Read this article in Hindi to learn about the arrival of Portuguese in India during the medieval period.

1498 में वास्को-द-गामा दो जहाज लेकर कालीकट में उतरा । उनके चालक गुजराती थे जिन्होंने अफ्रीकी तट से कालीकट कोज्जिकोडे तक इन जहाजों को रास्ता दिखाया था । इसे प्राय एक नए चरण का आरंभ माना गया है जब समुद्र का नियंत्रण यूरोपवालों के हाथों में चला गया ।

भारतीय व्यापार और व्यापारियों को धक्का लगा और अतत: यूरोपवाले भारत और अधिकांश पड़ोसी देशों पर अपना उपनिवेशी शासन और प्रभुत्व स्थापित करने में सफल रहे । लेकिन इस तस्वीर के सही होने के बारे में पश्चिमी और भारतीय विद्वानों दोनों ने गहरी शंका व्यक्त की है ।

खास तौर से द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत और इस भूभाग के देशों पर यूरोपीय राजनीतिक शासन की समाप्ति के बाद यह शंका जोरदार रूप से जाहिर की जा रही है । भारतीय समाज अर्थव्यवस्था और राजनीति पर पुर्तगालियों के प्रभाव का आकलन करने से पहले हम उन कारणों की छानबीन करेंगे जो पुर्तगालियों को भारत ले आए ।

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मोटे तौर पर कहें तो पुर्तगाली ऐसे समय में भारत आए जब यूरोप में दलदलों की सुखाई और जंगलों की कटाई सुधरे हुए हल के प्रचलन और एक अधिक वैज्ञानिक फसल-चक्र के कारण मवेशी की संख्या और मांस की आपूर्ति बढ़ रही थी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था तेजी से सुधर रही थी । अर्थव्यवस्था भी यह मजबूती नगरों के उदय तथा अतिरिक और बाह्य व्यापार दोनों की वृद्धि में प्रतिबिंबित हो रही थी ।

रोमन काल से ही पूर्वी वस्तुओं की भारी माँग चली आ रही थी । इनमें चीन का रेशम तथा भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के मसाले और जड़ी-बूटियाँ शामिल थे । आर्थिक पुनरूत्थान के साथ इन सब चीजों की माँग बड़ी खासकर काली मिर्च और मसालों की जिनकी आवश्यकता माँस को स्वादिष्ट बनाने के लिए पड़ती थी ।

चारे की कमी के कारण जाड़ों में अनेक मवेशी मार दिए जाते थे और उनके माँस को नमक लगाकर रख दिया जाता था । भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया से काली मिर्च स्थल-मार्ग तथा अंशत: समुद्र-मार्ग से लिवैंट (Levant), मिस्र और काला सागर के बंदरगाहों तक लार्ड जाती थी ।

पंद्रहवीं सदी के आरंभिक भाग में उस्मानी तुर्को की सत्ता के उदय के बाद ये सभी क्षेत्र तुर्को के नियंत्रण में आ गए । उन्होंने 1453 में कुस्तुंतुनिया पर और बाद में सीरिया और मिस्र पर भी अधिकार कर लिया । तुर्क व्यापार के विरोधी नहीं थे पर काली मिर्च पर उनका लगभग एकाधिकार लाजमी तौर पर यूरोपवालों के हित के खिलाफ पड़ता था ।

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यूरोपवालों को पूर्वी यूरोप में तुर्क शक्ति के प्रसार ने चौकन्ना कर दिया तथा तुर्क नौसेना के विकास ने भी जिसने पूर्वी भूमध्य सागर को तुर्कों की झील बनाकर रख दिया था । वेनिस और जेनोआ, जो पूर्वी वस्तुओं के व्यापार में सबसे आगे थे इतने छोटे थे कि तुर्कों के आगे ठहर नहीं सकते थे ।

खासकर वेनिस ने तो जल्द ही तुर्कों से समझौता कर लिया । इसलिए तुर्क खतरे के खिलाफ जा का परचम भूमध्य सागर के पश्चिमी भाग की शक्तियों अर्थात स्पेन और पुर्तगाल ने बुलंद किया । उनकी सहायता उत्तरी यूरोपवालों ने धन-जन देकर की तथा जेनोआ वालों ने, जो वेनिस के प्रतियोगी थे, जहाज और तकनीकी ज्ञान देकर ।

भारत के लिए एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज अकेले पुर्तगालियों ने नहीं बल्कि इन सभी लोगों ने शुरू की । इस तरह समुद्रमार्गी खोजों का एक नया दौर शुरू हुआ । इनमें जेनोआवासी क्रिस्टोफर कोलंबस के द्वारा अमरीका की ‘खोज’ भी शामिल है ।

यह बल्कि पुनर्खोज थी, क्योंकि उससे पहले उत्तर से नार्स (नार्वेवासी) वहाँ पहुँच चुके थे और बेरिंग जलडमरूमध्य पार करके रेड इंडियन भी । पुर्तगाली शासक दोम हेनरी जिसे आम तौर पर नाविक हेनरी कहा जाता है के काम को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए ।

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1418 के बाद दोम हेनरी अफ्रीका के पश्चिमी तट की खोज के लिए हर साल दो या तीन जहाज भेजा करता था, और भारत के समुद्रमार्ग की तलाश के लिए भी । उसके दो उद्‌देश्य थे ।

पहला, समृद्ध पूर्वी व्यापार से तुर्को को और अपने यूरोपीय प्रतियोगियों को बाहर करना खासकर वेनिस वालों को । दूसरा, अफ्रीका और एशिया के ‘हब्शियों’ को ईसाइयत के दायरे में लाकर तुर्कों और अरबों की बढ़ती ताकत का सामना करना । इन दोनों उद्‌देश्यों के लिए प्रयास बराबर जारी रहे । वास्तव में, वे एक दूसरे को औचित्य प्रदान करते और बल पहुँचाते थे ।

1453 में पोप ने इसे एक ‘बुल’ (धर्मादेश) जारी करके अपना समर्थन दिया जिसमें उसने पुर्तगाल को अफ्रीका में स्थित केप नोर से भारत तक ‘खोजी गई’ तमाम भूमियों को ‘हमेशा के लिए’ इस शर्त पर दे दिया कि इन देशों की जनता को ईसाइयत के दायरे में लाया जाएगा ।

1488 में बार्थोलोम्यू दियाज ने केप आफ गुड होप का चक्कर लगाया तथा यूरोप और भारत के बीच सीधे व्यापार संबंध का आधार डाल दिया । ऐसी लंबी समुद्री यात्राएँ अनेक उल्लेखनीय आविष्कारों के कारण संभव हुईं मुख्यत: कंपस और एस्ट्रोलैब के कारण जिसका प्रयोग यात्रा के दौरान आकाशीय पिंडों की ऊँचाई जानने के लिए किया जाता था । इनमें से कोई भी यूरोपीय आविष्कार न था ।

नाविकों का कंपस (दिशासूचक यंत्र) चीनियों को अनेक सदी पहले से ज्ञात था र पर इसका अधिक उपयोग नहीं किया गया था । लेकिन अरब भारतीय और दूसरे लोग एस्ट्रोलैब का व्यापक उपयोग कर रहे थे । यह एक यूनानी आविष्कार था पर अरबों ने इसमें भारी सुधार किया था ।

यूरोपीय जहाज उन दिनों एशियाई समुद्रों में चल रहे जहाजों, जैसे चीनी जंक से श्रेष्ठ नहीं थे । यूरोपवालों का साहस और उद्यम की भावना निश्चित ही नई बात थी । इस भावना को तेरहवीं सदी से ही व्यापार और वाणिज्य के पुनरूत्थान और उद्यम से जोड़ा गया है जिसके कारण यूरोपीय राज्यों के बीच तीखी शत्रुता पैदा हुई थी । उतनी ही महत्वपूर्ण वह नई बौद्धिक उथल-पुथल थी, जिसे पुनर्जागरण कहते हैं ।

पुनर्जागरण धर्मग्रंथों या चर्च को बुद्धिमत्ता का आधार बनाने के बजाए स्वतंत्र अन्वेषण की भावना का सूचक था । इन विकासक्रमों के कारण बारूद, छपाई, दूरबीन आदि अन्य विदेशी (अरब और चीनी) आविष्कारों को भी तेजी से आत्मसात किया गया फैलाया और सुधारा गया । धातुकर्म के विकास के कारण बेहतर किस्म की बंदूकें बनने लगीं ।

अपने जहाज पर गुजराती चालक साथ लेकर वास्को-द-गामा 1498 में कालीकट पहुँचा । वहाँ बसे अरब सौदागरों के शक्तिशाली समूह ने उसका विरोध किया पर जमोरिन ने, जो एक हिंदू राजा था, पुर्तगालियों का स्वागत किया तथा उन्हें काली मिर्च जड़ी-बूटियाँ आदि अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी ।

पुर्तगाल में गामा की लाई वस्तुओं की कीमत पूरे अभियान की लागत की 60 गुनी आँकी गई । इसके बावजूद भारत और यूरोप के बीच सीधा व्यापार धीमे ही बढ़ा । इसका एक कारण पुर्तगाल सरकार का एकाधिकार था । आरंभ से ही पुर्तगाली शासक पूर्वी व्यापार से न सिर्फ यूरोप और एशिया के प्रतियोगी राष्ट्रों को बल्कि निजी पुर्तगाली व्यापारियों को भी बाहर रखकर उसे शाही एकाधिकार बनाने के लिए कमर कसे हुए थे ।

पुर्तगालियों की बढ़ती शक्ति से चौकन्ना होकर मिस्र के सुल्तान ने एक बेड़ा तैयार किया और उसे भारत की ओर भेजा । उससे गुजरात के शासक के भेजे जहाजों का एक समूह आ मिला ।

आरंभ में इसे जीत मिली और पुर्तगाली सूबेदार दोन अलमाइदा का बेटा मारा गया । पर इसके बाद 1509 में पुर्तगालियों ने इस संयुक्त बेड़े को मात दे दी । फिर तो पुर्तगाली नौसेना हिंद महासागर में सबसे बड़ी नक्ति बन गई और उसके कारण पुर्तगालियों ने अपनी गतिविधियों को फारस की खाडी और लाल सागर तक फैला लिया ।

कुछ ही समय बाद अलबुकर्क को पूर्व में पुर्तगाल अधिकृत क्षेत्रों का गवर्नर बनाया गया । उसने एशिया एवं अफ्रीका के विभिन्न रणनीतिक स्थानों पर किले बनाकर पूरे पूर्वी व्यापार पर हावी होने की नीति की पैरवी की और उसे अपनाया ।

इसके साथ एक मजबूत नौसेना भी तैयार की जाती थी । अपने विचारों के समर्थन में वह लिखता है, ‘अकेले नौसेना द्वारा स्थापित कोई राज्य ठहर नहीं सकता ।’ उसका तर्क था कि किलों के न होने पर ‘न तो वे (शासकगण) आपके साथ जगपार करेंगे और न आपके साथ मित्रतापूर्ण संबंध रखेंगे ।’

1510 में बीजापुर से गोवा को छीनकर अलबुकर्क ने अपनी नई नीति का आरंभ किया । गोवा द्वीप एक उत्तम प्राकृतिक बंदरगाह और किला था । उसकी स्थिति रणनीतिक थी और वहाँ से पुर्तगाली मलाबार के व्यापार को नियंत्रित कर सकते थे या दकनी शासकों पर नजर रख सकते थे ।

वह गुजरात के बंदरगाहों से इतना निकट तो था ही कि पुर्तगाली वहाँ अपनी मौजूदगी का एहसास करा सकें । इस तरह गोवा पूरब में पुर्तगालियों के व्यापारिक और राजनीतिक कार्यकलाप के प्रमुख केंद्र के रूप में उपयुक्त था । पुर्तगालियों ने गोवा के सामने मुख्य भूभाग पर भी अपना अधिकार जमाया, बीजापुर के दंदा-राजौरी और दाभोल बंदरगाहों की नाकाबंदी करके उनको तबाह किया और इस तरह बीजापुर के समुद्री व्यापार को ठप्प कर दिया ।

गोवा को आधार बनाकर पुर्तगालियों ने कोलंबो (श्रीलंका), आचिन (सुमात्रा) और मलक्का बंदरगाह पर किले बनाए तथा अपनी स्थिति को और मजबूत किया । मलक्का तो मलाया प्रायद्वीप की का समुद्री पट्‌टी में आने-जाने पर नियंत्रण रखता था ।

पुर्तगालियों ने लाल सागर के मुहाने पर सोकोतरा द्वीप में एक अड्‌डा भी बनाया । किंतु वे मदन पर कब्जा करने में नाकाम रहे और लाल सागर उनके नियंत्रण से बाहर रहा । पर उन्होंने फारस की खाड़ी में प्रवेश को नियंत्रित करने वाले होर्मुज के शासक को मजबूर करके वहाँ एक किला बनाने की अनुमति ले ली ।

पर पुर्तगालियों की सफलता वास्तविकता से अधिक दिखावी थी । आरंभ से ही उनको अतिरिक और बाह्य दोनों प्रकार की अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा । बाहरी चुनौती तो तुर्कों की थी जिनसे कभी-कभी अरब और कुछ भारतीय शक्तियाँ भी हाथ मिला लेती थीं ।

सीरिया, मिस्र और अरब को जीतने के बाद तुर्को ने पूर्वी यूरोप को जीतना आरंभ कर दिया था और 1529 में केंद्रीय यूरोप की राजधानी और उसकी सुरक्षा के द्वार वियना के लिए खतरा बन चुके थे । लाल सागर और फारस की खाड़ी के तट पर तुर्क शक्ति के उदय से अनुमान होता था कि हिंद महासागर के पश्चिमी भाग पर वर्चस्व के लिए तुर्को और पुर्तगालियों के बीच एक टकराव होगा ।

1541 के एक खत में उस्मानी वजीर-ए-आजम लुत्फी पाशा ने तुर्क सुल्तान सुलेमान को लिखा था, ‘पिछले सुल्तानों के काल में जमीन पर हुकूमत करने वाले बहुत थे, पर समुद्र पर हुकूमत करने वाले थोड़े थे । समुद्री युद्ध के संचालन में काफिर हमसे आगे हैं । हमें उनको पीछे छोड़ना होगा ।’

गुजरात के व्यापार और तटीय क्षेत्रों पर बढ़ते हुए पुर्तगाली खतरे को देखकर गुजरात के सुल्तान ने उस्मानी खलीफा के पास एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर उसकी जीतों पर उसे बधाइयाँ दीं और उसकी सहायता माँगी ।

बदले में उस्मानी खलीफा ने उन काफिरों अर्थात पुर्तगालियों से टकराने की इच्छा व्यक्त की जिन्होंने अरब के तटों में अशांति मचा रखी थी । इसके बाद से दोनों देशों के बीच प्रतिनिधिमंडलों और पत्रों का आना-जाना लगातार चलता रहा । तुर्कों ने लाल सागर से पुर्तगालियों को बाहर फेंक दिया और 1529 में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की मदद के लिए सुलेमान रईस की कमान में एक बड़ा बेड़ा भेजा गया ।

बहादुरशाह ने उनका खूब स्वागत किया तथा दो तुर्क अधिकारियों को भारतीय नाम देकर उन्हें क्रमश: सूरत और दीव का सूबेदार बना दिया । इन दोनों में रूमी खान ने आगे चलकर उस्ताद तोपची के रूप में बहुत नाम कमाया ।

1531 में स्थानीय अधिकारियों से साँठ-गाँठ करके पुर्तगालियों ने दमन और दीव पर हमला किया पर उस्मानी कमानदार रूमी खान ने हमले को नाकाम बना दिया । लेकिन समुद्रतट पर और नीचे की ओर चौल में पुर्तगालियों ने एक किला बना ही लिया । गुजरात-तुर्क गँठजोड़ के मजबूत होने से पहले गुजरात के लिए एक और बड़ा खतरा मुगलों की ओर से पैदा हो गया ।

हुमायूँ ने गुजरात पर हमला किया । बहादुरशाह ने बेसीन द्वीप पुर्तगालियों को दे दिया । मुगलों के खिलाफ एक प्रतिरक्षात्मक आक्रामक गठबंधन भी बना और पुर्तगालियों को दीव में किला बनाने की इजाजत दे दी गई । इस तरह पुर्तगाली गुजरात में अपने पाँव जमाने में सफल रहे ।

जल्द ही बहादुरशाह को पुर्तगालियों को दी गई रियायत पर पछताना पड़ा । गुजरात से मुगलों के निकाले जाने के बाद उसने उस्मानी सुल्तान से फिर सहायता की गुहार की और दीव में पुर्तगाली अतिक्रमण को रोकने का प्रयास किया ।

जब बहादुरशाह और पुर्तगालियों के बीच समझौते के लिए वार्ता चल रही थी उस समय बहादुरशाह दीव के किले के गवर्नर के एक जहाज पर था वार्ता के दौरान बहादुरशाह को विश्वासघात का शक हुआ । उसके बाद हुई झड़प में पुर्तगाली गवर्नर मारा गया और तैरकर बच निकलने के प्रयास में बहादुरशाह डूब मरा । यह घटना 1536 की है ।

हालांकि उस्मानी सुल्तान इस्लाम के समर्थक थे और इसलिए पुर्तगालियों का विरोधी होने का दावा करते थे पर उन्होंने फारस की खाड़ी में या उससे आगे पुर्तगालियों की स्थिति का गंभीर विरोध नहीं किया ।

यह सब बावजूद इसके कि तुर्क मोटे तौर पर तोपखाने के विकास के साथ-साथ और कुछ कम सीमा तक पश्चिम के नौसेना विज्ञान के विकास के साथ-साथ चल रहे थे । तुर्क नौसेना पूर्वी भूमध्यसागर पर हावी थी और जिब्राल्टर से परे भी धावे बोल रही थी ।

भारतीय समुद्रों में पुर्तगालियों के खिलाफ तुर्कों ने अपनी नौसैनिक शक्ति का सबसे बड़ा प्रदर्शन 1536 में किया । उनके बेड़े में 45 बड़ी नावें थी, जिन पर 20,000 व्यक्ति थे । इनमें 7000 थल सैनिक अर्थात जानिसारी भी थे । सिकंदरिया स्थित वेनिस की गैली नावों के अनेक जहाजियों की सेवाएँ ली गईं ।

इस बेड का कमानदार 82 साल का सुलेमान पाशा था जो सुल्तान का सबसे अधिक भरोसे का व्यक्ति था और उसे काहिरा का सूबेदार नियुक्त किया गया था । इसी बेड़े ने 1538 में आकर दीव को घेर लिया ।

दुर्भाग्य से तुर्क एडमिरल ने दंभ भरा व्यवहार किया जिसके कारण गुजरात के सुल्तान ने अपना समर्थन वापस ले लिया । दो माह की घेराबंदी के बाद तुर्क बेड़ा यह खबर पाकर पीछे हट गया कि दीव कं। घेरे से निकालने के लिए एक विशाल पुर्तगाली बेड़ा आ रहा है ।

पुर्तगालियों के लिए आगे भी दो दशकों तक तुर्को का खतरा बना रहा । 1551 में पेरी रईस ने मस्कट और होर्मुज के पुर्तगाली किलों पर हमला किया उसकी सहायता कालीकट का जमोरिन कर रहा था । इस बीच दमन के शासक सै दमन छीनकर पुर्तगालियों ने अपनी स्थिति मजबूत बना ली थी ।

आखिरी उस्मानी अभियान 1554 में अली रईस के नेतृत्व में भेजा गया । इन अभियानों की असफलता के कारण अंतत: तुर्कों का रवैया बदल गया । 1566 मे पुर्तगालियों और उस्मानियों ने अरब सागर में न टकराकर मसालों और पूर्वी व्यापार में हिस्सेदारी का समझौता किया । उस्मानी फिर एक बार यूरोप पर ध्यान देने लगे । इसी कारण पुर्तगालियों के खिलाफ उभरती हुई मुगल शक्ति से उनके गठबंधन की संभावना ही नहीं रही ।

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