Read this article in Hindi to learn about the strengthening of Mughal empire in India during the rule of Akbar.

हुमायूँ जब बीकानेर से पीछे हट रहा था तब अमरकोट के राणा ने उसे शरण दी थी और उसकी सहायता की थी । मुगल बादशाहों में सबसे महान बादशाह अकबर का जन्म 1542 में इसी अमरकोट में हुआ । हुमायूँ जब भागकर ईरान चला गया तब अकबर अपने चाचा कामरान के हाथों में पड़ गया । उसने बच्चे के साथ अच्छा सलूक किया ।

कंदहार पर अधिकार हो जाने के बाद अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला । हुमायूँ की जब मृत्यु हुई तब अकबर कलानौर (पंजाब) में था और वहाँ अफगान विद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाइयों का नेतृत्व कर रहा था । 1556 में 13 साल और 4 माह की छोटी आयु में कलानौर में उसका राज्याभिषेक हुआ ।

अकबर को एक कठिन स्थिति विरासत में मिली थी । आगरा-दिल्ली क्षेत्र में एक विनाशकारी अकाल पड़ा था और उसके बाद महामारी फैली थी । तीन सूर प्रतिस्पर्धी अभी भी क्षितिज पर मँडरा रहे थे, हुमायूँ के हाथों हारने के बाद भी सिकंदर पंजाब के उत्तर-पूर्वी किनारे पर जमा हुआ था ।

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अदली या आदिल शाह मिर्जापुर के पास चुनार में दरबार लगा रहा था । बंगाल का क्षेत्र इब्राहीम के अधीन था । दिल्ली-आगरा क्षेत्र के मुगल हाकिम असंगठित और हतोत्साहित थे जबकि यही साम्राज्य का केंद्र भाग था । आदिल शाह के एक सिपहसालार हेमू के हाथों मुगल अपने नियंत्रण वाले अधिकांश क्षेत्रों से खदेड़े जा चुके थे ।

लेकिन युवराज अकबर के शिक्षक तथा हुमायूँ के निष्ठावान और प्रिय अधिकारी बैरम खान ने स्थिति का सामना किया । खान-ए-खाना की पदवी धारण करके वह साम्राज्य का वकील या मुख्य प्रभारी बना और उसने मुगल सेनाओं को एकजुट किया । हेमू के खतरे को ही सबसे गंभीर माना जा रहा था ।

चुनार से लेकर बंगाल की सरहद तक का क्षेत्र शेरशाह के भतीजे आदिल शाह के हाथों में था । हेमू जिसने इस्लाम शाह के काल में बाजार अधीक्षक के रूप में अपना जीवन आरंभ किया था आदिल शाह के अंतर्गत तेजी से ऊपर उठा । उसने जो 22 लड़ाइयाँ लड़ी थीं उनमें से एक में भी वह नहीं हारा था ।

आदिल शाह ने उसे विक्रमाजीत की उपाधि देकर वजीर बनाया था और उसे मुगलों को बाहर निकालने का काम सौंपा था । हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया तथा 50,000 सवारों और 5,000 हाथियों की सेना तथा एक शक्तिशाली तोपखाना लेकर दिल्ली की ओर चला ।

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फिर भी यह मानने का कोई कारण नहीं दिखाई देता कि हेमू ने खुद को एक स्वतंत्र हिंदू शासक बना लिया था या ऐसा करने का इरादा रखता था । विक्रमाजीत बस एक उपाधि थी और बाद में यह उपाधि अकबर ने भी अपने हिंदू हाकिमों को दी थी । हालांकि हेमू के बाएँ बाजू की कमान उसके भतीजे रमैया के हाथों में थी पर उसकी सेना का अधिकतर भाग अफगानों का था जो ऐसे अधिग्रहण पर खामोश नहीं बैठते ।

एक तीखी लड़ाई में हेमू ने दिल्ली के पास मुगलों को हराया और नगर पर अधिकार कर लिया । पर स्थिति से निबटने के लिए बैरम खान ने जोरदार कदम उठाए । उसकी दिलेरी ने सेना में नई जान हूंकी और हेमू अपनी स्थिति को मजबूत बना सके इसके पहले ही बैरम की सेना ने दिल्ली की ओर कूच कर दिया ।

मुगलों और हेमू के नेतृत्व में अफगान सेना के बीच एक बार फिर पानीपत में ही (5 नवंबर, 1556 को) जंग हुई । हालांकि हेमू के तोपखाने पर एक मुगल दस्ते ने कब्जा कर लिया था पर युद्ध का झुकाव अभी भी उसी के पक्ष में था । मगर एक तीर उसकी आँख में आकर लगा और वह बेहोश होकर गिर पड़ा । नेतृत्वहीन अफगानों की हार हुई तथा हेमू पकड़ा गया और उसे मार डाला गया । इस तरह अकबर को अपना साम्राज्य लगभग फिर से जीतना पड़ा ।

आरंभिक चरण: अमीरों (कुलीनों) के साथ टकराव (1556-67)  (Early Stage: Confrontation with the Rich):

बैरम खान के हाथों में लगभग चार वर्षो तक साम्राज्य की बागडोर रही । इस काल में उसने अमीरों पर पूरा नियंत्रण रखा । साम्राज्य का विस्तार काबुल से लेकर पूरब में जौनपुर और पश्चिम में अजमेर तक था । ग्वालियर भी अधिकार में आ गया तथा रणथंभौर और मालवा को जीतने के लिए सेनाएँ भेजी गईं ।

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इस बीच अकबर वयस्क हो रहा था । सर्वोच्च शक्ति का उपभोग करते हुए बैरम खान ने अनेक शक्तिशाली व्यक्तियों को नाराज किया था । उन्होंने शिकायत की कि बैरम खान शिया है तथा वह पुराने कुलीनों को उपेक्षित करके उच्च पदों पर अपने समर्थकों और शियों को नियुक्त कर रहा है ।

ये आरोप अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे क्योंकि बैरम खान एक उदारवादी धार्मिक विचारों वाला व्यक्ति था । लेकिन बैरम खान दंभी बन चुका था और वह यह समझ नहीं रहा था कि अकबर अब बड़ा हो गया है । छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा होता था जिसके कारण अकबर ने महसूस किया कि वह राज्य के मामलों को बहुत दिनों तक किसी दूसरे व्यक्ति के हाथों में नहीं छोड़ सकता था ।

अकबर ने अपने पत्ते सावधानी से चले । वह शिकार के बहाने आगरा से निकलकर दिल्ली पहुँच गया । उसने दिल्ली से एक फरमान जारी करके बैरम खान को उसके पद से हटाया और सभी अमीरों को आदेश दिया कि वे स्वयं आकर उसकी अधीनता स्वीकार करें ।

बैरम खान ने जब महसूस कर लिया कि अकबर सारी शक्ति अपने हाथ में लेना चाहता है तो वह अधीनता मानने को तैयार हो गया पर उसके शत्रु उसे नष्ट करने पर आमादा थे । उन्होंने तब तक उस पर अपमान की बौछारें की, जब तक वह विद्रोह के लिए उत्तेजित नहीं हो गया ।

इस विद्रोह ने लगभग छह माह तक साम्राज्य को उलझाए रखा । अंत में बैरम खान समर्पण के लिए मजबूर हो गया । अकबर ने उसका हार्दिक स्वागत किया तथा उसे दरबार में या उससे बाहर कहीं सेवा करने अथवा मक्का चले जाने का विकल्प दिया । बैरम खान ने मक्का जाने का फैसला किया ।

लेकिन राह में अहमदाबाद के पास पाटन में एक अफगान ने उसे मार डाला जो उससे व्यक्तिगत तौर पर नाराज था । बैरम की पत्नी और उसके छोटे-से बच्चे को अकबर के पास आगरा लाया गया । अकबर ने बैरम खान की युवा पत्नी से विवाह कर लिया जो उसकी रिश्तेदार थी ।

अकबर ने बैरम खान के बच्चे को अपने बच्चे की तरह पाला । यही बच्चा आगे चलकर अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना (खानों का खान) के रूप में मशहूर हुआ तथा उसने साम्राज्य के अनेक महत्वपूर्ण असैनिक और सैनिक पदों पर काम किया ।

बैरम खान के साथ अकबर का टकराव और बाद में उसके परिवार के साथ अकबर का उदार व्यवहार उसके चरित्र की कुछ खास विशेषताओं को दर्शाते हैं । एक बार वह कार्रवाई का ढंग तय कर लेता था तो उससे हटता नहीं था पर अधीनता मान लेने वाले विरोधी के प्रति वह हद से आगे बढ़कर उदारता का व्यवहार करता था ।

बैरम खान के विद्रोह के दौरान अमीरों के कई गुट और कई अमीर भी राजनीतिक रूप से सक्रिय हो उठे थे । उनमें अकबर की धाय माहम अनगा और उसके संबंधी भी थे ।

हालांकि माहम प्रभावशाली थी और इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार स्वयं को एक ‘दमदार वकील’ मानती थी पर फिर भी इस काल को ‘पेटीकोट सरकार’ अथवा स्त्रियों का शासनकाल नहीं कहा जा सकता क्योंकि अकबर की इच्छाओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता था ।

हालांकि माहम अनगा जल्द ही राजनीति से अलग हो गई और उसकी मृत्यु भी जल्द हो गई, पर उसका बेटा अधम खान एक बेसब्र नौजवान था और जब उसे एक मुहिम की कमान सौंपकर मालवा भेजा गया तो वह स्वतंत्र व्यवहार करने लगा । कमान से हटाए जाने पर उसने वजीर के पद का दावा किया और जब उसके दावे को स्वीकार नहीं किया गया तो उसने कार्यकारी वजीर को उसके दफ्तर में ही चाकू मार दिया ।

अकबर आग बबूला हो उठा और उसे किले के छज्जे से फिंकवा दिया (1561) जिससे उसकी मृत्यु हो गई । लेकिन पूरी तरह अपनी सत्ता स्थापित करने में अकबर को अनेक वर्ष लग गए । अमीरों में उजबेक एक शक्तिशाली समूह थे । पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार और मालवा में वे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे ।

हालांकि उन्होंने इन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफगान समूहों को झुकाकर साम्राज्य की अच्छी सेवा की थी, पर वे दंभी बन चुके थे और नौजवान शासक की आज्ञाओं का उल्लंघन कर रहे थे । 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किया तथा अकबर को मैदान में उतरने पर मजबूर करते रहे ।

अकबर को हर बार उन्हें क्षमा करने पर राजी किया जाता रहा । लेकिन 1565 में जब उन्होंने फिर विद्रोह कर दिया तो इस बार अकबर ने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक वह उन्हें पूरी तरह मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को ही अपनी राजधानी बनाए रखेगा ।

इस बीच मिर्जाओं ने विद्रोह कर दिया जो तैमूरी थे और एक विवाह-संबंध से अकबर से बँधे हुए थे । इसके कारण आज के उत्तर प्रदेश के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों में अफरातफरी फैल गई । इन विद्रोहों से हिम्मत पाकर अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम ने काबुल पर अधिकार कर लिया पजाब में घुस आया और लाहौर पर घेरा डाल दिया । उजबेक विद्रोहियों ने उसे औपचारिक रूप से अपना शासक घोषित कर दिया ।

दिल्ली पर हेमू के अधिकार के बाद यही अकबर के सामने आनेवाला सबसे गंभीर संकट था । लेकिन अकबर के दृढ़ निश्चय ने और कुछ तो सौभाग्य ने उसे सफलता दिलाई । जौनपुर से उसने लाहौर की ओर कूच किया और मिर्जा हकीम को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया । इस बीच मिर्जाओं की बगावत कुचल दी गई ।

मिर्जे भागकर मालवा और फिर गुजरात चले गए । अकबर लाहौर से वापस जौनपुर की ओर चला । घोर वर्षाकाल में इलाहाबाद के पास उफनती यमुना को पार करके (1567) उसने उजबेक सरदारों के नेतृत्व वाले विद्रोहियों को भौंचक्का कर दिया और उन्हें पूरी तरह नष्ट कर दिया ।

उजबेक नेता लड़ाई में मारे गए और इस तरह उनके लंबे विद्रोह का अंत हो गया । इससे सभी विद्रोही सरदार आतंकित हो गए और इनमें वे भी थे जो स्वतंत्रता का सपना देख रहे थे । अकबर अब साम्राज्य के प्रसार पर ध्यान देने के लिए स्वतंत्र था ।

साम्राज्य का आरंभिक प्रसार (1560-76) (Early Dissemination of the Empire): 

बैरम खान की वकालत (रीजेंसी) के दौरान मुगल साम्राज्य का तेजी से प्रसार हुआ था । अजमेर के अलावा उस क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण विजय मालवा की थी । उस समय मालवा पर बाजबहादुर नामक एक युवा शासक का राज्य था । उसकी उपलब्धियों में उसकी संगीत प्रवीणता और काव्य पटुता भी शामिल थे ।

बाजबहादुर और रूपमती की प्रेमकथाएँ जगत-प्रसिद्ध हैं । रूपमती अपने सौंदर्य के लिए तथा अपने संगीत और काव्य के लिए प्रसिद्ध थी । इस दौर में माडू संगीत का सुप्रसिद्ध केंद्र बन चुका था । पर बाजबहादुर ने अपनी सेना की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया था ।

मालवा के खिलाफ मुहिम का नेतृत्व अकबर की धाय माहम अनगा के बेटे अधम खान ने किया था । बाजबहादुर (1561 में) बुरी तरह हारा और लूट का भरपूर माल मुगलों के हाथ लगा । रूपमती भी पकडी गई लेकिन अधम खान के हरम में बलात ले जाए जाने की अपेक्षा उसने आत्महत्या करना पसंद किया ।

अधम खान और उसके उत्तराधिकारी की निरर्थक क्रूरताओं के कारण मुगलों के खिलाफ मालवा में प्रतिक्रिया हुई जिसके फलस्वरूप बाजबहादुर मालवा को दुबारा हासिल करने में सफल रहा ।

बैरम खान के विद्रोह से निबटने के बाद अकबर ने मालवा के खिलाफ एक और मुहिम भेजी । बाजबहादुर को भागना पड़ा और वह कुछ समय तक मेवाड़ के राणा की शरण में रहा । एक इलाके से दूसरे इलाके में कुछ दिन भटकने के बाद वह अंतत: अकबर के दरबार में आया और एक मुगल मनसबदार बना । मालवा का विस्तृत प्रदेश इस तरह मुगल शासन के अधीन हो गया ।

लगभग उसी समय मुगल सेना ने गद्य-कटेगा राज्य को रौंद दिया । गढ़-कटंगा के राज्य में नर्मदा की वादी तथा आधुनिक मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग शामिल थे । गढ़-कटंगा अमनदास नामक व्यक्ति के कब्जे में था जो सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में गुजरा था । रायसेन को जीतने में अमनदास ने गुजरात के शासक बहादुरशाह की मदद की थी और उससे संग्रामशाह की उपाधि पाई थी ।

गढ़-कटंगा के राज्य में अनेक गोंड और राजपूत रजवाड़े शामिल थे । यह गोंडों द्वारा स्थापित सबसे शक्तिशाली राज्य था । कहते हैं कि उसके राजा के पास 20,000 सवार थे एक बड़ी पैदल सेना थी और 1000 हाथी थे ।

लेकिन हमें यह नहीं पता कि ये कड़े कितने विश्वसनीय हैं । संग्रामशाह ने महोबा के मशहूर चंदेल राजा की एक बेटी से अपने एक बेटे का विवाह करके अपनी स्थिति को और मजबूत बना लिया । यह राजकुमारी, जो दुर्गावती के नाम से प्रसिद्ध हुई जल्द ही विधवा हो गई । पर उसने अपने नाबालिग बेटे को गद्‌दी पर बिठाया तथा दृढ़ निश्चय और साहस के साथ राज्य करती रही ।

वह बंदूक तथा तीर-कमान दोनों की अच्छी निशानची थी । वह शिकार की शौकीन थी और एक समकालीन के अनुसार ‘उसका कायदा था कि जब भी वह किसी बाघ के दिखाई देने की खबर सुन लेती थी तो तब तक जल ग्रहण न करती थी जब तक उसे मार न लेती थी ।’

उसने मालवा के बाजबहादुर समेत अपने पड़ोसियों के खिलाफ अनेक सफल लड़ाइयाँ लड़ी थीं । लगता है कि मालवा पर मुगलों की विजय के बाद भी ये सरहदी टकराव जारी रहे । इस बीच रानी की बेपनाह दौलत और सुंदरता की कहानियाँ सुनकर इलाहाबाद के मुगल सूबेदार आसफ खान की कामुकता जाग उठी थी ।

आसफ खान 10,000 सवार लेकर बुंदेलखंड की ओर से आगे बढ़ा । गढ़ के कुछ अर्धस्वतंत्र शासकों ने इसे गोंडों के जुवे को उतार फेंकने का एक सुविधाजनक अवसर जाना । इस तरह रानी के पास एक छोटी-सी सेना ही रह गई । घायल होकर भी वह बहादुरी से लड़ी । लड़ाई को हारा हुआ और अपने को पकड़े जाने के खतरे में जानकर उसने स्वयं को खंजर से मार डाला ।

आसफ खान ने तब आधुनिक जबलपुर के पास रानी की राजधानी चौरागढ़ पर अधिकार कर लिया । अबुल फजल कहते हैं: ‘जेवरात सोना-चाँदी और दूसरी वस्तुओं के रूप में इतना लूट का माल मिला कि उसके एक हिस्से का हिसाब लगाना भी असंभव है । पूरे लूट के माल में से आसफ खान ने दरबार को सिर्फ दो सौ हाथी भेजे और बाकी सब कुछ अपने पास रख लिया ।’ रानी की छोटी बहन कमला देवी को (1564 में) दरबार में भेज दिया गया ।

अकबर जब उजबेक कुलीनों के विद्रोह से निबट चुका तो उसने आसफ खान को गैरकानूनी माल निकालने पर मजबूर किया । मालवा के राज्य को घेरने के लिए दस किले अपने पास रखकर उसने संग्रामशाह के छोटे भाई चंद्रशाह को गढ़-कटंगा का राज्य लौटा दिया ।

अगले दस वर्षो में अकबर ने राजस्थान के अधिकांश हिस्सों पर अधिकार कर लिया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया । चित्तौड़ पर आक्रमण राजपूत राज्यों के खिलाफ उसके अभियान का एक महत्वपूर्ण कदम था । यह अपराजेय दुर्ग जिसने अपने इतिहास में अनेक घेराबदियों का सामना किया था मध्य राजस्थान की कुंजी माना जाता था ।

आगरा से गुजरात का सबसे छोटा रास्ता उसी के नियंत्रण-क्षेत्र से गुजरता था । सबसे बड़ी बात यह कि वह राजपूतों की प्रतिरोध-भावना का प्रतीक था । अकबर ने महसूस किया कि चित्तौड़ को जीत बिना वह दूसरे राजपूत राजाओं से अपनी अधिराजी नहीं मनवा सकता था ।

छह माह की एक सख्त घेराबंदी के बाद (1568 में) चित्तौड़ का पतन हुआ । अपने सरदारों की सलाह पर राणा उदयसिंह सुप्रसिद्ध योद्धाओं जयमल और पट्‌टा को किले का भार सौंपकर पहाड़ियों में जा चुका था । इर्दगिर्द के अनेक किसानों ने भी किले में शरण ली थी तथा वे रक्षकों की सक्रिय सहायता कर रहे थे ।

मुगलों ने जब किले में प्रवेश किया तो उन्होंने कल्ले आम मचा दिया जिसमें किसान और अनेक राजपूत योद्धा मारे गए । उनकी संख्या 30,000 थी । यह पहला और अंतिम अवसर था जब अकबर ने ऐसी तबाही मचाई थी । राजपूत योद्धा यथासंभव प्रतिशोध लेकर ही मरे । शूरवीर जयमल और पट्‌टा के सम्मान में अकबर ने आगरा किले के मुख्य द्वार के बाहर हाथियों पर सवार इन दोनों वीरों की पाषाण-मूर्तियाँ लगाने का आदेश दिया ।

चित्तौड़ के पतन के बाद रणथंभौर जीता गया, जिसे राजस्थान का सबसे मजबूत दुर्ग माना जाता था । जोधपुर पहले ही जीता जा चुका था । इन जीतों के फलस्वरूप अनेक राजपूत राजाओं ने अकबर की अधीनता मान ली, जिनमें बीकानेर और जैसलमेर के राजा भी शामिल थे । केवल मेवाड़ ने प्रतिरोध जारी रखा ।

बहादुरशाह की मृत्यु के बाद गुजरात की अवस्था दयनीय हो गई थी । उसकी मिट्‌टी की उर्वरता, उसका अत्यंत विकसित हस्तशिल्प और बाहरी दुनिया से आयात-निर्यात के केंद्र के रूप में उसका महत्व ये कुछ ऐसी बातें थीं जिनके लिए गुजरात पर अधिकार के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाना घाटे का सौदा नहीं था ।

हुमायूँ कुछ समय तक गुजरात पर शासन कर चुका था और इस आधार पर अकबर ने गुजरात पर अपना दावा किया । एक अतिरिक्त कारण यह भी था कि दिल्ली के पास अपने विद्रोह की असफलता के बाद मिर्जाओं ने गुजरात में शरण ली थी । ऐसा समृद्ध प्रदेश शक्ति का एक विरोधी केंद्र बने अकबर इसके लिए तैयार न था ।

1572 में अकबर अजमेर के रास्ते अहमदाबाद की ओर बढ़ा । अहमदाबाद ने बिना लड़े ही समर्पण कर दिया । अकबर ने फिर मिर्जाओं की ओर ध्यान दिया जो भड़ौच बड़ौदा और सूरत पर अधिकार जमाए बैठे थे । खंबायत में अकबर ने पहली बार समुद्र देखा और एक नाव पर सवार होकर कुछ दूरी तक गया भी ।

पुर्तगाली सौदागरों का एक दल भी आकर पहली बार उससे मिला । तब तक भारतीय समुद्रों पर पुर्तगालियों का वर्चस्व हो चुका था और वे गुजरात समेत भारत में अपना साम्राज्य बनाने के महत्वाकांक्षी थे । अकबर की गुजरात-विजय ने उनके इन इरादों पर पानी फेर दिया ।

अकबर की सेना सूरत को जब घेरे हुए थी तब स्वयं उसने 200 लोगों के एक छोटे-से दल के साथ माही नदी पार करके मिर्जाओं पर हमला बोल दिया । इस दल में मानसिंह और आबेर के भगवानदास शामिल थे । कुछ समय के लिए अकबर का जीवन खतरे में पड़ गया । लेकिन उसके हमले की तेजी के कारण मिर्जा मात खा गए ।

इस तरह गुजरात मुगल नियंत्रण में आ गया । लेकिन अकबर ने जैसे ही मुँह फेरा पूरे गुजरात में विद्रोहों का सिलसिला शुरू हो गया । यह समाचार पाकर अकबर आगरा से बाहर निकला तथा ऊँटों घोड़ों और गाड़ियों पर सिर्फ नौ दिनों में उसने राजस्थान को पार कर लिया । ग्यारहवें दिन वह अहमदाबाद पहुँच गया । इस यात्रा में जिसमें सामान्यत: छह सप्ताह लगते थे केवल 3000 सैनिक अकबर का साथ दे सके । इन्हीं के साथ उसने (1573 में) दुश्मन की 20,000 की सेना को हराया ।

इसके बाद अकबर ने बंगाल की ओर रुख किया । बंगाल और बिहार पर अभी भी अफगानों का वर्चस्व था । उन्होंने उड़ीसा को भी रौंदकर उसके शासक को मार डाला था । लेकिन मुगलों की नाराजगी मोल न लेने के लिए अफगान शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था और अकबर के नाम से खुला पढ़वाता था ।

अफगानों के आपसी झगड़ों और नए शासक दाऊद खान की स्वतंत्रता की घोषणा ने अकबर को मनचाहा बहाना दे दिया । वह अपने साथ नावों का एक मजबूत बेड़ा लेकर आगे बढ़ा । समझा जाता था कि अफगान राजा के पास 40,000 उम्दा घोड़ों वाले सवारों लगभग 15,000 पियादों कई हजार बंदूकों और हाथियों की एक विशाल सेना थी तथा जंगी नावों का एक मजबूत बेड़ा भी था ।

अकबर अगर सावधान न होता और अफगानों का कोई बेहतर नेता होता तो हो सकता था कि हुमायूँ और शेरशाह के टकराव का ही परिणाम फिर दोहराया जाता । अकबर ने पहले पटना पर अधिकार करके बिहार में मुगल संचार व्यवस्था को सुरक्षित बना लिया । फिर खान-ए-खाना मुनिम खान नाम के एक अनुभवी हाकिम को मुहिम का भार सौंपकर वह आगरा लौट आया ।

मुगल सेना ने बंगाल पर हमला किया और एक घमासान युद्ध के बाद दाऊद शांति-संधि की माँग करने पर मजबूर हो गया । जल्द ही उसने फिर विद्रोह किया । हालांकि बंगाल और बिहार में मुगलों की स्थिति अभी भी कमजोर थी पर मुगल सेनाओं का संगठन और नेतृत्व बेहतर था । 1576 में बिहार में एक कड़ी जंग के बाद दाऊद खान हारा और मौके पर ही मार डाला गया । इस तरह उत्तर भारत में अंतिम अफगान राज्य का अंत हुआ ।

मनसबदारी व्यवस्था और सेना (Man-Made System and Army):

एक शक्तिशाली सेना के बिना अकबर न अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकता था और न उस पर नियंत्रण रख सकता था । इस उद्‌देश्य के कारण उसके लिए अपने अमीर वर्ग को और अपनी सेना को भी संगठित करना आवश्यक था । अकबर ने ये दोनों उद्‌देश्य मनसबदारी व्यवस्था के सहारे पूरे किए । इस व्यवस्था में हर अधिकारी को एक मनसब (श्रेणी) दिया जाता था ।

सबसे कम मनसब 10 का और सबसे अधिक 5,000 का था । शाही परिवार के शाहजादे इससे अधिक का मनसब पाते थे । अकबरी दौर के अंतिम भाग में सबसे ऊँचे मनसब को 5,000 से बढ़ाकर 7,000 कर दिया गया और साम्राज्य के दो प्रमुख कुलीनों अर्थात मिर्जा अजीज कोका और राजा मानसिंह को 7,000 के मनसब दिए गए थे ।

बुनियादी तौर पर यह अधिकतम सीमा औरंगजेब के काल के अंत तक जारी रही । अकबर के काल में मनसब व्यवस्था का क्रमिक विकास हुआ । आरंभ में केवल एक सवार मनसब होता था । चालीसवें साल (1594-95) में मनसबों को दो भागों में बाँट दिया गया-जात और सवार में । जात शब्द का अर्थ व्यक्तिगत है । इसमें एक व्यक्ति के निजी पद का और उसे देय वेतन का निश्चय किया जाता था ।

सवार से संकेत मिलता था कि एक व्यक्ति को कितने घुड़सवार रखने हैं । जिस व्यक्ति से उतने ही सवार रखने की आशा की जाती थी जितना उसका जात का मनसब था तो उसे उस मनसब की पहली श्रेणी में रखा जाता था । अगर वह उससे आधे या आधे से अधिक सवार रखता तो दूसरी श्रेणी में आता था और अगर आधे से कम सवार रखता था तो उसे तीसरी श्रेणी में रखा जाता था । इस तरह हर मनसब में तीन श्रेणियाँ होती थीं ।

अमीरों द्वारा भरती किए गए सवार अनुभवी हो और उनके घोड़े उम्दा हों-यह सुनिश्चित करने का बहुत प्रयास किया जाता था । इसके लिए सैनिक का एक विवरण (चेहरा) रखा जाता था और उसके घोड़े पर शाही निशान बनाया जाता था । इसे दाग की व्यवस्था कहते थे ।

हर मनसबदार को अपने दस्ते को समय-समय पर निरीक्षण के लिए इसी काम के वास्ते बादशाह द्वारा नियुक्त व्यक्तियों के सामने लाना पड़ता था । घोड़ों का सावधानी से निरीक्षण किया जाता था और सिर्फ अरबी या ईराकी नस्ल के उम्दा घोड़ों को रखा जाता था । आदर्श रूप में एक मनसबदार को हर दस सवारों के पीछे बीस घोड़े रखने पड़ते थे ।

यह इसलिए जरूरी था क्योंकि मुहिम के दौरान घोड़ों को आराम देना पड़ता था तथा युद्ध के समय घोड़ा घायल हो सकता था । केवल एक घोड़ेवाले सवार को सिर्फ आधा सवार माना जाता था । जब तक 10-20 के इस नियम का पालन किया जाता रहा मुगल सवार सेना युद्धकुशल बनी रही ।

इस बात का प्रबंध किया गया कि कुलीनों के दस्ते मिश्रित हों अर्थात मुगल पठान हिंदुस्तानी और राजपूत सभी समूहों से भरती किए जाएँ । इस तरह अकबर ने कबीलावाद और संकीर्णता की शक्तियों को कमजोर करने का प्रयास किया । मुगल या राजपूत कुलीनों को केवल मुगलों या राजपूतों के दस्ते बनाए रखने की अनुमति थी लेकिन कालांतर मैं मिश्रित दस्ता ही सामान्य नियम बन गया ।

दस्तों में सवारों के अलावा तीरंदाजों खंदक खोदने और सुरंग बिछाने वालों को भी भरती किया जाता था । बंदूकरवी पैदल सेना के महत्वपूर्ण अग थे और जब बंदूकों का महत्त्व बढ़ा तो बंदूकचियों का अनुपात भी बढ़ा । वेतन अलग-अलग थे पर एक सवार का औसत वेतन 20 रुपये प्रतिमाह था ।

ईरानियों और तूरानियों को राजपूतों और हिंदुस्तानियों (भारतीय मुसलमानों) से अधिक वेतन दिया जाता था । एक पैदल सैनिक लगभग 3 रुपये प्रतिमाह पाता था । सैनिकों को देय वेतन एक मनसबदार के निजी वेतन में जोड़ दिया जाता था जिसकी अदायगी के लिए उसे एक जागीर दी जाती थी ।

कभी-कभी मनसबदारों को नकद वेतन भी दिया जाता था । यह कथन सही नहीं है कि अकबर जागीर व्यवस्था को पसंद नहीं करता था और चाहकर भी उसे समाप्त न कर सका क्योंकि उसकी जड़ें बहुत गहरी थीं । जागीर से जागीरदार को कोई पुश्तैनी अधिकार नहीं मिलता था न उस क्षेत्र में मौजूद किसी अधिकार पर आँच आती थी । इसका मतलब यह था कि राज्य को देय मालगुजारी उस जागीरदार को अदा की जाए ।

मुगलों के अधीन विकसित मनसबदारी व्यवस्था एक विशिष्ट और अनोखी व्यवस्था थी जिसका भारत से बाहर कोई सटीक समानांतर उदाहरण नहीं मिलता है । मनसबदारी त्यवस्था के जन्म को संभवत चंगेज खान से जोड़ा जा सकता है जिसने रानी सेना को दशमलव आधार पर संगठित किया था ।

इसमें कमान की सबसे कम इकाई 10 थी और सबसे बड़ी इकाई दस हजार (तुमान) की थी जिसका कमानदार खान कहलाता था । इस मंगोल व्यवस्था ने एक सीमा तक दिल्ली सल्तनत की सैन्य व्यवस्था को भी प्रभावित किया था, क्योंकि हमें सौ के कमानदारों (सदी) और हजार के कमानदारों (हजारा) की बात भी सुनने को मिलती है ।

सूर शासन में हमें ऐसे कुलीन दिखाई देते हैं जो 20,000 या 10,000 या 5000 सवारों के कमानदार बनाए गए थे । पर बाबर और हुमायूँ के दौर में मौजूद सवारों की संख्या का हमें ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है ।

500 जात से नीचे के पदवालों को मनसबदार, 500 से लेकर 2500 तक वालों को अमीर तथा 2500 या उससे अधिक वालों को अमीर-ए-उम्दा या उम्दा-ए-आजम कहा जाता था । लेकिन कभी-कभी तीनों ही श्रेणियों के लिए मनसबदार शब्द का प्रयोग हुआ है । पद के अलावा इस वर्गीकरण का एक और अर्थ था: एक अमीर या अमीर-ए-उम्दा अपनी सेवा में एक मनसबदार या अमीर को रख सकता था पर एक मनसबदार ऐसा नहीं कर सकता था ।

मसलन 5000 की श्रेणीवाला 500 जात तक के एक मनसबदार को सेवा में रख सकता था 4000 की श्रेणीवाला 400 जात तक के मनसबदार को रख सकता था, आदि । ये श्रेणियाँ बेलोच नहीं थी । व्यक्तियों को सामान्यत: कम मनसब देकर उनकी योग्यता और बादशाह की कृपादृष्टि के उप्रधार पर धीरे-धीरे तरक्की दी जाती थी ।

दंडस्वरूप किसी व्यक्ति का मनसब घटाया भी जा सकता था । इस तरह सैनिकों और असैनिकों के लिए एक ही सेवा थी । लोग सोपान के निचले स्तर से सेवा आरंभ करते थे तथा अमीर या अमीर-ए-उम्दा तक की स्थिति तक उठने की आशा कर सकते थे । इस सीमा तक सरकारी सेवा में तरक्की का रास्ता खुला हुआ था ।

मनसबदार को अपने वेतन में से अपने निजी खर्च पूरे करने के अलावा निर्धारित संख्या में घोड़े हाथी बोझ ढोनेवाले पशु (ऊँट और खच्चर) और गाड़ियाँ रखनी पड़ती थीं । मिसाल के लिए 5,000 की जात वाले एक मनसबदार को 340 घोड़े, 100 हाथी, 400 ऊँट, 1000 खच्चर और 160 गाड़ियाँ रखनी पड़ती थीं ।

बाद में ये केंद्रीय प्रशासन द्वारा रखे जाने लगे पर मनसबदार को उनका खर्च अपने वेतन से ही देना पड़ता था । गुणवत्ता के आधार पर घोड़ों को छह और हाथियों को पाँच श्रेणियों में बाँटा गया था तथा उनकी संख्या और गुणवत्ता का निर्धारण सावधानी से किया जाता था ।

इसका कारण यह था कि उम्दा नस्ल के घोड़ों और हाथियों को बहुत महत्व दिया जाता था और उन्हें युद्धतंत्र के कुशल संचालन के लिए अनिवार्य माना जाता था । वास्तव में घोड़े और हाथी उन दिनों सेना के मुख्य आधार होते थे हालाकिं तोपखाने और बंदूकों का महत्व तेजी से बढ़ता जा रहा था । सेना को अधिक गतिशील बनाने के लिए यातायात के दस्ते महत्वपूर्ण थे ।

इन खर्चों को पूरा करने के लिए मुगल मनसबदारों को बहुत अच्छा वेतन दिया जाता था । 5,000 के एक मनसबदार को प्रतिमाह 30,000 रुपए, 3,000 वाले को 17,000 रुपए और 1,000 वाले को 8,200 रुपए दिए जाते थे । 100 का मनसब वाला एक मामूली सदी भी प्रतिवर्ष 7,000 रुपए पाता था । इन वेतनों का मोटे तौर पर चौथाई भाग यातायात के दस्तों पर खर्च होता था । तब भी मुगल मनसबदार उस समय दुनिया में सबसे अधिक वेतन पानेवाले लोग थे ।

अकबर ने घुड़सवारों के एक बड़े दस्ते को अपना अंगरक्षक बना रखा था । उसके पास घोड़ों का एक बड़ा अस्तबल था । उसके पास शरीफ सैनिकों का एक दस्ता भी था । ये लोग अहदी कहलाते थे । ये लोग ऐसे कुलीनवंशी होते थे जिनके पास सैनिक टुकड़ी खड़ी करने के साधन नहीं थे या फिर जिन्होंने बादशाह को प्रभावित कर लिया था ।

उन्हें 8 से 10 घोड़े रखने की अनुमति थी और वे प्रतिमाह लगभग 800 रुपए का भारी वेतन पाते थे । वे सिर्फ बादशाह के आगे जवाबदेह थे और उनका विवरण रखने के लिए एक अलग व्यक्ति होता था । इन लोगों की तुलना मध्यकालीन यूरोप के नाइटों से की जा सकती है ।

अकबर घोड़ों और हाथियों का बहुत शौकीन था । उसके पास एक शक्तिशाली तोपखाना भी था । तोपों में अकबर की खास दिलचस्पी थी । उसने ऐसी तोपें बनवाई थीं जिनके हिस्सों को अलग करके उन्हें हाथियों या ऊँटों पर लादा जा सकता था ।

किलों को भेदने के लिए भारी तोपें भी थीं इनमें से कुछ तो इतनी भारी थीं कि उन्हें खींचने के लिए 100-200 बैल और अनेक हाथियों की जरूरत पड़ती थी । बादशाह जब भी राजधानी से बाहर जाता, हल्की तोपों का एक शक्तिशाली तोपखाना उसके साथ जाता था ।

अकबर की एक नौसेना बनाने की कोई योजना थी या नहीं । एक मजबूत नौसेना की कमी मुगल साम्राज्य की एक बुनियादी कमजोरी बनी रही । अकबर को समय मिलता तो हो सकता था कि वह इस पर ध्यान देता । उसने जंगी नावों का एक कार्यकुशल बेड़ा अवश्य बनाया था जिसका उसने पूर्वी अभियानों में उपयोग किया था । कुछ नावें तो 30 मीटर से भी अधिक लंबी थीं और 350 टन से अधिक बोझ लादती थीं ।

शासन का गठन | Constitution of Rule :

स्थानीय शासन के संगठन में अकबर ने कोई परिवर्तन नहीं किया । परगना और सरकार पहले की तरह जारी रहे । सरकार के मुख्य अधिकारी फौजदार और अमलगुजार थे । इनमें पहला कानून-व्यवस्था के लिए और दूसरा मालगुजारी के आकलन और संग्रह के लिए जिम्मेदार होता था ।

साम्राज्य के पूरे क्षेत्र को जागीर, खालिसा और इनाम में बाँटा गया था । खालिसा गाँवों की आय सीधे शाही खजाने में जाती थी । इनाम की जमीनें वे थीं जो विद्वानों और धर्माचार्यो को दी जाती थीं । जागीरें अमीरों को तथा रानियों समेत शाही वंश के व्यक्तियों को दी जाती थीं ।

अमलगुजार से सभी प्रकार की जोतों की आम निगरानी रखने की अपेक्षा की जाती थी ताकि मालगुजारी के आकलन और संग्रह के लिए शाही नियम-कायदों का एक समान डग से पालन हो । केवल स्वायत्त राजाओं को अपने इलाकों में मालगुजारी की परंपरागत व्यवस्था जारी रखने की छूट थी । उनमें भी अकबर ने उन्हें शाही व्यवस्था अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया ।

केंद्रीय और प्रांतीय शासन के संगठन पर अकबर ने बहुत ध्यान दिया । उसकी केंद्र सरकार की व्यवस्था शासन के ऐसे ढाँचे पर आधारित थी जिसका विकास दिल्ली सल्तनत में हुआ था । लेकिन विभिन्न विभागों के कार्यो का सावधानी के साथ पुनर्गठन किया गया और मामलों के संचालन के लिए बारीकी से नियम-कायदे तय किए गए ।

इस तरह उसने इस व्यवस्था को एक नया रूप दिया और इसमें नया जीवन फूंका । मध्य एशियाई और तैमूरी परंपरा में एक सर्वशक्तिशाली वजीर रखा जाता था जिसके अंतर्गत विभिन्न विभागों के प्रमुख काम करते थे । वह शासक और प्रशासन के बीच की मुख्य कड़ी होता था । कालांतर में सेना के लिए एक अलग विभाग अस्तित्व में आया ।

न्यायपालिका हमेशा ही अलग रही । इस तरह एक सर्वशक्तिशाली वजीर की धारणा को व्यवहार में छोड़ ही दिया गया । लेकिन वकील की हैसियत से बैरम खान को एक सर्वशक्तिशाली वजीर की ही शक्तियो प्राप्त थीं ।

अकबर ने विभिन्न विभागों के बीच शक्तियों के विभाजन तथा नियंत्रण-जवाबी नियंत्रण के आधार पर प्रशासन के केंद्रीय तंत्र का पुनर्गठन किया । वकील का पद समाप्त तो नहीं किया गया पर उसे समस्त शक्ति से वंचित करके मुख्यत: सजावट की चीज बना दिया गया ।

यह पद समय-समय पर ऊँचे स्तर के अमीरों को दिया गया पर प्रशासन में उनकी भूमिका कम ही रही । राजस्व विभाग का प्रमुख वजीर ही बना रहा । अकबर के काल में वजीर सामान्यत: कोई बड़ा मनसबदार नहीं होता था । अनेक अमीरों के मनसब उसके मनसब से अधिक होते थे । इस तरह वह शासक का प्रमुख सलाहकार नहीं रहा, बस वह ऐसा व्यक्ति था जो राजस्व के विषय का विशेषज्ञ होता था ।

इस बात पर जोर देने के लिए अकबर आम तौर पर वजीर शब्द की जगह दीवान या दीवान-ए-आला की उपाधि का प्रयोग करता था । कभी-कभी अनेक व्यक्तियों को संयुक्त रूप से दीवान का कार्य करने के लिए कहा जाता था । दीवान समस्त आय और व्यय के लिए उत्तरदायी होता था तथा वह खालिसा जागीर और इनाम तक की जमीनों पर नियंत्रण रखता था ।

सैन्य विभाग का प्रमुख मीर बख्शी कहलाता था । अमीर वर्ग का प्रमुख मीर बख्शी को ही माना जाता था न कि दीवान को । इसलिए गणमान्य व्यक्ति ही इस पर नियुक्त किए जाते थे । बादशाह के सामने मनसब के आवंटन, प्रोन्नति आदि की सिफारिशें मीर बख्शी के द्वारा ही रखवाई जाती थीं । बादशाह किसी सिफारिश को स्वीकार कर लेता तो उसे पुष्टि के लिए तथा नियुका व्यक्ति को जागीर देने के लिए दीवान के पास भेजा जाता था । प्रोन्नतियों के सिलसिले में भी इसी कार्यपद्धति का पालन किया जाता था ।

मीर बख्शी साम्राज्य की गुप्तचर और सूचना सेवाओं का भी प्रमुख होता था । गुप्तचर अधिकारी (बरीद) और सूचना अधिकारी (वाकियानवीस) साम्राज्य के सभी भागों में नियुक्त किए गए थे । उनकी रिपोर्टे दरबार में बादशाह के सामने मीर बख्शी के माध्यम से ही प्रस्तुत की जाती थीं ।

इस तरह देखा जा सकता है कि दीवान और मीर बख्शी का दर्जा लगभग बराबर था और वे एक दूसरे को सहायता देते थे और नियंत्रण में रखते थे । तीसरा महत्वपूर्ण अधिकारी मीर सामान था । वह शाही घराने की आवश्यकताओं का प्रबंध करता था जिनमें हरम की स्त्रियों के उपयोग की वस्तुओं की आपूर्ति भी शामिल थी ।

इनमें से अनेक वस्तुएँ शाही कार्यशालाओं की निगरानी में बनती थीं जिन्हें कारखाना कहते थे । केवल बादशाह के पूर्ण विश्वासपात्र अमीर ही इस पद पर नियुक्त किए जाते थे । दरबार में शिष्टाचार का पालन शाही अंगरक्षकों पर नियंत्रण आदि भी इसी अधिकारी की निगरानी में थे ।

चौथा महत्वपूर्ण विभाग न्याय विभाग था जिसका प्रमुख मुख्य काजी होता था । यह पद कभी-कभी मुख्य सद्र के पद से जोड़ दिया जाता था जो सभी खैराती और मजहबी प्रतिष्ठानों के लिए जिम्मेदार होता था । इस तरह यह ऐसा पद था जिससे काफी शक्ति और संरक्षण जुड़े हुए थे । अकबर के मुख्य काजी अब्दुन्नबी के भ्रष्टाचार और लोभ के कारण इस पद की प्रतिष्ठा गिर गई थी ।

विभिन्न व्यक्तियों को मिले भूमिदानों की सावधानी से जाँच कराने के बाद अकबर ने इनाम की जमीनों को जागीर और खलिसा की जमीनों से अलग कर दिया तथा इनाम में भूमि के दान और उसके प्रशासन के उद्‌देश्य से साम्राज्य को 6 हलकों में बाँट दिया । इनाम भूमि के दानों की दो विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं ।

पहला, अकबर ने अपनी यह सुनिश्चित नीति बना ली थी कि धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों का ख्याल किए बिना सभी सुपात्र व्यक्तियों को इनाम की भूमि दी जाए । अकबर ने विभिन्न हिंदू मठों को जो दान दिए थे उनकी सनदें आज भी सुरक्षित हैं ।

दूसरा, अकबर ने नियम बना लिया था कि इनाम की आधी जमीन कृषि योग्य बंजर होगी । इस तरह इनाम पानेवालों को कृषि के प्रसार के लिए प्रोत्साहित किया गया । स्वयं को जनता के लिए और मंत्रियों के लिए भी सुलभ बनाने के लिए अकबर अपने समय को सावधानी से बाँटता था ।

महल के झरोखे से दर्शन देने के साथ बादशाह का दिन आरंभ होता था । बादशाह की एक झलक पाने और आवश्यक हो तो उसे अपने प्रार्थनापत्र देने के लिए लोग प्रतिदिन बडी संख्या में जमा होते थे । इन प्रार्थनापत्रों पर तुरंत या उसके बाद होने वाले खुले दरबार (दीवान-ए-आम) में विचार किया जाता था जो दोपहर तक चलता था । फिर भोजन और आराम के लिए बादशाह अपने कक्ष में चला जाता था ।

मंत्रियों के लिए अलग समय रखा गया था । गुप्त मंत्रणाओं के लिए मंत्रियों को आम तौर पर एक कक्ष में बुलाया जाता था जो अकबर के गुसलखाने (स्नानघर) के पास स्थित था । कालांतर में इस गुप्त मंत्रणा कक्ष को भी गुसलखाना कहा जाने लगा ।

1580 में अकबर ने अपने पूरे साम्राज्य को 12 सूबों (प्रांतों) में बाँट दिया । ये थे बंगाल, बिहार, इलाहाबाद, अवध, आगरा, दिल्ली, लाहौर, मुलतान, काबुल, अजमेर, मालवा और गुजरात । हर प्रांत में एक सूबेदार, एक दीवान, एक बख्शी, एक सद्र, एक काजी और एक वाकियानवीस नियुक्त किए गए । इस तरह नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत पर आधारित एक सुव्यवस्थित शासन इन प्रांतों में भी स्थापित किया गया ।

विद्रोह तथा मुगल साम्राज्य का आगे विस्तार (Rebellion and Further Expansion of the Mughal Empire):

अकबर की स्थापित की हुई प्रशासन व्यवस्था की, जिसका वर्णन किया जा चुका है, विशिष्टता थी: प्रशासनतंत्र में चुस्ती, अमीरों पर और अधिक नियंत्रण तथा जनता के हितों पर और भी अधिक ध्यान । इसी कारण यह बात बहुत-से अमीरों को पसंद नहीं आई ।

क्षेत्रीय स्वतंत्रता की भावनाएँ अभी भी मजबूत थीं विशेषकर गुजरात, बंगाल और बिहार जैसे क्षेत्रों में जहाँ अलग राज्यों के निर्माण की एक लंबी परंपरा थी । राजस्थान में स्वतंत्रता के लिए राणा प्रताप का अनथक संघर्ष चला । इस स्थिति में अकबर को अनेक विद्रोहों से निबटना पड़ा ।

पुराने शासक वंश के एक प्रतिनिधि द्वारा स्वतंत्रता पाने के प्रयास के कारण गुजरात दो वर्षों तक अशांत अवस्था में रहा । इस काल में सबसे गंभीर विद्रोह बंगाल और बिहार में हुआ जो जौनपुर तक फैल गया । विद्रोह का मुख्य कारण जागीरदारों के घोड़ों के लिए दाग की व्यवस्था का सख्ती से पालन करना और उनकी आय का सख्त हिसाब-किताब रखना था ।

इस असंतोष को कुछ उलमाओं ने हवा दी जो अकबर के उदार विचारों से प्रसन्न न थे और इसलिए भी कि उन्होंने मालगुजारी से मुक्त जो बड़ी-बड़ी जमीनें पाई थीं और कभी-कभी गैरकानूनी ढंग से पाई थीं अकबर उन्हें वापस लेने की नीति पर चल रहा था ।

अकबर के सौतेले भाई और काबुल के शासक मिर्जा हकीम ने भी विद्रोह को बढ़ावा दिया और आशा जगाई कि समय उपयुक्त होने पर वह सहायता के लिए पंजाब पर हमला करेगा । पूर्वी भागों में बड़ी संख्या में अफगान अपनी सत्ता जाने से चिढ़े हुए थे और इस तरह के विद्रोह में शामिल होने के लिए तैयार बैठे हुए थे ।

इस विद्रोह ने साम्राज्य को लगभग दो वर्षो (1580-81) तक अस्तव्यस्त रखा और अकबर के सामने बहुत मुश्किल और नाजुक स्थिति पैदा हो गई । स्थानीय अधिकारियों द्वारा स्थिति से गलत ढंग से निबटने के कारण बंगाल और लगभग पूरा बिहार विद्रोहियों के हाथों में चले गए जिन्होंने मिर्जा हकीम को अपना बादशाह घोषित कर दिया ।

उन्होंने एक उलमा से फतवा भी जारी करवा दिया जिसमें मुसलमानों से अकबर के खिलाफ हथियार उठाने का आह्वान किया गया था । अकबर ने हिम्मत नहीं हारी । उसने टोडरमल के नेतृत्व में एक फौज बिहार और बंगाल के खिलाफ भेजी और दूसरी राजा मानसिंह के नेतृत्व में मिर्जा हकीम के प्रत्याशित आक्रमण को रोकने के लिए ।

टोडरमल भारी सेना लेकर और होशियारी के साथ आगे बढ़ा और मिर्जा हकीम के आक्रमण से पहले ही पूरब में स्थिति नियंत्रण में आ गई । मिर्जा हकीम 15000 घोड़ों के साथ लाहौर पर चढ़ तो आया पर राजा मानसिंह और भगवंत दास की जबरदस्त प्रतिरक्षा के कारण नगर पर अधिकार न पा सका । उसकी यह आशा भी मिट्‌टी में मिल गई कि पंजाब में अमीरों की एक बड़ी संख्या विद्रोह करेगी और उसके साथ चली आएगी ।

इस बीच 50,000 घोड़ों की एक अनुशासित सेना के साथ अकबर लाहौर की ओर बढ़ा । मिर्जा हकीम के पास तेजी से पीछे हटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा । काबुल पर कूच करके (1581) अकबर ने अपनी सफलता में चार चाँद लगाए ।

मिर्जा हकीम ने अकबर की अधिराजी मानने या उसके प्रति निजी निष्ठा दिखाने से इनकार कर दिया था और क्योंकि भारतीय सरदार एव सैनिक बेचैन हो रहे थे इसलिए काबुल से भारत लौटने से पहले अकबर ने काबुल को अपनी बहन के हवाले कर दिया । राज्य का एक स्त्री के हवाले किया जाना अकबर की विशाल-हृदयता और उदारता का सूचक था ।

अपने विरोधियों पर अकबर की विजय निजी विजय ही नहीं थी बल्कि वह यह भी दिखाती थी कि नई व्यवस्था जड़ें जमाने लगी थी । अकबर अब उरपने साम्राज्य के और आगे विस्तार के बारे में सोचने के लिए स्वतंत्र था । वह दकन की ओर खिंचा जिसमें उसकी पुरानी दिलचस्पी थी ।

लेकिन वह कुछ करे उससे पहले ही उत्तर-पश्चिम की स्थिति ने उसका ध्यान फिर अपनी ओर खींचा । मुगलों का पुश्तैनी दुश्मन अब्दुल्लाह खान उजबेक मध्य एशिया में धीरे-धीरे अपनी ताकत बढ़ाता आ रहा था । 1584 में उसने बदख्शा को रौंद डाला जिस पर तैमूरियों का शासन था ।

लगा कि उसका अगला वार काबुल पर होगा । अब मिर्जा हकीम ने और बदख्शां से निकाले गए तैमूरी शाहजादों ने भी अकबर से सहायता की गुहार की । पर अकबर कुछ करे उससे पहले ही बेहद शराबनोशी के कारण मिर्जा हकीम चल बसा और काबुल को उथल-पुथल की हालत में छोड़ गया ।

अब अकबर ने मानसिंह को काबुल की ओर कूच करने का आदेश दिया और स्वयं सिंध नदी के किनारे स्थित अटक में आ गया । उजबेकों के सारे रास्ते बंद करने के लिए उसने कश्मीर के खिलाफ (1586 में) और बलूचिस्तान के खिलाफ मुहिम भेजी ।

लद्दाख और बल्तिस्तान (जिन्हें तिब्बत खुर्द और तिब्बत बुजुर्ग कहा जाता था) समेत पूरा कश्मीर मुगल शासन में आ गया तथा बल्तिस्तान के सरदार की एक बेटी नौजवान सलीम से ब्याही गई । खैबर दर्रे वाला रास्ता साफ कराने के लिए भी मुहिमें भेजी गई जिसे विद्रोही कबीलों ने बंद कर रखा था ।

उनके खिलाफ चली एक मुहिम के दौरान अकबर के प्रिय राजा बीरबल की जान चली गई । पर अफगान कबायलियों को धीरे-धीरे अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया गया । उत्तर-पश्चिम में स्थिति को मजबूत बनाना तथा साम्राज्य की एक वैज्ञानिक सीमा तय करना अकबर के दो प्रमुख कारनामे थे ।

उसकी सिंध-विजय (1590) ने पंजाब के लिए सिंध नदी का व्यापार-मार्ग खोल दिया । अकबर लाहौर में 1598 तक रुका रहा जब तक कि अब्दुल्लाह उज़बेक की मृत्यु ने उजबेकों के खतरे को हमेशा के लिए नहीं मिटा दिया ।

उत्तर-पश्चिम के मामले तय करने के बाद अकबर ने पूर्वी एवं पश्चिमी भारत और दकन की ओर ध्यान दिया । उड़ीसा को जो तब अफगान सरदारों के नियंत्रण में था राजा मानसिंह ने जीता जो उस समय बंगाल का सूबेदार था । मानसिंह ने कूचबिहार तथा ढाका समेत पूर्वी बंगाल के कुछ भागों को भी जीता ।

अकबर के दूध-भाई मिर्जा अजीज कोका ने पश्चिम में काठियावाड़ को जीता । खान-ए-खाना मुनीम खान को शाहजादा मुराद के साथ दकन की ओर भेजा गया । यहाँ इतना ही कहना काफी है कि सदी के समाप्त होने तक मुगलों का नियंत्रण अहमदनगर तक फैल चुका था जिसके कारण मुगल पहली बार मराठों के सीधे संपर्क में आए ।

इस तरह सदी के अंत तक उत्तर भारत का राजनीतिक एकीकरण पूरा हो चुका था और अब दकन में मुगलों का प्रवेश आरंभ हुआ । लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस विशाल साम्राज्य में जनता का सांस्कृतिक और भावात्मक एकीकरण तेजी से आगे बढ़ा ।

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