गुप्त साम्राज्य: स्तूप, गुफाएं और मूर्तियां | Gupta Empire: Stupas, Caves and Statues. Read this article in Hindi to learn about:- 1. गुप्त संस्कृति के स्तूप (Stupas of Gupta Empire) 2. गुप्त संस्कृति के गुहा-स्थापत्य (Caves of Gupta Empire) 3. बौद्ध मूर्तियाँ (Buddhist Statues).

गुप्त संस्कृति के स्तूप (Stupas of Gupta Civilisation):

मन्दिरों के अतिरिक्त दो बौद्ध स्तूपों-सारनाथ का धमेख स्तूप तथा राजगृह स्थित ‘जरासंध की बैठक’ का निर्माण गुप्त सम्राटों के काल में ही हुआ माना जाता है । धमेख स्तूप 128 फुट ऊँचा है जिसका निर्माण बिना किसी चबूतरे के समतल धरातल पर किया गया है ।

इसके चारों कोने पर बौद्ध मूर्तियाँ रखने के लिये ताख बनाये गये हैं । स्तूप पर बना लतापत्रक काफी प्रशंसित हुआ है तथा इस पर बनी हुई ज्यामितीय आकृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं ।  सिंध क्षेत्र स्थित मीरपुर खास स्तूप का निर्माण प्रारम्भिक गुप्तकाल में करवाया गया था । इसमें तीन छोटे चैत्य बने हैं ।

केन्द्रीय चैत्य में ईंटे की मेहराब बनाई गयी है । इसकी उत्कीर्ण तथा अलंकृत ईंट एवं मिट्टी की बनी बुद्ध मूर्तियां गुप्तकालीन मृद्‌भाण्ड कला की सुन्दर उदाहरण हैं । नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालन्दा में बुद्ध का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो तीन सौ फीट ऊँचा था । बाद के चीनी यात्रियों ने इसकी प्रशंसा की है । दुर्भाग्यवश यह पूर्णतया नष्ट हो गया है ।

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पांचवीं शती के मन्दिरों में बोधगया के मन्दिर का भी उल्लेख किया जा सकता है । इसके गर्भगृह में बुद्ध की विशाल प्रतिमा भूमि-स्पर्श मुद्रा में आसीन है । मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है । इसके पास सीढ़ियाँ बनी हैं जिनसे पहली मंजिल पर पहुँचा जा सकता है । वहाँ एक चौड़ा खुला स्थान है । मन्दिर में कोई वातायन या गवाछ नहीं है । इस प्रकार इसकी योजना अपने आप में विलक्षण है ।

गुप्त संस्कृति के गुहा-स्थापत्य (Caves of Gupta Civilisation):

गुहा-स्थापत्य का भी विकास गुप्तयुग में हुआ । ये दो प्रकार की हैं- ब्राह्मण तथा बौद्ध । विदिशा के पास उदयगिरि की कुछ गुफाओं का निर्माण इस युग में करवाया गया । यहाँ की गुफायें भागवत तथा शैव धर्मों से सम्बन्धित है ।

उदयगिरि पहाड़ी से चन्द्रगुप्त द्वितीय के विदेश सचिव वीरसेन का एक लेख मिलता है जिससे विदित होता है कि उसने यहाँ एक शैव गुहा का निर्माण करवाया था । यहाँ की सबसे प्रसिद्ध वाराह-गुहा है जिसका निर्माण भगवान विष्णु के सम्मान में करवाया गया था ।

उदयगिरि की गुफायें पूर्णतया उत्कीर्ण नहीं हैं तथा खुदाई तथा पत्थर जोड़कर उन्हें निर्मित किया गया था । कुछ विद्वान उदयगिरि की गुफाओं को मिथ्या गुहा की संज्ञा देते हैं । इन गुहाओं में चौकोर तथा सादे गर्भगृह बने हैं जिनके सामने की ओर स्तम्भों पर टिके हुये छोटे मण्डप है ।

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गुहा के द्वारस्तम्भों को नदी-देवताओं तथा द्वारपालों की मूर्तियों से अलंकृत किया गया है । बौद्ध गुहा-मन्दिर भी इस काल में बनाये गये । इनमें अजन्ता तथा बाघ पहाड़ी में खोदी गयी गुफाओं का उल्लेख किया जा सकता है ।

अजन्ता में कुल 29 गुफायें हैं जिनमें चार चैत्यगृह तथा शेष विहार हैं । इनका निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी ईस्वी तक किया गया था । प्रारम्भिक गुफायें हीनयान तथा बाद की महायान सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं ।

तीन गुफायें (16वीं, 17वीं तथा 19वीं) गुप्तकालीन मानी जाती हैं । इनमें सोलहवीं-सत्रहवीं गुफाओं विहार तथा उन्नीसवीं चैत्य हैं । सोलहवीं तथा सत्रहवीं गुफाओं का उत्कीर्णन पाँचवीं शती के अन्तिम चरण में वाकाटक नरेश हरिषेण के एक मंत्री तथा सामन्त ने करवाया था ।

सोलहवीं अजन्ता के विहारों में सबसे सुन्दर है । इसके मण्डप में बीस स्तम्भ हैं तथा यह 65 वर्ग फीट के आकार में बनी । गर्भगृह वर्गाकार है जिसमें बुद्ध की विशालकाय मूर्ति प्रलम्बपाद मुद्रा (पैर लटकाये हुए) में बनी है ।

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गुहा स्तम्भों की विभिन्नता दर्शनीय है क्योंकि किन्हीं दो में समानता नहीं है । सत्रहवीं गुफा भी आकार-प्रकार में सोलहवीं जैसी ही है । बरामदे की दीवारों पर चित्रित भावचक्र (जीवन-चक्र) के कारण पहले इसे राशिचक्र गुफा कहा जाता था ।

इसमें सर्वाधिक भित्ति चित्र सुरक्षित हैं । उन्नीसवीं गुहा एक दैत्य है जिसमें पूर्ववर्ती चैत्यों की भाँति गर्भगृह, गलियारा एवं स्तम्भ बने हुए हैं । इसमें मुख्य भाग को सजाने के लिये काष्ठ का प्रयोग नहीं किया गया है ।

प्रवेश द्वार की चिपटी छत चार स्तम्भों पर टिकी है तथा ऊपर बड़े आकार का चैत्य गवाक्ष बना है । शैलकृत स्तूप में ऊँचा बेलनाकार अण्ड है जिसके ऊपर गोल गुम्बद, हर्मिका तथा तीन छत्र हैं । भित्ति स्तम्भों के बीच बुद्ध की मूर्तियाँ खड़ी अथवा आसीन मुद्रा में बनी हैं । साथ ही साथ यक्ष नागदम्पत्ति, शालभंजिका, ऋषि-मुनियों आदि की आकृतियाँ भी हैं । चैत्यगृह में केवल एक प्रवेश द्वार है ।

मण्डप के दोनों ओर प्रदक्षिणामार्ग पर सत्रह पंक्तिबद्ध स्तम्भ बनाये गये हैं । इस गुफा की गणना पश्चिमी भारत के श्रेष्ठतम चैत्यगृहों में की जाती है । उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती चैत्यों के समान यहाँ बुद्ध का अंकन प्रतीकों में न होकर विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियों में किया गया है जो मानव रूप में प्रवेश द्वार, ताखों तथा एकाश्मक स्तूप पर उत्कीर्ण की गयी हैं ।

स्पष्टतः यह महायान का प्रभाव है । अजन्ता के ही समान बाघ पहाड़ी (म. प्र. के धार जिले में स्थित) से नौ गुफायें प्राप्त होती हैं जिनका समय भिन्न-भिन्न है । इनमें कुछ गुप्तकालीन है । बाघ की गुफायें भी बौद्ध धर्म से संबन्धित हैं ।

सभी भिक्षुओं के निवास के लिये बनायी गयी थीं । पहला विहार नष्ट हो गया है । दूसरा सुरक्षित अवस्था में है जिसे पाण्डव गुफा कहते हैं । इसके मध्य एक चौकोर आँगन है जिसके बगल में कमरे बनाये गये हैं । बरामदे में ताखों पर मूर्तियाँ बनी हैं ।

तीसरी गुफा को ‘हाथी खाना’ तथा चौथी को ‘रंगमहल’ कहा जाता है । इसकी दीवारों पर चित्रकारी मिलती है । शेष गुफायें नष्ट-भ्रष्ट हो गयी हैं । बाघ की गुफा अपनी वास्तु से अधिक चित्रकारी के लिये प्रसिद्ध है ।

मूर्तिकला:

वास्तु कला के ही समान मूर्तिकला का भी इस युग में सम्यक् विकास हुआ । गुप्त सम्राटों के संरक्षण में भागवत धर्म का पूर्ण विकास हुआ तथा उनकी सहिष्णुता की नीति ने अन्य धर्मों एवं सम्प्रदायों को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया ।

परिणामस्वरूप इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, स्कन्द, कुबेर, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, सप्तमातृकायें आदि विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ-साथ बुद्ध, बोधिसत्व एवं जैन तीर्थकंरों की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया ।

गुप्तयुगीन मूर्तिकारों ने कुषाणकालीन नग्नता एवं पूर्वमध्यकालीन प्रतीकात्मक सूक्ष्मता के बीच संतुलित समन्वय स्थापित करने में सफलता प्राप्त की । दैहिक सौंदर्य के स्थान पर अध्यात्मिक सौंदर्य को प्रधानता दी गयी ।

कलाकारों ने नग्नता को तिलांजलि दे दी । जहाँ कुषाणकला में पारदर्शन वस्त्र विन्यास का प्रयोग मांसल सौंदर्य को प्रकट करने के लिये किया जाता था, वहीं गुप्त काल में इसका प्रयोग इसे आवृत करने के लिये किया जाने लगा ।

यही कारण है कि गुप्त मूर्तियों में आद्योपान्त आध्यात्मिकता, भद्रता एवं शालीनता दृष्टिगोचर होती है । यहाँ तक कि इस समय की बनी बुद्ध-मूर्तियाँ भी गन्धार शैली के प्रभाव से बिल्कुल अछूती हैं । कुषाण मूर्तियों के विपरीत उनका प्रभामण्डल अलंकृत है ।

गुप्त-युग की बौद्ध मूर्तियाँ (Buddhist Statues of Gupta Age):

गुप्त-युग की तीन बौद्ध मूर्तियों उल्लेखनीय हैं:

i. वैष्णव मूर्तियों,

ii. शैव मूर्तियों,

iii. अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ।

बौद्ध मूर्तियाँ अभय, वरद, ध्यान, भूमिस्पर्श, धर्मचक्रप्रवर्तन आदि मुद्राओं में हैं । इनमें सारनाथ की बुद्ध-मूर्ति अत्यधिक आकर्षक है । यह लगभग 2 फुट साढ़े चार इंच ऊँची है । इसमें बुद्ध पद्मासन में विराजमान हैं तथा उनके सिर पर अलंकृत प्रभोमण्डल है ।

उनके बाल घुंघराले तथा कान लम्बे हैं । उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकी है । यह धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में है । कलाकार को बुद्ध के शान्त तथा नि:स्पृह भाव को व्यक्त करने में अद्भुत सफलता गिली है । इसकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति, गम्भीर मुस्कान एवं शान्त ध्यानमग्न मुद्रा भारतीय कला की सर्वोच्च सफलता का प्रदर्शन करती है ।

मथुरा की गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में दो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । दोनों खड़ी मुद्रा में हैं जिनकी ऊंचाई 7 फुट ढाई इंच के लगभग है । पहली मूर्ति, जो मथुरा के जमालपुर से मिली थी, में युद्ध के कंधों पर संघाटि है, उनके बाल घुँघराले हैं, कान लम्बे हैं तथा दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकी हुई है ।

उनके मस्तक के पीछे गोल अलंकृत प्रभामण्डल है । दूसरी मूर्ति भी अत्यन्त आकर्षक एवं कलापूर्ण है जिसके मुख की शान्ति तथा ध्यानमुद्रा दर्शनीय है । बुद्ध की मुद्रा शांत एवं गम्भीर है तथा चेहरे पर मन्द मुस्कान का भाव व्यक्त किया गया है ।

मथुरा शैली में निर्मित बुद्ध की अकेली ऐसी प्रतिमा जो कुषाण कला से प्रभावित है, कुमारगुप्त प्रथम (415-455 ई.) के समय मनकुंवर (इलाहाबाद) से मिलती है । यह अभयमुद्रा में सिंहासन पर आसीन । इसका सिर मुण्डित तथा उर्ध्व भाग नग्न तथा मांसल है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस विधा का बाद में पूर्णतया परित्याग कर दिया गया क्योंकि यह तत्कालीन सौन्दर्य बोध के अनुकूल नहीं थी । अन्य सभी मूर्तियों के सिर पर घुंघराले बाल दिखाये गये हैं । पाषाण के अतिरिक्त इस काल में धातुओं से भी युद्ध मूर्तियों बनाई गयीं । इनमें सुल्तानगंज (बिहार के भागलपुर जिले में स्थित) की मूर्ति विशेषरूप से उल्लेखनीय है ।

ताम्रनिर्मित यह मूर्ति साढ़े सात फुट ऊंची है । बुद्ध के बायें हाथ में संघाटि है तथा उनका दायाँ हाथ अभयमुद्रा में है । संघाटि का घेरा पैरों तक लटक रहा है । यह मूर्ति भी अत्यन्त सजीव तथा प्रभावशाली है ।

i. वैष्णव मूर्तियों:

गुप्त शासक वैष्णव मत के पोषक थे । अत: उनके समय में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया । तत्कालीन साहित्य तथा लेखों से इस बात की सूचना मिलती है । चन्द्रगुप्तकालीन मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख से पता चलता है कि उसने विष्णु पद नामक पर्वत पर विष्णुस्तम्भ स्थापित करवाया था ।

भितरी लेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के काल में भगवान विष्णु की एक मूर्ति स्थापित की गयी थी । इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं । उनके सिर पर मुकुट, गले में हार तथा केयूर एवं कानों में कुण्डल दिखाया गया है । मथुरा, देवगढ़ तथा एरण से प्राप्त मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं ।

मथुरा के कलाकारों ने विष्णु की नई सुन्दर-सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया । आसन पर विराजमान किरीटधारी एक मूर्ति के बायें हाथों में चक्र तथा शंख, नीचे के दायें हाथ में गदा है तथा ऊपर का दायां हाथ अभयमुद्रा में उठा हुआ है ।

उनका प्रभामण्डल अनलंकृत है । प्रलम्बवाहु (लटकती हुई भुजाओं वाली) एक मूर्ति का केवल धड़भाग ही अवशिष्ट है । यह चतुर्भुजी है जिसमें अलंकृत मुकुट, कानों में कुण्डल, भुजाओं पर लटकती हुई वनमाला, गले में ग्रैवेयक आदि का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है ।

मथुरा संग्रहालय में रखी हुई दो अन्य त्रिविक्रम स्वरूप की विष्णु मूर्तियों में दायां पैर भूमि पर तथा बायां कन्धे तक ऊपर उठा हुआ दिखाया गया है । यहाँ कलाकार ने वामन अवतार विष्णु के पाद-प्रक्षेपों द्वारा पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष लोक नापने की कथा को मूर्त रूप देने का श्लाघ्य प्रयास किया है ।

वस्तुतः अवशिष्ट गुप्त मन्दिर मूर्ति शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हैं । इस प्रसंग में देवगढ़ के दशावतार मन्दिर का विशेष रूप से उल्लेख करना अभिष्ट होगा । इस मन्दिर के तीन दीवारों के बीच एक-एक चौकोर मूर्तिपट्ट लगाया गया है ।

दक्षिण दिशा के पट्ट में शेषनाग की कुण्डलियों पर विश्राम करते हुए विष्णु का अंकन है । उनकी नाभि से निकलते हुए कमल पर ब्रह्मा तथा ऊपर आकाश में नन्दी पर सवार शिव-पार्वती, मयूर पर कार्तिकेय तथा ऐरावत पर इन्द्र दिखाये गये हैं ।

बैठी हुई लक्ष्मी विष्णु का पैर दबा रही हैं । नीचे हथियार लिये हुए पाँच पुरुष तथा एक स्त्री दिखाई गयी है । इनकी पहचान पञ्च पाण्डवों तथा द्रौपदी से की गयी है । मधु तथा कैटभ नामक दो दैत्य आक्रामक मुद्रा में प्रदर्शित हैं ।

विष्णु के इस रूप को अनन्तशायी अथवा शेषशायी कहा गया है । कनिंधम के शब्दों में मूर्तियों का चित्रांकन सामन्यतः ओज पूर्ण है तथा अनन्तशायी विष्णु का रेखांकन तो न केवल सहज, अपितु मनोहर है और मुद्रा गौरवपूर्ण है ।

पूर्वी पट्ट में ‘नर-नारायण तपस्या’ का दृश्य तथा उत्तरी पट्ट में गजेन्द्र मोक्ष का दृश्य अंकित किया गया है । नर-नारायण को हिमालय की कुटी में तपस्या करते हुए दिखाया गया है । उनके आसन के नीचे हिरन तथा सिंह का अंकन है ।

दूसरे दृश्य में गरूड पर सवार विष्णु को दिखाया गया है । विष्णु के ये तीनों दृश्य कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट हैं । मन्दिर की कुर्सी में जड़े हुए सीधे उत्कीर्ण चित्र भारतीय प्रतिमा विज्ञान के वास्तविक वृत्तचित्र हैं ।

फलकों के पार्श्व बाजुओं पर किया गया अलंकरण भी काफी सुन्दर है जिसमें शंख तथा कमल की आकृतियों को विशेष रूप से खोदकर बनाया गया है । इस प्रकार समग्र रूप से देवगढ़ मन्दिर की मूर्तिकारी एवं रिलीफ चित्र कला की दृष्टि से सर्वोत्तम हैं ।

गुप्त काल में विष्णु के वाराह अवतार की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया । उदयगिरि से इस काल की बनी हुई एक विशाल वाराह प्रतिमा प्राप्त हुई है । इसके पार्श्व भाग में बने हुये दृश्यों में मकर एवं कच्छप की सवारी में गंगा तथा यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं ।

इसमें वाराह पृथ्वी को दांतों में उठाये हुए दिखाया गया है । कन्धे पर नारी रूप में पृथ्वी की आकृति खुदी हुई है । वाराहरूपी विष्णु अपना बायां पैर शेषनाग के ऊपर रखे हुए हैं । वाराह का शरीर हृष्ट-पुष्ट है, गले में वनमाला है तथा वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अत्यन्त सुन्दर है ।

पृष्ठभूमि में पाषाण-भित्ति पर देवताओं तथा ऋषियों की पंक्तिबद्ध आकृतियां उत्कीर्ण की गयी हैं । शेषनाग के पास गरुड़ की आकृति बनी हुई है । यह प्रतिमा विष्णु के कल्याणकारी स्वरूप का द्योतक है जिन्होंने पृथ्वी के रक्षा के निमित्त विशाल वाराह का रूप धारण किया था ।

बाशम के शब्दों में- ‘वह गम्भीर भावना जिसने इस आकृति के निर्माण की प्रेरणा दी, इसे संसार की कला में संभवतः एकमात्र पशुवत् मूर्ति का स्थान प्रदान करती है जो आधुनिक काल के मनुष्य को एक सच्चा धार्मिक संदेश देती है ।’

वाराह रूपी विष्णु की एक अन्य मूर्ति एरण से मिली है जिस पर हूण नरेश तोरमाण का लेख अंकित है । किन्तु यह उदयगिरि महावाराह जैसी कलात्मक नहीं है । ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश में विष्णु के वाराह अवतार की लोकप्रियता अधिक थी ।

ii. शैव मूर्तियों:

विष्णु के अतिरिक्त इस काल की बनी शैव मूर्तियों लिंग तथा मानवीय दोनों ही रूपों में मिलती हैं । लिंग में ही शिव के एक अथवा चार मुख बना दिये गये हैं । इस प्रकार के लिंग मथुर, भीटा, कौशाम्बी, करमदण्डा, खोह, भूमरा आदि स्थानों से मिले हैं ।

इनमें करमदण्डा से प्राप्त चतुर्मुखी तथा खोह से प्राप्त एकमुखी शिवलिंग उल्लेखनीय हैं । एकमुखी शिवलिंग भुमरा के शिवमन्दिर के गर्भगृह में भी स्थापित है । इन मूर्तियों को ’मुखलिंग’ कहा जाता है । इनमें शिव के सिर पर जटा-जूट, गले में रुद्राक्ष की माला तथा कानों में कुण्डल है । ध्यानावस्थित शिव के नेत्र अधखुले हैं तथा उनके होठों पर मन्द मुस्कान है ।

जटा-जूट के ऊपर अर्धचन्द्र विराजमान है । मुखलिंगों की रचना आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं । मुखलिंगों के अतिरिक्त शिव के अर्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इनमें दायां भाग पुरुष तथा बायां भाग स्त्री का है । विदिशा से शिव के हरिहर स्वरूप की एक प्रतिमा मिली है जो इस समय दिल्ली संग्रहालय में है ।

iii. अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ:

उपर्युक्त प्रमुख देवताओं के साथ-साथ गुप्तकाल में हिन्दू धर्म के अन्य देवताओं तथा देवियों की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया । भूमरा के मन्दिर में यम, सूर्य, ब्रह्मा, कुबेर, गणेश, स्कन्द, इन्द्र, महिषमर्दिनी दुर्गा आदि की मूर्तियाँ दीवारों के चैत्य गवाक्ष पट्टियों में बनी हुई हैं । इससे सूचित होता है कि गुप्तकाल में मानवरूपी का निर्माण सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया था ।

इस काल की बनी मयूरासनासीन कार्त्तिकेय की एक सुन्दर मूर्ति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है । महिषासुर का वध करती हुई दुर्गा की मूर्ति उदयगिरि गुफा से मिलती है जो अत्यन्त ओजस्वी है । मकरवाहिनी गंगा तथा कूर्मवाहिनी यमुना की कई मूर्तियां एवं फलक चित्र प्राप्त होते हैं जो कला की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं । दोनों देवियों के अंग-प्रत्यंग आभूषणों से सुसज्जित हैं ।

मृण्मूर्ति कला:

गुप्तकाल में मृद्‌भाण्डकला का भी सम्यक् विकास हुआ । इस काल के कुम्भ-कारों ने पकी हुई मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनायीं । इनमें चिकनाहट और सुडौलता पाई जाती है । विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा, यमुना आदि देवी-देवताओं की बहुसंख्यक मृण्मूर्तियाँ पहाड़पुर, राजघाट, भीटा, कौशाम्बी, श्रावस्ती पवैया, अहिच्छत्र, मथुरा आदि स्थानों से प्राप्त हुई है ।

धार्मिक मूर्तियों के साथ-साथ इन स्थानों से अनेक लौकिक मूर्तियाँ भी मिलती हैं । पहाड़पुर से कृष्ण की लीलाओं से संबन्धित कई मूर्तियाँ मिलती हैं । अहिच्छत्र की मूर्तियाँ में गंगा-यमुना की मूर्तियाँ तथा पार्वती के सुन्दर सिर का उल्लेख किया जा सकता है ।

कुछ मूर्तियों में उच्चकोटि की कारीगरी का प्रदर्शन मिलता है । एक गोल फलक पर रथ में आसीन सूर्य का चित्रण है । रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं । दो देवियाँ उषा और प्रत्यूषा प्रकाश बिखेर रही हैं । कुछ मृण्फलक शिव के जीवन की प्रमुख घटनाओं, जैसे दक्ष के यज्ञ का विध्वंस, उनका विकराल भैरव रूप धारण करना, लकुलीश रूप, दक्षिणामूर्ति रूपी योगी का स्वरूप आदि का अंकन अत्यन्त कुशलता से करते हैं ।

श्रावस्ती से जटाजूटधारी शिव के सिर की मूर्ति मिली है । इसी प्रकार श्रावस्ती की मृण्मूर्तियों में एक बड़ी नारी-मूर्ति का उल्लेख किया जा सकता है । उसके साथ दो बालक बैठे हुए हैं तथा उनके समीप लड्डूओं की एक डाली रखी हुई प्रदर्शित की गयी है ।

यह सम्भवत: यशोदा के साथ कृष्ण तथा बलराम का दृश्य है । कहा जा सकता है कि इस प्रकार की मूर्तियों ने पौराणिक हिन्दू धर्म को लोकव्यापी बनाने में बहुत अधिक योगदान दिया होगा क्योंकि ये सर्वसाधारण के लिये सुलभ थी ।

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