प्राचीन भारत के सत्तर महत्वपूर्ण स्थान | 70 Important Places of Ancient India.

1. अंग:

उत्तर बिहार के वर्तमान भागलपुर जिले में अंग महाजनपद स्थित था। महाभारत से पता चलता है कि अंग तथा मगध एक ही राज्य के दो भाग थे । महाभारत के अनुसार अंग राज्य की स्थापना अंग नामक राजा के द्वारा की गयी थी ।

बौद्धग्रंथ अंगुत्तर निकाय से पता चलता है कि महात्मा बुद्ध के उदय के पूर्व अंग उत्तरी भारत का एक प्रमुख महाजनपद था । इसकी राजधानी चम्पा थी। अंग तथा मगध के बीच सम्प्रभुता के लिये बराबर संघर्ष चला। अंग का प्रसिद्ध राजा ब्रह्मदत्त हुआ जिसने मगध के राजा भट्टिय को पराजित कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया ।

विधुर पंडित जातक में मगध की राजधानी राजगृह को अंग देश का एक नगर बताया गया है । किन्तु मगध नरेश बिम्बिसार ने ब्रह्मदत्त की हत्या कर अंग पर अपना अधिकार कर लिया तथा अपने पुत्र अजातशत्रु को वहाँ का उपराजा बना दिया । इस प्रकार अंग की स्वाधीनता का अन्त हुआ ।

2. जोरवे:

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जोरवे महाराष्ट्र प्रान्त के अहमदनगर जिले में गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा के बायें तट पर स्थित है । 1963 ई. में एच. डी. संकालिया ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया था जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों का उद्‌घाटन हुआ । यहाँ के उन्खनन से ताम्रपाषाणिक युग की एक ऐसी संस्कृति का पता चलता है जो महाराष्ट्र की अपनी संस्कृति है तथा जिसका विस्तार विदर्भ और कोंकण को छोड़कर समूचे महाराष्ट्र में दिखाई देता है ।

इसकी कालावधि ई. पू. 1400-700 निर्धारित की गयी है । इस संस्कृति के अन्य उत्खनित पुरास्थल हैं- नेवासा, दायमाबाद (अहमदनगर जिला), चन्दोली, सोनगाँव, इनामगांव (पुणे), प्रकाश तथा नासिक । इसमें दक्षिण की नवपाषाणिक संस्कृति के तत्व भी मिलते है ।

जोरवे संस्कृति मुख्यतः ग्रामीण थी लेकिन इसके कुछ स्थल दैमाबाद, इनामगाँव से नगरीकरण के साक्ष्य भी मिलते है । ये सभी नटी तट पर स्थित थे । इस संस्कृति के लोग स्थायी रूप से मकान बनाकर गाँवों में निवास करते थे । मकान मिट्टी, गारे, घास तथा वल्लियों की सहायता से तैयार किये जाते थे ।

इनका स्वरूप वर्गाकार, वृताकार अथवा आयताकार मिलता है । इस संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट पात्र परम्परा थी, यद्यपि इसमें अन्य पात्र-परम्पराओं को भी अपना लिया गया था । जोरवे परम्परा में लाल आधार पर काले डिजाइन के वर्तन चाक पर बनाये जाते थे । इनकी मिट्टी खूब गूथी होती थी ।

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बर्तनों को सावधानीपूर्वक तैयार किये गये गाँवों में पकाया जाता था । इस संस्कृति का एक खास नमूना टोंटीदार तथा नौतली मृद्‌भाण्ड है । इसके अतिरिक्त गहरे कटोरे, तसले, मटके, घड़े आदि भी मिलते है । किन्तु थालियां या तश्तरियां नहीं मिलती ।

बर्तनों की डिजाइन प्रायः ज्यामितीय है जिन्हें तिरछी समानान्तर रेखाओं द्वारा बनाया गया है । अनेक ताम्र उपकरण जैसे चूड़ियां, मनके, छेनी, सलाइयां, कुल्हाड़ी, छुरे आदि प्रमुख हैं । दायमाबाद से तांबे की बनी हुई चार आकृतियाँ-रथ हांकते हुए मनुष्य, वृषभ, गेंडा तथा हाथी मिली है ।

जोरवे संस्कृति के लोग कृषि तथा पशुपालन करते थे । जौ, गेहूँ, मसूर, मटर, चावल आदि की खेती करते थे । बेर की गुठलियां भी मिली है। गाय-बैल, भैंस, भेड़-बकरी, सुअर, घोड़ा आदि उनके पालतु पशु थे । लघु पाषाणोपकरण भी बहुतायत से मिलते हैं । हल्के रत्नों के बने बहुसंख्यक मनके तथा माता देवी की अनेक रूपों में मिट्टी की मूर्तियाँ मिलती हैं ।

जोरवे संस्कृति के लोग अपने मृतकों को अस्थि-कलश में रखकर घरों के फर्श के अन्दर गाड़ते थे । अस्थि-पंजर घरों के फर्श के नीचे दफनाये हुए मिलते है । शवों को उत्तर-दक्षिण स्थिति में रखा जाता था । हड़प्पा लोगों की भांति अलग- अलग समाधि-स्थल नहीं होते थे ।

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आवास क्षेत्र के बाहर दफन की प्रथा नहीं थी । कर्जों में मिट्टी के बर्तन तथा ताँबे के कुछ उपकरण भी रखे जाते थे । यह किसी परलोक संबंधी विचार का सूचक है । बच्चों को अस्थि-कलश में दफनाया जाता था । जोरवे के स्थलों से धूसर भाण्ड भी मिलते है जो दक्षिण की नवपाषाण परम्परा के हैं ।

3. कायथा:

मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में चम्बल की सहायक नदी काली सिन्ध के दक्षिणी किनारे पर यह पुरातात्विक स्थल बसा हुआ है । सर्वप्रथम 1964 ई. में वाकणकर महोदय ने इस स्थान की खुदाई करवायी थी । तत्पश्चात् उज्जैन तथा पूना विश्वविद्यालयों द्वारा यही खुदाई-कार्य करवाया गया । यहाँ से प्राप्त सामग्रियाँ मध्य भारत की ताम्र-पाषाण युगीन सभ्यता पर अच्छा प्रकाश डालती है ।

(i) प्रथम संस्कृति:

कायथा के उत्खनन से पाँच संस्कृतियों के अवशेष मिलते है जिन्हें कायथा, आहाड़, मालवा, आरम्भिक ऐतिहासिक युग तथा संग-कुषाण-गुप्त युग की संस्कृति कहा गया है । इनमें सबसे प्राचीन कायथा की संस्कृति है । इस सांस्कृतिक स्तर से हलके गुलाबी, पीले तथा भूरे रंग के मृद्‌भाण्ड प्राप्त होते है । प्रमुख पात्र घड़े, कटोरे, तसले, मटके, लोटे, थालियाँ, नींद आदि है । कुछ हाथ के बने हुए मिट्टी के बर्तन भी मिलते है ।

कुछ बर्तनों पर चित्रकारियों भी मिलती है । धातुओं में ताँबे तथा कांसे के उपकरण एवं आभूषण, जैसे-कुल्हाड़ी, छेनी, चूडी, मनकों के हार आदि प्राप्त हुए है । एक घड़े के भीतर लगभग चालीस हजार छोटे मनके मिले है । कुछ लघुपाषाणोकरण (माइक्रोलिथ) भी प्राप्त होते है ।

उत्खनन सामग्रियों से यह संकेत मिलता है कि इस संस्कृति के लोग लकड़ी के लट्ठों, बांस की बल्लियों, मिट्टी, घास-फूस आदि की सहायता से अपने मकानों का निर्माण करते थे । उनका जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड नहीं था अपितु वे स्थायी रूप से इस क्षेत्र में निवास करते थे । कायथा की संस्कृति का समय लगभग 2000 से 1800 ई. के मध्य निर्धारित किया गया है ।

(ii) द्वितीय संस्कृति:

कायथा की द्वितीय संस्कृति (आहाड़) के मृद्‌भाण्ड काले तथा लाल रग के हैं जिनके ऊपर सफेद रंग की चित्रकारियों मिलती हैं । इनमें थालियां, कटोरे आदि है । बड़ी मात्रा में लघुपाषाणोपकरण (माइक्रोलिथ) भी मिलते है ।

इनके अतिरिक्त मिट्टी की बनी कुछ वृषभ मूर्तियाँ, शंखों की गुरियों के बने हार भी मिले हैं । ज्ञात होता है कि इस संस्कृति के लोग अपने घर मिट्टी से बनाते थे । मकानों की फर्श कंकड़-पत्थर को कूटकर बनाई जाती थी । इस संस्कृति का समय ई. पू. 1700-1200 के बीच निर्धारित है ।

(iii) तृतीय संस्कृति:

कायथा की तृतीय संस्कृति (मालवा) के मृद्‌भाण्ड मुख्यतः हल्के लाल रंग तथा गुलावी रंग के है जिन पर काले रंग से डिजाइनें बनी हैं । प्रमुख भाण्ड घड़े, कटोरे, थालियां आदि है । इस स्तर से भी मिट्टी की कुछ वृषभ मूर्तियों मिली है । इसका समय 1500-1200 ई. पू. निर्धारित है ।

अन्तिम दो संस्कृतियाँ:

कायथा की अन्तिम दो संस्कृतियाँ लौह युग की हैं । आरम्भिक ऐतिहासिक युग के स्तर से लोहे के उपकरण प्राप्त होते है । यहाँ के प्रमुख मृद्‌भाण्ड काले चमकीले (एन. बी. पी.) काले तथा लाल तथा सादे धूसर रंग के है । इस संस्कृति का समय ई. पू. 600-200 निर्धारित है । यहाँ की अन्तिम संस्कृति ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से छठीं शताब्दी ईस्वी के बीच की है ।

इस काल में उत्तर भारत में शुंग, कुषाण तथा गुप्त राजवशों ने शासन किया । इस स्तर से कई प्रकार के मृद्‌भाण्ड जैसे लाल, धूसर, काचित आदि मिलते है । कुछ अन्य उपकरण जैसे दीपक, बैलगाड़ी के पहिये, चूड़ी, बाण, जीता, थापी, चरखी आदि भी कायथा संस्कृति के अन्तिम स्तर से प्राप्त होते है । इस प्रकार कायथा मध्य भारत का एक प्रमुख पुरास्थल है ।

4. श्रावस्ती:

बुद्ध काल के प्रसिद्ध राजतंत्र कोशल की राज-गनी श्रावस्ती तत्कालीन भारत की समृद्धिशाली नगरी थी । इस स्थान की पहचान गोण्डा जिले के सेतमाहेत नामक स्थान से की गयी है जहाँ से नगर के प्राचीन खण्डहर प्राप्त हुये है । श्रावस्ती अचिरावती (राप्ती) नदी के तट पर बसी हुई थी ।

बुद्धकाल में यहाँ का प्रसिद्ध शासक प्रसेनजित था । बौद्ध साहित्य में इस नगर की समृद्धि एवं वैभव का उल्लेख मिलता है । इसकी गणना भारत के प्रमुख नगरों में की गयी हैं जहाँ धनाढ्‌य बाह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य निवास करते थे ।

इनकी बौद्ध धर्म में महती श्रद्धा थी । श्रावस्ती में तीन प्रसिद्ध विहार थे- जेतवन, पूर्वाराम तथा मल्लिकाराम । इनमें जेतवन विहार सबसे प्रसिद्ध था । जेतवन एक उद्यान था जिसे राजकुमार जेत ने आरोपित करवाया था ।

श्रावस्ती के व्यापारी (श्रेष्ठि) अनाथपिण्डक ने इसे अठ्ठारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में खरीदकर बौद्ध संघ को दान किया तथा यहाँ एक विहार निर्मित करवाया । यह बुद्ध का प्रिय निवास स्थल था । ने यहीं ठहरते तथा प्रवचन देते थे । पूर्वाराम का निर्माण नगर श्रेष्ठि मिगार की पुत्रवधू विशाखा ने करवाया था ।

यह दुमंजिला भवन था जिसमें 506 कमरे बने थे । मल्लिकाराम का निर्माण मल्लिका नामक साम्राज्ञी द्वारा करवाया गया था । इसमें भी कई कमरे थे । बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार श्रावस्ती में ही हुआ । दिव्यावदान से पता चलता है कि यहाँ चार पवित्र स्तूप थे । कोशल के पतन के साथ ही श्रावस्ती का गौरव भी समाप्त हुआ ।

गुप्तकाल तक यह नगर बहुत कुछ निर्जन हो चुका था । फाहियान ने यहाँ बहुत कम नागरिक देखे । सातवीं शती में हुएनसांग ने इस नगर को पूर्णतया नष्ट-भ्रष्ट पाया था । संप्रति सेतमाहेत में स्थित खण्डहर प्राचीन नगर के वैभव का सन्देश दे रहे है ।

5. कुशीनगर:

पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित कसया नामक स्थान ही बुद्ध काल में कुशीनगर था । इसी को कुशीनारा भी कहा गया है । यहाँ मल्ल गणराज्य का शासन था । नगर के चारों ओर सिंहद्वार थे जहां पहरा रहता था । नगर में चारों ओर से आने वाले मार्ग मिलते थे जहाँ मल्लों का प्रसिद्ध संस्थागार स्थित था ।

इसमें एकत्रित होकर वे विविध विषयों पर विचार-विमर्श करते तथा राज्य का शासन चलाते थे । नगर में एक शक्तिशाली सेना भी था । महात्मा बुद्ध ने कई वार कुशीनगर की यात्रा की थी । वे यहाँ के शालवन नामक विहार में ठहरते थे । इसी स्थान पर 483 ई. पू. के लगभग महात्मा बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था ।

मल्लों ने बुद्ध के अस्थि अवशेषों का एक भाग प्राप्त कर अपनी राजधानी में उनके ऊपर एक स्तुप का निर्माण करवाया धा । बुद्ध के निर्वाण से होने के कारण यह स्थान बौद्धों का महान् तीर्थ बन गया । मगधनरेश अजातशत्रु ने कुशीनारा पर आक्रमण कर इसे जीता तथा अपने राज्य में मिला लिया । इसके साथ ही मल्ल गणराज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया ।

कुशीनगर में कई स्तुप तथा विहार थे । अशोक ने भी यहाँ स्तूप एवं बिहार बनवाये थे । गुप्तों के समय तक इस नगर की गरिमा सुरक्षित रही । सातवीं शती में यह उजाड़ हो गया 1876 ई. में कनिंघम ने इस नगर का जीर्णोद्धार करवाया । पुराने टीलों की खुदाई हुई जिससे रूप, विहार एवं मन्दिर के अवशेष मिले ।

कुशीनगर का सर्वप्रसिद्ध स्मारक बुद्ध की विशाल मूर्ति है जिसे शयनावस्था में दिखाया गया है । इस पर धातु की चादर चढ़ी हुई है । इसी स्थान से 10.6 फीट ऊंची बुद्ध की एक अन्य मूर्ति भी मिलती है । आज भी यह स्थान बौद्ध श्रद्धालुओं के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है ।

6. वैशाली:

बिहार प्रान्त के मुजफ्फरपुर जिले से 20 मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित बसाढ नामक स्थान ही प्राचीन काल का वैशाली नगर था । रामायण में इसे विशाला कहा गया है । बुद्ध काल में यहाँ लिच्छवियों का प्रसिद्ध गणराज्य था । यह गणराज्यों में सबसे बड़ा और शक्तिशाली था । इनकी केन्द्रीय समिति में 7,707 राजा थे ।

वैशाली बुद्धकाल का एक समृद्धिशाली नगर था । ललितविस्तर में इसे महानगर कहा गया है । यह जैन तथा बौद्ध धर्म का केन्द्र था । महावीर ने अपने जीवन के प्रारम्भिक तीस वर्ष यहीं बिताये तथा कई बार उन्होंने यहाँ उपदेश भी दिया । उनकी माता त्रिशला वैशाली गण के प्रमुख चेटक की बहन थी ।

गौतम बुद्ध को भी यह नगर बहुत प्रिय था । लिच्छवियों ने उनके ठहरने के लिये महावन में कूटाग्राशाला का निर्माण करवाया था जहां बुद्ध ने कई बार उपदेश दिये थे । इस नगर की प्रसिद्ध वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षुसंघ के लिये आम्रवाटिका दान में दिया था ।

लिच्छवि राज्य बड़ा समृद्ध एवं शक्तिशाली था । मगधनरेश अज्ञातशत्रु ने कूटनीति द्वारा उसमें फूट डलवा दी तथा फिर उस पर अधिकार कर लिया । तत्पश्चात् लिच्छवि दीर्घकाल तक दबे रहे । कुषाणों के पतन के बाद तथा गुप्तों के उदय के समय गंगा घाटी में उन्होंने पुन अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी ।

फाहियान तथा हुएनसांग दोनों ने वैशाली नगर का वर्णन किया है । उन्होंने इसकी सम्पन्नता का वर्णन किया है । यहाँ कई स्तूप तथा बिहार थे । लोग सच्चे और ईमानदार थे । भूमि बड़ी उपजाऊ थी ।

हुएनसांग ने वैशाली की द्वितीय बौद्ध संगीति का भी उल्लेख किया है जिसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया था वैशाली के समीप ही बीखरा है जहाँ से अशोक का सिंहशीर्ष स्तम्भ लेख मिलता है । बसाढ़ के खण्डहरों में राजप्रासाद एवं स्तूप के अवशेष है । यहाँ से कुछ मुद्रायें भी मिलती है । यहाँ के टीले की खुदाई ब्लाख महोदय ने की थी ।

1903-04 से 1958-62 ई. तक यहां पाँच उत्खननों में बड़े पैमाने पर खुदाइयां की गयी । यहां का प्रमुख टीला ‘राजा विशाल का गढ़’ कहा जाता है जहां मुख्यतः खुदाई की गयी है । उपलब्ध भौतिक अवशेषों से सूचित होता है कि ई. पू. 50 से लेकर 200 ई. तक यहां एक समृद्ध नगर था ।

कुषाणकालीन अवशेष सुराहीनुमा हजारे, गहरे कटोरे, ईंटों के मकान तथा 77 फुट लम्बी एक दीवार आदि है । कुषाणकालीन सिक्के तथा लगभग दो हजार मुहरें मिलती है जिनमें अधिकांशतः शिल्पियों, व्यापारियों सौदागरों एवं उनके निगमों की है । गुप्तकालीन अवशेष ऊंचे अपेक्षाकृत घटिया किस्म के है जिनसे नगर के पतन की धारणा बनती है ।

7. अरिकामेडु:

केन्द्र शासित प्रदेश पाण्डिचेरी के तीन किलोमीटर दक्षिण में जिन्जी नदी तट पर स्थित अरिकामेडु दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध पुरास्थल है । यहाँ से फ्रांसीसी विद्वान् जे. डूव्रील ने 1937 ई. में रोमन उत्पत्ति के मनके तथा बर्तन प्राप्त किये । 1941 ईश में फ्रांसीसी विद्वानों ने यहाँ खुदाई करके कुछ पुरावस्तुये प्राप्त कीं ।

तत्पश्चात् भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से 1945 ई. में एम. एस. ह्वीलर द्वारा यहाँ खुदाई करवायी गयी । तत्पश्चात् 1947-48 में जे. एम. कासल तथा 1990 ई. के प्रारम्भ में विमला वेगले द्वारा यहाँ उन्खनन कार्य करवाये गये । इस स्थान से प्राप्त अवशेषों में भारत तथा रोम के बीच प्राचीन व्यापारिक संबंर्धों की अच्छी जानकारी मिलती है ।

अरिकामेडु में दो क्षेत्रों में उन्खनन कार्य हुआ-उत्तरी तथा दक्षिणी । उत्तरी क्षेत्र में मिट्टी तथा दक्षिणी क्षेत्र से ईंटों का बना हुआ भवन मिला है । दक्षिणी क्षेत्र से बर्तनों का एक विशाल भण्डार भी प्राप्त हुआ है । स्वर्ण, बहुमूल्य पत्थरों तथा शीशे के बने हुए बहुत से मनके मिलते है ।

तीन प्रकार के मिट्टी के वर्तन यहाँ से मिलते हैं- लाल रंग के चमकीले मृद्‌भाण्ड जिन्हें एरेटाइन कहा जाता है । यह नामकरण उनके निर्माण स्थल एरीटीयम (आधुनिक इटली में एरेजो नामक स्थान) के आधार पर किया गया है ।

इसके प्रमुख पात्र प्याले तथा तश्तरियों है जिनके ऊपर कोई अलंकरण नहीं मिलता । इन बर्तनों का निर्माण 20 से 50 ईस्वी के बीच भूमध्य सागरीय प्रदेशों में किया जाता था । व्यापारियों द्वारा ये मृद्‌भाण्ड दक्षिण भारत में लाये गये होंगे । दो हत्था जार (मर्तबान) जिसे एम्फ़ोरे कहा गया है ।

इसका उपयोग रोम आदि पश्चिमी देशों में मदिरा अथवा तेल रखने के लिये किया जाता था । ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें मदिरा भरकर दक्षिण भारत में रोम से आती थी । अरिकामेडु के अतिरिक्त भारत में कुछ अन्य स्थानों जैसे कांचीपुरम्, नेवासा, उज्जैन, जुन्नार, द्वारका, नागदा तथा पाकिस्तान में तक्षशिला में भी रोमन एम्फोरे प्राप्त होते हैं ।

चक्रांकित मृदभाण्ड जो काले, गुलाबी तथा भूरे रंग के है । इनके ऊपर चक्राकार डिजाइन मिलती है । ह्वीलर का अनुमान है कि इस प्रकार के बर्तन बहुत तेजी से घूमने वाले चाक के ऊपर अच्छी मिट्टी से बहुत ही सावधानीपूर्वक बनाये जाते थे ।

इस प्रकार के कुछ चक्रांकित भाण्ड नि:संदेह भूमध्य सागरीय प्रदेश से आयातित किये गये होंगे, अन्य भारत में ही निर्मित किये गये थे । इस प्रकार के मृद्‌भाण्ड कुछ अन्य स्थानों, जैसे- अमरावती, चन्द्रवल्ली, कोल्हापुर, मास्की, शिशुपालगढ़ आदि से भी मिलते है ।

इनके अतिरिक्त अरिकामेडु से रोमन मूल की अन्य वस्तुयें, जैसे-रोमन बर्तन, मिट्टी के दीप, काँच के कटोरे, मनके, रत्न आदि भी मिलती हैं । एक मनके के ऊपर रोमन सम्राट आगस्टस (ई. पू. 27-14) का चित्र प्राप्त हुआ है । इटली से बने हुए लाल रंग के बर्तनों के टुकड़े भी अरिकामेड से प्राप्त होते है जिनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी निर्धारित किया गया है ।

अरिकामेडु के उन्खनन में जो सामग्रियाँ मिलती है उनसे विदित होता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में भारत तथा रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था । रोम का माल अरिकामेडु के गोदामों में जमा होता था तथा फिर वहां से उसे देश के अन्य भागों में पहुँचाया जाता था ।

रोम को निर्यातित किये जाने वाले सुन्दर वस्त्र भी यहीं तैयार किये जाते थे । रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप यहाँ के निवासियों का भौतिक जीवन अत्यन्त समृद्ध हो गया । रोमन व्यापारियों के आने के पूर्व यहाँ की संस्कृति ग्रामीण थी ।

यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण से ज्ञात होता है कि रोम के लोग भारत की विलासिता सामग्रियों के बड़े शौकीन थे तथा इसके लिये भारी मात्रा में सोना व्यय करते थे । रोमन लेखक प्लिनी अपने देशवासियों की इस अपव्ययिता के लिये निन्दा करता है । भारत के लोग रोमन मदिरा में विशेष रुचि रखते थे ।

इस प्रकार भारत तथा रोम के बीच प्राचीन व्यापारिक सम्बन्धों का अध्ययन करने की दृष्टि से अरिकामेडु के उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों का विशेष महत्व है । दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री ने तो अरिकामेडु को एक ‘रोमन बस्ती’ कहना पसन्द किया है ।

8. प्रतिष्ठान:

महाराष्ट्र के औरंगाबाद से 35 मील दक्षिण की ओर स्थित प्रतिष्ठान नामक नगर प्राचीन भारत का महत्वपूर्ण व्यापारिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है । गोदावरी सरिता के उत्तरी तट पर स्थित इस नगर के संस्थापक पुराणों के अनुसार उड़ा थे । बौद्ध साहित्य में इसका वर्णन एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र के रूप में मिलता है । सातवाहन युग में यह नगर अत्यन्त महत्वपूर्ण था ।

यूनानी तथा रोमन लेखकों ने इसके नाम का उल्लेख किया है । एरियन इसे ‘प्लीथान’ टालमी बैथन तथा पेरीप्लस के लेखक ने ‘पैथान’ या पीथान नाम से संबोधित किया है । टालमी इसे पुलुमावी की राजधानी बताता है । सातवाहनों के अनेक लेख तथा सिक्के प्रतिष्ठान और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में मिलते हैं । इस आधार पर अधिकांश विद्वान् उनका आदि-स्थान प्रतिष्ठान ही मानते हैं ।

प्रथम शती के अन्त में सातवाहनों ने अपने साम्राज्य के पश्चिमी भाग को सुरक्षित रखने के लिये अपनी एक राजधानी प्रतिष्ठान अथवा पैठन में स्थापित कर लिया । इससे यह नगर अत्यन्त प्रसिद्ध हो गया । यह दक्षिणापथ का मुख्य व्यापारिक केन्द्र था । सातवाहन काल के प्रसिद्ध बन्दरगाह सड़कों द्वारा इस नगर से जुड़े हुए थे ।

यहाँ धनाढ़य श्रेष्ठि निवास करते थे । प्रथम शताब्दी के रोमन लेखक प्लिनी ने प्रतिष्ठान को आन्ध्रप्रदेश का अत्यन्त समृद्धिशाली नगर बताते हुए इसकी प्रशंसा की है । प्रतिष्ठान से एक व्यापारिक मार्ग श्रावस्ती तक जाता था जिस पर माहिष्मती, उज्जयिनी, विदिशा, कौशाम्बी आदि नगर स्थित थे । पेरिप्लस से पता-चलता है कि यहाँ से चार पहिये वाली गाड़ियों में व्यापारिक वस्तुएँ भड़ौच में भेजी जाती थीं ।

इस प्रकार यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिष्ठान दक्षिणापथ की प्रमुख व्यापारिक मण्डी थी । प्रतिष्ठान से मिट्‌टी की मूर्तियां, हाथीदांत तथा शंख की वस्तुएँ माला की गुरियाँ, मकानों के खण्डहर आदि खुदाई में प्राप्त किये गये हैं ।

9. कार्ले:

यह महाराष्ट्र के पुणे (पूना) जिले में स्थित है । यहाँ पहाड़ को काट कर चैत्य बनाया गया है जो भारत के सभी खोदे हुए चैत्य गृहों में सबसे विशाल एवं सुन्दर है । यह 124 फीट तीन इंच लम्बा, 45 फीट 5 इंच चौड़ा तथा 46 फीट ऊंचा है । गुफा के प्रवेशद्वार पर एक विशाल स्तम्भ बना हुआ है जिसके ऊपर चार सिंह विराजमान है ।

मण्डप के भीतर जाने के लिये तीन प्रवेशद्वार है । द्वारों के सामने का भाग स्त्री-पुरुषों की आकृतियों से अलंकृत किया गया है । चैत्य गृह के स्तम्भों पर उत्कृष्ट नक्काशी भी मिलती है । इसका भव्य परिणाम एवं सुन्दर नक्काशी दर्शकों का मन विशेष आकृष्ट करती है ।

कार्ले चैत्य का निर्माण सातवाहन युग (ई. पू. प्रथम शती के लगभग) में हुआ था । इसके विषय में यहाँ एक लेख खुदा हुआ है जिसके अनुसार वैजयन्ती के भूतपाल नामक श्रेष्ठि (व्यापारी) ने इसका निर्माण करवाया था ।

10. त्रिपुरी:

जबलपुर (म.प्र.) से पश्चिम की ओर सात मील की दूरी पर स्थित वर्तमान तेवर नामक ग्राम ही प्राचीन समय का त्रिपुरी नगर था । इस नगर का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है जहाँ यहाँ के राजा अमितीजस पर सहदेव के विजय की चर्चा है । पुराण भी इस नगर से परिचित है ।

इस नगर को विशेष प्रसिद्धि कलचुरिवंश (845-1070 ई.) के समय में मिली । उन्होंने यहाँ अपनी राजधानी वसाई थी । कलचुरि शासन में इस नगर का चहुमुखी विकास हुआ तथा इसे भवनों, मन्दिरों एवं मूर्तियों से सजाया गया ।

यहाँ के खण्डहरों से कई मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें त्रिपुरेश्वर महादेव की मूर्ति उल्लेखनीय है । एक गजलक्ष्मी की मूर्ति तथा कई शैव मन्दिरों के अवशेष भी मिलते हैं । यहाँ से प्राप्त स्मारकों को भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में सुरक्षित किया गया है ।

11. सोपारा:

महाराष्ट्र के थाणे (थाना) जिले में स्थित यह स्थान प्राचीन- काल में पश्चिमी भारत का प्रसिद्ध बन्दरगाह था । इसका नाम शूपारक भी मिलता है । महाभारत में इस स्थान का उल्लेख मिलता है । मौर्य शासक अशोक का एक शिलालेख यहाँ से मिलता है । शक-सातवाहन युग में इस नगर का व्यापारिक महत्व बहुत अधिक बढ़ गया ।

दिव्यावदान में इसे वाणिज्य का बड़ा केन्द्र बताया गया है जहाँ व्यापारी अपने माल के साथ भरे रहते थे । यहाँ से जहाज में बैठकर लंका तथा सुवर्णभूमि तक पहुँचा जाता था । यहाँ से श्रावस्ती को एक सीधा मार्ग जाता था । सोपारा की मण्डी कल्यान थी । यूनानी-रोमन लेखकों ने भी इस बन्दरगाह की महत्ता का सकेत दिया है । यहाँ से सौदागर यूनान तथा रोम आते-जाते थे ।

पेरीप्लस से पता चलता है कि भृगुकच्छ तथा सोपारा में व्यापारिक जहाजों का उतारने के लिये होड़ लगी रहती थी । यदि कोई विदेशी जहाज सोपारा पहुँचता था तो उसे भृगुकच्छ के रक्षक वलपूर्वक वहाँ ले जाते थे । अरब सागर का तटवर्ती बन्दरगाह होने के कारण सोपारा पश्चिमी देशों को जाने का प्रमुख केन्द्र बन गया था ।

12. श्रृंगवेरपुर:

इलाहाबाद से 22 मील उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित सिगरौर नामक स्थान ही प्राचीन समय में शृंगवेरपुर नाम से प्रसिद्ध था । रामायण से पता चलता है कि अयोध्या से वन जाते समय राम, सीता और लक्ष्मण के साथ इस स्थान पर एक रात के लिये ठहरे थे जहाँ निषादराज ने उनकी सेवा की थी । यह नगर गंगा नदी के तट पर स्थित था ।

भवभूति ने उत्तररामचरित में भी इस स्थान का वर्णन किया है । महाभारत में इसे तीर्थस्थल कहा गया है । अनुश्रुति के अनुसार यहाँ शृंगी ऋषि का आश्रम था, अंत: इस स्थल का नाम शृंगवेरपुर हुआ । डॉ. बी. बी. लाल के निर्देशन में शृंगवेरपुर में पिछले कुछ वर्षों से उत्खनन कार्य चल रहा है । यहाँ से प्राप्त अवशेषों से नगर के प्राचीन वैभव पर प्रकाश पड़ता है ।

शृंगवरपुर में धरातल से लगभग दस मीटर की ऊँचाई वाला एक विशाल टीला है जो गंगा के किनारे-किनारे एक किलोमीटर तक फैला है । इसका काफी बड़ा भाग नदी के कटाव में क्षतिग्रस्त हो गया है । इस पुरास्थल को पुरातात्विक मानचित्र पर स्थापित करने का कार्य शिमला उच्च अध्ययन संस्थान एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संयुक्त तत्वावधान में के. एन. दीक्षित एवं बी. बी. लाल ने किया । यहाँ 1977-1978 के बीच टीले का उत्खनन करवाकर महत्वपूर्ण संस्कृतियों का उद्‌घाटन किया गया ।

शृंगवेरपुर टीले के उत्खनन से सात संस्कृतियों का पता चलता है:

(i) पहली संस्कृति:

पहली संस्कृति गैरिक मृद्‌भाण्ड संस्कृति है जिसका समय ग्यारहवीं शताब्दी ईसा पूर्व (1050-1000 ई.पू.) निर्धारित किया गया है । इसमें गेरुए रंग के मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिलते है जिनका प्रसार सम्पूर्ण गंगाघाटी में दिखाई देता है । सरकण्डों की छाप लगे हुए तथा जले हुए मिट्टी के टुकड़े भी हैं जिससे सूचित होता है कि इस काल के लोग बांस-बल्ली की सहायता से अपने आवास के लिये झोपड़ियों का निर्माण करते थे । मिट्टी का एक चक्रीय खण्ड तथा कानीलयन फलक का एक टुकड़ा भी यहाँ से मिला है ।

(ii) द्वितीय संस्कृति:

द्वितीय संस्कृति के प्रमुख पात्र काले-लाल, काले पुते, चमकीले धूसर आदि है । इसका काल ई. पू. 950 से 700 तक निर्धारित किया गया है । इस संस्कृति स्तर से अस्थि-निर्मित बाण, फलक, वेधक, लटकन आदि तथा मिट्टी के बने मनके भी मिले हैं ।

(iii) तीसरी संस्कृति:

यहाँ की तीसरी संस्कृति एन. बी. पी. पात्र परम्परा (उत्तरी काले मार्जित मृद्‌भाण्ड) से संबन्धित है । इन मृद्‌भाण्डों के साथ-साथ इस स्तर से ताम्रनिर्मित तीन बड़े कलश, एक कलछुली, मिट्टी की नारी मूर्तियाँ, माणिक्य, मिट्टी एवं सोने से बने मनके, पशुओं की मूर्तियों तथा ताँबे एवं लोहे के उपकरण भी मिलते है । आहत एवं लेख रहित ढली हुई मुद्रायें भी प्राप्त होती है ।

(iv) चौथी संस्कृति:

शृंगवेरपुर का चौथा सांस्कृतिक स्तर दो उपकालों में बांटा गया है । यहाँ से शृंगकाल में बनी मिट्टी की मूर्तियाँ, अयोध्या के राजाओं के सिक्के तथा लाल मृद्‌भाण्ड पाये गये हैं । इस स्तर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि टीले के उत्तर-पूर्व की ओर एक आयताकार तालाब की प्राप्ति है । यह पट्टी ईंटों से बना है तथा इसकी लम्बाई उत्तर-दक्षिण की ओर 200 मीटर के लगभग है । उत्तर की ओर से जल के प्रवेश एवं दक्षिण की ओर से उसके निकास के लिये नाली बनाई गयी थी। इसमें पेयजल की सफाई का विशेष प्रबन्ध किया गया था । भारत में किसी पुरास्थल से उत्खनित यह सबसे बड़ा तालाब है ।

पक्की ईंटों के मिलने से यह बात स्पष्ट होती है कि इस समय भवनों का निर्माण इन्हीं के द्वारा होने लगा था । इस संस्कृति का काल ई.पू. 250 से 200 ई. तक माना गया है । इस काल में उत्तर भारत में नगरीकरण अपने उत्कर्ष पर था ।

(v) पांचवीं संस्कृति:

पाँचवें सांस्कृतिक काल की अवधि 300 ईस्वी से 600 ईस्वी तक मानी जाती है । इस काल से गुप्तकालीन मिट्टी की मूर्तियों तथा गहरे लाल रंग के मृद्‌भाण्ड मिलते हैं । भवनों के निर्माण में प्रयुक्त ईंट पहले जैसी न होकर टूटी-फूटी अवस्था में है जिससे सूचित होता है कि नगर की समृद्धि का क्रमशः ह्रास हो रहा था ।

(vi) छठीं संस्कृति:

छठें सांस्कृतिक स्तर से कौन्नोज के गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र की तेरह रजत मुद्रायें तथा मिट्टी के एक बर्तन में रखे हुए कुछ आभूषण मिलते है । इस स्तर की अवधि छठी से तेरहवीं शती तक बताई गयी है । इसके बाद शृंगवेरपुर की संस्कृति में चार शदियों का व्यवधान दिखाई देता है । सत्रहवीं शती में यहाँ बस्ती के प्रमाण मिलते है । इस प्रकार शृंगवेरपुर मध्य गंगाधाटी का एक प्रमुख पुरातात्विक स्थल है । इसके उत्खनन से विभिन्न सांस्कृतिक पक्षों का उद्‌घाटन होता है ।

13. विक्रमशिला:

बिहार प्रान्त के भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला प्राचीन भारत का सुप्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था । इसकी स्थिति भागलपुर में 24 मील पूर्व की ओर पथरघाट पहाड़ी पर बतायी गयी है जहाँ से प्राचीन काल के विस्तृत खण्डहर प्राप्त होते है ।

14. शाकल:

पाकिस्तान का स्यालकोट नामक स्थान प्राचीन समय में शाकल नाम से विख्यात था । महाभारत के अनुसार यही मद देश की राजधानी थी । यहाँ का राजा शल्य था । बौद्ध ग्रन्थ इसे ‘सागल’ तथा यूनानी ‘संगल’ कहते हैं । यूनानी लेखकों के अनुसार सिकन्दर के समय यहाँ कठ गणजाति का शासन था । इस जाति के लोग पंजाब की सबसे वीर जातियों में थे । नगर के चतुर्दिक ऊँची दीवार तथा गहरी खाई बनी हुई थी ।

प्रसिद्ध यवन शासक मेनाण्डर ने यहीं अपनी राजधानी वसाई थी । मिलिन्दपण्हो में इसे ‘योनकानं नगरं’ कहा गया है । इस अच्छा में नगर के वैभव का वर्णन मिलता है । यहाँ आराम, उद्यान तथा तडाग बने हुए थे । चारों ओर प्राकार तथा परिखा थी । नगर में सुन्दर सड़के, नालियाँ, चौराहे तथा ऊंचे-ऊंचे राजप्रासाद थे ।

नागरिक सुखी एवं समृद्ध थे । सातवीं शती के यात्री हुएनसांग ने भी इस नगर का उल्लेख किया है । उसके अनुसार यह हूण नरेश मिहिरकुल की राजधानी थी । हुएनसांग ने इसे वीरान पाया । यहाँ एक विहार था जिसमें एक सौ हीनयानी भिक्षु रहते थे । नगर में स्थित दो स्तूपों को भी उसने देखा था ।

15. वातापी:

कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में वर्तमान बादामी ही प्राचीन काल का वातापी है । यह नगर चालुक्य वंश की राजधानी थी । इसकी स्थापना पुलकेशिन् प्रथम (535-566) ने की तथा यहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया । उसके उत्तराधिकारियों के समय में इस नगर की महती उन्नति हुई ।

आठवीं शती के मध्य यहाँ राष्ट्रकूटों ने अधिकार कर लिया । वातापी हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रसिद्ध केन्द्र था । चालुक्य शासकों ने यहाँ अनेक निर्माण कार्य करवाये । यहां से पाषाण काट कर बनवाये गये चार स्तम्भयुक्त मण्डपों के उदाहरण मिलते है । इसमें तीन हिन्दू तथा एक जैन है ।

सभी में स्तम्भों चालें बरामदे, मेहराबदार ताख तथा वर्गाकार गर्भगृह हैं । एक वैष्णव गुहा मिलती है जिसके बरामदे में विष्णु की दो रिलीफ मूर्तियाँ- अनन्तशायी तथा नृसिंहरूप- मिलती है । गुफाओं की भीतरी दीवारों पर सुन्दर चित्रकारियों मिलती हैं । इनकी वास्तु तथा स्थापत्य सराहनीय ।

16. वेंगी:

आन्ध्र प्रदेश की कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच नेल्लोर के उत्तर में वर्तमान ‘पेड्‌डवेगी’ नामक स्थान से देंगी को समीकृत किया जाता हैं । समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख में इस राज्य का उल्लेख दक्षिणापथ के राज्यों के साथ हुआ है । यहाँ का राजा हस्तिवर्मन् था । उसे पहले समुद्रगुप्त ने पराजित किया किन्तु फिर कृपापूर्वक मुक्त कर दिया । हस्तिवर्मन् संभवतः सालंकायन वंश का राजा था ।

17. लोथल:

गुजरात के अहमदाबाद जिले में स्थित इस स्थान से सैन्धव सभ्यता के अवशेष मिलते हैं । भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा किये गये उत्खनन में यहाँ से चबूतरा, रक्षाभित्ति, सड़कों, भवनों, नालियों तथा ईंटों के अवशेष प्राप्त होते है । इनसे पता चलता है कि यहाँ के निवासी बाढ़ से अपनी रक्षा के लिये ऊँचे टीलों पर बस्तियों बनाते थे ।

भवनों से स्नानगृह तथा नालियों के भी अवशेष मिलते है । जहाजों की गोदी मिली है जिससे सूचित होता है कि इस नगर का व्यापारिक महत्व था और यहाँ से समुद्री व्यापार जहाजों द्वारा किया जाता है । लोथल तथा रंगपुर के उन्खननों से सैन्धव सभ्यता के विस्तार पर प्रकाश पड़ता है ।

18. राजगृह:

विहार के पटना के समीप वर्तमान राजगीर नामक स्थान ही राजगृह है । यहाँ मगध जनपद की प्रारम्भिक राजधानी थी । इसका नाम गिरिव्रज भी मिलता है । यह नगर चतुर्दिक् पहाड़ियों से घिरा हुआ था । बुद्धकाल में यह भारत का प्रसिद्ध नगर था ।

इसकी स्थापना का श्रेय मगध के प्रथम ऐतिहासिक शासक विम्बिसार को दिया जाता है । पाली साहित्य में राजगृह की परिधि तीन मील बताई गयी है । बौद्ध धर्म का यह प्रमुख केन्द्र था । महात्मा बुद्ध ने स्वयं कई बार इस स्थान पर जाकर निवास किया तथा अपने धर्मोंपदेश दिये थे । यहाँ उनके बहुसंख्यक अनुयायी थे । यहाँ स्तूप एवं बिहार भी चने थे । हुएनसांग ने यहाँ के एक स्तुप का विवरण दिया है ।

नगर के उत्तर में ‘गृद्धकूट’ नामक प्रसिद्ध पहाड़ी थी जहाँ बुद्ध निवास करते थे । बौद्धधर्म का केंद्र होने के साथ-साथ राजगृह एक व्यापारिक केन्द्र भी था । यहाँ से होकर अनेक व्यापारिक मार्ग गुजरते थे । श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर आदि के साथ राजगृह का व्यापारिक सम्बन्ध था । मगध राजाओं की राजधानी पाटलिपुत्र बन जाने के बाद राजगृह का महत्व समाप्त हो गया । गुप्तकाल तक यह नगर वीरान हो चुका था ।

19. मान्यखेत:

कर्नाटक राज्य के गुलबर्गा जिले में सीमा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित यह स्थान राष्ट्रकूट वंश (8वीं-10वीं शती) की प्रसिद्ध राजधानी था । यहाँ से दुर्ग, भवन, मन्दिर, मूर्तियों आदि के अवशेष मिलते है जो नगर के प्राचीन गौरव की स्मृति बनाये हुए है ।

अमोघवर्ष के शासन में यहाँ जैन धर्म एवं संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ जिनसेन, महेन्द्र, गुणभद्र, पुष्पदत्त जैसे प्रसिद्ध विद्वान् निवास करते थे । यह नगर अपने भव्य भवनों, महलों, व्यस्त बाजारों, उपवनों आदि के लिये प्रख्यात था । यहाँ से एक सुन्दर मण्डप के भी अवशेष मिलते है । 10वीं शती के मध्य में परमार शासक सीयक ने इस नगर को लूटने के बाद ध्वस्त कर दिया ।

20. भूमरा:

मध्य प्रदेश के सतना जिले की भूतपूर्व नागौद रियासत में स्थित भूमरा नामक स्थान से 1920 ई. में एक गुप्तयुगीन मन्दिर प्राप्त हुआ जिसे प्रकाश में लाने का श्रेय आर. डी. बनर्जी को है । यह 35’x35′ के आकार में बना है । इसकी छत चपटी है तथा इसमें शिखर नहीं है । इसका निर्माण लाल वलुए पत्थर से हुआ है ।

छत लम्बे सपाट पत्थरों से ढँकी हुई है इसकी छत तथा दीवारों पर सूक्ष्म नक्काशी मिलती है । गुप्त मन्दिरों की सभी विशेषतायें इसमें मिलती है । भूमरा से परिव्राजक महाराज हस्तिन् तथा उच्चकल्प महाराज सर्वनाग से सम्बन्धित एक लेख भी मिलता है । इसमें अम्बलोद ग्राम में इन शासकों के राज्यों की सीमा पर स्तम्भ निर्मित करने का उल्लेख है । लगता है अम्बलोद, भूमरा का कोई नाम था ।

21. बैराट (भाब्रू):

राजस्थान की राजधानी जयपुर से 41 मील उत्तर की ओर बैराट या भाब्रू नामक स्थान है । यहाँ से मौर्य शासक अशोक का एक लघु शिलालेख मिलता है । इसमें अशोक स्पष्ट शब्दों में बौद्ध त्रिरत्नों-बुद्ध, धर्म तथा सच्च के प्रति आदर प्रकट करता है ।

इस लेख का स्वरूप साम्प्रदायिक है और इसके आधार पर यह निश्चित होता है कि अशोक मूलत बौद्ध ही था । महाभारत कालीन स्थल विराट नगर इसी स्थान के समीप बसा हुआ था । बुद्धकाल में यहाँ मत्स्य महाजनपद की राजधानी थी ।

22. पट्टडकल:

कर्नाटक प्रान्त के बीजापुर जिले में मालप्रभा नदी के तट पर यह स्थान बसा हुआ है । 992 ई. के एक लेख से ज्ञात होता है कि यहाँ चालुक्य वंशी राजाओं की राजधानी थी जहाँ वे अपना अभिषेक कराते थे । पट्टडकल को चालुक्य वास्तु एवं तक्षण कला का प्रमुख केन्द्र माना जाता है । यहाँ से दस मन्दिर मिले है जिनमें चार उत्तरी तथा छ दक्षिणी शैली में निर्मित हैं ।

पाप-नाथ का मन्दिर, विरुपाक्ष मन्दिर तथा संगमेश्वर के मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । विरुपाक्ष का मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर तथा आकर्षक है । इसका निर्माण विक्रमादित्य द्वितीय की रानी ने 740 ई. में करवाया था । मन्दिर के सामने नन्दिमण्डप, चारों ओर वेदिका तथा एक तोरणद्वार बना है ।

बाहरी दीवार में बने साखी में शिव, नाग आदि की मूर्तियाँ रखी है तथा रामायण के दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया है । पटटडकल के सभी मन्दिरों में स्तूप के आकार के शिखर लगे है तथा उनमें कई तल्ले हैं । प्रत्येक तल्ले में मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । मन्दिर पूर्णतया पाषाण-निर्मित है । यहाँ के मन्दिर उत्तरी और दक्षिणी भारत की वास्तुकला के बीच की कड़ी है ।

23. पुष्कलावती:

इस स्थान की पहचान पेशावर (पाकिस्तान) से 17 मील उत्तर-पूर्व में स्थित ‘चारसड्‌डा’ नामक स्थान से की जाती है । यह गन्धार राज्य के पश्चिमी भाग की राजधानी थी । रामायण के अनुसार यह नगर भरत के पुत्र पुष्कल के नाम पर बसाया गया था । सिकन्दर के आक्रमण के समय यह एक स्वतंत्र राज्य था जहाँ का राजा अस्टक (हस्ति) था ।

उसने यूनानी सेना का प्रबल प्रतिरोध किया और अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिये लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ । पुष्कलावती धर्म और कला का प्रमुख केन्द्र था । अशोक ने यहाँ एक स्तुप बनवाया था । कुषाण काल में गन्धार कला के अन्तर्गत यहाँ कई सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ ।

नगर के पश्चिमी द्वार पर शिव का विशाल मन्दिर था । हुएनसांग ने पुष्कलावती को बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र बताया है । यहाँ अनेक विहार थे तथा भिक्षु निवास करते थे । यहाँ के खण्डहरों में आज भी नगर के प्राचीन गौरव की स्मृति सुरक्षित है ।

24. पुष्करतीर्थ:

राजस्थान प्रान्त के अजमेर जिले में यह प्राचीन तीर्थ स्थित है । रामायण, महाभारत तथा पुराणों थे इसकी महिमा का विवरण मिलता है । रामायण से पता चलता हैं- कियर विश्वामित्र की तपोभूमि था । महाभारत वे इसे महान् तीर्थ बताया गया है (पितामहसर: पुण्यं पुष्करं नाम) । विष्णुपुराण भी इसके महात्म्य का वर्णन करता है ।

पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के लिये यहां यज्ञ किया था। यहाँ ब्रह्मा का मन्दिर है । इसके द्वार पर हंस की मूर्ति खुदी हुई है जो ब्रह्मा का वाहन है । सावित्री का मन्दिर भी निकट की पहाड़ी से मिलता है ।

यहाँ एक पवित्र सरोवर भी है जिसके विषय थे अनेक अलौकिक कथायें प्रचलित हैं । पक्के घाट बने हुए हैं । पुष्करु से ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के आहत सिक्के तथा हिन्द-यवन राजाओं के सिक्के भी मिलते हैं । कुछ समय तक यह स्थान बौद्ध धर्म का भी केन्द्र रहा ।

25. देवगढ़:

उत्तर प्रदेश के ललितपुर (प्राचीन झाँसी) जिले में जाखलीन रेलवे स्टेशन के निकट यह स्थान स्थित है । यहाँ से गुप्त काल में बना हुआ भगवान विष्णु का प्रसिद्ध मन्दिर, जिसे दशावतार मन्दिर कहा जाता है, मिलता है । इसकी गणना भारत के सर्वश्रेष्ठ मन्दिरों में की जाती है । मन्दिर इस समय खण्डित अवस्था में है किन्तु इससे ज्ञात होता है कि गुप्त युग में यह अत्यन्त भव्य एवं सुन्दर रहा होगा ।

मन्दिर का निर्माण ऊँचे तथा चौड़े चबूतरे पर हुआ है । इसके गर्भगृह का प्रवेश-द्वार अत्यन्त कलापूर्ण है जिसे द्वारपालों, नदी-देवताओं आदि की मूर्तियों से सजाया गया है । उष्णीश के मध्य भाग में चतुर्मुखी विष्णु को आसीन दिखाया गया है ।

दीवारों पर शेषशायी विष्णु, नर-नारायण, गजेन्द्रमोक्ष आदि के सुन्दर दृश्य खुदे हुए है । राम एवं कृष्ण की विविध लीलाओं का प्रदर्शन भी मिलता है । इस मन्दिर में मूलतः एक शिखर बना था जो अब नष्ट हो गया है । इसके पूर्व के मन्दिरों में शिखरों का अभाव है । इस मन्दिर को गुप्त-वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है ।

देवगढ़ पहाड़ी पर गुप्त काल से लेकर पूर्व मध्य युग तक अनेक मन्दिरों तथा मूर्तियों का निर्माण हुआ । जैन वास्तु तथा तक्षण की दृष्टि से भी यह स्थान महत्वपूर्ण है । यहाँ एक दुर्ग के विशाल घेरे में 31 जैन मन्दिर मिलते है । विष्णु मन्दिर के अतिरिक्त यहाँ के कुछ अन्य प्रमुख मन्दिर गोमटेश्वर, भरत, चक्रेश्वरी, पद्‌मावती, ज्वालामालिनी, पंच परमेष्ठी आदि है । इनमें अनेक हिम तथा जैन मूर्तियों मिलती है ।

26. नागार्जुनीकोण्डएल:

आन्ध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से 100 मील दक्षिण-पूर्व की दिशा में (वर्तमान गुन्टूर जिले में) यह स्थल स्थित है । परम्परा के अनुसार बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन से सम्बन्धित होने के कारण इसका यह नाम पड़ गया । महाभारत में इसका प्रारम्भिक नाम श्रीपर्वत मिलता है । सातवाहनों के राज्य में यह स्थान था । सातवाहन नरेश हाल ने श्रीपर्वत पर नागार्जुन के लिये एक विहार बनवाया था । यहाँ वे जीवन-पर्यन्त रहे जिससे यह स्थान नागार्जुनीकोंड नाम से प्रसिद्ध हो गया ।

सातवाहनों के पश्चात् इस क्षेत्र में ईक्ष्वाकु वंश का शासन स्थापित हुआ । उनके समय में आन्ध्र की राजधानी अमरावती से हटकर नागार्जुनीकोंड में आई तथा इसे ‘विजयपूरी’ कहा गया । ईक्ष्वाकु राजाओं ने यहाँ वौद्ध स्तुप तथा विहारों का निर्माण करवाया था नागार्जुनीकोंड का पता 1926 ई॰ में लगा । 1927 से 1959 के बीच यहाँ कई बार खुदाइयाँ की गयी जिससे अवशेष प्राप्त हुए ।

एक महास्तूप तथा कई अन्य स्तूपों के अवशेष मिलते हैं । कई ब्राह्मी लेख भी प्रकाश में आये । महास्तूप गोलाकार था । इसका व्यास 106′ तथा ऊँचाई 80′ के लगभग थी । भूमितल पर 13′ चौड़ा प्रदक्षिणापथ था जिसके चतुर्दिक वेदिका थी । युद्ध का एक दन्तावशेष धातु-मंजूषा में सुरक्षित मिला है ।

महास्तूप के अतिरिक्त कई छोटे स्तूपों के अवशेष भी यही से मिले है। सबसे छोटा स्तूप 20′ के व्यास का है । लेखों से पता चलता है कि ईक्ष्वाकू राजाओं की रानियों ने यहाँ कई विहारों का निर्माण करवाया था । यहाँ ‘कुलविहार’ तथा ‘सहलाविहार’ नामक दो विहार बने थे । यहाँ से एक ‘मल्लशाला’ का अवशेष भी मिला है जो 309’x356′ के आकार में थी ।

इसे पक्की ईटों से बनाया गया था । इसके पश्चिम ओर एक मण्डप था । चारों ओर दर्शकों के बैठने के लिये स्थान था । नागार्जुनीकोंड के अवशेषों को देखने से स्पष्ट होता है कि यह महायान बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध केन्द्र था ।

27. जखेडा:

उत्तर प्रदेश के एटा जिले में कालिन्दी नदी के वायें तट पर अतरंजीखेड़ा से सोलह किलोमीटर की दूरी पर यह पुरास्थल स्थित है । स्थानीय लोग इसे ‘कुसक’ कहते है । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की ओर से के. एन. निजामी की देख-रेख तथा एम. डी. साही के निर्देशन में यहां खुदाई की गयी थी ।

इसके दो उद्देश्य थे:

1. काले-लाल तथा चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड, जो यहाँ की सतह पर बहुतायत में मिले है, के स्तर विन्यास संबंध का निर्धारण ।

2. चित्रित धूसर संस्कृति के लोगों की बस्ती के सही स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना।

खुदाई के परिणामस्वरूप बिना किसी व्यवधान के तीन क्रमिक एवं अविच्छिन्न सांस्कृतिक काल प्रकाश में आये है जिनका विवरण इस प्रकार है:

(i) प्रथम काल:

इसमें सादे काले एवं लाल-काले पुते तथा अपरिष्कृत मृद्‌भाण्ड मिले हैं । कुछ चमकीले धूसर भाण्ड भी है । मिट्टी की फर्श पर जलाने के निशान मिलते है । लोग बांस तथा नरकुल की सहायते से घर बनाते थे । मिट्टी के ढेलों पर इनकी छाप मिलती है ।

इस स्तर की अन्य पुरानिधियां हैं- मृदभाण्डों के छल्ले, गोमेद के कोड, जैस्पर के नालीदार मनके, अस्थियों के दो नोंक वाले बाणाग्र जिन पर अंगूठी के चिह्न बने है, खोखले नोंक आदि । मृद्‌भाण्डों की अतरंजीखेड़ा के द्वितीय स्तर के भाण्डों से समानता दिखाई देती ।

(ii) द्वितीय काल:

यह दो स्तरों में विभाजित है- ए तथा बी ।

‘ए’ स्तर काले-लाल से चित्रित धूसर संस्कृति में संक्रमण को द्योतित करता है । वर्तनी की लाल सतह पर काले रंग में चित्रकारी की गयी है । चित्रित धूसर भाण्डों के कुछ ठीकरे भी मिले हैं । कुछ पर सूक्ष्म एवं चमकीली चित्रकारी है । आंशिक रूप से खुली हुई फर्शो से ऐसा आभास मिलता है कि टट्टर तथा गारे से वर्गाकार मकान बनाये जाते थे ।

प्रमुख पुरानिधियां है- तांबे के चूड़ी का एक टुकड़ा, पत्थर की गोलियां, मिट्टी के मनके तथा गोलियां, दो कंघे, हड्डी के बाणाग्र एवं नोकें, मृद्‌भाण्डों के छल्ले आदि । मिट्टी की बनी तीन ज्यामितीय वस्तुयें प्रमुख हैं- दो पर तिकोने वृत्ताकार कर्ण बने है तथा तीसरी वर्गाकार है जिस पर एक ओर वृत्त है ।

‘बी’ स्तर से बड़ी संख्या में चित्रित धूसर भाण्ड मिलते है । साध-साथ काले-लाल, काले पुते, खुरदुरे तथा पुते लाल भाण्ड भी मिलते है । सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मिट्टी का बांध है जिसका आधार 480 मीटर एवं ऊंचाई 80 सेमी है । मिट्टी की अधखुली फर्शो तथा स्तम्भगर्तों से पता चलता है कि मकान वृत्ताकार एवं आयताकार बनाये जाते थे ।

लोग ईंटों के प्रयोग से परिचित थे किन्तु केवल कर्मकाण्डों में वेदी आदि बनाने के लिये ही इनका प्रयोग होता था । इस काल की अन्य पुरानिधियां है- ताम्र वस्तुयें विशेषकर चूडियों, लोहे की कुदाल, हंसिया, फाल, राड, भाले तथा वाणाग्र, हड्डी के उपकरण, मिट्टी के मनके, चक्र, जाल-निमज्जक, गेंद, लटकन तथा पहिए, सेलखड़ी, कार्नीलियन एवं गोमेद के मनके तथा मूसल, ओखली तथा चक्की के टुकड़े आदि ।

(iii) तृतीय काल:

यह उत्तरी काली मार्जित पात्र परम्परा (एन. वी. पी.) के प्रयोग का काल है । मृद्‌भाण्डों की चित्रकारियों में -सजावट दिखाई देती है । अन्य पुरावशेष हैं- मिट्टी के चक्र, गेंद मनके, जम्बुमणि, चक्की तथा मूसल, लौह निर्मित साकेट, वाणाग्र, ताँबे की अंजन शलाकायें आदि । अस्थि-निर्मित वाणाग्र, नोंक तथा अन्य उपकरणों से पता चलता है कि अस्थि उद्योग अत्यन्त विकसित अवस्था में था ।

इस प्रकार जखेड़ा चित्रित धूसर मृद्‌भाण्डकालीन प्रमुख स्थल है । लौह-निर्मित फाल की प्राप्ति से सूचित होता है कि प्रथम सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य भाग तक भूमि जुताई के लिये लोहे के फालों का प्रयोग किया जाने लगा था । इससे उत्पादन में वृद्धि हुई तथा स्थायी जीवनयापन संभव हो सका । बांध, परिखा, चौड़ी सड़क के अवशेष समृद्ध जीवन की ओर सकेत करते है ।

28. द्वारका:

गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र क्षेत्र में पश्चिमी समुद्रतट के समीप द्वीप पर स्थित द्वारका भगवान कृष्ण की राजधानी थी। महाभारत से पता चलता है कि कृष्ण ने जरासंध आक्रमण से बचने के लिये मथुरा को छोड़कर समुद्र के बीच द्वारका में अपनी राजधानी बसाई थी । इसे विश्वकर्मा द्वारा निर्मित कहा गया है । महाभारत में इस नगर का विस्तृत विवरण मिलता है ।

हरिवंशपुराण एवं प्रायुक्त शिशुपालवध में भी इसकी रमणीयता का वर्णन है । ‘यहाँ के भवन सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान तथा मेरु पर्वत के समान ऊँचे थे । नगर के चारों ओर चौड़ी खाइयों थीं । इसके उत्तर दिशा में रैवतक पर्वत उसके आभूषण की भाँति शोभायमान था ।’

कृष्ण के साथ सम्बद्ध होने से द्वारका का धार्मिक महत्व अत्यधिक था । इसकी गणना सात मोक्षदायिका पुरियों में की गयी है । पुराणों में इसके माहात्म्य का वर्णन मिलता है । गरुड़ पुराण में कहा गया है कि यहाँ वास करने से मनुष्य आध्यात्मिक सुखी की प्राप्ति करता है । (द्वारका च पुरीरम्या भुक्ति मुक्ति प्रदायिका) ।

स्कन्दपुराण के अनुसार यहाँ रहने वाले को सैकड़ों राजसूय यज्ञों का फल मिलता है- अश्वमेध सहस्त्र तु राजसूयशतं कलौ । पदे पदे च लभते द्वारकां गच्छतो नर:॥

29. दशपुर (मन्दसोर):

मध्यप्रदेश का वर्तमान मन्दसोर जनपद ही प्राचीन दशपुर था । यह पश्चिमी मालवा का प्रमुख नगर था । यह गुप्त काल में अत्यन्त प्रसिद्ध था । यह कुमारगुप्त प्रथम के समय में पश्चिमी मालवा का एक भुक्ति था जिसका अधिष्ठान दशपुर नगर में ही था । बन्धुवर्मा यहाँ का राज्यपाल था । यहाँ से कुमारगुप्त के शासन-काल का एक लेख (473 ई.) में मिला है ।

यह प्रशस्ति के रूप में है जिससे इस क्षेत्र की सामजिक, धार्मिक एवं आर्थिक अवस्था का गान होता है । दशपुर नगर के सौन्दर्य का चित्रण मन्दसोर प्रशस्ति में हुआ है । यहाँ ऊँची अट्ठालिकायें, कूप, सरोवर आदि विद्यामान थे । यह भी ज्ञात होता है कि यह एक प्रसिद्ध व्यावसायिक नगर भी था । बुनकरों की एक श्रेणी (तंतुवाय श्रेणी) ने अपने मूलस्थान लाट को छोड़कर यहाँ अपना आवास बनाया था ।

वे रेशमी वस्त्र बुनने में चतुर थे, साथ ही अन्य शिल्पों के भी ज्ञाता थे । उनके आगमन से इस नगर की समृद्धि और अधिक बढ़ गयी । यहाँ अनेक मन्दिर थे जिनमें सूर्य का मन्दिर प्रसिद्ध था । तन्तुवाय श्रेणी ने ही इसका निर्माण करवाया था । मन्दिर में चौड़े एवं ऊँचे शिखर थे ।

बाद में जब इस मन्दिर का एक भाग नष्ट हो गया तो इसी श्रेणी ने धन देकर इसका जीर्णोद्धार करवाया था । गुप्त काल के बाद मालवा के पराक्रमी शासक यशोधर्मन् ने यहाँ शासन किया । उसका भी एक लेख यहाँ से मिला है जिससे पता चलता है कि उसने हूण नरेश मिहिरकुल को पराजित किया था ।

30. तिगवाँ:

मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित तिगवाँ गुप्तकाल में कला और धर्म का केन्द्र था । यहाँ से हिन्दू तथा जैन मन्दिरों के उदाहरण मिलते है । यहाँ का विष्णु मन्दिर उल्लेखनीय है । मन्दिर पाषाण-निर्मित है तथा इसकी छत चपटी है । मन्दिर के द्वार पर लगे चौखटे पर गंगा और यमुना की मूर्तियां खोदी गयी है जो गुप्त कला की अपनी विशेषता है ।

गर्भगृह में नृसिंह भगवान की प्रतिमा है । मण्डप की दीवार में दशभुजी दुर्गा का मूर्ति खुदी है । उसके नीचे शेषनाग पर विश्राम करते हुए विष्णु की मूर्ति है । उनकी नाभि से कमलासन पर विराजमान उड़ा निकल रहे हैं । विष्णु मन्दिर के अतिरिक्त तिगवाँ के खण्डहरों से कुछ जैन मूर्तियाँ भी मिली है ।

31. जूनागढ:

गुजरात प्रान्त में स्थित जनपद जिसका उल्लेख गिरिनार अधवा गिरनगर के रूप में भी मिलता है ।

32. कर्तृपुर:

गुप्तों के समय में गुप्त साम्राज्य के उत्तरी-पश्चिमी प्रान्त पर स्थित कर्तृपुर एक महत्वपूर्ण राज्य था । इसकी पहचान पंजाब के जालंधर जिले में स्थित कर्त्तारपुर नामक स्थान से की जाती है । कुछ विद्वानों का विचार है कि इस राज्य में कुमायुँ गढ़वाल तथा रुहेलखण्ड का कुछ भाग भी शामिल था । समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख में प्रत्यन्त राज्यों की सूची में कर्तृपुर का उल्लेख हुआ है जिससे पता चलता है कि इसे उसने अपनी अधीनता में कर लिया था । यहाँ के शासक के विषय में हमें ज्ञात नहीं है ।

33. कान्यकुब्ज (कन्नौज):

उतर प्रदेश के फर्रुखाबाद जनपद में स्थित कान्यकुब्ज अथवा कन्नौज नामक स्थान प्राचीन भारत का एक अति प्रसिद्ध नगर था । पुराणों के अनुसार इस नगर की स्थापना पुरुरवा के कनिष्ठ पुत्र अमावसु के द्वारा की गयी थी । इसका एक नाम ‘महोदय’ भी मिलता है । महाभारत में कान्यकुब्ज को विश्वामित्र के पिता गाधि की राजधानी कहा गया है ।

दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक कन्नौज का उल्लेख कई गुच्छों में मिलता है । यूनानी लेखक भी इस नगर से परिचित थे । चीनी यात्री फाहियान लिखता है कि यहाँ दो बौद्ध विहार तथा एक स्तूप थे । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तकाल तक यह कोई महत्वपूर्ण नगर नहीं था ।

कन्नौज की महत्ता सातवीं शताब्दी ईस्वी से बड़ी । पहले यह मौखरिवंश की राजधानी थी तथा फिर हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित कर लेने के बाद कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया । इस समय से कन्नौज ने पाटलिपुत्र का स्थान ग्रहण कर लिया तथा यह महत्वपूर्ण राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया । हर्षचरित में कन्नौज को कुशस्थल भी कहा गया है ।

हर्ष के समय में इस नगर की महती उन्नति हुई तथा यह भारत का विशाल एवं समृद्धिशाली नगर बन गया । चीनी पात्री हुएनसांग इस नगर के ऐश्वर्य का वर्णन करता है । यहाँ कई बौद्ध विहार तथा मन्दिर थे । यह पाँच मील लम्बा तथा डेढ़ मील चौड़ा था ।

यहाँ शिव और सूर्य के प्रसिद्ध मन्दिर थे । महाराज हर्ष ने कन्नौज में सभी धर्मों की विशाल सभा का आयोजन करवाया । इसकी अध्यक्षता हुएनसांग ने को तथा इसकी समाप्ति के बाद महायान बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया ।

हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज पर अधिकार करने के लिये तत्कालीन भारत की तीन प्रमुख शक्तियों-गुर्जर-प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट-में त्रिकोणात्मक संघर्ष छिड़ा जिसमें अन्ततोगत्वा प्रतिहारों की विजय हुई । प्रतिहार शासन में कन्नौज पुन: एक विशाल साम्राज्य की राजधानी बन गया । इस समय यहां अनेक हिन्दू मन्दिरों का निर्माण करवाया गया ।

इसके अवशेष आज भी कन्नौज तथा उसके आस-पास से मिलते है । प्रतिहार शासन के पश्चात् कन्नौज का गौरव व महत्व भी समाप्त हो गया और महमूद गजनवी के आक्रमण के समय यही भारी लूट-पाट की गयी । फलस्वरूप यह नगर उजाड़ हो गया ।

तत्पश्चात गहड़वाल वंश के शासक चन्द्रदेव ने 1085 ई. में पुन कन्नौज में एक सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया । इस वंश के शक्तिशाली राजा गोविन्द चन्द के समय में इस नगर के वैभव का उद्धार हुआ । जयचन्द्र इस वंश का अन्तिम राजा हुआ जिसे हटाकर मुहम्मद गोरी (1163 ई.) ने वहाँ अपना अधिकार जमा लिया ।

34. जोगलथम्बी:

महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिले में यह स्थित है । यहाँ से ६महरात शासक नहपान के सिक्कों का एक बड़ा ढेर प्राप्त हुआ है । इसमें लगभग 13250 सिक्के हैं । इनमें दो-तिहाई से भी अधिक सिक्के ऐसे है जो सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा पुन अंकित कराये गये हैं ।

इससे निष्कर्ष निकलता है कि गौतमीपुत्र ने नहपान को पराजित किया था । जोगलथम्बी में उसका राजकीय कोषागार स्थित था । गौतमीपुत्र ने उसके ऊपर अपना अधिकार जमा लिया । नासिक लेख से भी इसका समर्थन होता है ।

35. उज्जयिनी:

प्राचीन मालवा क्षेत्र में स्थित अवन्ति राज्य की यह राजधानी थी जिसकी पहचान वर्तमान मध्यप्रदेश के उज्जैन नामक नगर से की जाती है । संस्कृत साहित्य में इस नगर के कुछ अन्य नाम विशाला, भोगवती, हिरण्यवती, पद्‌मावती आदि भी मिलते है । (द्रष्टव्य-अवन्ति)

36. अहिच्छत्र:

इसकी पहचान बरेली स्थित वर्तमान रामनगर नामक स्थान से की जाती है । यह उत्तरी पन्चाल की राजधानी थी । महाभारत तथा पूर्व बौद्ध काल में यहां प्रसिद्ध नगर था । महाभारत से पता चलता है कि द्रोण ने पान्चाल नरेश द्रुपद को हराकर अहिच्छत्र को अपने अधिकार में कर लिया था ।

अशोक ने यहां एक स्तूप बनवाया था । उत्खनन से पना चलता है कि लगभग 300 ई.पू. में यहां बड़ी आवादी थी तथा भवन कच्ची ईंटों के बने थे । कुषाण काल (लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू.) में इसे पकी ईंटों की दीवार से घेर दिया गया । दीवार की लम्बाई 3.5 किलोमीटर है ।

इसी समय के ‘मित्र’ राजाओं के सिक्के यहां से मिलते है। कुषाण काल से भवन पक्की ईंटों के बनने लगे । इन्हें पंक्तिवद्ध रूप से बनाया जाता था । कुषाणकालीन अवशेष कटोरे, सुराहीनुमा, हजारे, दावात आदि हैं । लोहे तथा तांबे के उपकरण तथा कुषाण पंचाल एवं अच्यु नामांकित सिद्वे भी मिलते है । एक गुप्तकालीन मुहर पर ‘अहिच्छत्र मुक्ति’ अंकित है ।

प्रयाग लेख में अच्युत नामक जिस शासक का उल्लेख मिलता है उसे यहीं का राजा माना जाता है । चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड मिलते है । यह एक लौहकालीन स्थल है । कुषाणकाल से आरम्भिक गुप्तकाल तक अहिच्छत्र एक समृद्ध नगर था । बाद के अवशेष नगर के पतन की सूचना देते है ।

37. कपिशा:

कपिशा अथवा कपिशी नामक नगर आधुनिक अफगानिस्तान के घोरबन्द तथा पंजषिर नदियों क संगम पर वसा हुआ था । इसका एक नाम काफिरिस्तान भी मिलता है । पूर्व मौर्य युग में यह पश्चिमोत्तर भारत का एक प्रमुख नगर था ।

रोमन लेखक प्लिनी हमें बताता है कि हखामनी आक्रान्ता साइरस महान् ने अपने भारतीय अभियान के दौरान कपिशा नामक नगर को ध्वस्त कर दिया था । लगता है शक-कुषाण काल में इस नगर का पुनरुद्धार हुआ । यह हिन्दूकुश रो लेकर काबुल तक के विस्तृत प्रदेश की राजधानी बना । कनिष्क यहीं ग्रीष्मकाल में निवास करता था ।

38. आबू (पर्वत):

राजस्थान प्रान्त में यह पर्वतीय नगर स्थित है । यह स्थान जैन मन्दिरों एवं मूर्तियों के लिये जगत्प्रसिद्ध है । यहाँ दो प्रसिद्ध संगमरमर के मन्दिर है जिन्हें दिलवाड़ा मन्दिर कहा जाता है । इनका निर्माण गुजरात के चौलुक्य (सौलंकी) शासक भीमदेव प्रथम के सावन्त विमल ने करवाया था ।

प्रथम मन्दिर में आदिनाथ की मूर्ति है जिनकी आंखें हीरे की बनी है । प्रवेशद्वार पर छ: स्तम्भ तथा दस गज-प्रतिमायें है । मन्दिर के गर्भगृह में ध्यानावस्थित जिन की प्रतिमा है । सम्पूर्ण मन्दिर एक विशाल प्रांगण से घिरा है जो 128′ x 75′ के आकार का है । यह मन्दिर अपनी वारीक नक्काशी एवं अद्‌भुत मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध है ।

पाषाण की शिल्पकला का इतना उत्कृष्ट उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता । दूसरा मन्दिर जो तेजपाल कहा जाता है, इसी के पास स्थित है । यह भी अत्यन्त भव्य एवं सुन्दर है । पहाड़ी पर तीन अन्य जैन मन्दिर भी चने हुए है । रम प्रकार आबू पर्वत जैन वास्तु एवं तक्षण कला का सर्वोकृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है ।

39. उदयगिरि:

(1) मध्यप्रदेश के विदिशा (बेसनगर) के समीप उदयगिरि नामक पहाड़ी स्थित है जहां बीस गुफाओं को काटकर मूर्तियाँ बनाई गयी है । ये हिन्दू तथा जैन सम्प्रदायों से सम्बन्धित है । इनमें अधिकतर मूर्तियों गुप्तकाल की है । गुफा संख्या चार में शिवलिंग की प्रतिमा तथा पांच में विष्णु के वाराह अवतार की झाँकी सुरक्षित है । एक अन्य गुफा से कुमारगुप्त प्रथम का एक लेख (गुप्त संवत् 106=425 ई.) मिला है । इससे पता चलता है कि शंकर नामक व्यक्ति ने जैन तीर्थट्टर पार्श्वनाथ की मूर्ति का निर्माण करवाया था ।

(2) उड़ीसा की राजधानी के समीप भी उदयगिरि नामक एक पहाड़ी है जहाँ से कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल का लेख मिलता । यहाँ खारवेल ने जैन भिक्षुओं के निवास के लिये विहार बनवाये थे । उदयगिरि की मंचपुरी गुफा से रिलीफ स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं ।

40. गिरिव्रज:

बिहार की राजधानी पटना के समीप राजगृह अथवा गिरिवज प्राचीन समय में मगध राज्य की राजधानी थी । पुराणों से पता चलता है कि प्रद्योत ने यहाँ मगध की राजधानी बसाई थी । महाभारत काल में जरासंध नामक राजा की यहाँ राजधानी थी । बताया गया है कि जरासंध ने सभी राजाओं को जीतकर गिरिव्रज में बन्दी बना लिया था ।

मगध नरेशों बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के समय में राजधानी राजगृह नामक स्थान में थी । महाभारत काल में राजगृह एक तीर्थ माना जाता था । इस स्थान का सम्बन्ध महावीर तथा बुद्ध से भी रहा । कल्पसूत्र से पता चलता है कि महावीर ने यहाँ 14 वर्षावास किये थे । बुद्ध ने भी यहाँ निवास किया था । चीनी यात्री हुएनसांग ने भी राजगृह की यात्रा की थी ।

वह यहाँ के बौद्ध स्थानों का वर्णन करता है । जेनग्रन्थ विविधतीर्थकल्प के अनुसार राजगृह नगर पाँच पहाड़ियों के बीच बसा हुआ था- विपुलगिरि, रत्नगिरि, उदयगिरि, सोनगिरि तथा वैभारगिरि । रत्नगिरि में युद्ध का प्रिय निवास था जो ‘गृद्धकूट’ नाम से प्रसिद्ध था ।

राजगृह नगर के चारों ओर पत्थर की सुदृढ़ प्राचीरें बनाई गयी थीं । यहां का कुशल शिल्पी महागोविन्द था जिसने यहाँ के नगर निर्माण की योजना बनाई थी । यहाँ का सर्वप्रमुख स्थल ‘सप्तपर्णीगुफा’ है जहाँ प्रथम बौद्ध सगीति का आयोजन हुआ था ।

41. ओदन्तपुरी:

विहार प्रान्त के पटना जिले में यह स्थान स्थित है । यहाँ एक बौद्ध विहार तथा महाविद्यालय था जिसकी स्थापना पालवंश के राजा गोपाल (730-740) ने करवाई थी । परवर्ती शासकों द्वारा सहायता और संरक्षण प्राप्त कर इसकी महती उन्नति हुई तथा यह तत्कालीन भारत का एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र बन गया ।

यही लगभग एक हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे । यहाँ के मुख्य विद्यार्थी दीपकर थे जो कालान्तर में विक्रमशिला विद्यालय के प्रधान आचार्य बन गये । तेरहवीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इस शिक्षण संस्थान को नष्ट कर गिया ।

42. काम्पिल्य:

उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जनपद में यह स्थान स्थित है । इसकी गणना भारत के प्राचीनतम नगरों में होती थी । बुद्ध काल में यह दक्षिण पंचाल जनपद की राजधानी थी । महाभारत में भी इसे दक्षिण पंचाल राज्य की राजधानी बताया गया है । इसका विस्तार गंगा के दक्षिणी तट से लेकर चम्बल तक था । महाभारत के समय यहाँ द्रुपद का राज्य था ।

वर्तमान कीम्पला में एक प्राचीन टीला आज भी ‘द्रुपद कोट’ कहा जाता है । यहाँ एक कुण्ड है जिसकी खुदाई से मौर्यकालीन ईंटें तथा मन्दिरों से कई मूर्तियाँ प्राप्त की गई है । चीनी यात्री हुएनसांग इस नगर की यात्रा पर गया था। वह लिखता हैं कि यहाँ बौद्ध भिक्षु निवास करते थे ।

काम्पिल्य जैन धर्म का भी केन्द्र था जिसका सम्बन्ध जैन तीर्थड्कर विमलनाथ के जीवन की घटनाओं से था ।  अनुश्रुति के अनुसार ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर का जन्म-स्थल काम्पिल्य ही था । इस नगर की महत्ता काशी, उज्जयिनी जैसे प्राचीन नगरों की भाँति ही बताई गयी है ।

43. एलिफैन्टा:

बम्बई से समुद्र में सात मील उत्तर-पूर्व की दूरी पर एलिफैन्टा नामक छोटा-सा द्वाप स्थित है । यहीं दो पहाड़िया है जिनके बीच में एक सँकरी घाटी है । पहले इस स्थान का नाम पुरी था । यहाँ कोंकण के मौर्यो की राजधानी थी । ऐहोल लेख से पता चलता है कि पुलकेशिन् द्वितीय ने इस स्थान को जीता था ।

सोलहवीं शती में बम्बई तट पर बसने वाले पुर्तगालियों ने यहाँ से प्राप्त हाथी की एक विशाल मूर्ति के कारण इस द्वीप का नाम एलिफैन्टा रख दिया । एलिफैन्टा पहाड़ी से पाँच गुफायें प्राप्त होती है जिनका समय पाँचवीं-छठी शताब्दी ईस्वी है । इनमें हिन्दू धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ, विशेषकर शिव मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं ।

इनमें त्रिमूर्ति शिव की प्रतिमा सबसे प्रसिद्ध है जिसमें उन्हें तीन विभिन्न रूपों में दिखाया गया हैं । महायोगी, नटराज, भैरव, अर्धनारीश्वर, कैलाश- धारी, रावण आदि की मूर्तियों भी कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है । एलिफैन्टा की शिल्पकारी अजन्ता और एलौरा के ही समान है । पुर्तगाली शासन में यहाँ के अधिकांश चित्र नष्ट हो गये ।

44. कुण्डलवन:

कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के समीप ही प्राचीन समय में यह स्थान स्थित था । इस स्थान की प्रसिद्धि का एकमात्र कारण इसका बौद्ध धर्म की चौथी तथा अंतिम महासभा (संगीति) से सम्बन्धित होने के कारण है जिसका आयोजन कुषाण शासक कनिष्क के समय में किया गया था । इसके अध्यक्ष वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष थे । इसमें ‘विभाषाशास्त्र’ नामक धर्मग्रंथ का संकलन हुआ । इसी के पश्चात् बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया ।

45. खजुराहो:

मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में यह स्थान स्थित है । प्राचीन काल मैं राव बुंदेलखण्ड का एक प्रमुख नगर था । चन्देल राजपूत शासकों ने इस नगर को विशाल तथा भव्य मन्दिरों से सुसंज्जित करवाया था । उनके द्वारा बनवाये गये तीश मन्दिर आज भी यहाँ विद्यमान हैं । इनका समय सामान्यतः दसवीं-ग्यारहवां शती का है । कुछ मन्दिर इससे पूर्व के हैं ।

मन्दिर, जैन तथा हिन्दू दोनों ही धर्मों से सम्बन्धित है । जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ का मन्दिर सर्वप्रसिद्ध एवं बड़ा है । यह 62’x31′ के आकार का है । मन्दिर की बाहरी दीवारों पर जैन मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ उत्कीर्ण की गयी है । खजुराहो का सबसे श्रेष्ठ मन्दिर ‘कन्डारिया महादेव मन्दिर’ है । यह 109’x60’x116′ के आकार में बना हुआ है ।

मन्दिर वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है । इसका प्रत्येक भाग सुन्दर मूर्तियों से उत्खचित है । कनिंघम की गणना के अनुसार यहाँ केवल दो तथा तीन फुट ऊंचाई वाली मूर्तियों की संख्या ही 872 है । मन्दिर पर उत्तुंग शिखर है । मन्दिर के शिल्पकला की प्रशंसा सभी विद्वानों ने की है ।

कन्डरिया महादेव मन्दिर अपनी विशालता, सुदृढ़ता एवं भव्यता के लिये पूरे देश में प्रसिद्ध है । एक अन्य प्रसिद्ध मन्दिर चौसठ योगिनियों का है जिसका निर्माण संभवतः सातवीं शती में हुआ था । खजुराहों के मन्दिर पर उत्कीर्ण कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हो गयी हैं । इनके ऊपर संभवतः तांत्रिकों का प्रभाव लगता है । कलात्मक दृष्टि से ये उच्चकोटि की हैं ।

समग्ररूप से खजुराहो की वास्तु तथा मूर्ति दोनों ही कलायें अत्यन्त सराहनीय है तथा दर्शकों का मन सहज ही अपनी ओर आकर्षित करती है । खजुराहो के मन्दिरों की दीवारों से चन्देल वंश के दो शासकों गण्ड तथा यशोवर्मा के लेख भी प्राप्त होते है।

46. गंगैकोण्डचोलपुरम्:

तमिलनाडु प्रान्त के त्रिचनापल्ली जिले में स्थित गंगैकोण्डचोलपुरम् प्राचीनकाल में चोल वंश के शक्तिशाली राजा राजेन्द्र (1101-1114 ई.) की राजधानी थी । इसकी स्थापना उसने अपने गंगाघाटी के अभियान की सफलता के उपलक्ष में करवाई थी तथा स्वयं ‘गंगैकोण्ड’ की उपाधि धारण की थी । यहाँ उसने एक भव्य मन्दिर का भी निर्माण करवाया था । यह 340’x10′ के आकार में बना है ।

इसका आठ मंजिला विमान 100 वर्ग फीट के आधार पर बना है तथा 186 फीट ऊँचा है । मन्दिर के भीतर एक विशाल मण्डप है । मन्दिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियों तथा भव्य मूर्तियों मिलती है । मन्दिर के समीप सिंहतीर्थ नामक कूप है । गंगैकोण्डचोलपुरम् का नगर चोल युग में अत्यन्त विकसित एवं समृद्धशाली था ।

47. जौगढ़:

उड़ीसा प्रान्त के गंजाम जिले में यह स्थान स्थित है । यहाँ की एक चट्‌टान के ऊपर अशोक का शिलालेख अंकित है । अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद वहाँ अपना अधिकार कर लिया तथा अपने लेख खुदवाये थे । अन्य लेख धौली से मिलता है । इन लेखों में अशोक द्वारा न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में किये गये सुधारों का विवरण सुरक्षित है । न्यायाधीशों को ‘नगर व्यावहारिक’ कहा जाता था ।

अशोक नगर व्यवहारिकों को आदेश देता है कि वे अकारण किसी व्यक्ति को कैद अथवा शारीरिक यातनायें न दें । वह उन्हें ईर्ष्या, क्रोध, निष्ठुरता, अविवेक, आलस्य आदि दुर्गुणों से मुक्त रहते हुए निष्पक्ष मार्ग का अनुसरण करने का आदेश देता है । वह उन्हें याद दिलाता है कि यदि वे निष्ठापूर्वक अपने कर्त्तव्यों का पालन करते है तो उन्हें स्वर्ग प्राप्त होगा तथा राजा के ऋण से वे मुक्त हो सकेंगे ।

48. नेवासा:

महाराष्ट्र प्रान्त के अहमदनगर जिले में गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा के दक्षिणी किनारे पर यह पुरातात्विक स्थल स्थित है । इसका प्राचीन नाम ‘श्रीनिवास’ मिलता है । 1954-55 ई. में दकन कालेज, पूना के तत्वावधान में इस स्थान की खुदाई करवायी गयी थी ।

यहाँ से तीन हजार वर्ष पुरानी सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं । महाराष्ट्र की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का यह एक प्रमुख स्थल है । इस संस्कृति के अवशेष लडमोद नामक टीले की खुदाई से मिले है । नेवासा की खुदाई के फलस्वरूप यहाँ पाषाण युग से लेकर एतिहासिक युग तक कि विभिन्न संस्कृतियों के साक्ष्य प्राप्त हुए है ।

इसके निर्माता तांबे के साथ-साथ पत्थर के औजारों तथा हथियारों का प्रयोग करते थे । नेवासा से पाषाण-निर्मित ब्लेड, मलेक, स्क्रेपर आदि उपकरण मिलते है जिनका समय पूर्व पाषाण-काल का है । यहाँ से प्राप्त मृद्‌भाण्डों के ऊपर लाल रंग को पालिश मिलती है जिन्हें खूब मथकर तैयार किया गया है ।

का निर्माण चाक पर किया गया है । कुछ बर्तनों में टोंटीयाँ लगी हुई है । बर्तनों में कटोरे, भरे, मटके, तसले, तश्तरी आदि प्राप्त हुई है । कुछ वर्तनों के ऊपर विशेष प्रकार के रेखाचित्र भी मिलते हैं । ताप-निर्मित उपकरणों में चाकू, कुल्हाड़ी, सुई, चूड़ी, मनकों आदि की गणना की जा सकती है । यहाँ से ताम्र- निर्मित मनकों का एक हार प्राप्त हुआ है जिसे एक बाल कंकाल के गले में पहनाया गया है ।

खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर यहाँ के निवासियों की मृतक-संस्कार विधियों का भी पता चलता है । ज्ञात होता है कि यहाँ के लोग मृतकों को मकानों में ही दफनाते थे तथा उनके साथ बर्तन, आभूषण आदि भी रख देते थे ।

यह लोकोत्तर जीवन में उनके विश्वास का सूचक है । ताम्रपाषाणिक संस्कृति का अन्त प्रथम सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में हो गया । इसके बाद लगभग आठ शताब्दियों तक नेवासा का नगर वीरान रहा । ऐतिहासिक काल के आरम्भ में यहाँ पुन बस्ती बसायी गयी ।

इस सांस्कृतिक स्तर से लौह उपकरण, विभिन्न प्रकार के मृद्‌भाण्ड जैसे काले-लाल, काले-चमकीले (N.B.P.) आदि, मातादेवी की मृण्मूर्तियाँ, मणियों के मनके आदि मिले है । इसी स्तर से सातवाहन शासकों की मुद्रायें भी मिलती है ।

ज्ञात होता है कि इस समय मकान ईंटों के बनते थे, जिनकी नींव पत्थर से भरी जाती थी । ऐतिहासिक काल के अन्त में नेवासा से रोमन उत्पत्ति की वस्तुयें भी मिलने लगती है । इन सामग्रियों से भारत तथा रोम के बीच प्राचीन व्यापारिक सम्बन्धों की भी सूचना मिलती है । यहाँ से कुछ चक्रांकित बर्तन मिले हैं । इस प्रकार के बर्तनों का निर्माण रोम में होता था तथा बाद में इन्हें भारत में भी तैयार किया जाने लगा ।

इस प्रकार के पात्रों का उपयोग मुख्यतः मदिरा रखने के लिए किया जाता था जिसे भारत के लोग ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में रोम से आयात करते थे । नेवासा की ऐतिहासिक संस्कृति का अन्त दूसरी शताब्दी ईस्वी में हुआ । इसके शताब्दियों बाद (चौदहवीं शताब्दी में) यहाँ पुन बस्ती बसाई गयी ।

49. भितरी:

गाजीपुर (उ. प्र.) जिले में सैदपुर भीतरी रेलवे स्टेशन से पाँच मील उत्तर-पूर्व में भितरी नामक स्थान से गुप्तकाल के अनेक अवशेष मिले है । इनमें सबसे प्रसिद्ध सम्राट स्कन्दगुप्त का स्तम्भ लेख है । यह स्तम्भ बलुए पत्थर का बना है । इसके शीर्षभाग पर विष्णु की प्रतिमा थी जो अब नहीं है ।

भितरी लेख से स्कन्दगुप्त के शासनकाल की महत्वपूर्ण घटनाओं का ज्ञान होता है । इससे पुष्यामित्रों तथा हूणों के साथ होने वाले भीषण युद्ध का वर्णन मिलता है । अभिलेख के अनुसार उसने भगवान् विष्णु (शार्डिगण) की एक विशाल मूर्ति यहाँ स्थापित करवायी थी ।

यह इच्छा व्यक्त की गयी है कि यह मूर्ति सूर्य और चन्द्र के समान स्थायी रहे । इस मूर्ति के निमित्त उसने एक ग्राम दान में दिया था । लेख तिथिरहित है । इसमें स्कन्दगुप्त के जीवन की प्रारम्भिक अशान्तमय परिस्थितियों का चित्रण है जिससे लगता है कि वह 455 ई. के लगभग उत्कीर्ण करवाया गया होगा ।

50. कोपिया:

उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर जिले में खलीलावाद से 12 किलोमीटर उत्तर में स्थित कोपिया गाँव में पुणे स्थित पुरातात्विक अध्ययन के एशिया के संभवत सबसे बड़े केद्र डेक्कन कॉलेज के सहयोग से डॉ आलोक कुमार कानूनगों के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया जा रहा है । भारत में प्राचीनकाल में कांच उद्योग की वावत यहाँ नवीनतम जानकारी प्राप्त हुई है । खुदाई के दौरान बड़ी मात्रा में मिले कांच के टुकड़े, चूड़ियों के टुकड़े, धातु गलाने वाले पात्र जिसमें शीशा पड़ा था इसका प्रमाण है ।

कांच निर्माण की अति प्राचीन पद्धति के स्पष्ट प्रमाण मिले है, जिसमें एक स्तूपाकार निर्माण के एक सिरे से आग लगाई जाती है और दूसरे सिरे से सिलिका ढाला जाता है । डॉ कानूनगों की माने तो “उत्तर भारत कांच निर्माण के क्षेत्र में ज्यादा विकसित था । ई. पू. 400 से 300 ई. के दौरान कोपिया इसका महत्वपूर्ण केंद्र था । इसके उत्पाद दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में निर्यात होते थे । यहाँ का कांच उद्योग पहली सदी में रोम के कांच उद्योग जितना ही उन्नत था ।”

डॉ कानूनगो के शुरुआती निष्कर्ष इस प्रचलित अवधारणा का खंडन भी करते है कि भारत का प्राचीन कांच उद्योग दक्षिण भारतीय क्षेत्रों, खासकर अरिकामेडु जैसी जगहों पर था जिसके रोम से संपर्क के प्रमाण मिलते है ।

उन्खनन में प्राप्त सिक्कों तथा मिट्टी के बर्तनों पर कुषाण शासक विम कडफिसिस का प्रयुक्त ‘नंदीपद’ (ॐ जैसी आकृति) भी अंकित है । इसके अलावा टेराकोटा और धातुनिर्मित सामग्रियां मिली है तथा दो दर्जन से अधिक शीशे-कांच के मनके भी प्राप्त हुए है ।

51. नालन्दा:

बिहार की राजधानी पटना के निकट राजगृह (राजगीर) से सात मील की दूरी पर आधुनिक बड़गाँव नामक ग्राम से प्राचीन नालन्दा के अवशेष मिलते हैं । यहाँ सातवीं शती जा जगत्प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जिसका वर्णन चीनी यात्रियों- हुएनसांग तथा इत्सिंग- ने विस्तारपूर्वक किया है ।

52. दीदारगंज:

बिहार प्रान्त की राजधानी पटना के पास यह स्थान स्थित है । यहाँ से 1917 ई. में एक यक्षिणी की सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई । यह अपने हाथ में चमर धारण की हुई है । अतः इसे ‘चामरग्राही यक्षिणी’ कहा गया है । यह मौर्यकालीन प्रतिमा है तथा अत्यन्त सुन्दर और स्वाभाविक लगती है ।

शरीर के अंग-प्रत्यंग का अंकन अत्यन्त सजीवता के साथ किया गया है । मूर्ति का ऊपरी भाग वस्त्ररहित है तथा अधोभाग में वह साड़ी पहनी हुई है । गले में मुक्ता की माला है । मूर्ति के ऊपर चमकीली पालिश है । सम्प्रति यह मूर्ति पटना के संग्रहालय में सुरक्षित है ।

53. पद्‌मावती:

मध्य प्रदेश के ग्वालियर के समीप केमार पद्मपवैया नामक स्थान ही प्राचीन काल का पद्‌मावती था । यहीं तृतीय-चतुर्थ शती में नागराजाओं की राजधानी थी। यहाँ के नाग लोग शैव के अनन्य भक्त थे । वे अपने कन्धों पर शिवलिंग वहन करते थे, अतः उन्हें भारशिव नाग कहा गया । समुद्रगुप्त के समय में पद्‌मावती का शासक नागसेन था जिसका उल्लेख प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है। समुद्रगुप्त ने उसका उन्मूलन किया ।

पद्‌मावती से नाग राजाओं के कई सिक्के तथा ईंटों के बने हुए एक विशाल भवन के अवशेष मिलते है । भवन राजप्रासाद प्रतीत होता है । कवि भवभूति ने अपने ग्रन्थ ‘मालतीमाधव’ में पद्‌मावती नगर के सौंदर्य का वर्णन किया है ।

54. भरहुत:

मध्यप्रदेश के सतना जिले में यह स्थान स्थित है । इसकी दूरी सतना से 9 मील दक्षिण की दिशा में है । यहाँ मौर्य सम्राट अशोक ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था । यह ईंटों का बना था । शुंगकाल में उसका विस्तार किया गया तथा उसके चारों ओर पाषाण की वेष्टिनी निर्मित कर दी गयी ।

वेष्टिनी के ऊपर ‘सुगनंरजे….’ उत्कीर्ण है जिससे पता चलता है कि इसका निर्माण शुंगों के राज्यकाल में किया गया था । वेष्टिनी के चारों ओर एक-एक तोरणद्वार बना था । थप तथा वेष्टिनी के मध्य प्रदक्षिणापथ था । वेष्टिनी में कुल 80 स्तम्भ लगाये गये थे । वेष्टिनी, स्तम्भ तथा तोरण पट्‌टों पर खुदी हुई मूर्तियाँ है तथा ये बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं तथा मनोरंजक दृश्यों से युक्त हैं ।

यक्ष, नाग, लक्ष्मी, राजा, सामान्य पुरुष, सैनिक, वृक्ष, बेल आदि उत्कीर्ण हैं । सबसे ऊपर की बड़ेरी पर धर्मचक्र स्थापित था जिसके दोनों ओर त्रिरत्न थे । तोरण वेष्टिनी के ऊपर कुछ ऐतिहासिक दृश्यों का भी अंकन है । एक स्थान पर कोशलराज प्रसेनजित तथा दूसरे पर मगधराज अजातशत्रु को युद्ध की बन्दना करते हुए प्रदर्शित किया गया है ।

1873 ई. में कनिंघम महोदय ने भरहुत स्तूप का पता लगाया था । यह सम्प्रति अपने मूल स्थान से नष्ट हो गया है । इसके अवशेष कलकत्ता तथा प्रयाग के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । इन्हें देखने से लोक-जीवन के विविध अंगों की जानकारी मिलती है ।

55. प्राग्ज्योतिषपुर:

असम के गौहाटी के समीप स्थित इस स्थान में प्राचीन काल के कामरूप राज्य की राजधानी थी । पौराणिक मान्यता के अनुसार यहाँ प्राचीन काल से ब्रह्मा ने उपस्थित होकर नक्षत्रों की रचना की थी, अतः इस स्थान का नाम प्राग्ज्योतिषपुर पड़ गया । महाभारत में यहाँ के शासक नरकासुर का श्रीकृष्ण द्वारा बंध किये जाने का विवरण है ।

कालिदास ने रघुवंश में प्राग्ज्योतिष के शासक के ऊपर रघु की विजय का उल्लेख किया है । यह नगर लौहित्य (ब्रह्मसूत्र) नदी के पार पूर्वीतट पर बसा हुआ था । समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख में कामरूप का उल्लेख मिलता है । गुप्तों के बाद यहाँ वर्मन् वंश का शासन था जिसका प्रसिद्ध शासक भास्करवर्मर हर्ष का मित्र एवं सहायक था ।

हेमचन्द्रकृत ‘अभिधानचिन्तामणि’ में प्राग्ज्योतिष को कामरूप का द्वितीय नाम बताया गया है । वाराहमिहिर ने इसकी गणना पूर्वी देशों के अन्तर्गत की है । कालिकापुराण में इसका दूसरा नाम कामाख्या मिलता है । यहाँ आज भी देवी का सुप्रसिद्ध मन्दिर है ।

56. बंसखेड़ा:

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में यह स्थान स्थित है । 1894 ई. में यही से हर्ष संवत् 22=628 ई. का एक लेख मिला । इस लेख से हर्ष के शासक के विषय में महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती है । इसमें कई प्रदेशों तथा पदाधिकारियों के नाम दिये गये है । लेख के अनुसार अहिच्छत्र प्रदेश के अंगदीया विषय में स्थित मर्कटसार नामक ग्राम को ब्राह्मणों को दान में दिया गया था ।

यह लेख हमें बताता है कि हर्ष के अग्रज राज्यवर्धन ने मालवा के शासक देवगुप्त पर आक्रमण कर उसे मार डाला किन्तु देवगुप्त के मित्र शशांक (गौड़नरेश) ने झूठे शिष्टाचार में फँसाकर राज्यवर्धन की हत्या कर दी । बंसखेड़ा लेख के विवरण की पुष्टि मधुबन (आजमगढ़ जिले में स्थित) के लेख से भी होती है ।

57. महाबलीमुरम् (मामल्लपुरम):

तमिलनाडु में मद्रास से 40 मील की दूरी पर समुद्रतट पर यह नगर स्थित है । सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले पल्लव राजाओं के काल में यहाँ प्रसिद्ध समुद्री बन्दरगाह तथा कला का केन्द्र था । यहाँ मण्डप तथा एकाश्मक मन्दिरों, जिन्हें ‘रथ’ कहा गया है, का निर्माण हुआ ।

ये पल्लव वास्तु एवं स्थापत्य के चरमोत्कर्ष के सूचक हैं । मुख्य पर्वत पर 10 मण्डप बने हैं जिनमें आदिवाराह, महिषमर्दिनी, पंचपाण्डव, रामानुज आदि मण्डप प्रसिद्ध है । इन मण्डपों में दुर्गा, विष्णु, ब्रह्मा, गजलक्ष्मी, हरिहर आदि की कलात्मक प्रतिमायें उत्कीर्ण मिलती है ।

महावलीपुरम् के रथ कठोर चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं तथा मूर्तिकला के सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते है । इन्हें ‘सप्तपगोडा’ कहा जाता है । ये महाभारत के दृश्यों का प्रतिनिधित्व करते है । इन पर दुर्गा, इन्द्र, शिव-पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द, गंगा आदि का मूर्तियों उत्कीर्ण है ।

एक रथ पर पल्लव शासक नरसिंह वर्मा की भी मूर्ति खुदी है । महावलीपुरम् समुद्र पार कर जाने वाले यात्रियों के लिये मुख्य बन्दरगाह भी था । समुद्र यात्राओं की सुरक्षा के निमित्त यहाँ पहाड़ी पर दीपस्तम्भ बनवाया गया था ।

58. रंगपुर:

गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में स्थित इस स्थल से सैन्धव सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं । यहाँ 1935 तथा 1947 में खुदाइयाँ की गयी थीं । प्राप्त अवशेषों में चिकने एवं अलंकृत मिट्‌टी के बर्तन, स्वर्ण तथा बहुमूल्य पत्थरों की गुरियाँ तथा धूप में सुखाई ईंटें आदि प्रमुख है । बर्तनों के ऊपर हिरण आदि पशुओं कई चित्र बने हुए है । इन अवशेषों से पता चलता है कि सैन्धव सभ्यता का विस्तार यहाँ तक था । रंगपुर से कुछ पाषाणयुगीन उपकरण भी प्राप्त होते है ।

59. सांकाश्य (संकिसा):

उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित संकिसा- बसन्तपुर नामक स्थान प्राचीन समय में एक प्रसिद्ध नगर था । यह पूर्वी पंचाल जनपद के अन्तर्गत था । बुद्धकाल में इसका महत्व बढ़ गया । पालिकथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध स्वर्ग से उतरे थे । इसे बौद्धों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल माना जाने लगा ।

यहाँ कई स्तूप तथा विहार निर्मित थे । फाहियान इस नगर का वर्णन करते हुए लिखता है कि वहाँ के विहारों में 600-700 भिक्षु निवास करते थे । हुएनसांग के अनुसार यही अशोक द्वारा बनवाया गया 70′ ऊँचा स्तम्भ था । जैन-धर्म में इस स्थल को तीर्थडकर विमलनाथ की ज्ञान-प्राप्ति का स्थान माना गया है ।

60. असीरगढ़:

महाराष्ट्र प्रान्त के बुरहानपुर के समीप यह स्थान स्थित है । यहाँ से मौखरिवंश के पाँचवें शासक सर्ववर्मा का एक मुद्रालेख मिलता है जिससे निष्कर्ष निकाला गया है कि यहाँ मौखरियों का शासन था । लेख में सर्ववर्मा को ‘महाराजाधिरान’ कहा गया है । मुगलकाल में इस नगर का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया जहाँ का किला अत्यन्त प्रसिद्ध था । यह किला दक्षिण भारत पहुँचने का मुख्य मार्ग समझा जाता था ।

61. एरण्डपल्ल:

समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तम्भ लेख में दक्षिणापथ के राज्यों की सूची में एरण्डपल्ल का उल्लेख मिलता है जहाँ का राजा दमन था । समुद्रगुप्त ने उसे पराजित किया था । इस स्थान की पहचान आन्ध्र प्रदेश के विशाखापट्‌टनम् जिले में स्थित इसी नाम के स्थान से की जाती है ।

62. हस्तिनापुर:

महाभारत काल का यह प्रसिद्ध नगर मेरठ से 22 मील उत्तर-पूर्व में गंगा नदी की प्राचीन धारा के तट पर वसा हुआ है । महाभारत काल में यहाँ कौरवों की राजधानी थी । महाभारत युद्ध के बाद इस नगर का गौरव समाप्त हो गया तथा अन्तोगत्वा यह गंगा नदी के प्रवाह में विलीन हो गया ।

विष्णु पुराण से पता चलता है कि हस्तिनापुर के गंगा में प्रवाहित हो जाने पर राजा निचक्षु (जनमेजय का वंशज) ने अपनी राजधानी कौशाम्बी में स्थानान्तरित किया था – गंगयापहृते तस्मिन् नगरे नाग साह्वये । त्यक्त्वा निचक्षु नगरं कौंशांब्याम स निवत्स्यती ॥

हस्तिनापुर को पुरातात्विक मानचित्र पर रखने का श्रेय बी. बी. लाल को है जिन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से 1950 से लेकर 1952 तक यहाँ पर उन्खनन कार्य करवाया था । यहां की खुदाई से पाँच संस्कृतियों के अवशेष प्रकाश में आये हैं जिन्हें गेरिक, चित्रित-धूसर, उत्तरी काली-चमकीली (N.B.P.) तथा उत्तर-एन. बी. पी. संस्कृति कहा जाता है ।

यहाँ की पाँचवीं संस्कृति मध्यकाल की है । अभी से सम्बन्धित मिट्टी के बर्तन खुदाई से प्राप्त होते हैं । गेरिक संस्कृति के स्तर से केवल कुछ पात्रखण्ड ही मिले हैं जो गेरुये रंग से पुते हुए है । भवन निर्माण का कोई साध्य नहीं मिलता । दूसरी संस्कृति से सम्बन्धित बर्तन प्राप्त होते हैं ।

इनमें सलेटी रंग की थालियाँ, कटोरे, घड़े, मटके, नांद आदि हैं । बर्तनों के ऊपर चित्रकारियां भी मिलती हैं । इस स्तर से भवन निर्माण के साक्ष्य प्राप्त हुए है । ज्ञात होता है कि भवन निर्माण में मिट्टी तथा चांसबल्ली का प्रयोग होता था । लोग कृषि तथा पशुपालन से परिचित थे ।

खुदाई में गाय, बैल, भेड़, बकरी, घोड़े आदि पशुओं की हड्‌डियां तथा चावल के दाने प्राप्त होते है । कुछ एड़ियों पर काटे जाने के चिह्न हैं तथा कुछ जलने से काली भी पड़ गयी है । हरिण के सींगों के अवशेष भी मिलते है । संभवतः इनका शिकार किया जाता था । आभूषणों में मनके तथा काँच की चूड़ियाँ मिलती हैं । अन्य उपकरणों में चाकू, कील, तीर, भाला, हंसिया, कुदाल, चिमटा आदि का उल्लेख किया का सकता है ।

तीसरी संस्कृति (एन. बी. पी.) के निवासी काले चमकीले भाण्डों का प्रयोग करते थे तथा पक्की ईंटों से बने भवनों में निवास करते थे । उनकी मध्यता पूर्ववर्ती युगों की अपेक्षा अधिक विकसित थी । गन्दे पानी को बाहर निकालने के लिये नालियों की भी व्यवस्था की गयी थी । इन्हें विशेष प्रकार की रंटों से बनाया जाता था ।

वे ताँबे तथा लोहे के उपकरणों का भी प्रयोग करते थे । खुदाई में इन धातुओं के उपकरण प्राप्त होते है । इस काल तक नगरीय जीवन का प्रारम्भ हो चुका था । इस स्तर के ऊपरी भाग से जलने के अवशेष मिलते हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि हस्तिनापुर के इस स्तर का विनाश अग्निकाण्ड में हुआ ।

हस्तिनापुर के चौथे सांस्कृतिक स्तर (उत्तर-एन. बी. पी.) से कई प्रकार के मृद्‌भाण्ड प्राप्त हुए है । ये लाल रंग के हैं जिन पर कहीं-कहीं काले रंग से चित्रकारी भी की गयी है । स्वास्तिक, त्रिरत्न, मीन, आदि के आकारों के ठप्पे भी पात्रों पर लगाये गये है । मकानों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया गया । साथ ही साथ सुंग काल से लेकर गुप्त काल तक की मिट्टी तथा पत्थर की प्रतिमायें भी मिलती है ।

शुंगकालीन प्रतिमाओं में एक स्त्री की मूर्ति अत्यन्त सजीव एवं आकर्षक है । उसके हाथों, चेहरे, आँखों, केशों आदि को विविध प्रकार से सजाया गया है । कुषाणयुगीन प्रतिमाओं में मैत्रेय की प्रतिमा सुन्दर है । कुछ बर्तनों के ऊपर निर्माताओं के नाम भी उत्कीर्ण है ।

मथुरा के दत्तवंशी शासकों, कुषाण राजाओं तथा यौधेयों के सिक्के भी यहाँ से मिलते है । बी. बी. लाल का अनुमान है कि हस्तिनापुर की प्राचीनतम गेंरिक संस्कृति का समय ई.पू. 1200 के पहले का है । सिक्कों के आधार पर यहाँ की चतुर्थ संस्कृति का समय ई.पू. 200 से 300 ई. तक निर्धारित किया गया है ।

चतुर्थ काल के बाद लगभग आठ शताब्दियों तक हस्तिनापुर में आवास के साक्ष्य नहीं मिलते । जब यहाँ पाँचवीं बार बस्ती बसाई गयी तो सब कुछ परिवर्तित हो चुका था । इस स्तर में दिल्ली सल्तनत के सुल्लान चल्वन का एक सिक्का मिलता है जिसके आधार पर इसे मध्यकालीन माना जाता है । मकान पक्की ईटों के बनते थे ।

इस काल के कचित मृद्‌धाण्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पार्वती तथा ऋषभदेव की प्रस्तर प्रतिमायें भी प्राप्त हुई है । डा. लाल ने हस्तिनापुर की अन्तिम संस्कृति का समय 1200-1500 ई. के बीच निर्धारित किया है । पन्द्रहवीं शती के बाद से यहाँ मानव आवास के साक्ष्य नहीं मिलते है ।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि हस्तिनापुर में लम्बे समय सक मानव आवास विद्यमान रहा । जैनग्रन्थों में भी हस्तिनापुर को महत्व दिया गया है । इसका सम्बन्ध कई तीर्थड्करों-शान्ति, कन्तु, अमरनाथ आदि-से बनाया गया है । अंत: यह स्थान जैनियों का तीर्थस्थल माना जाने लगा ।

63. पुंड्रवर्धन:

गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (415-455 ई.) के समय में उत्तरी बंगाल में ‘पुण्ड्रवर्धन’ नामक गुप्तों का एक प्रदेश था । आधुनिक बँगला देश के दीनाजपुर जिले में स्थित दामोदरपुर से उसका ताम्रपत्र मिलता है जिसमें इस प्रान्त (भुक्ति) का उल्लेख है । इसी में कोटिवर्ष नामक जिला (विषय) भी था । इसी स्थान से दानपत्र प्रचलित हुए थे ।

लेख में ‘कोटिवर्षअधिष्ठानाधिकरणस्य’ अंकित है । कुमारगुप्त के समय यहाँ का शासक चिरादत्त था । बुधगुप्त के समय में यहाँ का शासक ब्रह्मदत्त बना । लगभग एक शती (443-534 ई.) तक यह प्रान्त गुप्त साम्राज्य का अधिन अंग बना रहा ।

64. अनुप:

मध्यप्रदेश के इन्दौर जिले में स्थित महेश्वर तथा उसका आस-पास का क्षेत्र प्राचीन समय में अनूप जनपद का निर्माण करते थे । यह स्थान नर्मदा नदी के तट पर बसा हुआ था । शक-सातवाहन युग में यह एक प्रसिद्ध नगर था जिस पर आधिपत्य के लिये दोनों वंशों में युद्ध हुए ।

अनूप का एक नाम माहिष्मती भी मिलता है । गौतमी वल्लभी के नासिक लेख से पता चलता है कि अनूप गौतमीपुत्र शातकर्णि के साम्राज्य का अंग था । जूनागढ लेख के अनुसार शकक्षत्रप रुद्रदामन् ने इस स्थान को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था । बुद्ध काल में अनूप अथवा माहिष्मती नामक नगर अवन्ति राज्य के अन्तर्गत था ।

65. पुरुषपुर:

पाकिस्तान का पेशावर जिला ही प्राचीन समय में पुरुषपुर नाम से प्रसिद्ध था । कुषाण शासक कनिष्क ने इस नगर की स्थापना की तथा यहीं अपनी राजधानी बसायी । इस नगर में उसने अनेक निर्माण-कार्य करवाये तथा इसे रूपों एवं विहारों से सुसज्जित करवाया । बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के बाद उसने यहाँ एक विशाल स्तूप बनवाया तथा इसी के पास एक विहार भी निर्मित करवाया था ।

कनिष्क के स्तूप में तेरह मंजिलें थीं तथा ऊपर एक लौहछत्र लगा हुआ था । यह बौद्ध जगत् में ‘कनिष्क चैत्य’ नाम से प्रसिद्ध था । पुरुषपुर में अनेक कवि एवं विद्वान् निवास करते थे । इनमें अश्वघोष, वसुमित्र, असंग, चरक, नागार्जुन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार चतुर्थ बौद्ध संगीति भी यहाँ हुई थी ।

साहित्य के अतिरिक्त पुरुषपुर गन्धार कला का भी एक महत्वपूर्ण केन्द्र था । यहाँ युद्ध तथा बोधिसत्वों की अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया । कनिष्क ने पुरुषपुर को एक विशाल अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य की राजधानी होने का गौरव प्रदान किया था ।

66. माध्यमिका:

राजस्थान के चित्तौड़ से उत्तर की ओर आठ मील पर स्थित ‘नागरी’ नामक स्थान को प्राचीन साहित्य में ‘माध्यमिका’ कहा गया है । पतंजलि के महाभाष्या में यवन आक्रमण के प्रसंग में इस स्थान का नाम आया है जहाँ बताया गया है कि यवनों ने ‘माध्यमिका’ का घेरा डाला था (अरुनद् यवनों माध्यमिकाम्) ।

यह आक्रमण पुष्यमित्र के काल में हुआ था और इसका नेता सम्भवत: डेमेट्रियस था । यहाँ से हुई खुदाइयों में एक प्राचीन स्तूप तथा तोरण के अवशेष मिलते है । एक सिक्के पर अंकित लेख के अनुसार यहाँ शिवि जनपद था।

67. अवमुक्त:

ब्रह्म पुराण से पता चलता है कि यह स्थान गोदावरी नदी के तट पर स्थित था । समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ लेख में इरा स्थान का उल्लेख कांची के साथ किया गया है । लगता है कि यह स्थान तमिलनाडु के कांचीवरम् के समीप स्थित रहा होगा । यहाँ का राजा नीलराज था जिसे समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान के समय पराजित किया था ।

68. कल्याणी:

कर्नाटक प्रान्त के बीदर जिले में स्थित कल्याणी नामक नगर पश्चिमी चालुक्य वंश की राजधानी थी । इस वंश के शासक तैलप (973-997) ई. ने राष्ट्रकूट सत्ता का अन्त कर मान्यखेत के स्थान पर यहां अपनी राजधानी बसाई । उसके वंशजों ने 12वीं शती के मध्य तक यहीं शासन किया । इसकी गणना तत्कालीन भारत के अत्यन्त समृद्धशाली नगरों में होती थी ।

विल्हण ने विक्रमांकदेवचरित में इसे ‘संसार की सर्वश्रेष्ठ नगरी’ बताया है । यह शिक्षा एवं साहित्य का भी प्रमुख केन्द्र था । कविराज विल्हण के अतिरिक्त मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर का भी यह निवास स्थल था । बारहवीं शताब्दी के मध्य में चालुक्यों का राज्य कलचुरियों द्वारा समाप्त कर दिया गया । इसके साथ ही कल्याणी का प्राचीन वैभव भी समाप्त हो गया ।

69. पिथुण्ड:

कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुंफा लेख में इस स्थान का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार उसकी सेना ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया तथा इस नगर को ध्वस्त कर दिया । इसकी स्थिति आधुनिक तमिलनाडु प्रान्त के मद्रास के पास थी । सिलवाँलेवी के अनुसार पिथुण्ड, पिहुण्ड का ही एक नाम है जो पाण्ड्य राज्य का एक प्रमुख व्यापारिक नगर था ।

टालमी इसे पितुन्द्र कहता है । यह स्थान मुक्तामणियों के लिये प्रसिद्ध था । जैन ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से पता चलता है कि चम्पा के व्यापारी जलयान द्वारा पिथुण्ड नगर को जाते थे । खारवेल ने इसे जीतने के बाद यहाँ से मुक्तामणियों का उपहार प्राप्त किया था |

70. अफसढ़:

बिहार के गज जिले में यह स्थान स्थित है । यहां से एक लेख मिला है जो परवर्ती अथवा उत्तर गुप्त वंश के इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है । यह लेख आदित्यसेन द्वारा खुदवाया गया था । इसमें उत्तरगुप्तों की वंशावली कृष्णगुप्त से लेकर आदित्यसेन के समय तक मिलती हैं ।

साथ ही साथ यह लेख मौखरि तथा उत्तरगुप्तों के संघर्ष पर भी प्रकाश डालता है । आदित्यसेन की उपलब्धियों का वर्णन इसमें मिलता है जहाँ बताया गया है कि ‘उसके श्वेतछत्र से सम्पूर्ण पृथ्वी सदा ढँकी रहती थी । इस लेख से ज्ञात होता है कि आदित्यसेन की माता श्रीमती तथा उसकी पत्नी कोणदेवी ने क्रमशः एक विहार तथा तड़ाग का निर्माण करवाया था । लेख में कोई तिथि अंकित नहीं है ।

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