मौर्य साम्राज्य का पतन | Decline of Mauryan Empire in Hindi.

अशोक की मृत्यु 237-36 ईसा पूर्व के लगभग हुई । उसके बाद का मौर्य वंश का इतिहास अन्धकारपूर्ण है । ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन गुणों में परवर्ती मौर्य शासकों के विषय में परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं ।

पुराण अशोक के पश्चात् शासन करने वाले 9 या 10 राजाओं के नाम गिनाते हैं । अशोक के एक लघु स्तम्भ लेख में केवल एक पुत्र तीव्र का उल्लेख मिलता है जबकि अन्य साक्ष्य इसके विषय में मौन हैं । शायद अशोक के जीवन काल में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी ।

कश्मीरी लेखक कल्हण तथा तिब्बती लेखक तारानाथ ने अशोक के उत्तराधिकारियों का जो विवरण दिया है वह भी एक-दूसरे के विरुद्ध है । ऐसी स्थिति में यह निश्चित रूप से बता सकना कठिन है कि अशोक के पश्चात् शासन करने वाले राजाओं का क्रम क्या था ?

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विभिन्न स्रोतों से परवर्ती मौर्य नरेशों की निम्नलिखित तालिका प्राप्त होती हैं:

तारानाथ ने केवल तीन मौर्य शासकों का उल्लेख किया है:

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(i) कुणाल,

(ii) विगताशोक,

(iii) वीरसेन ।

कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर में अशोक का उत्तराधिकारी जालौक हुआ । वह शैव था । उसने म्लेच्छों को परास्त कर अपने राज्य को सुरक्षित किया तथा उसे कन्नौज तक बढ़ाया ।

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उपर्युक्त तालिकाओं में जिन राजाओं का उल्लेख हुआ है उनमें से दशरथ के विषय में पुरातत्वीय प्रमाण भी प्राप्त होते हैं । उसने बिहार प्रान्त के गया जिले में स्थित नागार्जुनी पहाड़ी पर आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के निवास के लिये तीन गुफायें निर्मित करवाई थीं ।

इन गुफाओं की दीवारों पर खुदे हुये लेखों से ज्ञात होता है कि वह अशोक की तरह “देवानंपिय” की उपाधि धारण करता था । परन्तु बौद्ध एवं जैन स्रोतों में उसका नाम कहीं नहीं मिलता ।

पुराणों के अनुसार दशरथ ने कुल आठ वर्षों तक शासन किया । उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र सम्प्रति शासक हुआ । जैन ग्रन्थों में उसे जैन धर्म का संरक्षक कहा गया है जिसने हजारों जैन तीर्थकंरों के मन्दिरों का निर्माण करवाया था ।

वह पाटलिपुत्र का राजा था तथा उसके साम्राज्य में अवन्ति एवं पश्चिमी भारत भी सम्मिलित था । परन्तु पुराणों के विपरीत जैन ग्रन्थ सम्प्रति को कुणाल का पुत्र मानते हैं । सम्प्रति के बाद शालिशूक राजा हुआ ।

गार्गी संहिता में उसे ‘धार्मिक के रूप में अधार्मिक, धूर्त एवं झगड़ालू’ शासक बताया गया है । उसे धर्म विजय करने वाला कहा गया है जिसने यज्ञों के अनुष्ठान को रोकने का प्रयास किया था । शालिशूक के शासन-काल के अन्त में (206 ईसा पूर्व के लगभग) यवन नरेश अंतियोकस तृतीय ने हिन्दूकुश पर्वत को पार कर काबुल घाटी के शासक से उपहार प्राप्त किया था । पोलिबियस ने इस राजा का नाम ‘सोफेगसेनस’ (सुभगसेन) बताया है ।

हेमचन्द्र रायचौधरी के मतानुसार यह राजा शालिशूक ही था तथा ‘सुभगसेन’ उसकी उपाधि थी । भण्डारकर महोदय राजतरंगिणी के जालौक की पहचान भी शालिशूक से ही करते हैं । राजतरंगिणी में जो म्लेच्छों का उल्लेख हुआ है उससे तात्पर्य यवनों से ही है ।

पुराणों के अनुसार शालिशूक के पश्चात् देवधर्मन्, फिर शतधन्वन् तथा अंततोगत्वा बृहद्रथ मौर्य वंश के राजा हुए । सभी पुराण बृहद्रथ को ही मौर्य वंश का अन्तिम शासक मानते हैं । इसकी पुष्टि बाणभट्ट के हर्षचरित से भी हो जाती है ।

उसे ‘प्रज्ञादुर्बल’ (बुद्धिहीन) शासक कहा गया है । उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग था । दिव्यावदान में भ्रमवश पुष्यमित्र को मौर्य कुल से ही सम्बन्धित कर दिया गया है । पुष्यमित्र ने 184 ईसा पूर्व के लगभग अपने स्वामी वृहद्रथ की सेना निरीक्षण करते समय धोखे से हत्या कर दी । बृहद्रथ की मृत्यु के साथ ही मौर्यवंश का अन्त हुआ ।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण:

लगभग तीन शताब्दियों के उत्थान के पश्चात् शक्तिशाली मौर्य-साम्राज्य अशोक की मृत्यु के पश्चात् विघटित होने लगा और विघटन की यह गति संगठन की अपेक्षा अधिक तेज थी ।

अन्ततोगत्वा 184 ईसा पूर्व के लगभग अन्तिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की उसके अपने ही सेनापति पुष्यमित्र द्वारा हत्या के साथ इस विशाल साम्राज्य का पतन हो गया । मौर्य साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया ।

सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के विघटन तथा पतन के लिये निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी मान सकते हैं:

1. अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी (Ineligible and Weak Successor):

मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी नितान्त अयोग्य तथा निर्बल हुये । उनमें शासन के संगठन एवं संचालन की योग्यता का अभाव था । साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया । राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक ने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया ।

तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गन्धार प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली । कालीदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतन्त्र राज्य हो गया था । परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत संगठित करता । विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था ।

2. प्रशासन का अतिशय केन्द्रीयकरण (Centralization of Administration):

मौर्य प्रशासन में सभी महत्वपूर्ण कार्य राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होते थे । उसे वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त था । प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी राजा के व्यक्तिगत कर्मचारी होते थे और उनकी भक्ति-भावना राष्ट्र अथवा राज्य के प्रति न होकर राजा के प्रति ही होती थी ।

प्रशासन में जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं का प्रायः अभाव-सा था । साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा हुआ था । ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को कोई स्थान नहीं मिला था और सामान्य नागरिक सदा नियंत्रण में रहते थे ।

राज्य व्यक्ति के न केवल सार्वजनिक अपितु पारिवारिक जीवन में भी हस्तक्षेप करता था और वहाँ नौकरशाही के अत्याचार के लिये पर्याप्त गुंजाइश थी । ऐसी व्यवस्था में शासन की सफलता पूरी तरह सम्राट की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी ।

अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के काल में केन्द्रीय नियंत्रण शिथिल पड़ गया । ऐसी स्थिति में साम्राज्य के पदाधिकारी सम्राट के स्वयं के लिये घातक हुए तथा साम्राज्य का विकेन्द्रीकरण होना स्वाभाविक था ।

3. राष्ट्रीय चेतना का अभाव (Lack of National Consciousness):

मौर्य युग में राज्य अथवा राष्ट्र का सरकार के ऊपर अस्तित्व नहीं था । इस समय राष्ट्र के निर्माण के लिये आवश्यक तत्व, जैसे समान प्रथायें, समान भाषा तथा समान ऐतिहासिक परम्परा, पूरे मौर्य साम्राज्य में नहीं थीं । भौतिक दृष्टि से भी साम्राज्य के सभी भाग समान रूप से विकसित नहीं थे । राज्य का सरकार के ऊपर कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं समझा गया था । राजनैतिक दृष्टि से भी राष्ट्रीय एकता की भावना मौर्य युग में नहीं थी ।

यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि यवनों का प्रतिरोध कभी भी संगठित रूप से नहीं हुआ । जब कभी भी भारत पर यवनों के आक्रमण हुए, उनका सामना स्थानीय राजाओं अथवा सरदारों द्वारा अपने अलग-अलग ढंग से किया गया ।

उदाहरणार्थ जब पोरस सिकन्दर से युद्ध कर रहा था अथवा सुभगसेन अन्तियोकस को भेंट दे रहा था तो वे यह कार्य पश्चिमोत्तर भारत में पृथक शासकों की हैसियत से कर रहे थे । देश के केन्द्रिय भाग के शासकों, विशेषकर पाटलिपुत्र के राजाओं से, उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली । पोरस, जिसकी यूनानियों तक ने प्रशंसा की, का भारतीय स्रोतों में उल्लेख तक नहीं हुआ ।

चूँकि मौर्य साम्राज्य के लोगों में कोई मूलभूत राष्ट्रीय एकता नहीं थी, अत: राजनीतिक विकेन्द्रीकरण निश्चित ही था । रोमिला थापर ने प्रशासन के संगठन तथा राज्य अथवा राष्ट्र की अवधारणा को ही मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है ।

4. आर्थिक तथा सांस्कृतिक असमानतायें (Economic and Cultural Inequalities):

विशाल मौर्य साम्राज्य में आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्तर की विषमता विद्यमान थी । गंगाघाटी का प्रदेश अधिक समृद्ध था, जबकि उत्तर-दक्षिण के प्रदेशों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत कम विकसित थी । पहले भाग की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी जहाँ व्यापार-व्यवसाय के लिये भी उपयुक्त अवसर प्राप्त थे । दूसरे भाग में अस्थिर अर्थव्यवस्था थी जिसमें व्यापार-वाणिज्य को बहुत कम सुविधायें थीं । मौर्य-प्रशासन उत्तरी भाग की अर्थव्यवस्था से अधिक अच्छी तरह परिचित थे ।

यदि दक्षिणी क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था भी समान रूप से विकसित की गई होती तो साम्राज्य में आर्थिक सामंजस्य स्थापित हुआ होता । इसी प्रकार सांस्कृतिक स्तर की विभिन्नता भी थी । प्रमुख व्यावसायिक नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में चोर विषमता व्याप्त थी । प्रत्येक क्षेत्र की सामाजिक प्रथायें एवं भाषायें भिन्न-भिन्न थीं ।

यद्यपि अशोक ने प्राकृत भाषा का अपने अभिलेखों में प्रयोग कर उसे राष्ट्र भाषा के रूप में विकसित करने का प्रयास किया था, परन्तु उत्तर-पश्चिम में यूनानी तथा अरामेईक तथा दक्षिण में तमिल भाषायें इस एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बनी रहीं । ये सभी कारण मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये अवश्य ही उत्तरदायी रहे होंगे ।

5. प्रान्तीय शासकों के अत्याचार (Oppression of Provincial Rulers):

मौर्य युग में साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों में प्रान्तीय पदाधिकारियों के जनता पर अत्याचार हुआ करते थे । इससे जनता मौर्यों के शासन के विरुद्ध हो गयी । दिव्यावदान में इस प्रकार के अत्याचारों का विवरण मिलता है ।

पहला विद्रोह तक्षशिला में बिंदुसार के काल में हुआ था तथा उसने अशोक को उसे दबाने के लिये भेजा । अशोक के वहाँ पहुँचने पर तक्षशिलावासियों ने उससे बताया- “न तो हम राजकुमार के विरोधी हैं और न राजा बिन्दुसार के । किन्तु दुष्ट अमात्य हम लोगों का अपमान करते हैं ।”

हमें ज्ञात होता है कि तक्षशिला में अशोक के समय भी अमात्यों के अत्याचारों के विरुद्ध जनता का विद्रोह उठ खड़ा हुआ । इसे दबाने के लिये अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को भेजा था । इसी प्रकार के अत्याचार अन्य प्रदेशों में भी हुए होंगे । लगता है कि कलिंग में भी प्रान्तीय पदाधिकारियों के दुर्व्यवहार से जनता दु:खी थी । अशोक अपने कलिंग लेख में न्यायाधीशों को न्याय के मामले में निष्पक्ष तथा उदार रहने का आदेश करता है ।

परवर्ती मौर्य शासकों में शालिशूक भी अत्याचारी कहा गया है । इन सबके फलस्वरूप जनता मौर्य शासन से घृणा करने लगी होगी तथा निर्बल राजाओं के काल में अनेक प्रान्तों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी होगी ।

6. करों की अधिकता (Excess over Taxes):

परवर्ती मौर्य युग में देश की आर्थिक स्थिति संकटग्रस्त हो गयी जिसके फलस्वरूप शासकों ने अनावश्यक उपायों द्वारा करों का संग्रह किया । उन्होंने अभिनेताओं तथा गणिकाओं तक पर कर लगाये ।

पतंजलि ने लिखा है कि शासन अपना कोष भरने के लिये जनता की धार्मिक भावना जागृत करके धन संग्रह किया करते थे । वे छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाकर जनता के बीच बिकवाते तथा उससे धन कमाते थे । मौर्यों के पास एक अत्यन्त विशाल सेना तथा अधिकारियों का बहुत बड़ा वर्ग था । सेना के रख-रखाव एवं अधिकारियों को वेतनादि देने के लिये बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी ।

यह जनता पर भारी कर लगाकर ही प्राप्त किया जा सकता था । मौर्य शासकों ने जनता पर सभी प्रकार के कर लगायें । अर्थशास्त्र में करों की एक लम्बी सूची मिलती है । यदि इन्हें वस्तुतः लिया जाता हो तो अवश्य ही जनता का निर्वाह कठिन हो गया होगा ।

अत: इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि करों के भार से वोझिल जनता ने मौर्य शासकों को निर्बल पाकर उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया हो और यह जन-असंतोष साम्राज्य की एकता एवं स्थायित्व के लिये घातक सिद्ध हुआ हो ।

कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि अशोक द्वारा बौद्ध संघों को अत्यधिक धन दान में दिया गया जिससे राजकीय कोष खाली हो गया । अत: इसकी पूर्ति के लिये परवर्ती राजाओं ने तरह-तरह के उपायों द्वारा जनता से कर वसूल किये जिसके परिणामस्वरूप जनता का जीवन कष्टमय हो गया ।

7. अशोक का उत्तरदायित्व (Responsibility of Ashok):

मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये कुछ विद्वानों ने अशोक की नीतियों को ही मुख्य रूप से उत्तरदायी बताया है । ऐसे विद्वानों में सर्वप्रमुख हैं महामहोपाध्याय पं. हर प्रसाद शास्त्री । शास्त्री महोदय ने अशोक की अहिंसा की नीति को ब्राह्मण-विरोधी बताया है जिसके फलस्वरूप अन्त में चलकर पुष्यमित्र के नेतृत्व में ब्राह्मणों का विद्रोह हुआ तथा मौर्यवंश की समाप्ति हुई ।

हेमचन्द्र रायचौधरी ने उसके तर्कों का विद्वतापूर्ण ढंग से खण्डन करने के पश्चात् यह सिद्ध कर दिया है कि अशोक की नीतियाँ किसी भी अर्थ में ब्राह्मण-विरोधी नहीं थी । यहाँ हम संक्षेप में इन दोनों विद्वानों के मतों का अवलोकन करेंगे ।

पं. शास्त्री के मतों का सारांश इस प्रकार है:

(i) अशोक द्वारा पशुबलि पर रोक लगाना ब्राह्मणों पर खुला आक्रमण था । चूँकि वे ही यज्ञ कराते थे और इस रूप में मनुष्यों तथा देवताओं के बीच मध्यस्थता करते थे, अत: अशोक के इस कार्य से उनकी शक्ति तथा सम्मान दोनों को भारी धक्का लगा ।

(ii) अपने रूपनाथ के लघु शिलालेख में अशोक यह बताता है कि उसने ‘भू-देवों’ (ब्राह्मणों) को मिथ्या साबित कर दिया । यह कथन स्पष्टतः ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा के विनाश की सूचना देता है ।

(iii) धम्ममहामात्रों ने ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया ।

(iv) अपने पाँचवें स्तम्भ लेख में अशोक हमें बताता है कि उसने न्यायप्रशासन के क्षेत्र में ‘दण्ड समता’ एवं ‘व्यवहार समता’ का सिद्धान्त लागू किया । इससे ब्राह्मणों को दण्ड से मुक्ति का जो विशेषाधिकार मिला था वह समाप्त हो गया ।

(v) चूँकि अशोक शक्तिशाली राजा था, अत: ब्राह्मणों को दबाकर नियंत्रण में रखे रहा । उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी राजाओं तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हुआ । ब्राह्मणों ने अन्त में पुष्यमित्र के नेतृत्व में संगठित होकर अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ का काम तमाम कर दिया ।

रायचौधरी ने उपर्युक्त तर्कों का इस प्रकार खण्डन किया है:

I. अशोक की अहिंसा की नीति ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं थी । ब्राह्मण ग्रन्थों में ही अहिंसा का विधान मिलता है । उपनिषद् पशुबलि तथा हिंसा का विरोध करते हैं तथा यज्ञों की निन्दा करते हैं । मुण्डकोपनिषद में स्पष्टतः कहा गया है कि- ‘यज्ञ टूटी नौकाओं के सदृश तथा उनमें होने वाले 18 कर्म तुक्ष है । जो मूढ़ लोग इन्हें श्रेय मानकर इनकी प्रशंसा करते वे बारम्बार जरामृत्यु को प्राप्त होते हैं ।’

II. शास्त्री जी ने रूपनाथ के लघु शिलालेख की पदावली का अर्थ गलत लगाया है । सिलवां लेवी ने इसका दूसरा अर्थ किया है जो व्याकरण की दृष्टि से अधिक तर्कसंगत है । इसके अनुसार इस पूरे वाक्य का अर्थ है- “भारतवासी जो पहले देवताओं से अलग थे अब देवताओं से (अपने उन्नत नैतिक चरित्र के कारण) मिल गये ।” अत: इस वाक्य में कुछ भी ब्राह्मण विरोधी नहीं हैं ।

III. अनेक धम्ममहामात्र ब्राह्मणों के कल्याण के लिये भी नियुक्त किये गये थे । अशोक अपने अभिलेखों में बारम्बार यह बलपूर्वक कहता है कि ब्राह्मणों के साथ उदार बर्ताव किया जाए । ऐसी स्थिति में यह तर्क मान्य नहीं हो सकता कि धम्म-महामात्रों की नियुक्ति से ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची होगी ।

IV. अशोक ने न्याय-प्रशासन में एकरूपता लाने के उद्देश्य से ‘दण्ड-समता’ एवं ‘व्यवहार-समता’ का विधान किया था । इसका उद्देश्य यह था कि सबको सभी स्थानों पर निष्पक्ष रूप से न्याय मिल सके ।

V. इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि परवर्ती मौर्यों तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हुआ था । यह भी सत्य नहीं है कि अशोक के सभी उत्तराधिकारी बौद्ध ही थे । जालौक को राजतरंगिणी में स्पष्टता शैव तथा बौद्ध-विरोधी कहा गया है ।

उत्तरकालीन मौर्य सम्राटों के ब्राह्मणों के साथ अनुचित व्यवहार किया गया हो, इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है । पुष्यमित्र की सेनापति के पद पर नियुक्ति स्वयं इस बात का प्रमाण है कि प्रशासन के ऊँचे पदों पर ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी । जहाँ तक पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह का प्रश्न है, इसे हम ब्राह्मण प्रतिक्रिया का प्रतीक नहीं मान सकते । साँची, भरहुत आदि स्थानों से प्राप्त कलाकृतियों से पुष्यमित्र के बौद्ध-द्रोही होने के मत का खण्डन हो चुका है ।

पुन: यह एक बड़ा ब्राह्मण विद्रोह होता तो देश के दूसरे ब्राह्मण राजाओं से उसे अवश्य ही सहायता मिली होती । चूँकि मौर्य साम्राज्य अत्यन्त निर्बल हो गया था, अत: उसे पलटने के लिये किसी बड़े विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी ।

पुष्यमित्र द्वारा बृहद्रथ की हत्या एक सामान्य घटना थी जिसका ब्राह्मण असन्तोष, यदि कोई रहा भी हो तो उससे कोई सम्बन्ध नहीं था । पं. हर प्रसाद शास्त्री के मत का खण्डन करने के उपरान्त रायचौधरी ने स्वयमेव अशोक की शान्तिवादी नीति को मौर्य-साम्राज्य के पतन के लिये मुख्य रूप से उत्तरदायी ठहराया है ।

उनके मतानुसार अशोक की शान्ति और अहिंसा की नीति ने देश को सैनिक दृष्टि से अत्यन्त निर्बल कर दिया और वह यवनों के आक्रमण का सामना करने में असमर्थ रहा । अशोक के उत्तराधिकारियों का पोषण शान्ति के वातावरण में हुआ था और उन्होंने ‘भेरीघोष’ के स्थान पर ‘धम्मधोष’ के विषय में अधिक सुना था । अशोक ने अपने पूर्वजों की दिग्विजय की नीति का परित्याग कर धम्म-विजय की नीति को अपना लिया ।

फलस्वरूप सैनिक अभियानों के अभाव में उनकी सेना में निष्क्रियता आ गयी तथा उसे धर्म प्रचार के काम में लगा दिया गया । परन्तु यदि उपर्युक्त मतों की अलोचनात्मक समीक्षा किया जाये तो वे पूर्णतया निराधार प्रतीत होंगे ।

अशोक यदि इतना अहिंसावादी तथा शान्तिवादी होता जितना कि रायचौधरी ने समझा है तो उसने अपने राज्य में मृत्युदण्ड बन्द करा दिया होता । हम यह भी जानते हैं कि उसने कलिंग को स्वतन्त्र नहीं किया और न ही उसने इस युद्ध के ऊपर कलिंग राज्य में पश्चाताप किया । एक व्यावहारिक शासक की भाँति उसने इस विजय को स्वीकार किया और इस विषय पर किसी भी प्रकार की नैतिक आशंका उसे नहीं हुई । उसके अभिलेख इस मत के साक्षी है कि उसकी सैनिक शक्ति सुदृढ़ थी ।

अपने तेरहवें शिलालेख में वह सीमान्त प्रदेशों के लोगों तथा जंगली जन-जातियों को स्पष्ट चेतावनी देता है कि- ‘जो गलती किये हैं, सम्राट उन्हें क्षमा करने का इच्छुक है, परन्तु जो केवल क्षम्य है वही क्षमा किया जा सकता है ।’

जंगली जनजाति के लोगों को अपनी सैनिक शक्ति की याद दिलाते हुए वह कहता है- ‘यदि वे अपराध नहीं छोड़ेंगे तो उनकी हत्या करा दी जावेगी ।’ इन उल्लेखों से रायचौधरी के मत का खण्डन हो जाता है ।

पुन: इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने सैनिकों की संख्या कम कर दी हो अथवा सेना को धर्म प्रचार के काम में लगा दिया हो । यदि वह अपने सैनिकों को धर्म प्रचार के काम में लगाता तो इसका उल्लेख गर्व के साथ वह अपने अभिलेखों में करता ।

अत: ऐसा लगता है कि अशोक ने इसलिए शान्तिवादी नीति का अनुकरण किया कि उसके साम्राज्य की बाहरी सीमायें पूर्णतया सुरक्षित थीं और देश के भीतर भी शान्ति एवं व्यवस्था विद्यमान थी । केवल एक सबल प्रशासन के अधीन ही इतना विशाल साम्राज्य इतने अधिक दिनों तक व्यवस्थित ढंग से रखा जा सकता था ।

यदि अशोक सैनिक निरंकुशवाद की नीति अपनाता तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता और उस समय उसके आलोचक सैनिकवाद की आलोचना कर उसे ही साम्राज्य के पतन के लिये उत्तरदायी बताते, जैसा कि सिकन्दर, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी आदि सैनिकवाद के उच्च पुरोहितों के विरुद्ध आरोपित किया जाता है ।

अशोक के उत्तराधिकारी अयोग्य तथा निर्बल हुए तो इसमें अशोक का क्या दोष था ? इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि हम अशोक को किसी भी प्रकार से मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते । मौर्य साम्राज्य का पतन स्वाभाविक कारणों का परिणाम था जिसका उत्तरदायित्व अशोक के मत्थे मढ़ना उचित नहीं होगा ।

राधाकुमुद मुकर्जी का कथन वस्तुतः सत्य है कि- “यदि अशोक अपने पिता और पितामह की रक्त तथा लौह की नीति का अनुसरण करता तो भी कभी न कभी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता । परन्तु सभ्य संसार के एक बड़े भाग पर भारतीय संस्कृति का जो नैतिक आधिपत्य कायम हुआ, जिसके लिये अशोक ही मुख्य कारण था, शताब्दियों तक उसकी ख्याति का स्मारक बना रहा और आज लगभग दो हजार से भी अधिक वर्षों की समाप्ति के बाद भी यह पूर्णतया लुप्त नहीं हुआ ।”

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