Read this essay in Hindi to learn about the invasions of Turks in North India during the medieval period.  

पंजाब पर महमूद गजनी की विजय के बाद मुसलमानों और हिंदुओं के बीच दो प्रकार के संबंध स्पष्ट तौर पर दिखाई दिए । एक था लूट के माल का लालच जिसके कारण महमूद के उत्तराधिकारियों ने गंगा की वादी में और राजपूताना पर धावे बोले ।

राजपूत राज्यों के शासकों ने इन धावों का जोरदार विरोध किया और अनेक अवसरों पर तुर्कों पर विजय भी पाई । लेकिन गजनवी राज्य अब कोई बहुत शक्तिशाली नहीं रह गया था और स्थानीय लड़ाइयों में उसके खिलाफ अनेक बार जीतने के कारण राजपूत शासक इस मामले में लापरवाह हो गए थे ।

दूसरे स्तर पर, मुस्लिम व्यापारियों को देश में न सिर्फ व्यापार की इजाजत दी गई बल्कि उनका स्वागत भी किया गया, क्योंकि मध्य और पश्चिमी एशिया के देशों के साथ भारत के व्यापार को बढ़ाने में और इस तरह राज्य की आय बढ़ाने में उन्होंने सहायता पहुँचाई ।

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उत्तर भारत के कुछ नगरों में मुस्लिम व्यापारियों की वस्तियाँ बस गई । इनके साथ-साथ पंजाब में अनेक मुस्लिम धर्मोपदेशक आए जिन्हें सूफी कहते थे । वे प्रेम, एक प्रभु में आस्था और समर्पण की शिक्षा देते थे । उनके उपदेश मुख्यत: मुस्लिम आबादकारों को संबोधित करते थे, पर उन्होंने कुछ हिन्दूओं को भी प्रभावित किया ।

इस तरह इस्लाम और हिंदू धर्म एवं समाज के बीच संपर्क की एक प्रक्रिया चल निकली । लाहौर, अरबी और फारसी भाषाओं और उनके साहित्य का केंद्र बन गया । तिलक, जो नाई जाति का था, जैसे हिंदू सिपहसालारों ने गजनवी फौजों का नेतृत्व किया जिनमें हिंदू (जाट) सिपाही भी भरती किए जाते थे ।

हो सकता था ये दो प्रक्रियाएं अनिश्चित काल तक जारी रहतीं, बशर्ते मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति में एक और बड़ा परिवर्तन न आ गया होता । बारहवीं सदी के मध्य में तुर्क कबीलों के एक और समूह ने, जिनमें कुछ बौद्ध थे तो कुछ बहुमूर्तिपूजक थे, सलजूक तुर्को, की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया । इस शून्य में दो नई शक्तियों को प्रमुखता प्राप्त हुई-ईरान में केंद्रित ख्वारिज्म साम्राज्य और गौर (उत्तर-पश्चिम अफगानिस्तान) में स्थित गौरी साम्राज्य को ।

गौरी आरंभ में गजनी के मातहत थे, पर जल्द ही उन्होंने उसका जुवा उतार फेंका । गौरियों की शक्ति सुल्तान अलाउद्‌दीन के काल में बड़ी जिसने जहाँसोज (दुनिया को जलानेवाला) की उपाधि प्राप्त की । क्योंकि गजनी में अपने भाइयों के साथ किए गए दुजर्ग्वहार का बदला लेने के लिए उसने गजनी को तहस-नहस करके फूँक डाला था ।

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यह घटना बारहवीं सदी के मध्य की है । ख्वारिज्मी साम्राज्य की बढ़ती ताकत ने गौरियों की मध्य एशियाई महत्वाकांक्षा पर गंभीर रोक लगा दी । ख्वारिज्म के शाह ने खुरासान (पूर्वी ईरान) को, जो दोनों के बीच झगड़े की जड़ था, जल्द ही जीत लिया । इसके चलते गौरियों को प्रसार के लिए भारत की ओर ही देखने का विकल्प बचा ।

1173 में गजनी की गद्‌दी पर शहाबुद्‌दीन मुहम्मद (1173-1206) बैठा (उसे मुईजुद्‌दीन मुहम्मद बिन साम भी कहा जाता है) जबकि उसका बड़ा भाई गौर पर राज्य कर रहा था । गोमल दर्रे की राह से आगे बढकर मुईजुद्‌दीन मुहम्मद ने मुलतान और उच्छ पर कब्जा कर लिया ।

1178 में उसने राजपूताना के रेगिस्तान से होकर गुजरात में प्रवेश करने का प्रयास भी किया । लेकिन आबू पर्वत के पास हुई एक लड़ाई में गुजरात के राजा ने उसे बुरी तरह हरा दिया; यह मुईजुद्‌दीन का सौभाग्य ही था कि वह जीवित बच निकला । अब उसे भारत विजय का अभियान आरंभ करने से पहले पंजाब में एक उपयुक्त आधार बनाने की आवश्यकता महसूस हुई ।

इसलिए उसने पंजाब में गजनवी के अधिकार वाले क्षेत्रों के खिलाफ एक मुहिम शुरू की । 1190 तक मुईजुद्‌दीन पेशावर, लाहौर और सियालकोट को जीत चुका था तथा अब वह दिल्ली और गंगा के दोआब की ओर बढ़ने के लिए तैयार था । इस बीच उत्तर भारत में घटनाक्रम भी स्थिर नहीं था । चौहानों की शक्ति लगातार बढ़ रही थी ।

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चौहान राजाओं ने राजस्थान पर संभवत: पंजाब की दिशा से आक्रमण का साहस करने वाले बहुत सारे तुर्कों को हराया और मार डाला था । जैसा कि बताया जा चुका है इस सदी के मध्य में उन्होंने तोमरों से दिल्ली धिल्लिका को भी छीन लिया था । पंजाब की तरफ चौहान सत्ता के प्रसार के कारण अब इस क्षेत्र के गजनवी शासकों के साथ उनका टकराव हुआ ।

तराईं की लड़ाई:

इस तरह इन दो महत्त्वाकांक्षी राजाओं-मुईजुद्‌दीन मुहम्मद और पृथ्वीराज-के बीच लड़ाई अपरिहार्य थी । यह टकराव तबरहिंद पर दोनों के दावों के साथ आरंभ हुआ । 1191 में तराई में हुई इस लड़ाई में गौर की सेना पूरी तरह तबाह हो गई; मुईजुद्‌दीन मुहम्मद की जान एक युवा खलजी सवार ने बचाई ।

पृथ्वीराज अब तबरहिंद की ओर बढ़ा और 12 माह की घेराबंदी के बाद उसे जीत लिया । पृथ्वीराज ने पंजाब से गौरियों को खदेड़ने का प्रयास नहीं किया । शायद उसे यह लगा हो कि तराई बार-बार होने वाले तुर्क धावों जैसा ही एक और धावा है और गौरी का शासक पंजाब पर राज्य करने पर संतोष कर लेगा ।

इससे मुईजुद्‌दीन मुहम्मद को फिर से अपनी सेना को व्यवस्थित करने और अगले साल भारत पर एक और आक्रमण करने का समय मिल गया । उसने पृथ्वीराज के एक कथित शांति प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था कि पंजाब गौरी शासक के अंतर्गत ही रहने दिया जाएगा ।

तराई की दूसरी लड़ाई (1192) को भारतीय इतिहास में एक मोड़ माना जाता है । इस टकाराव के लिए मुईजुद्‌दीन मुहम्मद ने सावधानी से तैयारी की थी । कहते हैं कि वह 1,20,000 सैनिकों के साथ आगे बढ़ा जिनमें पूरी तरह फौलादी जिरहबख्तर से लैस एक भारी घुड़सवार सेना थी और 10,000 घुड़सवार तीरंदाज थे ।

यह सोचना सही नहीं होगा कि पृथ्वीराज स्थिति से लापरवाह था और तभी चेता जबकि अंतिम समय आ गया यद्यपि यह सही है कि पिछली विजयी मुहिम का सिपहसालार स्कंद कहीं और युद्धरत था ।

गौरी की ओर से खतरे को पृथ्वीराज ने जैसे ही भांपा उसने उत्तर भारत के सभी राजाओं से सहायता की प्रार्थना की । कहते हैं कि अनेक राजाओं ने उसकी सहायता के लिए फौजें भेजी पर कन्नौज का राजा जयचंद्र किनारा कर गया । कहानी है कि इसका कारण पृथ्वीराज द्वारा जयचंद्र की बेटी संयोगिता का अपहरण था जो उससे प्रेम करती थी पर इसे अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार नहीं किया है ।

इस कहानी को बहुत बाद में एक रोमानी कथा के रूप में कवि चंदबरदाई ने लिखा और इसमें अनेकों असंभाव्य घटनाएँ हैं । जैसा कि हमने देखा दोनों राज्यों के बीच पुरानी शत्रुता चली आ रही थी इसलिए जयचंद्र का किनारा कर जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।

कहते हैं कि पृथ्वीराज ने तीन लाख की फौज उतारी जिसमें घुड़सवारों की एक बड़ी संख्या थी और 300 हाथी थे । हो सकता है दोनों ओर की सेनाओं की संख्या में अतिशयोक्ति हो । भारतीय सेना की संख्या संभवत: अधिक थी पर तुर्क सेना का संगठन और नेतृत्व बेहतर था ।

यह लड़ाई मुख्यत: घुड़सवार सेनाओं की लड़ाई थी । तुर्क सवार सेना के श्रेष्ठतर संगठन-कौशल और उसकी तेज गति तथा उनके घुड़सवार तीरंदाजों और भारी सवार सेना ने आखिरकार मामले का निपटारा कर दिया । भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए । पृथ्वीराज बच निकला मगर सरस्वती (सिरसा) के पास पकड़ा गया ।

तुर्क सेनाओं ने हाँसी, सरस्वती और समाना की गढ़ियों पर कब्जा कर लिया । फिर उन्होंने अजमेर पर हमला करके वहाँ भी कब्जा कर लिया । पृथ्वीराज को कुछ समय तक अजमेर पर शासन करने की अनुमति दी गई क्योंकि हमारे पास उस काल के सिक्के मौजूद हैं जिन पर एक ओर तारीख दी गई है और ‘पृथ्वीराजदेव’ अंकित है और दूसरी ओर ‘श्री मुहम्मद साम’ लिखा हुआ है ।

शीघ्र ही पृथ्वीराज को तथाकथित ‘षड्यंत्र’ के आरोप में मार डाला गया और उसकी जगह उसका बेटा गद्‌दी पर बैठा । दिल्ली भी उसके तोमर शासक को वापस दे दी गई । लेकिन जल्द ही इस नीति को पलट दिया गया । दिल्ली के शासक को हटाकर दिल्ली को गंगा की वादी में तुर्को के भावी अभियान का आधार बना दिया गया ।

एक विद्रोह के बाद मुस्लिम सेना ने अजमेर पर फिर से कब्जा किया और एक तुर्क सिपहसालार वहाँ नियुक्त किया गया । पृथ्वीराज का बेटा रणथंभौर चला गया और वहाँ उसने एक नए न शक्तिशाली चौहान राज्य की नींव डाली । इस तरह दिल्ली का इलाका और पूर्वी राजस्थान तुर्क शासन के अधीन हो गए ।

गंगा की वादी, बिहार और बंगाल में तुर्कों की विजय:

1192 और 1206 के बीच तुर्क शासन गंगा-यमुना दोआब और पास के इलाकों में स्थापित हो गया । बिहार और बंगाल भी जीत लिए गए । दोआब में अपने पैर जमाने के लिए तुर्को को पहले कन्नौज के शक्तिशाली गाहडवाल राज्य को हराना जरूरी था । गाहडवाल राजा जयचंद्र दो दशकों से शांतिपूर्वक राज्य करता आ रहा था ।

वह संभवत: कोई बहुत समर्थ योद्धा नहीं था क्योंकि पहले उसे बंगाल के सेन राजा के हाथों मुँह की खानी पड़ी थी । तराई के बाद मुईजुद्‌दीन अपने भरोसे के गुलामों के हाथों में भारत की बागडोर देकर वापस गजनी चला गया । इन सरदारों में प्रमुख था कुतबुद्‌दीन ऐबक । अगले दो वर्षो में तुर्कों ने गाहडवालों के किसी विरोध का सामना किए बिना ऊपरी दोआब को रौंद डाला ।

1194 में मुईजुद्‌दीन भारत लौटा । 50,000 सवारों के साथ यमुना को पार करके वह कन्नौज की ओर बढ़ा । कन्नौज के पास चंदावर में मुईजुद्‌दीन और जयचंद्र के बीच एक भयानक लड़ाई हुई । कहा जाता है कि जयचंद्र लगभग जीत ही चुका था कि एक तीर लगने से मारा गया और उसकी सेना पूरी तरह पराजित हुई ।

मुईजुद्‌दीन अब बनारस की ओर बढ़ा जिसे रौंद दिया गया तथा बड़ी संख्या में मंदिर नष्ट कर दिए गए । तुर्को ने बिहार की सीमा तक फैले हुए एक विशाल भूभाग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया ।

इस तरह तराई और चंदावर की लड़ाइयों ने उत्तर भारत में तुर्क राज्य की बुनियाद रखी । लेकिन इस तरह प्राप्त विजय को स्थायी बनाने का काम टेढ़ी खीर साबित हुआ और उसने तुर्को को लगभग 50 वर्षो तक उलझाए रखा ।

मुईजुद्‌दीन 1206 तक जीवित रहा । इस काल में उसने दिल्ली के दक्षिण स्थित क्षेत्र की रक्षा के लिए बयाना और ग्वालियर के मजबूत किलों पर कब्जा कर लिया । कुछ समय बाद ऐबक ने चंदेल शासकों से कलिंजर, महोबा और खजुराहों को छीन लिया । दोआब में अपना मजबूत आधार बनाकर तुर्को ने पड़ोसी क्षेत्रों पर अनेक धावे बोले ।

ऐबक ने गुजरात के राजा भीम तृतीय को हराया तथा अन्हिलवाड़ा और दूसरे बहुत-से नगर तहस-नहस कर दिए और लूट लिए । इस क्षेत्र के शासन के लिए एक मुसलमान सूबेदार नियुक्त किया गया । पर जल्द ही तुर्क सेनाओं को बेदखल कर दिया गया । इससे स्पष्ट हो गया कि तुर्क अभी भी इतने शक्तिशाली नहीं थे कि इतने दूर-दूर फैले क्षेत्रों पर शासन कर सके ।

लेकिन पूरब में तुर्क अधिक सफल रहे । एक खलजी सरदार बख्तियार खलजी को जिसका चाचा तराई की जंग में लड़ चुका था, बनारस से आगे के कुछ क्षेत्रों का हाकिम नियुक्त किया गया । उसने इस बात का फायदा उठाकर बिहार में बार-बार ध्यावे बोले जो उन दिनों एक तरह से अनाथ क्षेत्र (नो-मैंस लैंड) था ।

इन धावों के दौरान उसने बिहार के प्रसिद्ध बौद्ध विहारों नालंदा और विक्रमशिला पर आक्रमण करके उन्हें नष्ट कर दिया था जिनका तब कोई संरक्षक बचा नहीं था । उसने काफी दौलत भी जमा कर ली और अपने चारों तरफ अनेक अनुयायी खड़े कर लिए । इन धावों के दौरान उसने बंगाल के रास्तों की जानकारी भी हामिल कर ली । बंगाल का अपना एक अलग आकर्षण था क्योंकि उसके आंतरिक संसाधनों और फलते-फूलते विदेशी व्यापार ने उसे अलग्न समृद्ध होने की प्रसिद्धि दिला दी थी ।

सावधानी के साथ तैयारी के बाद बख्तियार खलजी सेना लेकर नादिया की ओर बढ़ा । यह एक तीर्थ था जहाँ सेन राजा लक्ष्मण सेन ने एक महल बनवा रखा था और तब वह तीर्थयात्रा के लिए उसी दिशा में गया हुआ था । घोड़ों पर सवार तुर्क सौदागरों का दिखाई देना उन दिनों आम बात थी ।

ऐसा ही एक सवार सौदागर होने का दिखावा करके बख्तियार खलजी ने एकाएक महल पर हमला कर दिया और भारी अफरातफरी मचा दी । सेन राजा लक्ष्मण सेन एक मशहूर योद्धा था । लेकिन सहसाक्रमण से घबराकर और मुख्य तुर्क सेना को आया समझकर वह महल के पीछे के दरवाजे से खिसक गया ।

तुर्क फौज पास ही रही होगी क्योंकि वह जल्दी ही आ पहुँची और उसने वहाँ की गढ़सेना को तितर-बितर कर दिया । राजा की कुछ पत्नियों और बच्चों समेत सारी दौलत उसके हाथ लगी । यह घटना 1204 ई॰ की मानी जाती है । बख्तियार ने फिर आगे बढ़कर बिना किसी विरोध के सेनों की राजधानी लखनौती पर कब्ज़ा कर लिया । लक्ष्मण सेन सोनारगाँव (दक्षिण बंगाल) चला गया जहाँ से वह और उसके उत्तराधिकारी अनेक पीढ़ियों तक राज्य करते रहे ।

मुईजुद्‌दीन ने बख्तियार खलजी को औपचारिक रूप से हालांकि बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, पर वह एक स्वतंत्र शासक की तरह राज्य करता रहा । पर इस स्थिति का सुख वह लंबे समय तक नहीं भोग सका । उसने ब्रह्मपुत्र की वादी, असम में एक मूर्खताभरी मुहिम शुरू की, हालांकि लेखकों का कहना है कि वह तिब्बत में एक मुहिम चलाना चाहता था ।

असम के माघ शासक पीछे हट गए और तुर्क सेनाएँ जहाँ तक आगे बढ़ सकती थीं उन्हें बढ़ने दिया । आखिर थकी-माँदी सेनाओं ने तय किया कि वे और आगे नहीं जा सकतीं और उन्होंने पीछे लौटने का फैसला किया । रास्ते में उन्हें कोई रसद नहीं मिली और असमी सेनाएँ उन्हें बराबर परेशान करती रहीं । भूख और बीमारी से चूर और कमजोर होकर तुर्क सेना एक ऐसी जंग में जा फंसी जहाँ आगे नदी की चौड़ी धारा थी और पीछे असमी सेना थी । तुर्क सेनाएँ पूरी तरह पराजित हुई ।

बख्तियार खलजी कुछ पहाड़ी कबीलों की सहायता से, अपने कुछ साथियों के साथ वापस लौटने में सफल रहा । पर उसकी सेहत और हिम्मत टूट चुकी थी । बुरी तरह बीमार होकर उसने बिस्तर पकड़ लिया । इसी बीमार हालत में उसके एक अमीर ने उसे खंजर मारकर मौत की नींद सुला दिया ।

ऐबक तथा तुर्क और खलजी सरदार जब उत्तर भारत में पाँव फैलाने तथा तुर्कों की विजय को स्थायी बनाने का प्रयत्न कर रहे थे, तब मुईजुद्‌दीन और उसका भाई मध्य एशिया में गौर साम्राज्य को विस्तार देने के लिए प्रयासरत थे । गौरियों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के कारण शक्तिशाली ख्वारिज्मी साम्राज्य से उनका सीधा टकराव हुआ ।

1203 में मुईजुद्‌दीन की ख्वारिज्मी शासक के हा थों विनाशकारी पराजय हुई । यह पराजय गौरियों के लिए छिपा वरदान साबित हुई क्योंकि उनको अपनी मध्य एशियाई महत्वाकांक्षाओं से मुँह मोड़कर पूरी तरह भारत पर अपनी शक्ति को केंद्रित करना पड़ा । इसके कारण कुछ समय बाद भारत में केंद्रित एक तुर्क राज्य का उदय हुआ ।

लेकिन तात्कालिक संदर्भ में तो मुईजुद्‌दीन की पराजय ने उसके अनेक भारतीय विरोधियों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया । पश्चिमी पंजाब के एक जंगजू कबीले के खोखर उठ खड़े हुए तथा उन्हौंने लाहौर और गजनी के बीच सारा संचार-संपर्क तोड़ डाला । मुईजुद्‌दीन ने भारत में 1206 में अपना आखिरी अभियान खोखरों की बगावत से निबटने के लिए ही चलाया । उसने बड़े पैमाने पर खोखरों का कत्ल किया और उनको झुका डाला । किंतु गजनी वापस जाते हुए उसे एक कट्‌टरपंथी मुस्लिम ने मार डाला ।

मुईजुद्‌दीन मुहम्मद-बिन-साम की तुलना अकसर गजनी के महमूद अर्थात महमूद गजनवी से की जाती है । योद्धा के रूप में मुईजुद्‌दीन से अधिक सफल महमूद गजनवी रहा जिसे भारत या मध्य एशिया में कभी पराजित होना नहीं पड़ा । वह भारत के बाहर एक कहीं अधिक बड़े साम्राज्य का शासक भी था ।

पर ध्यान रहे कि महमूद की अपेक्षा मुईजुद्‌दीन को भारत में अधिक बड़े और बेहतर संगठित राज्यों का सामना करना पड़ा । वह मध्य एशिया में तो कम सफल रहा पर भारत में उसकी राजनीतिक उपलब्धियाँ अधिक रहीं । मगर उत्तर भारत में मुईजुद्‌दीन की सफलताओं के लिए जमीन महमूद की पंजाब-विजय ने तैयार की थी ।

इन दोनों के सामने मौजूद दशाएँ बहुत भिन्न-भिन्न थीं, इसे देखते हुए दोनों के बीच कोई अर्थपूर्ण तुलना संभव नहीं है । भारत में इन दोनों के राजनीतिक और सैनिक उद्‌देश्यों में भी बहुत अंतर थे । महमूद के लिए पंजाब की विजय और भारत में लूटपाट मध्य एशिया में अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का साधन थीं ।

चूंकि मुईजुद्‌दीन मुहम्मद का बड़ा भाई शहाबुद्‌दीन गौरी मध्य एशिया के मामलों में उलझा हुआ था इसलिए मुईजुद्‌दीन मुहम्मद उत्तर भारत में तुर्क राज्य कायम करने के लिए आगे बढ़ा तथा महमूद और शहाबुद्‌दीन दोनों द्वारा जमा संसाधनों का उपयोग किया ।

महमूद और मुईजुद्‌दीन मुहम्मद, दोनों ही सुन्नी इस्लाम के समर्थक थे । काफिर (हिंदू) मंदिरों को नष्ट करने तथा मुलतान के अपधर्मी इस्माइलियों का दमन करना वे सम्मानजनक और गौरवपूर्ण कार्य मानते थे । इस सिलसिले में दोनों ही सिंध के पिछले अरब शासकों से संभवत: काफी आगे चले गए ।

लेकिन यह नीति बहुत समय तक चलने वाली नहीं थी और जब भी उनको उचित लगा दोनों ने ही अधीन हिंदू राजाओं को मान्यता देने के प्रयास किए या इसके लिए वे मजबूर हो गए । हिंदू अधिकारियों और सैनिकों का इस्तेमाल महमूद ने भी किया और मुईजुद्‌दीन मुहम्मद ने भी । लेकिन अपने मकसद के लिए इस्लाम का नारे देने से परहेज इनमें से किसी ने भी नहीं किया ।

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