भारत में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों की सूची | List of Important Historical Places in India in Hindi.

1. अजन्ता:

महाराष्ट्र प्रान्त के ओरंगाबाद जिले में अजन्ता नाम की पहाड़ी है । हैदराबाद के समीप जलगाँव नामक रेलवे स्टेशन से लगभग 37 मील की दूरी पर फरदापुर नामक ग्राम है । यहाँ से दो मील दक्षिण-पश्चिम की ओर अजन्ता नामक ग्राम बसा है । इसी के नाम पर पहाड़ी का नाम अजन्ता पड़ गया ।

यहाँ पर्वत को काटकर 29 गुफायें बनाई गयी है जिनकी छतों और दीवारों पर अत्युत्कृष्ट चित्रकारियों मिलती है । अजन्ता में अब केवल छ गुफाओं (9, 10, 16, 17 1-2) के चित्र ही अवशिष्ट हैं, अन्य नष्ट हो गये है । इनका समय ईसा-पूर्व प्रथम शती से खेकर सातवीं शती ईस्वी तक है ।

9वीं-10वीं गुफाओं के चित्र सर्वप्राचीन हैं जिसका समय ईसा पूर्व प्रथम शती है । इन गुफाओं के चित्रों में एक राजकीय जुलूस का चित्र प्रसिद्ध है । 16वीं-17वीं गुफाओं के चित्र गुप्तकाल के हैं और वे कला की दृष्टि से सर्वोत्तम है । ‘मरणासन्न राजकुमारी’ तथा माता और शिशु नामक चित्र अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक है ।

ADVERTISEMENTS:

भारतीय तथा विदेशी दोनों ही कलाविदों ने इनकी प्रशंसा की है । पहली-दूसरी गुफाओं के चित्र सातवीं शती के हैं । यहाँ के चित्रों में चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय द्वारा फारसी दूत-मण्डल का स्वागत करते हुए दिखाया गया चित्र प्रसिद्ध है । इस प्रकार समग्ररूप से अजन्ता की चित्रकला बड़ी प्रशंसनीय है । यहाँ के भित्तिचित्र विश्व इतिहास में सर्वथा बेजोड़ है । चित्रकला के अतिरिक्त अजन्ता से मूर्तिकला के भी सुन्दर उदाहरण मिलते है ।

2. एरण (एरकिण):

मध्य प्रदेश के सागर जिले में यह स्थान स्थित है । इसका एक प्राचीन नाम एरकिण भी मिलता है । गुप्त राजाओं के काल में यह एक महत्वपूर्ण नगर था । यहाँ से कई लेख तथा सिक्के मिलते हैं । गुप्त संवत् 82=402 ई. का समुद्रगुप्त का लेख मिला है जिसमें इस प्रदेश को उसका ‘भोगनगर’ कहा गया है । लेख समुद्रगुप्त की वीरता, ऐश्वर्य आदि पर प्रकाश डालता है । समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त के कई सिक्के यहाँ से मिले है जो उसकी ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालते है ।

बुधगुप्त तथा भानुगुप्त के समय के लेख भी एरण से मिलते हैं । भानुगुप्तकालीन लेख (510 ई.) में उसके सामन्त गोपराज का उल्लेख है जो हूणों के साथ युद्ध में मारा गया और उसकी पत्नी सती हो गयी थी । सती प्रथा के प्रचलन का यह प्रथम अभिलेखीय प्रमाण है । हूण नरेश तोरमाण के समय का एक लेख भी यहाँ से मिलता है जो वाराह प्रतिमा पर अंकित है ।

इससे पता चलता है कि तोरमाण ने यह स्थान जीत लिया था तथा धन्यविष्णु उसके सामन्त के रूप में यहाँ शासन करता था । एरण में सागर विश्वविद्यालय के तत्वावधान में व्यापक पैमाने पर खुदाइयां हुई है जिनसे ऐतिहासिक महत्व की अनेक वस्तुएँ प्राप्त की गयी हैं ।

3. उद्भाण्डपुर:

ADVERTISEMENTS:

यह स्थान सम्प्रति पाकिस्तान में स्थित है । सिन्ध नदी तट पर बसे हुए अटक से 16 मील उत्तर की ओर उद्‌भाण्डपुर नामक स्थान है । सिकन्दर के आक्रमण के समय यह नगर प्रसिद्ध था । तक्षशिला के राजा आम्भी ने सिकन्दर के पास सन्धि का प्रस्ताव लेकर अपना जो दूत भेजा था वह इसी स्थान में उससे मिला था । क्लासिकल लेखकों ने इस स्थान का उल्लेख किया है । कल्हण ने संभवतः इसी नगर का उल्लेख उद्खण्ड नाम से किया है ।

4. अन्हिलवाड:

गुजरात के चौलुक्य या सोलंकी वंश के शासकों की यह राजधानी थी । किंवदन्ती के अनुसार अरब आक्रमणकारियों द्वारा बलभी नगर नष्ट कर दिये जाने पर वहाँ राजपूतों ने अन्हिलवाड़ की स्थापना की थी । 1942 ई. के लगभग चौलुक्य नरेश मूलराज ने गुजरात पर अधिकार कर इस स्थान को अपनी राजधानी बनायी ।

चौलुक्य शासकों के समय में इस नगर की महती उन्नति हुई तथा इसे भवनों एवं मन्दिरों से सजाया गया । यह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ से कई जैन मन्दिरों के उदाहरण मिलते है । मन्दिर अपनी वास्तु तथा स्थापत्य दोनों के लिये प्रसिद्ध हैं।

5. अवन्ति:

बुद्ध काल में यह पश्चिमी भारत का एक प्रमुख राज्य था जिसकी राजधानी उज्जयिनी में स्थित थी। इस स्थान की पहचान वर्तमान मध्यप्रदेश के उज्जैन नामक नगर से की जाती है । प्राचीन समय में अवन्ति के अन्तर्गत सम्पूर्ण मालवा का क्षेत्र शामिल था । महात्मा बुद्ध के समय में यहाँ प्रद्योत का शासन था। इस राज्य का मगध के साथ लम्बा संघर्ष चला तथा शिशुनाग ने इसे जीत कर मगध में मिला लिया था ।

ADVERTISEMENTS:

मौर्य काल में अवन्ति मगध साम्राज्य का पश्चिमी प्रान्त था । गुप्त काल के पूर्व यहाँ शकों का राज्य स्थापित हुआ । चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने शकों से छीनकर इसे पुन अपने अधिकार में कर लिया था । राजपूत युग में यहाँ परमार राजाओं का शासन था ।

अवन्ति सांस्कृतिक एवं व्यापारिक महत्व का स्थान था । बुद्ध काल में यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द था जहाँ कई प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु निवास करते थे । गुप्तकाल में यह शैवधर्म का भी केन्द्र बना जहाँ स्थित महाकाल का मन्दिर पूरे देश में प्रसिद्ध था । हर्षकालीन चीनी यात्री हुएनसांग तथा लेखक बाणभट्‌ट ने उज्जयिनी नगर की प्रसिद्धि का वर्णन किया है ।

वहाँ अनेक भव्य भवन, मन्दिर, विहार आदि विद्यमान थे । बाण ने उज्जयिनी नगर को तीनों लोकों में श्रेष्ठ नगर बताया हैं । अवन्ति या उज्जयिनी का नगर शिप्रा नदी के तट पर स्थित होने के कारण व्यापार-वाणिज्य के लिये भी महत्वपूर्ण था ।

यहाँ से दो प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग होकर गुजरते थे । पहला कौशाम्बी से भडौंच तथा दूसरा प्रतिष्ठान से पाटलिपुत्र जाता था । दोनों ही मार्गों का मिलन-स्थल अवन्ति में ही था । इस दृष्टि से इस स्थान का व्यापारिक महत्व बहुत अधिक बढ़ गया ।

6. हलेविड:

वंश की राजधानी द्वार समुद्र का आधुनिक नाम हलेविड है जो कर्नाटक राज्य में बेलूर के पास स्थित है । होयसल राजाओं ने यहाँ 1149 ई. सें लेकर 1339 ई. तक राज्य किया । उन्होंने यहाँ कई मन्दिरों का निर्माण करवाया था । उनके द्वारा बनवाया गया होयसलेश्वर का मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है । यह 160′ x 122′ के आकार में बना है ।

मन्दिर की दीवारों पर देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की सुन्दर एवं आकर्षक मूर्तियों बनी हुई है । इस मन्दिर का निर्माण विष्णुवर्धन ने करवाया था । होयसलेश्वर मन्दिर के अतिरिक्त हलेविड से कई जैन मन्दिरों के उदाहरण भी प्राप्त होते है । इनमें पार्श्वनाथ का मन्दिर उल्लेखनीय है जिसमें उनकी 14′ ऊँची प्रतिमा रखी हुई है । दो अन्य मन्दिरों से ऋषभदेव तथा शान्तिनाथ की प्रतिमायें भी मिलती है ।

7. शृंगेरी:

कर्नाटक के कदूर जिले में तुंग नदी के तट पर यह स्थित है। यह इंगीं ऊषि का जन्मस्थल माना जाता है । समीप में इंगगिरि पहाड़ी है । आठवीं शती में प्रख्यात दाशनिक शकराचार्य ने यहाँ अपने चार पीठों में से एक की स्थापना की थी। यह देश के सबसे दक्षिण में स्थित था। शंकराचार्य से सम्बद्ध होने के कारण यह प्रमुख हिन्दू तीर्थ बन गया है।

8. सारनाथ:

यह वाराणसी के समीप स्थित प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थस्थल है जहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश पाँच ब्राह्मण शिष्यों को दिया था । इसे ‘धर्मचक्र प्रवर्त्तन’ कहा गया है । इसका एक नाम बौद्ध साहित्य में ‘ऋषिपत्तन’ भी मिलता है । काशी के प्रसिद्ध श्रेष्ठि नन्दी ने यहाँ बुद्ध के लिये एक विहार बनवाया था । मौर्य शासक अशोक ने इस स्थान की यात्रा कर यही स्तूप एवं स्तम्भ बनवाये थे ।

इनमें सिंहशीर्ष स्तम्भ अत्यधिक प्रसिद्ध है । इसकी फलका पर चार सिंह परस्पर पीठ सटाये हुए चारों दिशाओं में मुँह करके बैठे हैं । उनके मस्तक पर एक धर्मचक्र था जो अब नहीं है । यह शक्ति के ऊपर धर्म की विजय का प्रतीक है । मार्शल इस स्तम्भ को कला की दृष्टि से बेजोड़ मानते है । सम्प्रति भारत राष्ट्र का यही राजचिह्न है ।

चीनी यात्रियों- फाहियान तथा हुएनसांग-दोनों ने सारनाथ का वर्णन किया है । फाहियान ने यहाँ चार बड़े स्तूप और पाँच विहार देखे थे । हुएनसांग के अनुसार यहाँ तीस बौद्ध विहार थे जहां 1500 भिक्षु निवास करते थे । हिन्दुओं के 100 मन्दिर भी यहाँ स्थित थे ।

सारनाथ की खुदाइयों में अनेक स्मारक प्राप्त होते हैं । धमेख स्तूप का निर्माण गुप्तकाल में हुआ, माना जाता है । इसी समय की एक बुद्ध प्रतिमा भी मिलती है । इस पर विदेशी प्रभाव नहीं है तथा यह कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है । एक प्राचीन शिव मन्दिर तथा जैन मन्दिर भी यहाँ स्थित है । आज भी यह स्थल बौद्धों की श्रद्धा एवं उनके आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है ।

9. लौरियानन्दनगढ़:

बिहार के चम्पारन (मोतिहारी) जिले में स्थित इस स्थान से अशोक का एक स्तम्भलेख मिलता है । इसके शीर्षभाग पर सिंह की प्रतिमा स्थापित है । इसके ऊपर मार्यकालीन ब्राह्मी लिपि में पाँच लेख अंकित हैं । बुद्ध कालीन गणराज्य बुलि की राजधानी अलकप्प, इसी स्थान पर स्थित थी जिसके खण्डहर यहाँ से मिलते है । लौरियानन्दनगढ़ के समीप दूसरा स्थल लौरियाअरराज है । यहाँ से भी अशोक का स्तम्भ लेख मिलता है । इसका शीर्ष भाग नष्ट हो गया है । इसके ऊपर छ: लेख उत्कीर्ण हैं ।

10. रूपनाथ:

मध्य प्रदेश के जबलपुर की कैमूर पर्वत शृंखला की तलहटी में स्थित यह एक रमणीक स्थल है । यहाँ शिव का प्राचीन मन्दिर है । यह एक तीर्थस्थल था जहाँ राम, लक्ष्मण तथा सीता के नाम पर तीन सरोवर थे । मौर्य शासक अशोक ने अपना लघु शिलालेख यहाँ उत्कीर्ण करवाया था । लेख में अशोक यह दावा करता है कि उसके धम्म प्रचार के फलस्वरूप भारत के निवासी अपने नैतिक आचरण के कारण देवताओं से मिल गये है ।

11. मालवा:

मध्य प्रदेश के आधुनिक उज्जैन, विदिशा तथा सागर जिलों की भूमि पर प्राचीनकाल का मालवा प्रदेश स्थित था । इसके दो भाग थे । (1) पूर्वी मालवा जिसकी राजधानी विदिशा थी । इसे आकर कहा जाता था । गौतमीपुत्र के नासिक लेख में इसका उल्लेख है । (2) पश्चिमी मालवा इसे अवन्ति कहा जाता था तथा इसकी राजधानी उज्जयिनी में थी ।

गौतमीपुत्र ने इन दोनों ही राज्यों को जीता था । जैन ग्रन्थ कालकाचार्य कथानक से सूचित होना है कि प्रथम शती ईसा पूर्व में यहाँ पर विक्रमादित्य का शासन था । उसने शकों को पराजित कर यहाँ से खदेड़ा तथा अपनी विजय की स्मृति में मालव अथवा विक्रम संवत् (57 ई. पू.) का प्रवर्त्तन किया था । कालान्तर में यहाँ के लेखों में इसी सवत् का प्रयोग मिलने लगा ।

12. माहिष्मती:

मध्य प्रदेश के इन्दौर जिले में स्थित महेश्वर नामक स्थान से इस नगर का पहचान की जाती है । महाभारत में यही के राजा नील का उल्लेख है जिसे सहदेव ने पराजित किया था । बुद्धकाल में यह चोदि जनपद की राजधानी था । बौद्ध साहित्य से पता लगता है कि यह दक्षिणी अवन्ति का मुख्य नगर था ।

नर्मदा तट पर स्थित होने के कारण व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से भी इस नगर की महत्ता थी । कालिदास ने रघुवंश में भी इस नगर के वैभव का वर्णन किया है । सातवीं शती में चीनी यात्री हुएनसांग ने भी इस नगर का उल्लेख किया है । उसके अनुसार यहाँ का शासक ब्राह्मण था ।

माहिष्मती संस्कृत शिक्षा का भी केन्द था । कहा जाता है कि शकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाले मण्डन मिश्र तथा उनकी पत्नी यहीं के निवासी थे । पौराणिक मान्यता के अनुसार सहस्त्रबाहु नामक राजा यहीं से शासन करता था ।

13. भृगुकच्छ:

इस स्थान की पहचान आधुनिक गुजरात प्रान्त के भडौंच से की जाती है । यह पश्चिमी भारत का प्रसिद्ध नगर एवं समुद्री बन्दरगाह था । साहित्य में इसके नाम भरुकच्छ, भृगुपुर, भृगुतीर्थ आदि मिलते हैं । विदेशी लेखक इसे बेरीगाजा, बैरुगाजा, बैर्गोसा आदि कहते है । पुराणों में इसे महर्षि भृगु का क्षेत्र बताया गया है तथा इसे तीर्थस्थल कहा गया है ।

नासिक के एक गुहालेख से पता चलता है कि नहपान उषावदात के दामाद ने यहाँ यात्रियों की सुविधा के निमित्त आवासगृह, कुएं, तालाव आदि बनवाये थे । व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में यह नगर अत्यधिक प्रसिद्ध था । पश्चिमी तट का यहाँ सबसे बड़ा बन्दरगाह था । ईसा की प्रथम शती में उत्तरी तथा मध्य भारत का समस्त आयात-निर्यात यहीं से होता था ।

जातक ग्रन्थों में इस स्थान से जाने वाले व्यापारियों का उल्लेख हुआ है । सुप्पारक जातक में भरुकच्छ के समुद्री व्यापारियों की साहसिक यात्राओं के रोचक विवरण है । सुस्सोदि जातक के अनुसार यहाँ के व्यापारी सुवर्णभूमि को जलमार्गों द्वारा जाते थे ।

यूनानी-रोमन लेखकों ने भी भृगुकच्छ के व्यापारिक महत्व का संकेत दिया है । पेरीप्लस से ज्ञात होता है कि यहाँ पहुंचने वाले जहाजों को सकट का सामना करना पड़ता था । पश्चिमी देशों से इस नगर में मदिरा, सीसा, स्वर्ण-रजत मुद्रायें, वर्तन, अनुलेप आदि पहुँचते थे ।

यहाँ से नियातित होने वाली वस्तुओं में हाथीदाँत, रेशमी वस्त्र, मलमल, मिर्च, बहुमूल्य पत्थर आदि थीं । प्लिनी लिखता है कि इस बन्दरगाह से रोम के लिये विलासिता की सामग्रियों एवं रेशमी वस्त्र निर्यातित किये जाते थे जिनके बदले में रोम से एक करोड मुद्रायें प्रतिवर्ष भारत पहुँचती थीं । हुएनसांग भी इस बन्दरगाह की प्रसिद्धि का उल्लेख करता है ।

उत्तरी भारत के प्रमुख नगर भृगुकच्छ से जुड़े हुये थे । उज्जयिनी से यहाँ मलमलादि आते थे । दक्षिण के व्यापारी इसी बन्दरगाह से अपनी सामग्रियाँ पश्चिमी देशों को भेजते थे । हर्ष के समय में भृगुकच्छ में गुर्जर वंश की राजधानी थी जिसका शासक दक्ष द्वितीय था । यह राज्य संभवतः नर्मदा तथा यही नदियों की बीच की भूमि में स्थित था ।

14. भितरगाँव:

कानपुर नगर से 20 मील की दूरी पर दक्षिण की ओर यह गाँव वसा हुआ है । यही गुप्तकाल में एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण हुआ । यह भगवान विष्णु का मन्दिर 70′ ऊँचा था । इसका निर्माण ईंटों की सहायता से हुआ था । इसका निर्माण ऊँचे गोल चबूतरे पर हुआ था ।

इसका गर्भगृह 15′ का है । इसका बाहरी भाग है । चतुर्दिक बने हुए ताखों में अनेक मिट्‌टी की मूर्तियाँ रखी हुई है जो रामायण, महाभारत तथा पुराणों से सम्बन्धित । मन्दिर की भीतरी दीवारों पर भी कई अलंकरण है ।

इसका शीर्षभाग नष्ट हो गया है । भितरगाँव का मन्दिर गुप्त वास्तुकला का सुन्दर उदाहरण है । इसको वास्तु का प्रभाव कालान्तर में गुर्जर-प्रतिहारों द्वारा बनवाये गये कनौज, ग्वालियर आदि के मन्दिरों पर पड़ा ।

15. ब्रह्मगिरि:

आधुनिक कर्नाटक प्रान्त (प्राचीन मैसूर) के चित्तलदुर्ग जिले में यह पुरास्थल स्थित है । यहाँ अशोक का लघु शिलालेख मिलता है। इसी के समीप सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर तथा मारी से भी ये लेख मिलते हैं । इन लेखों की प्राप्ति-स्थानों से इस बात की सूचना मिलती है कि अशोक का साम्राज्य दक्षिण की ओर वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक फैला हुआ था ।

ब्रह्मगिरि लेख से पता चलता है कि दक्षिणी प्रान्त का केन्द्र सुवर्णगिरि था जहाँ एक कुमार रहता था । इससे अशोक के धर्म प्रचार का भी ज्ञान होता है । इस लेख में वह दावा करता है कि उसके धर्म-प्रचार के कारण सारे जम्बूद्वीप के निवासी देवताओं से मिला दिये गये ।

सर्वप्रथम 1942 ई. में एम. एच. कृष्णन् द्वारा इस स्थल की खुदाई करा कर इसके पुरातात्विक महत्व की ओर सकेत किया गया था । किन्तु विधिवत उत्खनन 1947 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन महानिदेशक एच. एम. ह्वीलर द्वारा करवाकर इस स्थल की विविध संस्कृतियों का विवरण प्रकाशित किया गया ।

ब्रह्मगिरि की खुदाई में तीन संस्कृतियों के अवशेष मिलते है:

i. प्रथम संस्कृति:

यह नवपाषाणकाल से संबंधित है तथा यहाँ की सबसे प्राचीन संस्कृति है । इस स्तर से पालिशदार पत्थर, कुल्हाड़ी, सलेटी तथा काले रंग के मृद्‌भाण्ड तथा हड्डियों के बने कुछ उपकरण मिलते है । इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे तथा मिट्टी और सरकन्डे की सहायता से वे अपने निवास के लिये गोलाकार तथा चौकोर घर बनाते थे ।

अपने मृतकों को वे घरों की फर्श के नीचे दफन करते थे । उनके द्वारा उत्पादित प्रमुख फसले कुथली, रागी, चना, मूंग तथा प्रमुख पालतू पशु गाय, बैल, भेड़, बकरी, भैंस, सुअर आदि थे । इस संस्कृति की संभावित तिथि ई. पू. 2500-1000 के मध्य निर्धारित की जाती है ।

ii. द्वितीय संस्कृति:

यह वृहत् अथवा महापाषाण काल से संबंधित है । इसकी प्रमुख विशेषता है लौह उपकरणों एवं काले-लाल मृद्‌भाण्डों का प्रयोग । लौह निर्मित चाकू, भाले, तलवारें, बाणाग्र आदि बड़ी संख्या में मिलते है । बर्तनों का निर्माण चाक पर किया गया लगता है ।

अनेक आकार-प्रकार के कटोरे मिले है जिनमें से कुछ पर चित्रकारियाँ हैं । इस संस्कृतिक स्तर से महापाषाणिक समाधियों के भी साक्ष्य मिले है जो प्रधानतः संगोरा एवं डाल्मेन प्रकार की है । इस संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व 200-50 ई. के बीच निर्धारित की जाती है ।

iii. तृतीय संस्कृति:

यह आन्ध्र-सातवाहन काल से संबंधित है । इस स्तर से भूरे रंग अथवा गेरुए रंग में पुते मृद्‌भाण्डों के टुकड़े मिलते हैं । कुछ टुकड़ों पर सफेद एवं पीले रंग में चित्रण किया गया है । कुछ चकांकित (एरेटाइन) भाण्ड भी हैं जिन्हें अरिकमेडु से प्राप्त भाण्डों की समानता के आधार पर रोमन मूल का माना जाता है । प्रमुख भाण्ड तश्तरियां है । ब्रह्मगिरि की तृतीय संस्कृति का काल पहली से तीसरी शती के बीच माना गया है । इस प्रकार बह्मगिरि पुरातात्विक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है ।

16. पाटलिपुत्र:

विहार की वर्तमान राजधानी पटना का ही प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था । यह प्राचीन भारत का सर्वप्रमुख नगर था पाचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में लेकर छठीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध तक यह विपिन राजनैतिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा ।

पाटलिपुत्र नगर की स्थापना गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर मगध के हर्यकवंशी राजा उदायिन् या उदयभद्र (460-444 ई. पू.) ने की तथा अपनी राजधानी राजगृह से बदल कर यहाँ स्थापित किया । मगध के केन्द्र में स्थित होने के कारण यह नगर राजधानी के निमित्त अधिक उपयुक्त था ।

इसके बाद इसकी उन्नति प्रारम्भ हुई । बुद्धकाल में यह भारत का महानगर माना जाता था । यहाँ से अनेक व्यापारिक मार्ग होकर गुजरते थे जिससे यह व्यापार-वाणिज्य का भी प्रमुख केन्द्र बना । मौर्य युग में इस नगर की महती उन्नति हुई । यूनानी राजदूत मेगस्थनीज इस नगर का विस्तृत वर्णन करता है ।

यह 91/2 मील लम्बा 1¾ मील चौड़ा था । नगर के बीचोंबीच चन्द्रगुप्त मौर्य का विशाल राजप्रासाद स्थित था जो विशालता एवं भव्यता में मूसा और एकबतना के महलों से भी बढ़कर था । नगर का प्रबन्ध पाँच-पाँच सदस्यों वाली छ: समितियां करती थीं । अशोक के समय में इस नगर में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था ।

उसने यहाँ कई स्तुप एवं विहार भी बनवाये थे । मौर्यो के बाद शुंगों के समय में भी पाटलिपुत्र ही मगध साम्राज्य की राजधानी बनी रही । पतंजलि ने इसके प्रासादों का उल्लेख किया हो यवनों के आक्रमण से इस नगर की भी क्षति हुई ।

कुछ अन्तराल के बाद गुप्तवंश के समय में पाटलिपुत्र को पुन एक विशाल साम्राज्य की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हो गया । इस समय (319-467 ई.) यह नगर पुन अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया । चीनी यात्री फाहियान इसकी प्रशंसा करते हुए बताता है कि यह मध्यदेश का सबसे बड़ा नगर था जहाँ के लोग सुखी एवं समृद्ध थे ।

उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासाद का वर्णन करते हुए लिखा है कि इसका निर्माण देवताओं द्वारा किया गया लगता था । अशोक का स्तुप भी उसने देखा था । यहाँ दो मठ थे जिसमें 700 भिक्षु निवास करते थे । पाटलिपुत्र में अनेक विद्वान् निवास करते थे ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में यहाँ नौ लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों की मण्डली (नवरत्न) निवास करती थी । उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि पाटलिपुत्र निवासी वीरसेन व्याकरण, न्याय, राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था तथा सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी आर्यभट्ट भी यहीं निवास करते थे ।

सांस्कृतिक केन्द्र होने के साथ-साथ पाटलिपुत्र गुप्तयुग में एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र भी था । उत्तरापथ के व्यापारिक मार्ग में इसका सम्बन्ध था । यहाँ के व्यापारी विभिन्न देशों को जाते थे तथा यहाँ की बाजारें बिक्री की बहुमूल्य वस्तुओं से सजी रहती थीं ।

गुप्त-साम्राज्य के पतन के बाद पाटलिपुत्र नगर का गौरव क्रमशः घटने लगा । परवर्ती राजवंशों ने अपनी राजधानी इसके स्थान पर कन्नौज में स्थापित कर लिया । सातवीं शती में हुएनसांग के आगमन के समय यह नगर वीरान हो चुका था और यहाँ के मठ, मन्दिर, स्तुप आदि नष्ट हो गये थे ।

कनिंघम ने इस नगर के विनाश के लिये गंगा नदी की बाढ़ को उत्तरदायी बताया है । चीनी तथा बौद्ध साधनों में भी गंगा के जल-प्लावन के कारण पाटलिपुत्र के नष्ट होने का विवरण सुरक्षित है । स्पूनर महोदय ने पटना के समीप कुमराहार नामक स्थान से खुदाइयाँ करके विशाल मौर्य प्रासाद के अवशेष प्राप्त किये है ।

अशोक-स्तम्भ के कुछ भाग भी मिलते है । कुछ विहारों तथा मन्दिरों के अवशेष भी मिलते है । इन सबके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन पाटलिपुत्र इसी स्थान पर रहा होगा । साहित्य में पाटलिपुत्र के कुछ अन्य नाम-कुसुमपुर, कुसुमध्वज, पुष्पपुर आदि भी मिलते है ।

17. बोधगया:

बिहार प्रान्त में स्थित गया अथवा बोधगया अत्यन्त प्राचीन समय से ही हिन्दुओं तथा बौद्धों का तीर्थस्थल रहा । पुराणों में गयासुर नामक दैत्य का निवास बताया गया है जिसे विष्णु ने यहाँ से निकाला था । चूंकि महात्मा बुद्ध को यहाँ पीपल के वृक्ष के नीचे संबोधि प्राप्त हुई, अतः यह स्थान ‘बोधगया’ के नाम से विख्यात हो गया ।

बुद्ध के समय यहाँ कोई प्रसिद्ध नगर नहीं था तथा उरुवेला नामक गाँव यहाँ बसा हुआ था । उसी के पास पीपल का वृक्ष था जहाँ बुद्ध ने तपस्या की थी । महाभारत तथा अश्वघोषकृत बुद्धचरित से प्रकट होता है कि यहाँ महर्षि ‘गय’ का आश्रम था । संभव है उसी के नाम पर इस स्थान का नाम ‘गया’ पड़ गया हो ।

बुद्ध के पश्चात् इसे बोधगया के नाम से प्रसिद्धि मिली । मौर्य शासक अशोक ने इस स्थान की यात्रा कर यहाँ स्तूप का निर्माण करवाया था । फाहियान तथा हुएनसांग यहाँ की यात्रा पर गये तथा उन्होंने अशोक द्वारा बनवाये गये स्तूप को देखा था ।

हुएनरसांग बोधिवृक्ष का भी वर्णन करता है जिसके चारों ओर ईंटें की सुदृढ़ आयताकार दीवार बनी हुई थी । यहाँ सिंहल के राजा मेघवर्ण ने एक सकराम का निर्माण करवाया था । इत्सिंग भी इस सड्घाराम का उल्लेख करता है । गया से कई महत्वपूर्ण लेख भी मिलते है ।

गया आज भी हिंदुओं तथा बौद्धों दोनों का पवित्र तीर्थस्थल है । हिन्दू यहाँ पिंडदान करने के लिये जाते है । गरुड़पुराण में उल्लिखित कि- ‘गाया में श्राद्ध करने से पापी व्यक्ति ब्रह्महत्या, सुरापान, स्तेय आदि कठोर पापों से मुक्त हो जाता है ।’

18. पाटल:

आधुनिक पाकिस्तान के सिंधु प्रान्त में ब्राह्मनावाद के समीप यह नगर स्थित था । इसका उल्लेख सिकन्दर के साथ आने वाले यूनानी लेखकों ने किया है । यहाँ सिंधु नदी दो धाराओं में विभक्त होती थी । डायोडोरस हमें बताता है कि स्पार्टा नगर की भाँति पाटल में द्वैराज अर्थात् दो राजाओं का शासन था ।

यूनानियों के आक्रमण का हाल सुनकर यहाँ के लोग नगर छोडकर भाग गये तथा सिकन्दर ने बड़ी आसानी से वहाँ अपना अधिकार कर लिया । यहाँ सिकन्दर ने एक नया प्रान्त (क्षत्रपी) बनाई और पिथोन को उसका शासक नियुक्त किया । 325 ई. पू. में पाटल से ही सिकन्दर स्वेदश के लिये रवाना हुआ था ।

19. ताम्रलिप्ति (तामलुक):

पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले में स्थित तामलुक नामक स्थान ही प्राचीन समय में ताम्रलिप्ति के नाम से प्रसिद्ध था । यह पूर्वी भारत का सुप्रसिद्ध बन्दरगाह था । गुप्तकाल में जावा, सुमात्रा आदि दक्षिणी-पूर्वी देशों तथा सिंहल के लिये व्यापारिक जहाज यहाँ से आते-जाते थे । इन देशों को पहुँचने के लिए ताम्रलिप्ति अंतिम भारतीय बन्दरगाह था ।

चम्पा में एक व्यापारिक मार्ग कजंगल होता हुआ ताम्रलिप्ति पहुंचता था । सिंहल के बौद्ध ग्रन्थों में ताम्रलिप्ति से व्यापारियों के आवागमन का कई वार उल्लेख मिलता है । चीनी यात्री फाहियान ने भी ताम्रलिप्ति का उल्लेख गुप्त साम्राज्य के एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में किया है । वह स्वयं यहाँ से एक व्यापारी जहाज में बैठकर सिंहल गया था ।

व्यापारिक बन्दरगाह होने के साथ-साथ ताम्रलिप्ति संस्कृति का भी प्रमुख केन्द्र था । यहाँ एक प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था । फाहियान, हुएनसांग, इत्सिंग आदि ने यहाँ रहकर अध्ययन किया था । फाहियान के अनुसार यहाँ 24 विहार थे जहाँ दो हजार भिक्षु निवास करते थे ।

हुएनसांग ने यहाँ दस विहार तथा एक हजार भिक्षु देखे थे । इत्सिंग ने यहाँ नौ वर्ष तक रहकर शिक्षा ग्रहण की थी । उसके समय राहुलमित्र यहाँ के आचार्य थे । यहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आया करते थे ।

20. पिपरहवा:

उत्तर प्रदेश के वस्ती जिले में नौगढ़ से 13 मील उत्तर की ओर नेपाल की सीमा से लगा हुआ यह प्राचीन बौद्ध-स्थल है । यहाँ से एक प्राचीनतम बौद्ध स्तूप तथा उसके भीतर रखी हुई बुद्ध के अस्थियों की मंजूषा मिली है । यह पाषाण की है । ब्राह्मी लिपि में एक लेख पर जो उत्कीर्ण है उससे पता लगता है कि इसका निर्माण शाक्यों ने करवाया था ।

स्तूप का व्यास 119 फीट तथा उसकी ऊँचाई 21 फीट थी । मंजूषा में रखी हुई कुछ अन्य वस्तुएँ यथा-मूर्तियाँ, रत्नपुष्प, नीलम, शंख, स्वर्ण पत्र आदि- भी मिलते है । इसकी राजगीरी अत्यन्त कलात्मक है तथा रखी हुई मूर्तियाँ तथा आभूषण स्वर्णकारों एवं जोहरियों की उच्चस्तर की कलात्मक निपुणता को घोषित करते है ।

पिपरहवा बौद्ध स्तूप उन आठ मौलिक स्तूपों में से एक है जिनका निर्माण युद्ध के परिनिर्वाण के बाद करवाया गया था । शाक्यों ने उनकी शरीर-धातु का एक भाग प्राप्त कर इसे बनवाया था । सम्प्रति स्तुप के अवशेष तथा मंजूषा लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्य गणराज्य की राजधानी पिप्पलिवन भी इसी स्थान में स्थित थी । आजकल इस स्थान को पिपरिया कहा जाता है ।

21. धारा:

मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित धार अथवा धारा नगरी मालवा के सुप्रसिद्ध परमार शासक भोज की राजधानी थी । उसने अपनी राजधानी उज्जयिनी से हटाकर इसी नगर में स्थापित किया था । इस नगरी को भोज ने विविध प्रकार से अलंकृत करवाया । यह विद्या और कला का प्रसिद्ध केन्द्र बन गयी । यहाँ विद्वानों का जमघट लगा रहता था ।

भोज ने यहाँ सरस्वती का मन्दिर बनवाया तथा उसने एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय स्थापित करवाया था । ऐसी अनुश्रुति है कि वह धारा में प्रत्येक कवि को प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था । सरस्वती मन्दिर के समीप भोज ने एक विजयस्तम्भ स्थापित किया तथा भोजपुर नामक नगर की स्थापना करवायी ।

कहा जाता है कि भोज की मृत्यु से धारा, सरस्वती तथा विद्वान् सभी निराश्रित हो गये थे- ”अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजराजे दिवं गते ॥” परमारों के बाद धारा पर मुसलमान, का अधिकार हो गया ।

22. तक्षशिला:

वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिण्डी जिले में स्थित तक्षशिला प्राचीन समय में गान्धार राज्य की राजधानी थी । रामायण के अनुसार भरत ने अपने पुत्र तक्ष के नाम पर इस नगर की स्थापना की थी । महाभारत से पता चलता है कि परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने इसे जीता तथा यहीं अपना प्रसिद्ध नागयज्ञ किया था ।

तक्षशिला की इतिहास में प्रसिद्धि का कारण उसका ख्याति प्राप्त शिक्षा केन्द्र होना था । यहाँ अध्ययन करने के लिये दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे जिनमें राजा तथा सामान्यजन दोनों ही सम्मिलित थे । सबके साथ समानता का व्यवहार किया जाता था । कोशल के राजा प्रसेनजित, मगध का राजवैद्य जीवक, सुप्रसिद्ध राजनीतिविद् चाणक्य, बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु आदि ने रहीं शिक्षा प्राप्त की थी ।

बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि यह धनुर्विद्या तथा वैद्यक की शिक्षा के लिये पूरे विश्व में प्रसिद्ध था । चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपनी सैनिक शिक्षा यही पर ग्रहण की थी । चाणक्य यहाँ का प्रमुख आचार्य भी बन गया ।

पश्चिमोत्तर भारत में स्थित होने के कारण तक्षशिला विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा आक्रान्त होता रहा । सिकन्दर के समय यहां का राजा आम्भी था जिसने स्वदेश के विरुद्ध उसकी मदद की थी । यूनानी लेखक इस देश की समृद्धि का उल्लेख करते है । मौर्यकाल में यहाँ उत्तरापन्थ की राजधानी थी । मौर्यकाल के बाद यहाँ इण्डो-यूनानी, शक तथा कुषाण राजाओं का शासन रहा ।

तक्षशिला पर चतुर्थ शती में गुप्त राजाओं का प्रभाव रहा । तत्पश्चात् हूणों के बर्बर आक्रमण ने यहाँ की प्राचीन समृद्धि एवं सभ्यता को नष्ट कर दिया । सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग के समय में यह नगर उजाड़ हो चुका था । तत्पश्चात् तक्षशिला का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया । 1863 ई. में कनिद्यम ने इस स्थान के खण्डहरों का पता लगाया ।

1912 से 1929 तक मार्शल ने यहाँ व्यापक पैमाने पर खुदाइयों करके पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुएँ प्राप्त कीं । तीन प्राचीन नगरों के अवशेष खुदाई में मिलते है जिनके आधुनिक नाम धीर का टीला, सिरकप तथा सिरसुख हैं । इन तीनों स्थानों पर प्राचीन बस्ती के साक्ष्य मिलते है ।

धीर के टीले पर ईसा पूर्व छठीं शताब्दी तक बस्ती विद्यमान रही । इस काल के मकान मिट्टी तथा पत्थर से बनाये जाते थे । मकानों की कोई निश्चित योजना नहीं मिलती । उनके बीच में आँगन तथा चारों ओर कमरे बने होते थे । सड़क तथा नालियों की भी व्यवस्था थी । इसके अतिरिक्त अनेक भवनों, विहारों एवं स्तूपों के अवशेष भी खुदाई में मिलते है ।

इनसे पता चलना है कि तक्षशिला बौद्ध सभ्यता का प्रमुख केन्द्र रहा होगा । कुषाण-युगीन सिक्के भी मिलते है । एक विशेष प्रकार के काले-चमकीले मृद्‌भाण्ड यहाँ से मिलते है जिन्हें एन. बी. पी. (नार्दर्न ब्लैक पालिश्ड) कहा जाता है । इस प्रकार के 22 बर्तनों के टुकड़े यहाँ से मिलते है जिनका काल ई. प्र. 500-200 निर्धारित किया गया है ।

तक्षशिला से रोमन उत्पत्ति की कई प्राचीन सामग्रियाँ जैसे धातु के बर्तन, कांच के कटोरे, मनके, रत्न आदि प्राप्त होते हैं जो भारत तथा रोम के बीच प्राचीन समय में होने वाले व्यापारिक सम्बन्धों की पचना देते है । पश्चिम के कई देश देश व्यापारी स्थल-मार्ग द्वारा अपना माल लेकर तक्षशिला पहुँचते थे तथा यहां से उसे देश के अन्य भागों में पहुँचाया जाता था । तांबे तथा चांदी की आहत मुद्रायें भी प्राप्त होती है ।

तक्षशिला का दूसरा नगर सिरकप सुनियोजित ढंग से बसाया गया था । इसकी सड़के तथा गलियाँ सीधी थीं जो एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर को कई खण्डों में विभक्त करती थी । भवनों का निर्माण पत्थर से किया गया है । नगर में बौद्ध स्तुप तथा विहारों का निर्माण कराया गया था ।

नगर के चारों ओर सुरक्षा-भित्ति (प्राचीर) का निर्माण कराया गया था जिसमें प्रवेशद्वार, बुर्ज एवं तोरण बने हुए थे । यहाँ का प्रमुख स्तुप धर्मराजिका था सो सिरकप टीले के दक्षिण पूर्व की ओर नगर के बाहर बनाया गया । इसका निर्माण मूलत अशोक काल में हुआ था ।

नगर के उत्तरी प्रवेशद्वार के पास जडियाल नामक मन्दिर का अवशेष मिलता है । इसमें गर्भगृह, मण्डप तथा स्तम्भ हैं । सिरकप नगर की स्थापना ईसा पूर्व दूसरी शती में इण्डो-यूनानी शासकों द्वारा करवायी गयी थी ।

इसके बाद कुषाण राजाओं के समय में तक्षशिला का तीसरा प्रमुख नगर सिरसुख वसाया गया । यहाँ से एक बडे भवन का अवशेष मिला है जिसमें दो अंगन है । ज्ञात होता है कि इस नगर के चारों ओर भी प्राचीर बनाई गयी थी ।

तक्षशिला की खुदाई में मिट्टी के बर्तन, आभूषण, सिक्के, मुहरें, मनके, आदि प्राप्त होती है । मिट्टी के वर्तन कई प्रकार के हैं-काले चमकीले, लाल आदि । यूनानी मृद्‌भाण्ड भी मिलते । मातादेवी की मिट्टी की बहुसंख्यक मूर्तियों भी मिली हैं जो गन्धार शैली से प्रभावित हैं ।

भारतीय मुद्राओं के अतिरिक्त यवन, शक, पार्थियन, कुषाण तथा ससैनियन राजाओं की मुद्रायें भी यहाँ की खुदाई से प्राप्त होती हैं । इनसे सूचित होता है कि तक्षशिला एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र भी था जहाँ कई देशों के व्यापारी स्थल-मार्ग द्वारा अपना माल लेकर आते थे तथा यहाँ से उसे देश के अन्य भागों में पहुँचाया जाता था ।

इस प्रकार तक्षशिला प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक एवं व्यापारिक स्थल था । तक्षशिला जैन-धर्म का भी तीर्थस्थल कहा गया है । पुरातनप्रबन्धसंग्रह में यहाँ के 105 जैन स्थलों का विवरण प्राप्त होता है ।

23. देवगिरि:

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित इस नगर की स्थापना यादव नरेश भिल्लम (1187-91 ई.) ने की तथा यहाँ अपनी राजधानी बसायी । उसके वंशजों ने 1309 ई. तक शासन किया । यादव वंश के शासन में देवगिरि में एक विशाल एवं सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण हुआ था । यह 150 फीट ऊँचा है । इसमें आठ द्वार बने है । अलाउद्दीन खिलजी ने इस दुर्ग पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया । मुस्लिम युग के कई स्मारक यहाँ से मिलते है ।

24. नासिक:

महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के तट पर यह स्थान है जिसकी दूरी नासिक रोड स्टेशन से पाँच मील है । शक-सातवाहन युग में यह बौद्धधर्म का प्रमुख स्थल था । यहाँ से बौद्ध-गुफाओं का एक समूह मिला है । इन्हें बौद्ध भिक्षुओं के आवास के लिये निर्मित करवाया गया था । यहाँ कुल 17 गुफाओं का निर्माण हुआ जिनमें 16 विहार तथा एक चैत्य है ।

प्राचीनतम विहार में सातवाहन नरेश कृष्ण का एक लेख मिलता है । यह छोटा है । बड़े विहारों में ‘नहपान विहार’ प्रथम है जिसमें 16 कोठरियाँ बनी है । इसमें नहपान के दामाद उषावदात का एक लेख मिलता है जिससे पता लगता है कि उसने बौद्ध संघ को एक विहार दान में दिया था ।

इसके अतिरिक्त सातवाहन नरेशों-गौतमीपुत्र शातकर्णि तथा यज्ञश्री-के समय के भी एक-एक विहार यहां से मिलते है । नासिक के चैत्यगृह का निर्माण प्रथम शती ईसा पूर्व वे हुआ था । इसके मण्डप ये सीधे खम्भे लगे हैं ।

उत्कीर्ण ब्राह्मी लेख में दानकर्त्ताओं के नाम है । इसे ‘पाण्डु-लेफ’ कहा जाता है । नासिक का एक प्राचीन नाम गोवर्धन भी था । जैन तीर्थों में भी नासिक की गणना की गयी है । रामायण को कथाओं से सम्बन्धित कई स्थल भी यहाँ विद्यमान है ।

25. झूंसी:

यह स्थल इलाहाबाद के पूर्व दिशा में लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर गंगानदी के तट पर स्थित है । इसका प्राचीन नाम प्रतिष्ठानपुर मिलता है । मूलतः यहाँ एक ठोस टीला था जो अब बरसाती नालियों तथा लोगों के अतिक्रमण के कारण कई टीलों में विभक्त हो गया है । समुद्रकूप नामक टीला जो भूतल से सोलह मीटर ऊँचा है, अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है ।

रामायण काल में प्रतिष्ठान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी था । इसकी स्थापना इला नामक पौराणिक राजा ने किया । कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्वशीय का दृश्यांकन यहीं किया था । अभिलेखीय साक्ष्यों से सूचित होता है कि बारहवीं शती तक प्रतिष्ठान का महत्व था ।

प्रतिहार नरेश त्रिलोचनपाल का लेख (1027 ई.) यहाँ से मिलता है जिसमें उसके द्वारा यहाँ के ब्राह्मणों को भूमिदान दिये जाने का विवरण सुरक्षित है । गहड़वाल नरेश गोविन्दचन्द्र के दानपत्र (1126) ई. में भी श्रीप्रतिष्ठान का उल्लेख मिलता है जो प्रयाग क्षेत्र के अन्तर्गत आता था ।

यह निश्चित नहीं है कि इस नगर का नाम प्रतिष्ठान से झूंसी कैसे हो गया । स्थानीय अनुश्रुतियों के अनुसार यहाँ पर हरबेंग नामक मूर्ख एवं मन्दबुद्धि राजा था । उसके राज्य में चारों ओर अराजकता फैल गयी जिससे प्रजा आक्रान्त हो गयी । गोरखनाथ तथा उनके शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ के शाप से नगर में भीषण अग्निकाण्ड हुआ और यह जलकर भस्म हो गया । इसी के ध्वंसावशेष झूंसी कहे गये जिसका शाब्दिक अर्थ है जला हुआ नगर ।

झूंसी के टीले का उत्खनन एवं अन्वेषण इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा समय-समय पर करवाया गया । परिणामस्वरूप यहाँ से मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियाँ, सिक्के, मुहरें, मुद्रायें, ताम्र एवं हाथी दाँत की वस्तुयें आदि प्राप्त हुई । इनका समय प्राक एन. बी. पी. से मध्यकाल तक निर्धारित किया गया है ।

झूंसी का पहला उन्खनन मार्च-अप्रैल 1995 ई. में हुआ जिसमें पाँच सांस्कृतिक काली की जानकारी हुई:

(i) प्रथम काल:

यह प्राक्-एन. बी. पी. कालीन है । यहाँ जमाव 70 सेमी है । काले पुते, काले चमकीले, काले-लाल मृद्‌भाण्ड इस काल से मिलते हैं । कुछ ऐसे लाल बर्तन के ठीकरे है जिन पर काले रंग में चित्रकारियों की गयी हैं । मुड़ी बारी वाले साधार गहरे कटोरे, छिद्रांकित बर्तन, एन. वी. पी. भाण्डों के टुकड़े, लघुपाषाणोपकरण, हड्डियों के उपकरण आदि मिलते है । कुछ ठीकरों पर गोरे, डोरियों आदि से लहरदार अलंकरण मिलता है । मिट्टी के कुछ जले दीपों पर नरकुल की छाप है । गेहूँ जौ, चावल, मूंग, सरसों आदि के दाने भी मिले हैं किन्तु कोई लौह उपकरण नहीं मिलता ।

(ii) द्वितीय काल:

इसकी प्रमुख पात्र परम्परा एन० बी० पा० है । कुछ पात्र खण्डों पर ज्यामितीय आकृतियां है । कटोरे, तश्तरियां, प्याले, ढक्कन, घड़े आदि प्रमुख पात्र है । साथ-साथ सादे पुते, लाल, काले-लाल धूसर भाण्ड मिलते हैं । इस काल के लोग पक्की ईंट तथा गारे से मकान बनाते थे तथा उस पर टट्टर डालते थे । इस काल की अन्य उपलब्ध वस्तुयें है- आहत लेख रहित ढले हुए ताम्र सिक्के, मृण्मुहरें एवं मुद्रा-छापे, मिट्टी की पशु आकृतियाँ, लौह उपकरण, अर्ध-कीमती पत्थरों के मनके, पाषाण के बटखरे आदि ।

(iii) तृतीय काल:

यह शक-कुषाण युग से संबंधित है । प्रमुख पात्र परम्परायें हैं- लाल, पालिशदार काले, काले-लाल आदि । विभिन्न आकार-प्रकार के कटोरे, ढक्कन, प्याले, तश्तरियां, सुराहियां, हड्डियां आदि प्रतिनिधि पात्र है । कुछ पात्रों पर त्रिरत्न, नन्दिपद, चक्र जैसी आकृतियाँ हैं । गोल ताम्र सिक्के, एक अंकित मुहर, मनके, चूड़ियाँ, छोटी-छोटी मृण्मूर्तियाँ, ताम्र एवं लौह उपकरण, अस्थि नौके, शंख की वस्तुयें आदि अन्य पुरानिधियां इस काल से प्राप्त होती है ।

(iv) चतुर्थ काल:

यह गुप्तयुगीन है । एक विशिष्ट प्रकार का चाक पर एवं सांचे में ढालकर बनाया गया लाल भाण्ड मिलता है । चित्रकारी एवं डिजाइन युक्त सुराहियां तथा घड़े मिलते है । इस काल में निर्माण के चार स्तर हैं । एक कमरे से सामान्य प्रकार का कलश, तीन बड़े भाण्डारण पात्र मिलते है ।

अर्धकीमती पत्थर के मनके, मिट्टी की बनी मानव एवं पशुओं की लघु भूतिया, चक्र, प्रस्तर तथा शंख की चूड़ियां, लौह उपकरण, ताम्रपात्र, अंगूठी, हड्डी के नोंक एवं बाणाग्र प्रस्तर के सिल-लोहे आदि इस काल के प्रमुख पुरावशेष हैं ।

(v) पंचम काल:

इससे कोई आवसीय स्थल नहीं मिलता । समीपवर्ती क्षेत्रों से विभिन्न आवासीय स्तरों की ईंट निर्मित दीवारें पाई गयी है । सामान्य प्रकार के लाल बर्तन मिलते है जो पहले से अधिक परिष्कृत एवं पके हुए हैं । बहुरंगी काचित भाण्ड- सुराही, कटोरे, घडे, हांडी, ढकन आदि है ।

अर्धकीमती पत्थरों के मनके, पशुओं की छोटी-छोटी मृण्मूर्तियां, पत्ती जैसे लोहे के वाणाग्र, पत्थर के सिल आदि अन्य पुरानिधियां इस काल से संबंधित है । हिन्दू देवता गणेश की छोटी-छोटी प्रस्तर मूर्तियाँ मिलती है । वहुसंख्यक पाषाण चिप्पियों से पता चलता है कि पत्थर तराशने का काम बडे पैमाने पर किया जाता था ।

झूंसी के उन्खनन के फलस्वरूप ताम्राश्म एवं लौहयुगीन संस्कृतियों के नये आयाम प्रकाशित हैं । भिन्न-भिन्न काल के भवन, छिद्रकूपों, मृण्वस्तुओं, मुहर, सिके, मनके, चूडियां, हाथीदाँत के उपकरण, ताम्र तथा लौह उपकरण आदि प्रमुख रूप से प्राप्त किये गये है । झूंसी मध्य गंगाघाटी के प्रमुख आद्य-ऐतिहासिक एवं पूर्व ऐतिहासिक स्थलों में से है ।

इसके कुषाणकालीन स्तर से पता चलता है कि यहाँ सघन बस्ती थी । ईंटें गुप्तकाल की अपेक्षा अधिक सुरक्षित दशा में हैं । ऐसा लगता है कि गुप्तकाल के बाद यह बस्ती वीरान हो गयी जिसकी पुनर्स्थापना पूर्व मध्यकाल में हुई । पता चलता है कि यहां बस्ती एन. वी. पी. काल के शदियों पूर्व बसायी गयी थी जिसकी तिथि द्वितीय सहस्त्राब्दी के मध्य निर्धारित की जा सकती है ।

पूर्व एन. बी. पी. स्तर के प्राप्त पुरानिधियां पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य पुरास्थलों-सोहगौरा, खैराडीह, ककोरिया, कोलडीहवा तथा बिहार के चिरांद, सोनपुर आदि से प्राप्त पुरानिधियों जैसी ही हैं । यहां के लौह उपकरणों से लोहे की प्राचीनता ई. पू. 1300 तक जाती है । बी. डी. मिश्र के अनुसार यहाँ ताम्रपाषाणिक संस्कृति के दो चरण दिखाई पड़ते है ।

पहले चरण में लोगों को लोहे की जानकारी नहीं थी जबकि दूसरे में वे लोहे से परिचित हो गये । जितने बड़े पैमाने पर यहाँ ताम्रपाषाणकाल के प्रमाण मिलते हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ काफी बड़े क्षेत्र में लोगों की आबादी थी । झूंसी की ताम्रपाषाणिक संस्कृति का काल ईसा पूर्व 1500 से 700 तक निर्धारित किया गया है ।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा कराये गये उन्खनन में नवपाषाणकाल के संस्कृति से जुड़ा डेढ़ मीटर मोटा मिट्टी का जमाव मिला है । बुद्धकालीन नगरीय तथा मध्यकालीन ऐतिहासिक युग के लोगों के रहन-सहन से सम्बन्धित मृद्‌भाण्ड व जानवरों की हड्डियाँ, सीवर-लाइन तथा हाथ की चूड़ियाँ मिलती है ।

इस खोज से सूचित होता है कि यहाँ आदि मानव संस्कृतियों का उद्‌भव मध्य पाषाणकाल में ही हो गया था । इसका सम्बन्ध सभ्यता के नगरीकरण तथा उसके बाद तक बना रहा । मानव आनुवंशिकता की परम्परा आखेटक, चयनशील, खेतिहर आदि सांस्कृतिक स्थितियों से गुजरती हुई प्रतिष्ठानपुरी में पुरुरवा की राजधानी होने की पौराणिकता को प्रमाणित करता है । यह भी पता चलता है कि गंगाघाटी की संस्कृति यहीं जन्मी तथा इसका विकास भी यही हुआ ।

नवपाषाणिक संस्कृति की प्रमुख विशेषतायें इसके हस्तनिर्मित मृद्‌भाण्ड हैं जिन्हें ‘कार्ड इम्प्रेम्ड मृद्‌भाण्ड’ के रूप में पहचाना जाता है । इन्हें ठीक से पकाया नहीं गया है जिससे ये स्थान-स्थान पर काले पड़ गये है । मछली तथा जानवरों की हड्डियाँ, पत्थर व हट्टियों के औजार के अलावा घरेलू काम में आने वाला सिल-लौड़ा भी प्राप्त हुआ है ।

भोजन बनाने का प्रमाण यहाँ मिली मिट्टी की टोंटीदार कड़ाही से मिलता है जिसके बाहरी पेंदे पर धुएं के निशान है । इस बड़े बर्तन के मिलने से यह भी पुष्ट होता हे कि यहाँ ऐसा सामुदायिक चूल्हा रहा होगा जो मिट्टी के बर्तन पकाने के काम भी आता था । इस काल के निवासियों के पास गाय, बैल, बकरी, सुअर, बारहसिंगा जैसे पालते जानवर भी थे ।

मछली के अलावा खाद्यान्नों में धान, ज्वार, बाजरा, मूंग एवं मसूर के साक्ष्य यहाँ कि खुदाई में मिलते है । नवपाषाणिक लोग वृत्ताकार झोपड़ियों तथा आवासों में रहते थे । इसका साक्ष्य यहाँ मिले खम्भे गाड़ने के लिए बनाये गये गड्ढों से मिलता है । झोपड़ियों की दीवारें बांस तथा झाड़ियों से बनी रही होंगी । इसकी जानकारी उन पर लगाये मिट्टी के लेप के जले हुए अवशेषों पर पड़ी उनकी छाप से प्रतीत होता है ।

झूंसी के हेतापट्टी गाँव में खुदाई में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्ववेत्ताओं को भी मिट्टी के बर्तन मिले है जिनमें जालियाँ (कार्ड इंप्रेशन) हैं और बर्तनों की मजबूती के लिये धान की भूसी के इस्तेमाल का भी प्रमाण है । उर्द, धान, मूंग, जौ आदि के दाने मिले हैं जिसे उस समय की उद्धत खेती से जोड़कर देखा जा रहा है ।

इसके साथ ही पालतू और जंगली पशुओं की हड्‌डियां भी मिली हैं । हथियारों में हड्‌डियोंके बाणाग्र और सेमी प्रेस्ड स्टोन के कुछ नुकीले टुकड़े ही है, जो एक तरह से तब की आबादी की कृषि पर बढ़ती निर्भरता की ओर इशारा करता है ।

26. तन्जौर:

तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली जिले में स्थित तन्नौर नामक नगर प्राचीन समय में सुप्रसिद्ध चोल शासकों की राजधानी था । यह नगर कावेरी नदी के दक्षिण की ओर बसा है । चोल राजाओं के काल में इसकी महती उन्नति हुई । प्रसिद्ध चोल शासक राजराज ने 1000 ई. के लगभग यहाँ के बृहदीश्वर (राजराजेश्वर) मन्दिर का निर्माण करवाया था ।

यह 500’x500’ के आकार वाले विशाल प्रांगण में स्थित है । इसमें मध्यकालीन वास्तुकला के सभी लक्षण मिलते है । मन्दिर के गर्भगृह, मण्डप तथा विमान सभी आकर्षक है । विमान 190 फीट ऊँचा है । मन्दिर की तीन बाहरी दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमायें बनी हुई हैं । गर्भगृह को भी अनेक सुन्दर मूर्तियों तथा चित्रों से अलंकृत किया गया है ।

यह मन्दिर दक्षिणी भारत का सर्वश्रेष्ठ हिंदू मन्दिर माना जाता है । प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री के शब्दों में ”भारत के मन्दिरों में सबसे बड़ा तथा लम्बा यह मन्दिर एक उलट कलाकृति है जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करती है । द्रविड़ शैली का यह सर्वोत्तम नमूना है ।”

बृहदीश्वर (शिव) के मन्दिर के अतिरिक्त तन्जौर से कई अन्य मन्दिरों के भी उदाहरण मिलते है । इनमें सुब्रह्मण्यम् मन्दिर तथा रामानाथस्वामी का मन्दिर उल्लेखनीय है । कुल मिलाकर यहाँ 75 से भी अधिक छोटे-बड़े मन्दिर यही विद्यमान है ।

27. धान्यकटक:

आन्ध्र प्रदेश के गुन्टूर जिले में स्थित धरणीकोट नामक स्थान सातवाहन युग में धान्यकटक नाम से विख्यात था । यह अमरावती के सन्निकट था। यह कुछ काल तक सातवाहनों की राजधानी रहा । इस नगर की प्रसिद्धि का कारण इसका महत्वपूर्ण व्यापारिक मण्डी होना था । यहाँ सातवाहन साम्राज्य के पूर्वी भाग की सबसे बड़ी मण्डी थी जहां अत्यन्त धनी एवं भड़क व्यापारी एवं व्यवसायी निवास करते थे ।

यहाँ से उत्तर तथा दक्षिण को अनेक व्यापारिक मार्ग होकर गुजरते थे । सातवाहन परेशों का काल व्यापार-वाणिज्य के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है तथा इस प्रसिद्धि का कारण ऐसे ही व्यापारिक केन्द्र थे । समृद्ध व्यापारियों ने स्तूपों एवं अन्य बौद्ध स्मारकों का निर्माण करवाया था ।

28. चन्द्रगिरि:

मैसूर (कर्नाटक राज्य) में कावेरी नदी के उत्तरी तट पर कलबप्पू नामक एक पहाड़ी है । यहां से नवीं शताब्दी के दो लेख मिले है जिनसे पता चलता है कि इसका प्राचीन नाम चन्द्रगिरि था । लेख जैन धर्म से सम्बन्धित है ।

जैन परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के उत्तरकाल में जैन साधु भद्रबाहु का शिष्य वन गया तथा दोनों दक्षिण में तपस्या करने चले गये । लगता है इस पहाड़ी का नाम उसके चन्द्रगुप्त से सम्बन्ध होने के कारण ही चन्द्रगिरि पड़ गया । यहाँ ‘चन्द्रगुप्त बस्ती’ नामक एक छोटा-सा मन्दिर भी है ।

29. तालगुण्ड:

कर्नाटक राज्य के शिमोगा जिले में यह स्थान स्थित है । यहाँ का प्रणवेश्वर शिव मन्दिर कर्नाटक का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है । इसका निर्माण हलेविड के होयसलेश्वर मन्दिर की शैली पर हुआ है । तालगुण्ड से एक स्तम्भ के ऊपर उत्कीर्ण कदम्ब नरेश शान्तिवर्मन (450-475 ई.) का लेख मिलता है जिसमें इस वंश के राजाओं तथा उनके इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है ।

इस वंश का सबसे प्रतापी राजा काकुत्सवर्मन् था । तालगुण्ड लेख के अनुसार उसने अपनी कन्याओं का विवाह गुप्त तथा वाकाटक वंशों में किया था । तालगुण्ड में उसने एक विशाल सरोवर भी खुदवाया था । यह लेख कदम्ब नरेशों के इतिहास का एकमात्र सोत है ।

30. अश्मक:

आन्ध्र प्रदेश की गोदावरी सरिता के तट पर स्थित अश्मक बुद्धकालीन भारत का एक प्रमुख राज्य था । अंगुत्तर निकाय में इसका नाम षोडश महाजनपदों की सूची में आता है । इसकी राजधानी पोटल या पोटलि थी । वायुपुराण तथा महाभारत में अश्मक नामक राजा का उल्लेख मिलता है ।

लगता है इसी के नाम से राज्य का नामकरण हुआ । बौद्ध साहित्य से पता लगता है कि अश्मक का सम्बन्ध अवन्ति जनपद से था । नासिक लेख में इस राज्य का उल्लेख मिलता है जिसे गौतमीपुत्र शातकर्णि ने जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। अश्मक का नाम अस्सक भी मिलता है ।

31. कुण्डग्राम:

बिहार प्रान्त में वैशाली के समीप बुद्ध काल में कुण्डग्राम नामक स्थान स्थित था । यहाँ ज्ञातृक गणराज्य था । यह वज्जिसंघ का सदस्य था । लिच्छवि तथा विदेह इसके अन्य प्रमुख सदस्य थे । ज्ञातृक संघ के प्रमुख सिद्धार्थ थे । जैन धर्म के चौवीसवें एवं सवाधिक महत्वपूर्ण तीर्थड्कर महावीर उन्हीं के पुत्र थे ।

महावीर के जन्म से सम्बद्ध होने के कारण ही कुण्डग्राम नगर का महत्व बढ़ गया । राजनैतिक दृष्टि से कुण्डग्राम गणराज्य का महत्व बहुत अधिक नहीं था । मगध के शासक अजातशत्रु ने वज्जि संघ पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया । इसके साथ ही कुण्डग्राम से ज्ञातृक राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व भी समाप्त हो गया ।

32. इन्द्रप्रस्थ:

दिल्ली के समीप स्थित इन्द्रप्रस्थ महाभारत काल का प्रमुख नगर था । महाभारत के आदिपर्व से सूचित होता है कि धृतराष्ट्र से आधा राज्य प्राप्त करने के बाद पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ में अपनी राजधानी बसाई थी । महाभारत में इस नगर की सुन्दरता का वर्णन मिलता है । यहाँ भव्य एवं गगनचुम्बी भवन थे। नगर के चारों ओर खाइयाँ बनी हुई थीं ।

यहाँ रमणीक उपवन तथा चित्रशालायें थीं । नगर की रक्षा के निमित्त वीर योद्धा रहते थे । युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ इसी नगर में किया था । यहाँ सभी प्रकार की कलाओं को जानने वाले लोगों का निवास था । इन्द्रप्रस्थ का पड़ोसी नगर हस्तिनापुर था जहाँ कौरवों की राजधानी थी । महाभारत के युद्ध के उपरान्त दोनों ही नगरों पर युधिष्ठिर का अधिकार स्थापित हो गया ।

बुद्धकाल में इन्द्रप्रस्थ कुरु महाजनपद की राजधानी थी । जातक ग्रन्थों में इस नगर की परिधि दो हजार मील बताई गयी है । बुद्धकाल में यहाँ का राजा कोरव्या था । यहाँ के लोग अपनी बुद्धि एवं बल के लिए प्रख्यात थे ।

33. थानेश्वर:

हरियाणा राज्य के करनाल जनपद के अन्तर्गत वर्तमान थानेसर नामक स्थान ही प्राचीन काल का थानेश्वर था । इसके नाम स्थानेश्वर तथा स्थाण्वीश्वर भी मिलते हैं । वर्धन वंश के प्रथम शक्तिशाली सम्राट प्रभाकरवर्धन ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाई थी । बाणभट्ट के हर्षचरित में इस नगर के गौरव का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है ।

इसे श्रीकंठ जनपद का प्रमुख स्थल बताया गया है । यह एक समृद्धिशाली नगर था । ‘इसके सौन्दर्य को देखने से ऐसा लगता था मानों यह स्वर्ग का एक देश हो (एकदेश इव सुरराज्यस्य) । दर्शक इसे देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे । यह कुबेर की नगरी अलका का परिवर्तित रूप प्रतीत होता था ।’ बाण के विवरण की पुष्टि करते हुए हर्षकालीन चीनी यात्री हुएनसांग इसे एक सम्पन्न नगर बताता है ।

अल्वेरूनी के विवरण से पता चलता है कि कुरुक्षेत्र के समीप स्थित होने के कारण इस नगर का धार्मिक महत्व अधिक बढ़ा हुआ था। ऐसा लगता है कि थानेश्वर के शैव धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र होने के कारण ही इसका नाम ‘स्थाण्वीश्वर’ पड़ गया ।

हर्षचरित में वर्णन मिलता है कि इस नगर के घर-घर में शिव की पूजा की जाती थी-गृहे-गृहे अपूज्यत भगवान खण्डपरशु: । हर्षवर्धन के शासनकाल के प्रारम्भ में थानेश्वर ही साम्राज्य की राजधानी रही । बाद में हर्ष ने इसे कन्नौज स्थानान्तरित कर दिया ।

34. कलिंग:

आधुनिक उड़ीसा प्रान्त में प्राचीन काल का कलिंग राज्य बसा हुआ था । मोटे तौर से यह दक्षिणी उड़ीसा का नाम था उत्तर उड़ीसा को उत्कल कहा गया है । महाभारत में इसकी स्थिति गोदावरी नदी के उत्तर में बतायी गयी है । इसमें कलिंग के राजा का नाम चित्रांगद मिलता है ।

कालिदास ने रघुवंश में कलिंग के वीरों का उल्लेख किया है जिनके पास विशाल गजसेना थी । रघुवंश में वहीं के राजा का नाम हेमांगद मिलता है । अर्थशास्त्र में कलिंग के हाथियों को श्रेष्ठ बताया गया है । मौर्य सम्राट अशोक ने 261 ई. पू. में एक भीषण युद्ध के पश्चात् कलिंग पर अपना आधिपत्य जमाने में सफलता पाई थी ।

मौर्य साम्राज्य का यहाँ एक प्रान्त था जिसकी राजधानी तौषलि में थी । मौर्यकाल के बाद प्रथम शताब्दी ईस्वी में खारवेल ने कलिंग में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी । उसने कलिंग नगर को भव्य-भवनों एवं मार्गों से अलंकृत करवाया था ।

35. अतरंजीखेडा:

उत्तर प्रदेश में एटा जिले से दस मील की दूरी पर काली नदी के तट पर यह स्थान स्थित है। अनुश्रुति के अनुसार इस स्थान की नींव राजा बेन ने डाली थी। यही स्थित टीले की खोज 1861-1862 ई. में कनिघम ने की थी । अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के तत्वाधान में सर्वप्रथम 1962 ई० में यहाँ पर उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया ।

इसके परिणामस्वरूप यहाँ से ईसा पूर्व 2130 से लेकर 600 तक चार प्रमुख सांस्कृतिक स्तरों के प्रमाण प्राप्त होते हैं-गैरिक पात्र परम्परा, काली लाल पात्र परम्परा, चित्रित धूसर पात्र परम्परा तथा उत्तर की काली चमकीली पात्र परम्परा । टीले की खुदाई से पुरातात्विक महत्व की कई वस्तुयें प्राप्त की गयी है ।

(i) प्रथम संस्कृति:

प्रथम सांस्कृतिक स्तर से गेरूये रंग के मृद्‌भाण्ड मिलते हैं । कुछ पात्रों के ऊपर खोद कर चित्रकारिर्यों की गयी है । इनमें घड़े, कटोरे, तसले, नाँद, मटके, छोटी तश्तरियाँ, कलश, प्याले आदि है । कुछ पात्र मोटी तथा कुछ पतली गढ़न के है । इस काल के निवासी कृषि करते थे तथा जौ, धान तथा दालों की पैदावार होती थी । इस संस्कृति का समय 2000-1500 ई. पू. के मध्य निर्धारित किया गया है ।

(ii) द्वितीय संस्कृति:

अतरंजीखेड़ा की द्वितीय संस्कृति के लोग काले तथा लाल रंग के बर्तन बनाते थे । इन बर्तनों पर किसी प्रकार की चित्रकारी नहीं है । इन मृद्‌भाण्डों के साथ-साथ इस संस्कृतिक स्तर से मानव आवास के भी प्रमाण मिलते हैं । चूल्हे के अवशेष तथा बड़ी संख्या में कोर और फ्लेक उपकरण मिलते है । इस संस्कृति का समय 1450-1200 ई.पू. निर्धारित किया गया है ।

(iii) तृतीय संस्कृति:

तृतीय संस्कृति के निवासी भूरे रग के चित्रित मृद्‌भाण्ड बनाते थे । इसी आधार पर इसे चित्रित धूसर परम्परा कहा जाता है । इन्हें खूब गूँथी हुई मिट्टी से चाक पर बनाया जाता था। कुछ बर्तन हस्तनिर्मित भी है । इनमें थालियाँ, कटोरे आदि है । इन पर विविध चित्रकारियों मिलती है ।

इस स्तर से लोहे के अनेक उपकरण जैसे भाला, बाण, चिमटा, संड़सी, कुल्हाड़ी, छेनी, चाकू, बरमा आदि भी मिलते हैं । धातु गलाने के काम आने वाली भट्ठियाँ भी मिलती है जिनसे सूचित होता है कि यहाँ के निवासी लौह धातु को गलाकर उपकरण तैयार करते थे । धान तथा जौ के दाने मिलते है जो कृषि कर्म के प्रचलन को प्रमाणित करते हैं । विद्वानों ने इनका समय ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दि निर्धारित किया है ।

इससे सिद्ध होता है कि उत्तरी भारत में 1000 ई. पू. के लगभग लौह उपकरणों का प्रयोग होने लगा था । इस संस्कृति के लोग कृषि कर्म तथा पशुपालन से परिचित थे । गेहूँ जी, चावल आदि की पैदावार होती थी । गाय, बैल, भेड़, बकरी उनके पालतू पशु थे । खुदाई में चूल्हे के भी अवशेष मिलते है । अतरंजीखेड़ा की तृतीय संस्कृति का समय 1000-600 ई. पू. के मध्य निर्धारित किया गया है ।

(iv) चतुर्थ संस्कृति:

अतरंजीखेड़ा की चतुर्थ संस्कृति को उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा कहा जाता है । इन वर्तनों पर एक विशेष प्रकार की ओपदार पॉलिश की गयी है । इन्हें चाक पर तैयार किया गया है । थाली, कटोरे, छोटे कलश आदि प्रमुख बर्तन है । मानव आवास के भी साक्ष्य मिलते है । मकान अधिकतर मिट्टी, गोबर, घास-फूस, लकड़ी आदि की सहायता से ही बनते थे, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ईंटों का भी प्रयोग किया जाने लगा था ।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस काल के लोगों का जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ न होकर सुव्यवस्थित था । इनके अतिरिक्त मनुष्यों, पशुओं आदि की मृण्मूर्तिर्यो, मिट्टी तथा माणिक्य के मनके, हड्डी, हाथी-दाँत, लोहे तथा तांबे की विविध वस्तुयें भी इस स्तर से प्राप्त की गयी है । इस संस्कृति का समय ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से प्रथम शताब्दी के बीच निर्धारित किया जाता है । अतरंजीखेड़ा से एक मन्दिर का भी अवशेष मिलता है जिसमें पाँच शिवलिंग है ।

36. काशी:

वर्तमान वाराणसी तथा उनके समीपवर्ती भाग में प्राचीन काल का काशी राज्य स्थित था। काशी नगरी की प्राचीनता वैदिक युग तक जाती है । अथर्ववेद में काशी के निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है । रामायण तथा महाभारत में भी काशी राज्य तथा उसकी महत्ता का वर्णन है । बुद्ध काल में काशी के सभी राजाओं का सामान्य नाम ब्रह्मदत्त मिलता है ।

बुद्ध के पूर्व काशी का राज्य अति प्रसिद्ध था । षोडश महाजनपदों की सूची में इसका नाम है । काशी की समृद्धि तथा उसके वैभव का उल्लेख जातक ग्रन्थों में मिलता है । काशी का पड़ोसी राज्य कोशल था। दोनों में दीर्घकालीन संघर्ष चला जिसमें अन्ततः कोशल विजयी रहा तथा वहाँ के राजा कंस ने काशी नरेश ब्रह्मदत्त को हटाकर उसे अपने राज्य में मिला लिया ।

बुद्ध काल में हम काशी को कोशल राज्य के एक प्रान्त के रूप में पाते है । यहाँ के राजा प्रसेनजित ने अपनी बहन महाकोशला का मगधराज बिम्बिसार के साथ विवाह किया तथा दहेज में काशी प्रान्त दिया । इसकी वार्षिक आय एक लाख रुपये थी ।

काशी की राजधानी वाराणसी में थी । महाभारत के अनुसार इस नगर की स्थापना दिवोदास नामक राजा ने की थी । काशी शैव धर्म का प्रमुख केन्द्र था जहाँ शिव के अनेक भक्त निवास करते थे । यह संस्कृत शिक्षा का भी केन्द्र था जहाँ विद्वानों का जमघट लगा रहता था । इसकी गणना भारत की सात पवित्र मोक्षदायिका नगरियों में की गयी है। चीनी यात्री हुएनसांग भी इसे शैवधर्म का प्रसिद्ध केन्द्र बताता है । यहाँ शिव का प्रसिद्ध मन्दिर है जो आज भी असंख्य श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है ।

37. ऐहोल:

कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में यह स्थान स्थित है । यहाँ से चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय का लेख मिलता है जो एक प्रशस्ति के रूप में है । इसकी स्थिति 634 ई. है । इसकी रचना रविकीर्त्ति ने की थी । इसकी रचना कालिदास तथा भारवि की शैली पर की गयी है । इसमें पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है । हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध का भी उल्लेख इस लेख में हुआ है ।

चालुक्य युग में एहोल कला और स्थापत्य का प्रमुख केन्द्र बन गया था । इसे ‘मन्दिरों का नगर’ कहा गया है । यहाँ से 70 मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते है । अधिकांश मन्दिर विष्णु तथा शिव के है । हिन्दू गुहा-मन्दिंरों में सबसे सुन्दर सूर्य का एक मन्दिर है जिसे ‘लाढ़ खाँ’ कहा जाता है । यह वर्गाकार है तथा इसकी छत स्तम्भों पर टिकी हुई है ।

मन्दिर के एक किनारे पर मण्डप तथा दूसरे किनारे पर गर्भगृह बना है । इससे सर्वथा भिन्न ‘दुर्गा का मन्दिर’ है जिसमें नटराज शिव की मूर्ति है । मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया गया है । गर्भगृह के ऊपर एक शिखर तथा बरामटे में प्रदक्षिणापथ बनाया गया है । ऐहोल में ही रविकीर्ति ने जिनेन्द्र का मन्दिर बनवाया था जिसे ‘फेगुती मन्दिर’ कहा जाता है ।

यहाँ की कुछ गुफाओं में जैन तीर्थड्करों की मूर्तियां भी मिलती है । ऐहोल के मन्दिरों का निर्माण गुहाचैत्यों के अनुकरण पर किया गया था । केवल धातुगर्भ के स्थान पर इनमें मूर्ति स्थान बनाया गया है । यही के मन्दिर भारत के प्राचीनतम् मन्दिरों की कोटि में आते हैं ।

38. चम्पा:

बिहार के भागलपुर जिले की भूमि में प्राचीनकाल का अंग महाजनपद था । चम्पा इसी की राजधानी थी । पुराणों में इसका एक नाम मालिनी भी मिलता है । जातक ग्रन्थों से पता चलता है कि यह एक समृद्धशाली नगरी थी जहाँ अनेक सम्पन्न व्यापारी निवास करते थे ।

रेशम के वस्त्र बुनने का यह एक महत्वपूर्ण केन्द्र था जहाँ के बने हुए रेशमी वस्त्र दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों तक पहुँचते थे । यहाँ के व्यापारियों ने हिन्द-चीन में जाकर चम्पा नामक उपनिवेश स्थापित किया था । जैनग्रंथ विविधतीर्थकल्प में चम्पा को एक तीर्थ बताया गया है जहाँ तीर्थड्कर वासुपूज्य का जन्म हुआ था । तीर्थड्कर महावीर ने भी इस नगर में निवास किया था ।

बुद्धकाल में चम्पा ब्रह्मदत्त नामक राजा की राजधानी थी । मगध के राजा बिम्बिसार ने इसे जीत लिया तथा अपने पुत्र को चम्पा का वायसराय बनाया । जेन साहित्य में चम्पा का अजातशत्रु की राजधानी के रूप में भी वर्णन मिलता है। चीनी यात्री हुएनसांग ने भी इस नगर का वर्णन किया है ।

40. कपिलवस्तु:

नेपाल की तराई में यह स्थान स्थित था जिसकी पहचान वर्तमान तिलौराकोट नामक स्थान से की जाती है । कुछ विद्वान् इसकी पहचान बस्ती जिले के पिपरहवा नामक स्थान से करते है जहां से प्राचीनतम बौद्ध स्तुप प्राप्त होता है । यहाँ शाक्य गणराज्य की राजधानी थी जहाँ के शासक महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन थे ।

अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द से पता चलता है कि हिमालय के अचल में स्थित कपिलमुनि के आश्रम के स्थान पर यह नगर स्थापित किया गया था । इसी कारण इस नगर का नाम कपिलवस्तु पड़ गया-कपिलस्य च तस्यर्षेस्तस्मिन्नाश्रमवास्तुनि, यस्मात्तत्पुरं चक्रुस्तस्मात् कपिलवास्तु तत् (सौन्दरनन्द 1, 57) । महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित होने के कारण इस नगर का महत्व अधिक बढ गया ।

अशोक के समय में भी यह संस्थान प्रसिद्ध था तथा अशोक ने वहाँ की यात्रा कर स्तूपादि बनवाया था । गुप्तकाल तक आते-आते (पाँचवीं शती) यह नगर वीरान हो चुका था, जैसा कि चीनी यात्री फाहियान के विवरण से पता लगता है । सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग ने भी इस स्थान की यात्रा की थी । उसके समय में यहाँ केवल एक ही विहार था जहाँ मात्र ही: भिक्षु निवास करते थे ।

41. कर्णसुवर्ण:

सातवीं शती में बंगाल क्षेत्र का यह एक प्रमुख प्रान्त था जिसमें वर्तमान पश्चिमी बंगाल के बर्दवान, मुर्शिदावाद एवं वीरभूमि के जिले सम्मिलित थे । हुएनसांग के विवरण से पता लगता है कि गौड़नरेश शशांक यहीं का शासक था । हुएनसांग ने इसे अत्यन्त समृद्धिशाली राज्य बताया है ।

शशांक के बाद यह भास्करवर्मा के अधिकार में चला गया । सेनवंश के राजाओं के समय में कर्णसुवर्ण नामक नगर बंगाल प्रान्त की राजधानी बना । कर्णसुवर्ण नगर के स्थान पर ही बाद में चलकर मुर्शिदाबाद जिले की स्थापना की गयी ।

42. अयोध्या:

उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के समीप सरजू सरिता के तट पर स्थित अयोध्या नामक नगर भगवान राम की पुण्य-भूमि होने के कारण इतिहास एवं साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है । रामायण काल में अयोध्या कोशल राज्य की राजधानी थी । रामायण से पता चलता है कि यह नगर बारह योजन लम्बा और तीन योजन चौड़ा था ।

नगर में अनेक सुन्दर व चौड़ी सड़के तथा भव्य राजप्रसाद अवस्थित थे । बुद्ध-काल में कोशल राज्य दो भागों में बँट गया-उत्तरी तथा दक्षिणी । अयोध्या या सांकेत उत्तरी भाग की तथा श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी वन गई । इस समय श्रावस्ती का महत्व बढ गया था ।

शुंगकाल का एक लेख अयोध्या से मिलता है जिससे पता चलता है कि पुष्यमित्र मृग ने दो अश्वमेध यश किये थे । गुप्तकाल में अयोध्या का महत्व था । कालिदास ने कई स्थानों पर इसकी महिमा का उल्लेख किया है ।

गुप्तकाल के बाद अयोध्या का, महत्व घट गया । चीनी यात्री हुएनसांग ने इस नगर को उजड़ा हुआ पाया था । वह इस स्थान के निकट अयोमुख का उल्लेख करता हैं । सम्प्रति अयोध्या में रामायण काल का कोई भी अवशेष नहीं मिलता तथा वहाँ स्थित पवित्र मन्दिर एवं भवन बाद की कृतियों हैं ।

43. गढवा:

इलाहावाद जिले की करछना तहसील में गढ़वा नामक स्थान है । यहाँ से गुप्त शासकों-कुमार गुप्त प्रथम तथा स्कन्दगुप्त-के समय के लेख मिलते हैं । कुमारगुप्त प्रथम के दो शिलालेख मिलते हैं जिन पर गुप्त संवत् 98=417 ई. की तिथि खुदी हुई है । इनमें किसी दानगृह की स्थापना के निमित्त क्रमशः दस तथा बारह दीनारें दान में दिये जाने का उल्लेख है ।

स्कन्दगुप्त का लेख गुप्त सवत् 148=467 ई. का है । इसमें अनन्तस्वामी (विष्णु) की एक पाषाण प्रतिमा की स्थापना तथा मालादि सुगन्धित द्रव्यों के निमित्त दान दिये जाने का उल्लेख है । इस लेख से यह भी पता चलता है कि स्कन्दगुप्त का शासन 467 ई. तक समाप्त हो गया था ।

44. एलौरा:

महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले में स्थित एलौरा नामक स्थान अपने गुहा-मन्दिरों के लिये प्रसिद्ध है । यहाँ पहाड़ी को काटकर अनेक गुफायें बनाई गयी है जो बौद्ध हिम तथा जैन सम्प्रदायों से सम्बद्ध है । बौद्ध गुफायें 12 हैं जिनमें ‘विश्वकर्मा का गुहा मन्दिर (संख्या 10) सबसे सुन्दर है । यह विशाल चैत्य के प्रकार का है जिसमें ऊँचे स्तम्भ बने है । स्तम्भों में अनेक बौनों की प्रतिमायें बनी है ।

एलौरा के सत्रह गुहा-मन्दिर प्राप्त होते हैं जिनमें से अधिकतर राष्ट्रकूट शासकों के समय (7वीं-8चीं शताब्दी) में बने थे । इनमें ‘कैलाश मन्दिर’ सर्वप्रसिद्ध है । यह प्राचीन वास्तु एवं तक्षण कला का एक अत्युत्कृष्ट नमूना है । विशाल पहाड़ी को तराश कर मनुष्यों, पशुओं, देवी-देवताओं आदि की सुन्दर एवं बारीक मूर्तियों बनाई गयी है ।

हाथियों की जो मूर्तियाँ है उनके आंखों की पलकें भी पत्थर को तराश कर अत्यन्त सूक्ष्मता एवं कुशलता से बनाई गयी है । मन्दिर का विशाल प्रांगण 276 फीट लम्बा तथा 154 फीट चौड़ा है । इसके ऊपर 95 फीट की ऊँचाई का विशाल शिखर है । इसका निर्माण कृष्ण प्रथम (756-793 ई.) ने अत्यधिक धन व्यय करके करवाया था ।

यहाँ के अन्य मन्दिरों में रावण की खाब, देववाड़ा, दशावतार, लम्बेश्वर, रामेश्वर, नीलकण्ठ आदि उल्लेखनीय हैं । दशावतार मन्दिर का निर्माण आठवीं शती में दन्तिदुर्ग ने करवाया था । इसमें विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित की गयी है । स्थापत्य एवं तक्षण की दृष्टि से यह मन्दिर भी उत्कृष्ट है ।

एलौरा से पाँच जैन मन्दिर भी मिलते हैं जिनका निर्माण नवीं शताब्दी में हुआ था । इसमें ‘इन्द्रसभा मन्दिर’ प्रमुख है जिसमें जैन तीर्थड्करों की कई सुन्दर मूर्तियाँ हैं । तेईसवें तीर्थड्कर पार्श्वनाथ की समाधिस्थ प्रतिमा मिलती है । मन्दिर के स्तम्भों एवं छतों पर अद्भुत चित्रकारियों है। समग्र रूप से एलौरा के मन्दिर वास्तु एवं तक्षण दोनों ही दृष्टियों से प्राचीन भारतीय कला के अत्युत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते है ।

45. गन्धार:

पाकिस्तान के पेशावर तथा रावलपिण्डी जिलों की भूमि में प्राचीन गन्धार राज्य बसा हुआ था । इसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है । ऋग्वेद में यहीं के निवासियों को ‘गान्धारी’ कहा गया है तथा इस प्रदेश के भेड़ों की प्रशंसा की गयी है । रामायण तथा महाभारत में भी इसका उल्लेख है ।

महात्मा बुद्ध के कुछ पूर्व हम गन्धार का उल्लेख एक महाजनपद के रूप में अंगुत्तर निकाय में पाते है । ईसा पूर्व छठी शताब्दी के मध्य यही अथवा पुष्करसारिन् नामक राजा राज्य करता था । उसने मगधनरेश बिम्बिसार के पास अपना दूत भेजकर उससे सम्बन्ध स्थापित किया था । उसने अवन्तिराज प्रद्योत पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था ।

कुषाणकाल में गन्धार प्रदेश में कला की एक विशेष शैली का जन्म हुआ । जिसे ‘गांधार कला’ कहा जाता है । इसमें बुद्ध की मूर्तियाँ प्रथम बार पाषाण में बनाई गयीं तथा भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यप्त किया गया । गन्धार राज्य की राजधानी तक्षशिला थी । यह शिक्षा एवं साहित्य का एक प्रमुख केन्द्र थी।

46. कम्बोज:

ईसा-पूर्व छठीं शताब्दी का यह एक महाजनपद था जिसका उल्लेख गान्धार के साथ मिलता है । सामान्यतः इस राज्य का विस्तार दक्षिणी-पश्चिमी कश्मीर से लेकर हिन्दूकुश तक था जिसकी राजधानी राजपुर अथवा हाटक थी । रामायण तथा महाभारत में कई स्थानों पर इस राज्य का उल्लेख हुआ है । रामायण में यहाँ के श्रेष्ठ घोड़ों का वर्णन मिलता है ।

कालिदास ने रघु द्वारा कम्बोजों को जीते जाने का उल्लेख किया है । पहले यहाँ राजतंत्र था किन्तु बाद में संघ राज्य स्थापित हो गया । कौटिल्य ने कम्बोजों को ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी संघ’ अर्थात् कृषि, पशुपालन, वाणिज्य तथा शस्त्रादि से जीविका चलाने वाला कहा है । कनिंघम का विचार है कि राजपर से तात्पर्य कश्मीर के राजौरी नामक स्थान से है ।

47. गिरनार:

गुजरात प्रान्त के जूनागढ़ जिले में स्थित गिरनार अथवा गिरिनगर प्राचीन भारत का एक तीर्थस्थल था । यहाँ से कई प्रसिद्ध शासकों के लेख भी मिलते है । मौर्यशासक अशोक ने यहाँ अपना शिलालेख उत्कीर्ण करवाया था । शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् का संस्कृत भाषा में लिखित प्रथम अभिलेख भी यहाँ से मिलना है ।

इनमें मौर्यशामक चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य द्वारा बनवाई गयी सुदर्शन झील का उल्लेख है जिसके बाँध की मरम्मत रुद्रदामन् के समय में हुई थी । गिरनार से गुप्त शामक स्कन्दगुप्त का भी लेख मिलता है जिसमें उसके राज्यपाल पर्णदत्त का उल्लेख है । ज्ञात होता है कि इस समय सुदर्शन झील का बाँध पुन टूट गया ।

अंत: पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था । गिरिनार का सम्बन्ध जैन धर्म से भी है । यहीं पहाड़ी की ऊंची चोटी पर कई जैन मन्दिर हैं । इनमें नेमिनाथ का मन्दिर सबसे प्रसिद्ध है । गिरिनार का सम्बन्ध जैन साहित्य में तीर्थङ्कर नेमि से बताया गया है ।

48. खोह:

मध्य प्रदेश में उज्जैन से लगभग तीन मील उत्तर-पश्चिम में स्थित नागदा के समीप खोह नामक स्थान है । पहले यह नागौद रियासत में था । यहाँ से गुप्त सम्राटों के सामन्तों के दानपत्र तथा उस समय के मन्दिर एवं मूर्तियाँ मिलती है । इनमें महाराज हस्तिन्, जयनाथ, सर्वनाथ आदि के दानपत्र हैं जिनमें मन्दिरों को भूमि एवं धन दान में दिये जाने का उल्लेख है ।

लेखों में गुप्त संवत् की तिथियाँ अंकित है । दानपत्रों से गुप्त शासन-सम्बन्धी कुछ बातें ज्ञात हो जाती है । खोह से गुप्त कालीन मन्दिर तथा एकमुखी शिवलिंग की मूर्ति प्राप्त हुई है । इनसे गुप्तयुगीन धर्म एवं कला के विषय में जानकारी प्राप्त होती है ।

49. गंजाम:

यह उड़ीसा प्रान्त में स्थित है । इसका प्राचीनतम नाम संभवत कांगोद था जिसका उल्लेख चीनी यात्री हुएनसांग ने हर्ष के सैनिक अभियान के प्रसंग में किया है । कांगोद को जीतने के बाद हर्ष ने बंगाल की विजय की थी । गंजाम में ही जौगढ़ नामक स्थान है । जहाँ से अशोक का शिलालेख मिलता है ।

हर्ष के जीतने के पूर्व यह शशांक के राज्य में था । यहाँ पर चतुर्थ शताब्दी ईस्वी में शैलोद्‌भव वंश का शासन स्थापित हुआ । गंजाम से 619 ई. का एक लेख मिला है जिससे पता चलता है कि शशांक ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करता है । यह लेख उसके सामन्त माधवराज द्वितीय का है ।

50. कौशाम्बी:

इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम में लगभग 33 मील की दूरी पर स्थित कोसम नामक स्थान ही प्राचीन काल का कौशाम्बी था । यह नगर यमुना नदी के तट पर बसा हुआ था । पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर के राजा निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद इस नगर की स्थापना करवाई थी । ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में कौशाम्बी वत्स राज्य की राजधानी थी जहाँ का राजा उदयन था ।

इस नगर में जाकर बुद्ध ने कई बार धर्मोपदेश किया तथा लोगों को अपना शिष्य बनाया था । यहाँ अनेक विहार थे जिनमें सर्वप्रमुख घोषताराम था । इसका निर्माण श्रेष्ठि घोषित ने करवाया था । इस विहार के निकट ही अशोक का स्तूप था । बौद्ध धर्म का केन्द्र होने के साथ-साथ कौशाम्बी एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी था जहाँ अनेक धनी व्यापारी निवास करते थे ।

मौर्य शासक अशोक ने यहाँ अपने स्तम्भलेख उत्कीर्ण करवाये थे । मौर्यकाल में पाटलिपुत्र का महत्व बढ़ने से कौशाम्बी का गौरव घट गया । गुप्त युग तक इस नगर का अस्तित्व सुरक्षित रहा । सातवीं शती में जब हुएनसांग ने भारत की यात्रा की तब उसने इस नगर को उजड़ा हुआ पाया था ।

सर्वप्रथम 1861 ई. में कनिंघम महोदय ने इस स्थान की यात्रा कर इसके पुरातात्विक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था । तत्पश्चात् 1936-37 में एन. जी. मजूमदार ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया, किन्तु दुर्भाग्य- वश एक दुर्घटना में वे मारे गये जिसके फलस्वरूप कुछ समय तक कौशाम्बी का उत्खनन कार्य रुका रहा ।

1949 से लेकर 1965-66 ई. तक इलाहाबाद विश्व-विद्यालय के जी. आर. शर्मा के नेतृत्व में यहाँ व्यापक स्तर पर खुदाईयों करवायी गयीं जिसके परिणामस्वरूप पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुयें यहाँ से प्रकाश में आयीं ।

कौशाम्बी में उत्खनित क्षेत्र मुख्यतः चार हैं:

1. अशोक स्तम्भ का समीपवर्ती-क्षेत्र,

2. घोषिताराम विहार-क्षेत्र,

3. पूर्वी भाग में मुख्य प्रवेश द्वार का समीपवर्ती क्षेत्र,

4. राजप्रासाद क्षेत्र ।

अशोक स्तम्भ वाले क्षेत्र की खुदाई में मुख्यतः तीन प्रकार के मिट्टी के वर्तन मिलते है जिन्हें चित्रित-धूसरभाण्ड, उत्तरी काले चमकीले भाण्ड उत्तर-एन. वी. पी. भाण्ड आदि नाम दिये जाते है । चित्रित धूसर संस्कृति के अवशेष अपेक्षाकृत सीमित है । इसके प्रमुख पात्र कटोरे तथा तश्तरियों हैं ।

इनकी गढ़न अच्छी है । उत्तरी काली चमकीली संस्कृति से सम्बन्धित निर्माण के आठ स्तर प्राप्त हुए है जिनमें प्रथम पाँच मिट्‌टीप्तथा कच्ची ईंटों से और ऊपर के तीन पकी ईंटों से बने है । इनके अतिरिक्त यहाँ से मित्रवंशी राजाओं के सिक्के, मिट्टी की मूर्तियों, कुषाण राजाओं के सिक्के आदि भी प्राप्त हुए है ।

द्योषिताराम की खुदाई से एक विहार मिला है जिसके चारों ओर ईंट की दीवारें बनी हुई है । विभिन्न स्तरों से सूचित होता है कि इस विहार का निर्माण कई वार किया गया । विहार के प्रागण से एक बड़े तथा तीन छोटे स्तूपों के अवशेष मिलते है ।

इस विहार का निर्माण संभवतः ई. पू. पाचवीं शताब्दी में हुआ था । विहार से पाषाण तथा मिट्‌टी की मूर्तियाँ, सिक्के तथा कुछ लेख भी मिलते है । इसी क्षेत्र से द्वानरेश तोरमाण की मुहर मिली है । इससे सूचित होता है कि हूणों का कौशाम्बी के ऊपर आक्रमण हुआ तथा उन्होंने यहां बड़े पैमाने पर आगजनी और लुटपाट की ।

यहाँ से मिली पत्थर की मूर्तियों पर बुद्ध का अंकन प्रतीकों में किया गया है । बड़ी संख्या में मिट्‌टी की बनी हुई मानव तथा पशु मूर्तियां मिलती है। कुछ देवी-देवताओं से भी संबद्ध है । इनका समय मौर्यकाल से गुप्त काल तक निर्धारित किया गया है ।

पाषाण मूर्तियों ई. पू. 200 से 500-600 ई. तक की हैं । इनसे सूचित होता है कि भरहुत तथा सांची के समान कौशाम्बी भी कला का एक प्रमुख केन्द्र था । यहाँ की प्रसिद्ध मूर्तियों में कुबेर, हारीति तथा गजलक्ष्मी की मूर्तियों का उल्लेख किया जा सकता है ।

मुख्य प्रवेश द्वार वाले क्षेत्र के उत्खनन की महत्वपूर्ण उपलब्धि रक्षा-प्राचीर है । इसके अतिरिक्त चार प्रकार की पात्र परम्परायें-लाल रंग, चित्रित-धूसर, उत्तरी काली चमकीली तथा उत्तर-एन. बी. पी. भी यहाँ से मिलते हैं । लेख रहित ढले हुए ताम्र सिक्के तथा लोहे के उपकरण भी यहाँ से प्राप्त होते है । रक्षा प्राचीर से सूचित होता है कि ईसा पूर्व की तेरहवीं-बारहवीं शताब्दियों से ही यहाँ भवन निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा था ।

जी. आर. शर्मा यहाँ से मिले हुए सिक्कों को आहत सिक्कों से भी प्राचीनतर मानते है तथा उनकी तिथि ईसा पूर्व नवीं शताब्दी निर्धारित करते है । किन्तु कई विद्वान् इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है । शर्मा के अनुसार ई. पू. ग्यारहवीं-वारहवीं शताब्दी में यहीं नगर-जीवन का प्रारम्भ हो चुका था ।

पूर्वी रक्षा-प्राचीर के पास से एक यज्ञ की वेदी मिलती है जिसका आकार उड़ते हुए बाज (श्येन) जैसा है । इसे ‘श्येनचिति’ कहा गया है । बताया गया है कि यहाँ पुरुषमेध किया गया था । यह यश संभवतः ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में सम्पन्न हुआ था । इसका सम्बन्ध शुंग शासक पुष्यमित्र से जोड़ा गया है । किन्तु मार्टीमर ह्वीलर, बी. बी. लाल जैसे विद्वान् श्येनचिति की अवधारणा को स्वीकार नहीं करते है ।

राजप्रासाद क्षेत्र के उत्खनन में पाषाणनिर्मित एक लम्बी-चौड़ी चहारदीवारी के अवशेष मिलते है । अनुमान किया जाता है कि यह किसी राजपरिवार का आवास रहा होगा । यही से भी चार सांस्कृतिक पात्र परम्पराओं की जानकारी होती है । यहाँ से मेहराव के भी अवशेष मिलते है जिनसे सिद्ध होता है कि भारत में मेहराव युक्त भवन पहली-दूसरी सदी में ही बनने लगे थे ।

किन्तु सभी विद्वान इस बात को स्वीकार नहीं करते । कौशाम्बी के उन्खनन से सिद्ध होता है कि ई. पू. बारहवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी ईस्वी (गुप्त युग) तक यहाँ लोग निवास करते थे । गुप्त काल तक यह नगर वीरान हो चुका था ।

51. कांची:

वर्तमान तमिलनाडु का कंजीवरम नामक जनपद ही प्राचीन काल में कांची अथवा कान्चीपुरम् नाग से विख्यात् था । यह दक्षिणी भारत का एक प्रमुख तीर्थस्थल था जिसकी गणना सात पवित्र एवं मोक्षदायिका नगरियों में की जाती थी ।

अयोध्या मधुरा माया काशी कांची अवन्तिका ।

श्री द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका: ।।

कांची का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्व था । सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले पल्लव राजवंश की यहाँ राजधानी थी । समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख में कान्ची के राजा विष्णुगोप का उल्लेख हुआ है जिसे उसने पराजित किया था । पल्लव राजाओं के काल में कांची की महती उन्नति हुई ।

यहां अनेक चौड़ी सड़के, विद्यालय, मन्दिर एवं विहार बने हुए थे । यही का संस्कृत महाविद्यालय पूरे देश में प्रसिद्ध था जहां अध्ययन करने के लिये दूर-दूर से लोग पहुंचते थे । इसके समीप एक मण्डप में महाभारत का नियमित पाठ होता था । कम्दबनरेश मयूरशर्मा ने यहीं शिक्षा प्राप्त की थी ।

नालन्दा के कुलपति धर्मपाल ने भी यहीं रहकर शिक्षा प्राप्त की थी । चीनी यात्री हुएनसांग ने भी कान्ची की यात्रा की तथा वहाँ कुछ समय तक निवास किया था । वह लिखता है कि यहाँ सौ से अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें दस हजार भिक्षु निवास करते थे ।

नगर की परिधि छ: मील थी । कान्ची का सम्बन्ध भारवि तथा दण्डी जैसे महाकवियों से भी था । सोलहवीं शताब्दी में विजय नगर के शासकों ने कान्ची में अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था । उनके द्वारा बनवाये गये मन्दिर आज भी इस नगर की शोभा बढाते है ।

52. गोरथगिरि:

राजगृह के समीप ही गोरथगिरि की पहाड़ी स्थित थी । महाभारत से पता चलता है कि कृष्ण, जरासंध के बधार्थ गिरिव्रज जाते हुए पहले इसी पर्वत पर पहुँचे तथा वहाँ से मगध को देखा था । कलिंग के शासक खारवेल के हाथीगुम्फा लेख से पता चलता है कि उसने अपने अभिषेक के आठवें वर्ष गोरथगिरि पर आक्रमण कर मगध नरेश को व्यथित किया था ।

53. गोवर्धन:

(1) महाराष्ट्र के नासिक जिले में यह स्थान है । सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि तथा पुलुमावी के लेखों में ‘गोवर्धन आहार’ का उल्लेख है । महावस्तु से ज्ञात होता है कि यह दण्डकारण्य प्रवेश की राजधानी था ।

(2) मथुरा के समीप एक पर्वत का नाम गोवर्धन है । पौराणिक कथा के अनुसार कृष्ण ने इसे ब्रजभूमि की इन्द के क्रोध से रक्षा करने के निमित्त अपनी अंगुली पर उठाया था ।

54. तोसलि:

उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के समीप शिशुपालगढ़ के खण्डहरों से तीन मील की दूरी पर धौली नामक स्थान है । यहाँ से अशोक का शिलालेख मिलता है जिससे सूचित होता है कि इस स्थान का नाम उस समय तोसलि था ।

धौलीलेख में अशोक तीसलि के नगर व्यावहारिकों को न्याय के मामले में उदार एवं निष्पक्ष आचरण करने का आदेश करता है । लगता है कि नगर-व्यावहारिकों के आचरण से जनता का जीवन कष्टमय हो गया था । इसी कारण अशोक को उन्हें निर्देश देना पड़ा कि वे उचित ढंग से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें ।

55. कुरू:

आधुनिक दिल्ली तथा मेरठ के भू-भाग में प्राचीन काल का कुरु राज्य स्थित था। महाभारत काल में इसकी राजधानी हस्तिनापुर में थी । ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के प्रारम्भ में कुरु उत्तरी भारत का एक प्रमुख महाजनपद था ।

अंगुत्तर निकाय में इसका उल्लेख षोडश महाजनपदों की सूची में दिया गया है । इस समय इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में थी । जातक अन्यों में इस नगर की परिधि दो हजार मील बताई गयी है । यहाँ का शासक कोरव्य था । कुरु देश के लोग आप्राचीन काल में अपनी बुद्धि एवं बल के लिये प्रसिद्ध थे ।

56. देवराष्ट्र:

इस स्थान की स्थिति आन्ध्र प्रदेश के तिजगापट्‌टम् (विशाखापट्‌टनम्) जिले में निधार्रित की जाती है । समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिणापंथ के बारह राज्यों की सूची में देवराष्ट्र का भी नाम है । यहाँ के राजा का नाम कुवेर (देवराष्ट्रककुवेर) मिलता है । समुद्रगुप्त ने अन्य राजाओं के साथ-साथ उसे भी पराजित करने के बाद मुक्त कर दिया । देवराष्ट्र ने उसकी अधीनता मान ली ।

57. धौली:

उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के समीप स्थित पहाड़ी जिसका एक नाम ‘धवलगिरि’ भी मिलता है । यहाँ से अशोक के शिलालेख मिले है । ज्ञात होता है कि इस स्थान का प्रशासनिक नाम तोसलि था जो मौर्य साम्राज्य के कलिंग प्रान्त की राजधानी थी ।

58. कोटिवर्ष:

गुप्तों के समय में उत्तरी बंगाल में पुण्ड्रवर्धन नामक एक प्रान्त भास था । इसी स्थिति आधुनिक बँगला देश के दीनाजपुर, राजशाही, माल्दा तथा बोगरा जिलों में रही होगी । कोटिवर्ष इसी भुक्ति का एक जिला था । दामोदरपुत्र से प्राप्त लेख में इसका उल्लेख मिलता है । इसका मुख्य स्थल संभवतः फरीदपुर के आस-पास रहा होगा जहाँ से एक दानपत्र मिलता है ।

59. देवबर्नाक:

बिहार के शाहाबाद जिले में यह स्थान स्थित है । यहाँ से मगध के परवर्ती गुप्त शासक जीवितगुप्त द्वितीय का एक लेख मिला है । 1880 ई. में कनिंघम ने इस लेख को खोज निकाला था । इसमें आदित्यसेन के बाद के तीन राजाओं- देवगुप्त, विष्णुगुप्त तथा जीवितगुप्त द्वितीय-के नाम मिलते हैं । इसमें वारुणीक ग्राम को सूर्य मन्दिर के लिये दिये जाने का भी उल्लेख मिलता है । लगता है देवबर्नाक का मूल नाम वारुणीक ही था । लेख से मौखरि-गुप्त सम्बन्धों पर भी कुछ प्रकाश पड़ता है |

60. पंचाल:

उत्तर प्रदेश के वर्तमान बरेली, बदायूँ तथा फर्रुखाबाद जनपदों की भूमि पर प्राचीन समय का पांचाल राज्य बसा हुआ है । महाभारतकाल में यहाँ के राजा द्रुपद थे जिनकी कन्या द्रौपदी थी । छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह एक महाजनपद था जिसका उल्लेख अंगुत्तर निकाय में षोडश महाजनपदों के अन्तर्गत हुआ है ।

इस राज्य के दो भाग थे- उत्तरी तथा दक्षिणी पंचाल । प्रथम की राजधानी अहिच्छत्र तथा द्वितीय की काम्पिल्य में थी । कान्यकुब्ज का नगर भी पन्चाल राज्य में ही था । इसका पड़ोसी राज्य कुरु था । छठी शताब्दी ईसा पूर्व में दोनों राज्यों का एक संघ था ।

61. भाजा:

महाराष्ट्र प्रान्त के पुणे जिले (पूना) में मलवणी स्टेशन के समीप स्थित भाजा की पहाड़ी पर गुफाओं को काटकर चैत्य एवं विहार बनाये गये है । ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के आरम्भ में यह स्थान बौद्ध-वास्तु का प्रमुख केन्द्र ब ना। यहाँ से एक विहार, एक चैत्य तथा 14 रूपों के उदाहरण प्राप्त होते है । भाजा के विहार का मुखमण्डप 171/2 फीट लम्बा हैं ।

इसके भीतरी मण्डप के तीनों ओर भिक्षुओं के निवास के लिये कोठरियाँ बनी हैं । बिहार के भीतर अंकित दो दृश्य प्रसिद्ध हैं । प्रथम में दो सेविकाओं के साथ रथ पर सवार तथा द्वितीय में हाथी पर सेवक के साथ सवार पुरुष का अंकन है ।

इन्हें सूर्य तथा चन्द्र की मूर्तियाँ माना गया है । चैत्यशाला 55’x26’ के आकार की है । मण्डप में लगाये गये स्तम्भों पर श्रीवत्स, त्रिरत्न, नन्दिपद आदि मांगलिक प्रतीकों का अंकन है । चैत्यशाला से थोड़ी दूरी पर 14 छोटे-बड़े स्तूप है । स्तूपों के अण्ड के ऊपरी भाग पर बनी वेदिका पर सुन्दर अलंकरण मिलता है ।

62. प्रयाग:

गंगा-यमुना के पवित्र संगम पर स्थित प्रयाग अतिप्राचीन समय से ही हिन्दुओं का सुप्रसिद्ध तीर्थ रहा है । धर्मग्रन्थ इसे तीर्थराज कहते है । इसका प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है जहाँ इसे पवित्र तीर्थ बताते हुए कहा गया है कि जो संगम के जल में स्नान करते हैं वे स्वर्ग में उच्च स्थान पाते है तथा आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाते है । रामायण, महाभारत तथा पुराणों में इसके माहास्थ्य का वर्णन है ।

रामायण में इसका उल्लेख भारद्वाज आश्रम के स्थान के रूप में हुआ है जहाँ बताया गया है कि यहाँ घने वन थे । ऐसा लगता है कि रामायण तथा महाभारत के समय यहाँ कोई प्रसिद्ध नगर नहीं था । बुद्धकाल में भी यह वत्सराज्य के अन्तर्गत रहा जिसकी राजधानी कौशाम्बी में थी । मौर्य सम्राट अशोक ने अपना लेख कौशाम्बी में ही उत्कीर्ण करवाया था जिस पर बाद में समुद्रगुप्त ने अपनी प्रशस्ति खुदवाई ।

विष्णुपुराण से सूचित होता है कि प्रयाग की तीर्थ के रूप में बहुत प्रतिष्ठा थी । यहाँ स्नान-दानादि का बड़ा महत्व था । हुएनसांग हमें बताता है कि सम्राट हर्ष ने प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में ‘महामोक्ष-परिषद’ का आयोजन करवाया तथा इस अवसर पर प्रभूत दान वितरित किया करता था । संगम के पवित्र जल में दबकर आत्महत्या करने का भी उल्लेख मिलता है ।

धंग, गांगेयदेव, रामपाल, कुमारगुप्त (उत्तरगुप्तनरेश) ने यही प्राणोत्सर्ग किया था । ऐसी मान्यता थी कि यहाँ मरने वालों का स्वर्ग में पुनर्जन्म होता है । इस प्रकार प्रयाग की प्राचीन काल में तीर्थस्थल के रूप में ही मान्यता थी ।

मुगल शासक अकबर ने यहाँ किले का निर्माण करवाया तथा संभवतः उसी ने इसका नाम इलाहाबाद रख दिया । उसने राजकीय आदेश के जरिये अशोक के स्तम्भ को कौशाम्बी से मंगाकर यहाँ सुरक्षित करवा दिया । स्तम्भ पर जहाँगीर तथा बीरबल के लेख भी अंकित हैं । मुगलकाल में खुसरोबाग का निर्माण हुआ ।

63. बराबर गुफा:

बिहार के गया जिले में वेला स्टेशन से आठ मील पूरब की ओर बराबर नामक पहाड़ी है । यहाँ से मौर्यकाल की बनी हुई सात गुफायें प्राप्त हुई है । तीन में अशोक के लेख अंकित है । इन्हें अशोक ने आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के निवास के लिए बनवाया था ।

अशोक के पौत्र दशरथ के लेख भी इन गुफाओं में खुदे हुए है । उसने भी यहाँ गुहा-विहार बनवाये थे । इन गुफाओं को नागार्जुनी गुफा भी कहा जाता है । अशोक कालीन गुफाओं में ‘सुदामा गुफा’ तथा ‘कर्णचौपार’ प्रसिद्ध है । दशरथ की गुफाओं में ‘लोमशऋाषें गुफा’ तथा ‘गोपिकागुफा’ उल्लेखनीय हैं । इनमें मौर्य युगीन गुहा-स्थापत्य की सभी विशेषतायें प्राप्त हो जाती हैं ।

64. मथूरा:

भगवान कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी थी । रामायण के अनुसार ‘मधु’ नामक दैत्य ने इस नगर की स्थापित किया जिससे इसे ‘मधुपुर’ कहा गया । महाभारत के समय मधुर शूरसेन महाजनपद की राजधानी थी ।

इस राज्य का उल्लेख ईसा पूर्व छठीं शती के महाजनपदों में भी है । इस समय यहाँ का शासक अवलिपुत्र (अवंतिपुत्तो) था जिसने यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया था । मौर्यकाल में यह नगर कृष्णोपासना का केन्द था ।

मेगस्थनीज इसे ‘मेथोरा’ कहता था । जैन-साहित्य में भी इस मगर की समृद्धि का वर्णन है । शुंगों के समय में यह प्रसिद्ध नगर ज । गार्गी संहिता के अनुसार यवनों ने इसे जीता । तत्पश्चात् यहाँ शक-क्षत्रपों ने शासन किया । महाक्षत्रप षोडास का लेख यहाँ से मिलता है । उसने यहाँ एक सिंह शीर्ष स्तम्भ निर्मित्त करवाया था ।

कुषाणकाल में यहाँ कला की गाय, स्वतन्त्र शैली विकसित हुई जिसके अन्तर्गत बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियों का निर्माण हुआ । कनिष्क के शासन का पश्चिमी केन्द्र यही था जहाँ का शासक महाक्षत्रप खरपल्लान था । विमकडफिसेस तथा कनिष्क की मूर्तियों भी मथुरा से मिलती हैं ।

गुप्तकाल में मथुरा प्रसिद्ध स्थान रहा । यहाँ हिन्दू तथा बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण हुआ । फाहियान के अनुसार यहाँ बीस विहार थे जिनमें तीन हजार मिश्र निवास करते थे । मथुरा से गुप्तकाल की एक सुन्दर बुद्ध प्रतिमा प्राप्त हुई है । यह विदेशी प्रभाव से पूर्णतया मुक्त है ।

गुप्तकाल के पश्चात् इस नगर का गौरव समाप्त हो गया । हुएनसांग ने यहाँ के स्मारकों को उजड़ा हुआ पाया था । मुस्लिम आक्रमण में इस नगर को विशेष क्षति पहुँची तथा मन्दिरों को ध्वस्त किया गया । सम्प्रति मथुरा हिन्दू श्रद्धालुओं की भक्ति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है ।

65. लुम्बिनी:

गोरखपुर जिले के नौतनवी स्टेशन से दस मील की दूरी पर नेपाल की सीमा में ‘रुमिनीदेई’ जामक ग्राम है । यह बुद्धकाल का लुम्बिनी है जहां महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था । बुद्ध का जन्म-स्थल होने के कारण यह स्थान बौद्धों की श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र बन गया ।

मोर्य सम्राट अशोक ने अपने अभिषेक के 20वें वर्ष लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की । उसने वहां पत्थर की एक सुदृढ दीवार बनवाई तथा शिलास्तम्भ खड़ा किया । इस पर अशोक का एक लेख उत्कीर्ण है । लेख पर ‘हिन्द बुधे जाते शाक्यमुनीति….’ अर्थात शाक्य मुनि बुद्ध उत्पन्न हुए’ अंकित है । यह पता लगता है कि चूंकि यहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था, अंत: अशोक ने यहाँ के निवासियों का कर घटाकर आठवाँ भाग कर दिया ।

चीनी यात्री हुएनसांग ने इस स्थान की यात्रा कर अशोक स्तम्भ, सालवृक्ष तथा स्तूप के दर्शन किये थे । स्तम्भ के शीर्ष भाग पर पहले अश्व की मूर्ति क जो अब नष्ट हो गयी है । अश्वघोष ने ‘बुद्धचारित’ में ‘लुम्बिनी’ का उल्लेख बुद्ध के जन्म-स्थल के रूप में किया है ।

66. श्रवणबेलगोला:

मैसूर (कर्नाटक) की चन्द्रगिरि तथा इन्द्रगिरि पहाड़ियों के बीच यह ऐतिहासिक स्थल स्थित है । प्राचीन काल में यह जैन धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था । जैन अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अन्तिम दिनों में जैन आचार्य भद्रबाहु का शिष्य बना तथा सिंहासन छोड़कर दोनों इसी स्थान पर चले आये ।

यहां उनका प्राणान्त हुआ था । भद्रबाहु से सम्बन्धित होने के कारण यह जैनियों की श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र बन गया । दसवीं शती के गंग शासकों ने यहाँ 57′ ऊंचा गोम्मटेश्वर की विशाल पाषाण प्रतिमा निर्मित करवायी थी । श्रवणबेलगोला से प्राप्त लेखों से गंग राजाओं के विषय में सूचना मिलती है । पहाड़ी पर प्राचीन काल के कई अवशेष मिलते हैं ।

67. सांची:

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के समीप स्थित सांची बौद्ध स्तूपों के लिये संसार में प्रसिद्ध है । यहाँ पहाड़ी पर मौर्य शासक अशोक ने विशाल स्तूप का निर्माण करवाया था । यह ईंटों का बना था जिसके चारों ओर लकड़ी की बाड़ लगी थी ।

तत्पश्चात् यहाँ अनेक स्तूप, बिहार तथा मन्दिर बनवाये गये । ईसा-पूर्व तीसरी शती से लेकर पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक यहाँ निर्माण कार्य चलता रहा । सांची के दीर्धकाल तक बौद्धधर्म से सम्बन्धित रहने के कारण इनका नाम चेतिय या चैत्यगिरि प्रसिद्ध हुआ ।

साँची की पहाड़ी पर तीन स्तूप मिलते हैं- एक बड़ा तथा दो छोटे । महास्तूप बुद्ध, द्वितीय अशोक कालीन धर्म प्रचारकों तथा तृतीय सारिपुत्र और महामीद्ग्ल्यायन नामक बुद्ध के प्रिय शिष्यों के अवशेषों पर निर्मित है । इन्हें शुंग-सातवाहन युग की रचना माना जाता है ।

अशोक द्वारा निर्मित महास्तुप शुंगकाल में पाषाण पटियाओं से जड़ा गया, लकड़ी के स्थान पर पाषाण वेदिका बनाई गयी तथा चारों दिशाओं में चार तोरण लगा दिये गये । स्तूप का आकार भी द्विगुणित कर दिया गया । वस्तुतः इसके तोरण अत्यन्त सुन्दर, कलापूर्ण और आकर्षक हैं । वे बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों से भरे हैं और नीचे से ऊपर तक अलंकृत है ।

वे अपनी वास्तु से कहीं अधिक उत्कीर्ण अलंकरणों के लिये ही विख्यात है । इन पर सिंह, हाथी, धर्मचक्र, यक्ष, त्रिरत्न आदि के चित्र खुदे हुए है । महास्तूप के दक्षिणी द्वार के पास अशोक का स्तम्भ खण्डित अवस्था में है । यहाँ से दो गुहा मन्दिरों के भी अवशेष मिलते है । सांची के स्मारक भारतीय वास्तु एवं मूर्तिकला की अमर कृतियाँ है ।

सांची से शिलाओं पर हुए कई लेख भी मिलते हैं । अशोक का लेख उसके स्तम्भ पर खण्डित अवस्था में है जिसमें उसने संघ भेद रोकने राजाज्ञा प्रसारित की थी । वेदिकाओं पर अंकित लेखों में दानकर्त्ताओं के नाम सुरक्षित हैं जिन्होंने स्मारकों के निर्माण में योगदान किया । इनमें शासक, भिक्षु, सामान्यजन सभी हैं । मुख्य स्तूप के दक्षिणी द्वार पर उत्कीर्ण लेख में सातवाहन शासक शातकर्णि का नाम है । सांची के लेखों से तत्कालीन समाज एवं धर्म के विषय में भी पर्याप्त जानकारी होती है ।

68. बलभी:

गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में आधुनिक ‘वल’ नामक स्थान पर प्राचीन वल्लभी नगर स्थित था। इसकी स्थापना मैत्रकवंशी भट्‌टार्क ने की थी । यहाँ मैत्रकों की राजधानी थी । सातवीं शताब्दी में यह नगर एक प्रसिद्ध व्यापारिक एवं शैक्षणिक केन्द्र वन गया ।

69. मदुरा:

तमिलनाडु प्रान्त का वर्तमान मदुरै ही प्राचीनकाल का मदुरानगर था । यहाँ पाण्ड्य राज्य की प्रसिद्ध राजधानी थी । संस्कृत साहित्य में इसे दक्षिणी मधुरा अर्थात् मथुरा कहा गया है । वैगा नदी के दक्षिणी किनारे पर यह नगर वसा था । इस नगर के स्थान पर पहले कदम्बों का एक वन था । इसके पूर्व में ‘मणवूर’ में पहले पाण्ड्यों की राजधानी थी ।

कालान्तर में वन को काटकर पाण्ड्यों ने एक सुन्दर नगर बसाया तथा अपनी राजधानी मणवूर से लाकर यहाँ बसाई । यह नगर मदुरा कहा गया । इसका एक अन्य नाम कदम्बवन भी था । यहाँ सुन्दरेश्वर का भव्य मन्दिर स्थित था । तमिल ग्रन्थों से मथुरा नगर की समृद्धि सूचित होती है । यहाँ चौड़ी सड़के थीं जिनके दोनों ओर भव्य भवन बने हुए थे । अलग-अलग जातियों के लिये यहाँ अलग-अलग बस्तियाँ थीं ।

राज्य की ओर से नगर में सार्वजनिक स्नानगृह, विद्यालय, बाजारें, क्रीड़ास्थल तथा व्यायामशालायें बनी हुई थीं । नगर के स्वच्छता की समुचित व्यवस्था थी । मदुरा यद्यपि एक प्राचीन नगर था तथापि यहाँ के वर्तमान स्मारक 16वीं शती में निर्मित हुए । मीनाक्षी का मन्दिर सर्वप्रमुख है ।

70. पृथूदक:

हरियाणा राज्य के अम्बाला जिले में आधुनिक ‘पहेवा’ नामक स्थान ही प्राचीन समय का पृथूदक है । महाभारत में इसे पवित्र तीर्थ कहा गया है तथा इसकी स्थिति सरस्वती सरिता के तट पर बताई गयी है । इसकी महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है-कुरुक्षेत्र पुण्यभूमि है । कुरुक्षेत्र से बढ़कर सरस्वती है, सरस्वती से बढकर तीर्थ है तथा तीर्थों में पृथूदक श्रेष्ठ है । यह सर्वोत्तम तीर्थ है जहाँ स्नान करने से पापी मनुष्य भी स्वर्ग की यात्रा करता है-

पुण्यमाहु कुरुक्षेत्र कुरुक्षेत्रात् सरस्वती ।

सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्य पृथूदकम् ॥

तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति येदापि पापकृतो नरा: ।

पृथूदके नरश्रेष्ठ एवमाहुर्मनीषिण: ॥ -वनपर्व

महाराज पृथू से सम्बन्धित होने के कारण इस स्थान का नाम ‘वृभूदक’ पड़ गया । सम्प्रति यहाँ अनेक मन्दिरों के खण्डहर वर्तमान है । इस नगर को महमूद गजनवी ने ध्वस्त किया था । यहाँ के पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार महाराजा रणजीत सिंह द्वारा करवाया गया था ।

71. अमरावती:

आन्ध्रप्रदेश के गुन्टूर जिले में कृष्णा नदी के तट पर स्थित अमरावती नामक नगर प्राचीन काल में आन्ध्र प्रदेश की राजधानी था । सातवाहन वंश के राजा शातकर्णि प्रथम ने यहाँ अपनी राजधानी बसाई थी । सातवाहन काल में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक एवं आर्थिक केन्द्र था ।

शासकों के समय में अमरावती में प्रसिद्ध बौद्धस्तूप का निर्माण करवाया गया था जो तेरहवीं शती तक अनेक बौद्ध यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा । दुर्भाग्यवंश यह स्तुप आज अपने स्थान से नष्ट हो गया है किन्तु उसके अवशेष कलकत्ता, मद्रास एवं लन्दन के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं ।

सर्वप्रथम 1797 ई. में मैकेन्जी महोदय ने इस स्तुप का पता लगाया था । स्तूप की वेष्टिनी संगमरमर की थी तथा उसके गुम्बद को भी संगमरमर की पटियाओं से जड़ा गया था । वेष्ठिनी के ऊपर जातक कथाओं के अनेक दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया हैं । शिलापटटों पर बुद्ध के जीवन की विविध घटनायें अंकित है । स्तुप की वास्तु तथा तक्षण सातवाहन कला के चर्मोत्कर्ष के सूचक हैं ।

धार्मिक केन्द्र होने के साथ-साथ अमरावती एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी था । समुद्र से कृष्णा नदी होकर अनेक व्यापारिक जलपोत यहाँ पहुंचते थे । वस्तुतः इसकी समृद्धि का सबसे बड़ा कारण इसका व्यापार ही था । आन्ध्र सातवाहन शासन के बाद अमरावती कई सदियों तक इक्ष्वाकु राजाओं की राजधानी रही । बाद में-इसका स्थान नागार्जुनीकोंड ने ग्रहण कर लिया ।

72. हड़प्पा:

यह सैन्धव सभ्यता का प्रमुख स्थल है जो पंजाब (पाकिस्तान) के मान्टगोमरी जिले में स्थित है। 1922 ई. में प्रसिद्ध पुरातत्व शास्त्री डॉ. आर. डी. बनर्जी ने इस स्थान की खुदाई कर सैन्धव सभ्यता का पता लगाया । यह नगर लगभग तीन मील की परिधि में स्थित था ।

यहां के अवशेषों में दुर्ग, रक्षाप्राचीर, निवासगृह, चबूतरे तथा अन्नागार महत्वपूर्ण है । सैन्धव सभ्यता का दूसरा प्रमुख स्थल मोहनजोदड़ो है जो सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में स्थित है । दोनों स्थानों का विस्तृत विवरण सैन्धव सभ्यता के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है ।

73. अपरान्त:

महाराष्ट्र प्रान्त का उत्तरी कोंकण क्षेत्र इसके अन्तर्गत था । प्राचीन साहित्य में इस स्थान का प्रयोग पश्चिमी देशों को इंगित करने के लिए किया गया है । महावंश के अनुसार अशोक ने धर्मरक्षित को अपरान्त में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भेजा था । वहाँ अपरान्त से तात्पर्य पश्चिमी देशों से है । महाभारत में अपरान्त को परशुराम की भूमि बताया गया है ।

नासिक लेख से पता चलता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने अपरान्त की विजय की थी । जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि रुद्रदामन् ने इस स्थान को सातवाहनों से जीत लिया था । यहाँ अपरान्त से तात्पर्य उत्तरी कोंकण से ही है । अपरान्त का नाम अपरान्तिक अथवा अपरान्तक भी मिलता है ।

74. कल्यान:

शक-सातवाहन युग में यह पश्चिमी भारत का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर तथा बन्दरगाह था । यह वर्तमान महाराष्ट्र के थाना जिले में स्थित था । पेरीप्लस में इस नगर का उल्लेख मिलता है । सोपारा के बन्दरगाह की मण्डी कल्यान में थी । कल्यान में अनेक समृद्ध व्यापारी निवास करते थे तथा उन्होंने कन्हेरी तथा जुन्नार के मठों को उदारतापूर्वक दान दिये थे ।

यहाँ से नासिक तथा पूना को दो मार्ग जाते थे । प्रतिष्ठान भी इसके साथ जुड़ा हुआ था । पेरीप्लस के विवरण से ज्ञात होता है कि इस नगर पर शक शासक मेम्बरस के बराबर आक्रमण होते थे और यहाँ आने वाले यूनानी जहाजों को रक्षकों के साथ भड़ौच पहुंचाया जाता था । कल्यान से पश्चिमी देशों-मिस्र, रोमादि के लिये माल-वाहक जहाज आते-जाते थे ।

75. पिष्टपुर:

समुद्रगुप्त के प्रयाग-लेख में दक्षिणापथ राज्यों की सूची में इस स्थान का नाम मिलता है । यहाँ का राजा महेन्दगिरि था । इस स्थान की पहचान आन्ध्र प्रदेश के गोदावरी जिले में स्थित वर्तमान् ‘पिठारपुरम्’ से की जाती है । यहाँ कलिंग राज्य की प्राचीन राजधानी थी । समुद्रगुप्त ने अन्य राज्यों कई साथ इस पर भी अपना अधिकार किया तथा बाद में इसे स्वतंत्र कर दिया ।

76. उर्जयन:

प्रान्त के जूनागढ़ में उर्जयत नामक पहाड़ स्थित है । महाभारत में इसका वर्णन एक तीर्थ के रूप में किया गया है । संभवतः इसी रैवतक पर्वत भी कहा जाता था। इसी पर्वत पर चन्द्रगुप्त मौर्य के सुराष्ट्र प्रांत के राज्यपाल पुण्यगुप्त वैश्य ने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था । इससे पश्चिमी भारत की सिचाई-सम्बन्धी आवश्यकताओं की मूर्ति होती थी । गिरनार का प्रसिद्ध नगर इसी पर्वत पर स्थित था ।

77. बेसनगर (विदिशा):

मध्यप्रदेश का विदिशा जिला प्राचीन बेसनगर था । बौद्ध साहित्य में इसे ‘बेस्सनगर’ कहा गया है । यहाँ से प्राचीन महत्व की अनेक वस्तुएं मिलती है । शुंगों के समय में इस स्थान का बड़ा महत्व था । यह शुंग साम्राज्य के पश्चिमी भाग की राजधानी थी । यहाँ शासन करता था ।

यहाँ के प्राचीन अवशेषों में हेलियोडोरस का गरुड़स्त्म्भ उल्लेखनीय है । वह यवननरेश अन्तियालकीड्‌स का राजदूत था तथा शुगवंश के राजा भागभद्र के विदिशा स्थित दरबार में आया था । उसने भागवत धर्म ग्रहण गिया तथा यहाँ गरुड़-स्तम्भ स्थापित किया । यह पाषाण-निर्मित स्तम्भ कला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है ।

ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित यह पहला प्रस्तर स्मारक है । यह स्तम्भ मध्य देश में भागवत धर्म के लोकप्रिय होने का साथी है । विदिशा नगर की गणना प्राचीन भारत के प्रसिद्ध नगरों में होती थी । पुराणों में इसे तीर्थ कहा गया है । यह नगर पाटलिपुत्र से उज्जयिनी जाने वाले मार्ग पर स्थित था ।

Home››History››