेतन मिलता था तथा उनके अनुशासन एवं प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।

सैनिकों का काम केवल युद्ध करना था । शांति के काल में वे आनन्द एवं आराम का जीवन बिताते थे । युद्ध सम्बन्धी समस्त सामग्रियाँ राज्य की ओर से प्रदान की जाती थीं । विजय के उपलक्ष्य में उन्हें पुरस्कार भी दिये जाते थे ।

सैनिकों का वेतन इतना अधिक था कि वे बड़े आराम के साथ अपना तथा अपने आश्रितों का निर्वाह कर सकते थे । मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि इस सेना का प्रबन्ध छ: समितियों द्वारा होता था । प्रत्येक समिति में पाँच-पाँच सदस्य होते थे । इनका कार्य अलग- अलग था । प्रथम समिति जल-सेना की व्यवस्था करती थी ।

दूसरी समिति सामग्री, यातायात एवं रसद की व्यवस्था करती थी, तीसरी पैदल सैनिकों की देख-रेख करती थी, चौथी अश्वारोहियों के सेना की व्यवस्था करती थी, पाँचवीं गज-सेना की व्यवस्था तथा छठीं समिति रथों के सेना की व्यवस्था करती थी ।

सेनापति युद्ध विभाग का प्रधान अधिकारी होता था । सेनापति का पद बड़ा ही महत्वपूर्ण होता था और वह ‘मन्त्रिण:’ का सदस्य था । उसे 48000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था । सेना के चारों अंगों (अश्व, गज, रथ, पैदल) के अलग-अलग अध्यक्ष होते थे जो सेनापति की अधीनता में कार्य करते थे ।

इन्हें 8000 पण वार्षिक वेतन मिलता था । युद्ध-क्षेत्र में सेना का संचालन करने वाला अधिकारी ‘नायक’ कहा जाता था । सेनापति के पश्चात् नायक का पद ही सैनिक संगठन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण था जिसे 12000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था ।

मौर्यों के पास शक्तिशाली नौ-सेना भी थी । अर्थशास्त्र में ‘नवाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो युद्धपोतों के अतिरिक्त व्यापारिक पोतों का भी अध्यक्ष होता था । सीमान्त प्रदेशों की रक्षा सुदृढ़ दुर्गों द्वारा की जाती थी । ‘अन्तपाल’ नामक पदाधिकारी दुर्गों के अध्यक्ष होते थे ।

लोकोपकारिता के कार्य:

चन्द्रगुप्त मौर्य यद्यपि निरंकुश शासक था तथापि उसने अपनी प्रजा के भौतिक जीवन को सुखी तथा सुविधापूर्ण बनाने के उद्देश्य से अनेक उपाय किये । यातायात की सुविधा के लिये विशाल राजमार्गों का निर्माण किया गया । पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा के लिये चन्द्रगुप्त के सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने सुदर्शन नामक इतिहास-प्रसिद्ध झील का निर्माण करवाया था ।

यह गिरनार (जूनागढ़) के समीप रैवतक तथा ऊर्जयत पर्वतों के जलस्रोतों के ऊपर कृत्रिम बाँध बनाकर निर्मित की गयी थी । कौटिल्य सिंचाई के लिये बाँध बनाने की आवश्यकता पर बल देता है । लगता है इसी से प्रेरित होकर इस झील का निर्माण हुआ ।

इससे नहरें निकाल कर सिंचाई की जाती थी । अशोक के समय में उसके राज्यपाल तुषास्य ने झील से पानी के निकास के लिये मार्ग बनवाये थे । इससे इसकी उपयोगिता बढ़ गयी । इस झील को हम मौर्यकालीन अभियंत्रण कला का उत्कृष्ट नमूना कह सकते हैं ।

इसके अतिरिक्त नागरिकों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के लिये अनेक प्रकार के औषधालयों तथा विद्यालयों की स्थापना भी राज्य की ओर से करवायी गयी थी । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था लोकोपकारी थी । सरकार के विषय में उसकी धारणा पितृपरक थी ।

स्वयं निरंकुश होते हुए भी व्यवहार में वह धर्म, लोकाचार तथा न्याय के अनुसार ही शासन करता था । उसे निरन्तर प्रजाहित की चिन्ता बनी रहती थी । जनता को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा दासों को स्वामियों के अत्याचारों से बचाने के लिये व्यापक उपाय किये गये थे ।

राज्य अनाथों, विधवाओं, मृत सैनिकों एवं कर्मचारियों के भरण-पोषण का दायित्व वहन करता था । उसके गुरु एवं प्रधानमन्त्री कौटिल्य ने जिस विस्तृत प्रशासन की रूप-रेखा प्रस्तुत की थी उसमें प्रजाहित को सर्वोच्च स्थान दिया गया और यही इस शासन की सबसे बड़ी विशेषता है ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनादर्श अर्थशास्त्र की इन पंक्तियों से स्पष्टतः प्रकट होता है- “प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में उसका हित है । अपना प्रिय करने में राजा का हित नहीं होता, बल्कि जो प्रजा के लिये हो, उसे करने में राजा का हित होता है ।”

इस प्रकार चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था ने एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ किया । किन्तु चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था में सब कुछ अच्छा ही नहीं था । इसमें कुछ ऐसे दोष थे जिनकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।

इस विस्तृत प्रशासनतन्त्र में केन्द्रीय नियंत्रण इतना प्रबल था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पूर्णतया कुचल दिया गया तथा सामान्य नागरिक कठोर नियंत्रण में जीवन यापन करने के लिये विवश हो गया था । जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थायें प्रायः नगण्य थीं ।

पूरे साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा हुआ था, जो व्यक्ति के न केवल सार्वजनिक अपितु निजी मामलों में भी हस्तक्षेप करते थे तथा सभी प्रकार की गतिविधियों से सम्राट को अवगत कराते थे । नौकरशाही के अधिकार विस्तृत थे तथा प्रजा उत्पीड़न की गुंजाइश बराबर बनी हुई थी । दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे । मृत्यु दण्ड एवं अमानवीय यातनायें आम बातें थीं ।

अत: कुछ आधुनिक विद्वानों कि यह आलोचना काफी दमदार है कि- ‘चन्द्रगुप्त ने सुरक्षा की वेदी पर नागरिक स्वतंत्रता की बलि चढ़ा दी तथा साम्राज्य को एक पुलिस राज्य में परिवर्तित कर दिया ।’ यह अच्छी बात थी कि कालान्तर ने अशोक ने प्रशासन की इन कमियों को पहचाना तथा उसमें यथोचित सुधार कर उसे अधिक लोकोपकारी तथा प्रजा के हितों के अनुकूल बना दिया ।

अशोक के प्रशासनिक सुधार:

एक महान् विजेता एवं सफल धर्म प्रचारक होने के साथ ही साथ अशोक एक कुशल प्रशासक भी था । उसने किसी नयी शासन व्यवस्था को जन्म नहीं दिया, अपितु अपने पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था में ही आवश्यकतानुसार परिवर्तन एवं सुधार कर उसे अपनी नीतियों के अनुकूल बना दिया ।

कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया तथा उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य धम्म का अधिकाधिक प्रचार हो गया । अशोक का धम्म प्रजा के नैतिक एवं भौतिक उत्थान का सबल माध्यम था । धम्मविषयक इस मूलभूत अवधारणा के फलस्वरूप परम्परागत प्रशासनिक ढाँचे में सुधार की आवश्यकता प्रतीत हुई तथा उसने कुछ नये पदाधिकारियों की भी नियुक्ति की ।

सम्राट तथा मन्त्रिपरिषद:

अशोक एक विस्तृत साम्राज्य का एकच्छत्र शासक था । उसने ‘देवानाम् पिय’ की उपाधि ग्रहण की । शास्त्री के अनुसार इसका उद्देश्य पुरोहितों का समर्थन प्राप्त करना था । इसके विपरीत रोमिला थापर का विचार है कि इस उपाधि का लक्ष्य राजा की दैवी शक्ति को अभिव्यक्त करना तथा अपने को पुरोहितों की मध्यस्थता से दूर करना था ।

उल्लेखनीय है कि अशोक के लेखों में ‘पुरोहित’ का उल्लेख नहीं मिलता । चन्द्रगुप्त के समय में यह एक महत्वपूर्ण पद था । इससे भी सूचित होता है कि पुरोहित का राजनैतिक मामलों में हस्तक्षेप समाप्त हो चुका था ।

सिद्धान्तत: निरंकुश एवं सर्वशक्तिसम्पन्न होते हुए भी अशोक एक प्रजावत्सल सम्राट था । वह अपनी प्रजा को पुत्रवत् मानता था और इस प्रकार राजत्व के सम्बन्ध में उसकी धारणा पितृपरक थी । वह प्रजाहित को सर्वाधिक महत्व देता था ।

अपने छठें शिलालेख में अशोक अपनी इस भावना को व्यक्त करते हुए कहता है- ‘सर्वलोकहित मेरा कर्तव्य है, ऐसा मेरा मत है । सर्वलोकहित से बढ़कर दूसरा काम नहीं है । मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ वह इसलिये कि भूतों के ऋण से मुक्त हो जाऊँ । मैं उनको इस लोक में सुखी बनाऊँ और वे दूसरे लोक में स्वर्ग प्राप्त कर सके ।’

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि राजत्व विषयक उसके आदर्श कितने उदात्त थे । उल्लेखनीय है कि यहाँ अशोक राजा के प्रति प्रजा-ऋण की बात करता है जो केवल प्रजा की भलाई करके ही चुकाया जा सकता है । यह कल्पना सर्वथा नवीन एवं मौलिक थी ।

अशोक के अभिलेख में ‘परिषा’ शब्द का भी उल्लेख हुआ है । वह अर्थशास्त्र की ‘मन्त्रिपरिषद्’ थी । बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि अशोक का प्रधानमन्त्री (अग्रामात्य) राधगुप्त था । ऊँचे कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करने तथा उन्हें निर्देश देने का अधिकार भी परिषद् को था ।

तीसरे तथा छठें शिलालेखों से मन्त्रिपरिषद् के कार्य पर प्रकाश पड़ता है । तीसरे लेख से पता चलता है कि परिषद् के आदेश विधिवत लिखे जाते थे जिन्हें स्थानीय अधिकारी जनता तक पहुँचाते थे । छठे शिलालेख से पता चलता है कि सम्राट के मौलिक आदेशों तथा विभागीय अध्यक्षों द्वारा आवश्यक विषयों पर लिये गये निर्णयों के ऊपर मन्त्रिपरिषद् विचार करती थी ।

उसे इनमें संशोधन करने अथवा बदल देने तक के लिये सम्राट से सिफारिश करने का अधिकार था । अशोक कहता है कि यदि इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो अथवा किसी विषय पर मन्त्रिपरिषद् में मतभेद हो तो इसकी सूचना उसे तुरन्त भेजी जाये । राजकीय आदेशों को पुनर्विचार अथवा परिवर्तन के लिये सम्राट के पास भेजना यह सिद्ध करता है कि मन्त्रिपरिषद् मात्र सलाहकारी संस्था ही नहीं थी अपितु उसे वास्तविक एवं विस्तृत अधिकार प्राप्त थे ।

दिव्यावदान से भी पता चलता है कि मन्त्रिपरिषद् के विरोध के कारण अशोक को बौद्ध संघ के प्रति किया जाने वाला अपव्यय रोकना पड़ता था । इस प्रकार ‘परिषा’ की स्थिति आधुनिक सचिवालय जैसी थी जो सम्राट तथा महामात्रों के बीच प्रशासनिक निकाय का कार्य करती थी ।

प्रान्तीय शासन:

प्रशासन की सुविधा के लिये अशोक का विशाल साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था ।

उसके अभिलेख में पाँच प्रान्तों के नाम मिलते हैं:

(1) उत्तरापथ (राजधानी-तक्षशिला),

(2) अवन्तिरट्‌ठ (उज्जयिनी),

(3) कलिंग (तोसलि),

(4) दक्षिणापथ (सुवर्णगिरि) और

(5) प्राच्य अथवा पूर्वी प्रदेश (पाटलिपुत्र) ।

इनके अतिरिक्त और भी प्रान्त रहे होंगे । राजनीतिक महत्व के प्रान्तों में राजकुल से सम्बन्धित व्यक्तियों को ही राज्यपाल नियुक्त किया जाता था । उन्हें ‘कुमार’ तथा ‘आर्यपुत्र’ कहा जाता था । तक्षशिला, सुवर्णगिरि, कलिंग एवं उज्जयिनी में इस प्रकार के कुमारों की नियुक्ति की गयी थी ।

दिव्यावदान से पता चलता है कि अशोक का पुत्र कुणाल तक्षशिला का राज्यपाल था । महावंश से पता चलता है कि उसने अपने छोटे भाई तिष्य को ‘उपराजा’ नियुक्त किया था जिसके भिक्षु हो जाने पर अशोक का पुत्र महेन्द्र इस पद पर नियुक्त हुआ । संभवतः ‘उपराजा’ का पद प्रधानमन्त्री जैसा होता था ।

अन्य प्रान्तों में दूसरे उच्च-पदाधिकारी राज्यपाल नियुक्त किये गये थे । इन पदों पर नियुक्ति बिना किसी जाति अथवा धर्म के भेदभाव से की जाती थी । रुद्रदामन् प्रथम के गिरनार लेख से पता चलता है कि यवनजातीय तुषास्प काठियावाड़ प्रान्त में अशोक का राज्यपाल था ।

लगता है छोटे प्रान्त में राज्यपालों की नियुक्ति में स्थानीय व्यक्तियों को ही प्राथमिकता दी जाती थी । राज्यपाल को प्रान्तीय शासन में सहायता देने के लिये भी एक मन्त्रिपरिषद् होती थी । इसके अधिकार केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् से अधिक होते थे । यह प्रान्तीय शासकों की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थी । कभी-कभी यह सम्राट से सीधा आदेश प्राप्त कर उसे कार्यान्वित कर देती थी, जैसा कि अशोकावदान में दी गयी कुणाल को अन्धा बनाने की कथा से सूचित होता है ।

प्रान्तों के अधीन जिलों के शासक होते थे जिनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा न होकर स्वयं सम्बन्धित प्रान्त के राज्यपाल द्वारा ही की जाती थी । यह बात सिद्धपुर लघुशिलालेख से सिद्ध होती है । इसमें अशोक इसला के महामात्रों को सीधे आदेश न देकर दक्षिणी प्रान्त के कुमार के माध्यम से ही आदेश प्रेषित करता है ।

प्रशासनिक पदाधिकारी:

अशोक के लेखों में उसके प्रशासन के कुछ महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं ।

अशोक के तृतीय शिलालेख में तीन पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं:

(i) युक्त,

(ii) राजुक तथा

(iii) प्रादेशिक ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

(i) युक्त:

ये जिले के अधिकारी होते थे जो राजस्व वसूल करते तथा उसका लेखा-जोखा रखते थे और सम्राट की सम्पत्ति का भी प्रबन्ध करते थे । उन्हें उस कार्य में धन व्यय करने का भी अधिकार था जिससे राजस्व की वृद्धि हो सकती थी । अर्थशास्त्र में भी ‘युक्त’ नामक पदाधिकारियों का उल्लेख है ।

वहाँ ‘युक्त’ का वर्णन लेखाकार के रूप में मिलता है । स्पष्ट है कि ये अधीनस्थ कर्मचारी थे जिनका एक कार्य वरिष्ठ अधिकारियों के निर्णयों को लिपिबद्ध करना तथा उसे मन्त्रिपरिषद् के सामने प्रस्तुत करना भी था । ने राजुक तथा प्रादेशिक के साथ दौरे पर जाते थे ।

(ii) राजुक:

बूलर ने बताया है कि इस पदाधिकारी का सम्बन्ध जातक-ग्रन्थों के ‘रज्जुगाहक’ (रस्सी पकड़ने वाला) से है । इस प्रकार के पदाधिकारी भूमि की पैमाइश करने के लिए अपने पास रस्सी रखते थे । वे आजकल के ‘बन्दोबस्त अधिकारी’ की भाँति होते थे ।

राजुक का पद बाड़ा महत्वपूर्ण होता था । वे कई लाख लोगों के ऊपर नियुक्त किये गये थे । अपने चौथे स्तम्भ लेख में अशोक राजुकों में पूर्ण विश्वास प्रकट करते हुए कहता है- ‘जिस प्रकार माता-पिता योग्य धात्री के हाथों में बच्चे को साँप कर आश्वस्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मैंने ग्रामीण जनता के सुख के लिये राजुकों की नियुक्ति की है ।’

राजुक पहले केवल राजस्व विभाग का ही कार्य करते थे किन्तु बाद में उन्हें न्यायिक अधिकार भी प्रदान कर दिये गये । वे दण्डों में छूट भी दे सकते थे । राजुक अपने अधीन लोगों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते तथा उन्हें उपहारादि भी दिया करते थे ।

इस प्रकार ‘राजुक’ की स्थिति आधुनिक शासन में जिलाधिकारी जैसी थी जिसे राजस्व तथा न्याय दोनों का ही कार्य देखना पड़ता है । यहाँ उल्लेखनीय है कि स्ट्रेबो मौर्य प्रशासन में मजिस्ट्रेट के एक ऐसे वर्ग का उल्लेख करता है जो नदियों की देखभाल करते थे, भूमि की पैमाइश करते थे तथा जिन्हें पुरस्कार एवं दण्ड देने का भी अधिकार था ।

स्पष्टतः यह राजुकों की ओर ही संकेत है । रोमिला थापर के अनुसार राजुक ग्रामीण प्रशासन की रीढ़ थे । भूमि तथा कृषि-सम्बन्धी समस्त विवादों का निर्णय उन्हें ही करना होता था । कर-निर्धारण, करों में छूट, जल-सम्बन्धी विवाद, कृषकों तथा पशुपालकों के बीच चारागाह-सम्बन्धी विवाद तथा ग्रामीण शिल्पियों के विवादों का निर्णय उन्हीं को करना पड़ता था । इसी कारण अशोक ने उनके अधिकारों में वृद्धि कर दी थी ।

(iii) प्रादेशिक:

यह मण्डल का प्रधान अधिकारी होता था । उसका कार्य आजकल के ‘संभागीय-आयुक्त’ जैसा था । उसे न्याय का भी कार्य करना पड़ता था । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रादेशिक ही अर्थशास्त्र में उल्लिखित ‘प्रदेष्टा’ नामक पदाधिकारी था जिसे विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्यों की देख-रेख करना पड़ता था ।

इससे स्पष्ट है कि प्रादेशिक, उपर्युक्त दोनों अधिकारियों में वरिष्ठ होता था । प्रादेशिक तथा राजुक अपने कार्यों में युक्त नामक अधीनस्थ अधिकारियों से सहायता प्राप्त करते थे । अपने तीसरे शिलालेख में अशोक कहता है कि उसने युक्त, राजुक तथा प्रादेशिक को पंचवर्षीय दौरे पर जाने का आदेश दिया है । इस प्रकार के दौरे को ‘अनुसंयान’ कहा गया है ।

इनमें वे प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ धर्म प्रचार का भी कार्य करते थे ताकि लोगों का पारलौकिक जीवन सुखमय हो सके । अशोक स्वयं भी अपने विशाल साम्राज्य का दौरा किया करता था तथा व्यक्तिगत रूप से अपनी प्रजा के कष्टों को दूर करने का प्रयास करता था ।

वारहवें शिलालेख में तीन और पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं:

(a) धम्ममहामात्र,

(b) स्त्र्याध्यक्ष महामात्र तथा

(c) ब्रजभूमिक महामात्र ।

इनका परिचय इस प्रकार है:

(a) धम्ममहामात्र:

ये अशोक की अपनी कृति थे जिनकी नियुक्ति उसने अपने अभिषेक के तेरहवें वर्ष की थी । उनका कार्य विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सामंजस्य बनाये रखना, राजा तथा उसके परिवार के सदस्यों से धम्मदान प्राप्त करना और उसकी समुचित व्यवस्था करना होता था । वे यह भी देखते थे कि किसी व्यक्ति को अनावश्यक दण्ड अथवा यातनायें तो नहीं दी गयी हैं ।

(b) स्त्र्याध्यक्ष महामात्र:

यह महिलाओं के नैतिक आचरण की देख-रेख करने वाला अधिकारी होता था । लगता है कि उसका एक कार्य सम्राट के अन्त:पुर तथा महिलाओं के बीच धर्म प्रचार करना भी था ।

(c) ब्रजभूमिक महामात्र:

यह गोचर-भूमि (ब्रज) में बसने वाले गोपों की देख-रेख करने वाला अधिकारी था । अर्थशास्त्र में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, घोड़े, ऊँट आदि पशुओं को ब्रज कहा गया है । संभव है ब्रजभूमिक पशुओं के रक्षण तथा उनकी वृद्धि का भी ध्यान रखते हों ।

अशोक के अभिलेखों में ‘नगर-व्यवहारिक’ (नगलवियोहालक) तथा ‘अन्तमहामात्र’ नामक पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है । नगर-व्यवहारिक नगर का न्यायाधीश होता था । भण्डारकर का विचार है कि अर्थशास्त्र में इसी अधिकारी का उल्लेख ‘पौर व्यवहारक’ नाम से किया गया है ।

अशोक के लेखों में उसे ‘महामात्र’ कहा गया है । लगता है कि उसका पद कुमार के समकक्ष हुआ करता था । रोमिला थापर का विचार है कि नगर व्यवहारिक न्यायिक अधिकारी थे जो नागरक के अधीन कार्य करते थे । विशेष परिस्थितियों में नागरक उनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता था ।

‘अन्तमहामात्र’ वे पदाधिकारी थे जो सीमावर्ती प्रदेशों में धर्म प्रचारार्थ जाया करते थे । कुछ विद्वान् अन्तमहामात्र को सीमावर्ती प्रान्त का उच्च अधिकारी अथवा उसका रक्षक बताते हैं किन्तु अशोक के लेखों में ‘अन्त’ शब्द का प्रयोग सीमाप्रान्त के शासक अथवा उसकी प्रजा के लिए ही किया गया है ।

ये पदाधिकारी सीमान्त लोगों तथा अर्धसभ्य जन-जातियों के बीच कार्य करते थे और उन लोगों तक सम्राट की नीति को पहुँचाने के लिए उत्तरदायी होते थे । ऐसा प्रतीत होता है कि महामात्र तथा पुरुष एक व्यापक संज्ञा थी जिससे सभी उच्चपदाधिकारियों का बोध होता था ।

न्याय-प्रशासन:

न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में अशोक ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुधार किये । धौली तथा जौगढ़ के प्रथम पृथक शिलालेखों में वह नगर-व्यवहारिकों को आदेश देता है कि वे बिना उचित कारण के किसी को कैद अथवा शारीरिक यातनायें न दे ।

वह उन्हें ईर्ष्या, क्रोध, निष्ठुरता, अविवेक, आलस्य आदि दुर्गुणों से मुक्त रहते हुये निष्पक्ष मार्ग का अनुकरण करने का उपदेश देता है । वह उन्हें याद दिलाता है कि अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करने से वे स्वर्ग प्राप्त करेंगे तथा राजा के ऋण से भी मुक्त हो जावेंगे ।

पाँचवें शिलालेख से पता चलता है कि धर्ममहामात्र कैद की सजा पाये हुये व्यक्तियों का निरीक्षण करते थे । यदि उन्हें अकारण दण्ड मिला होता था तो वे मुक्त कर सकते थे । अपराधी का परिवार यदि बड़ा होता था तो उसे धन देते थे अथवा यदि अपराधी अधिक वृद्ध होता था तब भी उसे स्वतंत्र करा देते थे ।

अशोक प्रति पाँचवें वर्ष न्यायाधीशों के कार्यों की जाँच के लिए महामात्रों को दौरे पर भेजा करता था । न्याय-प्रशासन में एकरूपता लाने के लिए अशोक ने अपने अभिषेक के 26वें वर्ष राजुकों को न्याय सम्बन्धी मामलों में स्वतन्त्र अधिकार प्रदान कर दिया ।

अब वे अपनी विवेकशक्ति के अनुसार अपराधी पर अभियोग लगा सकते तथा उसे दण्डित कर सकते थे । इसके पूर्व प्रादेशिक तथा नगर-व्यवहारिक भिन्न-भिन्न प्रदेशों में न्याय का कार्य करते थे । इससे निर्णय सम्बन्धी भेदभाव बना रहता था । अत: इस दोष को दूर करने के लिए राजुकों को न्यायप्रशासन के क्षेत्र में सर्वेसर्वा बना दिया गया तथा अन्य दो अधिकारियों को इससे मुक्त रखा गया ।

चौथे स्तम्भलेख में अशोक कहता है- ‘मैंने उन्हें (राजुकों को) न्यायिक अनुसंधान तथा दण्ड में स्वतन्त्र कर दिया है जिससे वे निर्णय होकर विश्वास के साथ अपना कार्य करें । वे सुख तथा दुःख के मूल कारणों का पता करें तथा जनपद के लोगों एवं निष्ठावानों को प्रेरित करें ताकि उन्हें इहलोक और परलोक में सुख मिल सके ।’

इस प्रकार न्याय-प्रशासन में दण्डसमता एवं व्यवहारसमता स्थापित हो गयी । अशोक ने दण्डविधान को उदार बनाने का प्रयास किया । यद्यपि उसने मृत्युदण्ड समाप्त नहीं किया फिर भी मृत्युदण्ड पाये हुये व्यक्तियों को तीन दिनों की मोहलत (राहत) दी जाती थी ताकि वे अपने अपराधों पर पश्चाताप कर सकें तथा अपना पारलौकिक जीवन सुखमय बना सकें ।

इस अवधि में उनके सगे सम्बन्धी दण्ड को कम कराने के लिए राजुकों के पास आवेदन भी कर सकते थे । उसने अनेक अमानवीय यातनाओं को भी बन्द करवा दिया । इस प्रकार अशोक सच्चे अर्थों में जनहितैषी सम्राट था ।

उसने अपने साम्राज्य में प्रतिवेदक (सूचना देने वाले) नियुक्त किए थे तथा उन्हें स्पष्ट आदेश दिया था कि प्रत्येक समय तथा प्रत्येक स्थान में- ‘चाहे मैं भोजन करता रहूँ, अन्त:पुर, शयनकक्ष, ब्रज (पशुशाला) में रहूँ, पालकी पर रहूँ, उद्यान में रहूँ, सर्वत्र जनता के कार्य की सूचना दें । मैं सर्वत्र जनता का कार्य करता हूँ ।’

इसी प्रकार प्रथम पृथक शिलालेख में वह प्रजा के प्रति अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए कहता है- ‘सभी मनुष्य मेरी सन्तान हैं । जिस प्रकार में अपनी सन्तान के लिए इच्छा करता हूँ कि वे सभी इहलौकिक तथा पारलौकिक हित और सुख से संयुक्त हों, उसी प्रकार अभी मनुष्यों के लिए मेरी इच्छा है ।’

गिरनार लेख से पता चलता है कि अशोक ने अपने साम्राज्य के प्रत्येक भाग में मनुष्यों तथा पशुओं के लिए अलग-अलग चिकित्सालयों की स्थापना करवायी थी । जो औषधियाँ देश में प्राप्त नहीं थीं उन्हें बाहर से मँगवाकर आरोपित करवाया गया था ।


5. मगध साम्राज्य के प्रबुद्ध राजतन्त्र (Enlightened Monarchy of Mauryan Empire):

मौर्य प्रशासन की यदि हम आलोचनात्मक समीक्षा करें तो स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि सिद्धान्त रूप में सम्राट की स्थिति निरंकुश शासक जैसी थी तथापि व्यवहार में वह कदापि निरंकुश नहीं था । मौर्य शासक अपनी प्रजा के हितों के प्रति काफी सजा थे तथा उन्हें रात-दिन इसकी चिन्ता बनी रहती थी ।

अर्थशास्त्र में प्रजा हित को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी थी । कौटिल्य का निश्चित मत है कि राजा को प्रजा की कठिनाइयों को सुनने तथा उन्हें दूर करने के लिये सदा सुलभ रहना चाहिए । इसी प्रसंग में वह स्पष्ट चेतावनी देता है कि जिस राजा का दर्शन प्रजा के लिये दुर्लभ हो जाता है वह शीघ्र ही प्रजा का कोप भाजन बनता है तथा उसका विनाश हो जाता है ।

‘निरन्तर कार्य में संलग्न रहना’ राजा का कर्तव्य बताया गया है । हमारे पास यह विश्वास करने के लिये आधार है कि चन्द्रगुप्त ने इस सिद्धान्त को कार्यरूप में परिणत किया होगा । यूनानी राजदूत मेगस्थनीज इस बात की सूचना देता है कि सम्राट प्रजा के कार्यों को करने के लिये दिन भर राजसभा में बैठा रहता था । यहाँ तक कि शरीर मालिश कराते समय भी वह प्रजा की शिकायतों को सुनता था ।

जब हम अशोक के प्रशासन पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट होता है कि उसे भी प्रजा हित की चिन्ता बराबर सताती रहती थी । सर्वोच्च शक्ति एवं वैभव को प्राप्त कर लेने के बावजूद वह अपने को प्रजा का सेवक ही समझता रहा ।

उसने यह भली-भाँति समझ लिया था कि ‘सर्वलोक हित से बढ़कर दूसरा कोई कार्य नहीं होता है’ और यह जान लेने के बाद उसने अपने सभी स्रोतों को अपनी प्रजा के हित-साधन में लगा दिया । राजत्व सम्बन्धी उसकी अवधारणा पितृपरक थी । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इस अवधारणा का उल्लेख मिलता है ।

इस सम्बन्ध में भण्डारकर महोदय का विचार है कि- “यह मौर्य काल के राजकीय निरंकुशवाद की ओर स्पष्ट संकेत करता है । जैसे बच्चे एकमात्र अपने माता-पिता के अधीन होते हैं तथा वे उनके साथ यथेच्छित व्यवहार कर सकते है, उसी प्रकार प्रजा राजा की कृपा पर निर्भर थी और राजा की स्थिति पूर्ण निरंकुश से बेहतर नहीं थी ।”

यद्यपि यह सही है कि पितृपरक अवधारणा की आड़ में किसी भी शासक का निरंकुश आचरण सम्भव है तथा प्राचीन युग में कुछ कुलपति निरंकुश रहे हैं किन्तु अशोक जैसे सदाशय सम्राट के विषय में यह नही कहा जा सकता ।

उसके हृदय में प्रजा के हित और सुख की सच्ची चाह तथा चिन्ता थी । वह अपनी प्रजा का न केवल भौतिक अपितु नैतिक उत्थान करना चाहता था और उसने किया भी । प्रजा की कठिनाइयों का निवारण करने के उद्देश्य से ही उसने अपने प्रमुख पदाधिकारियों को विशाल साम्राज्य में दौरे पर भेजा तथा वह स्वयं भी दौरे पर निकलता था ।

प्रजाहित के प्रति जागरूकता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि अशोक ने अपने प्रतिवेदकों को स्पष्ट आदेश दिया कि वे प्रत्येक समय तथा स्थान में उसे प्रजा के कष्टों की सूचना दें क्योंकि वह सभी जगह तथा समय में प्रजा का ही कार्य करता था ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि मौर्य सम्राट जनहित के प्रति अत्यन्त प्रबुद्ध थे । कम से कम दो महान् शासकों-चन्द्रगुप्त तथा अशोक के विषय में यह कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि में प्रजाहित, व्यक्तिगत हित से बढ़कर था । यही कारण है कि इतने विशाल साम्राज्य में ये सम्राट जीवन पर्यन्त शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखने में सफल हुए तथा अपनी प्रजा के प्रिय पात्र बने रहे । मौर्य प्रशासन की सफलता का यही सबसे बड़ा रहस्य है ।


6. मगध साम्राज्य के  भाषा तथा साहित्य (Language and Literature of Mauryan Empire):

मौर्य काल में साधारण जनता की भाषा पाली थी । अशोक ने अपने अभिलेख पाली (प्राकृत) में ही उत्कीर्ण करवाये तथा इसे राजभाषा बनवाया । उसके अभिलेखों में दो प्रकार की लिपियों का मुख्य रूप से प्रयोग मिलता है- खरोष्ठी तथा ब्राह्मी ।

खरोष्ठी लिपि ईरानियों के प्रभाव से आई और यह देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों तक ही सीमित रही । यह दाई से बाई ओर को लिखी जाती थी । साम्राज्य के शेष प्रदेशों में ब्राह्मी का प्रचलन था । इस समय संस्कृत शिक्षित समुदाय एवं साहित्य की भाषा थी ।

मौर्य युग की साहित्यिक कृतियों बहुत कम ज्ञात हैं । परम्परा के अनुसार इस समय मोग्गलिपुत्ततिस्स ने ‘कथावत्थु’ नामक अभिधम्मपिटक के प्रसिद्ध ग्रन्थ तथा भद्रबाहु ने ‘कल्पसूत्र’ की रचना की थी । कौटिल्य का अर्थशास्त्र इस कला की सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है । यह हिन्दू राज्यतन्त्र पर प्राचीनतम् उपलब्ध रचना है ।


7. मगध साम्राज्य के  कला तथा स्थापत्य (Art and Architecture of Mauryan Empire):

कला और स्थापत्य के क्षेत्र में मौर्य-युग (ई. पू. 323-184) में ही सुसंगठित क्रिया-कलाप के दर्शन होते हैं । मौर्य-युग के पूर्व कलात्मक वस्तुओं के निर्माण में लकड़ी, मिट्टी की ईंटों तथा घास-पूस आदि का प्रयोग होता था । इसी कारण वे वस्तुयें आज हमें प्राप्त नहीं होतीं । मौर्य-युग में ही सर्वप्रथम कला के क्षेत्र में पाषाण का प्रयोग किया गया जिसके फलस्वरूप कलाकृतियाँ चिरस्थायी हो गयीं ।

मौर्ययुगीन कला को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1. दरबारी अथवा राजकीय कला जिसमें राजतक्षाओं द्वारा निर्मित स्मारक मिलते हैं जैसे राजप्रासाद, स्तम्भ, गुहा-विहार, स्तूप आदि ।

2. लोककला जिसमें स्वतंत्र कलाकारों द्वारा लोकरुचि की वस्तुओं का निर्माण किया गया, जैसे- यक्ष-यक्षिणी प्रतिमायें, मिट्टी की मूर्तियाँ आदि ।

दरबारी अथवा राजकीय कला:

राजप्रासाद:

मौर्यकाल के अधिकांश अवशिष्ट स्मारक अशोक के समय के हैं । अशोक के पूर्व मौर्ययुगीन वास्तुकला का शान हमें मुख्यतः यूनानी लेखकों के विवरण से होता है । कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में दुर्ग विधान के अन्तर्गत वास्तु कला के जिन लक्षणों की चर्चा करता है उनके अनुसार नगर के चतुर्दिक गहरी परिखा (खाई), ऊँचे वप्र (चबूतरा) पर बना हुआ प्राकार, प्राकार में यथास्थान द्वार, कोष्ठ तथा अट्टालक (बुर्ज) बने होने चाहिए ।

कहा जा सकता है कि यह विवरण काल्पनिक न होकर वास्तविकता पर आधारित है तथा मौर्य शासकों का नगर विन्यास इसी के अनुरूप रहा होगा । कौटिल्य के इस विवरण की पुष्टि यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण से भी हो जाती है । इन लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र तथा वहाँ स्थित उसके भव्य राजप्रासाद का विवरण दिया है ।

स्ट्रैबो पाटलिपुत्र का वर्णन इस प्रकार करता है- “पोलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) गंगा और सोन के संगम पर स्थित था । इसकी लम्बाई 80 स्टेडिया तथा चौड़ाई 18 स्टेडिया थी । यह समानान्तर चतुर्भुज के आकार का था । इसके चारों ओर लगभग 700 फीट चौड़ी खाई थी । नगर के चतुर्दिक् लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसमें बाण छोड़ने के लिये सुराख बनाये गये थे । इसमें 64 द्वार तथा 570 बुर्ज थे ।”

इस नगर में चन्द्रगुप्त मौर्य का भव्य राजप्रासाद स्थित था । यह वस्तुतः एक विशाल भवन-समूह था जिसमें अनेक बड़े-बड़े कमरे थे । इनके चमकते स्तम्भों में सोने की लतापत्रावली तथा चाँदी की चिड़ियाँ बनी हुई थीं । इनमें सर्वप्रमुख भवन अनेक स्तम्भों वाला मण्डप था जो लकड़ी के ऊँचे धरातल पर टिका हुआ था ।

यह राजप्रासाद एक बड़े पार्क के बीच स्थित था । इसमें छायादार एवं हरे-भरे वृक्ष लगे हुए थे । यहाँ अनेक सरोवर थे जिनमें विविध आकार-प्रकार की मछलियों पाली गई थीं । सूसा तथा एकबतना के राजप्रासाद भी भव्यता में इसकी बराबरी नहीं कर सकते थे ।

पटना के समीप बुलन्दीबाग तथा कुम्रहार में की गई खुदाई में लकड़ी के विशाल भवनों के अवशेष प्रकाश में आये हैं । इन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय स्पूनर महोदय को है । बुलन्दीबाग से नगर के परकोटे के अवशेष तथा कुम्रहार से राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं ।

परकोटे की लम्बाई 450 फुट तक है । इसमें दोनों ओर लकड़ी के लट्ठों की विशाल दीवारें हैं । प्रत्येक लठ्ठा 19 फुट ऊंचा तथा एक फुट चौड़ा है । लठ्ठे की दोनों दीवारों को 14 फुट के बड़े लठ्ठों से जोड़ा गया है । उनके बीचों-बीच कूटी हुई मिट्टी भरी गयी है । कुम्रहार के प्रासाद-अवशेष से पता चलता है कि यह एक भवन समूह था । एक भवन के अवशेष में पत्थर के विशाल स्तम्भ खड़े हैं जो किसी विशाल स्तम्भ-मण्डप की छत के आधार रहे होंगे । यही सम्भवत: चन्द्रगुप्त मौर्य का विशाल सभाभवन था ।

यह ऐतिहासिक काल का पहला विशाल अवशेष है जो एक मण्डप के रूप में है । मण्डप के मुख्य भाग में दस-दस स्तम्भों की आठ कतारें पूरब से पश्चिम की ओर बनी हैं । इसके पूरब की ओर दो और स्तम्भ खण्डित अवस्था में मिलते हैं । मण्डप के एक ओर काष्ठमंच मिले हैं जिन्हें काष्ठशिल्प का अद्भुत उदाहरण माना जा सकता है । खुदाई में अशोक के स्तम्भ से मिलता-जुलता एक स्तम्भ का निचला भाग पूर्ण अवस्था में प्राप्त हुआ है ।

यह राजप्रासाद चौथी शताब्दी ईस्वी में ज्यों-का-त्यों विद्यमान था और फाहियान को यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि- ‘इसे संसार के मनुष्य नहीं बना सकते, अपितु यह देवताओं द्वारा बनाया गया लगता है ।’ इस प्रकार मौर्य युग में काष्ठकला अपने विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी ।

ईलियन के अनुसार सूसा तथा एकबटना के राजप्रासाद भी भव्यता में पाटलिपुत्र के राजप्रासाद की बराबरी नहीं कर सकते थे । मौर्य राजप्रासाद की समता कुछ विद्वान पर्सिपोलिस से प्राप्त हुए सौ स्तम्भों वाले हखामनी प्रासाद से करते हैं ।


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