Read this article in Hindi to learn about the history of North India and Deccan (8th-10th Century) during the medieval period.

सातवीं सदी में हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत दकन और दक्षिण भारत में अनेक बड़े राज्य पैदा हुए । उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य और हर्ष के साम्राज्य के समान कोई भी राज्य गंगा की पूरी वादी को अपने नियंत्रण में लाने मैं सफल नहीं रहा ।

गंगा की वादी की जनसंख्या और दूसरे संसाधन ही वे आधार थे जिनके सहारे गुप्त राजाओं और हर्ष ने अपना नियंत्रण गुजरात पर स्थापित किया था जो अपने समृद्ध बंदरगाहों और निर्मित वस्तुओं के कारण विदेशी व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण था ।

मालवा और राजस्थान गंगा वादी और गुजरात के बीच की अनिवार्य कड़ी थे । उत्तर भारत में किसी भी साम्राज्य की भौगोलिक सीमाएँ इसी प्रकार निरूपित होती थीं । दक्षिण भारत में चोल कृष्णा-गोदावरी डेल्टा और कावेरी डेल्टा को अपने नियंत्रण में लाने में सफल रहे । दक्षिण भारत में उनके वर्चस्व का आधार यही था ।

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ईस्वी 750 और 1000 के बीच उत्तर भारत और दकन में जो बड़े-बड़े राज्य उत्पन्न हुए वे थे पाल साम्राज्य, जो नवीं सदी के मध्य तक पूर्वी भारत पर छाया रहा; प्रतिहार साम्राज्य, जो दसवीं सदी के मध्य तक पश्चिम भारत और गंगा की ऊपरी वादी पर राज्य करता रहा और राष्ट्रकूट साम्राज्य जो दकन पर राज्य करता रहा तथा विभिन्न कालों में उत्तर और दक्षिण भारत के इलाकों को भी नियंत्रित करता रहा ।

हालांकि ये साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे, पर इनमें से हर एक ने बड़े-बड़े क्षेत्रों में स्थिर जीवन की परिस्थतियाँ प्रदान कीं, कृषि का विस्तार किया, तालाबों और नहरों का निर्माण कराया तथा कला और साहित्य को संरक्षण प्रदान किया जिनमें मंदिर भी शामिल थे ।

इन तीनों में राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे लंबा चला । यह अपने काल का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य ही नहीं था बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में उसने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच पुल का काम भी किया ।

उत्तर भारत में वर्चस्व का संघर्ष:

हर्ष की मृत्यु के बाद का काल राजनीतिक अव्यवस्था का काल था । कश्मीर के राजा ललितादित्य ने कुछ समय तक पंजाब को अपने नियंत्रण में रखा । उसका नियंत्रण कन्नौज पर भी रहा जिसे हर्ष के दिनों से ही उत्तर भारत में प्रभुसत्ता का प्रतीक माना जाता था-आगे चलकर यही स्थिति दिल्ली की हो गई ।

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कन्नौज पर नियंत्रण का मतलब गंगा की ऊपरी वादी तथा उसके व्यापार और समृद्ध कृषि संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेना भी था । ललितादित्य ने बंगाल अर्थात गौड़ पर भी हमला किया और उसके शासक को मार डाला । पर पाल और गुर्जर-प्रतिहार वंशों के उदय के साथ उसकी शक्ति समाप्त हो गई ।

पाल और प्रतिहार बनारस से लेकर दक्षिण बिहार तक के क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए आपस में टकराते रहे । इस क्षेत्र में भी समृद्ध संसाधन थे तथा साम्राज्य से संबंधित अपनी सुविकसित परंपराएँ थीं । दकन के राष्ट्रकूटों से भी प्रतिहारों का टकराव होता रहा ।

प्रतिहार: 

लंबे समय तक कन्नौज पर शासन करने वाले प्रतिहारों को गुर्जर-प्रतिहार भी कहते हैं । अधिकांश विद्वान मानते हैं कि वे गुर्जरों के वंशज थे जाटों की तरह घुमक्कड़ पशुपालक और योद्धा थे । प्रतिहारों ने मध्य और पूर्वी राजस्थान में अनेक रजवाड़े स्थापित किए । मालवा और गुजरात पर नियंत्रण के लिए राष्ट्रकूटों से वे टकराते रहे, और बाद में कन्नौज के लिए भी जिसका मतलब गंगा की ऊपरी घाटी पर नियंत्रण पाना था ।

प्रतिहारों की राजधानी पहले भनिमाल में थी । उन्हें नागभट्‌ट प्रथम के काल में प्रमुखता मिली । नागभट्‌ट ने सिंध के अरब शासकों का, जो राजस्थान, गुजरात, पंजाब आदि पर अधिकार जमाने का प्रयास कर रहे थे जमकर विरोध किया । अरब गुजरात की ओर तेजी से बड़े पर गुजरात के चालुक्य राजा के हाथों 738 ई॰ में उनकी निर्णायक पराजय हुई । हालाँकि छोटी-मोटी अरब घुसपैठें जारी रहीं पर उसके बाद अरब वास्तविक खतरा नहीं रह गए ।

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प्रतिहार राजाओं के गंगा के ऊपरी वादी और मालवा पर नियंत्रण फैलाने के आरंभिक प्रयासों को राष्ट्रकूट शासक ध्रुव और गोपाल तृतीय ने नाकाम कर दिया । राष्ट्रकूटों ने 790 ई॰ में और फिर 806-07 ई॰ में प्रतिहारों को हराया । किंतु इसके बाद वे दकन लौट गए और पालों के लिए मैदान खुला छोड़ गए । संभवत: मालवा और गुजरात पर वर्चस्व रखना ही राष्ट्रकूटों का प्रमुख उद्‌देश्य था ।

प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और इस वंश का महानतम शासक भोज था । भोज के आरंभिक जीवन या सत्तारोहण के समय के बारे में हम अधिक नहीं जानते । उसने प्रतिहार साम्राज्य का पुनर्निर्माण किया तथा 836 ई॰ के आसपास कन्नौज को वापस जीत लिया जो लगभग एक सदी तक प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी रहा ।

भोज ने पूरब में पाँव फैलाने की कोशिश की, पर पाल राजा देवपाल ने उसे हराकर आगे बढ़ने से रोक दिया । फिर वह मध्य भारत, दकन और गुजरात की ओर मुड़ गया । इससे राष्ट्रकूटों के साथ प्रतिहारों का संघर्ष फिर से शुरू हो गया ।

नर्मदा किनारे हुई एक खूनी लड़ाई के बाद भोज मालवा के एक अच्छे-खासे भाग पर और गुजरात के कुछ भागों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने में सफल रहा, पर दकन में वह आगे नहीं बढ़ सका । इसलिए उसने फिर उत्तर की ओर अपनी निगाह घुमाई ।

एक शिलालेख के अनुसार उसका राज्य सतलुज नदी के पश्चिमी तट तक फैला हुआ था । अरब यात्रियों से हमें पता चलता है कि प्रतिहार शासकों के पास भारत की सर्वोत्तम घुड़सवार सेना थी । उन दिनों मध्य एशिया और अरब प्रदेश से घोड़ों का आयात भारत के व्यापार का एक महत्त्वपूर्ण मद था ।

देवपाल के मरने और पाल साम्राज्य के कमजोर पड़ने के बाद भोज ने पूर्व में भी अपना साम्राज्य फैलाया । कथाओं में भोज का नाम मशहूर है । संभवत: आरंभिक जीवन में भोज के दुस्साहसी कार्यो, अपने खोए हुए साम्राज्य की धीरे-धीरे पुनर्स्थापना और अंतत: कन्नौज की पुनर्विजय ने उसे उसके समकालीनों की कल्पना में विशेष स्थान दिला दिया था ।

भोज विष्णुभक्त था और उसने ‘आदिवाराह’ की उपाधि ग्रहण की जो उसके कुछ सिक्कों पर भी अंकित मिलती है । उज्जैन पर राज्य करनेवाले भोज परमार से उसे भिन्न दिखाने के लिए उसे कभी-कभी मिहिर भोज भी कहा जाता है ।

भोज की मृत्यु संभवत: 885 ई॰ के आसपास हुई । उसका पुत्र महेंद्रपाल प्रथम उसका उत्तराधिकारी बना । 908-9 ई॰ तक राज्य करनेवाले महेंद्रपाल ने भोज के साम्राज्य को कायम रखा तथा उसे मगध और उत्तर बंगाल तक फैलाया । उसके शिलालेख काठियावाड़, पूर्वी पंजाब और अवध में भी मिले हैं ।

महेद्रपाल ने कश्मीर के राजा से भी युद्ध किया मगर उसे पंजाब का कुछ क्षेत्र सौंपना पड़ा जिसे भोज ने जीता था । इस तरह प्रतिहार आरंभिक नवीं सदी से लेकर दसवीं सदी के मध्य तक सौ वर्षो से अधिक काल तक उत्तरी भारत पर राज्य करते रहे ।

बगदाद का निवासी अल-मसूदी, जो 915-16 ई॰ में गुजरात आया था प्रतिहार शासकों की भारी शक्ति और प्रतिष्ठा का तथा उनके साम्राज्य की विशालता का वर्णन करता है । वह गुर्जर-प्रतिहार राज्य को अल-जुज्र (गुजरात का भ्रष्ट रूप) कहता है तथा राजा को बौर कहता है जो संभवत: भोज की उपाधि आदिवाराह का भ्रष्ट उच्चारण है, हालांकि भोज तब तक मर चुका था ।

अल-मसूदी कहता है कि जुज्र साम्राज्य में 1,80,000 गाँव नगर और ग्रामीण क्षेत्र थे तथा यह 2000 कि॰मी॰ लंबा और 2000 कि॰मी॰ चौड़ा था । राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक में 7,00,000 से 9,00,000 सैनिक थे ।

‘उत्तर की सेना लेकर वह मुलतान के बादशाह और दूसरे मुसलमानों के खिलाफ जो उसका साथ देते हैं लड़ाई लड़ता है ।’ दक्षिण की सेना राष्ट्रकूटों से लड़ती थी और पूरब वाली पालों से । उसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2000 हाथी थे पर उसकी घुड़सवार सेना देशभर में सर्वश्रेष्ठ थी ।

प्रतिहार ज्ञान-विज्ञान और साहित्य के संरक्षक थे । महान संस्कृत कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पोते महीपाल के दरबार में थे । प्रतिहारों ने कन्नौज को भी अनेक सुंदर भवनों और मंदिरों से सजा रखा था ।

आठवीं और नवीं सदियों में अनेक भारतीय विद्वान दूतों के साथ बगदाद के खलीफा के दरबार में गए । इन विद्वानों ने अरब दुनिया को भारतीय विज्ञानों से और विशेषकर गणित, बीजगणित और आयुर्विज्ञान से परिचित कराया । हमें इन दूतों को भेजनेवाले भारतीय राजाओं के नाम ज्ञात नहीं हैं ।

सिंध के अरब शासकों से प्रतिहारों की शत्रुता सबको पता थी । इसके बावजूद ऐसा लगता है कि इस काल में भी भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और वस्तुओं का आवागमन जारी रहा ।

915 और 918 ई॰ के बीच राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय ने फिर कन्नौज पर आक्रमण किया और नगर को तबाह करके रख दिया । इससे प्रतिहार साम्राज्य कमजोर हुआ और संभवत: गुजरात राष्ट्रकूटों के हाथों में चला गया क्योंकि अल-मसूदी का कथन है कि समुद्र तक प्रतिहार साम्राज्य की पहुँच नहीं थी ।

गुजरात विदेश व्यापार का गढ़ और उत्तर भारतीय वस्तुओं को पश्चिम एशिया के देशों में भेजनेवाला प्रमुख केंद्र था । इसलिए उसकी हानि से प्रतिहारों को एक और धक्का लगा । 963 ई॰ के आसपास एक और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने उत्तर भारत पर आक्रमण करके प्रतिहार राजा को हराया । उसके बाद से ही प्रतिहार साम्राज्य का तेजी से विघटन होने लगा ।

राष्ट्रकूट:

उत्तर भारत पर जब पालों और प्रतिहारों का शासन था तब दकन पर राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे । यह एक उल्लेखनीय राजवंश था जिसने योद्धाओं और कुशल प्रशासकों की एक लंबी शृंखला प्रस्तुत की । इस राज्य का संस्थापक दंतिदुर्ग था जिसने आधुनिक शोलापुर के पास मान्यखेत या मलखेड़ को अपनी राजधानी बनाया ।

जल्द ही पूरा उत्तर महाराष्ट्र राष्ट्रकूटों के अधीन आ गया । गुजरात और मालवा पर वर्चस्व के लिए राष्ट्रकूटों ने प्रतिहारों से भी लोहा लिया । हालाँकि उनके हमलों के कारण राष्ट्रकूट साम्राज्य का गंगा की वादी तक प्रसार नहीं हो पाया पर उन्हें लूट में भारी दौलत सिली और राष्ट्रकूटों की प्रसिद्धि बड़ी ।

राष्ट्रकूट वेंगी (आधुनिक आध्रप्रदेश में स्थित) के पूर्वी चालुक्यों के खिलाफ तथा दक्षिण में कांची के पल्लवों और मदुरै के पांड्‌यों के खिलाफ भी बराबर युद्ध करते रहे । राष्ट्रकूट राजाओं में गोविंद तृतीय (793-814) और अमोघवर्ष (814-878) संभवत: सबसे महान थे । कन्नौज के नागभट्‌ट के खिलाफ एक सफल अभियान और मालवा पर अधिकार कर लेने के बाद गोविंद तृतीय दक्षिण की ओर मुड़ा ।

एक शिलालेख से हमें पता चलता है कि गोविंद ने ‘केरल, पांड्‌य और चोल राजाओं को भयभीत कर दिया तथा पल्लवों का तो विनाश ही हो गया । (कर्नाटक का) गंग जो क्षुद्रता के कारण असंतोष का पात्र बना जंजीरों में जकड़ा गया और मृत्यु को प्राप्त हुआ ।’

लंका के राजा और उसके मंत्री को जो अपने ही हितों की उपेक्षा करने लगे थे पकड़कर कैदियों के रूप में हालापुर लाया गया । लंका के स्वामी की दो मूर्तियाँ मान्यखेत लाई गई और एक शिवमंदिर के सामने विजयस्तंभों के रूप में लगा दी गईं ।

अमोघवर्ष ने 64 वर्षों तक राज्य किया पर उसका स्वभाव ऐसा था कि वह युद्ध पर धर्म और साहित्य को वरीयता देता था । वह स्वयं एक लेखक था और कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर पहली पुस्तक लिखने का श्रेय उसे दिया जाता है । वह एक महान निर्माता था और कहते हैं कि राजधानी मान्यखेत को उसने ऐसा बनाया कि इंद्रपुरी भी उसका मुकाबला नहीं कर पाए ।

अमोघवर्ष के काल में दूर तक फैले राष्ट्रकूट साम्राज्य में अनेक विद्रोह हुए । इनको मुश्किल से वश में किया जा सका और उसकी मृत्यु के बाद ये फिर शुरू हो गए । साम्राज्य की पुनर्स्थापना उसके पोते इंद्र तृतीय (915-927) ने की । 915 में महीपाल की पराजय और कन्नौज की लूट के बाद इंद्र तृतीय अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा बन बैठा ।

उन दिनों भारत की यात्रा पर आए अल-मसूदी के अनुसार राष्ट्रकूट राजा बन्दर या बल्लभराज भारत का सबसे बड़ा राजा था और अधिकांश भारतीय राजा उसकी अधिराजी को स्वीकार करते थे और उसके दूतों का सम्मान करते थे । उसके पास बहुत बड़ी सेना थी और अनगिनत हाथी थे ।

कृष्ण तृतीय (934-936) प्रतिभाशाली शासकों की इस शृंखला में अंतिम था । मालवा के परमारों और वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ वह युद्धरत रहा । उसने तंजावुर के चोल शासकों के खिलाफ भी अभियान छेड़ा जिन्होंने काँची के पल्लवों को विस्थापित किया था । कृष्ण तृतीय ने चोल राजा परंटक प्रथम को (949 में) हराया और चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया ।

फिर वह रामेश्वरम की तरफ बढ़ा जहाँ उसने एक विजयस्तंभ और एक मंदिर बनवाया । उसकी मृत्यु के बाद उसके सभी विरोधी उसके उत्तराधिकारी के खिलाफ एकजुट हो गए । राष्ट्रकूट राजधानी मलखेड़ को 972 में लूटकर जला दिया गया । इस तरह राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंत हो गया ।

दकन में राष्ट्रकूट शासन लगभग दो सौ वर्षों तक, दसवीं सदी के अंत तक जारी रहा । धार्मिक दृष्टिकोण से राष्ट्रकूट राजा सहिष्णु थे तथा वे केवल शैव और वैष्णव ही नहीं बल्कि जैन मत के भी संरक्षक थे ।

एलोरा में चट्‌टान काटकर बनाया गया सुप्रसिद्ध शिव मंदिर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम द्वारा नवीं सदी में बनवाया गया था । कहते हैं कि उसका उत्तराधिकारी अमोघवर्ष जैन था, लेकिन वह दूसरे धर्मों को भी संरक्षण देता था । राष्ट्रकूटों ने मुस्लिम व्यापारियों को अपने राज्य में बसने और इस्लाम का प्रचार करने की अनुमति दी ।

कहते हैं कि इन मुसलमानों के अपने मुखिया थे और राष्ट्रकूट साम्राज्य के अनेक तटीय नगरों में नमाज के लिए उनकी बड़ी-बड़ी मस्जिदें थीं । सहिष्णुता की इस नीति ने विदेशी व्यापार को बढ़ावा दिया जिससे राष्ट्रकूटों की समृद्धि बड़ी । राष्ट्रकूट शासक कला और साहित्य के महान संरक्षक थे । उनके दरबारों में हमें संस्कृत के विद्वान ही नहीं, ऐसे कवि और अन्य लोग भी दिखाई देते हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश में लिखते थे ।

ये ही तथाकथित भ्रष्ट भाषाएँ थीं जो आधुनिक भारत की विभिन्न भाषाओं की स्रोत थीं । महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और उनका पुत्र संभवत: राष्ट्रकूट दरबार से ही संबंधित थे ।

राजनीतिक विचार और संगठन:

इन साम्राज्यों की प्रशासन की व्यवस्था उत्तर में गुप्त साम्राज्य और हर्ष के राज्य और दकन में चालुक्यों के आचार-विचार पर आधारित थी । शासक पहले की ही तरह सभी मामलों का केंद्र था । वह प्रशासन का प्रमुख भी था और सशस्त्र बलों का प्रमुख सेनापति भी । वह एक शानदार दरबार लगाता था ।

पैदल और घुड़सवार सेना को दालान में रखा जाता था । युद्ध में पकड़े गए हाथियों और घोड़ों को उसके सामने पेश किया जाता था । राजकीय सहायक सदा उसकी सेवा में तैनात रहते थे । सामंतों, मातहत सरदारों, और राजदूतों के आने-जाने को वे ही नियंत्रित करते थे तथा उन अन्य उच्च अधिकारियों पर नजर रखते थे जो नियमित रूप से राजा की सैवा में थे ।

राजा ही न्याय भी करता था । दरबार राजनीतिक मामलों और न्याय ही नहीं, सांस्कृतिक जीवन का भी केंद्र होता था । नर्तकियाँ और कुशल संगीतकार भी दरबार में रहते थे । उत्सव के अवसरों पर राजपरिवार की महिलाएँ भी दरबार में उपस्थित रहती थीं । अरब लेखकों के अनुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य में स्त्रियाँ अपने चेहरे को ढँकती नहीं थीं ।

राजा का पद सामान्यत: पुश्तैनी होता था । उस काल में व्याप्त असुरक्षा के कारण उस काल के विचारक राजा के प्रति पूर्ण निष्ठा और आज्ञाकारिता पर जोर देते थे । राजाओं के बीच तथा राजाओं और उनके मातहतों के बीच प्राय: युद्ध होते रहते थे ।

राजा अपने राज्यों के अंदर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के प्रयास तो करते थे पर उनके आदेश कभी-कभार ही दूर तक लागू हो पाते थे । अधीन शासक और स्वायत्त सरदार राजा के प्रत्यक्ष प्रशासन के क्षेत्र को अकसर सीमित कर देते थे हालांकि राजा अकसर राजाधिराज परमभट्‌टारक आदि भारी-भरकम उपाधियाँ धारण करते थे और चक्रवर्ती अर्थात सभी भारतीय शासकों में सर्वोच्च होने का दावा करते थे ।

मेधातिथि नामक एक समकालीन लेखक का विचार था कि अपने को चोरों और हत्यारों से बचाने के लिए शस्त्र धारण करना हर व्यक्ति का अधिकार था । वह यह भी मानता था कि अन्यायी राजा का विरोध करना उचित था । इस तरह राजसी अधिकारों और विशेषाधिकारों के अतिवादी दृष्टिकोण को जिसे मुख्यत: पुराणों में प्रस्तुत किया गया है, सभी विचारक स्वीकार नहीं करते थे ।

उत्तराधिकार संबंधी नियमों में ढीलापन था । अकसर ज्येष्ठ पुत्र ही उत्तराधिकारी होता था । किंतु ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें ज्येष्ठ पुत्र को अपने छोटे भाइयों से लड़ना पड़ा और कभी-कभी वे पराजित भी हुए । उदाहरण के लिए राष्ट्रकूट राजा धुव्र और गोविंद चतुर्थ ने अपने बड़े भाइयों को सत्ताच्युत किया ।

कभी-कभी राजा ज्येष्ठ पुत्र या अपने किसी और प्रिय पुत्र को युवराज घोषित कर देते थे । उस दशा मे युवराज राजधानी में ही रहता और प्रशासन के कामों में सहायता करता था । कनिष्ठ पुत्रों को कभी-कभी प्रांतों का अधिपति बना दिया जाता था ।

राजकुमारियों को शासन के पदों पर शायद ही कभी नियुक्त किया जाता था, पर हमारे पास एक उदाहरण मौजूद है कि एक राष्ट्रकूट राजकुमारी चंद्रबालाब्बी ने, जो अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री थी कुछ समय तक रायचूड़ दोआब का प्रशासन चलाया ।

राजा को सलाह देने के लिए प्राय कई मंत्री होते थे । मंत्रियों का चुनाव राजा आम तौर पर प्रमुख परिवारों में से करता था । उनका पद प्राय पुश्तैनी होता था । उदाहरण के लिए पाल राजाओं के संदर्भ में यह पता है कि एक ही ब्राह्मण परिवार के कम से चार सदस्य धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों के मुख्यमंत्री हुए ।

ऐसी परिस्थितियों में मंत्री बहुत शक्तिशाली बन जाता था । यूँ तो हमें केंद्र सरकार के अनेक विभागों के नाम सुनने को मिलते हैं पर हम नहीं जानते कि कितने विभाग होते थे और वे कैसे काम करते थे । अभिलेखों और साहित्यिक दस्तावेजों से पता लगता है कि लगभग हर राज्य में एक पत्राचार से संबंधित मंत्री होता था जो विदेश मंत्री की तरह भी कार्य करता था ।

इसके अलावा एक राजस्व मंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, मुख्य न्यायाधीश और पुरोहित होते थे । एक व्यक्ति एक से अधिक पदों पर भी आसीन हो सकता था । संभवत मंत्रियों में से किसी एक को अग्रणी माना जाता था जिस पर राजा दूसरों से अधिक निर्भर करता था । पुरोहित को छोड़ सभी मंत्रियों से आशा की जाती थी कि वे आवश्यकता पड़ने पर सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करेंगे ।

हमें राजपरिवार (अंत:पुर) के अधिकारियों के बारे में भी सुनने को मिलता है । चूंकि राजा समस्त सत्ता का स्रोत होता था इसलिए राजपरिवार के कुछ अधिकारी बहुत शक्तिशाली भी बन जाते थे ।

साम्राज्य की सुरक्षा और प्रसार में सशस्त्र बलों का बहुत महत्व था । हमने अरब यात्रियों के इस साक्ष्य को पहले ही उद्‌धृत किया है कि पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट राजाओं के पास विशाल सुसंगठित पैदल और घुड़सवार सेनाएँ थीं तथा बड़ी संख्या में जंगी हाथी थे ।

हाथियों को शक्ति का आधार मानकर उन्हें बहुत महत्व दिया जाता था । हाथियों की सबसे बड़ी संख्या पाल राजाओं के पास थी । राष्ट्रकूट और प्रतिहार राजा दोनों ही समुद्र के रास्ते अरब और पश्चिम एशिया से तथा स्थल के रास्ते खुरासान (पूर्वी फ़ारस) और मध्य एशिया से बड़ी संख्या में घोड़ों का आयात करते थे ।

माना जाता है कि प्रतिहार राजाओं के पास देश भर में सबसे अच्छी घुड़सवार सेना थी । युद्ध के रथों का कोई हवाला नहीं मिलता जिनका प्रचलन समाप्त हो चुका था । कुछ राजाओं खासकर राष्ट्रकूटों के पास किले बड़ी संख्या में थे । उनमें विशेष दस्ते तैनात रहते थे और उनके अपने अलग कमानदार होते थे ।

पैदल सेना में नियमित और अनियमित सैनिक होते थे, तथा मातहत राजाओं के भरती किए हुए अस्थायी सैनिक भी । नियमित सैनिक प्राय: पुश्तैनी होते थे तथा कभी-कभी देश के विभिन्न भागों से भरती किए जाते थे । उदाहरण के लिए पालों की पैदल सेना में मालवा, खस (असम), लाट (दक्षिण गुजरात) और कर्नाटक से आए सिपाही शामिल थे ।

पाल राजाओं की और संभवत: राष्ट्रकूटों की भी अपनी नौसेनाएं थीं । लेकिन उनकी शक्ति और संगठन के बारे में हम कुछ अधिक नहीं जानते । इन साम्राज्यों में सीधे प्रशासित क्षेत्र भी थे और अधीन सरदारों द्वारा प्रशासित क्षेत्र भी । सरदारों के क्षेत्र जहाँ तक अंदरूनी मामलों का सवाल है, स्वायत्त होते थे ।

सरदार राजा के प्रति निष्ठा रखते थे, वे राजा को निर्धारित कर या नजराना देते थे और उसे निर्धारित संख्या में सैनिक भी प्रदान करते थे । कभी-कभी विद्रोह की संभावना से बचने के लिए सरदार के एक बेटे का राजा की सेवा में रहना आवश्यक बना दिया जाता था ।

इन सरदारों से विशेष अवसरों पर राजा के दरबार में उपस्थित होने की और कभी-कभी तो उनसे राजा या उसके किसी बेटे से अपनी एक बेटी ब्याहने की आशा की जाती थी । लेकिन ये अधीन सरदार हमेशा स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहते थे तथा उनके और राजा के बीच प्राय: युद्ध होते रहते थे ।

उदाहरण के लिए राष्ट्रकूटों को वेंगी औध्र और कर्नाटक के सरदारों से या प्रतिहारों को मालवा के परमारों और बुंदेलखंड के चंदेलों के खिलाफ हमेशा लड़ना पड़ता था । पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्र मुक्ति (प्रांतों) और मंडल या विषय (जिलों) में विभाजित थे ।

प्रांत का अधिपति उपरिक और जनपद का अधिपति विषयपति कहलाता था । उपरिक से भूराजस्व जमा करने और सेना की सहायता से कानून-व्यवस्था बनाए रखने की आशा की जाती थी । विषयपति से यही कार्य अपने क्षेत्र में करने की अपेक्षा की जाती थी । इस काल में छोटे सरदारों की संख्या बड़ी ।

उनको सामंत या भोगपति कहा जाता था तथा अनेक गाँवों पर उनका प्रभुत्व होता था । विषयपति और इन छोटे सरदारों का आपस में हेरफेर होता था और आगे चलकर दोनों के लिए बिना किसी भेद के सामंत शब्द का प्रयोग किया जाने लगा ।

राष्ट्रकूट साम्राज्य में प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्रों को राष्ट्र प्रांतों विषय और मुक्ति में विभाजित किया गया था । राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति कहलाता था और उसका कार्यभार वही था जो पाल और प्रतिहार साम्राज्य में उपरिक का था । विषय आज के जिले के समान था और मुक्ति उससे भी छोटी इकाई थी ।

पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में विषय से छोटी इकाई को पत्तल कहते थे । इन छोटी इकाइयों की ठीक-ठीक भूमिका ज्ञात नहीं हैं । लगता है भूराजस्व वसूल करना और कुछ-कुछ कानून व्यवस्था पर ध्यान देना उनका मुख्य उद्‌देश्य था ।

ऐसा प्रतीत होता है कि सभी अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में राजस्वमुक्त भूमियाँ दी जाती थीं । इससे स्थानीय अधिकारियों तथा पुश्तैनी सरदारों और छोटे मातहत सरदारों का अंतर धुँधला जाता था । इसी तरह राष्ट्रपति या प्रांतीय शासक कभी-कभी एक अधीनस्थ राजा की स्थिति और पदवी पा जाता था ।

इन क्षेत्रीय विभाजनों के नीचे गाँव होता था । गाँव प्रशासन की बुनियादी इकाई था । गाँव का प्रशासन गाँव के मुखिया और लेखाकार द्वारा चलाया जाता था । ये आम तौर पर पुश्तैनी होते थे । उन्हें राजस्वमुक्त भूमि के रूप में भुगतान किया जाता था ।

अकसर मुखिया को अपने काम में गाँव के बुजुर्गों से सहायता मिलती थी जिनको ग्राम-महाजन या ग्राम महत्तर कहते थे । ऐसा मालूम होता है कि राष्ट्रकूट साम्राज्य में, विशेषकर कर्नाटक में, स्थानीय विद्यालयों, तालाबों, मंदिरों और सड़कों की देखभाल के लिए ग्राम समितियों होती थीं ।

वे ट्रस्ट के तौर पर धन या संपत्ति ग्रहण कर सकती थीं और उसका प्रबंध भी कर सकती थीं । ये उपसमितियाँ मुखिया से घनिष्ठ सहयोग बनाए रखकर काम करती थीं और जमा राजस्व का एक भाग पाती थीं । मामूली विवाद इन्हीं समितियों द्वारा तय किए जाते थे ।

ऐसी ही समितियाँ नगरों में भी थीं और दस्तकार संघों के प्रमुख भी उनसे जुड़े होते थे । नगरों और आसपास के क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था कायम रखना कोष्ठपाल या कोतवाल की जिम्मेदारी होती थी । कोतवाल से जुड़ी अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं ।

दकन में नाद-गबुंड या देश-ग्रामकूट कहलाने वाले पुश्तैनी राजस्व अधिकारियों का उदय इस काल की एक प्रमुख विशेषता है । लगता है उनके कार्य वही थे जो बाद के काल में महाराष्ट्र में देशमुख और देशपांडे के जिम्मे आए ।

इस विकासक्रम ने और साथ में उत्तर भारत में छोटे सरदारों के उदय ने जिसका हमने अभी-अभी जिक्र किया है समाज और राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला । इन पुश्तैनी तत्वों की शक्ति बड़ी तो ग्राम समितियाँ कमजोर हुई । इन पुश्तैनी तत्वों पर अपनी सत्ता की धाक जमा पाना और उन्हें नियंत्रित करना केंद्रीय शासक के लिए भी मुश्किल हो गया । जब हम कहते हैं कि शासन का ‘सामंतीकरण’ हो रहा था तो हमारा आशय यही होता है ।

इस काल में राज्य और धर्म के संबंध को भी ध्यान में रखना आवश्यक है । उस काल के शासकों में अनेक शिव या विष्णु के निष्ठावान भक्त थे और कुछ बौद्ध या जैन धर्म की शिक्षा में विश्वास करते थे । उन्होंने ब्राह्मणों या बौद्ध विहारों या जैन मंदिरों को बड़े-बड़े दान दिए ।

लेकिन आम तौर पर वे सभी धर्मो को सरंक्षण प्रदान करते थे और किसी के धार्मिक विश्वासों के कारण उसका दमन नहीं करते थे । राष्ट्रकूट राजाओं ने मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म का प्रचार करने की अनुमति दी । सामान्यत एक राजा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह प्रचलित रीति-रिवाजों में या धर्मशास्त्र कहलाने वाले विधिग्रंथों में निर्धारित आचार-संहिता में हस्तक्षेप नहीं करेगा ।

लेकिन ब्राह्मणों की रक्षा करना तथा समाज के चार वर्णो वाली सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना उसका सामान्य कर्त्तव्य होता था । इस बारे में पुरोहित से राजा का मार्गदर्शन करने की आशा की जाती थी । पर यह नहीं मान लेना चाहिए कि पुरोहित राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकता था या राजा पर प्रभुत्व जमा सकता था ।

इस काल में धर्मशास्त्र के सबसे प्रमुख प्रतिपादक थे मेधातिथि, जिनका कहना था कि राजा की सत्ता का स्रोत धर्मशास्त्र, जिनमें वेद भी शामिल थे, और अर्थशास्त्र दोनों हैं । उसका सार्वजनिक कर्त्तव्य (राजधर्म) अर्थशास्त्र अर्थात राजनीति के सिद्धांतों पर आधारित होता था ।

इसका वास्तव में यह अर्थ निकलता है कि राजनीति और धर्म को मूलत: अलग-अलग रखा जाता था और धर्म बुनियादी तौर पर राजा का निजी कर्त्तव्य होता था । इस तरह राजागण पुरोहित वर्ग के या उनके द्वारा प्रतिपादित धार्मिक नियमों के अधीन नहीं होते थे । फिर भी, शासकों के पद को वैधता प्रदान करने और उसे शक्ति देने के लिए धर्म का महत्व था । इसीलिए अनेक राजाओं ने प्राय: अपनी राजधानियों में मंदिर बनवाए तथा मंदिरों और ब्राह्मणों के रखरखाव, भरण-पोषण के लिए भारी-भारी भूमिदान दिए ।

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